सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
छप्पनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा का आस्तीक को वर देने के लिये तैयार होना, तक्षक नाग की व्याकुलता तथा आस्तीक का वर मांगना"
जनमेजय ने कहा ;- ब्राह्मणों! यह बालक है, तो भी वृद्ध पुरुषों के समान बात करता है, इसलिये मैं इसे बालक नहीं, वृद्ध मानता हूँ और इसको वर देना चाहता हूँ। इस विषय में आप लोग अच्छी तरह विचार करके अपनी सम्मति दें।
सदस्य बोले ;- ब्राह्मण यदि बालक हो तो भी यहाँ राजाओं के लिये सम्मानीय ही है। यदि वह विद्वान् हो तो कहना ही क्या है? अत: यह ब्राह्मण बालक आज आपसे यथोचित रीति से अपनी सम्पूर्ण कामनाओं को पाने योग्य है, किंतु वर देने से पहले तक्षक नाग चाहे जैसे भी शीघ्रतापूर्वक हमारे पास आ पहुँचे, वैसा उपाय करना चाहिये।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! तदनन्तर वर देने के लिये उद्यत राजा जनमेजय विप्रवर आस्तीक से यह कहना ही चाहते थे कि ‘तुम मुंह मांगा वर मांग लो’ इतने में ही होता, जिसका मन अधिक प्रसन्न नहीं था,,
बोल उठा ;- ‘हमारे इस यज्ञ कर्म में तक्षक नाग तो अभी तक आया ही नहीं।'
जनमेजय ने कहा ;- ब्राह्मणों! जैसे भी यह कर्म पूरा हो जाय और जिस प्रकार भी नाग शीघ्र यहाँ आ जाय,आप लोग पूरी शक्ति लगाकर वैसा ही प्रयत्न कीजिये, क्योंकि; मेरा असली शत्रु तो वही है।
ॠत्विज बोले ;- राजन्! हमारे शास्त्र जैसा कहते हैं तथा अग्निदेव जैसी बात बता रहे हैं, उसके अनुसार तो तक्षक नाग भय से पीड़ित हो इन्द्र के भवन में छिपा हुआ है। लाल नेत्रों वाले पुराणवेत्ता महात्मा सूत जी ने पहले ही यह बात सूचित कर दी थी। तब राजा ने सूत जी से इसके विषय में पूछा।
पूछने पर उन्होंने राजा से कहा ;- ‘नरदेव! ब्राह्मण लोग जैसी बात कह रहे हैं, वह ठीक वैसी ही है। राजन! पुराण को जानकर मैं यह कह रहा हूँ कि इन्द्र ने तक्षक को वर दिया है- नागराज! तुम यहाँ मेरे समीप सुरक्षित होकर रहो। सर्पसत्र की आग नहीं जला सकेगी।' सह सुनकर यज्ञ की दीक्षा ग्रहण करने वाले यजमान राजा जनमेजय संतप्त हो उठे और कर्म के समय होता को इन्द्र सहित तक्षक नाग का आकर्षण करने के लिये प्रेरित करने लगे। तब होता ने एकाग्रचित्त होकर मन्त्रों द्वारा इन्द्र सहित तक्षक का आवाहन किया। तब स्वंय देवराज इन्द्र विमान पर बैठकर आकाश मार्ग से चल पड़े। उस समय सम्पूर्ण देवता सब ओर से घेरकर उन महानुभाव इन्द्र की स्तुति कर रहे थे। अप्सराएं, मेघ और विद्याधर भी पीछे आ रहे थे। तक्षक नाग उन्हीं के उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टे) में छिपा था। भय से उद्विग्न होने के कारण तक्षक को तनिक भी चैन नहीं आता था। इधर राजा जनमेजय तक्षक का नाश चाहते हुए कुपित होकर पुन: मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणों से बोले।
