सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) का ग्यारहवें अध्याय से पंद्रहवें अध्याय तक (from the eleventh chapter to fifteenth chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (पौलोम पर्व)

ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकादश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"डुण्डुभ की आत्मकथा तथा उसके द्वारा रुरु को अहिंसा उपदेश"

डुण्डुभ ने कहा ;- तात! पूर्वकाल में खगम नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण मेरा मित्र था। वह महान तपोबल से सम्पन्न होकर भी बहुत कठोर वचन बोला करता था। एक दिन वह अग्निहोत्र में लगा था। मैंने खिलवाड़ में तिनकों का एक सर्प बनाकर उसे डरा दिया। वह भय के मारे मूर्च्छित हो गया। 

फिर होश में आने पर वह सत्यवादी एवं कठोरव्रती तपस्वी मुझे क्रोध से दग्ध-सा करता हुआ बोला- ‘अरे! तूने मुझे डराने के लिये जैसा अल्पशक्ति वाला सर्प बनाया था, मेरे शापवश ऐसा ही अल्पशक्ति सम्पन्न सर्प तुझे भी होना पड़ेगा’। तपोधन! मैं उसकी तपस्या का बल जानता था, अतः मेरा हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और बड़े वेग से उसके चरणों में प्रणाम करके, हाथ जोड़, सामने खड़ा हो, उस तपोधन से बोला- सखे मैंने परिहास के लिये सहसा यह कार्य कर डाला है। ब्रह्मन! इसके लिये क्षमा करो और अपना यह शाप लौटा लो। मुझे अत्यन्त घबराया हुआ देखकर सम्भ्रम में पड़े हुए उस तपस्वी ने बार-बार गरम साँस खींचते हुए कहा- ‘मेरी कही हुई यह बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती। निष्पाप तपोधन! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो और सुनकर अपने हृदय में सदा धारण करो।

   भविष्य में महर्षि प्रमति के पवित्र पुत्र रुरु उत्पन्न होंगे, उनका दर्शन करके तुम्हें शीघ्र ही इस शाप से छुटकारा मिल जायेगा। जान पड़ता है तुम वही रुरु नाम से विख्यात महर्षि प्रमति के पुत्र हो। अब मैं अपना स्वरूप धारण करके तुम्हारे हित की बात बताऊँगा।' इतना कहकर महायशस्वी विप्रवर सहस्रपाद ने डुण्डुभ का रूप त्याग कर पुनः अपने प्रकाशमान स्वरूप को प्राप्त कर लिया। 

फिर अनुपम ओज वाले रुरु से यह बात कही - ‘समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ ब्राह्मण! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है। अतः ब्राह्मण को समस्त प्राणियों में से किसी की कभी और कहीं भी हिंसा नहीं करनी चाहिये। ब्राह्मण इस लोक में सदा सौम्य स्वभाव का ही होता है, ऐसा श्रुति का उत्तम वचन है। वह वेद-वेदांगों का विद्वान् और समस्त प्राणियों को अभय देने वाला होता है। अहिंसा, सत्यभाषण, क्षमा और वेदों का स्वाध्याय निश्चय ही ये ब्राह्मण के उत्तम धर्म हैं। क्षत्रिय का जो धर्म है वह तुम्हारे लिये अभीष्ट नहीं है। रुरो! दण्डधारण, उग्रता और प्रजा पालन- ये सब क्षत्रियों के कर्म रहे हैं। मेरी बात सुनो, पहले राजा जनमेजय के यज्ञ में सर्पों की बड़ी भारी हिंसा हुई। द्विजश्रेष्ठ! फिर उसी सर्पसत्र में तपस्या के बल-वीर्य से सम्पन्न, वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान विप्रवर आस्तीक नामक ब्राह्मण के द्वारा भयभीत सर्पों की प्राण रक्षा हुई।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व में डुण्डुभशापमोक्षविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ)


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (पौलोम पर्व)

बारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वादश अध्याय के श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद)

"जनमेजय के सर्पसत्र के विषय में रुरु की जिज्ञासा और पिता द्वारा उसकी पूर्ति"

रुरु ने पूछा ;- द्विजश्रेष्ठ! राजा जनमेजय ने सर्पों की हिंसा कैसे की? अथवा उन्होंने किसलिये यज्ञ में सर्पों की हिंसा करवायी? विप्रवर! परमबुद्धिमान महात्मा आस्तीक ने किसलिये सर्पों को उस यज्ञ से बचाया था? यह सब मैं पूर्णरूप से सुनना चाहता हूँ।

