सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के छिहत्तरवें अध्याय से अस्सीवें अध्याय तक (from the seventy-sixth chapter to the eighty chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

छिहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्सप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"कच का शिष्‍यभाव से शुक्राचार्य और देवयानी की सेवा में संलग्न होना और अनेक कष्ट सहने के पश्‍चात् मृतसंजीविनी विद्या प्राप्त करना"

  जनमेजय ने पूछा ;- तपोधन! हमारे पूर्वज महाराज ययाति ने, जो प्रजापति से दसवीं पीढ़ी में उत्‍पन्न हुए थे, शुक्राचार्य की अत्‍यन्‍त दुर्लभ पुत्री देवयानी को पत्नी रुप में कैसे प्राप्त किया? मैं इस वृत्तान्‍त को विस्‍तार से सुनना चाहता हूँ। आप मुझसे सभी वंश-प्रवर्तक राजाओं को क्रमश: पृथक-पृथक वर्णन कीजिये। 

  वैशम्पायन जी ने कहा ;- जनमेजय! राजा ययाति देवराज इन्‍द्र के समान तेजस्‍वी थे। पूर्वकाल में शुक्राचार्य और वृषपर्वा ने ययाति का अपनी-अपनी कन्‍या के पति रूप में जिस प्रकार वरण किया, वह प्रसंग तुम्‍हारे पूछने पर मैं तुमसे कहूंगा। साथ ही यह भी बताऊंगा कि नहुषनन्‍दन ययाति तथा देवयानी का संयोग किस प्रकार हुआ। एक समय चराचर प्राणियों सहित समस्‍त त्रिलोकी के ऐश्वर्य के लिये देवताओं और असुरों में परस्‍पर बड़ा भारी संघर्ष हुआ। उसमें विजय पाने की इच्‍छा से देवताओं ने अंगिरा मुनि के पुत्र बृहस्‍पति का पुरोहित के पद पर वरण किया और दैत्‍यों ने शुक्राचार्य को पुरोहित बनाया। वे दोनों ब्राह्मण सदा आपस में बहुत लोग-डाट रखते थे। देवताओं ने उस युद्ध में आये हुए जिन दानवों को मारा था, उन्‍हें शुक्राचार्य ने अपनी संजीविनी विद्या के बल से पुन: जीवित कर दिया। अत: वे पुन: उठकर देवताओं से युद्ध करने लगे। परंतु असुरों ने युद्ध के मुहाने पर जिन देवताओं को मारा था, उन्‍हें उदार बुद्धि बृहस्‍पति जीवित न कर सके। क्‍योंकि शक्तिशाली शुक्राचार्य जिस संजीविनी विद्या को जानते थे, उसका ज्ञान बृहस्‍पति को नहीं था। इससे देवताओं को बड़ा विषाद हुआ।

   इससे देवता शुक्राचार्य के भय से उद्विग्न हो उस समय बृहस्‍पति के ज्‍येष्ठ पुत्र कच के पास जाकर,,

 देवता बोले ;- ‘ब्रह्मन्! हम आपके सेवक हैं। आप हमें अपनाइये और हमारी उत्तम सहायता कीजिये। अमित तेजस्‍वी ब्राह्मण शुक्राचार्य के पास जो मृतसंजीवनी विद्या है, उसे शीघ्र सीखकर यहाँ ले आइये। इससे आप हम देवताओं के साथ यज्ञ में भाग प्राप्त कर सकेंगे। राजा वृषवर्षा के समीप आपको विप्रवर शुक्राचार्य का दर्शन हो सकता है। वहाँ रहकर वे दानवों की रक्षा करते हैं। जो दानव नहीं हैं, उनकी रक्षा नहीं करते। आपकी अभी नयी अवस्‍था है, अत: आप शुक्राचार्य की आराधना (करके उन्‍हें प्रसन्न) करने में समर्थ हैं। उन महात्‍मा की प्‍यारी पुत्री का नाम देवयानी है, उसे अपनी सेवाओं द्वारा आप ही प्रसन्न कर सकते हैं। दूसरा कोई इसमें समर्थ नहीं है। अपने शील-स्‍वभाव, उदारता, मधुर व्‍यवहार, सदाचार तथा इन्द्रिय संयम द्वारा देवयानी को संतुष्ट कर लेने पर आप निश्चय ही उस विद्या को प्राप्त कर लेंगे’। तब ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर बृहस्‍पति पुत्र कच देवताओं से सम्‍मानित हो वहाँ से वृषवर्षा के समीप गये। राजन्! देवताओं के भेजे हुए कच तुरंत दानवराज वृषवर्षा के नगर में जाकर शुक्राचार्य से मिले और,,,

 इस प्रकार बोले ;- ‘भगवन्! मैं अंगिरा ऋषि का पौत्र तथा साक्षात् बृहस्‍पति का पुत्र हूँ। मेरा नाम कच है। आप मुझे अपने शिष्‍य के रुप में ग्रहण करें। ब्रह्मन्! आप मेरे गुरु हैं। मैं आपके समीप रहकर एक हजार वर्षों तक उत्तम ब्रह्मचर्य का पालन करुंगा। इसके लिये आप मुझे अनुमति दें।’

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्सप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद)

शुक्राचार्य ने कहा ;- कच! तुम्‍हारा भली-भाँति स्‍वागत है; मैं तम्‍हारी प्रार्थना स्‍वीकार करता हूँ। तुम मेरे लिये आदर के पात्र हो, अत: मैं तुम्‍हारा सम्‍मान एवं सत्‍कार करूँगा। तुम्‍हारे आदर सत्‍कार से मेरे द्वारा बृहस्‍पति का आदर-सत्‍कार होगा। 

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तब कच ने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर महाकान्तिमान् कविपुत्र शुक्राचार्य के आदेश के अनुसार स्‍वयं ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। जनमेजय! नियत समय तक के लिये व्रत की दीक्षा लेने वाले कच को शुक्राचार्य ने भली-भाँति अपना लिया। कच आचार्य शुक्र तथा उनकी पुत्री देवयानी दोनों की नित्‍य आराधना करने लगे। वे नवयुवक थे और जवानी में प्रिय लगने वाले कार्य- गायन और नृत्‍य करके तथा भाँति-भाँति के बाजे बजाकर देवयानी को संतुष्ट रखते थे। भारत! आचार्यकन्‍या देवयानी भी युवावस्‍था में पदार्पण कर चुकी थी। कच उसके लिये फूल और फल ले आते तथा उसकी आज्ञा के अनुसार कार्य करते थे। इस प्रकार उसकी सेवा में संलग्न रहकर वे सदा उसे प्रसन्न रखते थे। देवयानी भी नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य धारण करने वाले कच के ही समीप रहकर गाती और आमोद-प्रमोद करती हुई एकान्‍त में उनकी सेवा करती थी। इस प्रकार वहीं रहकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए कच के पांच सौ वर्ष व्‍यतीत हो गये। तब दानवों को यह बात मालूम हुई। तदनन्‍तर कच को वन के एकान्‍त प्रदेश में अकेले गौऐं चराते देख बृहस्‍पति के द्वेष से और संजीविनी विद्या की रक्षा के लिये क्रोध में भरे हुए दानवों ने कच को मार डाला। उन्‍होंने मारने के बाद उनके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर कुत्तों और सियारों को बांट दिया। उन दिन गौऐं बिना रक्षक के ही अपने स्‍थान पर लौटीं।

