सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
इक्यासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार, राजा ययाति का आगमन, देवयानी की उनके साथ बातचीत तथा विवाह"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- नृपेश्रेष्ठ! तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात उत्तम वर्ण वाली देवयानी फिर उसी वन में विहार के लिये गयी। उस समय उसके साथ एक हजार दासियों सहित शर्मिष्ठा भी साथ में उपस्थित थी। वन के उसी प्रदेश में जाकर वह उन समस्त सखियों के साथ अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक इच्छानुसार विचरने लगी। वे सभी किशोरियां वहाँ भाँति-भाँति के खेल खेलती हुई आनन्द में मग्न हो गयीं। वे कभी वासन्तिक पुष्पों के मकरन्द का पान करतीं, कभी नाना प्रकार के भोज्य पदार्थों का स्वाद लेतीं और कभी फल खाती थीं। इसी समय नहुषपुत्र राजा ययाति पुन: शिकार खेलने के लिये दैवेच्छा से उसी स्थान पर आ गये। वे परिश्रम करके कारण अधिक थक गये थे और जल पीना चाहते थे। उन्होंने देवयानी, शर्मिष्ठा तथा अन्य युवतियों को भी देखा। वे सभी दिव्य आभूषणों से विभूषित हो पीने योग्य रस का पान और भाँति-भाँति की क्रीड़ाऐं कर रही थीं। राजा ने पवित्र मुस्कान वाली देवयानी को वहाँ समस्त आभूषणों से विभूषित परमसुन्दर दिव्य आसन पर बैठी हुई देखा। उसके रुप की कहीं तुलना नहीं थी। वह सुन्दरी उन स्त्रियों के मध्य बैठी हुई थी और शर्मिष्ठा द्वारा उसकी चरण सेवा की जा रही थी।
ययाति ने पूछा ;- दो हजार कुमारी सखियों से घिरी हुई कन्याओं! मैं आप दोनों के गोत्र और नाम पूछ रहा हूँ। शुभे! आप दोनों अपना परिचय दें।
देवयानी बोली ;- महाराज! मैं स्वयं परिचय देती हूं, आप मेरी बात सुनें। असुरों के जो सुप्रसिद्ध गुरु शुक्राचार्य हैं, मुझे उन्हीं की पुत्री जानिये। यह दानवराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा मेरी सखी और दासी है। मैं विवाह होने पर जहाँ जाऊंगी, वहाँ यह भी जायगी।
ययाति बोले ;- सुन्दरी! यह असुरराज की रुपवती कन्या सुन्दर भौहों वाली शर्मिष्ठा आपकी सखी और दासी किस प्रकार हुई? यह बताइये। इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्कण्ठा है।
देवयानी बोली ;- नरश्रेष्ठ! सब लोग दैव के विधान का ही अनुसरण करते हैं। इसे भी भाग्य का विधान मानकर संतोष कीजिये। इस विषय की विचित्र घटनाओं को न पूछिये। आपके रुप और वेष राजा के समान हैं और आप ब्राह्मी वाणी (विशुद्ध संस्कृत भाषा) बोल रहे हैं। मुझे बताइये; आपका क्या नाम है, कहाँ से आये हैं और किसके पुत्र हैं?
ययाति ने कहा ;- मैंने ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक सम्पूर्ण वेद का अध्ययन किया है। मैं राजा नहुष का पुत्र हूँ और इस समय स्वयं राजा हूँ। मेरा नाम ययाति है।
देवयानी ने पूछा ;- महाराज! आप किस कार्य से वन के इस प्रदेश में आये हैं? आप जल अथवा कमल लेना चाहते हैं या शिकार की इच्छा से ही आये हैं?
ययाति ने कहा ;- भद्रे! मैं एक हिंसक पशु के मारने के लिये उसका पीछा कर रहा था, इससे बहुत थक गया हूँ और पानी पीने के लिये यहाँ आया हूँ। अत: अब मुझे आज्ञा दीजिये।
देवयानी ने कहा ;- राजन्! आपका कल्याण हो। मैं दो हजार कन्याओं तथा अपनी सेविका शर्मिष्ठा के साथ आपके अधीन होती हूँ। आप मेरे सखा और पति हो जायं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 18-31 का हिन्दी अनुवाद)
ययाति बोले ;- शुक्रनन्दिनी देवयानी! आपका भला हो। भाविनी! मैं आपके योग्य नहीं हूँ। क्षत्रिय लोग आपके पिता से कन्यादान लेने के अधिकारी नहीं हैं।
देवयानी ने कहा ;- नहुषनन्दन! ब्राह्मण से क्षत्रिय जाति और क्षत्रिय से ब्राह्मण जाति मिली हुई है। आप राजर्षि के पुत्र हैं और स्वयं भी राजर्षि हैं। अत: मुझसे विवाह कीजिये।
ययाति बोले ;- बरांगने! एक ही परमेश्वर के शरीर से चारों वर्णों की उत्पत्ति हुई है; परंतु सबके धर्म और शौचाचार अलग-अलग हैं। ब्राह्मण उन सब वर्णों में श्रेष्ठ हैं।
देवयानी ने कहा ;- नहुषकुमार! नारी के लिये पाणिग्रहण एक धर्म है। पहले किसी भी पुरुष ने मेरा हाथ नहीं पकड़ा था। सबसे पहले आप ही ने मेरा हाथ पकड़ा था। इसलिये आप ही का मैं पतिरूप में वरण करती हूँ। मैं मन को वश में रखने वाली स्त्री हूँ। आप-जैसे राजर्षि कुमार अथवा राजर्षि द्वारा पकड़े गये मेरे हाथ का स्पर्श अब दूसरा पुरुष कैसे कर सकता है।
ययाति बोले ;– देवी! विज्ञ पुरुष को चाहिये कि वह ब्राह्मण को क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प तथा सब ओर से प्रज्वलित अग्नि से भी अधिक दुर्धर्ष एवं भयंकर समझे।
देवयानी ने कहा ;- पुरुषप्रवर! ब्राह्मण विषधर सर्प और सब ओर से प्रज्वलित होने वाली अग्नि से भी दुर्धर्ष एवं भयंकर है, यह बात आपने कैसे कही?
