सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के इकसठवें अध्याय से पैंसठवें अध्याय तक (from the sixty-first chapter to the sixty-fifth chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)

इकसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"कौरवों-पाण्‍डवों में फूट और युद्ध होने के वृतान्‍त का सूत्ररुप में निर्देश"

वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! मैं सबसे पहले श्रद्धाभक्तिपर्वूक एकाग्रचित्त से अपने गुरुदेव श्रीव्यास जी महाराज को साष्टांग नमस्‍कार करके सम्‍पूर्ण द्विजों तथा अन्‍यान्‍य विद्वानों का समादर करते हुए यहाँ सम्‍पूर्ण लोकों में विख्‍यात महर्षि एवं महात्‍मा इन परमबुद्धिमान व्यास जी के मत का पूर्णरुप से वर्णन करता हूँ। जनमेजय! तुम इस महाभारत की कथा को सुनने के लिये उत्तम पात्र हो और मुझे यह कथा उपलब्‍ध है तथा श्रीगुरु जी के मुखारविन्‍द से मुझे यह आदेश मिल गया है कि मैं तुम्‍हें कथा सुनाऊं, इससे मेरे मन को बड़ा उत्‍साह प्राप्त होता है। राजन! जिस प्रकार कौरव और पाण्‍डवों में फूट पड़ी, वह प्रसंग सुनो। राज्‍य के लिये जो जुआ खेला गया, उससे उनमें फूट हुई और उसी के कारण पाण्‍डवों का वनवास हुआ।

   भरतश्रेष्ठ! फि‍र जिस प्रकार पृथ्‍वी के वीरों का विनाश करने वाला महाभारत-युद्ध हुआ, वह तुम्‍हारे प्रश्न के अनुसार तुमसे कहता हूँ, सुनो। अपने पिता महाराज पाण्डु के स्‍वर्गवासी हो जाने पर वे वीर पाण्‍डव वन से अपने राजभवन में आकर रहने लगे। वहाँ थोड़े ही दिनों में वे वेद तथा धनुर्वेद के पूरे पण्डित हो गये। सत्त्व (धैर्य और उत्‍साह), वीर्य (पराक्रम) तथा ओज (देहबल) से सम्‍पन्न होने के कारण पाण्‍डव लोग पुरवासियों के प्रेम और सम्‍मान के पात्र थे। उनके धन, सम्‍पत्ति और यश की वृद्धि होने लगी। यह सब देखकर कौरव उनके उत्‍कर्ष को सह न सके। तब क्रूर दुर्योधन, कर्ण और शकुनि तीनों ने मिलकर पाण्‍डवों को वश में करने तथा देश से निकाल देने के लिये नाना प्रकार के यत्‍न आरम्‍भ किये। शकुनि की सम्‍मति से चलने वाले शूरवीर दुर्योधन ने राज्‍य के लिये भाँति-भाँति के उपाय करके पाण्डवों को पीड़ा दी। उस पापी धृतराष्ट्र ने भीमसेन को विष भी दे दिया, किंतु वीरवर भीमसेन ने भोजन के साथ उस विष को भी पचा लिया। फि‍र दुर्योधन ने गंगा के प्रमाण कोटि नामक तीर्थ पर सोये हुए भीमसेन को बांधकर गंगा जी के गहरे जल में डाल दिया और स्‍वयं नगर में लौट आया।

  जब कुन्‍तीनन्‍दन महाबाहु भीम की आंख खुली, तब वे सारा बन्‍धन तोड़कर बिना किसी पीड़ा के उठ खड़े हुए। एक दिन दुर्योधन ने भीमसेन को सोते समय उनके सम्‍पूर्ण अंग-प्रत्‍यंगों में काले सांपों से डंसवा दिया, किंतु शत्रुघाती भीम मर न सके। कौरवों के द्वारा किये हुए उन सभी अपकारों के समय पाण्‍डवों को उनसे छुड़ाने अथवा उनका प्रतीकार करने के लिये परमबुद्धिमान् विदुर जी सदा सावधान रहते थे। जैसे स्‍वर्ग लोक में निवास करने वाले इन्‍द्र सम्‍पूर्ण जीव-जगत् को सुख पहुँचाते रहते हैं, उसी प्रकार विदुर जी भी सदा पाण्‍डवों को सुख दिया करते थे। भविष्‍य में जो घटना घटित होने वाली थी, उसके लिये मानो दैव ही पाण्‍डवों की रक्षा कर रहा था। जब छिपकर या प्रकटरुप में किये हुए अनेक उपायों से भी दुर्योधन पाण्‍डवों का नाश न कर सका तब उसने कर्ण और दु:शासन आदि मन्त्रियों से सलाह करके धृतराष्ट्र की आज्ञा से बारणावत नगर में एक लाह का घर बनाने की आज्ञा दी। अम्बिकानन्‍दन धृतराष्ट्र अपने पुत्र का प्रिय चाहने वाले थे। अत: उन्‍होंने राज्‍य भोग की इच्‍छा से पाण्‍डवों को हस्तिनापुर छोड़कर वारणावत के लाक्षागृह में रहने की आज्ञा दे दी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 19-38 का हिन्दी अनुवाद)

  माता सहित पांचों पाण्डव एक साथ हस्तिनापुर से प्रस्थित हुए। उन महात्‍मा पाण्‍डवों के प्रस्‍थान काल में विदुर जी सलाह देने वाले हुए। उन्‍ही की सलाह एवं सहायता से पाण्‍डव लोग लाक्षागृह से बचकर आधी रात के समय वन में भाग निकले थे। धृतराष्ट्र की आज्ञा से शत्रुओं का दमन करने वाले कुन्‍तीकुमार महात्‍मा पाण्‍डव वारणावत नगर में आकर लाक्षागृह में अपनी माता के साथ रहने लगे। पुरोचन से सुरक्षित हो सदा सजग रहकर उन्‍होंने एक वर्ष तक वहाँ निवास किया। फि‍र विदुर की प्रेरणा से (विदुर के भेजे हुए आदमियों से) पाण्‍डवों ने एक सुरंग खुदवायी। तत्‍पश्चात् वे शत्रुसंतापी पाण्‍डव उस लाक्षागृह में आग लगा पुरोचन को दग्‍ध करके भय से व्‍याकुल हो माता सहित सुरंग द्वारा वहाँ से निकल भागे। तत्‍पश्चात वन में एक झरने के पास उन्‍होंने एक भयंकर राक्षस को देखा, जिसका नाम हिडिम्ब था।

राक्षसराज हिडिम्‍ब को मारकर पाण्‍डव लोग प्रकट होने के भय से रात में ही वहाँ से दूर निकल गये। उस समय उन्‍हें धृतराष्ट्र के पुत्रों का भय सता रहा था। हिडिम्‍ब-वध के पश्चात भीम को हिडिम्बा नाम की राक्षसी पत्‍नी रुप में प्राप्‍त हुई, जिसके गर्भ से घटोत्कच का जन्‍म हुआ। तदनन्‍तर कठोरव्रत का पालन करने वाले पाण्‍डव एकचक्रा नगरी में जाकर वेदाध्‍ययन परायण ब्रह्मचारी बन गये। उस एकचक्रा नगरी में नरश्रेष्ठ पाण्‍डव अपनी माता के साथ एक ब्राह्मण के घर में कुछ काल तक टिके रहे। उस नगर के समीप एक मनुष्‍य भक्षी राक्षस रहता था, जिसका नाम था बक। एक दिन महाबाहु भीमसेन उस क्षुधातर महाबली राक्षस बक के समीप गये। नरश्रेष्ठ पाण्‍डुनन्‍दन वीरवर भीम ने अपने बाहुबल से उस राक्षस को वेगपूर्वक मारकर वहाँ के नगर वासियों को धीरज बंधाया। वहीं सुनने में आया कि पाञ्चालदेश की राजकुमारी कृष्णा का स्‍वयंवर होने वाला है। यह सुनकर पाण्‍डव वहाँ गये और जाकर उन्होंने राजकुमारी को प्राप्‍त कर लिया। द्रौपदी को प्राप्‍त करने के बाद पहचान लिये लाने पर भी वे एक वर्ष तक पाञ्चाल देश में ही रहे।

फि‍र वे शत्रुदमन पाण्‍डव पुन: हस्तिनापुर लौट आये। 

वहाँ आने पर राजा धृतराष्ट्र तथा शान्‍तनुनन्‍दन भीष्‍म जी ने उनसे कहा ;- ‘तात! तुम्‍हें अपने भाई कौरवों के साथे लड़ने-झगड़ने का अवसर न प्राप्‍त हो इसके लिये हमने विचार किया है कि तुम लोग खाण्‍डवप्रस्‍थ में रहो। वहाँ अनेक जनपद उससे जुड़े हुए हैं। वहाँ सुन्‍दर विभागपूर्वक बड़ी-बड़ी सड़कें बनी हुई हैं। अत: तुम लोग ईर्ष्‍या का त्‍याग करके खाण्डवप्रस्थ में रहने के लिये जाओ।’ उन दोनों के इस प्रकार आज्ञा देने पर सब पाण्‍डव अपने समस्‍त सुहृदों के साथ सब प्रकार के रत्‍न लेकर खाण्डवप्रस्‍थ को चले गये। वहाँ वे कुन्‍तीपुत्र अपने अस्त्र-शस्त्रों के प्रताप से अन्‍यान्‍य राजाओं को अपने वश में करते हुए बहुत वर्षों तक निवास करते रहे। इस प्रकार धर्म को प्रधानता देने वाले, सत्‍यव्रत के पालन में तत्‍पर, सदा सावधान एवं सजग रहने वाले, क्षमाशील पाण्‍डव वीर बहुत से शत्रुओं को संतप्त करते हुए वहाँ निवास करने लगे। महायशस्‍वी भीमसेन ने पूर्व दिशा पर विजय पायी। वीर अर्जुन ने उत्तर, नकुल ने पश्चिम और शत्रु वीरों का संहार करने वाले सहदेव ने दक्षिण दिशा पर विजय प्राप्‍त की।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 39-53 का हिन्दी अनुवाद)

  इस तर‍ह सब पाण्डवों ने समूची पृथ्‍वी को अपने वश में कर लिया। वे पांचों भाई सूर्य के समान तेजस्‍वी थे और आकाश में नित्‍य उदित होने वाले सूर्य तो प्रकाशित थे ही; इस तरह सत्‍यपराक्रमी पाण्डवों के होने से यह पृथ्‍वी मानो छ: सूर्यों से प्रकाशित होने वाली बन गयी। तदनन्‍तर कोई निमित्त बन जाने के कारण सत्‍यपराक्रमी तेजस्‍वी धर्मराज युधिष्ठिर अपने प्राणों से भी अत्‍यन्‍त प्रिय स्थिर-बुद्धि तथा सद्गुण युक्‍त भाई नरश्रेष्ठ सव्‍यसाची अर्जुन को वन में भेज दिया। अर्जुन अपने धैर्य, सत्‍य, धर्म और विजयशीलता के कारण भाईयों को अधिक प्रिय थे। उन्‍होंने अपने बड़े भाई की आज्ञा का कभी उल्‍लंघन नहीं किया था। वे पूरे बारह वर्ष और एक मास तक वन में रहे। उसी समय उन्होंने निर्मल तीर्थो की यात्रा की और नाग कन्‍या उलूपी को पाकर पाण्‍डयदेशीय नरेश चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा को भी प्राप्‍त किया और उन-उन स्‍थानों में उन दोनों के साथ कुछ काल तक निवास किया।

