सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
इकहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा दुष्यन्त का शकुन्तला के साथ वार्तालाप, शकुन्तला के द्वारा अपने जन्म का कारण बतलाना तथा उसी प्रसंग में विश्वामित्र की तपस्या से इन्द्र का चिन्तित होकर मेनका को मुनि का तपोभंग करने के लिये भेजना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर महाबाहु राजा दुष्यन्त साथ आये हुए अपने उन मन्त्रियों को भी बाहर छोड़कर अकेले ही उस आश्रम में गये, किन्तु वहाँ कठोर व्रत का पालन करने वाले महर्षि नहीं दिखाई दिये। महर्षि कण्व को न देखकर और आश्रम को सूना पाकर राजा ने सम्पूर्ण वन को प्रतिध्वनित करते हुए,,
पूछा ;- ‘यहाँ कौन है?’ दुष्यन्त के उस शब्द को सुनकर एक मूर्तिमति लक्ष्मी सी सुन्दरी कन्या तापसी का वेश धारण किये आश्रम के भीतर से निकली। जनमेजय! उत्तम व्रत का पालन करने वाली वह सुन्दरी कन्या रूप, यौवन, शील और सदाचार से सम्पन्न थी। राजा दुष्यन्त के विशाल नेत्र प्रफुल्ल कमल दल के समान सुशोभित थे। उनकी छाती चौड़ी, शरीर की गठन सुन्दर, कंधे सिंह सदृश और भुजाऐं लम्बी थीं। वे समस्त शुभलक्षणों से सम्मानित थे। श्याम नेत्र वाली उस शुभलक्षणा कन्या ने सम्मान्य राजा दुष्यन्त को देखते ही मधुर वाणी में उनके प्रति सम्मान का भाव प्रदर्शित करते हुए,,
शीघ्रतापूर्वक स्पष्ट शब्दों में कहा ;- ‘अतिथी दवे! आपका स्वागत है’ महाराज! फिर आसन, पाद्य और अर्ध्य अपर्ण करके उनका समादर करने के पश्चात,,
उसने राजा से पूछा ;- ‘आपका शरीर नीरोग है न? घर पर कुशल तो है? उस समय विधिपूर्वक आदर-सत्कार करके आरोग्य और कुशल पूछकर वह तपस्विनी कन्या,,
मुस्कराती हुई सी बोली ;- ‘कहिये आपकी क्या सेवा की जाये? आपके आश्रम की ओर पधारने का क्या कारण है? आप यहाँ कौन-सा कार्य सिद्व करना चाहते है? आपका परिचय क्या है? आप कौन हो? और आज यहाँ महर्षि के इस शुभ आश्रम पर (किस उद्देश्य से) आये हैं?’
उसके द्वारा विधिवत किये हुए आथित्य सत्कार को ग्रहण करके राजा ने उस सर्वांग सुन्दरी एवं मधुर भाषिनी कन्या की ओर देखकर कहा।
दुष्यन्त बोले ;- कमललोचने! मैं राजर्षि महात्मा इलिल का पुत्र हूँ और मेरा नाम दुष्यन्त है। मैं यह सत्य कहता हूँ। भद्रे! मैं परमभाग्यशाली महर्षि कण्व की उपासना करने- उनके सत्संग का लाभ लेने के लिये यहाँ आया हूँ। शोभने! बताओ तो, भगवान कण्व कहाँ गये हैं?
शकुन्तला बोली ;- अभ्यागत! मेरे पूज्य पिताजी फल लाने के लिये आश्रम से बाहर गये हैं। अतः दो घड़ी प्रतीज्ञा कीजिये। लौटने पर उनसे मिलियेगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा दुष्यन्त ने देखा- महर्षि कण्व आश्रम पर नहीं है और वह तापसी कन्या उन्हें वहाँ ठहरने के लिये कह रही है; साथ ही उनकी दृष्टि इस बात की ओर भी गयी यह कन्या सर्वांग सुन्दरी, अर्पूव शोभा से सम्पन्न तथा मनोहर मुस्कान से सुशोभित है। इसका शरीर सौन्दर्य की प्रभा से प्रकाशित हो रहा है, तपस्या तथा मन-इन्द्रियों के संयम ने इसमें अपूर्व तेज भर दिया है। यह अनुपम रूप और नई जवानी से उद्भासित हो रही है,
यह सब सोचकर राजा ने पूछा ;- ‘मनोहर कटि प्रदेश से सुशोभित सुन्दरी! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? और किसके लिये वन में आयी हो? शोभने! तुममें ऐसे अद्भुत रूप और गुणों का विकास कैसे हुआ है?
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 13-21 का हिन्दी अनुवाद)
शुभे! तुमने दर्शन मात्र से मेरे मन को हर लिया है। कल्याणि! मैं तुम्हारा परिचय जानना चाहता हूं, अतः मुझे सब कुछ ठीक-ठीक बताओ। हाथी की सूंड के समान जांघों वाली मतवाली सुन्दरी! मेरी बात सुनो; मैं राजर्षि पुरु के वंश में उत्पन्न राजा दुष्यन्त हूँ। आज मैं अपनी पत्नी बनाने के लिये तुम्हारा वरण करता हूँ। क्षत्रिय कन्या के सिवा दूसरी किसी स्त्री की ओर मेरा मन कभी नहीं जाता। अन्यान्य ऋषिपुत्रियों अपने से भिन्न वर्ण की कुमारियों तथा परायी स्त्रियों की ओर भी मेरे मन की गति नहीं होती। मधुरभाषिणि! तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिये कि मैं अपने मन को पूर्णतः संयम में रखता हूँ। ऐसा होने पर भी तुम पर मेरा अनुराग हो रहा है, अतः तुम क्षत्रिय कन्या ही हो। बताओ, तुम कौन हो?
भीरु! ब्राह्मण कन्या की ओर आकृष्ट होना मेरे मन को कदापि सहन नहीं है। विशाल नेत्रों वाली सुन्दरी! मैं तुम्हारा भक्त हूं; तुम्हारी सेवा चाहता हूं; तुम मुझे स्वीकार करो। विशाललोचने! मेरा राज्य भोगो। मेरे प्रति अन्यथा विचार न करो, मुझे पराया न समझो’।
उस आश्रम में राजा के इस प्रकार पूछने पर वह कन्या हंसती हुई मिठास भरे वचनों से,,
उनसे इस प्रकार बोली ;- ‘महाराज दुष्यन्त! मैं तपस्वी, धृतिमान्, धर्मज्ञ तथा महात्मा भगवान् कण्व की पुत्री मानी जाती हूँ। राजेन्द्र! मैं परतन्त्र हूँ। कश्यपनन्दन महर्षि कण्व मेरे गुरु और पिता हैं। उन्हीं से आप अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिये प्रार्थना करें। आपको अनुचित कार्य नहीं करना चाहिये’।
दुष्यन्त बोले ;- महाभागे! विश्ववन्द्य कण्व तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं, वे बड़े कठोर व्रत का पालन करते हैं। साक्षात् धर्मराज भी अपने सदाचार से विचलित हो सकते हैं, परंतु महर्षि कण्व नहीं। ऐसी दशा में तुम जैसी सुन्दरी देवी उनकी पुत्री कैसे हो सकती है? इस विषय में मुझे बड़ा भारी संदेह हो रहा है। मेरे इस संदेह का निवारण तुम्ही कर सकती हो।
शकुन्तला ने कहा ;- राजन! ये सब बातें मुझे जिस प्रकार ज्ञात हुई हैं, मेरा यह जन्म आदि पूर्वकाल में जिस प्रकार हुआ है और मैं जिस प्रकार कण्व मुनि की पुत्री हूं, वह सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बता रही हूं; सुनिये। जिसका स्वरूप तो अन्य प्रकार का है, किंतु जो सत्पुरुषों के सामने उसका अन्य प्रकार से ही परिचय देता है, अर्थात् जो पापात्मा होते हुए भी अपने को धर्मात्मा कहता है, वह मूर्ख, पाप से आवृत, चोर एवं आत्मवन्चक है।
पृथ्वीपते! एक दिन किसी ऋषि ने यहाँ आकर मेरे जन्म के सम्बन्ध में,,
मुनि से पूछा ;- ‘कश्यपनन्दन! आप तो ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी हैं, फिर यह शकुन्तला कहाँ से आयी? आपसे पुत्री का जन्म कैसे हुआ? यह मुझे सच-सच बताईये।’ उस समय भगवान् कण्व ने उससे जो बात बतायी, वही कहती हूं, सुनिये।
कण्व बोले ;- पहले की बात है, महर्षि विश्वामित्र बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे। उन्होंने देवताओं के स्वामी इन्द्र को अपनी तपस्या से अत्यन्त संताप में डाल दिया। इन्द्र को यह भय हो गया कि तपस्या से अधिक शक्तिशाली होकर ये विश्वामित्र मुझे अपने स्थान से भ्रष्ट कर देंगे, अतः उन्होंने मेनका से इस प्रकार कहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 22-36 का हिन्दी अनुवाद)
'मेनके! अप्सराओं के जो दिव्य गुण हैं, वे तुममें सबसे अधिक हैं। कल्याणी! तुम मेरा भला करो और मैं तुमसे जो बात कहता हूं, सुनो वे सूर्य के समान तेजस्वी, महातपस्वी विश्वामित्र घोर तपस्या में संलग्न हो मेरे मन को कंपित कर रहे हैं। सुन्दरी मेनके! उन्हें तपस्या से विचलित करने का यह महान् भार मैं तुम्हारे ऊपर छोड़ता हूँ। विश्वामित्र का अन्तःकरण शुद्ध है उन्हें पराजित करना अत्यन्त कठिन है और वे इस समय घोर तपस्या में लगे हैं। अतः ऐसा करो जिससे वे मुझे अपने स्थान से भ्रष्ट न कर सकें। तुम उनके पास जाकर उन्हें लुभाओ, उनकी तपस्या में विघ्न डाल दो और इस प्रकार मेरे विघ्न के निवारण का उत्तम साधन प्रस्तुत करो। वरारोहे! अपने रूप, जवानी, मधुर स्वाभाव, हावभाव, मंद मुस्कान और सरस वार्तालाप आदि के द्वारा मुनि को लुभाकर उन्हें तपस्या से निवृत्त कर दो’।
मेनका बोली ;- 'देवराज! भगवान विश्वामित्र बड़े भारी तेजस्वी और महान तपस्वी हैं। वे क्रोधी भी बहुत हैं। उनके इस स्वभाव को आप भी जानते हैं। जिन महात्मा के तेज, तप और क्रोध से आप भी उदिग्न हो उठते हैं, उनसे मैं कैसे नहीं डरूंगी? विश्वामित्र ऋषि वे ही हैं जिन्होंने महाभाग महर्षि वशिष्ठ का उनके प्यारे पुत्रों से सदा के लिये वियोग करा दिया; जो पहले क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर भी तपस्या बल से ब्राह्मण बन गये; जिन्होंने अपने शौच-स्नान की सुविधा के लिये अगाध जल से भरी हुई उस दुर्गम नदी का निर्माण किया, जिसे लोक में सब मनुष्य अत्यन्त पुण्यमयी कौशिकी नदी के नाम से जानते हैं। विश्वामित्र महर्षि वे ही हैं, जिनकी पत्नी को पूर्वकाल में संकट के समय शापवश व्याध बने हुए धर्मात्मा राजर्षि मतंग ने भरण-पोषण किया था। दुर्भिक्ष बीत जाने पर उन शक्तिशाली मुनि ने पुनः आश्रम पर आकर उस नदी का नाम ‘पारा’ रख दिया था।
सुरेश्वर! उन्होंने मतंग मुनि के किये हुए उपकार से प्रसन्न होकर स्वयं पुरोहित बनकर उनका यज्ञ कराया; जिसमें उनके भय से आप भी सोमपान करने के लिये पधारे थे। उन्होंने ही कुपित होकर दूसरे लोक की सृष्टि की नक्षत्र-संपत्ति से रूठकर प्रतिश्रवण आदि नूतन नक्षत्रों का निर्माण किया था। ये वही महात्मा हैं जिन्होंने गुरु के शाप से हीनावस्था पड़े हुए राजा त्रिषंक को भी शरण दी थी। उस समय यह सोचकर कि ‘विश्वामित्र ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के शाप को कैसे छुड़ा देंगे?’ देवताओं ने उनकी अवहेलना करके त्रिशंकु के यज्ञ की वह सारी सामग्री नष्ट कर दी। परंतु महातेजस्वी शक्तिशाली विश्वामित्र ने दूसरी यज्ञ-सामग्रियों की सृष्टि कर ली तथा उन महातपस्वी ने त्रिशंकु को स्वर्गलोक में पहुँचा ही दिया। जिनके ऐसे-ऐसे अद्भुत कर्म हैं, उन महात्माओं से मैं बहुत डरती हूँ। प्रभु! जिससे वे कुपित हो मुझे भष्म न कर दें, ऐसे कार्य के लिये मुझे आज्ञा दीजिये। वे अपने तेज से सम्पूर्ण लोकों को भष्म कर सकते हैं, पैर के आघात से पृथ्वी को कंपा सकते हैं, विशाल मेरु पर्वत को छोटा बना सकते हैं और सम्पूर्ण दिशाओं में तुरन्त उलट-फेर कर सकते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकसप्ततितम अध्याय के श्लोक 37-42 का हिन्दी अनुवाद)
प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी, तपस्वी और जितेन्द्रिय महात्मा का मुझ जैसी नारी कैसे स्पर्श कर सकती है? सुरश्रेष्ठ! अग्नि जिनका मुख है, सूर्य और चन्द्रमा जिनकी आंखों के तारे हैं और काल जिनकी जिह्वा है, उन तेजस्वी महर्षि को मेरी जैसी स्त्री कैसे छू सकती है?