ययाति बोले ;- भद्रे! सर्प एक को ही मारता है, शस्त्र से भी एक ही व्यक्ति का वध होता है; परंतु क्रोध में भरा हुआ ब्राह्मण समस्त राष्ट्र और नगर का भी नाश कर देता है। भीरू! इसीलिये मैं ब्राह्मण को अधिक दुर्धर्ष मानता हूँ। अत: जब तक आपके पिता आपको मेरे हवाले न कर दें, तब तक मैं आपसे विवाह नहीं करूंगा।
देवयानीने कहा ;- राजन्! मैंने आपका वरण कर लिया है, अब आप मेरे पिता के देने पर ही मुझसे विवाह करें। आप स्वयं तो उनसे याचना करते नहीं हैं; उनके देने पर ही मुझे स्वीकार करेंगे।
अत: आपको उनके कोप का भय नहीं है। राजन्! दो घड़ी ठहर जाइये। मैं अभी पिता के पास संदेश भेजती हूँ। धाय! शीघ्र जाओ और मेरे ब्रह्म तुल्य पिता को यहाँ बुला ले आओ। उनके यह भी कह देना कि देवयानी ने स्वयंवर की विधि से नहुषनन्दन राजा ययाति का पति रुप में वरण किया है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार देवयानी ने तुरंत धाय को भेजकर अपने पिता को संदेश दिया। धाय ने जाकर शुक्राचार्य से सब बातें ठीक-ठीक बता दीं। सब समाचार सुनते ही शुक्राचार्य ने वहाँ आकर राजा को दर्शन दिया। विप्रवर शुक्राचार्य को आया देख राजा ययाति ने उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनम्र भाव से खड़े हो गये।
देवयानी बोली ;- तात! ये नहुषपुत्र राजा ययाति हैं। इन्होंने संकट के समय मेरा हाथ पकड़ा था। आपको नमस्कार है। आप मुझे इन्हीं की सेवा में समर्पित कर दें। मैं इस जगत् में इनके सिवा दूसरे किसी पति का वरण नहीं करुंगी।
शुक्राचार्य ने कहा ;- वीर नहुषनन्दन! मेरी इस लाडली पुत्री ने तुम्हें पति रुप में वरण किया है; अत: मेरी इस दी हुई कन्या को तुम अपनी पटरानी के रूप में ग्रहण करो।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकाशीतितम अध्याय के श्लोक 32-37 का हिन्दी अनुवाद)
ययाति बोले ;- भार्गव ब्रह्मन्! मैं आपसे यह वर मांगता हूँ कि इस विवाह में यह प्रत्यक्ष दीखने वाला वर्णसंकरजनित महान अधर्म मेरा स्पर्श न करे।
शुक्राचार्य ने कहा ;- राजन्! मैं तुम्हें अधर्म से मुक्त करता हूं; तुम्हारी जो इच्छा हो वर मांग लो। इस विवाह को लेकर मन में ग्लानि नहीं होनी चाहिये। मैं तुम्हारे सारे पाप को दूर करता हूँ। तुम सुन्दरी देवयानी को धर्मपूर्वक अपनी पत्नी बनाओ और इसके साथ रहकर अतुल सुख एवं प्रसन्नता प्राप्त करो। महाराज! वृषपर्वा की पुत्री यह कुमारी शर्मिष्ठा भी तुम्हें समर्पित है। इसका सदा आदर करना, किंतु इसे अपनी सेज पर कभी न बुलाना। तुम्हारा कल्याण हो।
इस शर्मिष्ठा को एकान्त में बुलाकर न तो इससे बात करना और न इसके शरीर का स्पर्श ही करना। अब तुम विवाह करके इसे अपनी पत्नी बनाओ। इससे तुम्हें इच्छानुसार फल की प्राप्ति होगी।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शुक्राचार्य के ऐसा कहने पर राजा ययाति ने उनकी परिक्रमा की और शास्त्रोक्त विधि से मंगलमय विवाह-कार्य सम्पन्न किया। शुक्राचार्य देवयानी-जैसी उत्तम कन्या शर्मिष्ठा और दो हजार कन्याओं तथा महान् वैभव को पाकर दैत्यों एवं शुक्राचार्य से पूजित हो, उन महात्मा की आज्ञा ले नृपश्रेष्ठ ययाति बड़े हर्ष के साथ अपनी राजधानी को गये।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
बयासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"ययाति से देवयानी को पुत्र-प्राप्ति; ययाति और शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन और उनसे एक पुत्र का जन्म"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ययाति की राजधानी महेन्द्रपुरी (अमरावती) के समान थी। उन्होंने वहाँ आकर देवयानी को तो अन्त:पुर में स्थान दिया और उसी की अनुमति से अशोक वाटिका के समीप एक महल बनवाकर उसमें वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा को उसकी एक हजार दासियों के साथ ठहराया और उन सबके लिये अन्न, वस्त्र, तथा पेय आदि की अलग-अलग व्यवस्था के शर्मिष्ठा का समुचित सत्कार किया। देवयानी ययाति के साथ परमरमणीय एवं मनोरम अशोक वाटिका में आती और शर्मिष्ठा के साथ वन-विहार करके उसे वहीं छोड़कर स्वयं राजा के साथ महल में चली जाती थी। इस तरह वह बहुत समय तक प्रसन्नापूर्वक आनन्द भोगती रही। नहुषकुमार राजा ययाति ने देवयानी के साथ बहुत वर्षों तक देवताओं की भाँति विहार किया। वे उसके साथ बहुत प्रसन्न और सुखी थे। ॠतुकाल आने पर सुन्दरी देवयानी ने गर्भधारण किया और समयानुसार प्रथम पुत्र को जन्म दिया। इस प्रकार एक हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर युवावस्था को प्राप्त हुई वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने अपने को रजस्वलावस्था में देखा और चिन्तामग्न हो गयी। स्नान करके शुद्ध हो समस्त आभूषणों से विभूषित हुई शर्मिष्ठा सुन्दर पुष्पों के गुच्छों से भरी अशोक-शाखा का आश्रय लिये खड़ी थी।
दर्पण में अपना मुंह देखकर उसके मन में पति के दर्शन की लालसा जाग उठी और वह शोक एवं मोह से युक्त हो इस प्रकार बोली,,
शर्मिष्ठा ने बोली ;- ‘हे अशोकवृक्ष! जिनका हृदय शोक में डूबा हुआ है, उन सबके शोक को तुम दूर करने वाले हो। इस समय मुझे प्रियतम का दर्शन कराकर अपने ही जैसे नाम वाली बना दो।’
ऐसा कहकर शर्मिष्ठा फिर बोली ;- ‘मुझे ॠतुकाल प्राप्त हो गया; किंतु अभी तक मैंने पति का वरण नहीं किया है। यह कैसी परिस्थित आ गयी। अब क्या करना चाहिये अथवा क्या करने से सुकृत (पुण्य) होगा। देवयानी तो पुत्रवती हो गयी; किंतु मुझे जो जवानी मिली है, वह व्यर्थ जा रही है। जिस प्रकार उसने पति का वरण किया है, उसी तरह मैं भी उन्हीं महाराज का क्यों न पति के रुप में वरण कर लूं। मेरे याचना करने पर राजा मुझे पुत्र रुप फल दे सकते हैं, इस बात का मुझे पूरा विश्वास है; परंतु क्या वे धर्मात्मा नरेश इस समय मुझे एकान्त में दर्शन देंगे?’