   तत्‍पश्चात वे किसी समय द्वारका में भगवान श्रीकृष्‍ण के पास गये। वहाँ अर्जुन ने मंगलमय वचन बोलने वाली कमललोचना सुभद्रा को, जो वसुदेवनन्‍दन श्रीकृष्‍ण की छोटी बहिन थी, पत्नी रुप में प्राप्‍त किया। जैसे इन्‍द्र से शची और भगवान् विष्‍णु से लक्ष्‍मी संयुक्त हुई है, उसी प्रकार सुभद्रा बड़े प्रेम से पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन से मिली। तत्‍पश्चात् कुन्‍तीकुमार अर्जुन ने खाण्डवप्रस्थ में भगवान् वासुदेव के साथ रहकर अग्निदेव को तृप्त किया। नृपश्रेष्ठ जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्‍ण का साथ होने से अर्जुन को इस कार्य में ठीक उसी तरह अधिक परिश्रम या भार का अनुभव नहीं हुआ, जैसे दृढ़ निश्चय को सहायक बनाकर देवशत्रुओं का वध करते समय भगवान विष्‍णु को भार या परिश्रम की प्रतीती नहीं होती है। तदनन्‍तर अग्निदेव ने संतुष्ट हो अर्जुन को उत्तम गाण्‍डीव धनुष, अक्षय बाणों से भरे हुए दो तूणीर और एक कपिध्‍वज रथ प्रदान किया। उसी समय अर्जुन ने महान् असुर मय को खाण्‍डव वन में जलने से बचाया था।

  इससे संतुष्ट होकर उसने अर्जुन के लिये एक दिव्य सभा भवन का निर्माण किया, जो सब प्रकार के रत्नों से सुशोभित था। खोटी बुद्धि वाले मूर्ख दुर्योधन के मन में उस सभा को लेने के लिये लोभ पैदा हुआ। तब उसने शकुनि की सहायता से कपटपूर्ण जुए के द्वारा युधिष्ठिर को ठग लिया और उन्‍हें बारह वर्ष तक‍ वन में और तेरहवें वर्ष एक राष्ट्र में अज्ञातरुप से वास करने के लिये भेज दिया। इसके बाद चौदहवें वर्ष में पाण्डवों ने लौटकर अपना राज्‍य और धन मांगा। महाराज! जब इस प्रकार न्‍यायपूर्वक मांगने पर भी उन्‍हें राज्‍य नहीं मिला, तब दोनों दलों में युद्ध छिड़ गया। फि‍र तो पाण्‍डव-वीरों ने क्षत्रियकुल का संहार करके राजा दुर्योधन को भी मार डाला और अपने राज्‍य को, जिसका अधिकांश भाग उजाड़ हो गया था, पुन: अपने अधिकार में कर लिया। विजयी वीरों में श्रेष्ठ जनमेजय! अनायास महान् कर्म करने वाले पाण्डवों का यही पुरातन इतिहास है। इस प्रकार राज्‍य के विनाश के लिये उनमें फूट पड़ी और युद्ध के बाद उन्‍हें विजय प्राप्‍त हुई।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत अंशावतरण पर्व में भारतसूत्रनामक इकसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)

बासठवाँ अध्याय

"महाभारत की महत्ता"

जनमेजय ने कहा ;- द्विजश्रेष्ठ! आपने कुरुवंशियों के चरित्ररुप महान् महाभारत-नामक सम्‍पूर्ण इतिहास का बहुत संक्षेप से वर्णन किया है। निष्‍पाप तपोधन! अब उस विचित्र अर्थ वाली कथा को विस्‍तार के साथ कहिये; क्‍योंकि उसे वास्‍तारपूर्वक सुनने के लिये मेरे मन में बड़ा कौतुहल हो रहा है विप्रवर! आप पुन: पूरे विस्‍तार के साथ यह कथा सुनावें। मैं अपने पूर्वजों के इस महान् चरित्र को सुनते-सुनते तृप्त नहीं हो रहा हूँ। सब मनुष्‍यों द्वारा जिनकी प्रशंसा की जाती है, उन धर्मज्ञ पाण्‍डवों ने जो युद्ध-भूमि में समस्‍त अवध्‍य सैनिकों का भी वध किया था, इसका कोई छोटा या साधारण कारण नहीं हो सकता। नरश्रेष्ठ पाण्‍डव शक्तिशाली और निरपराध थे तो भी उन्‍होंने दुरात्‍मा कौरवों के लिये हुए महान क्‍लेशों को कैसे चुपचाप सहन कर लिया? द्विजोत्तम! अपनी विशाल भुजाओं से सुशोभित होने वाले भीमसेन में तो दस हजार हाथियों का बल था। फि‍र उन्‍होंने क्‍लेश उठाते हुए भी क्रोध को किसलिये रोक रखा था?

   द्रुपदकुमारी कृष्णा भी सब कुछ करने में समर्थ, सतीसाध्‍वी देवी थीं। धृतराष्ट्र के दुरात्‍मा पुत्रों द्वारा सताये जाने पर भी उन्‍होंने अपनी क्रोधपूर्ण दृष्टि से उन सबको जलाकर भस्‍म क्‍यों नहीं कर दिया? कुन्ती के दोनों पुत्र भीमसेन और अर्जुन तथा माद्रीनन्‍दन नकुल और सहदेव भी उस समय दुष्ट कौरवों द्वारा अकारण सताये गये थे। उन चारों भाइयों ने जुए के दुर्व्‍यसन में फंसे हुए राजा युधिष्ठिर का साथ क्‍यों दिया? धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ धर्मपुत्र धर्म के ज्ञाता थे, महान् क्‍लेश में पड़ने योग्‍य कदापि नहीं थे, तो भी उन्‍होंने वह सब कैसे सहन कर लिया? भगवान् श्रीकृष्‍ण जिनके सारथि थे, पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन अकेले ही बाणों की वर्षा करके समस्‍त सेनाओं को, जिनकी संख्‍या बहुत बड़ी थी, किस प्रकार यमलोक पहुँचा दिया? तपोधन! यह सब वृतान्‍त आप ठीक-ठीक मुझे बताइये। उन महारथी वीरों ने विभिन्न स्‍थानों और अवसरों में जो-जो कर्म किये थे, वह सब सुनाइये।

वैशम्‍पायन जी बोले ;- महाराज! इसके लिये कुछ समय नियत कीजिये; क्‍योंकि इस पवित्र आख्‍यान का श्रीव्‍यास जी के द्वारा जो क्रमानुसार वर्णन किया गया है, वह बहुत विस्‍तृत है और वह सब आपके समक्ष कहकर सुनाना है। सर्वलोकपूजित अमिततेजस्‍वी महामना महर्षि व्‍यास जी के सम्‍पूर्ण मत का यहाँ वर्णन करूँगा। असीम प्रभावशाली सत्‍यवतीनन्‍दन व्‍यास जी ने पुण्‍यात्‍मा पाण्‍डवों की यह कथा एक लाख श्‍लोकों में कही है। जो विद्वान् इस आख्‍यान को सुनाता है और जो मनुष्‍य सुनते हैं, वे ब्रह्मलोक में जाकर देवताओं के समान हो जाते हैं। यह ऋषियों द्वारा प्रशंसित पुरातन इतिहास श्रवण करने योग्‍य सब ग्रन्‍थों में श्रेष्ठ है। यह वेदों के समान ही पवित्र तथा उत्तम है। इसमें अर्थ और धर्म का पूर्णरुप से उपदेश किया जाता है। इस परमपावन इतिहास से मोक्ष बुद्धि प्राप्त होती है। जिनका स्‍वभाव अथवा विचार खोटा नहीं है, जो दानशील, सत्‍यवादी और आस्तिक हैं, ऐसे लोगों को व्‍यास द्वारा विचरित वेदस्‍वरुप इस महाभारत को जो श्रवण कराता है, वह विद्वान अभीष्ट अर्थ को प्राप्त कर लेता है। साथ ही वह भ्रूणहत्या जैसे पाप को भी नष्ट कर देता है, इसमें संशय नहीं है। इस इतिहास को श्रवण करके अत्‍यन्‍त क्रूर मनुष्‍य भी राहु से छूटे हुए चन्‍द्रमा की भाँति सब पापों से मुक्त हो जाता है। यह ‘जय’ नामक इतिहास विजय की इच्‍छा वाले पुरुष को अवश्‍य सुनना चाहिये। इसका श्रवण करने वाला राजा भूमि पर विजय पाता और सब शत्रुओं को परास्‍त कर देता है। यह पुत्र की प्राप्ति कराने वाला और महान मंगलकारी श्रेष्ठ साधन है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 22-37 का हिन्दी अनुवाद)

  युवराज तथा रानी को बारम्‍बार इसका श्रवण करते रहना चाहिये, इससे वह वीर पुत्र अथवा राज्‍य सिंहासन पर बैठने वाली कन्‍या को जन्‍म देती है। अमित मेधावी व्‍यास जी ने इसे पुण्‍यमय धर्मशास्त्र, उत्तम अर्थशास्त्र तथा सर्वोत्‍म मोक्षशास्त्र भी कहा है। जो वर्तमान काल में इसका पाठ करते हैं तथा जो भविष्‍य में इसे सुनेंगे, उनके पुत्र सेवा परायण और सेवक स्‍वामी का प्रिय करने वाले होंगे। जो मानव इस महाभारत को सुनता है, वह शरीर, वाणी और मन के द्वारा किये हुए सम्‍पूर्ण पापों को त्‍याग देता है। जो दूसरों के दोष न देखने वाले भरतवंशियों के महान् जन्‍म वृत्तान्‍तरुप महाभारत श्रवण करते हैं, उन्‍हें इस लोक में भी रोग-व्‍याधि का भय नहीं होता, फि‍र परलोक में तो हो ही कैसे सकता है?