यमराज, चन्द्रमा, महर्षिगण, साध्यगण, विश्वेदेव और सम्पूर्ण बालखिल्य ऋषि - ये भी जिनके प्रभाव से उदिग्न रहते हैं, उन विश्वामित्र मुनि से मेरी जैसी स्त्री कैसे नहीं डरेगी? सुरेन्द्र! आपके इस प्रकार वहाँ जाने का आदेश देने पर मैं उन महर्षि के समीप कैसे नहीं जाऊंगी? किंतु देवराज! पहले मेरी रक्षा का कोई उपाय सोचिये; जिससे सुरक्षित रहकर मैं आपके कार्य की सिद्धि के लिये चेष्टा कर सकूं।
देव! मैं वहाँ जाकर जब क्रीड़ा में निमग्न हो जाऊं उस समय वायुदेव आवश्यकता समझ कर मेरा वस्त्र उड़ा दें और इस कार्य में आपके प्रसाद से कामदेव भी मेरे सहायक हों। जब मैं ऋषि को लुभाने लगूं, उस समय वन से सुगन्ध भरी वायु चलनी चाहिये।' ‘तथास्तु’ कहकर इन्द्र ने जब इस प्रकार की व्यवस्था कर दी तब मेनका विश्वामित्र मुनि के आश्रम पर गयी।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में शकुंतलोपाख्यान-विषयक इकहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
बहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"मेनका-विश्वामित्र-मिलन, कन्या की उत्पत्ति, शकुन्त पक्षियों के द्वारा उसकी रक्षा और कण्व का उसे अपने आश्रम पर लाकर शकुन्तला नाम रखकर पालन करना"
(शकुन्तला दुष्यन्त से कहती है-) महर्षि कण्व ने (पूर्वोक्त ऋषि से शेष वृत्तान्त इस प्रकार) कहा ;- मेनका के ऐसा कहने पर इन्द्र देव ने वायु को उसके साथ जाने का आदेश दिया। तब मेनका वायुदेव के साथ समयानुसार वहाँ से प्रस्थित हुई। वन में पहुँचकर भीरू स्वभाव वाली सुन्दरी मेनका ने एक आश्रम में विश्वामित्र मुनि को तप करते देखा। वे तपस्या द्वारा अपने समस्त पाप दग्ध कर चुके थे। उस समय महिषे को प्रणाम करके वह अप्सरा उनके समीवर्ती स्थान में ही भाँति-भाँति की क्रीड़ाऐं करने लगी। इतने में ही वायु ने मेनका का चन्द्रमा के समान उज्ज्वल वस्त्र उसके शरीर से हटा दिया। यह देख सुन्दरी मेनका लजाकर वायुदेव को कोसती एवं मुस्कराती हुई सी वह वस्त्र लेने की इच्छा से तुरन्त ही उस स्थान की ओर दौड़ी गई, जहाँ वह गिरा था। अग्नि के समान तेजस्वी महर्षि विश्वामित्र के देखते-देखते वहाँ यह घटना घटित हुई। वह अनिन्द्य सुन्दरी विषम परिस्थिति में पड़ गयी थी और घबराकर वस्त्र लेने की इच्छा कर रही थी। उसका रूप-सौन्दर्य अवर्णनीय था। तरुणावस्था भी अद्भुत थी। उस सुन्दरी अप्सरा को मुनिवर विश्वामित्र ने वहाँ नंगी देख लिया। उसके रूप और गुणों को देखते ही विप्रवर विश्वामित्र काम के अधीन हो गये। सम्पर्क में आने के कारण मेनका में उनका अनुराग हो गया। उन्होंने मेनका को अपने निकट आने का निमन्त्रण दिया। अनिन्द्य सुन्दरी मेनका तो यह चाहती ही थी, उनसे सम्बन्ध स्थापित करने के लिये वह राजी हो गयी।
तदनन्तर वे दोनों वहाँ सुदीर्घ काल तक इच्छानुसार विहार तथा रमण करते रहे। वह महान काल उन्हें एक दिन के समान प्रतीत हुआ। काम और क्रोध पर विजय न पा सकने वाले उन सदा क्षमाशील महर्षि ने दीर्घकाल से उपार्जित की हुई तपस्या को नष्ट कर दिया। तपस्या क्षय होने से मुनि के मन पर मोह छा गया। तब मेनका काम तथा राग के वशीभूत हुए मुनि के पास गयी। ब्रह्मन्! फिर मुनि ने मेनका के गर्भ से हिमालय के रमणीय शिखर पर मालिनी नदी के किनारे शकुन्तला को जन्म दिया। मेनका का काम पूरा हो चुका था; वह उस नवजात गर्भ को मालिनी के तट पर छोड़कर तुरन्त इन्द्रलोक को चली गयी। सिंह और व्याघ्रों से भरे हुए निर्जन वन में उस शिशु को सोते देख शकुन्तों (पक्षियों) ने उसे सब ओर से पांखों द्वारा ढक लिया; जिससे कच्चे मांस खाने वाले गीध आदि जीव वन में इस कन्या की हिंसा न कर सकें। इस प्रकार शकुन्त ही मेनकाकुमारी की रक्षा कर रहे थे। उसी समय आचमन करने के लिये जब मैं मालिनी तट पर गया तो देखा- यह रमणीय निर्जन वन में पक्षियों से घिरी हुई सो रही है। मुझे देखते ही वे सब मधुरभाषी पक्षी मेरे पैरों पर गिर गये और सुन्दर वाणी में इस प्रकार कहने लगे।
पक्षी बोले ;- ब्रह्मन्! यह विश्वामित्र की कन्या आपके यहाँ धरोहर के रूप में आयी है। आप इसका पालन-पोषण कीजिये। कौशिकी के तट पर गये हुए आपके सखा विश्वामित्र काम और क्रोध को नहीं जीत सके थे। आप दयालु हैं; इसलिये उनकी पुत्री का पालन कीजिये। इस प्रकार पक्षियों ने कहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विसप्ततितम अध्याय के श्लोक 14-19 का हिन्दी अनुवाद)
कण्व मुनि कहते हैं ;- ब्रह्मन्! मैं समस्त प्राणियों की बोली समझता हूँ और सब जीवों के प्रति दयाभाव रखता हूँ। अतः उस निर्जन महावन में पक्षियों से घिरी हुई इस कन्या को वहाँ से लाकर मैंने इसे अपनी पुत्री के पद पर प्रतिष्ठित किया। जो गर्भाधान के द्वारा शरीर का निर्माण करता है, जो अभयदान देकर प्राणों की रक्षा करता है और जिसका अन्न भोजन किया जाता है, धर्मशास्त्र में क्रमश: ये तीनों पुरुष पिता कहे गये हैं। निर्जन वन में इसे शकुन्तों ने घेर रखा था, इसलिये ‘शकुन्तान् लाति रक्षकत्वेन गृहान्ति’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार इस कन्या का नाम मैंने ‘शकुन्तला’ रख दिया।
ब्रह्मन्! इस प्रकार शकुन्तला मेरी बेटी हुई, आप यह जान लें। प्रशंसनीय शील-स्वभाव वाली शकुन्तला भी मुझे अपना पिता मानती है।
शकुन्तला कहती है ;- 'राजन्! उन महर्षि के पूछने पर पिता कण्व ने मेरे जन्म का यह वृत्तान्त उन्हें बताया था। इस तरह आप मुझे कण्व की ही पुत्री समझिये। मैं अपने जन्मदाता पिता को तो जानती नहीं, कण्व को ही पिता मानती हूँ। महाराज! इस प्रकार जो वृत्तान्त मैंने सुन रखा था, वह सब आपको बता दिया।'
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में शकुंतलोपाख्यान-विषयक बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
तिहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"शकुन्तला और दुष्यन्त का गान्धर्व विवाह और महर्षि कण्व के द्वारा उसका अनुमोदन"
दुष्यन्त बोले ;- कल्याणि! तुम जैसी बातें कह चुकी हो, उनसे भली-भाँति स्पष्ट हो गया है कि तुम क्षत्रिय-कन्या हो (क्योंकि विश्वामित्र मुनि जन्म से तो क्षत्रिय ही हैं) सुश्रोणि! मेरी पत्नी बन जाओ। बोलो, मैं तुम्हारी प्रसन्नता के लिये क्या करूं। सोने के हार, सुन्दर वस्त्र तपाये हुए सुवर्ण के दो कुण्डल, विभिन्न नगरों के बने हुए सुन्दर और चमकीले मणिरत्न निर्मित आभूषण, स्वर्णपदक और कोमल मृगचर्म आदि वस्तुऐं तुम्हारे लिये मैं अभी लाये देता हूँ। शोभने! अधिक क्या कहूं, मेरा सारा राज्य आज से तुम्हारा हो जाय, तुम मेरी महारानी बन जाओ। भीरू! सुन्दरि! गान्धर्व विवाह के द्वारा मुझे अंगीकार करो। रम्भोरू! विवाहों में गान्धर्व विवाह श्रेष्ठ कहलाता है।
शकुन्तला ने कहा ;- राजन्! मेरे पिता कण्व फल लाने के लिये इस आश्रम से बाहर गये हैं। दो घड़ी प्रतीक्षा कीजिये। वे ही मुझे आपकी सेवा में समर्पित करेंगे। महाराज! पिता ही मेरे प्रभु हैं। उन्हें ही मैं सदा अपना सर्वोत्कृष्ट देवता मानती हूँ। पिताजी मुझे जिसको सौंप देंगे, वही मेरा पति होगा। कुमारावस्था में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में पुत्र रक्षा करता है। अतः स्त्री को कभी स्वतन्त्र नहीं रहना चाहिये। धर्मिष्ठ राजेन्द्र! मैं अपने तपस्वी पिता की अवहेलना करके अधर्मपूर्वक पति का वरण कैसे कर सकती हूं?