  जनमेजय! जब देवयानी ने देखा, गौऐं तो वन से लौट आयीं पर उनके साथ कच नहीं है, तब उसने उस समय अपने पिता से इस प्रकार कहा। 

देवयानी बोली ;- प्रभो! आपने अग्निहोत्र कर लिया और सूर्यदेव भी अस्‍ताचल को चले गये। गौऐं भी आज बिना रक्षक के ही लौट आयी हैं। तात! तो भी कच नहीं दिखाई देते हैं। पिताजी! अवश्‍य की कच या तो मारे गये हैं या मर गये हैं। मैं आपसे सच कहती हूं, उनके बिना जीवित नहीं रह सकूंगी। 

शुक्राचार्य ने कहा ;- (बेटी! चिन्‍ता न करो।) मैं अभी ‘आओ’ इस प्रकार बुलाकर मरे हुए कच को जीवित किये देता हूँ। ऐसा कहकर उन्‍होंने संजीविनी विद्या का प्रयोग किया और कच को पुकारा। फि‍र तो गुरु के पुकारने पर कच विद्या के प्रभाव से हृष्ट-पुष्ट हो कुत्तों के शरीर फाड़-फाड़कर निकल आये और वहाँ प्रकट हो गये। उन्‍हें देखते ही,,

 देवयानी ने पूछा ;- ‘आज आपने लौटने में बिलम्ब क्‍यों किया?’ 

इस प्रकार पूछने पर कच ने शुक्राचार्य की कन्‍या से कहा ;- ‘भामिनि! मैं समिधा, कुश आदि और काष्ठ का भार लेकर आ रहा था। रास्‍ते में थकावट और भार से पीड़ित हो एक वट वृक्ष के नीचे ठहर गया। साथ ही सारी गौऐं भी उसी वृक्ष की छाया में आकर विश्राम करने लगीं।

 वहाँ मुझे देखकर असुरों ने पूछा ;- ‘तुम कौन हो?’ 

मैंने कहा ;- मेरा नाम कच है, मैं बृहस्‍पति का पुत्र हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्सप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 38-51 का हिन्दी अनुवाद)

  मेरे इतना कहते ही दानवों ने मुझे मार डाला और मेरे शरीर को चूर्ण करके कुत्ते-सियारों को बांट दिया। फि‍र वे सुखपूर्वक अपने घर चले गये। भद्रे! फि‍र महात्‍मा भार्गव ने जब विद्या का प्रयोग करके मुझे बुलाया है, तब किसी प्रकार से पूर्ण जीवन लाभ करके यहाँ तुम्‍हारे पास आ सका हूं’। इस प्रकार ब्राह्मण कन्‍या के पूछने पर कच ने उससे अपने मारे जाने की बात बतायी। तदनन्‍तर पुन: देवयानी ने एक दिन अकस्‍मात कच को फूल लाने के लिये कहा। विप्रवर कच इसके लिये वन में गये। वहाँ दानवों ने उन्‍हें देख लिया और फिर उन्‍हें पीसकर समुद्र के जल में घोल दिया। जब उसके विषय में विलम्‍ब हुआ, तब आचार्य कन्‍या ने पिता से पुन: यह बात बतायी। विप्रवर शुक्राचार्य ने कच का पुन: संजीविनी विद्या द्वारा आवाहन किया। इससे बृहस्‍पतिपुत्र कच पुन: वहाँ आ पहुँचे और उनके साथ असुरों ने जो बर्ताव किया था, वह बताया। तत्‍पश्चात असुरों ने तीसरी बार कच को मारकर आग में जलाया और उनकी जली हुई लाश का चूर्ण बनाकर मदिरा में मिला दिया तथा उसे ब्राह्मण शुक्राचार्य को ही पिला दिया। अब देवयानी पुन: अपने पिता से यह बात बोली,,

अब देवयानी बोली ;- ‘पिताजी! कच मेरे कहने पर प्रत्‍येक कार्य पूर्ण कर दिया करते हैं। आज मैंने उन्‍हें फूल लाने के लिये भेजा था, परंतु अभी तक वे दिखाई नहीं दिये। तात! जान पड़ता है वे मार दिये गये या मर गये। मैं आपसे सच कहती हूं, मैं उनके बिना जीवित नहीं रह सकती हूं’।

शुक्राचार्य ने कहा ;- बेटी! बृहस्‍पति के पुत्र कच मर गये। मैंने विद्या से उन्‍हें कई बार जिलाया, तो भी वे इस प्रकार मार दिये जाते हैं, अब मैं क्‍या करूं। देवयानी! तुम इस प्रकार शोक न करो, रोओ मत। तुम-जैसी शक्तिशालिनी स्त्री किसी मरने वाले के लिये शोक नहीं करती। तुम्‍हें तो वेद, ब्राह्मण, इन्‍द्र सहित सब देवता, वसुगण, अश्विनीकुमार, दैत्‍य तथा सम्‍पूर्ण जगत् के प्राणी मेरे प्रभाव से तीनों संध्‍याओं के समय मस्‍तक झुकाकर प्रणाम करते हैं। अब उस ब्राह्मण को जिलाना असम्‍भव है। यदि जीवित हो जाय, तो फिर दैत्‍यों द्वारा मार डाला जायेगा (अत: उसे जिलाने से कोई लाभ नहीं है)। 

देवयानी बोली ;- पिताजी अत्‍यन्‍त वृद्ध महर्षि अंगिरा जिनके पितामह हैं, तपस्‍या के भण्‍डार बृहस्‍पति जिनके पिता हैं, जो ऋषि के पुत्र और ऋषि के ही पौत्र हैं; उन ब्रह्मचारी कच के लिये मैं कैसे शोक न करूं और कैसे न रोऊं? तात! ये ब्रह्मचर्य पालन में रत थे, तपस्‍या ही उनका धन था। वे सदा ही सजग रहने वाले और कार्य करने में कुशल थे। इसलिये कच मुझे बहुत प्रिय थे। वे सदा मेरे मन के अनुरुप चलते थे। अब मैं भोजन का त्‍याग कर दूंगी और कच जिस मार्ग पर गये हैं, वहीं मैं भी चली जाऊंगी।'

 वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! देवयानी के कहने से उसके दु:ख से दुखी हुए महर्षि शुक्राचार्य ने कच को पुकारा और दैत्‍यों के प्रति कुपित होकर बोले,,

महर्षि शुक्राचार्य बोले ;- ‘इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि असुर लोग मुझसे द्वेष करते हैं। तभी तो यहाँ आये हुए मेरे शिष्‍यों को ये लोग मार डालते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्सप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 52-63 का हिन्दी अनुवाद)

   ये भयंकर स्‍वभाव वाले दैत्‍य मुझे ब्राह्मणत्‍व से गिराना चाहते हैं। इसलिये प्रतिदिन मेरे विरुद्ध आचरण कर रहे हैं। इस पाप का परिणाम यहाँ अवश्‍य प्रकट होगा। ब्रह्म हत्‍या किसे नहीं जला देगी। चाहे वह इन्‍द्र ही क्‍यों न हो?' जब गुरु विद्या का प्रयोग करके बुलाया, तब उनके पेट में बैठे हुए कच भयभीत हो धीरे से बोले। कच ने कहा- भगवन! आप मुझ पर प्रसन्न हों, मैं कच हूँ और आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ। जैसे पुत्र पर पिता का बहुत प्‍यार होता है, उसी प्रकार आप मुझे भी अपना स्‍नेहभाजन समझें।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- उनकी आवाज सुनकर शुक्राचार्य ने पूछा- ‘विप्र! किस मार्ग से जाकर तुम मेरे उदर में स्थित हो गये? ठीक-ठीक बताओ’। 

कच ने कहा ;- गुरुदेव! आपके प्रसाद से मेरी स्‍मरणशक्ति ने साथ नहीं छोड़ा है। जो बात जैसे हुई है, वह सब मुझे याद है। इस प्रकार पेट फाड़कर निकल आने से मेरी तपस्‍या का नाश होगा। वह न हो, इसीलिये मैं यहाँ घोर क्लेश सहन करता हूँ। आचार्यपाद! असुरों ने मुझे मारकर मेरे शरीर को जलाया और चूर्ण बना दिया। फि‍र उसे मदिरा में मिलाकर आपको पिला दिया! आप ब्राह्मी, आसुरी और दैवी तीनों प्रकार की मायाओं को जानते हैं। आपके होते हुए कोई इन मायाओं का उल्लंघन कैसे कर सकता है?