   लोक में जिनके महान् कर्म विख्‍यात हैं, जो सम्‍पूर्ण विद्याओं के ज्ञान द्वारा उद्भासित होते थे और जिनके धन एवं तेज महान् थे, ऐसे महामना पाण्‍डवों तथा अन्‍य क्षत्रियों की उज्ज्वल कीर्ति को लोक में फैलाने वाले और पुण्‍यकर्म के इच्‍छुक श्रीकृष्‍णद्वैपायन वेदव्‍यास ने इस पुण्‍यमय महाभारत ग्रन्‍थ का निर्माण किया है। यह धन, यश, आयु, पुण्‍य तथा स्‍वर्ग की प्राप्ति कराने वाला है। जो मानव इस लोक में पुण्‍य के लिये पवित्र ब्राह्मणों को इस परमपुण्‍यमय ग्रन्‍थ का श्रवण कराता है, उसे शाश्वत धर्म की प्राप्ति होती है। जो सदा कौरवों के इस विख्‍यात वंश का कीर्तन करता है, वह पवित्र हो जाता है। इसके सिवा उसे विपुल वंश की प्राप्ति होती है और वह लोक में अत्‍यन्‍त पूजनीय होता है। जो ब्राह्मण नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वर्षा के चार महीने तक निरन्‍तर इस पुण्‍यप्रद महाभारत का पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो महाभारत का पाठ करता है, उसे सम्‍पूर्ण वेदों का पारंगत जानना चाहिये।

   इसमें देवताओं, राजर्षियों तथा पुण्यात्‍मा ब्रह्मर्षियों के जिन्‍होंने अपने सब पाप धो दिये हैं, चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके सिवा इस ग्रन्‍थ में भगवान् श्रीकृष्ण की महिमा का कीर्तन किया जाता है। देवेश्वर भगवान् शिव और देवी पार्वती का इसमें वर्णन है तथा अनेक माताओं से उत्‍पन्न होने वाले कार्तिकेय जी के जन्‍म का प्रसंग भी इसमें कहा गया है। ब्राह्मणों तथा गौओं के माहात्‍म्‍य का निरुपण भी इस ग्रन्‍थ में किया गया है। इस प्रकार यह महाभारत सम्‍पूर्ण श्रुतियों का समूह है। धर्मात्‍मा पुरुषों को सदा इसका श्रवण करना चाहिये। जो विद्वान् पर्व के दिन ब्राह्मणों को इसका श्रवण कराता है, उसके सब पाप धुल जाते हैं और वह स्‍वर्गलोक को जीतकर सनातन ब्रह्म को प्राप्‍त कर लेता है। (जो राजा इस महाभारत को सुनता है, वह सारी पृथ्‍वी के राज्‍य का उपभोग करता है। गर्भवती स्त्री का श्रवण करे तो वह पुत्र को जन्‍म देती है। कुमारी कन्‍या सुने तो उसका शीघ्र विवाह हो जाता है। व्‍यापारी वैश्‍य यदि महाभारत श्रवण करें तो उनकी व्‍यापार के लिये की हुई यात्रा सफल होती है। शूरवीर सैनिक इसे सुनने से युद्ध में विजय पाते हैं। जो आस्तिक और दोष दृष्टि से रहित हों, उन ब्राह्मणों को नित्‍य इसका श्रवण करना चाहिये।

   वेद-विद्या का अध्‍ययन एवं ब्रह्मचर्य व्रत पूर्ण करके जो स्नातक हो चुके हैं, उन विजयी क्षत्रियों को और क्षत्रियों के अधीन रहने वाले स्‍वधर्म पारायण वैश्‍यों को भी महाभारत श्रवण कराना चाहिये। भारत! सब धर्मों में यह महाभारत श्रवणरुप श्रेष्ठ धर्म पूर्वकाल से ही देखा गया है। राजन! विशेषत: ब्राह्मण के मुख से इसे सुनने का विधान है। जो बारम्‍बार अथवा प्रतिदिन इसका पाठ करता है, वह परमगति को प्राप्‍त होता है। प्रतिदिन चाहे एक श्लोक या आधे श्लोक अथवा श्लोक के एक चरण का ही पाठ कर ले, किंतु महाभारत के अध्‍ययन से शून्‍य कभी नहीं रहना चाहिये। इस महाभारत में महात्‍मा राजर्षियों के विभिन्न प्रकार के जन्‍म-वृत्तान्‍तों का वर्णन है। इसमें मन्‍त्र-पदों का प्रयोग है। अनेक दृष्टियों (मतों) के अनुसार धर्म के स्‍वरुप का विवेचन किया गया है। इस ग्रन्‍थ में विचित्र युद्धों का वर्णन तथा राजाओं के अभ्युदय की कथा है। तात! इस महाभारत में ऋषियों तथा गन्‍धर्वों एवं राक्षसों की कथाएँ हैं। इसमें विभिन्न प्रसंगों को लेकर विस्‍तारपूर्वक वाक्‍य रचना की गयी है। इसमें पुण्‍य तीर्थों, पवित्र देशों, वनों, पर्वतों, नदियों और समुद्र के भी माहात्‍म्‍य का प्रतिपादन किया गया है। पुण्‍य प्रदशों एवं नगरों का भी वर्णन किया गया है। श्रेष्ठ उपचार और अलौकिक पराक्रम का भी वर्णन है। इस महाभारत में महर्षि व्‍यास ने सत्‍कार-योग (स्‍वागत-सत्‍कार के विविध प्रकार) का निरुपण किया है तथा रथसेना, अश्व-सेना और गज सेना की व्‍यूह रचना तथा युद्ध कौशल का वर्णन किया है। इसमें अनेक शैली की वाक्‍ययोजना- कथोपकथन का समावेश हुआ है। सारांश यह है कि इस ग्रन्‍थ में सभी विषयों का वर्णन है।) जो श्राद्ध करते समय अन्‍त में ब्राह्मणों को महाभारत के श्लोक एक चतुर्थांश भी सुना देता है, उसका किया हुआ वह श्राद्ध अक्षय होकर पितरों को अवश्‍य प्राप्त हो जाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 38-53 का हिन्दी अनुवाद)

   दिन में इन्द्रियों अथवा मन के द्वारा जो पाप बन जाता है अथवा मनुष्‍य जानकर या अनजान में जो पाप कर बैठता है वह सब महाभारत की कथा सुनते ही नष्ट हो जाता है। इसमें भरतवंशियों के महान् जन्‍म-वृत्तान्‍त का वर्णन है, इसलिये इसको ‘महाभारत’ कहते हैं। जो महाभारत नाम का यह निरुक्त (व्‍युत्‍पत्तियुक्त अर्थ) जानता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। वह भरतवंशी क्षत्रियों का महान् और अद्भुत इतिहास है। अत: निरन्‍तर पाठ करने पर मनुष्‍यों को बड़े-बड़े पाप से छुड़ा देता है। शक्तिशाली आप्तकाम मुनिवर श्रीकृष्‍णद्वैपायन व्‍यास जी प्रति-दिन प्रात:काल उठकर स्‍नान-संध्‍या आदि से शुद्ध हो आदि से ही महाभारत की रचना करते थे। महर्षि तपस्‍या और नियम का आश्रय लेकर तीन वर्षों में इस ग्रन्‍थ को पूरा किया है।

   इसलिये ब्राह्मणों को भी नियम में स्थिर होकर ही इस कथा का श्रवण करना चाहिये। जो ब्राह्मण श्रीव्‍यास जी की कही हुई इस पुण्‍यदायिनी उत्तम भारती कथा का श्रवण करायेंगे और जो मनुष्‍य इसे सुनेंगे, वे सब प्रकार की चेष्टा करते हुए भी इस बात के लिये शोक करने योग्‍य नहीं हैं कि उन्‍होंने अमुक कर्म क्‍यों किया और अमुक कर्म क्‍यों नहीं किया। धर्म की इच्‍छा रखने वाले मनुष्‍य के द्वारा यह‍ सारा महाभारत इतिहास पूर्णरुप से श्रवण करने योग्‍य है। ऐसा करने से मनुष्‍य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। इस महान् पुण्‍यदायक इतिहास को सुनने मात्र से ही मनुष्‍य को जो संतोष प्राप्त होता है, वह स्‍वर्गलोक प्राप्त कर लेने से भी नहीं मिलता। जो पुण्‍यात्‍मा मनुष्‍य श्रद्धापूर्वक इस अद्भुत इतिहास को सुनता और सुनाता है, वह राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ का फल पाता है। जैसे ऐश्वर्यपूर्ण समुद्र और महान् पर्वत मेरु दोनों रत्नों की खान कहे गये हैं, वैसे ही महाभारत रत्नस्‍वरुप कथाओं और उपदेशों का भण्‍डार कहा जाता है।

   यह महाभारत वेदों के समान पवित्र और उत्तम है। यह सुनने योग्‍य तो है ही, सुनते समय कानों को सुख देने वाला भी है। इसके श्रवण से अन्‍त:करण पवित्र होता और उत्तम शील-स्‍वाभाव की वृद्धि होती है। राजन! जो वाचक को यह महाभारत दान करता है, उसके द्वारा समुद्र से घिरी हुई सम्‍पूर्ण पृथ्‍वी का दान सम्‍पन्न हो जाता है। जनमेजय! मेरे द्वारा कही हुई इस आनन्‍ददायिनी दिव्‍यकथा को तुम पुण्‍य और विजय की प्राप्ति के लिये पूर्णरुप से सुनो। प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इस ग्रन्‍थ का निर्माण करने वाले महामुनि श्रीकृष्‍णद्वैपायन ने महाभारत नामक इस अद्भुत इतिहास को तीन वर्षों में पूर्ण किया है। भरतश्रेष्ठ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्‍बन्‍ध में जो बात इस ग्रन्‍थ में है, वही अन्‍यत्र भी है। जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत अंशावतरण पर्व में महाभारत-प्रसंशा-विषयक बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)

तिरेसठवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिषष्टितम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा उपरिचर का चरित्र तथा सत्‍यवती, व्यासादि प्रमुख पात्रों की संक्षिप्त जन्‍मकथा"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पहले उपरिचर नाम से प्रसिद्ध एक राजा हो गये हैं, जो नित्‍य-निरन्‍तर धर्म में ही लगे रहते थे। साथ ही सदा हिंसक पशुओं के शिकार के लिये वन में जाने का उनका नियम था। पौरवनन्‍दन राजा उपरिचर वसु ने इन्‍द्र के कहने से अत्‍यन्‍त रमणीय चेदि देश का राज्‍य स्‍वीकार किया था। एक समय की बात है, राजा वसु अस्त्र-शस्त्रों का त्‍याग करके आश्रम में निवास करने लगे। उन्‍होंने बड़ा भारी तप किया, जिससे वे तपोनिधि माने जाने लगे। उस समय इन्‍द्र आदि देवता यह सोचकर कि यह राजा तपस्‍या के द्वारा इन्‍द्र पद प्राप्त करना चाहता है, उनके समीप गये। देवताओं ने राजा को प्रत्‍यक्ष दर्शन देकर उन्‍हें शांतिपूर्वक समझाया और तपस्‍या से निवृत्त कर दिया। 
  देवता बोले ;- पृथ्‍वीपते! तुम्हें ऐसी चेष्टा रखनी चाहिये जिससे इस भूमि पर वर्णसंकरता न फैलने पावे (तुम्हारे न रहने से अराजकता फैलने का भय है जिससे प्रजा स्‍वधर्म में स्थिर नहीं रह सकेगी। अत: तुम्हें तपस्‍या न करके इस वसुधा का संरक्षण करना चाहिये)। राजन! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित धर्म ही सम्पूर्ण जगत को धारण कर रहा है।