जनमेजय ने कहा ;- विप्रगण! यदि तक्षक नाग इन्द्र के विमान में छिपा हुआ है तो उसे इन्द्र के साथ ही अग्नि में गिरा दो।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- राजा जनमेजय के द्वारा इस प्रकार तक्षक की आहुति के लिये प्रेरित हो होता ने इन्द्र के समीपवर्ती तक्षक नाग का अग्नि में आवाहन किया- उसके नाम की आहुति डाली।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्पंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 13-27का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार आहुति दी जाने पर क्षणभर में इन्द्र सहित तक्षक नाग आकाश में दिखायी दिया। उस समय उसे बड़ी पीड़ा हो रही थी। उस यज्ञ को देखते ही इन्द्र अत्यन्त भयभीत हो उठे और तक्षक नाग को वहीं छोड़कर बड़ी घबराहट के साथ अपने भवन को चलते बने। इन्द्र के चले जाने पर नागराज तक्षक भय से मोहित हो मन्त्रशक्ति से खिंचकर विवशतापूर्वक अग्नि की ज्वाला के समीप आने लगा।
ॠत्विजों ने कहा ;- राजेन्द्र! आपका यह यज्ञकर्म विधिपूर्वक सम्पन्न हो रहा है। अब आप इन विप्रवर आस्तीक को मनोवाञ्छित वर दे सकते हैं।
जनमेजय ने कहा ;- ब्राह्मणबालक! तुम अप्रमेय हो- तुम्हारी प्रतिभा की कोई सीमा नहीं है। मैं तुम-जैसे विद्वान के लिये वर देना चाहता हूँ। तुम्हारे मन में जो अभीष्ट कामना हो, उसे बताओ। वह देने योग्य न होगी, तो भी तुम्हें अवश्य दे दूंगा।
ॠत्विज बोले ;- राजन! यह तक्षक नाग अब शीघ्र ही तुम्हारे वश में आ रहा है। वह बड़ी भयानक आवाज में चीत्कार कर रहा है। उसकी भारी चिल्लाहट अब सुनायी देने लगी है। निश्चय ही इन्द्र ने उस नागराज तक्षक को त्याग दिया हैं उसका विशाल शरीर मन्त्र द्वारा आकृष्ट होकर स्वर्ग लोक से नीचे गिर पड़ा है। वह आकाश में चक्कर काटता अपनी सुध-बुध खो चुका है और बड़े वेग से लम्बी सांसें छोड़ता हुआ अग्निकुण्ड के समीप आ रहा है।
उग्रश्रवा जी कहते है ;- शौनक! नागराज तक्षक अब कुछ ही क्षणों में आग की ज्वाला में गिरने वाला था। उस समय आस्तीक ने यह सोचकर कि ‘यही वर मांगने का अच्छा अवसर है’ राजा को वर देने के लिये प्रेरित किया।
आस्तीक ने कहा ;- राजा जनमेजय! यदि तुम मुझे वर देना चाहते हो, तो सुनो, मैं मांगता हूँ कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय अब इसमें सर्प न गिरने पावें। ब्रह्मन!