शर्मिष्ठा इस प्रकार का विचार कर ही रही थी कि राजा ययाति उस समय दैववश महल से बाहर निकले और अशोक वाटिका के निकट शर्मिष्ठा को देखकर ठहर गये। मनोहर हास वाली शर्मिष्ठा ने उन्हें एकान्त में अकेला देख आगे बढ़कर उनकी अगवानी की तथा हाथ जोड़कर राजा से यह बात कही।
शर्मिष्ठा ने कहा ;- नहुषनन्दन! चन्द्रमा, इन्द्र, विष्णु, यम, वरुण अथवा आपके महल कौन किसी स्त्री की ओर दृष्टि डाल सकता है? (अतएव यहाँ मैं सर्वथा सुरक्षित हूँ) महाराज! मेरे रुप, कुल और शील कैसे हैं, यह तो आप सदा से ही जानते हैं। मैं आज आपको प्रसन्न करके यह प्रार्थना करती हूँ कि मुझे ॠतुदान दीजिये- मेरे ॠतुकाल को सफल बनाइये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वयशीतितम अध्याय के श्लोक 14-27 का हिन्दी अनुवाद)
ययाति ने कहा ;- शर्मिष्ठे! तुम दैत्यराज की सुशील और निर्दोष कन्या हो। मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता हूँ। तुम्हारे शरीर अथवा रुप में सुई की नोंक बराबर भी ऐसा स्थान नहीं है, जो निन्दा के योग्य हो। परंतु क्या करूं; जब मैंने देवयानी के साथ विवाह किया था, उस समय कविपुत्र शुक्राचार्य ने मुझसे स्पष्ट कहा था कि ‘वृषपर्वा की पुत्री इस शर्मिष्ठा को अपनी सेज पर न वुलाना’।
शर्मिष्ठा ने कहा ;- राजन्! परिहास युक्त वचन असत्य हों तो भी वह हानिकारक नहीं होता। अपनी स्त्रियों के प्रति, विवाह के समय, प्राण संकट के समय तथा सर्वस्व का अपहरण होते समय यदि कभी विवश होकर असत्य भाषण करना पड़े तो वह दोष कारक नहीं होता। ये पांच प्रकार के असत्य पाप शून्य बताये गये हैं। महाराज! किसी निर्दोष प्राणी का प्राण बचाने के लिये गवाही देते समय किसी के पूछने पर अन्यथा (असत्य) भाषण करने वाले के यदि कोई पतित कहता है तो उसका कथन मिथ्या है। परंतु जहाँ अपने और दूसरे दोनों के ही प्राण बचाने का प्रसंग उपस्थित हो, वहाँ केवल अपने प्राण बचाने के लिये मिथ्या बोलने वाले का असत्य भाषण उसका नाश कर देता है।
ययाति बोले ;- देवि! सब प्राणियों के लिये राजा ही प्रमाण हैं। वह यदि झूठ बोलने लगे, तो उसका नाश हो जाता है। अत: अर्थ-संकट में पड़ने पर भी मैं झूठा काम नहीं कर सकता।
शर्मिष्ठा ने कहा ;- 'राजन्! अपना पति और सखी का पति दोनों बराबर माने गये हैं। सखी के साथ ही उसकी सेवा में रहने वाली दूसरी कन्याओं का भी विवाह हो जाता है। मेरी सखी ने आपको अपना पति बनाया है, अत: मैंने भी बना लिया। राजन्! महर्षि शुक्राचार्य ने देवयानी के साथ मुझे भी यह कहकर आपको समर्पित किया है कि तुम इसका भी पालन-पोषण और आदर करना। आप उनके वचन को सुवर्ण, मणि, रत्न, वस्त्र, आभूषण, गौ और भूमि आदि दान करते हैं, वह बाह्य दान कहा गया है। वह शरीर के आश्रित नहीं है। पुत्रदान और शरीर दान अत्यन्त कठिन है। नहुषनन्दन! शरीर दान से उपर्युक्त सब दान सम्पन्न हो जाता है। राजन्! जिसकी जैसी इच्छा होगी उस-उस पुरुष को मैं मुंहमांगी वस्तु दूंगा।’
ऐसा कहकर आपने नगर में जो तीनों समय दान की घोषणा करायी है, वह मेरी प्रार्थना ठुकरा देने पर झूठी सिद्ध होगी। वह सारी घोषणा ही व्यर्थ समझी जायगी। राजेन्द्र! आप कुबेर की भाँति अपनी उस घोषणा को सत्य कीजिये।
ययाति बोले ;- याचकों को उनकी अभीष्ट वस्तुएं दी जायं, ऐसा मेरा व्रत है। तुम भी मुझसे अपने मनोरथ की याचना करती हो; अत: बताओ मैं तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूं?