शुक्राचार्य बोले ;- बेटी देवयानी! अब तुम्‍हारे लिये कौन-सा प्रिय कार्य करूं? मेरे वध से ही कच का जीवित होना सम्‍भव है। मेरे उदर को विदीर्ण करने के सिवा और कोई ऐसा उपाय नहीं है, जिससे मेरे शरीर में बैठा हुआ कच बाहर दिखाई दे। 

देवयानी ने कहा ;- पिता जी! कच का नाश और आपका वध- ये दोनों ही शोक अग्नि के समान मुझे जला देंगे। कच के नष्ट होने पर मुझे शान्ति नहीं मिलेगी और आपका वध हो जाने पर मैं जीवित नहीं रह सकूंगी। 

शुक्राचार्य बोले ;- बृहस्‍पति के पुत्र कच! अब तुम सिद्ध हो गये, क्‍योंकि तुम देवयानी के भक्त हो और वह तुम्‍हें चाहती है। यदि कच के रुप में तुम इन्‍द्र नहीं हो, तो मुझसे मृतसंजीविनी विद्या ग्रहण करो। केवल एक ब्राह्मण को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे पेट से पुन: जीवित निकल सके। इसलिये तुम विद्या ग्रहण करो। तात! मेरे इस शरीर से जीवित निकलकर मेरे लिये पुत्र के तुल्‍य हो मुझे पुन: जिला देना। मुझ गुरु से विद्या प्राप्त करके विद्वान् हो जाने पर भी मेरे प्रति धर्मयुक्त दृष्टि से ही देखना।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! गुरु से संजीविनी विद्या प्राप्‍त करके सुन्‍दर रूप वाले विप्रवर कच तत्‍काल ही महर्षि शुक्राचार्य का पेट फाड़कर ठीक उसी तरह बाहर निकल आये, जैसे दिन बीतने पर पूर्णिमा की संध्‍या को चन्‍द्रमा प्रकट हो जाते हैं। मूर्तिमान् वेदराशि के तुल्‍य शुक्राचार्य को भूमि पर पड़ा देख कच ने भी अपने मरे हुए गुरु को विद्या के बल से जिलाकर उठा दिया और उस सिद्ध विद्या को प्राप्त कर लेने पर गुरु को प्रणाम करके वे इस प्रकार बोले,,

कच ने कहा ;- ‘मैं विद्या से शून्‍य था, दस दशा में मेरे इन पूजनीय आचार्य जैसे मेरे दोनों कानों में मृतसंजीविनी विद्यारुप अमृत की धारा डाली है, इसी प्रकार जो कोई दूसरे ज्ञानी महात्‍मा मेरे कानों में ज्ञान रुप अमृत का अभिषेक करेंगे, उन्‍हें भी मैं अपना माता-पिता मानूंगा (जैसे गुरुदेव शुक्राचार्य को मानता हूं) गुरुदेव के द्वारा किये हुए उपकार को स्‍मरण रखते हुए शिष्‍य को उचित है कि वह उनसे कभी द्रोह न करे। जो लोग सम्‍पूर्ण वेद के सर्वोत्तम ज्ञान को देने वाले तथा समस्‍त विद्याओं के आश्रयभूत पूजनीय गुरुदेव का उनसे विद्या प्राप्त करके भी आदर नहीं करते, वे प्रतिष्ठारहित होकर पापपूर्ण लोकों- नरकों में जाते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्सप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 64-72 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! विद्वान् शुक्राचार्य मदिरा पान से ठगे गये थे उस अत्‍यन्‍त भयानक परिस्थिति को पहुँच गये थे, जिसमें तनिक भी चेत नहीं रह जाता। मदिरा से मोहित होने के कारण ही वे उस समय अपने मन के अनुकूल चलने वाले प्रिय शिष्‍य ब्राह्मणकुमार कच को भी पी गये थे। यह सब देख और सोचकर वे महानुभाव कविपुत्र शुक्र कुपित हो उठे। मदिरापान के प्रति उनके मन में क्रोध और घ्रणा का भाव जाग उठा और उन्‍होंने ब्राह्मणों का हित करने की इच्छा से स्‍वयं इस प्रकार घोषण की- ‘आज से इस जगत् का कोई भी मन्‍दबुद्धि ब्राह्मण अज्ञान से भी मदिरापान करेगा, वह धर्म से भ्रष्ट हो ब्रह्म हत्‍या के पाप का भागी होगा तथा इस लोक और परलोक दोनों में वह निन्दित होगा। धर्मशास्त्रों में ब्राह्मण-धर्म की जो सीमा निर्धारित की गयी है, उसी में मेरे द्वारा स्‍थापित की हुई यह मर्यादा भी रहे और यह सम्‍पूर्ण लोक में मान्‍य हो। साधु पुरुष, ब्राह्मण, गुरुओं के समीप अध्‍ययन करने वाले शिष्‍य, देवता और समस्‍त जगत् के मनुष्‍य, मेरी बांधी हुई इस मर्यादा को अच्‍छी तरह सुन लें’।

    ऐसा कहकर तपस्‍या की निधियों की निधि, अप्रमेय शक्तिशाली महानुभाव शुक्राचार्य ने जिन दैव ने जिनकी बुद्धि को मोहित कर दिया था उन दानवों को बुलाया और इस प्रकार कहा,,

शुक्राचार्य ने कहा ;- ‘दानवों! तुम सब मूर्ख हो। मैं तुम्‍हें बताये देता हूं- महात्‍मा कच मुझसे संजीविनी विद्या पाकर सिद्ध हो गये हैं। इनका प्रभाव मेरे ही समान है। ये ब्राह्मण ब्रह्मस्‍वरुप हैं। जिन महात्‍मा कच ने देवताओं के लिये वह दुष्‍कर कार्य किया है, उनकी कीर्ति कभी नष्ट नहीं हो सकती और वे यज्ञभाग के अधिकारी होंगे।’ ऐसा कहकर शुक्राचार्य चुप हो गये और दानव आश्चर्यचकित होकर अपने-अपने घर को चले गये। कच ने एक हजार वर्षों तक गुरु के समीप रहकर अपना व्रत पूरा कर लिया। तब घर जाने की अनुमति मिल जाने पर कच ने देवलोक में जाने का विचार किया।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

सतहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तसप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिये अनुरोध, कच की अस्वीकृति तथा दोनों का एक दूसरे को शाप देना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जब कच का व्रत समाप्त हो गया और गुरु ने उन्‍हें जाने की आज्ञा दे दी, तब वे देवलोक को प्रस्थित हुए।