आस्तीक के ऐसा कहने पर वे परीक्षित-कुमार,,
जनमेजय खिन्नचित्त होकर बोले ;- ‘विप्रवर! आप सोना, चांदी, गौ तथा अन्य अभीष्ट वस्तुओं को, जिन्हें आप ठीक समझते हों, मांग लें। प्रभो! वह मुंह मांगा वर मैं आपको दे सकता हूं, किंतु मेरा यज्ञ बंद नहीं होना चाहिये’।
आस्तीक ने कहा ;- राजन! मैं तुमसे सोना, चांदी और गौएं नहीं माँगूंगा, मेरी यही इच्छा है कि तुम्हारा यह यज्ञ बंद हो जाय, जिससे मेरी माता के कुल का कल्याण हो।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- भृगुनन्दन शौनक! आस्तीक के ऐसा कहने पर उस समय वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा जनमेजय ने उनसे बार-बार अनुरोध किया, ‘विप्रशिरोमणे। आपका कल्याण हो, कोई दूसरा वर मांगिये।’ किंतु आस्तीक ने दूसरा कोई वर नहीं मांगा। तब सम्पूर्ण वेदवेत्ता सभासदों ने एक साथ संगठित होकर,,
राजा से कहा ;- ‘ब्राह्मण को (स्वीकार किया हुआ) वर मिलना ही चाहिये’।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में आस्तीक को वरप्रदान नामक छ्प्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
सत्तावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
"सर्प यज्ञ में दग्ध हुए प्रधान–प्रधान सर्पों के नाम"
शौनक जी ने पूछा ;- सूतनन्दन! इस सर्पसत्र की धधकती हुई आग में जो-जो सर्प गिरे थे, उन सबके नाम मैं सुनना चाहता हूँ।
उग्रश्रवा जी ने कहा ;- द्विजश्रेष्ठ! इस यज्ञ में सहस्रों, लाखों एवं अरबों सर्प गिरे थे, उनकी संख्या बहुत होने के कारण गणना नहीं की जी सकती। परंतु सर्पयज्ञ की अग्नि में जिन प्रधान-प्रधान नागों की आहुति दी गयी थी, उन सबके नाम अपनी स्मृति के अनुसार बता रहा हूँ, सुनो। पहले वासुकि के कुल में उत्पन्न हुए मुख्य-मुख्य सर्पों के नाम सुनो- वे सब-के-सब नीले, लाल, सफेद और भयानक थे। उनके शरीर विशाल और विष अत्यन्त भयंकर थे। वे बेचारे सर्प माता के शाप से पीड़ित हो विवशतापूर्वक सर्पयज्ञ की आग में होम दिये गये थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- कोटिश, मानस, पूर्ण, शल, पाल, हलीमक, पिच्छल, कौणप, चक्र, कालवेग, प्रकालन, हिरण्यबाहु, शरण, कक्षक और कालदन्तक। ये वासुकिवंशज नाग थे, जिन्हें अग्नि में प्रवेश करना पड़ा। विप्रवर! ऐसे ही दूसरे बहुत से महाबली और भयंकर सर्प थे, जो उसी कुल में उत्पन्न हुए थे। वे सब-के-सब सर्पसत्र की प्रज्वलित अग्नि में आहुति बन गये थे।
अब तक्षक के कुल में उत्पन्न नागों का वर्णन करूँगा, उनके नाम सुनो- पुच्छाण्डक, मण्डलक, पिण्डसेत्ता, रभेणक, उच्छिख, शरभ, भंग, बिल्बतेजा, विरोहण, शिलि, शलकर, मूक, सुकुमार, प्रवेपन, मुदगर, शिशुरोमा, सुरोमा और महाहनु- ये तक्षक वंशज नाग थे, जो सर्पसत्र की आग में समा गये। पाराबत, पारिजात, पाण्डर, हरिण, कृश, विहंग, शरभ, मेद, प्रमोद और संहतापन- ये ऐरावत के कुल से आकर आग में