शर्मिष्ठा ने कहा ;- राजन्! मुझे अधर्म से बचाइये और धर्म का पालन कराइये। मैं चाहती हूं, आपसे संतानवती होकर इस लोक में उत्तम धर्म का आचरण करूं। महाराज! तीन व्यक्ति धन के अधिकारी नहीं हैं- पत्नी, दास और पुत्र। ये जो धन प्राप्त करते हैं वह उसी का होता है जिसके अधिकार में ये हैं। अर्थात पत्नी के धन पर पति का , सेवक के धन पर स्वामी का और पुत्र के धन पर पिता का अधिकार होता है। मैं देवयानी की सेविका हूँ और वह आपके अधीन है; अत: राजन्! वह और मैं दोनो ही आपके सेवन करने योग्य हैं। अत: मेरा सेवन कीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! शर्मिष्ठा के ऐसा कहने पर राजा ने उसकी बातों को ठीक समझा। उन्होंने शर्मिष्ठा का सत्कार किया और धर्मानुसार उसे अपनी भार्या बनाया। फिर शर्मिष्ठा के साथ समागम किया और इच्छानुसार कामोपभोग करके एक दूसरे का आदर-सत्कार करने के पश्चात दोनों जैसे आये थे वैसे ही अपने-अपने स्थान पर चले गये। सुन्दर भौंह तथा मनोहर मुस्कान वाली शर्मिष्ठा ने उस समागम में नृपश्रेष्ठ ययाति से पहले-पहल गर्भ धारण किया। जनमेजय! तदनन्तर समय आने पर कमल के समान नेत्रों वाली शर्मिष्ठा ने देव बालक- जैसे सुन्दर एक कमलनयन कुमार को उत्पन्न किया।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
तिरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"देवयानी और शर्मिष्ठा का संवाद, ययाति से शर्मिष्ठा के पुत्र होने की बात जानकर देवयानी का रूठकर पिता के पास जाना, शुक्राचार्य का ययाति को बूढ़े होने का शाप देना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! पवित्र मुस्कान वाली देवयानी ने जब सुना कि शर्मिष्ठा के पुत्र हुआ है, तब वह चिन्ता करने लगी। वह शर्मिष्ठा के पास गयी और इस प्रकार बोली।
देवयानी ने कहा ;- 'सुन्दर भौंहों वाली शर्मिष्ठे! तुमने कामलोलुप होकर यह कैसा पाप कर डाला?'
शर्मिष्ठा बोली ;- सखी! कोई धर्मात्मा ऋषि आये थे, जो वेदों के पारंगत विद्वान थे। मैंने उन वरदायक ऋषि से धर्मानुसार काम की याचना की। शुचिस्मिते! मैं न्यायविरुद्ध काम का आचरण नहीं करती। उन ऋषि से ही मुझे संतान पैदा हुई, यह तुमसे सत्य कहती हूँ।
देवयानी ने कहा ;- भीरू! यदि ऐसी बात है, तो बहुत अच्छा हुआ। क्या उन द्विज के गोत्र, नाम और कुल का कुछ परिचय मिला है? मैं उनको जानना चाहती हूँ।
शर्मिष्ठा बोली ;- शुचिस्मिते! वे अपने तप और तेज से सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे थे। उन्हें देखकर मुझे कुछ पूछने का साहस ही नहीं हुआ।
देवयानी ने कहा ;- शर्मिष्ठे! यदि ऐसी बात है; यदि तुमने ज्येष्ठ और श्रेष्ठ द्विज से संतान प्राप्त की है तो तुम्हारे ऊपर मेरा क्रोध नहीं रहा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ये दोनों आपस में इस प्रकार बातें करके हंस पड़ी। देवयानी को प्रतीत हुआ कि शर्मिष्ठा ठीक कहती है; अत: चुपचाप महल में चली गयी। राजा ययाति ने देवयानी के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम थे यदु और तुर्वसु। वे दोनों दूसरे इन्द्र और विष्णु की भाँति प्रतीत होते थे। उन्हीं राजर्षि से वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने तीन पुत्रों को जन्म दिया, जिनके नाम थे- द्रह्यु, अनु और पुरु।
राजन्! तदनन्तर किसी समय पवित्र मुस्कान वाली देवयानी ययाति के साथ एकान्त वन में गयी। वहाँ उसने देवताओं के समान सुन्दर रूप वाले कुछ बालकों को निर्भय होकर क्रीड़ा करते देखा। उन्हें देखकर आश्चर्यचकित हो वह इस प्रकार बोली।
देवयानी ने कहा ;- राजन्! ये देव बालकों के तुल्य शुभलक्षणसम्पन्न कुमार किसके हैं? तेज और रूप में तो ये मुझे आप ही के समान जान पड़ते हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा से इस प्रकार पूछकर उसने उन कुमारों से प्रश्न किया।
देवयानी ने पूछा ;- बच्चों! तुम्हारे कुल का क्या नाम है? तुम्हारे पिता कौन हैं? यह मुझे ठीक-ठीक बताओ। मैं तुम्हारे पिता का नाम सुनना चाहती हूँ। सुन्दरी देवयानी के इस प्रकार पूछने पर उन बालकों ने पिता का परिचय देते हुए तर्जनी अंगुली से उन्हीं नृपश्रेष्ठ ययाति को दिखा दिया और शर्मिष्ठा को अपनी माता बताया।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- ऐसा कहकर वे सब बालक एक साथ राजा के समीप आ गये; परंतु उस समय देवयानी के निकट राजा ने उनका अभिनन्दन नहीं किया- उन्हें गोद में नहीं उठाया। तब वे बालक रोते हुए शर्मिष्ठा के पास चले गये। उनकी बातें सुनकर राजा ययाति लज्जित- से हो गये। उन बालकों का राजा के प्रति विशेष प्रेम देखकर देवयानी सारा रहस्य समझ गयी और शर्मिष्ठा से इस प्रकार बोली।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 19-34 का हिन्दी अनुवाद)
देवयानी बोली ;- भामिनि! तुम तो कहती थीं कि मेरे पास कोई ऋषि आया करते हैं। यह बहाना लेकर तुम राजा ययाति को ही अपने पास आने के लिये प्रोत्साहन देती रहीं। मैंने पहले ही कह दिया था कि तुमने कोई पाप किया है। शर्मिष्ठे! तुमने मेरे अधीन होकर भी मुझे अप्रिय लगने वाला बर्ताव क्यों किया? तुम फिर उसी असुर-धर्म पर उतर आयीं। मुझसे डरती भी नहीं हो?
