सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के छाछठवें अध्याय से सत्तरवें अध्याय तक (from the sixty-sixth chapter to the seventynth chapter of of the entire Mahabharata (Aadi Parv))


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

छाछठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्षष्टितम अध्‍याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"महर्षियों तथा कश्‍यप-पत्नियों की संतान-परंपरा का वर्णन"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! ब्रह्मा के मानस पुत्र छः महर्षियों के नाम तुम्हें ज्ञात हा चुके हैं। उनके सातवें पुत्र थे स्थाणु। स्थाणु के परम तेजस्वी ग्यारह पुत्र विख्यात हैं। मृगव्याध, सर्प, महायशस्वी निर्ऋति, अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, शत्रुसंतापन पिनाकी, दहन, ईश्‍वर, परम कान्तिमान कपाली, स्थाणु और भगवान भव- ये ग्यारह रुद्र माने गये हैं। मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलत्स्य पुलह और क्रतु- ये ब्रह्मा जी के छः बड़े शक्तिशाली महर्षि हैं। अंगिरा के तीन पुत्र हुए, जो लोक में सर्वत्र विख्यात हैं। उनके नाम ये हैं- बृहस्पति, उतथ्य और संवर्त! ये तीनों ही उत्तम व्रत धारण करने वाले हैं। मनुजेश्‍वर! अत्रि के बहुत-से पुत्र सुने जाते हैं। ये सब-के-सब वेदवेत्ता, सिद्व और शान्तचित्त महर्षि हैं। परश्रेष्ठ! बुद्धिमान पुलस्त्य मुनि के पुत्र राक्षस, बानर, किन्नर तथा यक्ष हैं।

राजन! पुलह के शरभ, सिंह, किम्पुरुष, व्याघ्र, रीछ और ईहामृग (भेड़िया) जाति के पुत्र हुए। क्रतु (यज्ञ) के पुत्र क्रतु ही समान पवित्र, तीनों लोकों में विख्यात, सत्यवादी, व्रतपरायण तथा भगवान सूर्य के आगे चलने वाले साठ हजार वालखिल्य ऋषि हुए। भूमिपाल! ब्रह्मा जी के दाहिने अंगूठे से महातपस्वी शान्तचित्त महर्षि भगवान दक्ष उत्पन्न हुए। इसी प्रकार उन महात्मा के बायें अंगूठे से उनकी पत्नी का प्रादुर्भाव हुआ। महर्षि ने उसके गर्भ से पचास कन्याऐं उत्पन्न कीं। ये सभी कन्याऐं परमसुन्दर अंगों वाली तथा विकसित कमल के सदृश विशाल लोचनों से सुशोभित थीं। प्रजापति दक्ष के पुत्र जब नष्ट हो गये, तब उन्होंने अपनी उन कन्याओं को पुत्रिका बनाकर रखा (और उनका विवाह पुत्रिका धर्म के अनुसार ही किया।)

 राजन! दक्ष ने दस कन्याऐं धर्म को, सत्ताईस कन्याऐं चन्द्रमा को और तेरह कन्याऐं महर्षि कश्‍यप को दिव्य विधि के अनुसार समर्पित कर दीं। अब मैं धर्म की पत्तिनयों के नाम बता रहा हूं, सुनो- कीर्ति, लक्ष्मी, धृति, मेघा, पुष्टि, श्रद्धा, क्रिया, बुद्वि, लज्जा और मति- ये धर्म की दस पत्नियां हैं। स्वयंभू ब्रह्मा जी ने इन सब को धर्म का द्वार निश्चित किया है अर्थात इनके द्वारा धर्म में प्रवेश होता है।

  चन्द्रमा की सत्ताईस स्त्रियां समस्त लोकों में विख्यात हैं। वे पवित्र व्रत धारण करने वाली सोमपत्नियां काल-विभाग का ज्ञापन करने में नियुक्त हैं। लोक-व्यवहार निर्वाह करने के लिये वे सब-की-सब नक्षत्र-वाचक नामों से युक्त हैं। पितामह ब्रह्मा जी के स्तन से उत्पन्न होने के कारण मुनिवर धर्मदेव उनके पुत्र माने गये हैं। प्रजापति दक्ष भी ब्रह्मा जी के ही पुत्र हैं। दक्ष की कन्याओं के गर्भ से धर्म के आठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिन्हें वसुगण कहते हैं। अब मैं वसुओं का विस्तारपूर्वक परिचय देता हूँ। धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्यूष और प्रभास- ये आठ वसु कहे गये हैं। धर और ब्रह्मवेत्ता ध्रुव धूम्रा के पुत्र हैं। चन्द्रमा मनस्विनी के और अनिल श्वासा के पुत्र हैं। अह रता के और अनल शाण्डिली के पुत्र हैं और प्रत्युष और प्रभास ये दोनों प्रभाता के पुत्र बताये गये हैं। धर के दो पुत्र हुए द्रविण और हुतहव्यवह। सब लोकों को अपना ग्रास बनाने वाले भगवान काल ध्रुव के पुत्र हैं। सोम के मनोहर नामक स्त्री के गर्भ से प्रथम तो वर्चा नामक पुत्र हुआ, जिससे लोग वर्चस्वी (तेज, कान्ति और पराक्रम से सम्पन्न) होते हैं, फिर शिशिर, प्राण तथा रमण नामक पुत्र उत्पन्न हुए।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्षष्टितम अध्‍याय के श्लोक 23-42 का हिन्दी अनुवाद)

अह के चार पुत्र हुए- ज्योति, शम, शान्त तथा मुनि। अनल के पुत्र श्रीमान् कुमार (स्कन्द) हुए, जिनका जन्मकाल में सरकंडों के वन में निवास था। शाख, विशाख और नैगमेय - ये तीनों कुमार के छोटे भाई हैं। छः कृत्तिकाओं को माता रूप में स्वीकार कर लेने के कारण कुमार का दूसरा नाम कार्तिकेय भी है। अनिल की भार्या का नाम शिवा है। उसके दो पुत्र हैं- मनोजव तथा अविज्ञातगति। इस प्रकार अनिल के दो पुत्र कहे गये हैं। देवल नामक सुप्रसिद्ध मुनि को प्रत्यूष का पुत्र माना जाता है। देवल के भी दो पुत्र हुए। वे दोनों ही क्षमावान् और मनीषी थे।

   बृहस्पति की बहिन स्त्रियों में श्रेष्ठ एवं ब्रह्मावादिनी थीं। वे योग में तत्पर हो सम्पूर्ण जगत् में अनासक्त भाव से विचरती रहीं। वे ही वसुओं में आठवे वसु प्रभास की धर्मपत्नी थीं। शिल्पकर्म के ब्रह्मा महाभाग विश्‍वकर्मा उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं। वे सहस्रों शिल्पों के निर्माता तथा देवताओं के बढ़ई कहे जाते हैं। वे सब प्रकार के आभूषणों को बनाने वाले और शिल्पियों में श्रेष्ठ हैं। उन्होंने देवताओं के असंख्य दिव्य विमान बनाये हैं। मनुष्य भी महात्मा विश्‍वकर्मा के शिल्प का आश्रय ले जीवन निर्वाह करते हैं और सदा उन अविनाशी विश्‍वकर्मा की पूजा करते हैं। ब्रह्मा जी के दाहिने स्तन को विदीर्ण करके मनुष्य रूप में भगवान धर्म प्रकट हुए, जो सम्पूर्ण लोकों को सुख देने वाले हैं। उनके तीन श्रेष्ठ पुत्र हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियों के मन को हर लेते हैं। उनके नाम हैं- शम, काम और हर्ष। वे अपने तेज से सम्पूर्ण जगत् को धारण करने वाले हैं। काम की पत्नी का नाम रति है। शम की भार्या प्राप्ति है। हर्ष की पत्नी नन्दा है। इन्हीं में सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं। मरीचि के पुत्र कश्‍यप और कश्‍यप के सम्पूर्ण देवता और असुर उत्पन्न हुए। नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार कश्‍यप सम्पूर्ण लोकों के आदि कारण हैं। त्वष्टा की पुत्री संज्ञा भगवान सूर्य की धर्मपत्नी है। वे परम सौभाग्वती हैं।

   उन्होंने अश्विनी (घोड़ी) का रूप का धारण करके अंतरिक्ष में दोनों अश्विनीकुमारों को जन्म दिया। राजन! अदिति के इन्द्र आदि बारह आदि पुत्र ही हैं। उनमें भगवान विष्णु सबसे छोटे हैं जिनमें ये सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। 

  इस प्रकार आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य तथा प्रजापति और वसठकार हैं, ये तैंतीस मुख्य देवता हैं। अब मैं तुम्हे इनके पक्ष और कुल आदि के उल्लेखपूर्वक वंश और गण आदि का परिचय देता हूँ। रुद्रों का एक अलग पक्ष या गण है, साध्य, मरुत तथा वसुओं का भी पृथक-पृथक गण है। इसी प्रकार भार्गव तथा विश्‍वेदव गण को भी जानना चाहिये। विनतानन्दन गरुड़, बलवान अरुण तथा भगवान बृहस्पति की गणना आदित्यों में ही की जाती है। अश्विनीकुमार, सर्वोषधि तथा पशु इन सबको गुह्यक समुदाय के भीतर समझो। राजन! ये देवगण तुम्हें क्रमश: बताये गये हैं। मनुष्य इन सबका कीर्तन करके सब पापों से मुक्त हो जाता है। भगवान भृगु ब्रह्मा जी के हृदय का भेदन करके प्रकट हुए थे। भृगु के विद्वान पुत्र कवि हुए और कवि के पुत्र शुक्राचार्य हुए, जो ग्रह होकर तीनों लोकों के जीवन की रक्षा के लिये वृष्टि, अनावृष्टि तथा भय और अभय उत्पन्न करते हैं। स्वयंभू ब्रह्मा जी की प्रेरणा से समस्त लोकों का चक्कर लगाते रहते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्षष्टितम अध्‍याय के श्लोक 43-63 का हिन्दी अनुवाद)