आहुति बन गये थे। द्विजश्रेष्ठ! अब तुम मुझसे कौरव्य-कुल में उत्पन्न हुए नागों के नाम सुनो। एरक, कुण्डल, वेणी, वेणीस्कन्ध, कुमारक, बाहुक, श्रृंगवेर, धूर्तक, प्रातर और आतक- ये कौरव्य-कुल के नाग यज्ञाग्नि में जल मरे थे। ब्रह्मन्! अब धृतराष्ट्र-कुल में उत्पन्न नागों के नामों का मुझसे यथावत् वर्णन सुनो। वे वायु के समान वेगशाली और अत्यन्त विषैले थे। उनके नाम इस प्रकार है- शंङकुकर्ण, पिटरक, कुठार, मुखसेचक, पूर्णांगद पूर्णमुख, प्रहास, शकुनि, दरि, अमाहट, कामठक, सुपेण, मानस, अव्यय, भैरव, मुण्डवेदांग, पिशंग, उद्रपारक, ऋषभ, वेगवान् नाग, पिण्डारक, महाहनु, रक्तांग, सर्वसारंग, समृद्ध, पटवासक, बराहक, वीरणक, सुचित्र, चित्रवेगिक, पराशर, तरुणक, मणिस्कन्ध, और आरुणि- (ये सभी धृतराष्ट्रवंशी नाग सर्पसत्र की आग में जलकर भस्म हो गये थे)।
ब्रह्मन! इस प्रकार मैंने अपने कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले मुख्य-मुख्य नागों का वर्णन किया है। उनकी संख्या बहुत है, इसलिये सबका नामोल्लेख नहीं किया गया है। इन सबकी संतानों की और संतानों की संतति की, जो प्रज्वलित अग्नि में जल मरी थीं, गणना नहीं की जा सकती। किसी के तीन सिर थे तो किसी के सात तथा कितने ही दस-दस सिर वाले नाग थे। उनके विष प्रलयाग्नि के समान दाहक थे वे नाग बड़े ही भयंकर थे। उनके शरीर विशाल और महान थे वे ऊँचे तो ऐसे थे, मानों पर्वत के शिखर हों। ऐसे नाग लाखों की संख्या में यज्ञाग्नि की आहुति बन गये। उनकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक, दो-दो योजन तक की थी। वे इच्छानुसार रुप धारण करने वाले तथा इच्छानुरुप बल-पराक्रम से सम्पन्न थे। वे सब-के-सब धधकती हुई आग के समान भयंकर विष से भरे थे। माता के शापरुपी ब्रह्मदण्ड से पीड़ित होने के कारण वे उस महासत्र में जलकर भस्म हो गये।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में सर्पनामकथन-विषयक सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (आस्तीक पर्व)
अठ्ठावनवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"यज्ञ की समाप्ति एवं आस्तीक का सर्पों से वर प्राप्त करना"
उग्रश्रवा जी कहते है ;- शौनक! आस्तीक के सम्बन्ध में यह एक और अद्भुत बात मैने सुन रखी है कि जब राजा जनमेजय ने उनसे पूर्वोक्त रुप से वर मांगने का अनुरोध किया और उनके वर मांगने पर इन्द्र के हाथ से छूटकर गिरा हुआ तक्षक नाग आकाश में ही ठहर गया, तब महाराज जनमेजय को बड़ी चिन्ता हुई। क्योंकि अग्नि पूर्ण रुप से प्रज्वलित थी और उसमें विधिपूर्वक आहुतियाँ दी जा रही थीं तो भी भय से पीड़ित तक्षक नाग उस अग्नि में नहीं गिरा।
शौनक जी ने पूछा ;- सूत! उस यज्ञ में बडे़-बड़े मनीषी ब्राह्मण उपस्थित थे। क्या उन्हें ऐसे मन्त्र नहीं सूझे, जिनसे तक्षक शीघ्र अग्नि में आ गिरे? क्या कारण था जो तक्षक अग्निकुण्ड में न गिरा?