शर्मिष्ठा बोली ;- मनोहर मुस्कान वाली सखी! मैंने जो ऋषि कहकर अपने स्वामी का परिचय दिया था, सो सत्य ही है। मैं न्याय और धर्म के अनुकूल आचरण करती हूं, अत: तुमसे नहीं डरती। जब तुमने पति का वरण किया था, उसी समय मैंने भी कर लिया। शोभने! जो सखी का स्वामी होता है, वही उसके अधीन रहने वाली अन्य अविवाहिता सखियों का भी धर्मत: पति होता है। तुम ज्येष्ठ हो, ब्राह्मण की पुत्री हो, अत: मेरे लिये माननीय एवं पूजनीय हो; परंतु ये राजर्षि मेरे लिये तुमसे भी अधिक पूजनीय हैं। क्या यह बात तुम नहीं जानतीं? शुभे! तुम्हारे पिता और मेरे गुरु (शुक्राचार्य जी) ने हम दानों को एक ही साथ महाराज की सेवा में समर्पित किया है। तुम्हारे पति और पूजनीय महाराज ययाति भी मुझे पालन करने योग्य मानकर मेरा पोषण करते हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- शर्मिष्ठा का यह वचन सुनकर ,,
देवयानी ने कहा ;- ‘राजन्! अब मैं यहाँ नहीं रहूंगी। आपने मेरा अत्यन्त अप्रिय किया है’। ऐसा कहकर तरुणी देवयानी आंखों में आंसू भरकर सहसा उठी और तुरंत ही शुक्राचार्य जी के पास जाने के लिये वहाँ से चल दी। यह देख उस समय राजा ययाति व्यथित हो गये। वे व्याकुल हो देवयानी की समझाते हुए उसके पीछे-पीछे गये, किंतु वह नहीं लौटी। उसकी आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं। वह राजा से कुछ न बोलकर केवल नेत्रों से आंसू बहाये जाती थी। कुछ ही देर में वह कविपुत्र शुक्राचार्य के पास जा पहुँची। पिता को देखती ही वह प्रणाम करके उनके सामने खड़ी हो गयी।
तदनन्तर राजा ययाति ने भी शुक्राचार्य की वन्दना की।
देवयानी ने कहा ;- पिता जी! अधर्म ने धर्म को जीत लिया। नीच की उन्नति हुई और उच्च की अवनति। वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा मुझे लांघकर आगे बढ़ गयी। इन महाराज ययाति से ही उसके तीन पुत्र हुए हैं, किंतु तात! मुझ भाग्यहीना के दो ही पुत्र हुए हैं। यह मैं आपसे ठीक बता रही हूँ। भृगुश्रेष्ठ! ये महाराज धर्मज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हैं; किंतु इन्होंने ही मार्यादा का उल्लंघन किया है। कविनन्दन! यह आपसे यथार्थ कह रही हूँ।
शुक्राचार्य ने कहा ;- महाराज! तुमने धर्मज्ञ होकर अधर्म को प्रिय मानकर उसका आचरण किया है। इसलिये जिसको जीतना कठिन है, वह वृद्धावस्था तुम्हें शीघ्र ही धर दबायेगी।
ययाति बोले ;- भगवन्! दानवराज की पुत्री मुझसे ॠतुदान मांग रही थी; अत: मैंने धर्म-सम्मत मानकर यह कार्य किया, किसी दूसरे विचार से नहीं। ब्रह्मन्! जो पुरुष न्याययुक्त ॠतु की याचना करने वाली स्त्री को ॠतु दान नहीं देता, वह ब्रह्मवादी विद्वानों द्वारा भ्रूणहत्या करने वाला कहा जाता है। जो न्यायसम्मत कामना से युक्त गम्या स्त्री के द्वारा एकान्त में प्रार्थना करने पर उसके साथ समागम नहीं करता, वह धर्मशास्त्र में विद्वानों द्वारा गर्भ की हत्या करने वाला बताया जाता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्र्यशीतितम अध्याय के श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद)
ब्रह्मन्! मेरा यह व्रत है कि मुझसे कोई जो भी वस्तु मांगे, उसे वह अवश्य दे दूंगा। आपके ही द्वारा मुझे सौंपी हुई शर्मिष्ठा इस जगत् में दूसरे किसी पुरुष को अपना पति बनाना नहीं चाहती थी। अत: उसकी इच्छा पूर्ण करना धर्म समझकर मैंने वैसा किया है। आप इसके लिये मुझे क्षमा करें। भृगुश्रेष्ठ! इन्हीं सब कारणों का विचार करके अधर्म के भय से उद्विग्न हो मैं शर्मिष्ठा के पास गया था।
शुक्राचार्य ने कहा ;- राजन्! तुम्हें इस विषय में मेरे आदेश की भी प्रतीक्षा करनी चाहिये थी; क्योंकि तुम मेरे अधीन हो। नहुषनन्दन! धर्म में मिथ्या आचरण करने वाले पुरुष को चोरी का पाप लगता है।
वैशमपायन जी कहते हैं ;- क्रोध में भरे हुए शुक्राचार्य के शाप देने पर नहुषपुत्र राजा ययाति उसी समय पूर्वावस्था (यौवन) का परित्याग करके तत्काल बूढ़े हो गये।
ययाति बोले ;- भृगुश्रेष्ठ! मैं देवयानी के साथ युवावस्था में रहकर तृप्त नहीं हो सका हूं; अत: ब्रह्मन्! मुझ पर ऐसी कृपा कीजिये, जिससे यह बुढ़ापा मेरे शरीर में प्रवेश न करे।
शुक्राचार्य जी ने कहा ;- भूमिपाल! मैं झूठ नहीं बोलता; बूढे़ तो तुम हो ही गये; किंतु तुम्हें इतनी सुविधा देता हूँ कि यदि चाहो तो किसी दूसरे से जवानी लेकर इस बुढ़ापा को उसके शरीर में डाल सकते हो।
ययाति बोले ;- ब्रह्मन्! मेरा जो पुत्र अपनी युवावस्था मुझे दे वही पुण्य और कीर्ति का भागी होने के साथ ही मेरे राज्य का भी भागी हो। आप इसका अनुमोदन करें।