महाबुद्धिमान शुक्र ही आचार्य और दैत्यों के गुरु हुए। वे ही योगबल से मेधावी, ब्रह्मचारी एवं व्रतपरायण बृहस्पति के रूप में प्रकट हो देवताओं के भी गुरु होते हैं। ब्रह्मा जी ने जब भृगुपुत्र श्रुक को जगत् के योगक्षेम के कार्य में नियुक्त कर दिया, तब महर्षि भृगु ने एक दूसरे निर्दोष पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम था च्यवन। महर्षि च्यवन की तपस्या सदा उद्दीप्त रहती है। वे धर्मात्मा और यशस्वी हैं। भारत! वे अपनी माता को संकट से बचाने के लिये रोषपूर्वक गर्भ से च्युत हो गये थे (इसलिये च्यवन कहलाये)। मनु की पुत्री आरूशि महर्षि च्यवन मुनि की पत्नी थी। उससे महायशस्वी और्व मुनि का जन्म हुआ। वे अपनी माता की ऊरू (जांघ) फाड़कर प्रकट हुए थे; इसलिये और्व कहलाये। वे महान् तेजस्वी और अत्यन्त शक्तिशाली थे। बचपन में ही अनेक सद्गुण उनकी शोभा बढ़ाने लगे। और्व के पुत्र ऋचीक तथा ऋचीक के पुत्र जमदग्नि हुए। महात्मा जमदग्नि के चार पुत्र थे, जिनमें परशुराम जी सबसे छोटे थे; किन्तु उनके गुण छोटे नहीं थे; वे श्रेष्ठ सद्गुणों से विभूषित थे। सम्पूर्ण शस्त्र विद्या में कुशल, क्षत्रिय कुल का संहार करने वाले तथा जितेन्द्रिय थे। और्व मुनि के जमदग्नि आदि सौ पुत्र थे। फिर उनके भी सहस्रों पुत्र हुए। इस प्रकार इस पृथ्वी पर भृगु वंश का विस्तार हुआ। ब्रह्मा जी के दो और पुत्र थे जिनका धारण-पोषण और सृष्टि रूप लक्षण लोक में सदा ही उपलब्ध होता है। उनके नाम हैं धाता और विधाता। ये मनु के साथ रहते हैं। कमलों में निवास करने वाली शुभस्वरूप लक्ष्मी देवी उन दोनों की बहिन है। आकाश में विचरने वाले अश्‍व लक्ष्मी देवी मानस पुत्र हैं। राजन! वरुण के बीज से उनकी ज्येष्ठ पत्नी देवी ने एक पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया।

  उसके पुत्र को तो बल और देवनन्दिनी पुत्री को सुरा समझो। तदनन्तर एक समय ऐसा आया जब प्रजा भूख से पीड़ित हो भोजन की इच्छा से एक-दूसरे को मारकर खाने लगी, उस समय वहाँ अधर्म प्रकट हुआ, जो समस्त प्राणियों का नाश करने वाला है। अधर्म की स्त्री निर्ऋृति हुई, जिसने नैर्ऋृत नाम वाले तीन भयंकर राक्षस पुत्र उत्पन्न हुए जो सदा पापकर्म में ही लगे रहने वाले हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- भय, महाभय और मृत्यु। उनमें मृत्यु समस्त प्राणियों का अन्त करने वाला है। उसके पत्नी या पुत्र कोई नहीं है; क्योंकि वह सबका अन्त करने वाला है। देवी ताम्रा ने काकी, श्येनी, भाषी, धृतराष्ट्री तथा शुकी इन पांच लोक विख्यात कन्याओं को उत्पन्न किया। जनेश्‍वर! काकी ने उल्लुओं और श्येनी बाजों को जन्म दिया; भाषी को मुर्गों तथा गीधों का उत्पन्न किया। कल्याणमयी धृतराष्ट्री ने सब प्रकार के हंसों, कलहंसों तथा चक्रवाकों को जन्म दिया। कल्याणमय गुणों से सम्पन्न तथा समस्त शुभलक्षणों से युक्त यशस्विनी शुकी ने शकों (तोतों) को ही उत्पन्न किया। क्रोधवशा ने नौ प्रकार के क्रोधजनित कन्याओं को जन्म दिया। उनके नाम ये है- मृगी, मृगमन्दा, हरि, भद्रमना, मातंगी, सार्दुली, स्वेता, सुरभि तथा सम्पूर्ण लक्षणों से सम्पन्न सुन्दरी सुरसा। नरश्रेष्ठ! समस्त मृग मृगी की संताने हैं। परमतप! मृगमन्दा से रीछ तथा सृमर (छोटी जाति के मृग) उत्पन्न हुए। भद्रमना ने ऐरावत हाथी को अपने पुत्र रूप में उत्पन्न किया। देवताओं का हाथी महान गजराज ऐरावत भद्रमना का ही पुत्र है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्षष्टितम अध्‍याय के श्लोक 64-72 का हिन्दी अनुवाद)

राजन! तुम्हारा कल्याण हो, वेगवान घोड़े और वानर हरि के पुत्र हैं। गाय के समान पूंछ वाले लंगूरों को भी हरी का ही पुत्र बताया जाता है। शार्दुली ने सिंहों, अनेक प्रकार के बाघों और महान बलशाली सभी प्रकार के चीतों को भी जन्म दिया, इसमें संशय नहीं है। नरेश्‍वर! मातंगी ने मतवाले हाथियों को संतान के रूप में उत्पन्न किया। श्वेता ने शीघ्रगामी दिग्गज श्वेत को जन्म दिया। राजन! तुम्हारा भला हो, सुरभि ने दो कन्याओं को उत्पन्न किया। उनमें से एक का नाम रोहिणी तथा दूसरे का नाम गन्धर्वी। गन्धर्वी बड़ी यशस्विनी थी। भारत! तत्पश्‍चात रोहिणी ने विमला और अनला नाम वाली दो कन्याऐं और उत्पन्न की।

रोहिणी से गाय-बैल और गन्धर्वी से घोड़े ही पुत्र रूप में उत्पन्न्न हुए। अनला ने सात प्रकार के वृक्षों को उत्पन्न किया, जिनमें पिण्डाकार फल लगते हैं। अनला के शुकी नाम की एक कन्या भी हुई कंक पक्षी सुरसा का पुत्र है। अरुण की पत्नी श्येनी ने दो महाबली और पराक्रमी पुत्र उत्पन्न किये एक का नाम था सम्पाती और दूसरे का जटायु बड़ा शक्तिशाली था। सुरसा और कद्रु ने नाग और पन्नग जाति के पुत्रों को उत्पन्न किया। विनता के दो ही पुत्र विख्यात हैं, गरुड़ और अरुण। सुरसा ने एक सौ एक सिर वाले सर्पों को जन्म दिया था। सुरसा से तीन कमलनयनी कन्याऐं उत्पन्न हुई जो वनस्पतियों, वृक्षों और लता-गुल्मों की जननी हुई। उनके नाम इस प्रकार है- अनला, रुहा और विरुधा।

जो वृक्ष बिना फूल के ही फल ग्रहण करते हैं उन सबको अनला का पुत्र जानना चाहिये; वे ही वनस्पति कहलाते हैं। प्रभो! जो फूल से फल ग्रहण करते हैं उन वृक्षों को रूहा की संतान समझो। लता, गुल्म, बल्ली, बाँस और तिनकों की जितनी जातियां उन सबकी उत्पत्ति विरूधा से हुई है। यहाँ वंश वर्णन समाप्त होता है। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ राजा जनमेजय! इस प्रकार मैंने सम्पूर्ण महाभूतों की उत्पत्ति का भलि-भाँति वर्णन किया है। जिसे अच्छी तरह सुनकर मनुष्य सब पापों से पूर्णतः मुक्त हो जाता है और सर्वज्ञता तथा उत्तम गति प्राप्त कर लेता है।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में अंशावतरण-विषयक छाछठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

सड़ठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 1-40 का हिन्दी अनुवाद)

"देवता और दैत्य आदि के अंशावतारों का दिग्दर्शन"

जनमेजय ने कहा ;- भगवन्! मैं मनुष्ययोनि में अंशतः उत्पन्न हुए देवता, दानव, गन्धर्व, नाग, राक्षस, सिंह, व्याघ्र, हरिण, सर्प, पक्षी, एवं सम्पूर्ण भूतों के जन्म का वृत्तान्त यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूँ। मनुष्यों में जो महात्मा पुरुष हैं, उनके तथा इन सभी प्राणियों के जन्म-कर्म का क्रमश: वर्णन सुनना चाहता हूँ। वैशम्पायन जी बोले- नरेन्द्र! मनुष्यों में जो देवता और दानव प्रकट हुए थे, उन सबके जन्म का ही पहले दानवों का राजा था, वही मनुष्यों में श्रेष्ठ जरासन्ध नाम से विख्यात हुआ। राजन! हिरण्यकशिपु नाम से प्रसिद्ध जो दिति का पुत्र था, वही मनुष्यों में नरश्रेष्ठ शिशुपाल के रूप में उत्पन्न हुआ। प्रह्लाद का छोटा भाई जो संह्राद के नाम से विख्यात था, वही बाह्लीक देश का सुप्रसिद्ध राजा शल्य हुआ।