दुष्यन्त बोले ;- सुन्दरी! ऐसा न कहो। तपोराशि महात्मा कण्व बड़े ही दयालु हैं।
शकुन्तला ने कहा ;- राजन्! ब्राह्मण क्रोध के द्वारा ही प्रहार करते हैं। वे हाथ में लोहे का हथियार नहीं धारण करते। अग्नि अपने तेज से, सूर्य अपनी किरणों से, राजा दण्ड से और ब्राह्मण क्रोध से दग्ध करते हैं। कुपित ब्राह्मण अपने क्रोध से अपराधी को वैसे ही नष्ट कर देता है, जैसे वज्रधारी इन्द्र असुरों को।
दुष्यन्त बोले ;- वरारोहे! तुम्हारा शील और स्वभाव प्रशंसा के योग्य है। मैं चाहता हूं, तुम मुझे स्वेच्छा से स्वीकार करो। मैं तुम्हारे लिये ही यहाँ ठहरा हूँ। मेरा मन तुममें ही लगा हुआ है। आत्मा ही अपना बन्धु है। आत्मा ही अपना आश्रय है। आत्मा ही अपना मित्र है और वही अपना पिता है, अतः तुम स्वंय ही धर्मपूर्वक आत्म समर्पण करने योग्य हो। धर्मशास्त्र की दृष्टि से संक्षेप से आठ प्रकार के ही विवाह माने गये हैं- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस तथा आठवां पैशाच।
स्वायम्भुव मनु का कथन है कि इनमें बाद वालों की अपेक्षा पहले वाले विवाह धर्मानुकूल हैं। पूर्वकथित जो चार विवाह- ब्राह्म, दैव, आर्ष तथा प्राजापत्य हैं, उन्हें ब्राह्मण के लिये उत्तम समझो। अनिन्दिते! ब्राह्म से लेकर गान्धर्व तक क्रमश: छ: विवाह क्षत्रिय के लिये धर्मानुकूल जानो। राजाओं के लिये तो राक्षस विवाह का भी विधान है। वैश्यों और शूद्रों में आसुर विवाह ग्राह्य माना गया है। अन्तिम पांच विवाहों में तीन तो धर्मसम्मत हैं और दो अधर्मरूप माने गये हैं। पैशाच और आसुर विवाह कदापि करने योग्य नहीं है। इस विधि के अनुसार विवाह करना चाहिये। यह धर्म का मार्ग बताया गया है। गान्धर्व और राक्षस- दोनों विवाह क्षत्रिय जाति के लिये धर्मानुकूल ही हैं। अतः उनके विषय में तुम्हें संदेह नहीं करना चाहिये। वे दोनों विवाह परस्पर मिले हों या पृथक-पृथक हो, क्षत्रिय के लिये करने योग्य ही हैं, इसमें संशय नहीं है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 14-25 का हिन्दी अनुवाद)
अतः सुन्दरी! मैं तुम्हें पाने के लिये इच्छुक हूँ। तुम भी मुझे पाने की इच्छा रखकर गान्धर्व विवाह के द्वारा मेरी पत्नी बन जाओ।
शकुन्तला ने कहा ;- पौरवश्रेष्ठ! यदि यह गान्धर्व विवाह धर्म का मार्ग है, यदि आत्मा स्वयं ही अपना दान करने में समर्थ है तो इसके लिये मैं तैयार हूं; किंतु प्रभु! मेरी एक शर्त है, सुन लीजिये। और पालन करने के लिये मुझसे सच्ची प्रतिज्ञा कीजिये। वह शर्त क्या है, वह मैं तुमसे एकान्त में कह रही हूँ- महाराज दुष्यन्त! मेरे गर्भ से आपके द्वारा जो पुत्र उत्पन्न हो, वही आपके बाद युवराज हो, ऐसी मेरी इच्छा है। यह मैं आपसे सत्य कहती हूँ। यदि यह शर्त इसी रूप में आपको स्वीकार हो तो आपके साथ मेरा समागम हो सकता है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शकुन्तला की यह बात सुनकर राजा दुष्यन्त ने बिना कुछ सोचे विचारे यह उत्तर दे दिया कि ‘ऐसा ही होगा।’
वे शकुन्तला से बोले ;- ‘शुचिस्मिते! मैं शीघ्र तुम्हें अपने नगर में ले चलूंगा। सुश्रोणि! तुम राजभवन में ही रहने योग्य हो। मैं तुमसे यह सच्ची बात कहता हूँ।’ ऐसा कहकर राजर्षि दुष्यन्त ने अनिन्द्यगामिनी शकुन्तला को विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया और उसके साथ एकान्तवास किया। फिर उसे विश्वास दिलाकर वहाँ से विदा हुऐ। जाते समय उन्होंने बार-बार,,
राजर्षि दुष्यन्त ने कहा ;- पवित्र मुस्कान वाली सुन्दरी! मैं तुम्हारे लिये चतुरंगिनी सेना भेजूंगा और उसी के साथ अपने राज भवन में बुलवाऊंगा। अनिन्द्यगामिनी शकुन्तला से ऐसा कहकर राजर्षि दुषयन्त ने उसे अपनी भुजाओं में भर लिया और उसकी ओर मुस्कराते हुए देखा। देवी शकुन्तला राजा की परिक्रमा करके खड़ी थी। उस समय उन्होंने उसे हृदय से लगा लिया। शकुन्तला के मुख पर आसुओं की धारा बहचली और वह नरेश के चरणों में गिर पड़ी। राजा ने देवी शकुन्तला को फिर उठाकर बार-बार ,,
राजर्षि दुष्यन्त ने कहा ;- ‘राजकुमारी! चिन्ता न करो। मैं अपने पुण्य की शपथ खाकर कहता हूं, तुम्हें अवश्य बुला लूंगा।’
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार शकुन्तला से प्रतिज्ञा करके नरेश्वर राजा दुष्यन्त आश्रम से चल दिये। उनके मन में महर्षि कण्व की ओर से बड़ी चिन्ता थी कि तपस्वी भगवान कण्व यह सब सुनकर न जाने क्या कर बैठेंगे? इस तरह चिन्ता करते हुए ही राजा ने अपने नगर में प्रवेश किया। उनके गये दो ही घड़ी बीती थी कि महर्षि कण्व भी आश्रम पर आ गये; परंतु शकुन्तला लज्जावश पहले के सामन पिता के समीप नहीं गयी। तत्पश्चात वह डरती हुई ब्रह्मर्षि के निकट धीरे-धीरे गयी। फिर उसने उनके लिये आसन लेकर बिछाया। शकुन्तला इतनी लज्जित हो गयी थी कि महर्षि से कोई बात तक न कर सकी। भरतश्रेष्ठ! वह अपने धर्म से गिर जाने के कारण भयभीत हो रही थी। जो कुछ समय पहले तक स्वाधीन ब्रह्मचारिणी थी, वही उस समय अपना दोष देखने के कारण घबरा गयी थी। शकुन्तला को लज्जा में डूबी हुई देख महर्षि कण्व ने उससे कहा।
कण्व बोले ;- 'बेटी! तू सलज रहकर भी दीर्घायु होगी अब पहले जैसी चपल न रह सकेगी। शुभे! सारी बातें स्पष्ट बता भय न कर'।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! पवित्र मुस्कान वाली वह सुन्दरी अत्यन्त सदाचारिणी थी; तो भी अपने व्यवहार से लज्जा का अनुभव करती हुई महर्षि कण्व से बड़ी कठिनाई के साथ गद्गगद कण्ठ होकर बोली।
शकुन्तला बोली ;- तात! इलिलकुमार महाराज दुष्यन्त इस वन में आये थे। दैवयोग से इस आश्रम पर भी उनका आगमन हुआ और मैंने उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया। पिता जी! आप उन पर प्रसन्न हों। वे महायशस्वी नरेश अब मेरे स्वामी हैं। इसके बाद का सारा वृतान्त आप दिव्य ज्ञान दृष्टि से देख सकते हैं। क्षत्रियकुल को अभयदान देकर उन पर कृपा दृष्टि करें। महातपस्वी भगवान् कण्व दिव्यज्ञान से सम्पन्न थे। वे दिव्य दृष्टि से देखकर शकुन्तला की तात्कालिक अवस्था को जान गये; अत: प्रसन्न होकर बोले।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिसप्ततितम अध्याय के श्लोक 26-35 का हिन्दी अनुवाद)
‘भद्रे! आज तुमने मेरी अवहेलना करके जो एकान्त में किसी पुरुष के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है, वह तुम्हारे धर्म का नाशक नहीं है। क्षत्रिय के लिये गान्धर्व विवाह श्रेष्ठ कहा गया है। स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे को चाहते हों, उस दशा में उन दोनों का एकान्त में जो मन्त्रहीन सम्बन्ध स्थापित होता है, उसे गान्धर्व विवाह कहा गया है। ‘शकुन्तले! महामना दुष्यन्त धर्मात्मा और श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे तुम्हें चाहते थे। तुमने योग्य पति के साथ सम्बन्ध स्थापित किया है; इसलिये लोक में तुम्हारे गर्भ से एक महाबली और महात्मापुत्र उत्पन्न होगा, जो समुद्र से घिरी हुई इस समूची पृथ्वी का उपभोग करेगा। शत्रुओं पर आक्रमण करने वाले उन महामना चक्रवर्ती नरेश की सेना सदा अप्रतिहत होगी। उसकी गति को कोई रोक नहीं सकेगा’।
तदनन्तर शकुन्तला ने उनके लाये हुए फल के भार को लेकर यथास्थान रख दिया। फिर उनके दोनों पैर धाये तथा जब वे भोजन और विश्राम कर चुके, तब वह मुनि से इस प्रकार बोली।
शकुन्तला ने कहा ;- भगवन्! मैंने पुरुषों में श्रेष्ठ राजा दुष्यन्त का पतिरुप में वरण किया है। अत: मन्त्रियों सहित उन नरेश पर आपको कृपा करनी चाहिये।
कण्व बोले ;- उत्तम वर्ण वाली पुत्री! मैं तुम्हारे भले के लिये राजा दुष्यन्त पर भी प्रसन्न ही हूँ। शचिस्मिते! अब तक तेरे बहुत-से ॠतु व्यर्थ बीत गये हैं। इस बार यह सार्थक हुआ है। अनघे! तुम्हें पाप नहीं लगेगा। शुभे! तुम्हारी जो इच्छा हो, वह वर मुझसे मांग लो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब शकुन्तला ने दुष्यन्त की हित की इच्छा से यह वर मांगा कि पुरुवंशी नरेश सदा धर्म में स्थिर रहें और वे कभी राज्य से भ्रष्ट न हों।
उस समय धर्मात्माओं में श्रेष्ठ कण्व ने उससे कहा ;- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो)। यह कह कर उन्होंने मूर्तिमति लक्ष्मी–सी पुत्री शकुन्तला का दोनों हाथों से स्पर्श किया और कहा।
कण्व बोले ;- बेटी! आज से तू महात्मा राजा दुष्यन्त की महारानी है। अत: पतिव्रता स्त्रियों का जो बर्ताव तथा सदाचार है, उसका निरन्तर पालन कर।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में शकुंतलोपाख्यान-विषयक तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा है)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
चौहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)
"शकुन्तला के पुत्र का जन्म, उसकी अद्भुत शक्ति, पुत्रसहित शकुन्तला का दुष्यन्त के यहाँ जाना, दुष्यन्त-शकुन्तला-संवाद, आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन और भरत का राज्याभिषेक"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब शकुन्तला से पूर्वोक्त प्रतिज्ञा करके राजा दुष्यन्त चले गये, तब क्षत्रिय कन्या शकुन्तला के उदर में उन महात्मा दुष्यन्त के द्वारा स्थापित किया हुआ गर्भ धीरे-धीरे बढ़ने और पुष्ट होने लगा। शकुन्तला कार्य की गुरुता पर दृष्टि रखकर निरन्तर राजा दुष्यन्त का ही चिन्तन करती रहती थी। उसे न तो दिन में नींद आती थी और न रात में ही। उसका स्नान और भोजन छूट गया था। उसे यह दृढ़ विश्वास था कि राजा के भेजे हुए ब्राह्मण चतुरांगिणी सेना के साथ आज, कल या परसों तक मुझे लेने के लिये अवश्य आ जायंगे। भरतनन्दन! शकुन्तला को दिन, पक्ष, मास, ॠतु, अयन तथा वर्ष- इन सबकी गणना करते-करते तीन वर्ष बीत गये। जनमेजय! तदनन्तर पूरे तीन वर्ष व्यतीत होने के बाद सुन्दर जांघों वाली शकुन्तला ने अपने गर्भ से प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी, रुप और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न, अमित पराक्रमी कुमार को जन्म दिया, जो दुष्यन्त के वीर्य से उत्पन्न हुआ था। उस समय आकाश से उस बालक के लिये फूलों की वर्षा हुई, देवताओं की दुन्दुभियां बज उठीं और अप्सराएं मधुर स्वर में गाती हुई नृत्य करने लगीं। उस अवसर पर वहाँ देवताओं सहित इन्द्र ने आकर कहा।