उग्रश्रवा जी ने कहा ;– शौनक! इन्द्र के हाथ से छूटने पर नागप्रवर तक्षक भय से थर्रा उठा। उसकी चेतना लुप्त हो गयी। उस समय आस्तीक ने उसे लक्ष्य करके तीन बार इस प्रकार कहा- ठहर जा, ठहर जा, ठहर जा,। तब तक्षक पीड़ित हृदय से आकाश में उसी प्रकार ठहर गया, जैसे कोई मनुष्य आकाश और पृथ्वी के बीच में लटक रहा हो।
तदनन्तर सभासदों के बार-बार प्रेरित करने पर,,
राजा जनमेजय ने यह बात कही ;- ‘अच्छा, आस्तीक ने जैसा कहा है, वही हो। यह यज्ञ कर्म समाप्त किया जाय। नागगण कुशलपूर्वक रहें और ये आस्तीक प्रसन्न हों। साथ ही सूत जी की कही हुई बात भी सत्य हो’। जनमेजय के द्वारा आस्तीक को यह वरदान प्राप्त होते ही सब ओर प्रसन्नता बढ़ाने वाली हर्षध्वनि छा गयी और पाण्डवंशी महाराज जनमेजय का यज्ञ बंद हो गया। ब्राह्मण को वर देकर भरतवंशी राजा जनमेजय को भी प्रसन्नता हुई। उस यज्ञ में जो ॠत्विज और सदस्य पधारे थे, उन सबको राजा जनमेजय ने सैकड़ों और सहस्रों की संख्या में धन-दान किया। लोहिसाक्ष सूत तथा शिल्पी को, जिसने यज्ञ के पहले ही बता किया था कि इस सर्पसत्र को बंद करने में एक ब्राह्मण निमित्त बनेगा, प्रभावशाली राजा जनमेजय ने बहुत धन दिया। जिनके पराक्रम की कहीं तुलना नहीं है, उन नरेश्वर जनमेजय ने प्रसन्न होकर यथा योग्य द्रव्य और भोजन-वस्त्र आदि का दान करने के पश्चात शास्त्रीय विधि के अनुसार अवभृथ-स्नान किया। आस्तीक शुभ-संस्कारों से सम्पन्न और मनीषी विद्वान् थे।
अपना कर्तव्य पूर्ण कर लेने के कारण वे कृतकृत्य एवं प्रसन्न थे। राजा जनमेजय ने उन्हें प्रसन्नचित्त होकर घर के लिये विदा दी और,,
जनमेजय ने कहा ;- ‘ब्रह्मन! मेरे भावी अश्वमेध नामक महायज्ञ में आप सदस्य हों और उस समय पुन: पधारने की कृपा करें’। आस्तीक ने प्रसन्नतापूर्वक ‘बहुत अच्छा’ कहकर राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और अपने अनुपम कार्य का साधन करके राजा को संतुष्ट करने के पश्चात वहाँ से शीघ्रतापूर्वक प्रस्थान किया। वे अत्यन्त प्रसन्न हो घर जाकर मामा और माता से मिले और उनके चरणों में प्रणाम करके वहाँ का सब समाचार सुनाया।
उग्रश्रवाजी कहते हैं ;- शौनक! सर्वसत्र से बचे हुए जो-जो नाग मोहरहित हो उस समय वासुकि नाग के यहाँ उपस्थित थे, वे सब आस्तीक के मुख से उस यज्ञ के बंद होने का समाचार सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। आस्तीक पर उनका प्रेम बहुत बढ़ गया और उनसे बोले- ‘वत्स! तुम कोई अभीष्ट वर मांग लो’।
वे सब-के-सब बार-बार यह कहने लगे ;- ‘विद्वन्! आज हम तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करें? वत्स! तुमने हमें मृत्यु के मुख से बचाया है; अत: हम सब लोग तुमसे बहुत प्रसन्न हैं। बोलो, तुम्हारा कौन-सा मनोरथ पूर्ण करें?’