  इन्‍द्र ने कहा ;- राजन! तुम इस लोक में सदा सावधान और प्रयत्‍नशील रहकर धर्म का पालन करो। धर्मयुक्त रहने पर तुम सनातन पुण्‍य लोकों को प्राप्त कर सकोगे। यद्यपि मैं स्‍वर्ग में रहता हूँ और तुम भूमि पर; तथापि आज से तुम मेरे प्रिय सखा हो गये। नरेश्वर! इस पृथ्‍वी पर जो सबसे सुन्‍दर एवं रमणीय देश हो, उसी में तुम निवास करो। इस समय चेदि देश पशुओं के लिये हितकर, पुण्‍यजनक, पुण्य धन-धान्‍य से सम्पन्न, स्‍वर्ग के समान सुखद होने के कारण रक्षणीय, सौम्य तथा भोग्‍य पदार्थों और भूमि सम्बन्‍धी उत्तम गुणों से युक्‍त हैं। यह देश अनेक पदार्थों से युक्‍त और धन रत्‍न आदि सम्पन्‍न है। यहाँ की वसुधा वास्‍तव में वसु (धन-संपत्ति) से भरी-पूरी है। अत: तुम चेदि देश के पालक होकर उसी में निवास करो। यहाँ के जनपद धर्मशील, संतोषी और साधु हैं। यहाँ हास-परिहास में भी कोई झूठ नहीं बोलता, फि‍र अन्‍य अवसरों पर तो बोल ही कैसे सकता है? पुत्र सदा गुरुजनों के हित में लगे रहते हैं, पिता अपने जीते-जी उनका बंटवारा नहीं करते। यहाँ के लोग बैलों को भार ढ़ोने में नहीं लगाते और दीनों एवं अनाथों का पोषण करते हैं।

  मानद! चेदि देश में सब वर्णों के लोग सदा अपने-अपने धर्म में स्थित रहते हैं। तीनों लोकों में जो कोई घटना होगी, वह सब यहाँ रहते हुए भी तुमसे छिपी न रहेगी- तुम सर्वज्ञ बने रहोगे। जो देवताओं के उपभोग में आने योग्‍य हैं, ऐसा स्फटिक मणि का बना हुआ एक दिव्‍य, आकाशचारी एवं विशाल विमान मैंने तुम्हें भेंट किया है। वह आकाश में तुम्हारी सेवा के लिये सदा उपस्थित रहेगा। सम्पूर्ण मनुष्‍यों में एक तुम्हीं इस श्रेष्ट विमान पर बैठकर मूर्तिमान् देवता की भाँति सबके ऊपर-ऊपर विचरोगे। मैं तुम्हें यह वैजयन्‍ती माला देता हूँ, जिसमें पिरोये हुए कमल कभी कुम्हलाये नहीं हैं। इसे धारण कर लेने पर यह माला संग्राम में तुम्हें अस्त्र-शस्त्रों के आघात से बचायेगी। नरेश्वर! यह माला ही इन्‍द्रमाला के नाम से विख्‍यात होकर इस जगत् में तुम्हारी पहचान कराने के लिये परम धन्‍य एवं अनुपम चिह्न होगी। ऐसा कहकर वृत्रासुर का नाश करने वाले इन्‍द्र ने राजा को प्रमोपहारस्‍वरुप बांस की एक छड़ी दी, जो शिष्ट पुरुषों की रक्षा करने वाली थी। तदनन्‍तर एक वर्ष बीतने पर भूपाल वसु ने इन्‍द्र की पूजा के लिये उस छड़ी को भूमि में गाड़ दिया। राजन! तब से लेकर आज तक श्रेष्ठ राजाओं द्वारा छड़ धरती में गाड़ी जाती है। वसु ने जो प्रथा चली दी, वह अब तक चली आती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)

  दूसरे दिन अर्थात नवीन संवत्‍सर के प्रथम दिन प्रतिपदा को वह छड़ी निकालकर बहुत ऊंचे स्‍थान में रखी जाती है; फि‍र कपड़े की पेटी, चन्‍दन, माला और आभूषणों से उसको सजाया जाता है। उसमें विधिपूर्वक फूलों के हार और सूत लपेटे जाते हैं। तत्‍पश्चात उसी छड़ी पर देवेश्वर भगवान् इन्द्र का हंस रुप से पूजन किया जाता है। इन्‍द्र ने महात्‍मा वसु के प्रेमवश स्‍वंय हंस का रुप धारण करके वह पूजा ग्रहण की। नृपश्रेष्ठ वसु के द्वारा की हुई उस शुभ पूजा को देखकर प्रभावशाली भगवान् महेन्‍द्र प्रसन्न हो गये और ,,

इस प्रकार बोले ;- ‘चेदिदेश के अधिपति उपरिचर वसु जिस प्रकार मेरी पूजा करेंगे और मेरे इस उत्‍सव को रचायेंगे, उनको और उनके समूचे राष्ट्र को लक्ष्‍मी एवं विजय की प्राप्ति होगी। इतना ही नहीं, उनका सारा जनपद ही उत्तरोत्तर उन्नति शील और प्रसन्न होगा’ राजन! इस प्रकार महात्‍मा महेन्‍द्र ने, जिन्‍हें मघवा भी कहते हैं, प्रेमपूर्वक महाराज वसु का भली-भाँति सत्‍कार किया।

जो मनुष्‍य भूमि तथा रत्न आदि का दान करते हुए सदा देवराज इन्‍द्र का उत्‍सव रचायेंगे, वे इन्‍द्रोत्‍सव द्वारा इन्‍द्र का वरदान पाकर उसी उत्तम गति को पा जायेंगे, जिसे भूमिदान आदि के पुण्‍यों से युक्त मानव प्राप्‍त करते हैं। इन्‍द्र के द्वारा उपर्युक्‍त रुप से सम्‍मानित चेदिराज वसु ने चेदि देश में ही रहकर इस पृथ्‍वी का धर्मपूर्वक पालन किया किया। इन्‍द्र की प्रसन्नता के लिये चेदिराज वसु प्रति वर्ष इन्‍द्रोत्‍सव मनाया करते थे। उनके अनन्‍त बलशाली महापराक्रमी पांच पुत्र थे। सम्राट वसु ने विभिन्न राज्‍यों पर अपने पुत्रों को अभिषिक्त कर दिया। उनमें महारथी बृहद्रथ मगध देश का विख्‍यात राजा हुआ। दूसरे पुत्र का नाम प्रत्‍यग्रह था, तीसरा कुशाम्‍ब था, जिसे मणिवाहन भी कहते हैं। चौथा मावेल्ल था। पांचवा राजकुमार यदु था, जो युद्ध में किसी से पराजित नहीं होता था।

राजा जनमेजय! महातेजस्‍वी राजर्षि वसु के इन पुत्रों ने अपने-अपने नाम से देश और नगर बसाये। पांचों वसुपुत्र भिन्न-भिन्न देशों के राजा थे और उन्‍होंने पृथक-पृथक अपनी सनातन वंश परम्‍परा चलायी। चेदिराज वसु के इन्‍द्र के दिये हुए स्‍फटिक मणिमय विमान में रहते हुए आकाश में ही निवास करते थे। उस समय उन महात्‍मा नरेश की सेवा में गन्‍धर्व और अप्‍सराएं उपस्थित होती थीं। सदा ऊपर-ही-ऊपर चलने के कारण उनका नाम ‘राजा उपरिचर’ के रुप में विख्‍यात हो गया। उनकी राजधानी के समीप शुक्तिमती नदी बहती थी। एक समय कोलाहल नामक सचेतन पर्वत ने कामवश दिव्‍यरुप धारिणि नदी को रोक लिया। उसके रोकने से नदी की धारा रुक गयी। यह देख उपरिचर वसु ने कोलाहल पर्वत पर अपने पैर से प्रहार करते ही पर्वत में दरार पड़ गयी, जिससे निकलकर वह नदी पहले के समान बहने लगी। पर्वत ने उस नदी के गर्भ से एक पुत्र और एक कन्‍या, जुड़वी संतान उत्‍पन्न की थी। उसके अवरोध से मुक्त करने के कारण प्रसन्न हुई नदी ने राजा उपरिचर को अपनी दोनों संतानें समर्पित कर दीं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 38-47 का हिन्दी अनुवाद)

  उनमें जो पुरुष था, उसे शत्रुओं का दमन करने वाले धनदाता राजर्षिप्रवर वसु ने अपना सेनापति बना लिया और जो कन्‍या थी उसे राजा ने अपनी पत्नी बना लिया। उसका नाम था गिरिका। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ जनमेजय! एक दिन ॠतुकाल को प्राप्‍त हो स्‍नान के पश्चात शुद्ध हुई वसुपत्नी गिरिका ने पुत्र उत्पन्न होने योग्‍य समय में राजा से समागम की इच्‍छा प्रकट की। उसी दिन पितरों ने राजाओं में श्रेष्ठ वसु पर प्रसन्न हो उन्‍हें आज्ञा दी ’तुम हिंसक पशुओं का वध करो।’ तब राजा पितरों की आज्ञा का उल्‍लघंन न करके कामनावश साक्षात् दूसरी लक्ष्‍मी के समान अत्‍यन्‍त रुप और सौन्‍दर्य के वैभव से सम्‍पन्न गिरिका का ही चिन्‍तन करते हुए हिंसक पशुओं को मारने के लिये वन में गये।

  राजा का वह वन देवताओं के चैत्ररथ नामक वन के समान शोभा पा रहा था। वसन्‍त का समय था, अशोक ,चम्‍पा, आम, अतिमुक्तक (माधवीलता), पुन्नाग (नागकेसर), कनेर, मौलसिरी, दिव्‍यपाटल, पाटल, नारियल, चन्‍दन तथा अर्जुन– ये स्‍वादिष्ट फलों से युक्त, रमणीय तथा पवित्र महावृक्ष उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। कोकिलाओं के कल-कूजन से समस्‍त वन गूंज उठा था। चारों ओर मतवाले भौंरे कल-कल नाद कर रहे थे। यह उद्दीपन-सामग्री पाकर राजा का हृदय कामवेदना से पीड़ित हो उठा। उस समय उन्‍हें अपनी रानी गिरीका का दर्शन नहीं हुआ। उसे न देख कर कामाग्नि से संतप्त हो वे इच्‍छानुसार इधर-उधर घूमने लगे। घूमते-घूमते उन्‍होंने एक रमणीय अशोक का वृक्ष देखा, जो पल्‍लवों से सुशोभित और पुष्‍प के गुच्‍छों से आच्‍छादित था। उसकी शाखाओं के अग्रभाग फूलों से ढके हुए थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 48-62 का हिन्दी अनुवाद)

राजा उसी वृक्ष के नीचे उसकी छाया में सुखपूर्वक बैठ गये। वह वृक्ष मकरन्‍द और सुगन्‍ध से भरा था। फूलों की गंध से वह बरबस मन को मोह लेता था। उस समय कामोद्दीपक वायु से प्रेरित हो राजा के मन में रति के लिये स्‍त्रीविषयक प्रीति उत्‍पन्न हुई। इस प्रकार वन में विचरने वाले राजा उपरिचर का वीर्य स्‍खलित हो गया। उसके स्‍खलित होते ही राजा ने यह सोचकर कि मेरा वीर्य व्‍यर्थ न जाय, उसे वृक्ष के पत्ते पर उठा लिया। उन्‍होंने विचार किया ‘मेरा यह स्‍खलित वीर्य व्‍यर्थ न हो साथ ही मेरी पत्नि गिरिका का ॠतुकाल भी व्‍यर्थ न जाये’ इस प्रकार बारम्‍बार विचार कर राजाओं में श्रेष्ठ वसु ने उस वीर्य को अमोघ बनाने का ही निश्चय किया।