इन्द्र बोले ;- शकुन्तले! तुम्हारा यह पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा। पृथ्वी पर कोई भी इसके बल, तेज तथा रुप की समानता नहीं कर सकता। यह पुरुवंश का रत्न सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा। राजसूय आदि यज्ञों के द्वारा सहस्रों बार अपना सारा धन ब्राह्मणों के अधीन करके उन्हें अपरिमित दक्षिणा देगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- इन्द्रादि देवताओं का यह वचन सुनकर कण्व के आश्रम में रहने वाले सभी महर्षि कण्व कन्या शकुन्तला के सौभाग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। यह सब सुनकर शकुन्तला को भी बड़ा हर्ष हुआ। पुण्यावानों में श्रेष्ठ महायशस्वी कण्व ने मुनियों से ब्राह्मणों को बुलाकर उनका पूर्ण सत्कार करके बालक का विधिपूर्वक जातकर्म आदि संस्कार कराया वह बुद्धिमान बालक प्रतिदिन बढ़ने लगा। वह सफेद और नुकीले दांतों से शोभा पा रहा था। उसके शरीर का गठन सिंह के समान था। वह ऊँचे कद का था। उसके हाथों में चक्र के चिह्न थे। वह अद्भुत शोभा से सम्पन्न, विशाल मस्तक वाला और महान् बलवान् था। देवताओं के बालक-सा प्रतीत होने वाला वह तेजस्वी कुमार वहाँ शीघ्रतापूर्वक बढ़ने लगा। छ: वर्ष की अवस्था में ही वह बलवान् बालक कण्व के आश्रम में सिंहों, व्याघ्रों, वराहों, भैंसों और हाथियों को पकड़ कर खींच लाता और आश्रम के समीपवर्ती वृक्षों में बांध देता था।
फिर वह सबका दमन करते हुए उनकी पीठ पर चढ़ जाता और क्रीड़ा करते हुए उन्हें सब ओर दौड़ाता हुआ दौड़ता था। वहाँ सब राक्षस और पिशाच आदि शत्रुओं को युद्ध में मुष्टि प्रहार के द्वारा परास्त करके वह राजकुमार ऋषि मुनियों की आराधना में लगा रहता था। एक दिन कोई महाबली दैत्य उसे मार डालने की इच्छा से उस वन में आया। वह उसके द्वारा प्रतिदिन सताये जाते हुए दूसरे दैत्यों की दशा देखकर अमर्ष में भरा हुआ था। उसके आते ही राजकुमार ने हंसकर उसे दोनों हाथों से पकड़ लिया और अपनी बांहों में दृढ़तापूर्वक कसकर दबाया। वह बहुत जोर लगाने पर भी अपने को उस बालक के चंगुल से छुड़ा न सका, अत: भयंकर स्वर से चीत्कार करने लगा। उस समय दबाब के कारण उसकी इद्रियों से रक्त बह चला। उसकी चीत्कार से भयभीत हो मृग और सिंह आदि जंगली जीव मल-मूत्र करने लगे तथा आश्रम पर रहने वाले प्राणियों की भी यही दशा हुई। दुष्यन्तकुमार ने घुटनों से मार-मार कर उस दैत्य के प्राण ले लिये; तत्पश्चात उसे छोड़ दिया। उसके हाथ से छूटते ही वह दैत्य गिर पड़ा। उस बालक का यह पराक्रम देखकर सब लोगों को बड़ा विस्मय हुआ। कितने ही दैत्य और राक्षस प्रतिदिन उस दुष्यन्तकुमार के हाथों मारे जाते थे। कुमार के भय से उन्होंने कण्व के आश्रम पर जाना छोड़ दिया। यह देख कण्व के आश्रम में रहने वाले ऋषियों ने उसका नया नामकरण किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 8-11 का हिन्दी अनुवाद)
‘यह सब जीवों का दमन करता है, इसलिये ‘सर्वदमन’ नाम से प्रसिद्ध हो।’ तब से उस कुमार का नाम सर्वदमन हो गया। वह पराक्रम, तेज और बल से सम्पन्न था। राजा दुष्यन्त ने अपनी रानी और पुत्र को बुलाने के लिये जब किसी भी मनुष्य को नहीं भेजा, तब शकुन्तला चिन्तामग्न हो गयी। उसके सारे अंग सफेद पड़ने लगे। उसके खुले हुए लंबे केश लटक रहे थे, वस्त्र मैले हो गये थे, वह अत्यन्त दुर्बल और दीन दिखायी देती थी। शकुन्तला को इस दयनीय दशा में देखकर कण्व मुनि ने कुमार सर्वदमन के लिये विद्या का चिन्तन किया। इससे उस बारह वर्ष के ही बालक के हृदय में समस्त शास्त्रों और सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान प्रकाशित हो गया।
महर्षि कण्व ने उस कुमार और उसके लोकोत्तर कर्म को देखकर
शकुन्तला से कहा ;- ‘अब इसके युवराज-पद पर अभिषिक्त होने का समय आया है। मेरी कल्याणमयी पुत्री! मेरा यह वचन सुनो। पवित्र मुस्कान वाली शकुन्तले! पतिव्रता स्त्रियों के लिये यह विशेष ध्यान देने योग्य बात है; इसलिये बता रहा हूँ। सती स्त्रियों के लिये सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि वे मन, वाणी, शरीर और चेष्टाओं द्वारा निरन्तर पति की सेवा करती रहें। मैंने पहले भी तुम्हें इसके लिये आदेश दिया है। तुम अपने इस व्रत का पालन करो। इस पतिव्रतोचित आचार-व्यवहार से ही विशिष्ट शोभा प्राप्त कर सकोगी। भद्रे! तुम्हें पुरुनन्दन दुष्यन्त के पास जाना चाहिये। वे स्वयं नहीं आ रहे हैं, ऐसा सोचकर तुमने बहुत-सा समय उनकी सेवा से दूर रहकर बिता दिया।
शुचिस्मिते! अब तुम अपने हित की इच्छा से स्वयं जाकर राजा दुष्यन्त की आराधना करो। वहाँ दुष्यन्तकुमार सर्वदमन को युवराज पद पर प्रतिष्ठित देख तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी। देवता, गुरु, क्षत्रिय, स्वामी तथा साधु पुरुष- इनका संग विशेष हितकर है। अत: बेटी! तुम्हें मेरा प्रिय करने की इच्छा से कुमार के साथ अवश्य अपने पति के यहाँ जाना चाहिये। मैं अपने चरणों की शपथ दिलाकर कहता हूँ कि तुम मेरी इस आज्ञा के विपरीत कोई उत्तर न देना’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- पुत्री से ऐसा कहकर महर्षि कण्व ने उसके पुत्र भरत को दोनों बांहों में पकड़कर अंक में भर लिया और उसका मस्तक सूंघकर कहा।
कण्व बोले ;- वत्स! चन्द्रवंश में दुष्यन्त नाम से प्रसिद्ध एक राजा हैं। पवित्र व्रत का पालन करने वाली यह तुम्हारी माता उन्हीं की महारानी है। यह सुन्दरी तुम्हें साथ लेकर अब पति की सेवा में जाना चाहती है। तुम वहाँ जाकर राजा को प्रणाम करके युवाराज-पद प्राप्त करोगे। वे महाराज दुष्यन्त ही तुम्हारे पिता हैं। तुम सदा उनकी आज्ञा के अधीन रहना और बाप-दादे के राज्य का प्रेमपूर्वक पालन करना।
फिर कण्व शकुन्तला से बोले ;- ‘भामिनी! शकुतले! यह मेरी हितकर एवं लाभप्रद बात सुनो। पतिव्रता भाव सम्बन्धी गुणों को छोड़कर तुम्हारे लिये और कोई वस्तु साध्य नहीं है। पतिव्रताओं पर सम्पूर्ण वरों को देने वाले देवता लोग भी संतुष्ट रहते हैं। भामिने! वे आपत्ति के निवारण के लिये अपने कृपा-प्रसाद का भी परिचय देंगे। शुचिस्मिते! पतिव्रता देवियां पति के प्रसाद से पुण्यगति को ही प्राप्त होती हैं; अशुभ गति को नहीं। अत: तुम जाकर राजा की आराधना करो’।
फिर उस बालक के बल को समझकर,,
कण्व ने अपने शिष्यों से कहा ;- ‘तुम लोग समस्त शुभ लक्षणों से सम्मानित मेरी पुत्री शकुन्तला और इसके पुत्र को शीघ्र ही इस घर से ले जाकर पति के घर में पहुँचा दो। स्त्रियों का अपने भाई-बन्धुओं के यहाँ अधिक दिनों तक रहना अच्छा नहीं होता। वह उनकी कीर्ति, शील, तथा पातिव्रत्य धर्म का नाश करने वाला होता है। अत: इसे अविलम्ब पति के घर में पहुँचा दो’।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 12-17 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कश्यपनन्दन कण्व ने धर्मानुसार मेरे पुत्र का बड़ा आदर किया है, यह देखकर तथा उनकी ओर से पति के घर जाने की आज्ञा पाकर शकुन्तला मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई। कण्व के मुख से बारंबार ‘जाओ-जाओ’ यह आदेश सुनकर पुरुनन्दन सर्वदमन ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और ,,
सर्वदमन ने कहा ;- ‘माँ! तुम क्यों विलम्ब करती हो, चलो राजमहल चलें’। देवी शकुन्तला से ऐसा कहकर पौरवराज कुमार ने मुनि के चरणों में मस्तक झुकाकर महात्मा राजा दुष्यन्त के यहाँ जाने का विचार किया। शकुन्तला ने भी हाथ जोड़कर पिता को प्रणाम किया और उनकी परिक्रमा करके उस समय यह बात कही,,
शकुन्तला बोली ;- ‘भगवन्! काश्यप! आप मेरे पिता हैं, यह समझकर मैंने अज्ञानवश यदि कोई कठोर या असत्य बात कह दी हो अथवा न करने योग्य या अप्रिय कार्य कर डाला हो, तो उसे आप क्षमा कर देंगे’।
शकुन्तला के ऐसा कहने पर सिर झुकाकर बैठे हुए कण्व मुनि कुछ बोल न सके; मानव-स्वभाव अनुसार करुणा का उदय हो जाने से नेत्रों से आंसू बहाने लगे। उनके आश्रम में बहुत-से ऐसे मुनि रहते थे, जो जल पीकर, वायु पीकर अथवा सूखे पत्ते खाकर तपस्या करते थे। फल-मूल खाकर रहने वाले भी बहुत थे। वे सब-के-सब जितेन्द्रिय एवं दुर्बल शरीर वाले थे। उनके शरीर की नश-नाड़ियां स्पष्ट दिखाई देती थीं। उत्तम व्रतों का पालन करने वाले उन महर्षियों में से कितने ही सिर पर जटा धारण करते थे और कितने ही सिर मुड़ाये रहते थे। कोई बल्कल धारण करते थे और कोई मृगचर्म लपेटे रहते थे।
महर्षि कण्व ने उन मुनियों को बुलाकर करुण भाव से कहा ;- ‘महर्षियों! यह मेरी यशस्विनी पुत्री वन में उत्पन्न हुई और यहीं पलकर इतनी बड़ी हुई है। मैंने सदा इसे लाड़-प्यार किया है। यह कुछ नहीं जानती है। विप्रगण! तुम सब लोग इसे ऐसे मार्ग से राजा दुष्यन्त के घर ले जाओ जिसमें अधिक श्रम न हो। 'बहुत अच्छा’ कहकर वे सभी महातेजस्वी शिष्य (पुत्र सहित) शकुन्तला को आगे करके दुष्यन्त के नगर की ओर चले। तदनन्तर सुन्दर भौहों वाली शकुन्तला कमल के समान नेत्रों वाले देव बालक के सदृश तेजस्वी पुत्र को साथ ले अपने परिचित तपोवन से चलकर महाराज दुष्यन्त के यहाँ आयी।
राजा के यहाँ पहुँचकर अपने आगमन की सूचना दे अनुमति लेकर वह उसी बालसूर्य के समान तेजस्वी पुत्र के साथ राजसभा में प्रविष्ट हुई। सब शिष्यगण राजा को महर्षि का संदेश सुनाकर पुन: आश्रम लौट आये और शकुन्तला न्यायपूर्वक महाराज के प्रति सम्मान भाव प्रकट करती हुई,,
शकुन्तला पुत्र से बोली ;- ‘बेटा! दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रत का पालन करने वाले ये महाराज तुम्हारे पिता हैं; इन्हें प्रणाम करो।’ पुत्र से ऐसा कहकर शकुन्तला लज्जा से मुख नीचा किये एक खंभे का सहारा लेकर खड़ी हो गयी और,,
महाराज से बोली ;- ‘देव! प्रसन्न हों।’ शकुन्तला का पुत्र भी हाथ जोड़कर राजा को प्रणाम करके उन्हीं की ओर देखने लगा। उसके नेत्र हर्ष से खिल उठे थे। राजा दुष्यन्त ने उस समय धर्मबुद्धि से कुछ विचार करते हुए ही कहा।
दुष्यन्त बोले ;- सुन्दरी! यहाँ तुम्हारे आगमन का क्या उद्देश्य है बताओ? विशेषत: उस दशा में जबकि तुम पुत्र के साथ आयी हो, मैं तुम्हारा कार्य अवश्य सिद्ध करुंगा; इसमें संदेह नहीं।