   प्रह्लाद का ही दूसरा छोटा भाई जिसका नमा अनुह्राद था, धृतकेतु नामक राजा हुआ। राजन! जो शिवि नाम का दैत्य कहा गया है, वही इस पृथ्वी पर द्रुम नाम से विख्यात राजा हुआ। असुरों में श्रेष्ठ जो वाष्कल था, वही नरेश्रेष्ठ भगदत्त के नाम से उत्पन्न हुआ। अयःशिरा, अश्वशिरा, वीर्यवान्, अयःशंकु, गननमूर्धा और वेगवान। राजन! ये पांच पराक्रमी महादैत्य कैकय देश के प्रधान-प्रधान महात्मा राजाओं के रूप में उत्पन्न हुए। उनसे भिन्न केतुमान नाम से प्रसिद्ध प्रतापी महान् असुर अमितौजा नाम से विख्यात राजा हुआ, जो भयानक कर्म करने वाला था। स्वर्भानु नाम वाला जो श्रीसम्पन्न महान् असुर था, वही भयंकर कर्म करने वाला राजा उग्रसेन कहलाया। अश्‍व नाम से विख्यात जो श्रीसम्पन्न महान् असुर था, वही किसी से परास्त न होने वाला महापराक्रमी राजा अशोक हुआ। राजन! उसका छोटा भाई जो अश्‍वपति नामक दैत्य था, वहाँ मनुष्यों में श्रेष्ठ हार्दिक्य नाम वाला राजा हुआ।

   वृषपर्वा नाम से प्रसिद्ध जो श्रीमान् महादैत्य था, वह पृथ्वी पर दीर्घप्रज्ञ नामक राजा हुआ। राजन! वृषपर्वा का छोटा भाई जो अजक था, वही इस भूमण्डल में शाल्व नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ। अश्‍वग्रीव नाम वाला जो धैर्यवान् महादैत्य था, वह पृथ्वी पर रोचमान नाम से विख्यात राजा हुआ। राजन! बुद्धिमान और यशस्वी सूक्ष्म नाम से प्रसिद्ध जो दैत्य कहा गया है, वह इस पृथ्वी पर बृहद्रथ नाम से विख्यात राजा हुआ। असुरों में श्रेष्ठ जो तुहुण्ड नामक दैत्य था, वही यहाँ सेनाबिन्दु नाम से विख्यात राजा हुआ। असुरों के समाज में जो सबसे अधिक बलवान था, वह इषुपाद नामक दैत्य इस पृथ्वी पर विख्यात पराक्रमी नग्नजित नामक राजा हुआ। एकचक्र नाम से प्रसिद्ध जो महान् असुर था, वही इस पृथ्वी पर प्रतिविन्ध्य नाम से विख्यात राजा हुआ। विचित्र युद्ध करने वाला महादैत्य विरूपाक्ष इस पृथ्वी पर चित्रधर्मा नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ।

   शत्रुओं का संहार करने वाला जो वीर दानवश्रेष्ठ हर था, वही सुबाहु नामक श्रीसम्पन्न राजा हुआ। शत्रुपक्ष का विनाश करने वाला महातेजस्वी अहर इस भूमण्डल में बाह्लिक नाम से विख्यात राजा हुआ। चन्द्रमा के समान सुन्दर मुख वाला जो असुरश्रेष्ठ निचन्द्र था, वही मुंजकेष नाम से विख्यात श्रीसम्पन्न राजा हुआ। परमबुद्धिमान निकुम्भ जो युद्ध में अजेय था, वह इस भूमि पर भूपालों में श्रेष्ठ देवाधिप कहलाया। दैत्यों में जो शरभ नाम से प्रसिद्ध महान् असुर था, वही मनुष्यों में श्रेष्ठ राजर्षि पौरव हुआ। राजन! महापराक्रमी महान् असुर कुपट ही इस पृथ्वी पर राजा सुपार्श्‍व के रूप में उत्पन्न हुआ। महाराज! महादैत्य क्रथ इस पृथ्वी पर राजर्षि पार्वतेय के नाम से उत्पन्न हुआ, उसका शरीर मेरु पर्वत के समान विशाल था। असुरों में शलभ नाम से प्रसिद्ध जो दूसरा दैत्य था, वह वाह्लीकवंशी राजा प्रह्लाद हुआ। दैत्यश्रेष्ठ चन्द्र इस लोक में चन्द्रमा के समान सुन्दर और चन्द्रवर्मा नाम से विख्यात काम्बोज देश का राजा हुआ।

  अर्क नाम से विख्यात जो दानवों का सरदार था, वही नरपतियों में श्रेष्ठ राजर्षि ऋषिक हुआ। नृपशिरोमणे! मृतपा नाम से प्रसिद्ध जो श्रेष्ठ असुर था, उसे पश्चिम अनूप देश का राजा समझो। गविष्ठ नाम से प्रसिद्ध जो महातेजस्वी असुर था, वही इस पृथ्वी पर द्रुमसेन नामक राजा हुआ। मयूर नाम से प्रसिद्ध जो श्रीमान् एवं महान् असुर था वही विश्‍व नाम से विख्यात राजा हुआ। मयूर का छोटा भाई सुपर्ण ही भूमण्डल में कालकीर्ति नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ। दैत्यों में जो चन्द्रहन्ता नाम से प्रसिद्ध श्रेष्ठ असुर कहा गया है, वही मनुष्यों का स्वामी राजर्षि शुनक हुआ। इसी प्रकार जो चन्द्रविनाशन नामक महान् असुर बताया गया है, वही जानकि नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! दीर्घजिह्व नाम से प्रसिद्ध दानवराज ही इस पृथ्वी पर काशिराज के नाम से विख्यात था। सिंहिका ने सूर्य और चन्द्रमा का मान मर्दन करने वाले जिस राहु नामक ग्रह को जन्म दिया था, वही यहाँ क्राथ नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 41-68 का हिन्दी अनुवाद)

  दनायु के चार पुत्रों में जो सबसे बड़ा है, वह विक्षर नामक तेजस्वी असुर यहाँ राजा वसुमित्र बताया गया है। नराधिप! विक्षर से छोटा उसका दूसरा भाई बल, जो असुरों का राजा था, पाण्ड्य देश का सुविख्यात राजा हुआ। महाबली बीरनाम से विख्यात जो श्रेष्ठ असुर (विक्षर का तीसरा भाई) था, पौण्ड्रमात्स्यक नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ। राजन! जो वृत्र नाम से विख्यात (और विक्षर का चौथा भाई) महान् असुर था, वही पृथ्वी पर राजर्षि मनिमान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। क्रोधहन्ता नामक असुर जो उसका छोटा भाई (काला के पुत्रों में तीसरा) था, वह इस पृथ्वी पर दण्ड नाम से विख्यात नरेश हुआ। क्रोधवर्धन नामक जो दूसरा दैत्य कहा गया है, वह मनुष्यों में श्रेष्ठ दण्डधार नाम से विख्यात हुआ। नरश्रेष्ठ! कालेय नामक दैत्यों के जो पुत्र थे उनमें से आठ इस पृथ्वी पर सिंह के समान पराक्रमी राजा हुए। उन आठों कालेयों में श्रेष्ठ जो महान असुर था, वही मगध देश में जयत्सेन नामक राजा हुआ।

   उन कालेयों में से जो दूसरा इन्द्र के समान श्रीसम्पन्न था, वही अपराजित नामक राजा हुआ। तीसरा जो महान तेजस्वी और महामायावी महादैत्य था, वह इस पृथ्वी पर भयंकर पराक्रमी निषाद नरेश के रूप में उत्पन्न हुआ। कालेयों में से ही एक जो चौथा बताया गया है, वह इस भूमण्डल में राजर्षिप्रवर श्रेणिमान के नाम से विख्यात हुआ। कालेयों में पांचवा श्रेष्ठ महादैत्य था, वही इस लोक में शत्रुतापन महौजा के नाम से विख्यात हुआ। उन कालेयों में जो छठा असुर था वह भूमण्डल में राजर्षि शिरोमणि अभीरू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्हीं में से सातवां असुर राजा समुद्रसेन हुआ जो समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर सब ओर विख्यात और धर्म एवं अर्थ तत्त्व का ज्ञाता था। राजन! कालेयों में जो आठवां था, वह वृहत् नाम से प्रसिद्ध सर्वभूतहितकारी धर्मात्मा राजा हुआ। महराज! दानवों में कुक्षिनाम से प्रसिद्ध जो महाबली राजा था, वह पार्वतीय नामक राजा हुआ; जो मेरुगिरी के समान तेजस्वी एवं विशाल था।

   महापराक्रमी क्रथन नामक जो श्रीसम्पन्न महान असुर था, वह भूमण्डल में पृथ्वीपति राजा सूर्याक्ष नाम से उत्पन्न हुआ। असुरों में जो सूर्य नामक श्रीसम्पन्न महान असुर था, वह पृथ्वी पर सब राजाओं में श्रेष्ठ दरद नामक बाह्लीकराज हुआ। राजन! क्रोधवश नामक जिन असुरगणों का तुम्हें परिचय दिया है, उन्हीं में से कुछ लोग इस पृथ्वी पर निम्नांकित वीर राजाओं के रूप में उत्पन्न हुए। मद्रक, कर्णवेष्ट, सिद्वार्थ, कीटक, सुवीर, सुबाहु, महाबीर, बाह्लिक, क्रथ, विचित्र, सुरथ, श्रीमान् नील नेरश, चैरवासा, भूमिपाल, दन्तवक्त्र , दानव दुर्जय, नृपश्रेष्ठ रुक्मी, राजा जनमेजय, आषाढ, वायुवेग, भूरितेजा, एकलव्य, सुमित्र, बाटधान, गोमुख, करूषदेश के अनेक राजा, क्षेमधूर्ति, श्रुतायु, उदूह, बृहत्सेन, क्षेम, उग्रतीर्थ, कलिंग नरेश कुहर तथा परम बुद्धिमान् मनुष्यों का राजा ईश्‍वर। इतने राजाओं का समुदाय पहले इस पृथ्वी पर क्रोधवश नामक दैत्यगण से उत्पन्न हुआ था। ये सब राजा परम सौभाग्यशाली, महान् यशस्वी और अत्यन्त बलशाली थे। दानवों में जो महाबली कालनेमि था, वही राजा उग्रसेन के पुत्र बलवान कंस के नाम से विख्यात हुआ। इन्द्र के समान कान्तिमान् राजा देवक के रूप में इस पृथ्वी पर श्रेष्ठ गन्धर्वराज ही उत्पन्न हुआ था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 69-92 का हिन्दी अनुवाद)