तदनन्‍तर रानी के पास अपना वीर्य भेजने का उपयुक्‍त अवसर देख उन्‍होंने उस वीर्य को पुत्रोत्‍पत्तिकारक मन्‍त्रों द्वारा अभिमंत्रित किया। राजा वसु धर्म और अर्थ के सूक्ष्‍म तत्त्व को जानने वाले थे। उन्‍होंने अपने विमान के समीप ही बैठे हुए शीघ्रगामी श्‍वेन पक्षी (बाज) के पास जाकर ,,
राजा वसु ने कहा ;- ‘सौम्‍य! तुम मेरा प्रिय करने के लिये यह वीर्य मेरे घर ले जाओ और महारानी गिरिका को शीघ्र दे दो; क्‍योंकि आज ही उनका ॠतु काल है।' बाज वह वीर्य लेकर वड़े वेग के साथ तुरन्‍त वहाँ से उड़ गया। वह आकाशचारी पक्षी सर्वोत्तम वेग का आश्रय लेकर उड़ा जा रहा था, इतने में एक दूसरे बाज ने उसे आते देखा। उस बाज को देखते ही उसके पास मांस होने की आशंका से दूसरा बाज तत्‍काल उस पर टूट पड़ा।

फि‍र वे दोनों पक्षी आकाश में एक दूसरे को चोंच मारते हुए युद्ध करने लगे। उन दोनों के युद्ध करते समय वह वीर्य यमुना जी के जल में गिर पड़ा। अद्रिका नाम से विख्‍यात एक सुन्‍दरी अप्‍सरा ब्रह्मा जी के शाप से मछली होकर वहीं यमुना जी के जल में रहती थी। बाज के पंजे से छूटकर गिरे हुए वसु सम्‍बन्‍धी उस वीर्य को मत्‍स्‍यरुपधारिणी अद्रिका ने वेगपूर्वक आकर निगल लिया। भरतश्रेष्ठ! तत्‍पश्चात दसवाँ मास आने पर मत्‍स्‍यजीवी मल्लाहों ने उस मछली को जाल में बांध लिया और उसके उदर को चीर कर एक कन्‍या और एक पुरुष निकाला। यह आश्‍चर्यजनक घटना देखकर मछेरों ने राजा के पास जाकर,,,

 निवेदन किया ;- ‘महाराज! मछली के पेट से ये दो मनुष्‍य बालक उत्‍पन्न हुए हैं’।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 63-80 का हिन्दी अनुवाद)

  मछेरों की बात सुनकर राजा उपरिचर ने उस समय उन दोनों बालाकों में से जो पुरुष था, उसे स्‍वयं ग्रहण कर ‍लिया। वही मत्‍स्‍य नामक धर्मात्‍मा एवं सत्‍यप्रतिज्ञ राजा हुआ। इधर वह शुभलक्षणा अप्‍सरा अद्रिका क्षण भर में शापमुक्त हो गयी। भगवान् ब्रह्मा जी ने पहले ही उससे कह दिया था कि 'तिर्यग योनि में पड़ी हुई तुम दो मानव-संतानों को जन्‍म देकर शाप से छूट जाओगी।’ अत: मछली मारने वाले मल्‍लाह ने जब उसे काटा तो वह मानव-बालकों को जन्‍म देकर मछली का रुप छोड़ दिव्‍य रुप को प्राप्त हो गयी। इस प्रकार वह सुन्‍दरी अप्‍सरा सिद्ध म‍हर्षि और चारणों के पथ से स्‍वर्गलोक चली गयी। उन जुड़वी संतानों में जो कन्‍या थी, मछली की पुत्री होने से उसके शरीर से मछली की गन्‍ध आती थी। अत: राजा ने उसे मल्‍लाह को सौंप दिया और,,

राजा ने कहा ;- ‘यह तेरी पुत्री होकर रहे’। वह रुप और सत्त्‍व (सत्‍य) से संयुक्त तथा समस्‍त सद्गुणों से सम्‍पन्न होने के कारण ‘सत्‍यवती’ नाम से प्रसिद्ध हुई।

  मछेरों के आश्रय में रहने के कारण वह पवित्र मुस्‍कान वाली कन्‍या कुछ काल तक मत्‍स्‍यगन्‍धा नाम से ही विख्‍यात रही। वह पिता की सेवा के लिये यमुना जी के जल में नाव चलाया करती थी। एक दिन तीर्थयात्रा के उद्देश्‍य से सब ओर विचरने वाले म‍हर्षि पराशर ने उसे देखा। वह अतिशय रुप सौन्‍दर्य से सुशोभित थी। सिद्धों के हृदय में भी उसे पाने की अभिलाषा जाग उठती थी। उसकी हंसी बड़ी मोहक थी, उसकी जांघें कदली की सी शोभा धारण करती थीं। उस दिव्‍य वसुकुमारी को देखकर परमबुद्धिमान मुनिवर पराशर ने उसके साथ समागम की इच्‍छा प्रकट की। 

मुनिवर पराशर ने कहा ;- कल्‍याणी! मेरे साथ संगम करो। 

वह बोली ;- 'भगवन! देखिये नदी के आर-पार दोनों तटों पर बहुत से ऋषि खड़े हैं। और हम दोनों को देख रहे हैं। ऐसी दशा में हमारा समागम कैसे हो सकता है?’ उसके ऐसा कहने पर शक्तिशाली भगवान पराशर ने कुहरे की सृष्टि की।

   जिससे वहाँ का सारा प्रदेश अंधकार से आच्‍छादित-सा हो गया। महर्षि द्वारा कुहरे की सृष्टि देखकर वह तपस्विनी कन्‍या आश्‍चर्यचकित एवं लज्जित हो गयी। 

सत्‍यवती ने कहा ;- भगवन! आपको मालूम होना चाहिये कि मैं सदा अपने पिता के अधीन रहने वाली कुमारी कन्‍या हूँ। निष्‍पाप महर्षे! आपके संयोग से मेरा कन्‍या भाग (कुमारीपन) दूषित हो जायेगा। द्विजश्रेष्ठ! कन्‍या भाग दूषित हो जाने पर मैं कैसे अपने घर जा सकती हूँ। बुद्धिमान मुनिश्‍वर! अपने कन्‍यापन के कलंकित हो जाने पर मैं जीवित रहना नहीं चाहती। भगवन! इस बात पर भलि-भाँति विचार करके जो उचित जान पड़े, वह कीजिये। सत्‍यवती के ऐसा कहने पर,,

 मुनिश्रेष्ठ पराशर प्रसन्न होकर बोले ;- ‘भीरु! मेरा प्रिय कार्य करके भी तुम कन्‍या ही रहोगी। भामिनी! तुम जो चाहो, वह मुझसे वर मांग लो। शुचिस्मिते! आज से पहले कभी भी मेरा अनुग्रह व्‍यर्थ नहीं गया है’। महर्षि के ऐसा कहने पर सत्‍यवती ने अपने शरीर में उत्तम सुगन्‍ध होने का वरदान मांगा। भगवान पराशर ने उसे इस भूतल पर वह मनोवाञ्छित वर दे दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 81-92 का हिन्दी अनुवाद)

   तदनन्‍तर वरदान पाकर प्रसन्न हुई सत्यवती नारीपन के समागमोचित गुण (सद्य: ॠतुस्‍नान आदि) से विभूषित हो गयी और उसने अद्भुतकर्मा महर्षि पराशर के साथ समागम किया। उसके शरीर से उत्तम गन्‍ध फैलने के कारण पृथ्‍वी पर उसका गन्धवती नाम विख्‍यात हो गया। इस पृथ्‍वी पर एक योजन दूर के मनुष्य भी उसी दिव्य सुगन्ध का अनुभव करते थे इस कारण उसका दूसरा नाम योजनगन्धा हो गया। इस प्रकार परम उत्तम वर पाकर हर्षोल्लास के भरी हुई सत्यवती ने महर्षि पराशर का संयोग प्राप्त किया और तत्काल ही एक शिशु को जन्म दिया। यमुना के द्वीप (यमुना द्वीप) में अत्यन्त शक्तिशाली पराशरनन्दन व्यास प्रकट हुए। 

उन्होंने माता से यह कहा ;- ‘आवश्‍यकता पड़ने पर तुम मेरा स्मरण करना। मैं अवश्‍य दर्शन दूंगा।’ इतना कहकर माता की आज्ञा ले व्यास जी ने तपस्या में ही मन लगाया। इस प्रकार महर्षि पराशर द्वारा सत्यवती के गर्भ से द्वैपायन व्यास जी का जन्म हुआ। वे बाल्यावस्था में ही यमुना के द्वीप में छोड़ दिये गये, इसलिये ‘द्वैपायन’ नाम से प्रसिद्ध हुए। तदनन्तर सत्यवती प्रसन्नपूर्वक अपने घर पर गयी। उस दिन से भूमण्डल के मनुष्य एक योजन दूर से ही उसकी दिव्य गन्ध का अनुभव करने लगे। उसका पिता दाशराज भी उसकी गन्ध सूंघकर बहुत प्रसन्न हुआ। दाशराज ने पूछा बेटी! तेरे शरीर से मछली की-सी दुर्गन्ध आने के कारण लोग तुझे ‘मत्स्यगन्धा’ कहा करते थे, फिर तुझमें यह सुगन्ध कहाँ से आ गयी? किसने यह मछली की दुर्गन्ध दूर कर तेरे शरीर को सुगन्ध प्रदान की है?