शकुन्तला ने कहा ;- महाराज! आप प्रसन्न हों। पुरुषोत्तम! मैं अपने आगमन का उद्देश्य बताती हूं, सुनिये। राजन्! यह आपका पुत्र है। इसे आप युवराज-पद पर अभिषिक्त कीजिये। महाराज! यह देवोपमकुमार आपके द्वारा मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है। पुरुषोत्तम! इसके लिये आपने मेरे साथ जो शर्त कर रखी है, उसका पालन कीजिये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 18-33 का हिन्दी अनुवाद)
महाभाग! आपने कण्व के आश्रम पर मेरे समागम के समय पहले जो प्रतिज्ञा की थी, उसका इस समय स्मरण कीजिये। राजा दुष्यन्त ने शकुन्तला का यह वचन सुनकर सब बातों को याद रखते हुए भी उससे इस प्रकार कहा,,-
राजा दुष्यन्त बोले ;- ‘दुष्ट तपस्विनि! मुझे कुछ भी याद नहीं है। तुम किसकी स्त्री हो? तुम्हारे साथ मेरा धर्म, काम अथवा अर्थ को लेकर वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हुआ है, इस बात का मुझे तनिक भी स्मरण नहीं है। तुम इच्छानुसार जाओ या रहो अथवा जैसी तुम्हारी रुचि हो, वैसा करो’। सुन्दर अंग वाली तपस्विनी शकुन्तला दुष्यन्त के ऐसा कहने पर लज्जित हो दु:ख से बेहोश-सी हो गयी और खंभे की तरह निश्चलभाव से खड़ी रह गयी। क्रोध और अमर्ष से उसकी आंखें लाल हो गयीं, ओठ फड़कने लगे और मानो जला देगी, इस भाव से टेढ़ी चितवन द्वारा राजा की ओर देखने लगी। क्रोध उसे उत्तेजित कर रहा था, फिर भी उसने अपने आकार को छिपाये रखा और तपस्या द्वारा संचित किये हुए अपने तेज को वह अपने भीतर ही धारण किये रही। वह दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार-सा करती रही, फिर दु:ख और अमर्ष में भरकर पति की ओर देखती हुई क्रोधपूर्वक बोली,,
शकुन्तला बोली ;- ‘महाराज! आप जान-बूझकर भी दूसरे-दूसरे निम्न कोटि के मनुष्यों की भाँति नि:शंक होकर ऐसी बात क्यों कहते हैं कि ‘मैं नहीं जानता। इस विषय में यहाँ क्या झूठ है और क्या सच, इस बात को आपका हृदय ही जानता होगा। उसी को साक्षी बनाकर- हृदय पर हाथ रखकर सही-सही कहिये, जिससे आपका कल्याण हो। आप अपने आत्मा की अवहेलना न कीजिये।
(आपका स्वरुप तो कुछ और है परंतु आप बन कुछ और रहे हैं।) जो अपने असली स्वरुप को छिपाकर अपने को कुछ का कुछ दिखाता है, अपने आत्मा का अपहरण करने वाले उस चोर ने कौन-सा पाप नहीं किया? आप समझ रहे हैं कि उस समय मैं अकेला था (कोई देखने वाला नहीं था), परंतु आपको पता नहीं कि सनातन मुनि (परमात्मा) सबके हृदय में अन्तर्यामी रुप से विद्यमान है। वह सबके पाप-पुण्य को जानता है और आप उसी के निकट रहकर पाप कर रहे हैं। जो सदा असत्य से दूर रहने वाले हैं, उन समस्त साधु पुरुषों की दृष्टि में केवल धर्म ही हित कारक है। धर्म कभी दु:खदायक नहीं होता। मनुष्य पाप करके यह समझता है कि मुझे कोई नहीं जानता, किंतु उसका यह समझना भारी भूल है; क्योंकि सब देवता और अन्तर्यामी परमात्मा भी मनुष्य के उस पाप-पुण्य को देखते और जानते हैं। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, अग्नि, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, जल, हृदय, यमराज, दिन, रात, दोनों संध्याऐं और धर्म- ये सभी मनुष्य के भले-बुरे आचार-व्यवहार को जानते हैं। जिस पर हृदयस्थित कर्मसाक्षी क्षेत्रज्ञ परमात्मा संतुष्ट रहते हैं, सूर्यपुत्र यमराज उसके सभी पापों को स्वयं नष्ट कर देते हैं। परंतु जिस दुरात्मा पर अन्तर्यामी संतुष्ट नहीं होते, यमराज उस पापी को उसके पापों का स्वयं दण्ड देते हैं। जो स्वयं अपने आत्मा का तिरस्कार करके कुछ-का-कुछ समझता है, देवता भी उसका भला नहीं कर सकते और उसका आत्मा भी उसके हित का साधन नहीं कर सकता। मैं स्वयं आपके पास आयी हूं, ऐसा समझकर मुझे पतिव्रता पत्नी का तिरस्कार न कीजिये। मैं आपके द्वारा आदर पाने योग्य हूँ और स्वयं आपके निकट आयी हुई आप ही की पत्नि हूं, तथापि आप मेरा आदर नहीं करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 34-47 का हिन्दी अनुवाद)
आप किसलिये नीच पुरुष की भाँति भरी सभा में मुझे अपमानित कर रहे हैं? मैं सूने जंगल में तो नहीं रो रही हूं? फिर आप मेरी बात क्यों नहीं सुनते? महाराज दुष्यन्त! यदि मेरे उचित याचना करने पर भी आप मेरी बात नहीं मानेंगे, तो आज आपके सिर के सैकड़ों टुकड़े हो जायेंगे। पति ही पत्नी के भीतर गर्भरुप में प्रवेश करके पुत्र रुप में जन्म लेता है। यही जाया (जन्म देने वाली स्त्री) का जायात्व है, जिसे पुराणवेत्ता विद्वान जानते हैं। शास्त्र के ज्ञाता पुरुष के इस प्रकार जो संतान उत्पन्न होती है, वह संतति की परम्परा द्वारा अपने पहले के मरे हुए पितामहों का उद्धार कर देती है। पुत्र 'पुत्' नामक नरक से पिता का त्राण करता है, इसलिये साक्षात् ब्रह्मा जी ने उसे ‘पुत्र’ कहा है। मनुष्य पुत्र से पुण्य लोकों पर विजय पाता है, पौत्र से अक्षय सुख का भागी होता है तथा पौत्र के पुत्र से प्रपितामहगण आनन्द के भागी होते हैं। वही भार्या है, जो घर के काम-काज में कुशल हो। वही भार्या है, जो संतानवती हो। वही भार्या है जो अपने पति को प्राणों के समान प्रिय मानती हो और वही भार्या है, जो पतिव्रता हो। भार्या पुरुष का आधा अंग है। भार्या उसका सबसे उत्तम मित्र है। भार्या धर्म, अर्थ और काम का मूल है और संसार-सागर में तरने की इच्छा वाले पुरुष के लिये भार्या ही प्रमुख साधन है।
जिनके पत्नी है, वे ही यज्ञ आदि कर्म कर सकते हैं। सपत्नीक पुरुष ही सच्चे गृहस्थ हैं। पत्नी वाले पुरुष सुखी और प्रसन्न रहते हैं तथा जो पत्नी से युक्त हैं, वे मानो लक्ष्मी से सम्पन्न हैं (क्योंकि पत्नी ही घर की लक्ष्मी है)। पत्नी ही एकान्त में प्रिय वचन बोलने वाली संगिनी या मित्र है। धर्मकार्यों में स्त्रियां पिता की भाँति पति की हितैषिणी होती हैं और संकट के समय माता की भाँति दु:ख में हाथ बंटाती तथा कष्ट–निवारण की चेष्टा करती हैं। परदेश में यात्रा करने वाले पुरुष के साथ यदि उसकी स्त्री हो तो वह घोर-से-घोर जंगल में भी विश्राम पा सकता है- सुख से रह सकता है। लोक व्यवहार में भी जिसके स्त्री है, उसी पर सब विश्वास करते हैं। इसलिये स्त्री ही पुरुष की श्रेष्ठ गति है। पति संसार में हो या मर गया हो, अथवा अकेले ही नरक में पड़ा हो; पतिव्रता स्त्री ही सदा उसका अनुगमन करती है। साध्वी स्त्री यदि पहले मर गयी हो तो परलोक में जाकर वह पति की प्रतीक्षा करती है और यदि पहले पति मर गया हो तो सती स्त्री उसका अनुसरण करती है। राजन्! इसीलिये सुशीला स्त्री का पाणिग्रहण करना सबके लिये अभीष्ट होता है; क्योंकि पति अपनी पतिव्रता स्त्री को इहलोक में तो पाता ही है, परलोक में भी प्राप्त करता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 48-57 का हिन्दी अनुवाद)
पत्नी के गर्भ से अपने द्वारा उत्पन्न किये हुए आत्मा को ही विद्वान पुरुष पुत्र कहते हैं, इसलिये मनुष्य को चाहिये कि वह अपनी उस धर्मपत्नी को जो पुत्र की माता बन चुकी है, माता के समान ही देखे। सबका अन्तरात्मा ही सदा पुत्र नाम से प्रतिपादित होता है। पिता की जैसी चाल होती है, जैसे रुप, चेष्टा, आवर्त (भंवर) और लक्षण आदि होते हैं, पुत्र में भी वैसी ही चाल और वैसे ही रुप-लक्षण आदि देखे जाते हैं। पिता के सम्पर्क से ही पुत्रों में शुभ-अशुभ शील, गुण एवं आचारआदि आते हैं। जैसे दर्पण में अपना मुंह देखा जाता है, उसी प्रकार गर्भ से उत्पन्न हुए अपने आत्मा को ही पुत्र रुप में देखकर पिता को वैसा ही आनन्द होता है, जैसा पुण्यात्मा पुरुष को स्वर्गलोक की प्राप्ति हो जाने पर होता है। जैसे धूप से तपे हुए जीव जल में स्नान कर लेने पर शान्ति का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार जो मानसिक दु;ख और चिन्ताओं की आग में जल रहे हैं तथा जो नाना प्रकार के रोगों से पीड़ित हैं, वे मानव अपनी पत्नी के समीप होने पर आनन्द का अनुभव करते हैं। जो परदेश में रहकर अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं, जो दीन और मलिन वस्त्र धारण करने वाले हैं, वे दरिद्र मनुष्य भी अपनी पत्नी को पाकर ऐसे संतुष्ट होते हैं, मानो उन्हें कोई धन मिल गया हो। रति, प्रीति तथा धर्म पत्नी के ही अधीन हैं, ऐसा सोचकर पुरुष को चाहिये कि वह कुपित होने पर भी पत्नी के साथ कोई अप्रिय बर्ताव न करे।
पत्नी अपना आधा अंग है, यह श्रुति का वचन है। वह धन, प्रजा, शरीर, लोकयात्रा, धर्म, स्वर्ग, ऋषि तथा पितर- इन सबकी रक्षा करती है। स्त्रियां पति के आत्मा के जन्म लेने का सनातन पुण्य क्षेत्र हैं। ऋषियों में भी क्या शक्ति है कि बिना स्त्री के संतान उत्पन्न कर सकें। जब पुत्र धरती की धूल में सना हुआ पास आता और पिता के अंगों में लिपट जाता है, उस समय जो सुख मिलता है, उससे बढ़कर और क्या हो सकता है? देखिये, आपका यह पुत्र स्वयं आपके पास आया है और प्रेमपूर्ण तिरछी चितवन से आपकी ओर देखता हुआ आपकी गोद में बैठने के लिये उत्सुक है; फिर आप किसलिये इसका तिरस्कार करते हैं। चींटियां भी अपने अण्डों का पालन ही करती हैं; उन्हें फोड़ती नहीं। फिर आप धर्मज्ञ होकर भी अपने पुत्र का भरण-पोषण क्यों नहीं करते? 'ये मेरे अपने ही अण्डे हैं’ ऐसा समझकर कौए कोयल के अण्डों का भी पालन-पोषण करते हैं; फिर आप सर्वज्ञ होकर अपने से ही उत्पन्न हुए ऐसे सुयोग्य पुत्र का सम्मान क्यों नहीं करते? लोग मलयगिरि के चन्दन को अत्यन्त शीतल बताते हैं, परंतु गोद में सटाये हुए शिशु का स्पर्श चन्दन से भी अधिक शीतल एवं सुखद होता है। अपने शिशु को हृदय से लगा लेने पर उसका स्पर्श जितना सुखदायक जान पड़ता है, वैसा सुखद स्पर्श न तो कोमल वस्त्रों का है, न रमणीय सुन्दरियों का है और न शीतल जल का ही है। मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है, चतुष्पदों (चौपायों) में गौ श्रेष्ठतम है, गौरवशाली व्यक्तियों में गुरु श्रेष्ठ है और स्पर्श करने योग्य वस्तुओं में पुत्र ही सबसे श्रेष्ठ है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 58-70 का हिन्दी अनुवाद)