  भारत! महान कीर्तिशाली देवर्षि बृहस्पति के अंश से अयोनिज भरद्वाजनन्दन द्रोण उत्पन्न हुए, यह जान लो। नृपश्रेष्ठ! राजा जनमेजय! आचार्य द्रोण समस्त धनुर्धर वीरों में उत्तम और सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता थे। उनकी कीर्ति बहुत दूर तक फैली हुई थी। वे महान् तेजस्वी थे। वेदवेत्ता विद्वान द्रोण को धनुर्वेद और वेद दोनों में सर्वश्रेष्ठ मानते थे। ये विचित्र कर्म करने वाले तथा अपने कुल की मर्यादा को बढ़ाने वाले थे। भारत! उनके यहाँ महादेव, यम, काम और क्रोध के सम्मिलित अंश से शत्रुसंतापी शूरवीर अश्‍वत्थामा का जन्म हुआ, जो इस पृथ्वी पर महापराक्रमी और शत्रुपक्ष का संहार करने वाला वीर था। राजन! उसके नेत्र कमलदल के समान विशाल थे। महर्षि वशिष्ठ के शाप और इन्द्र के आदेश से आठों वसु गंगा जी के गर्भ से राजा शान्तनु के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। उनमें सबसे छोटे भीष्म थे, जिन्होंने कौरव वंश को निर्भय बना दिया था। वे परम बुद्धिमान, वेदवत्ता, वक्ता तथा शत्रुपक्ष का संहार करने बाले थे। सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के विद्वानों में श्रेष्ठ महातेजस्वी भीष्म ने भृगुवंशी महात्मा जमदग्निनन्दन परशुराम जी के साथ युद्ध किया था।

महाराज! जो कृप नाम से प्रसिद्ध ब्रह्मर्षि इस पृथ्वी पर प्रकट हुए थे, उनका पुरुषार्थ असीम था। उन्हें रुद्रगण के अंश से उत्पन्न हुआ समझो। राजन! जो इस जगत में महारथी राजा शकुनि के नाम से विख्यात था, उसे तुम द्वापर के अंश से उत्पन्न हुआ मानो। वह शत्रुओं का मान-मर्दन करने वाला था। वृष्णि वंश का भार वहन करने वाले जो सत्यप्रतिज्ञ शत्रुमर्दन सात्यकि थे, वे मरुत देवताओं के अंश से उत्पन्न हुए थे। राजा जनमेजय! सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ राजर्षि द्रुपद भी इस मनुष्य लोक में उस मरुद्गण से ही उत्पन्न हुए थे। महाराज! अनुपम कर्म करने वाले, क्षत्रियों में श्रेष्ठ राजा कृतवर्मा को भी तुम मरुद्गणों से ही उत्पन्न मानो। शत्रुराष्ट्र को संताप देने वाले शत्रुमर्दन राजा विराट को भी मरुद्गणों से उत्पन्न समझो। अरिष्टा का पुत्र जो हंस नाम से विख्यात गन्धर्वराज था, वही कुरुवंश की वृद्धि करने वाले व्यासनन्दन धृतराष्ट्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। धृतराष्ट्र की बाँहें बहुत बड़ी थीं। वे महातेजस्वी नरेश प्रज्ञाचक्षु (अंधे) थे, वे माता के दोष और महर्षि के क्रोध से अंधे ही उत्पन्न हुए। उन्हीं के छोटे भाई महान् शक्तिशाली महाबली पाण्डु के नाम से विख्यात हुए। वे सत्यधर्म में तत्पर और पवित्र थे।

पुत्रवानों में श्रेष्ठ और बुद्धिमानों में उत्तम परमसौभाग्यशाली विदुर को तुम इस लोक में सूर्यपुत्र धर्म के अंश से उत्पन्न हुआ समझो। खोटी बुद्धि और दूषित विचार वाले कुरुकुल कलंक राजा दुर्योधन के रूप में इस पृथ्वी पर कलि का अंश ही उत्पन्न हुआ था। राजन! वह कलिस्वरूप पुरुष सबका द्वेष पात्र था। उसने सारी पृथ्वी के वीरों को लड़ाकर मरवा दिया था। उसके द्वारा प्रज्वलित की हुई वैर की भारी आग असंख्य प्राणियों के विनाश का कारण बन गयी। पुलस्त्य कुल के राक्षस भी मनुष्यों में दुर्योधन के भाइयों के रूप में उत्पन्न हुए थे। उसके दुःशासन आदि सौ भाई थे। वे सभी क्रूरतापूर्ण कर्म किया करते थे। दुर्मुख, दुःसह तथा अन्य कौरव जिनका नाम यहाँ नहीं लिया गया है, दुर्योधन के सहायक थे। भरतश्रेष्ठ! धृतराष्ट्र के सब पुत्र पूर्व जन्म के राक्षस थे। धृतराष्ट्र-पुत्र युयुत्सु वैश्‍य जातीय स्त्री से उत्पन्न हुआ था। वह दुर्योधन आदि सौ भाइयों के अतिरक्ति था। जनमेजय ने कहा- प्रभु! धृतराष्ट्र के जो सौ पुत्र थे, उनके नाम मुझे बड़े-छोटे के क्रम से एक-एक करके बताइये।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 93-115 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्पायन जी बोले ;- राजन! सुनो- 1 दुर्योधन, 2 युयुत्सु, 3 दुःशासन, 4 दुःसह, 5 दु:शल, 6 दुर्मुख, 7 विविंशति, 8 विकर्ण, 9 जलसंध, 10 सुलोचन, 11 विन्द, 12 अनुविन्द, 13 दुर्धर्ष, 14 सुबाहु, 15 दुष्प्रधर्षण, 16 दुभर्षण, 17 दुर्मुख, 18 दुष्कर्ण, 19 कर्ण, 20 चित्र, 21 उपचित्र, 22 चित्राक्ष, 23 चारू, 24 चित्रांगद, 25 दुर्मद, 26 दुष्पधर्ष, 27, विवित्सु, 28, विकट, 29 सम, 30 ऊर्णनाभ, 31 पद्यनाभ, 32 नन्द, 33 उपनन्द, 34 सेनापति, 35 सुषेण, 36 कुण्डोदर, 37 महोदर, 38 चित्रवाहु, 39 चित्रवर्मा, 40 सुवर्मा, 41 दुर्विरोचन, 42 अयोबाहु, 43 महाबाहु, 44 चित्रचाक, 45 सुकुण्डल, 46 भीमवेग, 47 भीमबल, 48 बलाकी, 49 भीम, 50 विक्रम, 51 उग्रायुध, 52 भीमसर, 53 कनकायु, 54 धड़ायुध, 55 दृढवर्मा, 56 दृढक्षत्र, 57 सोमकीर्ति, 58 अनूदर, 59 जरासंध, 60 दृढसंध, 61 सत्यसंध, 62 सहस्रवाक, 63 उग्रश्रवा, 64 उग्रसेन, 65 क्षेममूर्ति, 66 अपराजित, 67 पण्डितक, 68 विशालाक्ष, 69 दुराधन, 70 दृढहस्थ, 71 सुहस्थ, 72 वातवेग, 73 सुवर्चा, 74 आदित्यकेतु, 75 बहाशी, 76 नागदत्त, 77 अनुयायी, 78 कवची, 79 निसंगी, 80 दण्डी, 81 दण्डधार, 82 धर्नुग्रह, 83 उग्र, 84 भीमरथ, 85 वीर, 86 वीरबाहु, 87 अलोलुप, 88 अभय, 89 रौद्रकर्मा, 90 दृढरथ, 91 अनाधृष्य, 92 कुण्डभेदी, 93 विरावी, 94 दीर्घलोचन, 95 दीर्घबाहु, 96 महाबाहु, 97 व्यूढोरू, 98 कनकांगद, 99 कुण्डज, 100 चित्रक - ये धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे। इनके सिवा दुःशला नाम की एक कन्या थी।