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टपंचाशत्तम अध्याय के श्लोक 21-32 का हिन्दी अनुवाद)
आस्तीक ने कहा ;- नागगण! लोक में जो ब्राह्मण अथवा कोई दूसरा मनुष्य प्रसन्नचित्त होकर मैंने इस धर्ममय उपाख्यान का पाठ करे, उसे आप लोगों से कोई भय न हो। यह सुनकर सभी सर्प बहुत प्रसन्न हुए और
अपने भानजे से बाले ;- ‘प्रिय वत्स! तुम्हारी यह कामना पूर्ण हो। भगिनीपुत्र! इस बड़े प्रेम और नम्रता से युक्त होकर सर्वथा तुम्हारे इस मनोरथ को पूर्ण करते रहेंगे। जो कोई असित, आर्तिमान् और सुनीथ मन्त्र का दिन अथवा रात के समय स्मरण करेगा, उसे सर्पों से कोई भय नहीं होगा। (मन्त्र और उनके भाव इस प्रकार हैं-) जरत्कारु ऋषि से जरत्कारु नामक नागकन्या में जो आस्तीक नामक यशस्वी ऋषि उत्पन्न हुए तथा जिन्होंने सर्पसत्र में तुम सर्पों की रक्षा की थी, उनका मैं स्मरण कर रहा हूँ। महाभाग्यवान् सर्पों! तुम लोग मुझे मत डंसो। महाविषधर सर्प! तुम भाग जाओ। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। जनमेजय के यज्ञ की समाप्ति में आस्तीक को तुमने जो वचन दिया था, उसका स्मरण करो। जो सर्प आस्तीक के वचन की शपथ सुनकर भी नहीं लौटेगा, उसके फन से शीशम के फल के समान सैकड़ों टुकड़े हो जायेंगे’।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- विप्रवर शौनक! उस समय वहाँ आये हुए प्रधान-प्रधान नागराजाओं के इस प्रकार कहने पर महात्मा आस्तीक को बड़ी प्रसन्नता हुई। तदनन्तर उन्होंने वहाँ से चले जाने का विचार किया। इस प्रकार सर्पसत्र से नागों का उद्धार करके द्विजश्रेष्ठ धर्मात्मा आस्तीक ने विवाह करके पुत्र-पौत्रादि उत्पन्न किये और समय आने पर (प्रारब्ध शेष होने से) मोक्ष प्राप्त कर लिया। इस प्रकार मैंने आपसे आस्तीक के उपख्यान का यथावत वर्णन किया है; जिसका पाठ कर लेने पर कहीं भी सर्पों से भय नहीं होता। ब्रह्मन! भृगुवंश-शिरोमणे! आपके पूर्वज प्रमति ने अपने पुत्र रुरु के पूछने पर जिस प्रकार आस्तीककोपाख्यान कहा था और जिसे मैंने भी सुना था, उसी प्रकार विद्वान् महात्मा आस्तीक के मंगलमय चरित्र का मैंने प्रारम्भ से ही वर्णन किया है। आस्तीक का यह धर्ममय उपाख्यान पुण्य की वृद्धि करने वाला है। काम-क्रोधादि शत्रुओं का दमन करने वाले ब्राह्मण! कथा-प्रसंग में डुण्डुभ की बात सुनकर आपने मुझसे जिसके विषय में पूछा था, वह सब उपाख्यान मैंने कह सुनाया। इसे सुनकर आपके मन का महान कौतुहल अब निवृत्त हो जाना चाहिये।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में सर्पसत्रविषयक अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)
उनसठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनषष्टितम अध्याय के श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद)
"महाभारत का उपक्रम"