आपका यह पुत्र देखने में कितना प्यारा है। यह आपके अंगों से लिपटकर आपका स्पर्श करे। संसार में पुत्र के स्पर्श से बढ़कर सुखदायक स्पर्श और किसी का नहीं है। शत्रुओं का दमन करने वाले सम्राट! मैंने पूरे तीन वर्षों तक अपने गर्भ में धारण करने के पश्चात् आपके इस पुत्र को जन्म दिया है। यह आपके शोक का विनाश करने वाला होगा। पौरव! पहले जब मैं सौर में थी, उस समय आकाश-वाणी ने मुझसे कहा था कि यह बालक सौ अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला होगा। प्राय: देखा जाता है कि दूसरे गांव की यात्रा करके लौटे हुए मनुष्य घर आने पर बड़े स्नेह से पुत्रों को गोद में उठा लेते हैं और उनके मस्तक सूंघकर आनन्दित होते हैं। पुत्रों के जात कर्म संस्कार के समय वेदज्ञ ब्राह्मण जिस वैदिक मन्त्र-समुदाय का उच्चारण करते हैं, उसे आप भी जानते हैं। (उस मन्त्र समुदाय का भाव इस प्रकार है-) हे बालक! तुम मेरे अंग-अंग से प्रकट हुए हो; हृदय से उत्पन्न हुए हो। तुम पुत्र नाम से प्रसिद्ध मेरे आत्मा ही हो, अत: वत्स! तुम सौ वर्षों तक जीवित रहो। मेरा जीवन तथा अक्षय संतान-परम्परा भी तुम्हारे ही अधीन है, अत: पुत्र! तुम अत्यन्त सुखी होकर सौ वर्षों तक जीवन धारण करो। यह बालक आपके अंगों से उत्पन्न हुआ है; मानो एक पुरुष से दूसरा पुरुष प्रकट हुआ है। निर्मल सरोवर में दिखाई देने वाले प्रतिबिम्ब की भाँति अपने द्वितीय आत्मारुप इस पुत्र को देखिये।
जैसे गार्हपत्य अग्नि से आहवनीय अग्नि का प्रणयन (प्राकट्य) होता है, उसी प्रकार यह बालक आपसे हुआ है, मानो आप एक होकर भी अब दो रुपों में प्रकट हो गये हैं। राजन! आज से कुछ वर्ष पहले आप शिकार खेलने वन में गये थे। वहाँ एक हिंसक पशु के पीछे आकृष्ट हो आप दौड़ते हुए मेरे पिता जी के आश्रम पर पहुँच गये, जहाँ मुझ कुमारी कन्या को आपने गान्धर्व विवाह द्वारा पत्नी रुप में प्राप्त किया। ‘उर्वशी, पूर्वचित्ति, सहजन्या, मेनका, विश्वाची और धृताची- ये छ: अप्सराऐं ही अन्य सब अप्सराओं से श्रेष्ठ हैं। उन सबमें भी मेनका नाम की अप्सरा श्रेष्ठ है, क्योंकि वह साक्षात् ब्रह्मा जी से उत्पन्न हुई है। उसी ने स्वर्ग लोक से भूतल पर आकर विश्वामित्र जी के सम्पर्क से मुझे उत्पन्न किया था। महाराज! पूर्वकाल में कुश नाम से प्रसिद्ध एक धर्मपरायण तेजस्वी महर्षि हो गये हैं, जो दूसरे अग्निदेव के समान प्रतापी थे। उनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी से हुई थी। वे महर्षि विश्वामित्र के प्रपितामह थे। कुश के बलवान् पुत्र का नाम कुशनाम था। वे बड़े धर्मात्मा थे। राजन्! कुशनाम के पुत्र गाधि हुए और गाधि से विश्वामित्र का जन्म हुआ। ऐसे कुलीन महर्षि मेरे पिता हैं और मेनका मेरी श्रेष्ठ माता है। उन मेनका अप्सारा ने हिमालय के शिखर पर मुझे जन्म दिया; किंतु वह असद्व्यवहार करने वाली अप्सरा मुझे परायी संतान की तरह वहीं छोड़कर चली गयी।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 71-80 का हिन्दी अनुवाद)
वे पक्षी भी पुण्यवान् हैं, जिन्होंने एक साथ आकर उस समय धर्मपूर्वक अपने पंखों से मेरी रक्षा की। शकुन्तों (पक्षियों) ने मेरी रक्षा की, इसलिये मेरा नाम शकुन्तला हो गया। तदनन्तर महात्मा कश्यपनन्दन कण्व की दृष्टि मुझ पर पड़ी। वे अग्निहोत्र के लिये जल लाने हेतु उधर गये हुए थे। उन्हें देखकर पक्षियों ने उन दयालु महर्षि को मुझे धरोहर की भाँति सौंप दिया। वे मुझे अरणी (शमी) की भाँति लेकर अपने आश्रम पर आये। राजन! महर्षि ने कृपापूर्वक अपनी पुत्री के समान मेरा पालन-पोषण किया। नरेश्वर! इस प्रकार मैं विश्वामित्र मुनि की पुत्री हूँ और महात्मा कण्व ने मुझे पाल-पोसकर बड़ी किया है। आपने युवावस्था में मुझे देखा था। निर्जन वन में आश्रम की पर्ण कुटी के भीतर सूने स्थान में, जबकि मेरे पिता उपस्थित नहीं थे, विधाता की प्रेरणा से प्रभावित मुझ कुमारी कन्या को आपने अपने मीठे वचनों द्वारा संतानोत्पादन के निमित्त सहवास के लिये प्रेरित किया। धर्म, अर्थ एवं काम की ओर दृष्टि रखकर मेरे साथ आश्रम में निवास किया। गान्धर्व विवाह की विधि से आपने मेरा पणिग्रहण किया है। वही मैं आज अपने कुल, शील, सत्यवादिता और धर्म को आगे रखकर आपकी शरण में आयी हूँ। इसलिये पूर्वकाल में वैसी प्रतिज्ञा करके अब उसे असत्य न कीजिये! आप जगत् के रक्षक हैं, मेरे प्राणनाथ हैं। मैं सर्वथा निरपराध हूँ और स्वयं आपकी सेवा में उपस्थित हूं, अत: अपने धर्म को पीछे करके मेरा परित्याग न कीजिये।
मैंने पूर्व जन्मान्तरों में कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिससे बाल्यावस्था में तो मेरे बान्धवों ने मुझे त्याग दिया और इस समय आप पतिदेवता द्वारा भी मैं त्याग दी गयी। महाराज! आपके द्वारा स्वेच्छा से त्याग दी जाने पर मैं पुन: अपने आश्रम को लौट जाऊंगी, किंतु अपने इस नन्हें-से पुत्र का त्याग आपको नहीं करना चाहिये’।
दुष्यन्त बोले ;- शकुन्तले! मैं तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न इस पुत्र को नहीं जानता। स्त्रियां प्राय: झूठ बोलने वाली होती हैं। तुम्हारी बात पर कौन श्रद्धा करेगा? तुम्हारी माता वेश्या मेनका बड़ी क्रूर हृदया है, जिसने तुम्हें हिमालय के शिखर पर निर्माल्य की तरह उतार फेंका है। और तुम्हारे क्षत्रिय जातीय पिता विश्वामित्र भी, जो ब्राह्मण बनने के लिये लालायित थे और मेनका को देखते ही काम के अधीन हो गये थे, बड़े निर्दयी जान पड़ते हैं। मेनका अप्सराओं में श्रेष्ठ बतायी जाती है और तुम्हारे पिता विश्वामित्र भी महर्षियों में उत्तम समझे जाते हैं। तुम उन्हीं दोनों की संतान होकर व्यभिचारिणी स्त्री के समान क्यों झूठी बातें बना रही हो। तुम्हारी यह बात श्रद्धा करने योग्य नहीं है। इसे कहते समय तुम्हें लज्जा नहीं आती? विशेषत: मेरे समीप ऐसी बातें कहने में तुम्हें संकोच होना चाहिये। दुष्ट तपस्विनि! तुम चली जाओ यहाँ से। कहाँ वे मुनि शिरोमणि महर्षि विश्वामित्र, कहां अप्सराओं में श्रेष्ठ मेनका और कहाँ तुम-जैसी तापसी का वेष धारण करने वाली दीन-हीन नारी? तुम्हारे इस पुत्र का शरीर बहुत बड़ा है। बाल्यावस्था में ही यह अत्यन्त बलवान् जान पड़ता है। इतने थोड़े समय में यह साख के खंभे-जैसा लम्बा कैसे हो गया? तुम्हारी जाति नीच है। तुम कुलटा-जैसी बातें करती हो। जान पड़ता है, मेनका ने अकस्मात् भोगासक्ति के वशीभूत होकर तुम्हें जन्म दिया है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 81-96 का हिन्दी अनुवाद)
तुम जो कुछ कहती हो, वह सब मेरी आंखों के सामने नहीं हुआ है। तापसी! मैं तुम्हें नहीं पहचानता। तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, वहीं चली जाओ।
शकुन्तला ने कहा ;- राजन्! आप दूसरों के सरसों बराबर दोषों को देखते रहते हैं, किंतु अपने बेल के समान बड़े-बड़े दोषों को देखकर भी नहीं देखते। मेनका देवताओं में रहती है और देवता मेनका के पीछे चलते हैं- उसका आदर करते हैं (उसी मेनका से मेरा जन्म हुआ है); अत: महाराज दुष्यन्त! आपके जन्म और कुल से मेरा जन्म और कुल बढ़कर है। राजेन्द्र! आप केवल पृथ्वी पर घूमते हैं, किंतु मैं आकाश में भी चल सकती हूँ। तनिक ध्यान से देखिये, मुझमें और आप में सुमेरु पर्वत और सरसों-सा अन्तर है। नरेश्वर! मेरे प्रभाव को देख लो। मैं इन्द्र, कुबेर, यम और वरुण- सभी के लोकों में निरन्तर आने-जाने की शक्ति रखती हूँ। अनघ! लोक में एक कहावत प्रसिद्ध है और वह सत्य भी है, जिसे मैं दृष्टान्त के तौर पर आपसे कहूंगी; द्वेष के कारण नहीं। अत: उसे सुनकर क्षमा कीजियेगा। कुरूप मनुष्य जब तक आइने में अपना मुंह नहीं देख लेता, तब तक वह अपने को दूसरों से अधिक रुपवान समझता है। किंतु जब कभी आइने में वह अपने विकृत मुख का दर्शन कर लेता है, तब अपने और दूसरों में क्या अन्तर है, यह उसकी समझ में आ जाता है। जो अत्यन्त रूपवान है, वह किसी दूसरे का अपमान नहीं करता; परंतु जो रुपवान् न होकर भी अपने रुप की प्रशंसा में अधिक बातें बनाता है, वह मुख से खोटे वचन कहता और दूसरों को पीड़ित करता है।
मूर्ख मनुष्य परस्पर वार्तालाप करने वाले दूसरे लोगों की भली-बुरी बातें सुनकर उनमें से बुरी बातों को ही ग्रहण करता है; ठीक जैसे सूअर अन्य वस्तुओं के रहते हुए भी विष्ठा को ही अपना भोजन बनाता है। परंतु विद्वान पुरुष दूसरे वक्ताओं के शुभाशुभ वचन को सुनकर उनमें से गुणयुक्त बातों को ही अपनाता है, ठीक उसी तरह, जैसे हंस पानी को छोड़कर केवल दूध ग्रहण कर लेता है। साधु पुरुष दूसरों निन्दा का अवसर आने पर जैसे अत्यन्त संतप्त हो उठता है, ठीक उसी प्रकार दुष्ट मनुष्य दूसरों की निन्दा का अवसर मिलने पर बहुत संतुष्ट होता है। जैसे साधु पुरुष बड़े-बूढ़ों को प्रणाम करके बड़े प्रसन्न होते हैं, वैसे ही मूर्ख मानव साधु पुरुषों की निन्दा करके संतोष का अनुभव करते हैं। साधु पुरुष दूसरों के दोष न देखते हुए सुख से जीवन बिताते हैं, किंतु मूर्ख मनुष्य सदा दूसरों के दोष ही देखा करते हैं। जिन दोषों के कारण दुष्टात्मा मनुष्य साधु पुरुषों द्वारा निन्दा के योग्य समझे जाते हैं, दुष्ट लोग वैसे ही दोषों का साधु पुरुषों पर आरोप करके उनकी निन्दा करते हैं। संसार में इससे बढ़कर हंसी की दूसरी कोई बात नहीं हो सकती कि जो दुर्जन हैं, वे स्वयं ही सज्जन पुरुषों को दुर्जन कहते हैं। जो सत्यरूपी धर्म से भ्रष्ट है, वह पुरुष क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प के समान भयंकर है। उससे नास्तिक भी भय खाता है; फिर आस्तिक मनुष्य के लिये तो कहना ही क्या है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 97-109 का हिन्दी अनुवाद)
जो स्वयं ही अपने तुल्य पुत्र उत्पन्न करके उसका सम्मान नहीं करता, उसकी सम्पत्ति देवता नष्ट कर देते हैं और वह उत्तम लोकों नहीं जाता। पितरों ने पुत्र को कुल और वंश की प्रतिष्ठा बताया है, अत: पुत्र सब धर्मों में उत्तम है। इसलिये पुत्र का त्याग नहीं करना चाहिये। अपनी पत्नी से उत्पन्न एक और अन्य स्त्रियों से उत्पन्न लब्ध, क्रीत, पोषित तथा उपनयनादित से संस्कृत- ये चार मिलाकर कुल पांच प्रकार के पुत्र मनु जी ने बताये हैं। ये सभी पुत्र मनुष्यों को धर्म और कीर्ति की प्राप्ति कराने वाले तथा मन की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले होते हैं। पुत्र धर्मरुपी नौका का आश्रय ले अपने पितरों का नरक से उद्धार कर देते हैं। अत: नरश्रेष्ठ! आप अपने पुत्र का परित्याग न करें। पृथ्वीपते! नरेन्द्रप्रवर! आप अपने आत्मा, सत्य और धर्म का पालन करते हुए अपने सिर पर कपट का बोझ न उठावें। सौ कुंए खोदवाने की अपेक्षा एक बाबड़ी बनवाना उत्तम है, सौ बाबड़ियों की अपेक्षा एक यज्ञ कर लेना उत्तम है। सौ यज्ञ करने की अपेक्षा एक पुत्र को जन्म देना उत्तम है और सौ पुत्रों की अपेक्षा भी सत्य का पालन श्रेष्ठ है। एक हजार अश्वमेध यज्ञ एक ओर तथा सत्यभाषण का पुण्य दूसरी ओर यदि तराजू पर रखा जाय, तो हजार अश्वमेध यज्ञों की अपेक्षा सत्य का पलड़ा भारी होता है। राजन्! सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन और समस्त तीर्थों का स्नान भी सत्य वचन की समानता कर सकेगा या नहीं, इसमें संदेह ही है (क्योंकि सत्य उनसे भी श्रेष्ठ है)।
सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य से उत्तम कुछ भी नहीं है और झूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस जगत् में दूसरा कोई नहीं है। राजन्! सत्य परब्रह्म परमात्मा का स्वरुप है। सत्य सबसे बड़ा नियम है। अत: महाराज! आप अपनी सत्य प्रतिज्ञा को न छोड़िये। सत्य आपका जीवनसंगी हो। यदि आपकी झूठ में ही आसक्ति है और मेरी बात पर श्रद्धा नहीं करते हैं तो मैं स्वयं ही चली जाती हूँ। आप जैसे के साथ रहना मुझे उचित नहीं है। यह मेरा पुत्र है या नहीं, ऐसा संदेह होने पर बुद्धि ही इसका निर्णय करने वाली अथवा इस रहस्य पर प्रकाश डालने वाली है। चाल-ढाल, स्वर, स्मरण शक्ति, उत्साह, शील-स्वभाव, विज्ञान, पराक्रम, साहस, प्रकृतिभाव, आवर्त (भंवर) तथा रोमावली-जिसकी ये सब वस्तुऐं जिससे सर्वथा मिलती-जुलती हों, वह उसी का पुत्र है, इसमें संशय नहीं है। राजन्! आपके शरीर से पूर्ण समानता लेकर यह बिम्ब की भाँति प्रकट हुआ है और आपको ‘तात’ कहकर पुकार रहा है। आप इसकी आशा न तोड़ें। महाराज दुष्यन्त! मैं एक बात कह देती हूं, आपके सहयोग के बिना भी मेरा यह पुत्र चारों समुद्रों से घिरी हुई गिरिराज हिमालयरूपी मुकुट से सुशोभित समूची पृथ्वी का शासन करेगा। देवराज इन्द्र का वचन है ‘शकुन्तले! तुम्हारा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा।’ यह कभी मिथ्या नहीं हो सकता। यद्यपि देवदूत आदि बहुत-से साक्षी बताये गये हैं, तथापि इस समय वे क्या सत्य है और क्या असत्य- इसके विषय में कुछ नहीं कर रहे हैं। अत: साक्षी के अभाव में यह भाग्यहीन शकुन्तला जैसे आयी है, वैसे ही लौट जायगी।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा दुष्यन्त से इतनी बातें कहकर शकुन्तला वहाँ से चलने को उद्यत हुई। इतने में ही ॠत्विज, पुरोहित, आचार्य और मन्त्रियों से घिरे हुए दुष्यन्त को सम्बोधित करते हुए आकाशवाणी हुई।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 110-122 का हिन्दी अनुवाद)
‘दुष्यन्त! माता तो केवल भाथी (धौंकनी) के समान है। पुत्र पिता का ही होता है; क्योंकि जो जिसके द्वारा उत्पन्न होता है, वह उसी का स्वरुप है- इस न्याय से पिता ही पुत्र रूप में उत्पन्न होता है, अत: दुष्यन्त! तुम पुत्र का पालन करो। शकुन्तला का अनादर मत करो। पौरव! पुत्र साक्षात अपना ही शरीर है। वह पिता के सम्पूर्ण अंगों से उत्पन्न होता है। वास्तव में वह पुत्र नाम से प्रसिद्ध अपना आत्मा ही है। ऐसा ही यह तुम्हारा पुत्र भी है। अपने द्वारा ही गर्भ में स्थापित किये हुए आत्मस्वरुप इस पुत्र की तुम रक्षा करो। शकुन्तला तुम्हारे प्रति अनन्य अनुराग रखने वाली धर्म-पत्नी है। इसे इसी दृष्टि से देखो! उसका अनादर मत करो। दुष्यन्त! स्त्रियां अनुपम पवित्र वस्तुऐं हैं, यह धर्मत: स्वीकार किया गया है। प्रत्येक मास में इनके जो रज:स्राव होता है, वह इनके सारे दोषों को दूर कर देता है। नरदेव! वीर्य का आधान करने वाला पिता ही पुत्र बनता है और वह यमलोक से अपने पितृगण का उद्धार करता है। तुमने ही इस गर्भ का आधान किया था। शकुन्तला सत्य कहती है। जाया (पत्नी) दो भागों में विभक्त हुए पति के अपने ही शरीर को पुत्ररुप में उत्पन्न करती है। इसलिये राजा दुष्यन्त तुम शकुन्तला से उत्पन्न हुए अपने पुत्र का पालन-पोषण करो। अपने जीवित पुत्र को त्यागकर जीवन धारण करना बड़े दुर्भाग्य की बात है। पौरव! यह महामना बालक शकुन्तला और दुष्यन्त दोनों का पुत्र है। हम देवताओं के कहने से तुम इसका भरण-पोषण करोगे, इसलिये तुम्हारा यह पुत्र भरत के नाम से विख्यात होगा’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन!,, ऐसा कहकर देवता तथा तपस्वी ऋषि शकुन्तला को पतिव्रता बतलाते हुए उस पर फूलों की वर्षा करने लगे। पुरुवंशी राजा दुष्यन्त देवताओं की यह बात सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और,,
पुरोहित तथा मन्त्रियों से इस प्रकार बोले ;- ‘आप लोग इस देवदूत का कथन भलीभाँति सुन लें। मैं भी अपने इस पुत्र को इसी रुप में जानता हूँ। यदि केवल शकुन्तला के कहने से मैं इसे ग्रहण कर लेता, तो सब लोग इस पर संदेह करते और यह बालक विशुद्ध नहीं माना जाता’।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- भारत! इस प्रकार देवदूत के वचन से उस बालक की शुद्धता प्रमाणित करके राजा दुष्यन्त ने हर्ष और आनन्द में मग्न हो उस समय अपने उस पुत्र को ग्रहण किया। तदनन्तर महराज दुष्यन्त ने पिता को जो-जो कार्य करने चाहिये, वे सब उपनयन आदि संस्कार बड़े आनन्द और प्रेम के साथ अपने उस पुत्र के लिये (शास्त्र और कुल की मर्यादा के अनुसार) कराये। और उसका मस्तक सूंघकर अत्यन्त स्नेहपूर्वक उसे हृदय से लगा लिया। उस समय ब्राह्मणों ने उन्हें आशीर्वाद दिया और वन्दीजनों ने उनके गुण गाये। महाराज ने पुत्र स्पर्शजनित परमआनन्द को अनुभव किया। दुष्यन्त ने अपनी पत्नी शकुन्तला का भी धर्मपूर्वक आदर-सत्कार किया और उसे,,
समझाते हुए कहा ;- ‘देवी! मैंने तुम्हारे साथ जो विवाह-सम्बन्ध स्थापित किया था, उसे साधारण जनता नहीं जानती थी। अत: तुम्हारी शुद्धि के लिये ही मैंने यह उपाय सोचा था।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 123-129 का हिन्दी अनुवाद)
देवी! तुमन नि:संदेह पतिव्रता हो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- ये सभी पृथक्-पृथक् तुम्हारा पूजन (समादर) करेंगे। यदि इस प्रकार तुम्हारी शुद्धि न होती तो लोग यही समझते कि तुमने स्त्री-स्वभाव के कारण कामवश मुझसे सम्बन्ध स्थापित कर लिया और मैंने भी काम के अधीन होकर ही तुम्हारे पुत्र को राज्य पर बिठाने की प्रतिज्ञा कर ली। हम दोनों के धार्मिक सम्बन्ध पर किसी का विश्वास नहीं होता; इसीलिये यह उपाय सोचा गया था। प्रिये! विशाललोचने! तुमने भी कुपित होकर जो मेरे लिये अत्यन्त अप्रिय वचन कहे हैं, वे सब मेरे प्रति तुम्हारा अत्यन्त प्रेम होने के कारण ही कहे गये हैं। अत: शुभे! मैंने वह सब अपराध क्षमा कर दिया है। विशाल नेत्रों वाली देवि! इसी प्रकार तुम्हें भी मेरे कहे हुए असत्य, अप्रिय, कटु एवं पापपूर्ण दुर्वचनों के लिये मुझे क्षमा कर देना चाहिये। पति के लिये क्षमाभाव धारण करने से स्त्रियां पातिव्रत्य-धर्म को प्राप्त होतीहैं’।
जनमेजय! अपनी प्यारी रानी से ऐसी बात कहकर राजर्षि दुष्यन्त ने अन्न, पान और वस्त्र आदि के द्वारा उसका आदर-सत्कार किया। तदनन्तर वे अपनी माता रथन्तर्या के पास जाकर बोले,,
राजा दुष्यन्त बोले ;- ‘मां! यह मेरा पुत्र है, जो वन में उत्पन्न हुआ है। यह तुम्हारे शोक का नाश करने वाला होगा। शुभे! तुम्हारे इस पौत्र को पाकर आज मैं पितृ-ऋण से मुक्त हो गया। महाभागे! यह तुम्हारी पुत्र-वधु है। महर्षि विश्वामित्र ने इसे जन्म दिया और महात्मा कण्व ने पाला है। तुम शकुन्तला पर कृपा दृष्टि रखो।’ पुत्र की यह बात सुनकर राजमाता रथन्तर्या ने पौत्र को हृदय से लगा लिया और अपने चरणों में पड़ी हुई शकुन्तला को दोनों भुजाओं में भरकर वे हर्ष के आंसू बहाने लगीं। साथ ही पौत्र के शुभ लक्षणों की ओर संकेत करती हुई बोलीं,,
राजमाता रथन्तर्या बोली ;- ‘विशालाक्षि! तेरा पुत्र चक्रवर्ती सम्राट होगा। तेरे पति को तीनों लोकों पर विजय प्राप्त हो। सुन्दरि! तुम्हें सदा दिव्य भोग प्राप्त होते रहें।’
यह कहकर राजमाता रथन्तर्या अत्यन्त हर्ष से विभोर हो उठी। उस समय राजा ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार समस्त आभूषणों से विभूषित शकुन्तला को पटरानी के पद पर अभिषिक्त करके ब्राह्मणों तथा सैनिकों को बहुत धन अर्पित किया। तदनन्तर महाराज दुष्यन्त ने शकुन्तलाकुमार का नाम भरत रखकर उसे युवराज के पद पर अभिषिक्त कर दिया। फिर भरत को राज्य का भार सौंपकर महाराज दुष्यन्त कृतकृत्य हो गये। वे पूरे सौ वर्षों तक राज्य भोगकर विविध प्रकार के दान दे अन्त में स्वर्गलोक सिधारे। महात्मा राजा भरत का विख्यात चक्र सब ओर घूमने लगा। वह अत्यन्त प्रकाशमान, दिव्य और अजेय था। वह महान् चक्र अपनी भारी आवाज से सम्पूर्ण जगत् को प्रतिध्वनित करता चलता था। उन्होंने सब राजाओं को जीतकर अपने अधीन कर लिया तथा सत्पुरुषों के धर्म का पालन और उत्तम यश का उपार्जन किया। महाराज भरत समस्त भूमण्डल में विख्यात, प्रतापी एवं चक्रवर्ती सम्राट थे। उन्होंने देवराज इन्द्र की भाँति बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतु:सप्ततितम अध्याय के श्लोक 130-133 का हिन्दी अनुवाद)
महर्षि कण्व ने आचार्य होकर भरत से प्रचुर दक्षिणाओं से युक्त ‘गोवितत’ नामक अश्वमेध यज्ञ का विधिपूर्वक अनुष्ठान करवाया। श्रीमान् भरत ने उस यज्ञ का पूरा फल प्राप्त किया। उसमें महाराज भरत ने आचार्य कण्व को एक सहस्र पह्म स्वर्ण मुद्राऐं दक्षिणा रूप में दीं। भरत से ही इस भूखण्ड का नाम भारत (अथवा भूमि का नाम भारती) हुआ। उन्हीं से यह कौरववंश भरतवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उनके बाद उस कुल में पहले तथा आज भी जो राजा हो गये हैं, वे भारत (भरतवंशी) कहे जाते हैं। भरत के कुल में देवताओं के समान महापराक्रमी तथा ब्रह्मा जी के समान तेजस्वी बहुत-से राजर्षि हो गये हैं; जिनके सम्पूर्ण नामों की गणना असम्भव है। जनमेजय! इनमें जो मुख्य हैं, उन्हीं के नामों का तुमसे वर्णन करूंगा। वे सभी महाभाग नरेश देवताओं के समान तेजस्वी तथा सत्य, सरलता आदि धर्मों में तत्पर रहने वाले थे।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में शकुंतलोपाख्यान-विषयक चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