   धृतराष्ट्र का वह पुत्र जिसका नाम युयुत्सु था वैश्‍या के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। वह दुर्योधन आदि सौ पुत्रों से अतिरिक्त था। राजन्! इस प्रकार धृतराष्ट्र के एक सौ एक पुत्र तथा एक कन्या बताई गयी है। इनके नामों का जो क्रम दिया गया है, उसी के अनुसार विद्वान पुरुष इन्हें जेठा और छोटा समझते हैं। धृतराष्ट्र के सभी पुत्र उत्कृष्ठ रथी, शूरवीर और युद्ध की कला में कुशल थे। राजन्! वे सब-के-सब वेदवेत्ता, शास्त्रों के पारंगत विद्वान, संग्राम विद्या में प्रवीण तथा उत्तम विद्या और उत्तम कुल से सुशोभित थे। भूपाल! उन सबका सुयोग्य स्त्रियों के साथ विवाह हुआ था। महाराज! कुरुराज दुर्योधन ने समय आने पर शकुनि की सलाह से अपनी बहिन दुःशला का विवाह सिन्धु देश के राजा जयद्रथ के साथ कर दिया। जनमेजय! राजा युधिष्ठिर को तो तुम धर्म का अंश जानो। भीमसेन को वायु का और अर्जुन को देवराज इन्द्र का अंश जानो। रूप-सौन्दर्य की दृष्टि से इस पृथ्वी पर जिनकी समानता करने वाला कोई नहीं थी, वे समस्त प्राणियों का मन मोह लेने वाले नकुल और सहदेव अश्विनीकुमारों के अंश से उत्पन्न हुए थे। वर्चा नाम से विख्यात जो चन्द्रमा का प्रतापी पुत्र था वही महायशस्वी अर्जुनकुमार अभिमन्यु हुआ। जनमेजय! उसके अवतार काल में चन्द्रमा ने देवताओं से इस प्रकार कहा- ‘मेरा पुत्र मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है, अतः मैं इसे अधिक दिनों के लिये नहीं दे सकता। इसलिये मृत्युलोक में इसके रहने की कोई अवधि निश्चित कर दी जाये। फिर उस अवधि का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। पृथ्वी पर असुरों का वध करना देवताओं का कार्य है और वह हम सबके लिये करने योग्य है। अतः उस कार्य की सिद्धि के लिये यह वर्चा भी वहाँ अवश्‍य जायेगा। परन्तु दीर्घकाल तक वहाँ नहीं रह सकेगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 116-134 का हिन्दी अनुवाद)

  भगवान नर, जिनके सखा भगवान नारायण हैं, इन्द्र के अंश से भूतल में अवतीर्ण होंगे। वहाँ उनका नाम अर्जुन होगा और वे पाण्डु के प्रतापी पुत्र माने जायेंगे। श्रेष्ठ देवगण! पृथ्वी पर यह वर्चा उन्हीं अर्जुन का पुत्र होगा, जो बाल्यवस्था में ही महारथी माना जायेगा। जन्म लेने के बाद सोलह वर्ष की अवस्था तक यह वहाँ रहेगा। इसके सोलहवें वर्ष में वह महाभारत युद्ध होगा, जिसमें आप लोगों के अंश से उत्पन्न हुए वीर पुरुष शत्रु वीरों का संहार करने वाला अद्भुत पराक्रम कर दिखायेंगे। देवताओं! एक दिन जबकि उस युद्ध में नर और नारायण (अर्जुन और श्रीकृष्ण) उपस्थित न रहेंगे, उस समय शत्रुपक्ष के लोग चक्रव्यूह की रचना करके आप लोगों के साथ युद्ध करेंगे। उस युद्ध में मेरा यह पुत्र समस्त शत्रु सैनिकों को युद्ध से मार भगायेगा और बालक होने पर भी उस अभेद व्यूह में घुसकर निर्भय विचरण करेगा। तथा बड़े-बड़े महारथी वीरों का संहार कर डालेगा। आधे दिन में ही महाबाहु अभिमन्यु समस्त शत्रुओं एक चौथाई भाग को यमलोक पहुँचा देगा। तदनन्तर बहुत से महारथी एक साथ ही उस पर टूट पड़ेंगे और वह महाबाहु उन सबका सामना करते हुए संध्या होते-होते पुनः मुझसे आ मिलेगा। वह एक ही वंश प्रर्वतक वीर पुत्र को जन्म देगा, जो नष्ट हुए भरतकुल को पुनः धारण करेगा।’ सोम का यह वचन सुनकर समस्त देवताओं ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी बात मान ली और सबने चन्द्रमा का पूजन किया।

   राजा जनमेजय! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पिता के पिता का जन्म रहस्य बताया है। महाराज! महारथी धृष्टद्युम्न को तुम अग्नि का भाग समझो। शिखण्डी राक्षस से अंश से उत्पन्न हुआ था। वह पहले कन्या रूप में उत्पन्न होकर पुनः पुरुष हो गया था। भरतर्षभ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि द्रौपदी के जो पांच पुत्र थे, उनके रूप में पांच विश्‍वेदेवगण ही प्रकट हुए थे। उनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं - प्रतिविध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, नकुलनन्दन शतानीक तथा पराक्रमी श्रुतसेन। वसुदेव जी के पिता का नाम था शूरसेन। वे यदुवंश के एक श्रेष्ठ पुरुष थे। उनके पृथा नाम वाली एक कन्या हुई जिससे समान रूपवती स्त्री इस पृथ्वी पर दूसरी नहीं थी। उग्रसेन के फुफेरे भाई कुन्तीभोज सन्तानहीन थे। पराक्रमी शूरसेन ने पहले कभी उनके सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं अपनी पहली सन्तान आपको दे दूंगा’। तदनन्तर सबसे पहले उनके यहाँ कन्या ही उत्पन्न हुई। शूरसेन ने अनुग्रह की इच्छा से राजा कुन्तीभोज को अपनी वह पुत्री पृथा प्रथम सन्तान होने के कारण गोद दे दी। पिता के घर पर रहते समय पृथा को ब्राह्मणों और अतिथियों के स्वागत-सत्कार का कार्य सौंपा गया था। एक दिन उसने कठोर व्रत का पालन करने वाले भयंकर क्रोधी तथा उग्र प्रकृति वाले एक ब्राह्मण महर्षि की, जो धर्म के विषय में अपने निश्‍चय को छिपाये रखते थे और लोग जिन्हें दुर्वासा के नाम से जानते हैं, सेवा की। वे ऊपर से उग्र स्वभाव के थे परन्तु उनका हृदय महान् होने के कारण सबके द्वारा प्रशंसित था। पृथा ने पूरा प्रयत्न करके अपनी सेवाओं द्वारा मुनि को संतुष्ट किया। भगवान दुवार्सा ने संतुष्ट होकर पृथा को प्रयोग विधि सहित एक मन्त्र का विधिपूर्वक उपदेश किया 

और कहा ;- ‘सुभगे! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 135-154 का हिन्दी अनुवाद)

  देवि! तुम इस मन्त्र द्वारा जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी-उसी के कृपा प्रसाद से पुत्र उत्पन्न करोगी। दुर्वासा के ऐसा कहने पर वह सतीसाध्वी यशस्विनी बाला यद्यपि अभी कुमारी कन्या थी, तो भी कौतुहलवश उसने भगवान सूर्य का आवाहन किया। तब सम्पूर्ण जगत् में प्रकाश फैलाने वाले भगवान सूर्य ने कुन्ती के उदर में गर्भ स्थापित किया और उस गर्भ से एक ऐसे पुत्र को जन्म दिया, जो समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ था। यह कुण्डल और कवच के साथ ही प्रकट हुआ था। देवताओं के बालकों में जो सहज कान्ति होती है, उसी से वह सुशोभित था। उसने अपने तेज से वह सूर्य के समान जान पड़ता था। उसके सभी अंग मनोहर थे, जो उसके सम्पूर्ण शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। उस समय कुन्ती ने माता-पिता आदि बान्धव-पक्ष के भय से उस यशस्वी कुमार को छिपाकर एक पेटी में रखकर जल में छोड़ दिया। जल छोड़े हुए उस बालक को राधा के पति महायशस्वी अधिरथ सूत ने लेकर राधा की गोद में दे दिया और उसे राधा का पुत्र बना लिया। उन दोनों दंपत्ति ने उस बालक का नाम वसुषेण रखा। वह सम्पूर्ण दिशाओं में भलि-भाँति विख्यात था। बड़ा होने पर वह बलवान बालक सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला में उत्तम हुआ। उस विजयी वीर ने सम्पूर्ण वेदांगों का अध्ययन कर लिया।

  वसुषेण (कर्ण) बड़ा बुद्धिमान् और सत्य पराक्रमी था। जिस समय वह जप में लगा होता, उस महात्मा के पास ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जिसे वह ब्राह्मणों के मांगने पर न दे डाले। भूतभावन इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन के हित के लिये ब्राह्मण का रूप धारण करके वीर कर्ण से दोनों कुण्डल तथा उसके शरीर के साथ उत्पन्न हुआ कवच मांगा। कर्ण ने अपने शरीर में चिपके हुए कवच और कुण्डलों को उधेड़ कर दे दिया। इन्द्र ने विस्मित होकर कर्ण को एक शक्ति प्रदान की और कहा- ‘दुर्धर्ष वीर! तुम देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसों में से जिस पर भी इस शक्ति को चलाओगे, वह एक व्यक्ति निश्चय ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। पहले कर्ण का नाम इस पृथ्वी पर वसुषेण था। फिर कवच और कुण्डल काटने के कारण वैकर्तन नाम से प्रसिद्ध हुआ। जो महायशस्वी वीर कवच धारण किये हुए ही उत्पन्न हुआ, वह पृथा का प्रथम पुत्र कर्ण नाम से ही सर्वत्र विख्यात था।

   महाराज! वह वीर सूत कुल में पाला-पोसा जाकर बड़ा हुआ था। नरेश्रेष्ठ कर्ण सम्पूर्ण शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ था। वह दुर्योधन का मन्त्री और मित्र होने साथ ही उसके शत्रुओं का नाश करने वाला था। राजन्! तुम कर्ण को साक्षात सूर्यदेव का सर्वोत्तम अंश जानो। देवताओं के भी देवता जो सनातन पुरुष भगवान नारायण हैं, उन्हीं के अंश स्वरूप प्रतापी वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण मनुष्यों में अवतीर्ण हुए थे। महाबली बलदेव शेषनाग के अंश थे। राजन्! महातेजस्वी प्रद्युम्न को तुम सनत्कुमार का अंश जानो। इस प्रकार वसुदेव जी के कुल में बहुत से दूसरे-दूसरे नरेन्द्र उपन्न हुए, जो देवताओं के अंश थे। वे सभी अपने कुल की वृद्धि करने वाले थे। महाराज! मैंने अप्सराओं के जिस समुदाय का वर्णन किया है, उसका अंश भी इन्द्र के आदेश से इन पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 155-164 का हिन्दी अनुवाद)