सत्यवती बोली ;- पिताजी! महर्षि शक्ति के पुत्र महाज्ञानी पराशर हैं, (वे यमुना जी के तट पर आये थे; उस समय) मैं नाव खे रही थी। उन्होंने मेरी दुर्गन्धता की ओर लक्ष्य करके मुझ पर कृपा की और मेरे शरीर से मछली की गन्‍ध दूर करके ऐसी सुगन्ध दे दी, जो एक योजन दूर तक अपना प्रभाव रखती है। महर्षि का यह कृपा प्रसाद देखकर सब लोक बड़े प्रसन्न हुए। विद्वान द्वैपायनजी ने देखा कि प्रत्येक युग में धर्म का एक-एक पाद लुप्त होता जा रहा हैं। मनुष्यों की आयु और शक्ति क्षीण हो चली है और युग की ऐसी दुरवस्था हो गयी है। यह सब सुनकर उन्होंने वेद और ब्राह्मणों पर अनुग्रह करने की इच्छा से वेदों का व्यास (विस्तार) किया। इसलिये वे व्यास नाम से विख्यात हुए। सर्वश्रेष्ठ वरदयाक भगवान व्यास ने चारों वेदों तथा पांचवें वेद महाभारत का अध्ययन सुमन्तु, जैमिनी, पैल, अपने पुत्र शुकदेव तथा मुझ वैशम्पायन को कराया। फिर उन सबने पृथक-पृथक महाभारत की संहिताऐं प्रकाशित की। अमिततेजस्वी शान्तनुनन्दन भीष्म आठवें वसु के अंश से गंगा जी के गर्भ से उत्पन्न हुए। वे महान पराक्रमी और यशस्वी थे। 

  पूर्व काल की बात है वेदार्थों के ज्ञाता, महान यशस्वी, पुरातन मुनि, ब्रह्मर्षि भगवान अणीमाण्डव्य चोर न होते हुए भी चोर के संदेह से शूली पर चढ़ा दिये गये। परलोक में जाने पर उन महायशस्वी महर्षि ने पहले धर्म को बुलाकर इस प्रकार कहा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 93-110 का हिन्दी अनुवाद)

   ‘धर्मराज! पहले कभी मैंने बाल्यवस्था के कारण सींक से एक चिड़िये के बच्चे को छेद दिया था। वही एक पाप मुझे याद आ रहा है। अपने दूसरे किसी पाप का मुझे स्मरण नहीं है। मैंने अगणित सहस्र गुणा तप किया है। फिर उस तप ने मेरे छोटे - से पाप को क्यों नहीं नष्ट कर दिया। ब्राह्मण का वध समस्त प्राणियों के वध से बड़ा है। (तुमने मुझे शूली पर चढ़वाकर वही पाप किया है) इसलिये तुम पापी हो। अतः पृथ्वी पर शूद्र की योनि में तुम्हें जन्म लेना पड़ेगा। ‘अणीमाण्डव्य के उस शाप से धर्म भी शूद्र की योनि में उत्पन्न हुए। पापरहित विद्वान विदुर के रूप में धर्मराज का शरीर ही प्रकट हुआ था। उसी समय गवल्गण से संजय नामक सूत का जन्म हुआ, जो मुनियों के समान ज्ञानी और धर्मात्मा थे। राजा कुन्तिभोज की कन्या कुन्ती के गर्भ से सूर्य के अंश से महाबली कर्ण की उत्पत्ति हुई। वह बालक जन्म के साथ ही कवचधारी था। उस मुख शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए कुण्डल की प्रभा से प्रकाशित होता था। उन्हीं दिनों विश्‍ववन्दित महायशस्वी भगवान विष्णु जगत की जीवों पर अनुग्रह करने के लिये वसुदेव जी के द्वारा देवकी के गर्भ से प्रकट हुए। वे भगवान आदि-अन्त से रहित, द्युतिमान, सम्पूर्ण जगत के कर्ता तथा प्रभू हैं। उन्हीं को अव्यक्त अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म और त्रिगुणमय प्रधान कहते हैं।

आत्मा, अव्यय, प्रकृति (उपादान), प्रभव (उत्पत्ति-कारण), प्रभु (अधिष्ठाता), पुरुष (अन्तर्यामी), विश्वकर्मा, सत्त्वगुण से प्राप्त होने वाले तथा प्रणवाक्षर वे ही हैं; उन्हीं को अनन्त, अचल, देव, हंस, नारायण, प्रभु, धाता, अजन्मा, अव्यक्त, पर, अव्यय, कैवल्य, निरगुण, विश्‍वरूप, अनादि, जन्मरहित और अविकारी कहा गया है। वे सर्वव्यापी, परमपुरुष परमात्मा, सबके कर्ता और सम्पूर्ण भूतों के पितामह हैं। उन्होंने ने ही धर्म की वृद्धि के लिये अन्धक और वृष्णि कुल में बलराम और श्रीकृष्ण रूप में अवतार लिया था। वे दोनों भाई सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता, महापराक्रमी और समस्त शास्त्रों के ज्ञान में परम प्रवीण थे। सत्य से सात्यकि और हृदिक से कृतवर्मा का जन्म हुआ था। वे दोनों अस्त्र विद्या में अत्यन्त निपुण और भगवान श्रीकृष्ण के अनुगामी थे। एक समय उग्र तपस्वी महर्षि भारद्वाज का वीर्य किसी द्रोणी (पर्वत की गुफा) में स्खलित होकर धीरे-धीरे पुष्ट होने लगा। उसी से द्रोण का जन्म हुआ।

किसी समय गौतम गोत्रीय शरद्वान का वीर्य सरकंडे के समूह पर गिरा और दो भागों में बंट गया। उसी से एक कन्या और एक पुत्र का जन्म हुआ। कन्या का कृपि नाम था, जो अश्वत्थामा की जननी हुई। पुत्र महाबली कृप के नाम से विख्यात हुआ। तदनन्तर द्रोणाचार्य से महाबली अश्‍वत्थामा का जन्म हुआ। इसी प्रकार यज्ञ कर्म का अनुष्ठान करते समय प्रज्वलित अग्नि से धृष्टद्युम्न का प्रादुर्भाव हुआ, जो साक्षात अग्निदेव के समान तेजस्वी था। पराक्रमी वीर धृष्टद्युम्न द्रोणाचार्य का विनाश करने के लिये धनुष लेकर प्रकट हुआ था। उसी यज्ञ की वेदी से शुभस्वरूपा तेजस्विनी द्रौपदी उत्पन्न हुई, जो परम उत्तम रूप धारण करके अपने सुन्दर शरीर से अत्यन्त शोभा पा रही थी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 111-127 का हिन्दी अनुवाद)

   प्रह्राद का शिष्‍य नग्नजित राजा सुबल के रूप में प्रकट हुआ। देवताओं के कोख से उसकी संतति (शकुनि) धर्म का नाश करने वाली हुई। गान्धारराज सुबल का पुत्र शकुनि एवं सौबल नाम से विख्यात हुआ तथा उनकी पुत्री गान्धारी दुर्योधन की माता थी। ये दोनों भाई-बहिन अर्थ-शास्त्र के ज्ञान में निपुण थे। राजा विचित्रवीर्य की क्षेत्रभूता अम्बिका और अम्बालिका के गर्भ से कृष्णद्वैपायन व्यास द्वारा राजा धृतराष्ट्र और महाबली पाण्डु का जन्म हुआ। द्वैपायन व्यास से ही शूद्र जातीय स्त्री के गर्भ से विदुर जी का जन्म हुआ था। वे धर्म और अर्थ के ज्ञान में निपुण, बुद्धिमान, मेधावी और निष्पाप थे। पाण्डु से दो स्त्रियों के द्वारा पृथक-पृथक पांच पुत्र उत्पन्न हुये, जो सब-के-सब देवताओं के समान थे।

  उन सबमें सबसे बड़े युधिष्ठिर थे। वे उत्तम गुणों में भी सबसे बढ़-चढ़कर थे। युधिष्ठिर धर्म से भीमसेन वायु देवता से, सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ श्रीमान अर्जुन इन्द्र देव से तथा सुन्दर रूप वाले नकुल और सहदेव अश्विनी कुमारों से उत्पन्न हुए थे। वे जुड़वे पैदा हुये थे। नकुल और सहदेव सदा गुरुजनों की सेवा में तत्पर रहते थे। परमबुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र हुए। इनके अतिरिक्त युयुत्सु भी उन्हीं का पुत्र था। वह वैश्‍य जातिय माता से उत्पन्न होने के कारण ‘करण’ कहलाता था। भरतवंशी जनमेजय! 

धृतराष्ट्र के पुत्रों में दुर्योधन, दुःशासन, दुःसह, दुर्मर्षण, विकर्ण, चित्रसेन, विविंशति, जय, सत्यव्रत, पुरुमित्र तथा वैश्‍यापुत्र युयुत्सु- ये ग्यारह महारथी थे। अर्जुन द्वारा सुभद्रा के गर्भ से अभिमन्यु का जन्म हुआ। वह महात्मा पाण्डु का पौत्र और भगवान श्रीकृष्ण का भान्जा था।

पाण्डवों द्वारा द्रौपदी के गर्भ से पांच पुत्र उत्पन्न हुए थे, जो बड़े ही सुन्दर और सब शास्त्रों में निपुण थे। युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीमसेन से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकीर्ति, नकुल से शतानीक तथा सहदेव से प्रतापी श्रुतसेन का जन्म हुआ था। भीमसेन के द्वारा हिडिम्बा से वन में घटोत्कच नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। राजा द्रुपद से शिखण्डी नाम की एक कन्या हुई, जो आगे चलकर पुत्ररूप में परिणित हो गयी। स्थूणाकर्ण नामक यक्ष ने उसका प्रिय करने की इच्छा से उसे पुरुष बना दिया था। कौरवों के उस महासमर में युद्ध करने के लिये राजाओं के कई लाख योद्धा आये थे। दस हजार वर्षों तक गिनती की जाये तो भी उन असंख्य योद्वाओं के नाम पूर्णतः नहीं बताये जा सकते। यहाँ कुछ मुख्य-मुख्य राजाओं के नाम बताये गये हैं, जिनके चरित्रों से इस महाभारत-कथा का विस्तार हुआ है।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत अंशावतरण पर्व में व्यास आदि की उत्पत्ति से सम्बंध रखने वाला तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)

चौंसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुःषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति और वृद्धि तथा उस समय के धार्मिक राज्य का वर्णन; असुरों का जन्म और उनके भार से पीड़ित पृथ्वी का ब्रह्मा जी की शरण में जाना तथा ब्रह्मा जी का देवताओं को अपने अंश से पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश"

जनमेजय बोले ;- ब्रह्मन्! आपने यहाँ जिन राजाओं के नाम बताये हैं और जिन दूसरे नरेशों के नाम यहाँ नहीं लिये हैं, उन सब सहस्रों राजाओं का मैं भलि-भाँति परिचय सुनना चाहता हूँ। महाभाग! वे देवतुल्य महारथी इस पृथ्वी पर जिस उद्देश्‍य की सिद्धि के लिये उत्पन्न हुए थे, उसका यथावत वर्णन कीजिये। 

वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन! यह देवताओं का रहस्य है, ऐसा मैंने सुन रखा है। स्वयंभू ब्रह्मा जी को नमस्कार करके आज उसी रहस्य का तुमने वर्णन करूंगा। पूर्वकाल में जमदग्निनन्दन परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय रहित करके उत्तम पर्वत महेन्द्र पर तपस्या की थी। उस समय जब भृगुनन्दन ने इस लोक को क्षत्रिय शून्य कर दिया था, क्षत्रिय-नारियों पुत्र की अभिलाषा से ब्राह्मणों की शरण ग्रहण की थी। नररत्न! वे कठोर व्रतधारी ब्राह्मण केवल ऋतुकाल में ही उनके साथ मिलते थे; न तो कामवश न बिना ऋतुकाल के ही। राजन! उन सहस्रों क्षत्राणियों ने ब्राह्मणों से गर्भ धारण किया और पुनः क्षत्रिय कुल वृद्धि के लिये अत्यन्त बलशाली क्षत्रियकुमारों और कुमारियों को जन्म दिया। इस प्रकार तपस्वी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्राणियों के गर्भ से धर्मपूर्वक क्षत्रिय संतान की उत्पत्ति और वृद्धि हुई। वे सब संतानें दीर्घायु होती थी। तदनन्तर जगत में पुनः ब्राह्मण प्रधान चारों वर्ण प्रतिष्ठित हुए। उस समय बस लोग ऋतुकाल में ही पत्नि समागम करते थे; केवल कामनावश या ऋतुकाल के बिना नहीं करते थे। इसी प्रकार पशु-पक्षी आदि की योनि में पड़े हुए जीव भी ऋतुकाल में ही अपनी स्त्रियाँ से संयोग करते थे।