ऋषि ने कहा ;- ‘रुरो! तुम कथा वाचक ब्राह्मणों के मुख से आस्तीक का महान चरित्र सुनोगे।’ ऐसा कहकर सहस्रपाद मुनि अन्तर्धान हो गये।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तदनन्तर रुरु वहाँ अद्दश्य हुए मुनि की खोज में उस वन के भीतर सब ओर दौड़ता रहा और अन्त में थककर पृथ्वी पर गिर पड़ा। गिरने पर उसे बड़ी भारी मूर्च्‍छा ने दबा लिया। उसकी चेतना नष्ट- सी हो गयी। महर्षि के यथार्थ वचन का बार-बार चिन्तन करते हुए होश में आने पर रुरु घर लौट आया। उस समय उसने पिता से वे सब बातें कह सुनायीं और पिता से भी आस्तीक का उपाख्यान पूछा। रुरु के पूछने पर पिता ने सब कुछ बता दिया।

"इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व में सर्पसत्रप्रस्तावना-विषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ"

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

तैरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

शौनक जी ने पूछा ;- सूत जी! राजाओं में श्रेष्ठ जनमेजय ने किसलिये सर्पसत्र द्वारा सर्पों का अन्त किया? यह प्रसंग मुझसे कहिये। सूतनन्दन! इस विषय की सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये। जप-यज्ञ करने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीक ने किसलिये सर्पों को प्रज्वलित अग्नि में जलने से बचाया और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्र का आयोजन किया था, किसके पुत्र थे? तथा द्विजवंश शिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? यह मुझे बताइये।

उग्रश्रवा जी ने कहा ;- ब्रह्मन! आस्तीक का उपाख्यान बहुत बड़ा है। वक्ताओं में श्रेष्ठ! यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो।

शौनक जी ने कहा ;- सूतनन्दन! पुरातन ऋषि एवं यशस्वी ब्राह्मण आस्तीक की इस मनोरम कथा को मैं पूर्णरूप से सुनना चाहता हूँ। 

  उग्रश्रवा जी ने कहा ;- शौनक जी! ब्राह्मण लोग इस इतिहास को बहुत पुराना बताते हैं। पहले मेरे पिता लोमहर्षण जी ने, जो व्यास जी के मेधावी शिष्य थे, ऋषियों के पूछने पर साक्षात श्रीकृष्ण द्वैपायन (व्यास) के कहे हुए इस इतिहास का नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणों के समुदाय में वर्णन किया था। उन्हीं के मुख से सुनकर मैं भी इसका यथावत वर्णन करता हूँ।

  शौनक जी! यह आस्तीक मुनि का उपाख्यान सब पापों का नाश करने वाला है। आपके पूछने पर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ। आस्तीक के पिता प्रजापति के समान प्रभावशाली थे। ब्रह्मचारी होने के साथ ही उन्होंने आहार पर भी संयम कर लिया था। वे सदा उग्र तपस्या में संलग्न रहते थे। उनका नाम था जरत्कारु। वे ऊर्ध्‍वरेता और महान ऋषि थे। यायावारों में उनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे धर्म के ज्ञाता थे। एक समय तपोबल से सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारु ने यात्रा प्रारम्भ की। वे मुनिवृत्ति से रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे।

   वे सब तीर्थों में स्नान करते हुए घुमते थे। उन महातेजस्वी मुनि ने कठोर व्रतों की ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी। वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजन का सर्वथा त्याग करके अपने शरीर को सुखाते रहते थे। उन महर्षि ने निंद्रा पर भी विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। इधर-उधर विचरण करते हुए वे प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। घूमते-घूमते किसी समय उन्होंने अपने पितामहों को देखा जो ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये एक विशाल गड्ढे में लटक रहे थे। उन्हें देखते ही जरत्कारु ने उनसे पूछा- ‘आप लोग कौन हैं, जो इस गड्ढे में नीचे को मुख किये लटक रहे हैं। आप जिस वीरणस्तम्ब (खस नाम तिनकों के समूह) को पकड़कर लटक रहे हैं, उसे इस गड्ढे़ में गुप्त रूप से नित्य-निवास करने वाले चूहे ने सब ओर से प्रायः खा लिया है।' पितर बोले- ब्रह्मन! हम लोग कठोर व्रत का पालन करने वाले यायावर नामक मुनि हैं। अपनी सन्तान परम्परा का नाश होने से हम नीचे पृथ्वी पर गिरना चाहते हैं। हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारू। हम भाग्यहीनों की वह अभागी सन्तान केवल तपस्या में ही संलग्न है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोदश अध्याय के श्लोक 20-32 का हिन्दी अनुवाद)