   नरेश्‍वर! वे अप्सरायें मनुष्य लोक में सोलह हजार देवियों के रूप में उत्पन्न हुई थीं जो सब-की-सब भगवान श्रीकृष्ण की पत्नियां हुईं। नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने के लिये भूतल पर विदर्भराज भीष्मक के कुल में सतीसाध्वी रुक्मिणी देवी के नाम से लक्ष्मी जी का ही अंश प्रकट हुआ था। सती-साध्वी द्रौपदी शची के अंश से उत्पन्न्न हुई थी। वह राजा द्रौपद के कुल में यज्ञ की वेदी के मध्य भाग से एक अनिन्द्य सुन्दरी कुमारी कन्या के रूप में प्रकट हुई थी। उसके अंगों से नीलकमल की सुगन्ध फैलती रहती थी। उसके नेत्र कमल के समान सुन्दर और विशाल थे। नितम्‍ब भाग बड़ा ही मनोहर था और उसके काले-काले घुघराले बालों का सौन्दर्य भी अद्भुत था। वह समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा वैदुर्य मणि के समान कान्तिमति थी।

  एकान्त में रहकर वह पाँचों पुरुषों प्रवर पाण्डवों के मन को मुग्ध किये रहती थी। सिद्धि और धृति नाम वाली जो दो देवियां हैं, वे ही पाँचों पाण्डवों की दोनों माताओं- कुन्ती और माद्री के रूप में उत्पन्न हुई थी। सुबल-नरेश की पुत्री गान्धारी के रूप में साक्षात मति देवी ही प्रकट हुई थी। राजन! इस प्रकार तुम्हें देवताओं, असुरों, गन्धर्वों, अप्सराओं तथा राक्षसों के अंशों का अवतरण बताया गया। युद्ध में उन्मत्त रहने वाले जो-जो राजा इस पृथ्वी पर उत्पन्न हुए थे और जो-जो महात्मा क्षत्रिय यादवों के विशाल कुल में प्रकट हुए थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्‍य जो भी रहे हैं, उन सबके स्वरूप का मैंने परिचय तुम्हें दे दिया है। मनुष्य को चाहिये कि वह दोष-दृष्टि का त्याग करके इस अंशावरतरण के प्रसंग को सुने। यह धन, यश, पुत्र, आयु तथा विजय की प्राप्ति कराने वाला है। देवता, गन्धर्व तथा राक्षसों के इस अंशावतरण को सुनकर विश्‍व की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान परमात्मा के स्वरूप को जानने वाला प्राज्ञ बड़ी-बड़ी विपत्तियों में भी दुखी नहीं होता।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में आदित्यासमाप्तिविषयक सड़ठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

अड़सठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा दुष्यन्त की अद्भुत शक्ति तथा राज्यशासन की क्षमता का वर्णन"

   जनमेजय बोले ;- ब्रह्मन्! मैंने आपके मुख से देवता, दानव, राक्षस, गन्धर्व तथा अप्सराओं के अंशावतरण का वर्णन अच्छी तरह सुन लिया। विप्रवर! अब इन ब्रह्मर्षियों के समीप आपके द्वारा वर्णित कुरुवंश का वृत्तान्त पुनः आदि से ही सुनना चाहता हूँ। वैशम्पायन जी ने कहा- भरतवंश शिरोमणे! पूरुवंश का विस्तार करने वाले एक राजा हो गये हैं, जिनका नाम था दुष्यन्त। वे महान् तथा चारों समुद्रों से घिरी हुई समूची पृथ्वी के पालक थे। राजा दुष्यन्त पृथ्वी के चारों भागों का तथा समुद्र से आवृत सम्पूर्ण देशों का भी पूर्णरूप से पालन करते थे। उन्होंने अनेक युद्धों में विजय पायी थी। रत्नाकर समुद्र तक फैले हुए, चारों वर्ण के लोगों से भरे-पूरे तथा म्लेच्छ देश की सीमा से मिले-जुले सम्पूर्ण भूभागों का ये शत्रुमर्दन नरेश अकेले ही शासन तथा संरक्षण करते थे। उस राजा के शासन काल में कोई मनुष्य वर्णसंकर संतान उत्पन्न नहीं करता था; पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अनाज पैदा करती थी और सारी भूमि ही रत्नों की खान बनी हुई थी, इसलिये कोई भी खेती करने या रत्नों की खान का पता लगाने की चेष्टा नहीं करता था। पाप करने वाला तो उस राज्य में कोई था ही नहीं। नरश्रेष्ठ! सभी लोग धर्म में अनुराग रखते और उसी का सेवन करते थे। अतः धर्म और अर्थ दोनों ही उन्हें स्वतः प्राप्त हो जाते थे।

   तात! राजा दुष्यन्त जब इस देश के शासन थे, उस समय कहीं चोरों का भय नहीं था। भूख का भय तो नाम मात्र को भी नहीं था। इस देश पर दुष्यन्त के शासन काल में रोग-व्याधि का डर तो बिल्कुल ही नहीं रह गया था। सब वर्णों के लोग अपने-अपने धर्म के पालन में रत रहते थे। देवाराधन आदि कर्मों को निष्कामभाव से ही करते थे। राजा दुष्यन्त का आश्रय लेकर समस्त प्रजा निर्भय हो गयी थी। मेघ समय पर पानी बरसाता और अनाज रसयुक्त होते थे। पृथ्वी सब प्रकार के रत्नों से सम्पन्न तथा पशु-धन से परिपूर्ण थी। ब्राह्मण अपने वर्णाश्रमोचित कर्मों में तत्पर थे। उनमें झूठ एवं छल-कपट आदि का अभाव था। राजा दुष्यन्त स्वंय भी नवयुवक थे। उनका शरीर वज्र के सदृश दृढ़ था। वे अद्भुत एव महान् पराक्रम से सम्पन्न थे। वे अपने दोनों हाथों द्वारा उपवनों और काननों सहित मन्दराचल को उठाकर ले जाने की शक्ति रखते थे। गदायुद्ध के प्रक्षेप, विक्षेप, परिक्षेप और अभिक्षेप- इन चारों प्रकारों में कुशल तथा सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों की विद्या में अत्यन्त निपुण थे। घोड़े और हाथी की पीठ पर बैठने की कला में अत्यन्त प्रवीण थे। बल में भगवान विष्णु के समान और तेज में भगवान सूर्य के सदृश थे। वे समुद्र के समान अक्षोभ्य और पृथ्वी के समान सहनशील थे। महाराज दुष्यन्त का सर्वत्र सम्मान था। उनके नगर तथा राष्ट्र के लोग सदा प्रसन्न रहते थे। वे अत्यन्त धर्मयुक्त भावना से सदा प्रसन्न रहने वाली प्रजा का शासन करते थे।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में शकुंतलोपाख्यान-विषयक अड़ठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

उनहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनसप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"दुष्यन्त का शिकार के लिये वन में जाना और विविध हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना"

जनमेजय बोले ;- ब्रह्मन! मैं परमबुद्धिमान् भरत की उत्पत्ति और चरित्र को तथा शकुन्तला की उत्पत्ति के प्रसंग को भी यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूँ। भगवन्! वीरवर दुष्यन्त ने शकुन्तला को कैसे प्राप्त किया? मैं पुरुषसिंह दुष्यन्त के उस चरित्र को विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ। तत्त्वज्ञ मुने! आप बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं। अतः ये सब बातें बताइये।

वैशम्पायन जी ने कहा ;- एक समय की बात है, महाबाहु राजा दुष्यन्त बहुत-से सैनिक और सवारियों को साथ लिये सैकड़ों हाथी-घोड़ों से घिरकर परम सुन्दर चतुरंगिणी सेना के साथ एक गहन वन की ओर चले। जब राजा ने यात्रा की, उस समय खड्ग, शक्ति, गदा, मुसल, प्रास और तोमर हाथ में लिये सैकड़ों योद्वा उन्हें घेरे हुए थे। महाराज दुष्यन्त के यात्रा करते समय योद्वाओं ने सिंहनाद, शंक और नगाड़ों की आवाज, रथ के पहियों की घरघराहट, बड़े-बड़े गजराजाओं की चिग्घाड़, घोड़ों की हिनहिनाहट, नाना प्रकार के आयुध तथा भाँति-भाँति के वेश धारण करने वाले योद्धाओं द्वारा की हुई गर्जना और ताल ठोंकने की आवाजों से चारों ओर भरी कोलाहल मच गया था। महल के श्रेष्ठ शिखर पर बैठी हुई स्त्रियां उत्तम राजोचित शोभा से सम्पन्न शूरवीर दुष्यन्त को देख रही थीं। वे अपने यश को बढ़ाने वाले, इंद्र के समान पराक्रमी और शत्रुओं का नाश करने वाले थे।

शत्रुरूपी मतवाले हाथी को रोकने के लिये उनमें सिंह के समान शक्ति थी। वहाँ देखती हुई स्त्रियों ने उन्हें वज्रपाणि इन्द्र के समान समझा और आपस में वे इस प्रकार,,