 उस समय देवयानी ने उनसे इस प्रकार कहा ;- ‘महर्षि अंगिरा के पौत्र! आप सदाचार, उत्तम कुल, विद्या, तपस्‍या तथा इन्द्रिय संयम आदि से बड़ी शोभा पा रहे हैं। महायशस्‍वी महर्षि अंगिरा जिस प्रकार मेरे पिता जी के लिये माननीय हैं, उसी प्रकार आपके पिता बृहस्‍पति जी मेरे लिये आदरणीय तथा पूज्‍य हैं। तपोदन! ऐसा जानकर मैं जो कहती हूं, उस पर विचार करें। आप जब व्रत और नियमों के पालन में लगे थे, उन दिनों मैंने आपके साथ जो बर्ताव किया है, उसे आप भूले नहीं होंगे। अब आप व्रत समाप्त करके अपनी अभीष्ट विद्या प्राप्त कर चुके हैं। मैं आपसे प्रेम करती हूं, आप मुझे स्‍वीकार करें; वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक मेरा पाणिग्रहण कीजिये’।

कच ने कहा ;- 'निर्दोष अंगों वाली देवयानी! जैसे तुम्‍हारे पिता भगवान् शुक्राचार्य मेरे लिये पूजनीय और माननीय हैं, वैसे ही तुम हो; बल्कि उनसे भी बढ़कर मेरी पूजनीया हो। भद्रे! महात्‍मा भार्गव को तुम प्राणों से भी अधिक प्‍यारी हो, गुरुपुत्री होने के कारण धर्म की दृष्टि से सदा मेरी पूजनीया हो। देवयानी! जैसे मेरे गुरुदेव तुम्‍हारे पिता शुक्राचार्य सदा मेरे माननीय हैं, उसी प्रकार तुम हो; अत: तुम्‍हें मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये।'

देवयानी बोली ;- 'द्विजोत्तम! आप मेरे पिता के गुरुपुत्र के पुत्र हैं, मेरे पिता के नहीं; अत: मेरे लिये भी आप पूजनीय और माननीय हैं। कच! जब असुर आपको बार-बार मार डालते थे, तब से लेकर आज तक आपके प्रति मेरा जो प्रेम रहा है, उसे आज याद कीजिये। सौहार्द और अनुराग के अवसर पर मेरी उत्तम भक्ति का परिचय आपको मिल चुका है। आप धर्म के ज्ञाता हैं। मैं आपके प्रति भक्ति रखने वाली निरपराध अबला हूँ। आपको मेरा त्‍याग करना उचित नहीं है।'

कच ने कहा ;- 'उत्तम व्रत का अचारण करने वाली सुन्‍दरी! तुम मुझे ऐसे कार्य में लगा रही हो, जिसमें लगाना कदापि उचित नहीं है। शुभे! तुम मेरे ऊपर प्रसन्न होओ। तुम मेरे लिये गुरु से भी बढ़कर गुरुतर हो। विशाल नेत्र तथा चन्‍द्रमा के समान मुख वाली भामिनी! शुक्राचार्य के जिस उदर में तुम रह चुकी हो, उसी में मैं भी रहा हूँ। इसलिये भद्रे! धर्म की दृष्टि से तुम मेरी बहिन हो। अत: सुमध्यमे! मुझसे ऐसी बात न कहो। कल्‍याणी! मैं तुम्‍हारे यहाँ बड़े सुख से रहा हूँ। तुम्‍हारे प्रति मेरे मन में तनिक भी रोष नहीं है। अब मैं जाऊंगा, इसलिये तुमसे पूछता हूं, तुम्‍हारी आज्ञा चाहता हूं, आशीर्वाद दो कि मार्ग में मेरा मंगल हो। धर्म की अनुकूलता रखते हुए बातचीत के प्रसंग में कभी मेरा भी स्‍मरण कर लेना और सदा सावधान एवं सजग रहकर मेरे गुरुदेव की सेवा में लगी रहना।'

देवयानी बोली ;- 'कच! मैंने धर्मानुकूल काम के लिये आपसे प्रार्थना की है। यदि आप मुझे ठुकरा देंगे, तो आपकी यह संजीविनी विद्या सिद्ध नहीं हो सकेगी।'

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तसप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 17-23 का हिन्दी अनुवाद)

कच ने कहा ;- 'देवयानी! गुरुपुत्री समझकर ही मैंने तुम्‍हारे अनुरोध को टाल दिया है; तुममें कोई दोष देखकर नहीं। गुरु जी ने भी इसके विषय में मुझे कोई आज्ञा नहीं दी है। तुम्‍हारी जैसी इच्‍छा हो, मुझे शाप दे दो। बहिन! मैं आर्ष धर्म की बात बता रहा था। इस दशा में तुम्‍हारे द्वारा शाप पाने के योग्‍य नहीं था। तुमने मुझे धर्म के अनुसार नहीं, काम के वशीभूत होकर आज शाप दिया है, इसलिये तुम्‍हारे मन में जो कामना है, वह पूरी नहीं होगी। कोई भी ऋषिपुत्र (ब्राह्मणकुमार) कभी तुम्‍हारा पाणिग्रहण नहीं करेगा। तुमने जो मुझे यह कहा कि तुम्‍हारी विद्या सफल नहीं होगी, सो ठीक है; किंतु मैं जिसे यह विद्या पढ़ा दूंगा, उसकी विद्या तो सफल होगी ही।'

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! द्विजश्रेष्ठ कच देवयानी से ऐसा कहकर तत्‍काल बड़ी उतावली के साथ इन्‍द्रलोक को चले गये। उन्‍हें आया देख इन्‍द्रादि देवता बृहस्‍पति जी की सेवा में उपस्थिति हो कच से यह वचन बोले।

 देवता बोले ;- ब्रह्मन्! तुमने हमारे हित के लिये यह बड़ा अद्भुत कार्य किया है, अत: तुम्‍हारे यश का कभी लोप नहीं होगा और तुम यज्ञ में भाग पाने के अधिकारी होओगे।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

अठहत्तरवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टसप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"देवयानी और शर्मिष्ठा का कलह, शर्मिष्ठा द्वारा कुएं में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना और देवयानी का शुक्राचार्य के साथ वार्तालाप"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब कच मृतसंजीवनीविद्या सीखकर आ गये, तब देवताओं को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे कच से उस विद्या को पढ़कर कृतार्थ हो गये। फि‍र सबने मिलकर इन्‍द्र से कहा,,

देवता बोले ;- 'पुरन्‍दर! अब आपके लिये पराक्रम करने का समय आ गया है, अपने शत्रुओं का संहार कीजिये’। संगठित होकर आये हुए देवताओं द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर इंद्र ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर भूलोक में आये। वहाँ एक वन में उन्‍होंने बहुत-सी स्त्रियों को देखा। वह वन चैत्ररथ नामक देवोद्यान के समान मनोहर था। उसमें वे कन्‍याएं जलक्रीड़ा कर रही थीं। इन्‍द्र ने वायु का रूप धारण करके सारे कपड़े परस्‍पर मिला दिये। तब वे सभी कन्‍याएं एक साथ जल से निकलकर अपने-अपने अनेक प्रकार के वस्त्र, जो निकट ही रखे हुए थे, लेने लगी। उस सम्मिश्रण में शर्मिष्ठा ने देवयानी का वस्त्र ले लिया। शर्मिष्ठा वृषपर्वा की पुत्री थी; दोनों के वस्त्र मिल गये हैं, इस बात का उसे पता नहीं था। राजेन्‍द्र! उस समय वस्त्रों की अदला-बदली को लेकर देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों में परस्‍पर बड़ा भारी विरोध खड़ा हो गया।

देवयानी बोली ;- अरी दानव की बेटी! मेरी शिष्‍या होकर तू मेरा वस्त्र कैसे ले रही है? तू सज्‍जनों के उत्तम आचार से शून्‍य है, अत: तेरा भला न होगा।

शर्मिष्ठा ने कहा ;- अरी! मेरे पिता बैठे हों या सो रहे हों, उस समय तेरा विनयशील सेवक के समान नीचे खड़ा होकर बार-बार वन्‍दीजनों की भाँति उनकी स्‍तुति करता है। तू भिखमंगे की बेटी है, तेरा बाप स्‍तुति करता और दान लेता है। मैं उनकी बेटी हूं, जिनकी स्‍तुति की जाती है, जो दूसरों को दान देते हैं और स्‍वयं किसी से कुछ भी नहीं लेते हैं। अरी भिक्षुकी! तू छाती पीट-पीटकर रो अथवा धूल में लोट-लोटकर कष्‍ट भोग। मुझसे द्रोह रख या क्रोध कर (इसकी परवा नहीं है)। भिखमंगिनि! तू खाली हाथ है, तेरे पास कोई अस्त्र-शस्त्र भी नहीं है और देख ले, मेरे पास हथियार है। इसलिये तू मेरे ऊपर व्‍यर्थ ही क्रोध कर रही है। यदि लड़ना ही चाहती है, तो इधर से भी डटकर सामना करने वाला मुझ-जैसा योद्धा तुझे मिल जायगा। मैं तुझे कुछ भी नहीं गिनती। भिक्षुकी! अब से यदि मेरे विरुद्ध कोई बात कहेगी, तो अपनी दासियों से घसीटवाकर तुझे यहाँ से बाहर निकलवा दूंगी।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! देवयानी ने सच्ची बातें कहकर उच्चता और महत्ता सिद्ध कर दी और शर्मिष्ठा के शरीर से अपने वस्त्र को खींचने लगी। यह देख शर्मिष्ठा ने उसे कुऐं में ढकेल दिया और अब यह मर गयी होगी, ऐसा समझ कर पापमय विचार वाली शर्मिष्ठा नगर को लौट आयी। वह क्रोध के आवेश में थी, अत: देवयानी की ओर देखे बिना ही घर लौट गयी। तदनन्‍तर नहुषपुत्र ययाति उस स्‍थान पर आये। उनके रथ के वाहन तथा अन्‍य घोड़े भी थक गये थे। वे एक हिंसक पशु को पकड़ने के लिये उसके पीछे-पीछे आये थे और प्‍यास से कष्ट पा रहे थे। ययाति उस जलशून्‍य कूप को देखने लगे। वहाँ उन्‍हें अग्नि-शिखा के समान तेजस्विनी एक कन्‍या दिखाई दी, जो देवांगना के समान सुन्‍दरी थी। उस पर दृष्टि पड़ते ही राजा ने उससे पूछा। नृपश्रेष्ठ ययाति पहले परम मधुर वचनों द्वारा शान्‍त भाव से उसे आश्‍वासन दिया और कहा- ‘तुम कौन हो? तुम्‍हारे नख लाल-लाल हैं। षोडशी जान पड़ती हो। तुम्‍हारे कानों के मणिमय कुण्‍डल अत्‍यन्‍त सुन्‍दर और चमकीले हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टसप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 18-25 का हिन्दी अनुवाद)

तुम किसी अत्‍यन्‍त घोर चिन्‍ता में पड़ी हो, आतुर होकर शोक क्‍यों कर रही हो? तृण और लताओं से ढके हुए इस कुऐं में कैसे गिर पड़ीं? तुम किसकी पुत्री हो? सुमध्‍यमे! ठीक-ठीक बताओ’। 

देवयानी बोली ;- जो देवताओं द्वारा मारे गये दैत्‍यों को अपनी विद्या केवल से जिलाया करते हैं, उन्‍हीं शुक्राचार्य की मैं पुत्री हूँ। निश्चय ही उन्‍हें इस बात का पता नहीं होगा कि मैं इस दुरवस्‍था में पड़ी हूँ। रुप, वीर्य और बल से सम्‍पन्न तुम कौन हो, जो मेरा परिचय पूछते हो। यहाँ तुम्‍हारे आगमन का क्‍या कारण है, बताओ। मैं यह सब ठीक-ठीक सुनना चाहती हूँ।

ययाति ने कहा ;- भद्रे! मैं राजा नहुष का पुत्र ययाति हूँ। एक हिंसक पशु को मारने की इच्‍छा से इधर आ निकला। थका-मांदा प्‍यास बुझाने के लिये यहाँ आया और तिनकों से ढके हुए इस कूप में गिरी हुई तुम पर मेरी दृष्टि पड़ गयी। 

देवयानी बोली ;- महाराज! लाल नख और अंगुलियों से युक्त यह मेरा दाहिना हाथ है। इसे पकड़कर आप इस कुऐं से मेरा उद्धार कीजिये। मैं जानती हूं, आप उत्तम कुल में उत्‍पन्न हुए नरेश हैं। मुझे यह भी मालूम है कि आप परमशान्‍त स्‍वभाव वाले, पराक्रमी तथा यशस्‍वी वीर हैं। इसलिये इस कुऐं में गिरी हुई मुझ, अबला का आप यहाँ से उद्धार कीजिये।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर नहुषपुत्र राजा ययाति ने देवयानी को ब्राह्मण कन्‍या जानकर उसका दाहिना हाथ अपने हाथ में ले उसे उस कुऐं से बाहर निकाला, वेगपूर्वक कुऐं से बाहर करके,,,

 राजा ययाति उससे बोले ;- ‘भद्रे! अब जहाँ इच्‍छा हो जाओ। तुम्‍हें कोई भय नहीं है।’ राजा ययाति के ऐसा कहने पर देवयानी ने उन्‍हें उत्तर देते हुए कहा,,

देवयानी ने कहा ;- तुम मुझे शीघ्र अपने साथ ले चलो; क्‍योंकि तुम मेरे प्रियतम हो। तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, अत: तुम्‍ही मेरे पति होओगे।’

देवयानी के ऐसा कहने पर राजा बोले ;- ‘भद्रे! मैं क्षत्रियकुल में उत्‍पन्न हुआ हूँ और तुम ब्राह्मण कन्‍या हो। अत: मेरे साथ तुम्‍हारा समागम नहीं होना चाहिये। कल्‍याणी! भगवान् शुक्राचार्य सम्‍पूर्ण जगत् के गुरु हैं और तुम उनकी पुत्री हो, अत: मुझे उनसे भी डर लगता है। तुम मुझ-जैसे तुच्‍छ पुरुष के योग्‍य कदापि नहीं हो’।

 देवयानी बोली ;- नरेश्वर! यदि तुम मेरे कहने से आज मुझे साथ ले जाना नहीं चाहते, तो मैं पिताजी के द्वारा भी तुम्‍हारा वरण करूंगी। फि‍र तुम मुझे अपने योग्‍य मानोगे और साथ भी ले चलोगे।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- तदनन्‍तर सुन्‍दरी देवयानी की अनुमति लेकर राजा ययाति अपने नगर को चले गये। नहुषनन्‍दन ययाति के चले जाने पर सती-साध्‍वी देवयानी आर्त-भाव से रोती हुई किसी वृक्ष का सहारा लेकर खड़ी रही। जब पुत्री के घर लौटने में विलम्‍ब हुआ, 

तब शुक्राचार्य ने धाय से पूछा ;- धाय! तू पवित्र हास्‍य वाली मेरी बेटी देवयानी को शीघ्र यहाँ बुला ला। उनके इतना कहते ही धाय तुरंत उसे बुलाने चली गयी। जहां-जहाँ देवयानी सखियों के साथ गयी थी, वहां-वहाँ उसका पदचिह्न खोजती हुई धाय गयी और उसने पूर्वोक्त रूप से श्रमपीड़ित एवं दीन होकर रोती हुई देवयानी को देखा।

तब धाय ने पूछा ;- भद्रे! तुम्‍हारा क्‍या हाल है? शीघ्र बताओ। तुम्‍हारे पिता जी ने तुम्‍हें बुलाया है। इस पर देवयानी ने धाय को अपने निकट बुलाकर शर्मिष्ठा द्वारा किये हुए अपराध को बताया। वह शोक से संतप्त हो अपने सामने आयी हुई धाय घूर्णिका से बोली।

 देवयानी ने कहा ;- घूर्णिके! तुम वेगपूर्वक जाओ और शीघ्र मेरे पिताजी से कह दो ‘अब मैं वृषपर्वा के नगर में पैर नहीं रखूंगी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टसप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 26-41 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! देवयानी की बात सुनकर घूर्णिका तुरंत असुरराज के महल में गयी और वहाँ शुक्राचार्य को देखकर सम्‍भ्रमपूर्ण चित्त से वह बात बतला दी। महाभाग! उसने महाप्राज्ञ शुक्राचार्य को यह बताया कि ‘वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के द्वारा देवयानी वन में मृततुल्‍य कर दी गयी है।’ अपनी पुत्री को शर्मिष्‍ठा द्वारा मृततुल्‍य की गयी सुनकर शुक्राचार्य बड़ी उतावली के साथ निकले और दुखी होकर उसे वन में ढूंढ़ने लगे। तदनन्तर वन में अपनी बेटी देवयानी को देखकर शुक्राचार्य ने दोनों भुजाओं से उठाकर उसे हृदय से लगा लिया और दुखी होकर कहा,,

 शुक्राचार्य ने कहा ;-  ‘बेटी! सब लोग अपने ही दोष और गुणों से- अशुभ या शुभ कर्मों से दु:ख एवं सुख में पड़ते हैं। मालूम होता है, तुमसे कोई बुरा कर्म बन गया था, जिसका बदला तुम्‍हें इस रूप में मिला है’।

देवयानी बोली ;- पिता जी! मुझे अपने कर्मों का फल मिले या न मिले, आप मेरी बात ध्‍यान देकर सुनिये। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्‍ठा ने आज मुझसे जो कुछ कहा है, क्‍या यह सच है? 

वह कहती है ;- ‘आप भाटों की तरह दैत्‍यों के गुण गाया करते हैं।' वृषपर्वा की लाड़िली शर्मिष्‍ठा क्रोध से लाल आंखे करके आज मुझसे इस प्रकार अत्‍यन्‍त तीखे कठोर वचन कह रही थी- ‘देवयानी! तू स्‍तुति करने वाले, नित्‍य भीख मांगने वाले और दान लेने वाले की बेटी है और मैं तो उन महाराज की पुत्री हूं, जिनकी तुम्‍हारे पिता स्‍तुति करते हैं, जो स्‍वयं दान देते हैं और लेते एक धेला भी नहीं हैं’। वृषपर्वा की बेटी शर्मिष्‍ठा ने आज मुझ से ऐसी बात कही है। कहते समय उसकी आंखे क्रोध से लाल हो रही थीं। वह भारी घमंड से भरी हुई थी और उसने एक बार ही नहीं, अपितु बार-बार उपर्युक्त बातें दुहरायी हैं। तात! यदि सचमुच मैं स्‍तुति करने वाले और दान लेने वाले की बेटी हूं, तो मैं शर्मिष्‍ठा को अपनी सेवाओं द्वारा प्रसन्न करूंगी। यह बात मैंने अपनी सखी से कह दी थी। मेरे ऐसा कहने पर भी अत्‍यन्‍त क्रोध में भरी हुई शर्मिष्‍ठा ने उस निर्जन वन में मुझे पकड़कर कूएं में ढकेल दिया, उसके बाद वह अपने घर चली गयी।

शुक्राचार्य ने कहा ;- देवयानी! तू स्‍तुति करने वाले, भीख मांगने वाले या दान लेने वाले की बेटी नहीं है। तू उस पवित्र ब्राह्मण की पुत्री है, जो किसी की स्‍तुति नहीं करता और जिसकी सब लोग स्‍तुति करते हैं। इस बात को वृषपर्वा, देवराज इन्‍द्र तथा ययाति जानते हैं। निर्द्वन्‍द्व अचिन्‍त्‍य ब्रह्म ही मेरा ऐश्‍वर्य युक्त बल है। ब्रह्मा जी ने संतुष्ट होकर मुझे वरदान दिया है; उसके अनुसार इस भूतल पर, देवलोक में अथवा सब प्राणियों में जो कुछ भी है, उन सबका मैं सदा-सर्वदा स्‍वामी हूँ। मैं ही प्रजाओें के हित के लिये पानी बरसाता हूँ और मैं ही सम्‍पूर्ण औषधियों का पोषण करता हूं, यह तुमसे सच्ची बात कह रहा हूँ। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! देवयानी इस प्रकार विषाद में डूबकर क्रोध और ग्‍लानि से अत्‍यन्‍त कष्ट पा रही थी, उस समय पिता ने सुन्‍दर मधुर वचनों द्वारा उसे समझाया।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

उन्यासीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनाशीतितम अध्‍याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"शुक्राचार्य द्वारा देवयानी को समझाना और देवयानी का असंतोष"

शुक्राचार्य ने कहा ;- बेटी! मेरी विद्या द्वन्‍द्वरहित है। मेरा ऐश्‍वर्य ही उसका फल है। मुझमें दीनता, शठता, कुटिलता और अधमपूर्ण बर्ताव नहीं है। देवयानी! जो मनुष्‍य सदा दूसरों के कठोर वचन (दूसरों द्वारा की हुई अपनी निन्‍दा) को सह लेता है, उसने इस सम्‍पूर्ण जगत् पर विजय प्राप्‍त कर ली, ऐसा समझो। जो उभरे हुए क्रोध को घोड़े के समान वश में कर लेता है, वही सत्‍पुरुषों द्वारा सच्चा सारथि कहा गया है। किंतु जो केवल बागडोर या लगाम पकड़कर लटकता रहता है, वह नहीं। देवयानी! जो उत्‍पन्न हुए क्रोध को अक्रोध (क्षमाभाव) के द्वारा मन से निकाल देती है, समझ लो, उसने सम्‍पूर्ण जगत् को जीत लिया। जैसे सांप पुरानी केंचुल छोड़ता है, उसी प्रकार जो मनुष्‍य उभड़ने वाले क्रोध को यहाँ क्षमा द्वारा त्‍याग देता है, वही श्रेष्‍ठ पुरुष कहा गया है। जो क्रोध को रोक लेता है, निन्‍दा सह लेता है और दूसरे के सताने पर भी दुखी नहीं होता, वही सब पुरुषों का सुदृढ़ पात्र है। जो मनुष्‍य सौ वर्षों तक प्रत्‍येक मास में बिना किसी थकावट के निरन्‍तर यज्ञ करता है और दूसरा जो किसी पर भी क्रोध नहीं करता, उन दोनो में क्रोध न करने वाला ही श्रेष्‍ठ है। क्रोधी के यज्ञ,दान और तप- सभी निष्‍फल होते हैं। अत: जो क्रोध नहीं करता, उसी पुरुष के यज्ञ, दान और तप महान् फल देने वाले होते हैं। जो क्रोध के वशीभूत हो जाता है, वह कभी पवित्र नहीं होता तथा तपस्‍या भी नहीं कर सकता। उसके द्वारा यज्ञ का अनुष्‍ठान भी सम्‍भव नहीं है और वह कर्म के रहस्‍य को भी नहीं जानता। इतना ही नहीं, उसके लोक और परलोक दोनो ही नष्ट हो जाते हैं। जो स्‍वभाव से ही क्रोधी है, उसके पुत्र, भृत्‍य, सुहृद्, मित्र, पत्‍नी, धर्म और सत्‍य- ये सभी निश्चय ही उसे छोड़कर दूर चले जायंगे। अबोध बालक और बालिकाएं अज्ञान वश आपस में जो वैर-विरोध करते हैं, उसका अनुकरण समझदार मनुष्‍यों को नहीं करना चाहिये; क्‍यों कि वे नादान बालक दूसरों के बलाबल को नहीं जानते।

देवयानी ने कहा ;- पिता जी! यद्यपि मैं अभी बालिका हूँ फि‍र भी धर्म-अधर्म का भी अन्‍तर समझती हूँ। क्षमा और निन्‍दा की सबलता और निर्बलता का भी मुझे ज्ञान है। परंतु जो शिष्‍य होकर भी शिष्‍योचित बर्ताव नहीं करता, अपना हित चाहने वाले गुरु को उसकी धृष्‍टता क्षमा नहीं करनी चाहिये। इसलिये इन संकीर्ण आचार-विचार वाले दानवों के बीच निवास करना अब मुझे अच्छा नहीं लगता। जो पुरुष दूसरों के सदाचार और कुल की निन्‍दा करते हैं, उन पापपूर्ण विचार वाले मनुष्‍यों में कल्‍याण की इच्‍छा वाले विद्वान पुरुष को नहीं रहना चाहिये। जो लोग आचार, व्‍यवहार अथवा कुलीनता की प्रशंसा करते हों, उन साधु पुरुषों में ही निवास करना चाहिये और वही निवास श्रेष्ठ कहा जाता है। धनहीन मनुष्‍य भी यदि सदा अपने मन पर संयम रखे तो वे श्रेष्ठ हैं और धनवान् भी यदि दुराचारी तथा पापकर्मी हों, तो वे चाण्डाल के समान हैं। जो अकारण किसी के साथ द्वेष करते हैं और दूसरों की निन्‍दा करते रहते हैं, उनके बीच में सत्‍पुरुष का निवास नहीं होना चाहिये; क्‍यों कि पापियों के संग से मनुष्‍य पापात्‍मा हो जाता है। मनुष्‍य पाप अथवा पुण्‍य जिस में भी आसक्त होता है, उसी में उसकी दृढ़ प्रीति हो जाती है, इसलिये पाप कर्म में प्रीति नहीं करनी चाहिये। तात! वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने जो अत्‍यन्‍त भयंकर दुर्वचन कहा है, वह मेरे हृदय को मथ रहा है, ठीक उसी तरह, जैसे अग्नि प्रकट करने की इच्‍छा वाला पुरुष अरणीकाष्ठ का मन्‍थन करता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टसप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 13-14 का हिन्दी अनुवाद)

इससे बढ़कर महान् दु:ख की बात मैं अपने लिये तीनों लोकों में और कुछ नहीं मानती हूँ। इसमें संदेह नहीं कि कटुवचन मर्मस्‍थलों को विदीर्ण करेन वाला होता है। कटुवादी मनुष्‍यों से उनके सगे-सम्‍बन्‍धी और मित्र भी प्रेम नहीं करते हैं। जो श्रीहीन होकर शत्रुओं की चमकती हुई लक्ष्‍मी की उपासना करता है, उस मनुष्‍य का तो मर जाना ही अच्‍छा है; ऐसा विद्वान् पुरुष अनुभव करते हैं। नीच मनुष्‍यों के संग से मनुष्‍य धीरे-धीरे अपमानित हो जाता है। मुख से कटुवचनरूपी बाण छूटते हैं, उससे आहत होकर मनुष्‍य रात-दिन शोक में डूबा रहता है। शस्त्र, विष और अग्नि से प्राप्त होने वाला दु:ख शनै:-शनै: अनुभव में आता है (परंतु कटुवचन तत्‍काल ही अत्‍यन्‍त कष्ट देने लगता है)। अत: विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह दूसरों पर वाग्‍बाण न छोड़े। बाण से बिंधा हुआ वृक्ष और फरसे से काटा हुआ जंगल फिर पनप जाता है, परंतु वाणी द्वारा जो भयानक कटु वचन निकलता है, उससे घायल हुए हृदय का घाव फि‍र नहीं भरता।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

अस्सीवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अशीतितम अध्‍याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

"शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना तथा उसे छोड़कर जाने के लिये उद्यत होना और वृषपर्वा के आदेश से शर्मिष्ठा का देवयानी की दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानी को संतुष्ट करना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! देवयानी की बात सुनकर भृगुश्रेष्ठ शुक्राचार्य बड़े क्रोध में भरकर वृषपर्वा के समीप गये। वह राजसिंहासन पर बैठा हुआ था। शुक्राचार्य जी ने बिना कुछ सोचे-विचारे उससे इस प्रकार कहना आरम्‍भ किया,,

शुक्राचार्य जी बोले ;- ‘राजन! जो अधर्म किया जाता है, उसका फल तुरंत नहीं मिलता। जैसे गाय की सेवा करने पर धीरे-धीरे कुछ काल के बाद वह ब्‍याती और दूध देती है अथवा धरती को जोत-बोकर बीज डालने के कुछ काल के बाद पौधा उगता और यथा समय फल देता है, उसी प्रकार किया जाने वाला अधर्म धीरे-धीरे कर्ता की जड़ काट देता है। यदि वह (पाप से उपार्जित द्रव्‍य का) दुष्‍परिणाम अपने ऊपर नहीं दिखायी देता तो उस अन्‍यायोपार्जित द्रव्‍य का उपभोग करने के कारण पुत्रों अथवा नाती-पोतों पर अवश्‍य प्रकट होता है। जैसे खाया हुआ गरिष्ठ अन्न तुरत नहीं तो कुछ देर बाद अवश्‍य ही पेट में उपद्रव करता है, उसी प्रकार किया हुआ पाप भी निश्चय ही अपना फल देता है।

राजन! अंगिरा के पौत्र कच विशुद्ध ब्राह्मण हैं। वे स्‍वाध्‍याय-परायण, हितैषी, क्षमावान् और जितेन्द्रिय हैं, स्‍वाभाव से ही निष्‍पाप और धर्मज्ञ हैं तथा उन दिनों मेरे घर में रहकर निरन्‍तर मेरी सेवा में संलग्‍न थे, परंतु तुमने उनका बार-बार वध करवाया था। वृषपर्वन! ध्‍यान देकर मेरी यह बात सुन लो, तुम्‍हारे द्वारा पहले वध के अयोग्‍य ब्राह्मण का वध किया गया है और अब मेरी पुत्री देवयानी का भी वध करने के लिये उसे कुऐं में ढकेला गया है। इन दोनों हत्‍याओं के कारण मैं तुमको और तुम्‍हारे भाई-बन्‍धुओं का त्‍याग दूंगा। राजन्! तुम्‍हारे राज्‍य में और तुम्‍हारे साथ मैं एक क्षण भी नहीं ठहर सकूंगा। दैत्‍यराज! बड़े आश्‍चर्य की बात है कि तुमने मुझे मिथ्‍यावादी समझ लिया। तभी तो तुम अपने इस दोष को दूर नहीं करते और लापरवाही दिखाते हो’।

वृषपर्वा बोले ;- ब्रह्मन्! यदि मैं शर्मिष्ठा से देवयानी को पिटवाता या तिरस्‍कृत करवाता होऊं तो इस पाप से मुझे सद्गति न मिले। भृगुनन्‍दन! आप पर अधर्म अथवा मिथ्‍या भाषण दोष मैंने कभी लगाया हो, यह मैं नहीं जानता। आप में तो सदा धर्म और सत्‍य प्रतिष्ठित हैं। अत: आप हम लोगों पर कृपा करके प्रसन्न होइये। भार्गव! यदि आप हमें छोड़कर चले जाते हैं तो हम सब लोग समुद्र में समा जायंगे; हमारे लिये दूसरी कोई गति नहीं है।

शुक्राचार्य ने कहा ;- असुरों! तुम लोग समुद्र में घुस जाओ अथवा चारों दिशाओं में भाग जाओ; मैं अपनी पुत्री के प्रति किया गया अप्रिय बर्ताव नहीं सह सकता; क्‍योंकि वह मुझे अत्‍यन्‍त प्रिय है। तुम देवयानी को प्रसन्न करो, क्‍योंकि उसी में मेरे प्राण बसते हैं। उसके प्रसन्न हो जाने पर इन्‍द्र के पुरोहित बृहस्‍पति की भाँति मैं तुम्‍हारे योगक्षेम का वहन करता रहूंगा। 

वृषपर्वा बोले ;- भृगुनन्‍दन! असुरेश्वरों के पास इस भूतल पर जो कुछ भी सम्‍पत्ति तथा हाथी-घोड़े और गाय आदि पशुधन है, उसके और मेरे भी आप ही स्‍वामी हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टसप्ततितम अध्‍याय के श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद)

शुक्राचार्य ने कहा ;- 'महान् असुर! दैत्‍यराजों का जो कुछ भी धन-वैभव है, यदि उसका स्‍वामी मैं ही हूँ तो उसके द्वारा इस देवयानी को प्रसन्न करो।' 

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शुक्राचार्य के ऐसा कहने पर वृषपर्वा ने 'तथास्‍तु' कहकर उनकी आज्ञा मान ली। तदनन्‍तर दोनों देवयानी के पास गये और महाकवि शुक्राचार्य ने वृषपर्वा की कही हुई सारी बात कह सुनायी।

तब देवयानी ने कहा ;- तात! यदि आप राजा के धन के स्‍वामी हैं तो आपके कहने से मैं इस बात को नहीं मानूंगी। राजा स्‍वयं कहें, तो मुझे विश्‍वास होगा।

 वृषपर्वा बोले ;- पवित्र मुस्कान वाली देवयानी! तुम जिस वस्‍तु को पाना चा‍हती हो, वह यदि दुर्लभ हो तो भी तुम्‍हें अवश्‍य दूंगा।

देवयानी ने कहा ;- मैं चाहती हूं, शर्मिष्ठा एक हजार कन्‍याओं के साथ मेरी दासी होकर रहे और पिता जी जहाँ मेरा विवाह करें, वहाँ भी वह मेरे साथ जाय। 

यह सुनकर वृषपर्वा ने धाय से कहा ;- धात्री! तुम उठो, जाओ और शर्मिष्ठा को शीघ्र बुला लाओ एवं देवयानी की जो कामना हो, उसे वह पूर्ण करे। कुल के हित के लिये एक मनुष्‍य को त्‍याग दे। गांव के भले के लिये एक कुल को छोड़ दे। जनपद के लिये एक गांव की उपेक्षा कर दे और आत्‍म कल्‍याण के लिये सारी पृथ्‍वी को त्‍याग दे।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- तब धाय ने शर्मिष्ठा के पास जाकर कहा,, 

धाय ने कहा ;- 'भद्रे शर्मिष्ठे! उठो और अपने जाति भाइयों को सुख पहुँचाओ। पापरहित राजकुमारी! आप बाबा शुक्राचार्य देवयानी के कहने से अपने शिष्‍यों-यजमानों को त्‍याग रहे हैं। अत: देवयानी की जो कामना हो, वह तुम्‍हें पूर्ण करनी चाहिये’। शर्मिष्ठा बोली- यदि इस प्रकार देवयानी के लिये ही शुक्राचार्य जी मुझे बुला रहे हैं तो देवयानी जो कुछ चाहती है, वह सब आज से मैं करुंगी। मेरे अपराध से शुक्राचार्य जी न जायं और देवयानी भी मेरे कारण अन्‍यत्र जाने का विचार न करे।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर पिता की आज्ञा से राजकुमारी शर्मिष्ठा शिबिका पर आरुढ़ हो तुरंत राजधानी से बाहर निकली। उस समय वह एक सहस्र कन्‍याओं से घिरी हुई थी। 

शर्मिष्ठा बोली ;- देवयानी! मैं एक सहस्र दासियों के साथ तुम्‍हारी दासी बनकर सेवा करूंगी और तुम्‍हारे पिता जहाँ भी तुम्‍हारा ब्‍याह करेंगे, वहाँ तुम्‍हारे साथ चलूंगी। 

देवयानी ने कहा ;- अरी! मैं तो स्‍तुति करने वाले और दान देने वाले भिक्षुक की पुत्री हूँ और तुम उस बड़े बाप की बेटी हो, जिसकी मेरे पिता स्‍तुति करते हैं; फि‍र मेरी दासी बनकर कैसे रहोगी।

शर्मिष्ठा बोली ;- जिस किसी उपाय से सम्‍भव हो, अपने विपद् ग्रस्‍त जाति-भाइयों को सुख पहुँचाना चाहिये। अत: तुम्‍हारे पिता जहाँ तुम्‍हें देंगे, वहाँ भी मैं तुम्‍हारे साथ चलूंगी। 

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- नृपेश्रेष्ठ! जब वृषपर्वा की पुत्री ने दासी होने की प्रतिज्ञा कर ली, तब देवयानी ने अपने पिता से कहा।

 देवयानी बोली ;- पिता जी! अब मैं नगर में प्रवेश नहीं करूँगी। द्विजश्रेष्ठ! अब मुझे विश्‍वास हो गया कि आपका विज्ञान और आपकी विद्या का बल अमोघ है। 

वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! अपनी पुत्री देवयानी के ऐसा कहने पर महायशस्‍वी द्विजश्रेष्ठ शुक्राचार्य ने समस्‍त दानवों से पूजित एवं प्रसन्न होकर नगर में प्रवेश किया।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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