वह मूढ़ पुत्र उत्पन्न करने के लिये किसी स्त्री से विवाह करना नहीं चाहता है। अतः वंश परम्परा का विनाश होने से हम यहाँ इस गड्ढे़ में लटक रहे हैं। हमारी रक्षा करने वाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्यों की भाँति हम अनाथ हो गये हैं। साधु शिरोमणे! तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बन्धुओं की भाँति हम लोगों की इस दयनीय दशा के लिये शोक कर रहे हो? ब्रह्मन! हम यह जानना चाहते हैं कि तुम कौन हो जो आत्मीय की भाँति यहाँ हमारे पास खडे़ हो? सत्पुरुषों में श्रेष्ठ! हम शोचनीय प्राणियों के लिये तुम क्यों शोकमग्न होते हो।

जरत्कारु ने कहा ;- महात्माओं! आप लोग मेरे ही पितामह और पूर्वज पितृगण हैं। स्वयं मैं ही जरत्कारु हूँ बताइये, आज आपकी क्या सेवा करूँ? 

पितर बोले ;- तात! तुम हमारे कुल की सन्तान परम्परा को बनाये रखने के लिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाह के लिये प्रयत्न करो। प्रभो! तुम अपने लिये, हमारे लिये अथवा धर्म का पालन हो इस उद्देश्य से पुत्र की उत्पत्ति के लिये यत्न करो। तात! पुत्र वाले मनुष्य इस लोक में जिस उत्तम गति को प्राप्त होते हैं, उसे अन्य लोग धर्मानुकूल फल देने वाले भली-भाँति संचित किये हुए तप से भी नहीं पाते। अतः बेटा! तुम हमारी आज्ञा से विवाह करने का प्रयत्न करो और सन्तानोत्पादन की ओर ध्यान दो। यही हमारे लिये सर्वोत्तम हित की बात होगी।

   जरत्कारु ने कहा ;- 'पितामहगण! मैंने अपने मन में यह निश्चय कर लिया था कि मैं जीवन के सुखभोग के लिये कभी न तो पत्नी का परिग्रह करूँगा और न धन का संग्रह ही; परन्तु यदि ऐसा करने से आप लोगों का हित होता है तो उसके लिये अवश्य विवाह कर लूँगा। किन्तु एक शर्त के साथ मुझे विधिपूर्वक विवाह करना है। यदि उस शर्त के अनुसार किसी कुमारी कन्या को पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं। (वह शर्त यों है-) जिस कन्या का नाम मेरे नाम के ही समान हो, जिसे उसके भाई-बन्धु स्वंय मुझे देने की इच्छा से रखते हों और जो भिक्षा की भाँति स्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्या का मैं शास्त्रीय-विधि के अनुसार पाणिग्रहण करूँगा।

   विशेष बात तो यह है कि मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगने पर भी कौन अपनी कन्या पत्नी रूप में प्रदान करेगा? इसलिये मेरा विचार है कि यदि कोई भिक्षा के तौर पर अपनी कन्या देगा तो ही उसे ग्रहण करूँगा। पितामहों! मैं इसी प्रकार, इसी विधि से विवाह के लिये सदा प्रयत्न करता रहूँगा। इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा। इस प्रकार मिली हुई पत्नी के गर्भ से यदि कोई प्राणी जन्म लेता है तो वह आप लोगों का उद्धार करेगा, अतः आप मेरे पितर अपने सनातन स्थान पर जाकर वहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें।'

"इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में जरत्कारु तथा उनके पितरों का संवाद नामक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ"


सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

चौदहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्दश अध्‍याय के श्लोक 1-7 का हिन्दी अनुवाद)

"जरत्कारु द्वारा वासुकि की बहिन का पाणिग्रहण"

   उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तदनन्तर वे कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण भार्या की प्राप्ति के लिये इच्छुक होकर पृथ्वी पर सब ओर विचरने लगे। किन्तु उन्हें पत्नी की उपलब्धी नहीं हुई। एक दिन किसी वन में जाकर विप्रवर जरत्कारु ने पितरों के वचन का स्मरण करके कन्या की भिक्षा के लिये तीन बार धीरे-धीरे पुकार लगायी- ‘कोई भिक्षा रूप में कन्या दे जाये।' इसी समय नागराज वासुकि अपनी बहिन को लेकर मुनि की सेवा में उपस्थित हो गये और बोले, ‘यह भिक्षा ग्रहण कीजिये।’ किन्तु उन्होंने यह सोचकर कि शायद यह मेरे जैसे नाम वाली न हो, उसे तत्काल ग्रहण नहीं किया। उन महात्मा जरत्कारु का मन इस बात पर स्थिर हो गया था कि मेरे जैसे नाम वाली कन्या यदि उपलब्ध हो तो उसी को पत्नी रूप में ग्रहण करूँ।

ऐसा निश्चय करके परमबुद्धिमान एवं महान तपस्वी जरत्कारु ने पूछा ;- ‘नागराज! सच-सच बताओ, तुम्हारी इस बहिन का क्या नाम है? 

वासुकि ने कहा ;- जरत्कारो! यह मेरी छोटी बहिन जरत्कारु नाम से ही प्रसिद्ध है। इस सुन्दर कटिप्रदेश वाली कुमारी को पत्नी बनाने के लिये मैंने स्वयं आपकी सेवा में समर्पित किया है। इसे स्वीकार कीजिये। द्विजश्रेष्ठ! यह बहुत पहले से आप ही के लिये सुरक्षित रखी गयी है, अतः इसे ग्रहण करें। ऐसा कहकर वासुकि ने वह सुन्दरी कन्या मुनि को पत्नी रूप में प्रदान की। मुनि ने भी शास्त्रीय विधि के अनुसार उसका पणिग्रहण किया।

"इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में वासुकि की बहिन के वरण से सम्बंध रखने वाला चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ"

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

पन्द्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचदश अध्‍याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"आस्तीक का जन्म तथा मातृशाप से सर्पसत्र में नष्ट होने वाले नागवंश की उनके द्वारा रक्षा"

   उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ शौनक! पूर्वकाल में नागमाता कद्रू ने सर्पों को यह शाप दिया था कि तुम्हें जनमेजय के यज्ञ में अग्नि भस्म कर डालेगी। उसी शाप की शान्ति के लिये नागप्रवर वासुकि ने सदाचार का पालन करने वाले महात्मा जरत्कारु को अपनी बहिन ब्याह दी थी। महामना जरत्कारु ने शास्त्रीय विधि के अनुसार उस नागकन्या का पाणिग्रहण किया और उसके गर्भ से आस्तीक नामक पुत्र को जन्म दिया। आस्तीक वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान, तपस्वी, महात्मा, सब लोगों के प्रति समान भाव रखने वाले तथा पितृकुल और मातृकुल के भय को दूर करने वाले थे। तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात पाण्डववंशीय नरेश जनमेजय ने सर्पसत्र नामक महान यज्ञ का आयोजन किया, ऐसा सुनने में आता है। सर्पों के संहार के लिये आरम्भ किये हुए उस सत्र में आकर महातपस्वी आस्तीक ने नागों को मौत से छुड़ाया।

   उन्होंने मामा तथा ममेरे भाईयों को एवं अन्यान्य सम्बन्धों में आने वाले सब नागों को संकट मुक्त किया। इसी प्रकार तपस्या तथा संतानोत्पादन द्वारा उन्होंने पितरों का भी उद्धार किया। ब्रह्मन! भाँति-भाँति के व्रतों और स्वाध्यायों का अनुष्ठान करके वे सब प्रकार के ऋणों से उऋण हो गये। अनेक प्रकार की दक्षिणा वाले यज्ञों का अनुष्ठान करके उन्होंने देवताओं, ब्रह्मचर्य व्रत के, पालन से ऋषियों और संतान की उत्पत्ति द्वारा पितरों को तृप्त किया। कठोर व्रत का पालन करने वाले जरत्कारु मुनि पितरों के साथ स्वर्गलोक को चले गये। आस्तीक जैसे पुत्र तथा परमधर्म की प्राप्ति करके मुनिवर जरत्कारु ने दीर्घकाल के पश्चात स्वर्गलोक की यात्रा की। भृगुकुलशिरोमणे! इस प्रकार मैंने आस्तीक के उपाख्यान का यथावत वर्णन किया है। बताइये, अब और क्या कहा जाये?

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में जरत्कारु तथा उनके पितरों का संवाद नामक पंद्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ)



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