शौनक जी बोले ;- तात सूतनन्दन! आपने भृगुवंश से ही प्रारम्भ करके जो मुझे यह सब महान् उपाख्यान सुनाया है, इससे मैं आप पर बहुत प्रसन्न हूँ। सूतपुत्र! अब मैं पुन: आपसे यह कहना चाहता हूँ कि भगवान् व्यास ने जो कथाएँ कही हैं, उनका मुझसे यथावत् वर्णन कीजिये। जिसका पार होना कठिन था, ऐसे सर्पयज्ञ में आये हुए महात्माओं एवं सभासदों को जब यज्ञकर्म से अवकाश मिलता था, उस समय उनमें जिन-जिन विषयों को लेकर जो-जो विचित्र कथाएँ होती थीं उन सबका आपके मुख से हम यथार्थ वर्णन सुनना चाहते हैं। सूतनन्दन! आप हमसे अवश्य कहें।
उग्रश्रवा जी ने कहा ;- शौनक! यज्ञकर्म से अवकाश मिलने पर अन्य ब्राह्मण तो वेदों की कथाएँ कहते थे, परंतु व्यास देव जी अतिविचित्र महाभारत की कथा सुनाया करते थे।
शौनक जी बोले ;- सूतनन्दन! महाभारत नामक इतिहास तो पाण्डवों के यश का विस्तार करने वाला है। सर्पयज्ञ के विभिन्न कर्मों के बीच में अवकाश मिलने पर जब राजा जनमेजय प्रश्न करते, तब श्रीकृष्णद्वैयापन व्यास जी उन्हें विधिपूर्वक महाभारत की कथा सुनाते थे। मैं उसी पुण्यमयी कथा को विधिपूर्वक सुनना चाहता हूँ। यह कथा पवित्र अन्त:करण वाले महर्षि वेदव्यास के हृदयरुपी समुद्र से प्रकट हुए सब प्रकार के शुभ विचाररुपी रत्नों से परिपूर्ण है। साधुशिरोमणे! आप इस कथा को मुझे सुनाइये।
उग्रश्रवा जी ने कहा ;- शौनक! मैं बड़ी प्रसन्नता के साथ महाभारत नामक उत्तम उपाख्यान का आरम्भ से ही वर्णन करूँगा, जो श्रीकृष्णद्वैपायन वेदव्यास को अभिमत है। विप्रवर! मेरे द्वारा कही जाने वाली इस सम्पूर्ण महाभारत कथा को आप पूर्णरुप से सुनिये। यह कथा सुनाते समय मुझे भी महान् हर्ष प्राप्त होता है।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत अंशावतरण पर्व में कथानुबंधविषयक उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (अंशावतरण पर्व)
साठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षष्टितम अध्याय के श्लोक 1-24 का हिन्दी अनुवाद)
"जनमेजय के यज्ञ में व्यास जी का आगमन, सत्कार तथा राजा की प्रार्थना से व्यास जी का वैशम्पायन जी से महाभारत-कथा सुनाने के लिये कहना"
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! जब विद्वान् महर्षि श्रीकृष्णद्वैयापन ने यह सुना कि राजा जनमेजय सर्पयज्ञ की दीक्षा ले चुके हैं, तब वे वहाँ आये। वेदव्यास जी को सत्यवती ने कन्यावस्था में ही शक्तिनन्दन पराशर जी से यमुना जी के द्वीप में उत्पन्न किया था। वे पाण्डवों के पितामह हैं। जन्म लेते ही उन्होंने अपनी इच्छा से शरीर को बढ़ा लिया तथा महायशस्वी व्यास जी को (स्वत: ही) अंगों और इतिहासों हेतु सम्पूर्ण वेदों और उस परमात्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त हो गया, जिसे कोई तपस्या, वेदाध्ययन, व्रत, उपवास, शम और यज्ञ आदि के द्वारा भी नहीं प्राप्त कर सकता। वे वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे और उन्होंने एक ही वेद को चार भागों में विभक्त किया था। ब्रह्मर्षि व्यास जी परब्रह्म और अपरब्रह्म के ज्ञाता, कवि (त्रिकालदर्शी), सत्य व्रतपरायण तथा परम पवित्र हैं। उनकी कीर्ति पुण्यमयी है और वे महान यशस्वी है। उन्होंने ही शान्तनु की संतान-परम्परा का विस्तार करने के लिये पाण्डु, धृतराष्ट्र तथा विदुर को जन्म दिया था। उन महात्मा व्यास ने वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान् शिष्यों के साथ उस समय राजर्षि जनमेजय के यज्ञमण्डप में प्रवेश किया।