पचहत्तरवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रों की उत्पत्ति; पुरूरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का संक्षेप में वर्णन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- निष्पाप जनमेजय! अब मैं दक्ष प्रजापति, वैवस्वत मनु, भरत, कुरु, पुरु, अजमीढ़, यादव, कौरव तथा भरतवंशियों की कुल-परम्परा का तुमसे वर्णन करूंगा। उनका कुल परम पवित्र, महान् मंगलकारी तथा धन, यश और आयु की प्राप्ति कराने वाला है। प्रचेता के दस पुत्र थे, जो अपने तेज के द्वारा सदा प्रकाशित होते थे। वे सब-के-सब महर्षियों के समान तेजस्वी, सत्पुरुष और पुण्यकर्मा माने गये हैं। उन्होंने पूर्वकाल में अपने मुख से प्रकट हुई अग्नि द्वारा उन बड़े-बड़े वृक्षों को जलाकर भस्म कर दिया है था (जो प्राणियों को पीड़ा दे रहे थे)। उक्त दस प्रचेताओं द्वारा (मारिषा के गर्भ से) प्राचेतस दक्ष का जन्म हुआ तथा दक्ष से समस्त प्रजाऐं उत्पन्न हुई हैं। नरश्रेष्ठ! वे सम्पूर्ण जगत् के पितामह हैं। प्राचेतस मुनि दक्ष ने वीरिणी से समागम करके अपने ही समान गुण-शील वाले एक हजार पुत्र उत्पन्न किये। वे सब-के-सब अत्यन्त कठोर व्रत का पालन करने वाले थे। एक सहस्र की संख्या में प्रकट हुए उन दक्ष-पुत्रों को देवर्षि नारद जी ने मोक्ष-शास्त्र का अध्ययन कराया। परम उत्तम सांख्य-ज्ञान का उपदेश किया।
जनमेजय! जब वे सभी विरक्त होकर घर से निकल गये, तब प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा से प्रजापति दक्ष ने पुत्रिका के द्वारा पुत्र (दौहित्र) होने पर उस पुत्रिका को ही पुत्र मानकर पचास कन्याऐं उपन्न कीं। उन्होंने दस कन्याऐं धर्म को, तेरह कश्यप को और काल का संचालन करने में नियुक्त नक्ष्ात्रस्वरुपा सत्ताईस कन्याऐं चन्द्रमा को ब्याह दीं। मरीचिनन्दन कश्यप ने अपनी तेरह पत्नियों में से जो सबसे बड़ी दक्ष-कन्या थीं, उनके गर्भ से इन्द्र आदि बारह आदित्यों को जन्म दिया, जो बड़े पराक्रमी थे। तदनन्तर उन्होंने अदिति से ही विस्वान् को उत्पन्न किया। विवस्वान् के पुत्र यम हुए, जो वैवस्वत कहलाते हैं। वे समस्त प्राणियों के नियन्ता हैं। विस्वान् के ही पुत्र परमबुद्धिमान मनु हुए, जो बड़े प्रभावशाली हैं। मनु के बाद उनसे यम नामक पुत्र की उत्पत्ति हुई, जो सर्वत्र विख्यात हैं। यमराज मनु के छोटे भाई तथा प्राणियों का नियमन करने में समर्थ हैं।
बुद्धिमान मनु बड़े धर्मात्मा थे, जिन पर सूर्यवंश की प्रतिष्ठा हुई। मानवों से सम्बन्ध रखने वाला यह मनुवंश उन्हीं से विख्यात हुआ। उन्हीं मनु से ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सब मान उत्पन्न हुए हैं। महाराज! तभी से ब्राह्मण कुल क्षत्रिय से सम्बद्ध हुआ। उनमें से ब्राह्मण जातीय मानवों ने छहों अंगों सहित वेदों को धारण किया। वेन, धृष्णु, नरिष्यन्त, नाभाग, इक्ष्वाकु, कारुष, शर्याति, आठवीं इला, नवें क्षत्रिय-धर्मपरायण पृषध्र तथा दसवें नाभागारिष्ट- इन दसों को मनु पुत्र कहा जाता है। मनु के इस पृथ्वी पर पचास पुत्र और हुए। परंतु आपस की फूट के कारण वे सब-के-सब नष्ट हो गये, ऐसा हमने सुना है। तदनन्तर इला के गर्भ से विद्वान् पुरुरवा का जन्म हुआ। सुना जाता है, इला पुरुरवा की माता भी थी और पिता भी। राजा पुरुरवा समुद्र के तेरह द्वीपों का शासन और उपभोग करते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 20-40 का हिन्दी अनुवाद)
महायशस्वी पुरूरवा मनुष्य होकर भी मानवेतर प्राणियों से घिरे रहते थे। वे अपने बल-पराक्रम से उन्मत्त हो ब्राह्मणों के साथ विवाद करने लगे। बेचारे ब्राह्मण चीखते-चिल्लाते रहते थे तो भी वे उनका सारा धन-रत्न छीन लेते थे। जनमेजय! ब्रह्मलोक से सनत्कुमार जी ने आकर उन्हें बहुत समझाया और ब्राह्मणों पर अत्याचार न करने का उपदेश दिया, किंतु वे उनकी शिक्षा ग्रहण न कर सके। तब क्रोध में भरे हुए महर्षियों ने तत्काल उन्हें शाप दे दिया, जिससे वे नष्ट हो गये। राजा पुरूरवा लोभ से अभिभूत थे और बल के घमंड में आकर अपनी विवेक शक्ति खो बैठे थे। वे शोभाशाली नरेश ही गन्धर्व लोक में स्थित और विधिपूर्वक स्थापित त्रिविध अग्नियों को उर्वशी के साथ इस धरातल पर लाये थे। इलानन्दन पुरूरवा के छ: पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं- आयु, धीमान, अमावसु, दृढ़ायु, बनायु और शतायु। ये सभी उर्वशी के पुत्र हैं। उनमें से आयु के स्वर्भानुकुमारी के गर्भ से उत्पन्न पांच पुत्र बताये जाते हैं। नहुष, वृद्धशर्मा, रजि, गय तथा अनेना। आयुर्नन्दन नहुष बड़े बुद्धिमान् और सत्य-पराक्रमी थे। पृथ्वीपते! उन्होंने अपने विशाल राज्य का धर्मपूर्वक शासन किया। पितरों, देवताओं, ऋषियों, ब्राह्मणों, गन्धर्वों, नागों, राक्षसों तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का भी पालन किया। राजा नहुष ने झुंड-के-झुंड डाकुओं और लुटेरों का वध करके ऋषियों को भी कर देने के लिये विवश किया।
अपने इन्द्रत्व काल में पराक्रमी नहुष ने महर्षियों को पशु की तरह वाहन बनाकर उनकी पीठ पर सवारी की थी। उन्होंने तेज, तप, ओज और पराक्रम द्वारा समस्त देवताओं को तिरस्कृत करके इन्द्र पद का उपयोग किया था। राजा नहुष ने छ: प्रियवादी पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम इस प्रकार हैं- यति, ययाति, संयाति, आयाति, अयाति और ध्रुव। इनमें यति योग का आश्रय लेकर ब्रह्मभूत मुनि हो गये थे। तब नहुष के दूसरे पुत्र सत्यपराक्रमी ययाति सम्राट हुए। उन्होंने इस पृथ्वी का पालन तथा बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान किया। महाराज ययाति किसी से परास्त होने वाले नहीं थे। वे सदा मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर बड़े भक्ति-भाव से देवताओं तथा पितरों का पूजन करते और समस्त प्रजा पर अनुग्रह रखते थे। महाराज जनमेजय! राजा ययाति के देवयानी और शर्मिष्ठा के गर्भ से महान् धनुर्धर पुत्र उत्पन्न हुए। वे सभी समस्त सद्गुणों के भण्डार थे। यदु और तुर्वसु- ये दो देवयानी के पुत्र थे और द्रुह्यु, अनु तथा पुरु- ये तीन शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। राजन्! वे सर्वदा धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते थे। एक समय नहुषपुत्र ययाति को अत्यन्त भयानक वृद्धावस्था प्राप्त हुई, जो रुप और सौन्दर्य का नाश करने वाली है। जनमेजय! वृद्धावस्था से आक्रान्त होने पर राजा ययाति ने अपने समस्त पुत्रों यदु, पुरु, तुर्वसु, द्रुह्यु तथा अनु से कहा,,
राजा ययाति ने कहा ;- ‘पुत्रों! मैं युवावस्था से सम्पन्न हो जवानी के द्वारा कामोपभोग करते हुए युवतियों के साथ विहार करना चाहता हूँ। तुम मेरी सहायता करो’।
यह सुनकर देवयानी के ज्येष्ठ पुत्र यदु ने पुछा ;- 'भगवन्! हमारी जवानी लेकर उसके द्वारा आपको कौन-सा कार्य करना है’।
तब ययाति ने उससे कहा ;- ‘तुम मेरा बुढ़ापा ले लो और मैं तुम्हारी जवानी से विषयोपभोग करूंगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचसप्ततितम अध्याय के श्लोक 41-58 का हिन्दी अनुवाद)
‘पुत्रों! अब तक तो मैं दीर्घकालीन यज्ञों के अनुष्ठान में लगा रहा और अब मुनिवर शुक्राचार्य के शाप से बुढ़ापे ने मुझे धर दबाया है, जिससे मेरा काम रूप पुरुषार्थ छिन गया। इसी से मैं संतप्त हो रहा हूँ। तुममें से कोई एक व्यक्ति मेरा वृद्ध शरीर लेकर उसके द्वारा राज्य शासन करे। मैं नूतन शरीर पाकर युवावस्था से सम्पन्न हो विषयों का उपभोग करुंगा।' राजा के ऐसा कहने पर भी वे यदु आदि चार पुत्र उनकी वृद्धावस्था न ले सके।
तब सबसे छोटे पुत्र सत्यपराक्रमी पुरु ने कहा ;- ‘राजन! आप मेरे नूतन शरीर से नौजवान होकर विषयों का उपभोग कीजिये। मैं आपकी आज्ञा से बुढ़ापा लेकर राज्य सिंहासन पर बैठूंगा।
पुरु के ऐसा कहने पर राजर्षि ययाति ने तप और वीर्य के आश्रय से अपनी वृद्धावस्था का अपने महात्मा पुत्र पुरु में संचार कर दिया। ययाति स्वयं पुरु की नयी अवस्था लेकर नौजवान बन गये। इधर पुरु भी राजा ययाति की अवस्था लेकर उसके द्वारा राज्य का पालन करने लगे। तदनन्तर किसी के परास्त न होने वाले और सिंह के समान पराक्रमी नृपश्रेष्ठ ययाति एक सहस्र वर्ष तक युवावस्था में स्थित रहे। उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों के साथ दीर्घकाल तक विहार करके चैत्ररथ वन में जाकर विश्वाची अप्सरा के साथ रमण किया। परंतु उस समय भी महायशस्वी ययाति काम-भोग से तृप्त न हो सके। राजन्! उन्होंने मन से विचारकर यह निश्चय कर लिया कि विषयों के भोगने से भोगेच्छा कभी शान्त नहीं हो सकती। तब राजा ने (संसार के हित के लिये) यह गाथा गायी।
विषय-भोग की इच्छा विषयों का उपभोग करने से कभी शान्त नहीं हो सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्वलित होने वाली आग की भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है। रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्वी, संसार का सारा सुवर्ण, सारे पशु और सुन्दरी स्त्रियां किसी एक पुरुष को मिल जायँ, तो भी वे सब-के-सब उसके लिये पर्याप्त नहीं होंगे। वह और भी पाना चाहेगा। ऐसा समझकर शान्ति धारण करे- भोगेच्छा को दबा दे। जब मनुष्य मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी किसी भी प्राणी के प्रति बुरा भाव नहीं करता, तब वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। जब सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि होने के कारण यह पुरुष किसी से नहीं डरता और जब उससे भी दूसरे प्राणी नहीं डरते तथा जब वह न तो किसी की इच्छा करता है और न किसी से द्वेष ही रखता है, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है’। जनमेजय! परमबुद्धिमान् महाराज ययाति ने इस प्रकार भोगों की नि:सारता का विचार करके बुद्धि के द्वारा मन को एकाग्र किया और पुत्र से अपना बुढ़ापा वापस ले लिया। पुरु को अपनी जवानी लौटाकर राजा ने उसे राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और भोगों से अतृप्त रहकर ही अपने पुत्र पुरु से कहा,,
महाराज ययाति ने कहा ;- ‘बेटा! तुम्हारे-जैसे पुत्र से ही मैं पुत्रवान् हूँ। तुम्हीं मेरे वंश-प्रवर्तक पुत्र हो। तुम्हारा वंश इस जगत् में पौरव वंश के नाम से विख्यात होगा’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर पुरु का राज्याभिषेक करने के पश्चात राजा ययाति ने अपनी पत्नियों के साथ भृगुतुंग पर्वत पर जाकर सत्कर्मों का अनुष्ठान करते हुए वहाँ बड़ी तपस्या की। इस प्रकार दीर्घकाल व्यतीत होने के बाद स्त्रियों सहित निराहार व्रत करके उन्होंने स्वर्गलोक प्राप्त किया।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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