शुक्राचार्य ने कहा ;- नहुषनन्दन! तुम भक्तिभाव से मेरा चिन्तन करके अपनी वृद्धावस्था का इच्छानुसार दूसरे के शरीर में संचार कर सकोगे। उस दशा में तुम्हें पाप भी नहीं लगेगा। जो पुत्र तुम्हें (प्रसन्नतापूर्वक) अपनी युवावस्था देगा, वही राजा होगा, साथ ही दीर्घायु, यशस्वी तथा अनेक सन्तानों से युक्त होगा।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक तिरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
चौरासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"ययाति का अपने पुत्र यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु और अनु से अपनी युवावस्था देकर वृद्धावस्था लेने के लिये आग्रह और उनके अस्वीकार करने पर उन्हें शाप देना, फिर अपने पुत्र पुरु को जरावस्था देकर उनकी युवावस्था लेना तथा उन्हें वर प्रदान करना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजा ययाति बुढ़ापा लेकर वहाँ से अपने नगर में आये और अपने ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ पुत्र यदु से इस प्रकार बोले।
ययाति ने कहा ;- 'तात! कविपुत्र शुक्राचार्य के शाप से मुझे बुढ़ापे ने घेर लिया; मेरे शरीर में झुर्रियां पड़ गयीं और बाल सफेद हो गये; किंतु मैं अभी जवानी के भोगों से तृप्त नहीं हुआ हूँ। यदो! तुम बुढ़ापे के साथ मेरे दोष को ले लो और मैं तुम्हारी जवानी के द्वारा विषयों का उपभोग करूं। एक हजार वर्ष पूरे होने पर मैं पुन: तुम्हारी जवानी देकर बुढ़ापे के साथ अपना दोष वापस ले लूंगा।
यदु बोले ;- राजन्! बुढ़ापे में खाने-पीने से अनेक दोष प्रकट होते हैं; अत: मैं आपकी वृद्धावस्था नहीं लूंगा, यही मेरा निश्चित विचार है। महाराज! मैं उस बुढ़ापे को लेने की इच्छा नहीं करता, जिसके आने पर दाढ़ी-मूंछ के बाल सफेद हो जाते हैं; जीवन का आनन्द चला जाता है। वृद्धावस्था एकदम शिथिल कर देती है। सारे शरीर में झुर्रियां पड़ जाती हैं और मनुष्य इतना दुर्बल तथा कृशकाय हो जाता है कि उसकी ओर देखते नहीं बनता। बुढ़ापे में काम-काज करने की शक्ति नहीं रहती, युवतियां तथा जीविका पाने वाले सेवक भी तिरस्कार करते हैं; अत: मैं वृद्धावस्था नहीं लेना चाहता। धर्मज्ञ नरेश्वर! आपके बहुत-से पुत्र हैं, जो आपको मुझसे से भी अधिक प्रिय हैं; अत: बुढ़ापा लेने के लिये किसी दूसरे पुत्र को चुन लीजिये।
ययाति ने कहा ;- तात! मेरे हृदय से उत्पन्न (औरस पुत्र) होकर भी मुझे अपनी युवावस्था नहीं देते; इसलिये तुम्हारी संतान राज्य की अधिकारिणी नहीं होगी। (अब उन्होंने तुर्वसु को बुलाकर कहा-) तुर्वसो! बुढ़ापे के साथ मेरा दोष ले लो। बेटा! मैं तुम्हारी जवानी से विषयों का उपभोग करूंगा। एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर मैं तुम्हें जवानी लौटा दूंगा और बुढ़ापे सहित अपने दोष को वापस ले लूंगा।
तुर्वसु बोले ;- तात! काम-भोग का नाश करने वाली वृद्धावस्था मुझे नहीं चाहिये। वह बल तथा रूप का अन्त कर देती है और बुद्धि एवं प्राणशक्ति का भी नाश करने वाली है।
ययाति ने कहा ;- तुर्वसो! तू मरे हृदय से उत्पन्न होकर भी मुझे अपनी युवावस्था नहीं देता है, इसलिये तेरी संतति नष्ट हो जायेगी। मूढ़! जिनके आचार और धर्म वर्णसंकरों के समान हैं, जो प्रतिलोम संकर जातियों में गिने जाते हैं तथा जो कच्चा मांस खाने वाले एवं चाण्डाल आदि की श्रेणी में हैं, ऐसे लोगों का तू राजा होगा। जो गुरु पत्नियों में आसक्त हैं, जो पशु-पक्षी आदि का सा आचरण करने वाले हैं तथा जिनके सारे आचार-विचार भी पशुओं के समान हैं, तू उन पाप आत्मा मलेच्छों का राजा होगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा ययाति ने इस प्रकार अपने पुत्र तुर्वसु को शाप देकर शर्मिष्ठा के पुत्र द्रुह्यु से यह बात कही। ययाति ने कहा- द्रुह्यो! कान्ति तथा रूप का नाश करने वाली यह वृद्धावस्था तुम ले लो और एक हजार वर्षों के लिये अपनी जवानी मुझे दे दो। हजार वर्ष पूर्ण हो जाने पर मैं पुन: तुम्हारी जवानी तुम्हें दे दूंगा और बुढ़ापे के साथ अपना दोष फिर ले लूंगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुरशीतितम अध्याय के श्लोक 18-34 का हिन्दी अनुवाद)
द्रुह्यु बोले ;- पिता जी! बूढ़ा मनुष्य हाथी, घोड़े और रथ पर नहीं चढ़ सकता; स्त्री का भी उपभोग नहीं कर सकता। उसकी वाणी भी लड़खड़ाने लगती है; अत: मैं वृद्धावस्था नहीं लेना चाहता।
ययाति बोले ;- द्रुह्यो! तू मेरे हृदय से उत्पन्न होकर भी अपनी जवानी मुझे नहीं दे रहा है; इसलिये तेरा प्रिय मनोरथ कभी सिद्ध नहीं होगा। जहाँ घोड़े जुते हुए उत्तम रथों, घोड़ो, हाथियों, पीठकों (पालकियों), गदहों, बकरों, बैलों और शिबिका आदि की भी गति नहीं है, जहाँ प्रतिदिन नाव पर बैठकर ही घूमना-फिरना होगा, ऐसे प्रदेश में तू अपनी सन्तान के साथ चला जायगा और वहाँ तेरे वंश के लोग राजा नहीं, भोज कहलायेंगे।
तदनन्तर ययाति ने अनु से कहा ;- अनो! तुम बुढ़ापे के साथ मेरा दोष ले लो और मैं तुम्हारी जवानी के द्वारा एक हजार वर्ष तक सुख भोगूंगा।