वहाँ पहुँचकर उन्होंने सिंहासन पर बैठे हुए राजा जनमेजय को देखा, जो बहुत-से सभासदों द्वारा इस प्रकार घिरे हुए थे, मानो देवराज इन्द्र देवताओं से घिरे हुए हों। जिनके मस्तकों पर अभिषेक किया गया था, ऐसे अनेक जनपदों के नरेश तथा यज्ञानुष्ठान में कुशल ब्रह्मा जी के समान योग्यता वाले ॠित्विज भी उन्हें सब ओर से घेरे हुए थे। भरतश्रेष्ठ राजर्षि जनमेजय महर्षि व्यास को आया देख बड़ी प्रसन्नता के साथ उठकर खड़े हो गये और अपने सेवक-गणों के साथ तुरंत ही उनकी अगवानी करने के लिये चल दिये। जैसे इन्द्र ब्रहस्पति जी को आसन देते हैं, उसी प्रकार राजा ने सदस्यों की अनुमति लेकर व्यास जी के लिये सुवर्ण का विष्टर दे आसन की व्यवस्था की। देवर्षियों द्वारा पूजित वरदायक व्यास जी जब वहाँ बैठ गये, तब राजेन्द्र जनमेजय ने शास्त्रीय विधि के अनुसार उनका पूजन किया। उन्होंने अपने पितामह श्रीकृष्णद्वैयापन को विधि-विधान के साथ पाद्य, आचमनीय, अर्ध्य और गौ भेंट की, जो इन वस्तुओं को पाने के अधिकारी थे। पाण्डववंशी जनमेजय से वह पूजा ग्रहण करके गौ के सम्बन्ध में अपना आदर व्यक्त करते हुए व्यास जी उस समय बड़े प्रसन्न हुए। पितामह व्याज सी का प्रेमपूर्वक पूजन करके जनमेजय का चित्त प्रसन्न हो गया और वे उनके पास बैठकर कुशल-मंगल पूछने लगे।
भगवान् व्यास ने भी जनमेजय की ओर देखकर अपना कुशल-समाचार बताया तथा अन्य सभासदों द्वारा सम्मानित हो उनका भी सम्मान किया। तदनन्तर सब सदस्यों सहित राजा जनमेजय ने हाथ जोड़कर द्विजश्रेष्ठ व्यास जी से इस प्रकार प्रश्न किया।
जनमेजय ने कहा ;- ब्रह्मन्! आप कौरवों और पाण्डवों को प्रत्यक्ष देख चुके हैं; अत: मैं आपके द्वारा वर्णित उनके चरित्र को सुनना चाहता हूँ। वे तो रोग-द्वेष आदि दोषों से रहित सत्कर्म करने वाले थे, उनमें भेद-बुद्धि कैसे उत्पन्न हुई? तथा प्राणियों का अन्त करने वाला उनका वह महायुद्ध किस प्रकार हुआ? द्विजश्रेष्ठ! जान पड़ता है, प्रारब्ध ने ही प्रेरणा करके मेरे सब प्रपितामहों के मन को युद्ध रुपी अनिष्ठ में लगा दिया था। उनके इस सम्पूर्ण वृत्तान्त का आप यथावत् रुप से से वर्णन करें।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- जनमेजय की यह बात सुनकर श्रीकृष्णद्वैयापन व्यास ने पास की बैठे हुए अपने शिष्य बैशम्पायन को उस समय इस प्रकार आदेश दिया।
व्यास जी बोले ;- वैशम्पायन! पूर्वकाल में कौरवों और पाण्डवों में जिस प्रकार की फूट पड़ी थी; जिसे तुम मुझसे सुन चुके हो, वह सब इस समय इन राजा जनमेजय को सुनाओ। उस समय गुरुदेव व्यास जी की यह आज्ञा पाकर विप्रवर वैशम्पायन ने राजा जनमेजय, सभासद तथा अन्य सब भूपालों से कौरव-पाण्डवों में जिस प्रकार फूट पड़ी और उनका सर्वनाश हुआ, वह सब पुरातन इतिहास कहना प्रारम्भ किया।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत अंशावतरण पर्व का साठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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