भरतश्रेष्ठ! उस समय धर्म का आश्रय लेने से सब लोग सहस्र एवं शतवर्षों तक जीवित रहते थे और उत्तरोत्तर उन्नति करते थे। भूपाल! उस समय की प्रजा धर्म एवं व्रत के पालन में तत्पर रहती थी; अतः सभी लोग रोगों तथा मानसिक चिन्ताओं से मुक्त रहते थे। गजराज के समान गमन करने वाले राजा जनमेजय! तदनन्तर धीरे-धीरे समुद्र से घिरी हुई पर्वत, वन और नगरों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर पुनः क्षत्रिय जाति का ही अधिकार हो गया। जब पुनः क्षत्रिय शासक धर्मपूर्वक इस पृथ्वी का पालन करने लगे, तब ब्राह्मण आदि वर्णों को बड़ी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन दिनों राजा लोग काम और क्रोधजनित दोषों को दूर करके दण्डनीय अपराधियों को धर्मानुसार दण्ड देते हुए पृथ्वी का पालन करते थे। इस तरह धर्मपरायण क्षत्रियों के शासन में सारा देश-काल अत्यन्त रुचिकर प्रतीत होने लगा। उस समय सहस्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र समय पर वर्षा करके प्रजाओं का पालन करते थे। राजन! उन दिनों कोई भी बाल्यावस्था में नहीं मरता था। कोई भी पुरुष युवावस्था प्राप्त हुए बिना स्त्री-सुख का अनुभव नहीं करता था। भरतश्रेष्ठ! ऐसी व्यवस्था हो जाने से समुद्रपर्यन्त यह सारी पृथ्वी दीर्घकाल तक जीवित रहने वाली प्रजाओं से भर गयी। क्षत्रिय लोग बहुत-सी दक्षिणा बाले ‘बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा यजन करते थे। ब्राह्मण अंगों और उपनिषदों सहित सम्पूर्ण वेदों का अध्ययन करते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुःषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद)

  राजन! उस समय ब्राह्मण न तो वेद का विक्रय करते और न शूद्रों के निकट वेदमन्त्रों का उच्चारण ही करते थे। वैश्‍यगण बैलों द्वारा इस पृथ्वी पर दूसरों से खेती कराते हुए भी स्वयं उनके कंधे पर जुआ नहीं रखते थे- उन्हें बोझ ढोने में नहीं लगाते थे और दुर्बल अंगों वाले निकम्मे पशुओं को भी दाना-घास देकर उनके जीवन की रक्षा रकते थे। जब तक बछड़े केवल दूध पर रहते, घास नहीं चरते, तब तक मनुष्य गौओं का दूध नहीं दुहते थे। व्यापारी लोग बेचने योग्य वस्तुओं का झूठे माप-तौल द्वारा विक्रय नहीं करते थे। नरश्रेष्ठ! सब मनुष्य धर्म की ओर दृष्टि रखकर धर्म में जी तत्पर हो धर्मयुक्त कर्मों का ही अनुष्ठान करते थे। राजन! उस समय सब वर्णों के लोग अपने-अपने कर्म के पालन में लगे रहते थे। नरश्रेष्ठ! इस प्रकार उस समय कहीं भी धर्म का ह्रास नहीं होता था।

   भरतश्रेष्ठ। गौऐं तथा स्त्रियां भी ठीक समय पर संतान उत्पन्न करती थीं। ऋतु आने पर ही वृक्षों में फूल और फल लगते थे। नरेश्‍वर! इस तरह उस समय सब ओर सत्ययुग छा रहा था। सारी पृथ्वी नाना प्रकार के प्राणियों से खूब भरी-पूरी रहती थी। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार सम्पूर्ण मानव-जगत बहुत प्रसन्न था। मनुजेश्‍वर! इसी समय असुर लोग राजपत्नियों के गर्भ से जन्म लेने लगे। उन दिनों अदिति के पुत्रों (देवताओं) द्वारा दैत्यगण अनेक बार युद्ध में पराजित हो चुके थे। स्वर्ग के ऐश्‍वर्य भ्रष्ट होने पर वे इस पृथ्वी पर ही जन्म लेने लगे। प्रभु! यहीं रहकर देवत्व प्राप्त करने की इच्छा से वे मनस्वी असुर भूतल पर मनुष्यों तथा भिन्न-भिन्न प्राणियों में जन्म लेने लगे। राजेन्द्र! गौओं, घोड़ों, गदहो, ऊंटों, भैसों, कच्चे मांस खाने वाले पशुओं, हाथियों, और मृगों की योनि में भी यहाँ असुरों ने जन्म लिया और अभी तक वे जन्म धारण करते जा रहे थे। उन सबसे यह पृथ्वी इस प्रकार भर गयी कि अपने-आपको भी धारण करने में भी समर्थ न हो सकी।

   स्वर्ग से इस लोक में गिरे हुए तथा राजाओं के रूप में उत्पन्न हुए कितने ही दैत्य और दानव अत्यन्त मद से उन्मत्त रहते थे। वे पराक्रमी होने के साथ ही अहंकारी भी थे। अनेक प्रकार के रूप धारण कर अपने शत्रुओं का मन मर्दन करते हुए समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी पर विचरते रहते थे। वे ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्‍यों तथा शूद्रों को भी सताया करते थे। अन्यान्य जीवों को भी अपने बल और पराक्रम से पीड़ा देते थे। राजन! वे असुर लाखों की संख्या में उत्पन्न हुए थे और समस्त प्राणियों को डराते-धमकाते तथा उनकी हिंसा करते हुए भूमण्डल में सब ओर घूमते रहते थे। वे वेद और ब्राह्मण के विरोधी, पराक्रम के नशे में चूर तथा अहंकार और बल से मतवाले होकर इधर-उधर आश्रमवासी महर्षियों का भी तिरस्कार करने लगे। राजन! जब इस प्रकार बल और पराक्रम के मद से उन्मत्त महादैत्य विशेष यत्नपूर्वक इस पृथ्वी को पीड़ा देने लगे, तब यह ब्रह्मा जी की शरण में जाने को उद्यम हुई।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुःषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 38-54 का हिन्दी अनुवाद)

   दानवों ने बलपूर्वक जिस पर अधिकार कर लिया था, पर्वतों और वृक्षों सहित उस पृथ्वी को उस समय कच्छप और दिग्गज आदि की संगठित शक्तियाँ तथा शेषनाग भी धारण करने में समर्थ न हो सके। महीपाल! तब असुरों के भार से आतुर तथा भय से पीड़ित हुई पृथ्वी सम्पूर्ण भूतों के पितामह भगवान ब्रह्मा जी की शरण में उपस्थित हुई। ब्रह्मलोक में जाकर पृथ्वी ने उन लोक स्रष्टा अविनाशी देव भगवान ब्रह्मा जी का दर्शन किया, जिन्हें महाभाग देवता, द्विज और महर्षि घेरे हुए थे। देवकर्म में संलग्न रहने वाले अप्सराऐं और गन्धर्व उन्हें प्रसन्नतापूर्वक प्रणाम करते थे। पृथ्वी ने उनके निकट जाकर प्रणाम किया। भारत! तदनन्तर शरण चाहने वाली भूमि ने समस्त लोकपालों के समीप अपना सारा दुःख ब्रह्मा जी से निवेदन किया। राजन! स्वयंभू ब्रह्म सबके कारणरूप हैं, अतः पृथ्वी का जो आवश्‍यक कार्य था उन्हें पहले से ही ज्ञात हो गया था। भारत! भला जो जगत के स्रष्टा हैं, वे देवताओं और असुरों सहित समस्त जगत का सम्पूर्ण मनोगत भाव क्यों न समझ लें।

महाराज! जो इस भूमि के पालक और प्रभु हैं, सबकी उत्पत्ति के कारण तथा समस्त प्राणियों के अधीश्‍वर हैं, वे कल्याणमय प्रजापति ब्रह्मा जी उस समय भूमि से इस प्रकार बोले।

  ब्रह्मा जी ने कहा ;- वसुन्धरे! तुम जिस उद्देश्‍य से मेरे पास आयी हो, उसकी सिद्धि के लिये मैं सम्पूर्ण देवताओं को नियुक्त कर रहा हूँ।

 वैशम्पायन जी कहते है ;- राजन! सम्पूर्ण भूतों की सृष्टि करने वाले भगवान ब्रह्मा जी ने ऐसा कहकर उस समय तो पृथ्वी को विदा कर दिया और समस्त देवताओं को यह आदेश दिया ,,- ‘देवताओं! तुम इस पृथ्वी का भार उतारने के लिये अपने-अपने अंश से पृथ्वी के विभिन्न भागों में पृथक-पृथक जन्म ग्रहण करो। वहाँ असुरों विरोध करके अभीष्ट उद्देश्‍य की सिद्धि करनी होगी’। इसी प्रकार भगवान ब्रह्मा ने सम्पूर्ण गन्धर्वों और अप्सराओं को भी बुलाकर यह अर्थसाधक बचन कहा।

ब्रह्मा जी बोले ;- तुम सब लोग अपने-अपने अंश से मनुष्यों में इच्छानुसार जन्म ग्रहण करो। तदनन्तर इन्द्र आदि सब देवताओं ने देवगुरु ब्रह्मा जी की सत्य, अर्थसाधन और हितकर बात सुनकर उस समय उसे शिरोधार्य कर लिया। अब वे अपने-अपने अंशों से भूलोक में सब ओर जाने का निश्‍चय करके शत्रुओं का नाश करने वाले भगवान नारायण के समीप बैकुण्ठ धाम में जाने को उद्यत हुए। जो अपने हाथों में चक्र और गदा धारण करते हैं, पीताम्बर पहनते हैं, जिनके अंगों की कान्ति श्याम रंग की है, जिनकी नाभि से कमल का प्रादुर्भाव हुआ है, जो देव शत्रुओं के नाशक तथा विशाल और मनोहर नेत्रों से युक्त हैं। जो प्रजापतियों के भी पति, दिव्य स्वरूप, देवताओं के रक्षक, महाबली, श्रीवत्स चिह्न से सुशोभित, इन्द्रियों के अधिष्ठाता तथा सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित हैं। उन भगवान पुरुषोत्तम के पास जाकर,,

 इन्द्र ने उनसे कहा ;- प्रभु! आप पृथ्वी का शोधन (भार-हरण) करने के लिये अपने अंश से अवतार ग्रहण करें। तब श्री हरि ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत अंशावतरण पर्व में चौसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

पैंसठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद)