अनु बोले ;- पिता जी! बूढ़ा मनुष्य बच्चों की तरह असमय में भोजन करता है, अपवित्र रहता है तथा समय पर अग्निहोत्र नहीं करता, अत: ऐसी वृद्धावस्था को मैं नहीं लेना चाहता।
ययाति ने कहा ;- अनो! तू मेरे हृदय से उत्तम होकर भी अपनी युवावस्था मुझे नहीं दे रहा है और बुढ़ापे के दोष बतला रहा है, अत: तू वृद्धावस्था के समस्त दोषों को प्राप्त करेगा और तेरी संतान जवान होते ही मर जायगी तथा तू भी बूढ़े-जैसा होकर अग्निहोत्र का त्याग कर देगा।
तत्पश्रचात् ययाति ने पुरु से कहा ;- पूरो! तुम मेरे प्रिय पुत्र हो। गुणों में तुम श्रेष्ठ होओगे। तात! मुझे बुढ़ापे ने घेर लिया; सब अंगों में झुर्रियां पड़ गयीं और सिर के बाल सफेद हो गये। बुढ़ापे के ये सारे चिह्न मुझे एक ही साथ प्राप्त हुए हैं। कविपुत्र शुक्राचार्य के शाप से मेरी यह दशा हुई है; किंतु मैं जवानी के भोगों से अभी तृप्त नहीं हुआ हूँ। पूरो! तुम बुढ़ापे के साथ मेरे दोष को ले लो और मैं तुम्हारी युवावस्था लेकर उसके द्वारा कुछ काल तक विषयभोग करूंगा। एक हजार वर्ष पूरे होने पर मैं तुम्हें पुन: तुम्हारी जवानी दे दूंगा और बुढ़ापे के साथ अपना दोष ले लूंगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- ययाति के ऐसा कहने पर ,,
पूरु ने अपने पिता से विनयपूर्वक कहा ;- ‘महाराज! आप मुझे जैसा आदेश दे रहे हैं, आपके उस वचन का मैं पालन करूंगा। गुरुजनों की आज्ञा पालन मनुष्यों के लिये पुण्य, स्वर्ग तथा आयु प्रदान करने वाला है। गुरु के ही प्रसाद से इन्द्र ने तीनों लोकों का शासन किया है। गुरु स्वरूप पिता की अनुमति प्राप्त करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं को पा लेता है। राजन्! मैं बुढ़ापे के साथ अपना दोष ग्रहण कर लूंगा। आप मुझसे जवानी ले लें और इच्छानुसार विषयों का उपभोग करें। मैं वृद्धावस्था से आच्छादित हो आपकी आयु एवं रूप धारण करके रहूंगा और आपको जवानी देकर आप मेरे लिये जो आज्ञा देंगे, उसका पालन करूंगा’।
ययाति बोले ;- 'वत्स! पूरो! मैं तुम पर प्रसन्न हूँ और प्रसन्न होकर तुम्हें यह वर देता हूं, तुम्हारे राज्य में सारी प्रजा समस्त कामनाओं से सम्पन्न होगी’। ऐसा कहकर महातपस्वी ययाति ने शुक्राचार्य का स्मरण किया और अपनी वृद्धावस्था महात्मा पुरु को देकर उनकी युवावस्था ले ली।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यानविषयक चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
पचासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा ययाति का विषय-सेवन और वैराग्य तथा पुरु का राज्याभिषेक करके वन में जाना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! नहुष के पुत्र नृपश्रेष्ठ ययाति ने पुरु की युवावस्था से अत्यन्त प्रसन्न होकर अभीष्ट विषयभोगों का सेवन आरम्भ किया। राजेन्द्र! उनकी जैसी कामना होती, जैसा उत्साह होता और जैसा समय होता, उसके अनुसार वे सुखपूर्वक धर्मानुकूल भोगों का उपभोग करते थे। वास्तव में उसके योग्य वे ही थे। उन्होंने यज्ञों द्वारा देवताओं को, श्राद्धों से पितरों को, इच्छा के अनुसार अनुग्रह करके दीन-दुखियों को और मुंह मांगी भोग्य वस्तुऐं देकर श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त किया। वे अतिथियों को अन्न और जल देकर, वैश्यों को उनके धन-वैभव की रक्षा करके, शूद्रों को दयाभाव से, लुटेरों को कैद करके तथा सम्पूर्ण प्रजा को धर्मपूर्वक संरक्षण द्वारा प्रसन्न रखते थे। इस प्रकार साक्षात् दूसरे इन्द्र के समान राजा ययाति ने समस्त प्रजा का पालन किया। वे राजा सिंह के समान पराक्रमी और नवयुवक थे। सम्पूर्ण विषय उनके अधीन थे और वे धर्म का विरोध न करते हुए उत्तम सुख का उपभोग करते थे। वे नरेश शुभ भोगों को प्राप्त करके पहले तो तृप्त एवं आनन्दित होते थे; परंतु जब यह बात ध्यान में आती कि ये हजार वर्ष भी पूरे हो जायेंगे, तब उन्हें बड़ा खेद होता था। कालतत्त्व को जानने वाले पराक्रमी राजा ययाति एक-एक कला और काष्ठा की गिनती करके एक हजार वर्ष के समय की अवधि का स्मरण रखते थे।
राजर्षि ययाति हजार वर्षों की जवानी पाकर नन्दनवन में विश्वाची अप्सारा के साथ रमण करते और प्रकाशित होते थे। वे अलकापुरी में तथा उत्तर दिशावर्ती मेरु शिखर पर भी इच्छानुसार विहार करते थे। धर्मात्मा नरेश ने जब देखा कि समय अब पूरा हो गया, तब वे अपने पुत्र पुरु के पास आकर बोले,,