 बातें करने लगीं ;- ‘सखियों! देखो तो सही, ये ही वे पुरुषसिंह महाराज दुष्यन्त हैं, जो संग्राम भूमि में वसुओं के समान पराक्रम दिखाते हैं, जिनके बाहुबल में पड़कर शत्रुओं का अस्तित्व मिट जाता है’। ऐसी बातें करती हुई वे स्त्रियां बड़े प्रेम से महाराज दुष्यन्त की स्तुति करतीं और उनके मस्तक पर फूलों की वर्षा करती थीं। यत्र-तत्र खड़े हुए श्रेष्ठ ब्राह्मण सब ओर उनकी स्तुति-प्रशंसा करते थे। इस प्रकार महाराज वन में हिंसक पशुओं का शिकार खेलने के लिये बड़ी प्रसन्नता के साथ नगर से बाहर निकले। वे देवराज इन्द्र के सामन पराक्रमी थे। मतवाले हाथी की पीठ पर बैठकर यात्रा करने वाले उन महाराज दुष्यन्त के पीछे-पीछे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र सभी वर्णों के लोग गये और सब आशीर्वाद एवं विजयसूचक वचनों द्वारा उनके अभ्युदय की कामना करते हुए उनकी ओर देखते रहे।

   नगर और जनपद के लोग बहुत दूर तक उनके पीछे-पीछे गये। फिर महाराज की आज्ञा होने पर लौट आये। उनका रथ गरुड़ के समान वेगशाली था। उसके द्वारा यात्रा करने वाले नरेश ने घरघराहट की आवाज से पृथ्वी और आकाश को गुंजा दिया। जाते-जाते बुद्धिमान् दुष्यन्त ने एक नन्दन वन के समान मनोहर वन देखा, जो बेल, आक, खैर, कैथ और घव (वाकली) आदि वृक्षों से भरपूर था। पर्वत की चोटी से गिरे हुए बहुत-से शिलाखण्ड वहाँ इधर-उधर पड़े थे। ऊंची-नीची भूमि के कारण वह वन बड़ा दुर्गम जान पड़ता था। अनेक योजन तक फैले हुए उस वन में कही जल या मनुष्य का पता नहीं चलता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनसप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद)

  सब ओर मृग और सिंह आदि भयंकर जन्तुओं तथा अन्य वनवासी जीवों से भरा हुआ था। नरश्रेष्ठ राजा दुष्यन्त ने सेवक, सैनिक और सवारियों के साथ नाना प्रकार के हिंसक पशुओं का शिकार करते हुए उस वन को रौंद डाला। वहाँ बाणों के लक्ष्य में आये हुए बहुत-से व्याघ्रों को महाराज दुष्यन्‍त ने मार गिराया और कितनों को सायकों से बींध डाला। शक्तिशाली पुरुषों में श्रेष्ठ नरेश ने कितने ही दूरवर्ती हिंसक पशुओं को बाणों द्वारा घायल किया। जो निकट आ गये, उन्हें तलवार से काट डाला और कितने ही एण जाति के पशुओं को शक्ति नामक शस्त्र द्वारा मौत के घाट उतार दिया।

असीम पराक्रम वाले राजा गदा घुमाने की कला में अत्यन्त प्रवीण थे। अतः वे तोमर, तलवार, गदा तथा मुसलों की मार से स्वेच्छापूर्वक विचरने वाले जंगली हाथियों का वध करते हुए वहाँ सब ओर विचरने लगे। अद्भुत पराक्रमी नरेश और उनके युद्ध-प्रेमी सैनिकों ने उस विशाल वन का कोना-कोना छान डाला। अतः सिंह और बाघ उस वन को छोड़कर भाग गये। पशुओं के कितने ही झुंड, जिनके यूथपति मारे गये थे, व्यग्र होकर भागे जा रहे थे और कितने ही यूथ इधर-उधर आर्तनाद करते थे। वे प्यास से पीड़ित अत्यन्त खिन्न हो दौड़ने के परिश्रम से क्लान्तचित्त होने के कारण मूर्च्छित होकर गिर पड़ते थे। भूख, प्यास और थकावट से चूर-चूर हो बहुत से पशु धरती पर गिर पड़े।

   वहाँ कितने ही व्याघ्र-स्वभाव के नृशंस जंगली मनुष्य भूखे होने के कारण कुछ मृगों को कच्चे ही चबा गये। कितने ही वन में विचरने वाले व्याघ वहाँ आग जलाकर मांस पकाने की अपनी रीति के अनुसार मांस को कूट-कूट कर रांधने और खाने लगे। उस वन में कितने ही बलवान् और मतवाले हाथी अस्त्र-शस्त्रों के आघात से क्षत-विक्षत होकर सूंड को समेटे हुए भय के मारे वेगपूर्वक भाग रहे थे। उस समय उनके घावों से बहुत-सा रक्त वह रहा था और वे मल-मूत्र करते जाते थे। बड़े-बड़े जंगली हाथियों ने भी वहाँ भागते समय बहुत से मनुष्यों को कुचल डाला, वहाँ बाणरूपी जल की धारा बरसाने वाले सैन्यरूपी बादलों ने उस वनरूपी व्योम को सब ओर से घेर लिया था। महाराज दुष्यन्त ने जहाँ के सिंहों को मार डाला था, वह हिंसक पशुओं से भरा हुआ वन बड़ी शोभा पा रहा था।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में शकुंतलोपाख्यान-विषयक उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

सत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन तथा राजा दुष्यन्त का उस आश्रम में प्रवेश"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर सेना और सवारियों के साथ राजा दुष्यन्त ने सहस्रों हिंसक पशुओं का वध करके एक हिंसक पशु का ही पीछा करते हुए दूसरे वन में प्रवेश किया। उस समय उत्तम बल से युक्त महाराज दुष्यन्त अकेले ही थे तथा भूख, प्यास और थकावट से शिथिल हो रहे थे। उस वन के दूसरे छोर में पहुँचने पर उन्हें एक बहुत बड़ा ऊसर मैदान मिला, जहाँ वृक्ष आदि नहीं थे। उस वृक्ष शून्य ऊसर भूमि को लांघकर महाराज दुष्यन्त दूसरे विशाल वन में जा पहुँचे, जो अनेक उत्तम आश्रमों से सुशोभित था, देखने में अत्यन्त सुन्दर होने साथ ही वह मन में अद्भुत आनन्दोल्लास की सृष्टि कर रहा था। उस वन में शीतल वायु चल रही थी। वहाँ वृक्ष फूलों से भरे थे और वन में सब ओर व्याप्त हो उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ अत्यनत सुखद हरी-हरी कोमल घास उगी हुई थी।

   बह वन बहुत बड़ा था और मीठी बोली बोलने वाले विविध विहंगमों के करलवों से गूंज रहा था। उसमें कही कोकिलों की कूहू-कूहू सुन पड़ती थी तो कहीं झींगुरों की झीनी झनकार गूंज रही थी। वहाँ सब ओर बड़ी-बड़ी शाखाओं वाले विशाल वृक्ष अपनी सुखद शीतल छाया किये हुए थे और उन वृक्षों के नीचे सब ओर भ्रमर मंडरा रहे थे। इस प्रकार वहाँ सर्वत्र बड़ी भारी शोभा छा रही थी। उस वन में एक भी वृक्ष ऐसा नहीं था, जिसमें फूल और फल न लगे हों तथा भौरे न बैठे हों। कांटेदार वृक्ष तो वहाँ ढूंढने पर भी नहीं मिलता था। सब ओर अनेकानेक पक्षी चहक रहे थे। भाँति-भाँति के पुण्य उस सन की अत्यन्त शोभा बढ़ा रहे थे। सभी ऋतुओं में फूल देने वाले सुखद छायायुक्त वृक्ष चारों ओर फैले हुए थे। महान धनुर्धर राजा दुष्यन्त ने इस प्रकार मन को मोह लेने वाले उस उत्तम वन प्रवेश किया। उस समय फूलों से भरी हुई डालियों वाले वृक्ष वायु के झकोरे से हिल-हिल कर उनके ऊपर बार-बार अद्भुत पुष्प वर्षा करने लगे। वे वृक्ष इतने ऊंचे थे, मानो आकाश को छू लेंगे।

   उन पर बैठे हुए मीठी बोली बोलने वाले पक्षियों के मधुर शब्द वहाँ गूंज रहे थे। उस वन में पुष्परूपी विचित्र वस्त्र धारण करने वाले वृक्ष अद्भुत शोभा पा रहे थे। फूलों के भार से झुके हुए उनके कोमल पल्लवों पर बैठे हुए मधु लोभी भ्रमर मधुर गुंजार कर रहे थे। राजा दुष्यन्त ने वहाँ बहुत से ऐसे रमणीय प्रदेश देखे जो फूलों के ढेर से सुशोभित तथा लता मण्डपों से अलंकृत थे। मन की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले उन मनोहर प्रदेशों का अवलोकन करके उस महातेजस्वी राजा को बड़ा हर्ष हुआ। फूलों से लदे हुए वृक्ष एक-दूसरे से अपनी डालियों को सटाकर मानो गले मिल रहे थे। वे गगनचुंबी वृक्ष इन्द्र की ध्वजा के समान जान पड़ते थे और उनके कारण उस वन की बड़ी शोभा हो रही थी। सिद्ध-चारण समुदाय तथा गन्धर्व और अप्सराओं के समूह भी उस वन का अत्यन्त सेवन करते थे। वहाँ मतवाले बानर और किन्नर निवास करते थे। उस वन में शीतल, सुगन्ध, सुखदायिनी मन्द वायु फूलों के पराग वहन करती हुई मानो रमण की इच्छा से बार-बार वृक्षों के समीप आती थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

   वह वनमालिनी नदी के कछार में फैला हुआ था और ऊंची ध्वजाओं के समान ऊंचे वृक्षों से भरा होने के कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ता था। राजा ने इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त उस वन का भली-भाँति अवलोकन किया। इस प्रकार राजा अभी वन की शोभा देख ही रहे थे कि उनकी दृष्टि एक उत्तम आश्रम पर पड़ी, जो अत्यन्त रमणीय और मनोरम था। वहाँ बहुत से पक्षी हर्षोल्लास से भरकर चहक रहे थे। नाना प्रकार के वृक्षों से भरपूर उस वन में स्थान-स्थान पर अग्निहोत्र की आग प्रज्वलित हो रही थी। इस प्रकार उस अनुपम आश्रम का श्रीमान् दुष्यन्त नरेश ने मन-ही-मन बड़ा सम्मान किया। वहाँ बहुत से त्यागी-विरागी, यती, बालखिल्य ऋषि तथा अन्य मुनिगण निवास करते थे। अनेकानेक अग्निहोत्र ग्रह उस आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ इतने फूल झड़ कर गिरे थे कि उनके बिछौने से बिछ गये थे।

  बड़े-बड़े तून के वृक्षों से उस आश्रम की शोभा बहुत बढ़ गयी थी। राजन्! बीच में पुण्यसलिला मालिनी नदी बहती थी, जिसका जल बड़ा ही सुखद एवं स्वादिष्ट था। उसके दोनों तटों पर वह आश्रम फैला हुआ था। मालिनी में अनेक प्रकार के जल पक्षी निवास करते थे और तटवर्ती तपोवन के कारण उसकी मनोहरता और बढ़ गयी थी। वहाँ विषधर सर्प और हिंसक वन जन्तु भी सौम्य भाव (हिंसाशून्य कोमल प्रवृति) से रहते थे। यह सब देखकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। श्रीमान् दुष्यन्त नरेश अप्रतिरथ वीर थे- उस समय उनकी समानता करने वाला भूमण्डल में दूसरा कोई रथी योद्धा नहीं था। वे उक्त आश्रम के समीप जा पहुँचे, जो देवताओं का लोक प्रतीत होता था। वह आश्रम सब ओर से अत्यन्त मनोहर था। राजा ने आश्रम से सटकर बहने वाले पुण्यसलिला मानिली नदी की ओर भी दृष्टिपात किया; जो वहाँ समस्त प्राणियों की जननी-सी विराज रही थी। उसके तट पर चकवा-चकई किलोल कर रहे थे। नदी के जल में बहुत से फूल इस प्रकार बह रहे थे मानो फैन हों। उसके तट प्रान्त में किन्नरों के निवास स्थान थे। बानर और रीछ भी उस नदी का सेवन करते थे।

   अनेक सुन्दर कुलिन मालिनी की शोभा बढ़ा रहे थे। वेद-शास्त्रों के पवित्र स्वाध्याय की ध्वनि से उस सरिता का निकटवर्ती प्रदेश गूंज रहा था। मतवाले हाथी, सिंह और बड़े-बड़े सर्प भी मालिनी के तट का आश्रय लेकर रहते थे। उसके तट पर ही कश्‍यप गोत्रीय महात्मा कण्व का वह उत्तम एवं रमणीय आश्रम था। वहाँ महर्षियों के समुदाय निवास करते थे। उस मनोहर आश्रम और आश्रम से सटी हुई नदी को देखकर राजा ने उस समय उसमें प्रवेश करने का विचार किया। टापुओं से युक्त तथा सुरम्य तट वाली मालिनी नदी से सुशोभित वह आश्रम गंगा नदी से शोभायमान भगवान नर-नारायण के आश्रम सा जान पड़ता था। तदनन्तर नरश्रेष्ठ दुष्यन्त ने अत्यन्त उत्तम गुणों से सम्पन्न कश्‍यप गोत्रीय महर्षि तपोधन कण्व का, जिनके तेज का वाणी द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता, दर्शन करने के लिये कुबेर के चैत्ररथ वन के समान मनोहर उस महान् वन में प्रवेश किया, जहाँ मतवाले मयूर अपनी केका ध्वनि फैला रहे थे। वहाँ पहुँचकर नरेश, घोड़े, हाथी और पैदलों से भरी हुई अपनी चतुरंगिनी सेना को उस तपोवन के किनारे ठहरा दिया और कहा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 33-51 का हिन्दी अनुवाद)

‘सेनापति! और सैनिकों! मैं रजोगुण रहित तपस्वी महर्षि कश्‍यपनन्दन कण्व का दर्शन करने के लिये उनके आश्रम में जाऊंगा। जब तक में वहाँ से लौट न आऊं, तब तक तुम लोग यहीं ठहरो’। इस प्रकार आदेश दे नरेश्‍वर दुष्यन्त ने नन्दनवन के समान सुशोभित उस तपोवन में पहुँचकर भूख-प्यास को भुला दिया। वहाँ उन्हें बड़ा आनन्द मिला। वे नरेश मुकुट आदि राजचिह्नों को हटाकर साधारण भेष-भूषा में मन्त्रियों और पुरोहित के साथ उस उत्तम आश्रम के भीतर गये। वहाँ वे तपस्या के भण्डार अविकारी महर्षि कण्व का दर्शन करना चाहते थे। राजा ने उस आश्रम को देखा, मानो दूसरा ब्रह्मलोक हो। नाना प्रकार के पक्षी वहाँ कलरव कर रहे थे। भ्रमरों के गुंजन से सारा आश्रम गूंज रहा था। श्रेष्ठ ऋग्वेदी ब्राह्मण पद और क्रमपूर्वक ऋचाओं को पाठ कर रहे थे। नरश्रेष्ठ दुष्यन्त ने अनेक प्रकार के यज्ञ सम्बन्धी कर्मों में पढ़ी जाती हुई वैदिक ऋचाओं को सुना। यज्ञ विद्या और उसके अंगों की जानकारी रखने वाले यजुर्वेदी विद्वान भी आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले सामवेदी महर्षियों द्वारा वहाँ मधुर स्वर से सामवेद का गान किया जा रहा था। मन को संयम में रखकर नियमपूर्वक उत्तम व्रत कर पालन करने वाले सामवेदी और अथर्ववेदी महर्षि भारूण्डसंज्ञक साम मन्त्रों के गीत गाते और अथर्ववेद के मन्त्रों का उच्चारण करते थे; जिससे उस आश्रम की बड़ी शोभा होती थी।

   श्रेष्ठ अथर्ववेदीय विद्वान तथा पूगयज्ञिय नामक साम के गायक सामवेदी महर्षि पद और क्रम सहित अपनी-अपनी संहिता का पाठ करते थे। दूसरे द्विजबालक शब्द संस्कार से सम्पन्न थे- वे स्थान, करण और प्रयत्न का ध्यान रखते हुए संस्कृत वाक्यों का उच्चारण कर रहे थे। इन सबके तुमुल शब्दों से गूंजता हुआ वही सुन्दर आश्रम द्वितीय ब्रह्मलोक के समान सुशोभित होता था। यज्ञवेदी की रचना के ज्ञाता, क्रम और शिक्षा में कुशल, न्याय के तत्त्व और आत्मानुभव से सम्पन्न, वेदों के पारंगत, परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनेक वाक्यों की एक वाक्यता करने में कुशल तथा विभिन्न शाखाओं की गुण विधियों का एक शाखा में उपसंहार करने की कला में निपुण, उपासना आदि विशेष कार्यों के ज्ञाता, मोक्ष धर्म में तत्पर, अपने सिद्वान्त की स्थापना करके उसमें शंका उठाकर उसके परिहारपूर्वक उस सिद्वान्त के समर्थन में परमप्रवीण, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष तथा शिक्षा और कल्प- वेद के इन छहों अंगों के विद्वान, पदार्थ, शुभाशुभ कर्म, सतत्त्व, रज, तम आदि गुणों को जानने वाले तथा कार्य (दृष्य वर्ग) और कारण (मूल प्रकृति) के ज्ञाता, पशु-पक्षियों की बोली समझने वाले, व्यास ग्रन्थ का आश्रय लेकर मन्त्रों की व्याख्या करने वाले तथा विभिन्न शास्त्रों के विद्वान वहाँ रहकर जो शब्दोच्चारण कर रहे थे, उन सबको राजा दुष्यन्त ने सुना।

   कुछ लोक रंजन करने वाले लोगों की बातें भी उस आश्रम में चारों ओर सुनाई पड़ती थी। शत्रु वीरों को संहार करने वाले दुष्यन्त ने स्थान-स्थान पर नियमपूर्वक उत्तम एवं कठोर व्रत का पालन करने वाले श्रेष्ठ एवं बुद्धिमान ब्राह्मणों को जप और होम में लगे हुए देखा। वहाँ प्रयत्नपूर्वक तैयार किये हुए बहुत सुन्दर एवं विचित्र आसन देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। द्विजों द्वारा की हुई देवालयों की पूजा पद्धति देखकर नृपश्रेष्ठ दुष्यन्त ने ऐसा समझा कि मैं ब्रह्मलोक में आ पहुँचा हूँ। वह श्रेष्ठ एवं शुभ आश्रम कश्‍यपनन्दन महर्षि कण्व की तपस्या से सुरक्षित तथा तपोवन से उत्तम गुणों से संयुक्त था। राजा उसे देखकर तृप्त नहीं होते थे। महर्षि कण्व का वह आश्रम जिसमें वे स्वंय रहते थे, सब ओर से महान् व्रत का पालन करने वाले तपस्वी महर्षियों द्वारा घिरा हुआ था। वह अत्यन्त मनोहर, मंगलमय और एकान्त स्थान था। शत्रु नाशक राजा दुष्यन्त ने मन्त्री और पुरोहित के साथ उसकी सीमा में प्रवेश किया।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व का  सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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