"मरीचि आदि महषिर्यों तथा अदिति आदि दक्ष कन्याओं के वंश का विवरण"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन! देवताओं सहित इन्द्र ने भगवान विष्णु के साथ स्वर्ग एवं बैकुण्ठ से पृथ्वी पर अंशतः अवतार ग्रहण करने के सम्बन्ध में कुछ सलाह की। तत्पश्‍चात सभी देवताओं को तदनुसार कार्य करने के लिये आदेश देकर वे भगवान नारायण के निवास स्थान बैकुण्ठ धाम से पुनः चले आये। तब देवता लोग सम्पूर्ण लोकों के हित तथा राक्षसों के विनाश के लिये स्वर्ग से पृथ्वी पर आकर क्रमश: अवतीर्ण होने लगे। नृपश्रेष्ठ! वे देवगण अपनी इच्छा के अनुसार ब्रह्मर्षियों अथवा राजर्षियों के वंश में उत्पन्न हुए। वे दानव, राक्षस, दुष्ट गन्धर्व, सर्प तथा अनान्य मनुष्य भक्षी जीवों का बार-बार संहार करने लगे। भरतश्रेष्ठ! वे बचपन में भी इतने बलवान थे कि दानव, राक्षस, गन्धर्व तथा सर्प उनका बाल बांका तक नहीं कर पाते थे।

जनमेजय बोले ;- भगवन! मैं देवता, दानव समुदाय, गन्धर्व, अप्सरा, मनुष्य, यक्ष, राक्षस तथा सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति यर्थाथ रूप से सुनना चाहता हूँ। आप कृपा करके आरम्भ से ही इन सबकी उत्पत्ति का यथावत वर्णन कीजिये।

वैशम्पायन जी ने कहा ;- अच्छा, मैं स्वयंभू भगवान ब्रह्मा एवं नारायण को नमस्कार करके तुमसे देवता आदि सम्पूर्ण लोगों की उत्पत्ति और नाश का यथार्थ वर्णन करता हूँ। ब्रह्मा जी के मानस पुत्र छः महर्षि विख्यात हैं- मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्थ्य, पुलह और क्रतु। मरीचि के पुत्र कश्यप थे और कश्‍यप से ही यह समस्त प्रजाऐं उत्पन्न हुई हैं। (ब्रह्मा जी के एक पुत्र दक्ष भी हैं) प्रजापति दक्ष के परमसौभाग्शालिनी तेरह कन्याऐं थीं। 

नरश्रेष्ठ उनके नाम इस प्रकार हैं- अदिति, दिति, दनु, काला, दनायु, सिंहिका, क्रोधा (क्रूरा), प्राधा, विश्वा, विनता, कपिला, मुनि और कद्रु। भारत! ये सभी दक्ष की कन्याऐं हैं। इनके बाल पराक्रम सम्पन्न पुत्र-पौत्रों की संख्या अनन्त है। अदिति के पुत्र बारह आदित्य हुए, जो लोकेश्‍वर हैं। भरतवंशी नरेश! उन सबके नाम तुम्हे बता रहा हूँ। धाता, मित्र, अर्यमा, इन्द्र, वरुण, अंश, भग, विवस्वान, पूषा, दवे सविता, ग्यारहवें त्वष्टा और बारहवें विष्णु कहे जाते हैं। इन सब आदित्यों में विष्णु छोटे हैं; किन्तु गुणों में वे सबसे बढ़कर हैं।

अदिति का एक ही पुत्र हिरण्युकशिपु अपने नाम से विख्यात हुआ। उस महामना दैत्य के पांच पुत्र थे। उन पांचों में प्रथम का नाम प्रह्लाद है। उससे छोटे को संगह्राद कहते हैं। तीसरे का नाम अनुह्राद उसके बाद चौथे शिवि और पांचवे बाष्कल हैं। भारत! प्रह्लाद के तीन पुत्र हुए जो सर्वत्र विख्यात हैं। उनके नाम ये हैं- विरोचन, कुंभ और निकुंभ। विरोचन के एक ही पुत्र हुआ, जो महाप्रतापी बलि के नाम से प्रसिद्ध है। बलि का विश्‍वविख्यात पुत्र बाण नामक महान असुर है। जिसे सब लोग भगवान शंकर के पार्षद् श्रीमान् महाकाल के नाम से जानते हैं। भारत! दनु के चौंतीस पुत्र हुए जो सर्वत्र विख्यात हैं। उनमें महायशस्वी राजा विप्रचित्ति सबसे बड़ा था। उसके बाद शम्बर, नमुचि, पुलोमा, असिलोमा, केषी, दुर्जय, अयःशिरा, अश्वशिरा, पराक्रमी, अश्‍वषंक, गगनमूर्धा, वेगवान्, केतुमान्, स्वर्भानु, अश्‍व, अश्‍वपति, वृषपर्वा, अजक, अश्वग्रीव, सूक्ष्म, महाबली तुहुण्ड, इषुपाद, एकचक्र, विरूपाक्ष, हर, अहर, निचन्द्र, निकुम्भ, कुपट, कपट, शरभ, शलभ, सूर्य और चन्द्रमा हैं। ये दनु के वंश में विख्यात दानव बताये गये हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचषष्टितम अध्‍याय के श्लोक 27-56 का हिन्दी अनुवाद)

   देवताओं में जो सूर्य और चन्द्रमा माने गये हैं, वे दूसरे हैं और प्रधान दानवों में सूर्य तथा चन्द्रमा दूसरे हैं। महाराज! ये विख्यात दानववंश कहे गये हैं, जो बड़े धैर्यवान और महाबलवान हुए हैं। दनु के पुत्रों में निम्नांकित दानवों के दस कुल बहुत प्रसिद्ध हैं। एकाक्ष, वीर मृतपा, प्रलम्ब, नरक, वातापी, शत्रुतपन, महान् असुर शठ, गविष्ठ, बनायु तथा दानव दीर्धजिह्व। भारत! इन सबके पुत्र-पौत्र असंख्य बताये गये हैं। सिंहिका ने राहु नाम के पुत्र को उत्पन्न किया, जो चन्द्रमा और सूर्य का मान-मर्दन करने वाला है। इसके सिवा सुचन्द्र, चन्द्रहर्ता तथा चन्द्रप्रमर्दन को भी उसी ने जन्म दिया। क्रूरा (क्रोधा) के क्रूर स्वभाव वाले असंख्य पुत्र-पौत्र उत्पन्न हुए। शत्रुओं का नाश करने वाला क्रूरकुमार क्रोधवश नामक गण भी क्रूरा की ही संतान हैं। 

दनायु के असरों में श्रेष्ठ चार पुत्र हुए- विक्षर, बल, वीर और महान् असुर वृत्र। काला के विख्यात पुत्र अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करने में कुशल और साक्षात् काल के समान भयंकर थे। दानवों में उनकी बड़ी ख्याति थी। वे महान् पराक्रमी और शत्रुओं को संताप देने वाले थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- विनाशन, क्रोध, क्रोधहन्ता तथा क्रोधशत्रु।

  कालकेय नाम से विख्यात दूसरे-दूसरे असुर भी काल के ही पुत्र थे। असुरों के उपाध्याय (अध्यापक एवं पुरोहित) शुक्राचार्य महर्षि भृगु के पुत्र थे। उन्हें उशना भी कहते हैं। उशना के चार पुत्र हुए, जो असुरों के पुरोहित थे। इनके अतिरिक्त त्वष्टाधर तथा अत्रि ये दो पुत्र और हुए, जो रौद्र कर्म करने और कराने वाले थे। उशना के सभी पुत्र सूर्य के समान तेजस्वी तथा ब्रह्मलोक को ही परम आश्रय मानने वाले थे। राजन! मैंने पुराण जैसा सुन रखा है, उसके अनुसार तुमसे यह वेगशाली असुरों और देवताओं के वंश की उत्पत्ति का वृतान्त बताया है। महीपाल! इनकी जो संताने हैं, उन सबकी पूर्णरूप से गणना नहीं की जा सकती; क्योंकि वे सब अनन्त गुने हैं। तार्क्ष्य, अरिष्ठनेमि, गरुड़, अरुण, आरूणि, तथा वारूणि- ये विनता के पुत्र कहे गये हैं। शेष, अनन्त, वासुकि, तक्षक, कूर्म और कुलिक आदि नागगण कद्रू के पुत्र कहलाते हैं। राजन! भीमसेन, उग्रसेन, सुपर्ण, वरुण, गोपति, धृतराष्ट्र, सूर्यवर्चा, सत्यवाक, अर्कपर्ण, विख्यात प्रयुत, भीम, सर्वज्ञ और जितेन्द्रिय चित्ररथ, शालिशिरा , चौदहवें पर्जन्य, पंद्रहवें कलि और सोलहवें नारद- ये सब देवगन्धर्व जाति वाले सोलह पुत्र मुनि के गर्भ से उत्पन्न कहे गये हैं।

भारत! इसके अतिरिक्त, अन्य बहुत-से वंशों की उत्पत्ति का वर्णन करता हूँ। प्राधा नाम वाली दक्ष कन्या ने अनवद्या, मनु, वंशा, असुरा, मार्गणप्रिया, अरूपा, सुभगा और भासी इन कन्याओं को उत्पन्न किया। सिद्ध, पूर्ण, वर्हि, महायशस्वी पूर्णायु, ब्रह्मचारी, रतिगुण, सातवें सुपर्ण, आठवें विश्वावसु, नवे भानु और दसवें सुचन्द्र- ये दस देव-गन्धर्व भी प्राधा के ही पुत्र बताये गये हैं। इनके सिवा महाभाग देवी प्राधा ने पहले देवर्षि (कश्‍यप) के समागम से इन प्रसिद्ध अप्सराओं के शुभ लक्षण वाले समुदाय को उत्पन्न किया था। उनके नाम ये हैं- अलम्बुषा, मिश्रकेशी, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अरुण, रक्षिता, रंभा, मनोरमा, केशिनी, सुबाहु, सुरता, सुरजा और सुप्रिया। अतिवाहु, सुप्रसिद्ध हाहा और हूहू तथा तुम्बुरु- ये चार श्रेष्ठ गन्धर्व भी प्राधा के ही पुत्र माने गये हैं। अमृत, ब्राह्मण, गौऐं गन्धर्व तथा अप्सराऐं- ये सब पुराण में कपिला की संतानें बतायी गयी हैं। राजन! इस प्रकार मैंने तुम्हें सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति का वृतान्त बताया है। इसी तरह गन्धर्वों, अप्सराओं, नागों, सुपर्णों, रुद्रों मरुद्गणों, गौओं तथा श्रीसम्पन्न पुण्यकर्मा ब्राह्मणों के जन्म की कथा भली-भाँति कही है। यह प्रसंग आयु देने वाला, पुण्यमय, प्रशंसनीय तथा सुनने में सुखद है। मनुष्य को चाहिये कि वह दोषदृष्टि न रखकर सदा इसे सुने और सुनावे। जो ब्राह्मण और देवताओं के समीप महात्माओं की इस वंशावली का नियमपूर्वक पाठ करता है, वह प्रचुर संतान, सम्पत्ति और यश प्राप्त करता है तथा मृत्यु के पश्‍चात उत्तम गति पाता है।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में आदित्यादिवंशकथन-विषयक पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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