ययाति बोले ;- ‘शत्रुदमन पुत्र! मैंने तुम्हारी जवानी के द्वारा अपनी रुचि, उत्साह और समय के अनुसार विषयों का सेवन किया है। परंतु विषयों की कामना उन विषयों के उपभोग से कभी शान्त नहीं होती; अपितु घी की आहुति पड़ने से अग्नि की भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। इस पृथ्वी पर जितने भी धान, जौ, स्वर्ण, पशु और स्त्रियां हैं, वे सब एक मनुष्य के लिये भी पर्याप्त नहीं हैं। अत: तृष्णा का त्यागकर देना चाहिये। खोटी बुद्धि वाले लोगों के लिये जिसका त्याग करना अत्यन्त कठिन है, जो मनुष्य के बूढ़े होने पर भी स्वयं बूढ़ी नहीं होती तथा जो एक प्राणान्तक रोग है, उस तृष्णा को त्याग देने वाले पुरुष को ही सुख मिलता है। देखो, विषय भोग में आसक्तचित्त हुए मेरे एक हजार वर्ष बीत गये, तो भी प्रतिदिन उन विषयों के लिये ही तृष्णा पैदा होती है। अत: मैं इस तृष्णा को छोड़कर परब्रह्म परमात्मा में मन लगा इन्द्र और ममता से रहित हो वन में मृगों के साथ विचरूंगा। पुरु! तुम्हारा भला हो, मैं प्रसन्न हूँ। अपनी यह जवानी ले लो। साथ ही यह राज्य भी अपने अधिकार में कर लो; क्योंकि तुम मेरा प्रिय करने वाले पुत्र हो’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय नहुषनन्दन राजा ययाति ने अपनी वृद्धावस्था वापस ले ली और पुरु ने पुन: अपनी युवावस्था प्राप्त कर ली।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाशीतितम अध्याय के श्लोक 19-35 का हिन्दी अनुवाद)
जब ब्राह्मण आदि वर्णों ने देखा कि महाराज ययाति अपने छोटे पुत्र पुरु को पद पर अभिषिक्त करना चाहते हैं, तब उनके पास आकर इस प्रकार बोले,,
ब्राह्मण आदि वर्णों बोले ;- ‘प्रभो! शुक्राचार्य के नाती और देवयानी के ज्येष्ठ पुत्र यदु के होते हुए उन्हें लांघकर आप पुरु को राज्य क्यों देते हैं? यदु आपके ज्येष्ठ पुत्र हैं। उनके बाद तुर्वसु उत्पन्न हुए हैं। तदनन्तर शर्मिष्ठा के पुत्र क्रमश: द्रुह्यु, अनु और पुरु हैं। ज्येष्ठ पुत्रों का उल्लंघन करके छोटा पुत्र राज्य का अधिकारी कैसे हो सकता है? हम आपको इस बात का स्मरण दिला रहे हैं। आप धर्म का पालन कीजिये’।
ययाति ने कहा ;- ब्राह्मण आदि सब वर्ण के लोग मेरी बात सुनें, मुझे ज्येष्ठ पुत्र को किसी तरह राज्य नहीं देना है। मेरे ज्येष्ठ पुत्र यदु ने मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया है। जो पिता के प्रतिकूल हो, वह सत्पुरुषों की दृष्टि में पुत्र नहीं माना गया है। जो माता और पिता की आज्ञा मानता है, उसका हित चाहता है, उनके अनुकूल चलता है तथा माता-पिता के प्रति पुत्रोचित बर्ताव करता है, वही वास्तव में पुत्र है। ‘पुत्’ यह नरक का नाम है! नरक को दु:खरुप ही मानते हैं पुत् नामक नरक से त्राण (रक्षा) करने के कारण ही लोग इहलोक और परलोक में पुत्र की इच्छा करते हैं। अपने अनुरुप पुत्र देवताओं, ऋषियों और पितरों के पूजन का अधिकारी होता है। जो बहुत-से मनुष्यों के लिये गुणकारक (लाभदायक) हो, उसी को ज्येष्ठ पुत्र कहते हैं। वह गुण कारक पुत्र ही इहलोक और परलोक में ज्येष्ठ के अंश का भागी होता है। जो उत्तम गुणों से सम्पन्न है, वही पुत्र श्रेष्ठ माना गया है, दूसरा नहीं।
गुणहीन पुत्र व्यर्थ कहा गया है। धर्मज्ञ पुरुष पुत्र के ही कारण पितरों के धर्म का बखान करते हैं। यदु ने मेरी अवहेलना की है; तुर्वसु, द्रुह्यु तथा अनु ने भी मेरा बड़ा तिरस्कार किया है। पुरु ने मेरी आज्ञा का पालन किया; मेरी बात को अधिक आदर दिया है; इसी ने मेरा बुढ़ापा ले रखा था। अत: मेरा यह छोटा पुत्र ही वास्तव में मेरे राज्य और धन को पाने का अधिकारी है। पुरु ने मित्ररुप होकर मेरी कामनाऐं पूर्ण की हैं। स्वयं शुक्राचार्य ने मुझे वर दिया है कि ‘जो पुत्र तुम्हारा अनुसरण करे, वही राजा एवं समस्त भूखण्ड का पालक हो’। अत: मैं आप लोगों से विनयपूर्ण आग्रह करता हूँ कि पुरु को ही राज्य पर अभिषिक्त करें।
प्रजावर्ग के लोग बोले ;- जो पुत्र गुणवान और सदा माता-पिता का हितैषी हो, वह छोटा होने पर भी श्रेष्ठतम है। वही सम्पूर्ण कल्याण का भागी होने योग्य है। पुरु आपका प्रिय करने वाले पुत्र हैं, अत: शुक्राचार्य के वरदान के अनुसार ये ही इस राज्य को पाने के अधिकारी हैं। इस निश्चय के विरुद्ध कुछ भी उत्तर नहीं दिया जा सकता।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- नगर और राज्य के लोगों ने संतुष्ट होकर जब इस प्रकार कहा तब नहुषनन्दन ययाति ने अपने पुत्र पुरु को ही अपने राज्य पर अभिषिक्त किया। इस प्रकार पुरु को राज्य दे वनवास की दीक्षा लेकर राजा ययाति तपस्वी ब्राह्मणों के साथ नगर से बाहर निकल गये। युदु से यादव क्षत्रिय उत्पन्न हुए, तुर्वसु की संतान यवन कहलायी, द्रुह्यु के पुत्र भोज नाम से प्रसिद्ध हुए और अनु से मलेच्छ जातियां उत्पन्न हुईं। राजा जनमेजय! पुरु से पौरव वंश चला; जिसमें तुम उत्पन्न हुए हो। तुम्हें इन्द्रिय-संयमपूर्वक एक हजार वर्षों तक यह राज्य करना है।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में ययात्युपाख्यान के प्रसंग में पूर्वययातसमाप्तिविषयक पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें