सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के छानबे वें अध्याय से सौ वें अध्याय तक (from the ninety-six chapter to the hundredth chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

छानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षण्‍णवतितम अध्‍याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"महाभिष को ब्रह्मा जी का शाप तथा शापग्रस्‍त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इक्ष्‍वाकुवंश में उत्‍पन्न महाभिष नाम से एक राजा हो गये हैं, जो सत्‍यवादी होने के साथ ही सत्‍यपराक्रमी भी थे। उन्‍होंने एक हजार अश्वमेध और एक सौ राजसूय यज्ञों द्वारा देवेश्वर इन्‍द्र को संतुष्ट किया और उन यज्ञों के पुण्‍य से उन शक्तिशाली नरेश ने स्‍वर्गलोक प्राप्त कर लिया। तदनन्‍तर एक समय सब देवता ब्रह्मा जी की सेवा में उनके समीप बैठे हुए थे। वहाँ बहुत-से राजर्षि तथा पूर्वोक्त राजा महाभिष भी उपस्थित थे। इसी समय सरिताओं में श्रेष्‍ठ गंगा ब्रह्मा जी के समीप आयी। उस समय वायु के झोंके से उसके शरीर का चांदनी के समान उज्ज्वल वस्त्र सहसा ऊपर की ओर उठ गया। यह देख सब देवताओं ने तुरंत अपना मुंह नीचे की ओर कर लिया; किंतु राजर्षि महाभिष नि:शंक होकर देव नदी की ओर देखते ही रह गये। तब भगवान् ब्रह्मा ने महाभिष को शाप देते हुए कहा- ‘दुर्मते! तुम मनुष्‍यों में जन्‍म लेकर फि‍र पुण्‍यलोकों में आओगे। जिस गंगा ने तुम्‍हारे चित्त को चुरा लिया है, वही मनुष्‍य लोक में तुम्‍हारे प्रतिकूल आचरण करेगी। जब तुम्‍हें गंगा पर क्रोध आ जायेगा, तब तुम भी शाप से छूट जाओगे।’

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब राजा महाभिष ने अन्‍य बहुत-से राजाओं का चिन्‍तन करके महातेजस्‍वी राजा प्रतीप को ही अपना पिता बनाने के योग्‍य चुना-उन्‍हीं को पसंद किया। महानदी गंगा राजा महाभिष को धैर्य खोते देख मन-ही-मन उन्‍हीं का चिन्‍तन करती हुई लौटी। मार्ग से जाती हुई गंगा ने वसु देवताओं को देखा। उनका शरीर स्‍वर्ग से नीचे गिर रहा था। वे मोहाच्‍छन्न एवं मलिन दिखायी दे रहे थे। उन्‍हें इस रूप में देखकर,,

 नदियों में श्रेष्‍ठ गंगा ने पूछा ;- ‘तुम लोगों का दिव्‍य रूप कैसे नष्‍ट हो गया? देवता सकुशल तो हैं न?'

 तब देवताओं ने गंगा से कहा ;- ‘महानदी! महात्‍मा वशिष्ठ ने थोड़े-से अपराध पर क्रोध में आकर हमें शाप दे दिया है। पहले की बात है एक दिन जब वशिष्ठ जी पेड़ों की आड़ में संध्‍योपासना कर रहे थे, हम मोहवश उनका उल्लंघन करके चले गये (और उनकी धेनु का अपहरण कर लिया)। इससे कुपित होकर उन्‍होंने हमें शाप दिया कि ‘तुम लोग मनुष्‍य योनि में जन्‍म लो’। उन ब्रह्मवादी महर्षि ने जो बात कह दी है, वह टाली नहीं जा सकती; अत: हमारी प्रार्थना है कि तुम पृथ्‍वी पर मानव-पत्नी होकर हम वसुओं को अपने पुत्ररूप से उत्‍पन्न करो। शुभे! हमें मानुषी स्त्रियों के उदर में प्रवेश न करना पड़े, इसीलिये हमने यह अनुरोध किया है।’

वसुओं के ऐसा कहने पर गंगाजी ‘तथास्‍तु’ कहकर यों बोलीं।

 गंगाजी ने कहा ;- 'वसुओं! मर्त्‍यलोक में ऐसे श्रेष्ठ पुरुष कौन हैं; जो तुम लोगों के पिता होंगे।' 

वसुगण बोले ;- प्रतीप के पुत्र राजा शान्तनु लोक विख्‍यात साधु पुरुष होंगे। मनुष्‍य लोक में वे ही हमारे जनक होंगे।' 

गंगाजी ने कहा ;- निष्‍पाप देवताओं! तुम लोग जैसा कहते हो, वैसा ही मेरा विचार है। मैं राजा शान्‍तनु का प्रिय करूंगी और तुम्‍हारे इस अभिष्ट कार्य की सिद्धि करूंगी। 

वसुगण बोले ;- तीनों लोकों में प्रवाहित होने वाली गंगे! हम लोग जब तुम्‍हारे गर्भ से जन्म लें, तब तुम पैदा होते ही हमें अपने जल में फेंक देना; जिससे शीघ्र ही हमारा मर्त्‍यलोक से छुटकारा हो जाय।

 गंगाजी ने कहा ;- हम सब लोग अपने तेज का एक-एक अष्टमांश देंगे। उस तेज से जो तुम्‍हारा एक पुत्र होगा, वह उस राजा की इच्‍छा के अनुरूप होगा। किंतु मर्त्‍यलोक में उसकी कोई संतान न होगी। अत: तुम्‍हारा वह पुत्र संतानहीन होने के साथ ही अत्‍यन्‍त पराक्रमी होगा। इस प्रकार गंगा जी के साथ शर्त करके वसुगण प्रसन्नता-पूर्वक अपनी इच्‍छा के अनुसार चले गये।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में महाभिषोपाख्यानविषयक छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

सत्तानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तनवतितम अध्‍याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा प्रतीप का गंगा को पुत्रवधू के रुप में स्‍वीकार करना और शान्‍तनु का जन्‍म, राज्‍याभिषेक तथा गंगा से मिलना"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तदनन्‍तर इस पृथ्‍वी पर राजा प्रतीप राज्‍य करने लगे। वे सदा सम्‍पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न रहते थे। एक समय महाराज प्रतीप गंगाद्वार हरिद्वार में गये और बहुत वर्षों तक जप करते हुए एक असान पर बैठे रहे। उस समय मनस्विनी गंगा सुन्‍दररुप और उत्तम गुणों से युक्त युवती रुप धारण करके जल से निकलीं और स्‍वाध्‍याय में लगे हुए राजर्षि प्रतीप के शाल-जैसे विशाल दाहिने ऊरु (जांघ) पर जा बैठीं। उस समय उनकी आकृति बड़ी लुभावनी थी; रुप देवांगनाओं के समान था और अत्‍यन्‍त मनोहर था। 

अपनी जांघ पर बैठी हुई उस यशस्विनी नारी से,,

 राजा प्रतीप ने पूछा ;- ‘कल्‍याणी! मैं तुम्‍हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूं? तुम्‍हारी क्‍या इच्‍छा है?’

   स्त्री बोली ;- राजन्! मैं आपको ही चाहती हूँ। आपके प्रति मेरा अनुराग है, अत: आप मुझे स्‍वीकार करें; क्‍योंकि काम के अधीन होकर अपने पास आयी हुई स्त्रियों का परित्‍याग साधु पुरुष ने निन्दित माना है।

प्रतीप ने कहा ;- सुन्‍दरी! मैं कामवश परायी स्त्री के साथ समागम नहीं कर सकता। जो अपने वर्ण की न हो, उससे भी मैं सम्‍बन्‍ध नहीं रख सकता। कल्‍याणि! यह मेरा धर्मानुकूल व्रत है।

स्त्री बोली ;- राजन्! मैं अशुभ या अमंगल करने वाली नहीं हूं, समागम के अयोग्‍य भी नहीं हूँ और ऐसी भी नहीं हूँ कि कभी कोई मुझ पर कलंक लगाये। मैं आपके प्रति अनुरक्त होकर आयी हुई दिव्‍य कन्‍या एवं सुन्‍दरी स्त्री हूँ। अत: आप मुझे स्‍वीकार करें।

प्रतीप ने कहा ;- सुन्‍दरी! तुम जिस प्रिय मनोरथ की पूर्ति के लिये मुझे प्रेरित कर रही हो, उसका निराकरण भी तुम्‍हारे द्वारा ही हो गया। यदि मैं धर्म के विपरीत तुम्‍हारा यह प्रस्‍ताव स्‍वीकार कर लूं तो धर्म का यह विनाश मेरा भी नाश कर डालेगा। वरांगने! तुम मेरी दाहिनी जांघ पर आकर बैठी हो। भीरु! तुम्‍हें मालूम होना चाहिये कि यह पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधु का आसन है। पुरुष की बायीं जांघ ही कामिनी के उपभोग के योग्‍य है; किंतु तुमने उसका त्‍याग कर दिया है। अत: वरांगने! मैं तुम्‍हारे प्रति कामयुक्त आचरण नहीं करूंगा। सुश्रोणि! तुम मेरी पुत्रवधु हो जाओ। मैं अपने पुत्र के लिये तुम्‍हारा वरण करता हूं; क्‍योंकि वाभोरू! तुमने यहाँ आकर मेरी उसी जांघ का आश्रय लिया है, जो पुत्रवधु के पक्ष की है।

स्त्री बोली ;- धर्मज्ञ नरेश! आप जैसा कहते हैं, वैसा भी हो सकता है। मैं आपके पुत्र के साथ संयुक्त होऊंगी। आपके प्रति जो मेरी भक्ति है, उसके कारण मैं विख्‍यात भरतवंश का सेवन करूंगी। पृथ्‍वी पर जितने राजा हैं, उन सबके आप लोग उत्तम आश्रय हैं। सौ वर्षों में भी आप लोगों के गुणों के वर्णन मैं नहीं कर सकती। आपके कुल में जो विख्‍यात राजा हो गये हैं, उनकी साधुता सर्वोपरि है। धर्मज्ञ! मैं एक शर्त के साथ आपके पुत्र से विवाह करूंगी। प्रभो! मैं जो कुछ भी आचरण करूं वह सब आपके पुत्र को स्‍वीकार होना चाहिये। वे उनके विषय में कभी कुछ विचार न करें। इस शर्त पर रहती हुई मैं आपके पुत्र के प्रति अपना प्रेम बढ़ाऊंगी। मुझसे जो पुण्‍यात्‍मा एवं प्रिय पुत्र उत्‍पन्न होंगे, उनके द्वारा आपके पुत्र को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति होगी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तवतितम अध्‍याय के श्लोक 16-32 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय राजा प्रतीप ने 'तथास्तु' कहकर उसकी शर्त स्वीकार कर ली। तत्पशात्‌ वह वहीं अन्तर्धान हो गयी। इसके बाद पुत्र के जन्‍म की प्रतीक्षा करते हुए राजा प्रतीप ने उसकी बात याद रखी। कुरुनन्‍दन! इन्‍हीं दिनों क्षत्रियों में श्रेष्ठ प्रतीप अपनी पत्नी को साथ लेकर पुत्र के लिये तपस्‍या करने लगे। प्रतीप की पत्नी की कुक्षि में एक तेजस्‍वी गर्भ का आविर्भाव हुआ, जो शरद् ॠतु के शुक्ल पक्ष में परम कान्तिमान् चन्‍द्रमा की भाँति प्रतिदिन बढ़ने लगा। तदनन्‍तर दसवां मास प्राप्त होने पर प्रतीप की महारानी ने एक देवापम पुत्र को जन्‍म दिया, जो सूर्य के समान प्रकाशमान था। उन बूढ़े राजदम्‍पति के यहाँ पूर्वोक्त राजा महाभिष ही पुत्ररुप में उत्‍पन्न हुऐ। शान्‍त पिता की संतान होने से शान्तनु कहलाये। शक्तिशाली राजा प्रतीप ने उस बालक के आवश्‍यक कृत्‍य (संस्‍कार) करवाये। ब्राह्मण पुरोहित ने वेदाक्त क्रियाओं द्वारा उसके जात-कर्म आदि सम्‍पन्न किये।

  जनमेजय! तदनन्‍तर बहुत-से ब्राह्मणों ने मिलकर वेदोक्त विधियों के अनुसार शान्‍तनु का नामकरण-संस्‍कार भी किया। तत्‍पश्चात् बड़े होने पर राजकुमार शान्‍तनु लोकरक्षा का कार्य करने लगे। वे धर्मज्ञों में श्रेष्ठ थे। उन्‍होंने धनुर्वेद में उत्तम योग्‍यता प्राप्त करके वेदाध्‍ययन भी ऊंची स्थिति प्राप्त की। वक्ताओं में सर्वश्रेष्ठ वे राजकुमार धीरे-धीरे युवावस्‍था में पहुँच गये। अपने सत्‍कर्म के द्वारा उपार्जित अक्षय पुण्‍यलोकों का स्‍मरण करके कुरुश्रेष्ठ शान्‍तनु सदा पुण्‍यकर्मों के अनुष्ठान में ही लगे रहते थे। युवावस्‍था में पहुँचे हुए राजकुमार शान्‍तनु को राजा प्रतीप ने आदेश दिया,

राजा प्रतीप बोले ;- ‘शान्‍तनो! पूर्वकाल में मेरे समीप एक दिव्‍य नारी आयी थी। उसका आगमन तुम्‍हारे कल्‍याण के लिये ही हुआ था। बेटा! यदि वह सुन्‍दरी कभी एकान्‍त में तुम्‍हारे पास आवे, तुम्‍हारे प्रति कामभाव से युक्त हो और तुमसे पुत्र पाने की इच्‍छा रखती हो, तो तुम उत्तम रुप से सुशोभित उस दिव्‍य नारी से अंगने! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? इत्‍यादि प्रश्‍न न करना। अनघ! वह जो कार्य करे, उसके विषय में भी तुम्‍हें कुछ पूछ-ताछ नहीं करनी चाहिये। यदि वह तुम्‍हें चाहे, तो मेरी आज्ञा से उसे अपनी पत्नी बना लेना।' ये बातें राजा प्रतीप ने अपने पुत्र से कहीं।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- अपने पुत्र शान्‍तनु को ऐसा आदेश देकर राजा प्रतीप ने उसी समय उन्‍हें अपने राज्‍य पर अभिषिक्त कर दिया और स्‍वयं वन में प्रवेश किया। बुद्धिमान राजा शान्‍तनु देवराज इन्‍द्र के सामन तेजस्‍वी थे। वे हिंसक पशुओं को मारने के उद्देश्‍य से वन में घूमते रहते थे। राजाओं में श्रेष्ठ शान्‍तनु हिंसक पशुओं और जंगली भैसों को मारते हुए सिद्ध एवं चारणों से सेवित गंगा जी के तट पर अकेले ही विचरण करते थे। महाराज जनमेजय! एक दिन उन्‍होंने एक परमसुन्‍दरी नारी देखी, जो अपने तेजस्‍वी शरीर से ऐसी प्रकाशित हो रही थी, मानो साक्षात् लक्ष्‍मी ही दूसरा शरीर धारण करके आ गयी हो। उसके सारे अंग परम सुन्‍दर और निर्दोष थे। दांत तो और भी सुन्‍दर थे। वह दिव्‍य आभूषणों से विभूषित थी। उसके शरीर पर महीन साड़ी शोभा पा रही थी और कमल के भीतरी भाग के समान उसकी कान्ति थी, वह अकेली थी। उसे देखते ही राजा शान्‍तनु के शरीर में रोमाञ्च हो आया, वे उसकी रूप-सम्‍पत्ति से आश्चर्यचकित हो उठे और दोनों नेत्रों द्वारा उसकी सौन्‍दर्य-सुधा का पान करते हुए-से तृप्त नहीं होते थे। वह भी वहाँ विचरते हुए महातेजस्‍वी राजा शान्‍तनु को देखते ही मुग्‍ध हो गयी। स्‍नेहवश उसके हृदय में सौहार्द का उदय हो आया। वह विलासिनी राजा को देखते-देखते तृप्त नहीं होती थी।

तब राजा शान्‍तनु ने उसे सान्त्वना देते हुए मधुर वाणी में बोले-

राजा शान्‍तनु बोले ;- ‘सुमध्‍यमे! तुम देवी, दानवी, गन्‍धर्वी, अप्‍सरा, यक्षी, नागकन्‍या अथवा मानवी, कुछ भी क्‍यों न होओ; देवकन्‍याओं के समान सुशोभित होने वाली सुन्‍दरी! मैं तुमसे याचना करता हूँ कि मेरी पत्नी हो जाओ।'

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में शांतनूपाख्यानविषयक सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

अट्ठानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टनवतितम अध्‍याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"शान्‍तनु और गंगा का कुछ शर्तों के साथ सम्‍बन्‍ध, वसुओं का जन्‍म और शाप से उद्धार तथा भीष्‍म की उत्‍पत्ति"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा शान्तनु का मधुर मुस्‍कान युक्त मनोहर वचन सुनकर यशस्विनी गंगा उनकी ऐश्वर्य-वृद्धि के लिये उनके पास आयीं। तट पर विचरते हुए उन नृपश्रेष्ठ को देखकर सती साध्‍वी गंगा को वसुओं को दिये हुए वचन का स्‍मरण हो आया। साथ ही राजा प्रतीप की बात भी याद आ गयी। तब यही उपयुक्त समय है, ऐसा मानकर वसुओं को मिले हुए शाप से प्रेरित हो वे स्‍वयं संतानोत्‍पादन की इच्‍छा से पृथ्‍वीपति महाराज शान्‍तनु के समीप चली आयीं और अपनी मधुर वाणी से महाराज के मन को आनन्‍द प्रदान करती हुई बोलीं

साध्‍वी गंगा बोली ;- ‘भूपाल! मैं आपकी महारानी बनूंगी एवं आपके अधीन रहूंगी। (परंतु एक शर्त है-) राजन्! मैं भला या बुरा जो कुछ भी करूं, उसके लिये आपको मुझे नहीं रोकना चाहिये और मुझसे कभी अप्रिय वचन भी नहीं कहना चाहिये। पृथ्‍वीपते! ऐसा बर्ताव करने पर ही मैं आपके समीप रहूंगी। यदि आपने कभी मुझे किसी कार्य से रोका या अप्रिय वचन कहा तो मैं निश्चय ही आपका साथ छोड़ दूंगी।

भरतश्रेष्ठ! उस समय ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर राजा ने जब उसकी शर्त मान ली, तब उन नृपश्रेष्ठ को पतिरुप में प्राप्त करके उस देवी को अनुपम आनन्‍द मिला। तब राजा शान्‍तनु देवी गंगा को रथ पर बिठाकर उनके साथ अपनी राजधानी को चले गये। साक्षात् दूसरी लक्ष्‍मी के समान सुशोभित होने वाली गंगादेवी शान्‍तनु के साथ गयीं। इन्द्रियों को वश में रखने वाले राजा शान्‍तनु उस देवी को पाकर उसका इच्‍छानुसार उपभोग करने लगे। पिता का यह आदेश था कि उससे कुछ पूछना मत; उनकी आज्ञा मानकर राजा ने उससे कोई बात नहीं पूछी। उसके उत्तम शील-स्‍वभाव, सदाचार, रुप, उदारता, सद्गुण तथा एकान्‍त सेवा से महाराज शान्‍तनु बहुत संतुष्ट रहते थे। त्रिपथगामिनी दिव्‍यरूपिणी देवी गंगा ही अत्‍यन्‍त सुन्‍दर मनुष्‍य-देह धारण करके देवराज इन्‍द्र के समान तेजस्‍वी नृपशिरो‍मणि महाराज शान्‍तनु को, जिन्‍हें भाग्‍य से इच्‍छानुसार सुख अपने-आप मिल रहा था, सुन्‍दरी पत्नी के रुप में प्राप्त हुई थीं।

गंगा देवी हाव-भाव से युक्त सम्‍भोग-चातुरी और प्रणय चातुरी राजा को जैसे-जैसे रमातीं, उसी-उसी प्रकार वे उनके साथ रमण करते थे। उस दिव्‍यनारी के उत्तम गुणों ने चित्त को चुरा लिया था; अत: वे राजा उसके साथ रति-भोग में आसक्त हो गये। कितने ही वर्ष ऋतु और मास व्‍यतीत हो गये किंतु उसमें आसक्त होने के कारण राजा को कुछ पता न चला। उसके साथ इच्‍छानुसार रमण करते हुए महाराज शान्‍तनु ने उसके गर्भ से देवताओं के समान तेजस्‍वी आठ पुत्र उत्‍पन्न किये। भारत! जो-जो उत्‍पन्न होता, उसे वह गंगाजी के जल में फेंक देती और कहती- ‘(वत्‍स! इस प्रकार शाप से मुक्त करके) मैं तुम्‍हें प्रसन्न कर रही हूँ।' ऐसा कहकर गंगा प्रत्‍येक बालक को धारा में डुबो देती थीं। पत्नी का यह व्‍यवहार राजा शान्‍तनु को अच्‍छा नहीं लगता था, तो भी वे उस समय उससे कुछ नहीं कहते थे। राजा को यह डर बना हुआ था कि कहीं वह मुझे छोड़कर चली न जाय।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टनवतितम अध्‍याय के श्लोक 15-24 का हिन्दी अनुवाद)

तदनन्‍तर जब आठवां पुत्र उत्‍पन्न हुआ, तब हंसती हुई-सी अपनी स्त्री से राजा ने अपने पुत्र का प्राण बचाने की इच्‍छा से दु:खातुर होकर कहा 

राजा शान्‍तनु ने कहा ;- ‘अरी! इस बालक का वध न कर, तू किसकी कन्‍या है? कौन है? क्‍यों अपने ही बेटों को मारे डालती है। पुत्रघातिनि! तुझे पुत्र हत्‍या का यह अत्‍यन्‍त निन्दित और भारी पाप लगा है’।

स्त्री बोली ;- पुत्र की इच्‍छा रखने वाले नरेश! तुम पुत्रवानों में हो। मैं तुम्‍हारे इस पुत्र को नहीं मारुंगी; परंतु यहाँ मेरे रहने का समय अब समाप्त हो गया; जैसी कि पहले ही शर्त हो चुकी है। मैं जह्नु की पुत्री और महर्षिं द्वारा सेवित गंगा हूँ। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये तुम्‍हारे साथ रह रही थी। ये तुम्‍हारे आठ पुत्र महातेजस्‍वी महाभाग वसु देवता हैं। वसिष्ठ जी के शाप-दोष से ये मनुष्‍य-योनि में आये थे। तुम्‍हारे सिवा दूसरा कोई राजा इस पृथ्‍वी पर ऐसा नहीं था, जो उन वसुओं का जनक हो सके। इसी प्रकार इस जगत् में मेरी-जैसी दूसरी कोई मानवी नहीं हैं, जो उन्‍हें गर्भ में धारण कर सके। अत: इन वसुओं की जननी होने के लिये मैं मानव शरीर धारण करके आयी थी। राजन्! तुमने आठ वसुओं को जन्‍म देकर अक्षय लोक जीत लिये हैं।

वसु देवताओं की यह शर्त थी और मैंने उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा का ली थी कि जो-जो वसु जन्‍म लेगा, उसे मैं जन्‍मते ही मनुष्‍य–योनि से छुटकारा दिला दूंगी। इसलिये अब वे वसु महात्‍मा आपव (वसिष्ठ) के शाप से मुक्त हो चुके हैं। तुम्‍हारा कल्‍याण हो, जब मैं जाऊंगी। तुम इस महान् व्रतधारी पुत्र का पालन करो। यह तुम्‍हारा पुत्र सब वसुओं के पराक्रम से सम्‍पन्न होकर अपने कुल का आनन्‍द बढ़ाने के लिये प्रकट हुआ है। इसमें संदेह नहीं कि यह बालक बल और पराक्रम में दूसरे सब लोगों से बढ़कर होगा। यह बालक वसुओं में से प्रत्‍येक के एक-एक अंश का आश्रय है- सम्‍पूर्ण वसुओं के अंश से इसकी उत्‍पत्ति हुई है, मैंने तुम्‍हारे लिये वसुओं के समीप प्रार्थना की थी कि ‘राजा का एक पुत्र जीवित रहे’। इसे मेरा बालक समझना और इसका नाम ‘गंगादत्त’ रखना।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में भीष्मोत्पत्तिविषयक अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

निन्यानबेवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवनवतितम अध्‍याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)

"महर्षि वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा"

शान्तनु ने पूछा ;- देवि! ये आपव नाम के महात्‍मा कौन हैं? और वसुओं का क्‍या अपराध था, जिससे आपव के शाप से उन सबको मनुष्‍य-योनि में आना पड़ा। और तुम्‍हारे दिये हुए इस पुत्र ने कौन-सा कर्म किया है, जिसके कारण यह मनुष्‍य लोक में निवास करेगा। जाह्नवि! वसु तो समस्‍त लोकों के अधीश्वर हैं, वे कैसे मनुष्‍य लोक में उत्‍पन्न हुए? यह सब बात मुझे बताओ।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- नरश्रेष्ठ जनमेजय! अपने पति राजा शान्‍तनु के इस प्रकार पूछने पर जह्न-पुत्री गंगा देवी ने उनसे इस प्रकार कहा। 

   गंगा बोली ;- भरतश्रेष्ठ! पूर्वकाल में वरुण ने जिन्‍हें पुत्ररुप में प्राप्त किया था, वे वसिष्ठ नामक मुनि ही ‘आपव’ नाम से विख्‍यात हैं। गिरिराज मेरु के पार्श्‍वभाग में उनका पवित्र आश्रम है; जो मृग और पक्षियों से भरा रहता है। सभी ॠतुओं में विकसित होने वाले फूल उस आश्रम की शोभा बढ़ाते हैं। भरतवंश शिरोमणे! उस वन में स्‍वादिष्ठ फल, मूल और जल की सुविधा थी, पुण्‍यवानों में श्रेष्ठ वरुणनन्‍दन महर्षि वसिष्ठ उसी में तपस्‍या करते थे। महाराज! दक्ष प्रजापति की पुत्री ने, जो देवी सुरभि नाम से विख्‍यात है, कश्‍यप जी के सहवास से एक गौ को जन्‍म दिया।

   वह गौ सम्‍पूर्ण जगत् पर अनुग्रह करने के लिये प्रकट हुई थी तथा समस्‍त कामनाओं को देने वालों में श्रेष्ठ थी। वरुण पुत्र धर्मात्‍मा वसिष्ठ ने उस गौ को अपनी होमधेनू के रूप में प्राप्त किया। वह गौ मुनियों द्वारा सेवित उस पवित्र एवं रमणीय तापस वन में रहती हुई सब ओर निर्भय होकर चरती थी। भरतश्रेष्ठ! एक दिन देवर्षि सेवित वन में पृथु आदि वसु तथा सम्‍पूर्ण देवता पधारे। वे अपनी स्त्रियों के साथ उपवन में चारों ओर विचरने तथा रमणीय पर्ततों और वनों में रमण करने लगे। इन्‍द्र के समान पराक्रमी महीपाल! उन वसुओं में से एक की सुन्‍दरी पत्नी ने उस वन घूमते समय उस गौ को देखा। राजेन्‍द्र! सम्‍पूर्ण कामनाओं को देने वालों में उत्तम नन्दिनी नाम वाली उस गाय को देखकर उसकी शील सम्‍पत्ति से वह वसु पत्नी आश्चर्यचकित हो उठी।

   वृषभ के समान विशाल नेत्रों वाले महाराज! उस देवी ने द्यो नामक वसु को वह शुभ गाय दिखायी, जो भली-भाँति हृष्ट-पुष्ट थी। दूध से भरे हुए उसके थन बड़े सुन्‍दर थे, पूंछ और खुर भी बहुत अच्‍छे थे। वह सुन्‍दर गाय सभी सद्गुणों से सम्‍पन्न और सर्वोत्तम शील-स्‍वाभाव से युक्त थी। पूरुवंश का आनन्‍द बढ़ाने वाले सम्राट! इस प्रकार पूर्वकाल में वसु का आनन्‍द बढ़ाने वाली देवी ने अपने पति वसु को ऐसे सद्गुणों वाली गौ का दर्शन कराया। गजराज के समान पराक्रमी महाराज! द्यो ने उस गाय को देखते ही उसके रुप और गुणों का वर्णन करते हुए अपनी पत्नी से कहा- ‘यह कजरारे नेत्रों वाली उत्तम गौ दिव्‍य है। वरारोहे! यह उन वरुणनन्‍दन महर्षि वसिष्ठ की गाय है, जिनका यह उत्तम तपोवन है। सुमध्‍यमे! जो मनुष्‍य इसका स्‍वादिष्ठ दूध पी लेगा, वह दस हजार वर्षों तक जीवित रहेगा और उतने समय तक उसकी युवावस्‍था स्थिर रहेगी।’ नृपश्रेष्ठ! सुन्‍दर कटि-प्रदेश और निर्दोष अंगों वाली यह देवी यह बात सुनकर अपने तेजस्‍वी पति से बोली- ‘प्राणनाथ! मनुष्य लोक में एक राजकुमारी मेरी सखी है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवनवतितम अध्‍याय के श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद)

   उसका नाम है जितवती। वह सुन्‍दर रुप और युवावस्‍था से सुशोभित है। सत्‍यप्रतिज्ञ बुद्धिमान् राजर्षि उशीनर की पुत्री है। रुप सम्‍पत्ति की दृष्टि से मनुष्‍यलोक में उसकी बड़ी ख्‍याति है। महाभाग! उसी के लिये बछड़े सहित यह गाय लेने की मेरी बड़ी इच्‍छा है। सुरश्रेष्ठ! आप पुण्‍य की वृद्धि करने वाले हैं। इस गाय को शीघ्र ले आइये। मानद! जिससे इसका दूध पीकर मेरी यह सखी मनुष्‍यलोक में अकेली ही जरावस्‍था एवं रोग-व्‍याधि से बची रहे। महाभाग! आप निन्‍दा रहित हैं; मेरे इस मनोरथ को पूर्ण कीजिये। मेरे लिये किसी तरह भी इससे बढ़कर प्रिय अथवा प्रियतर वस्‍तु दूसरी नहीं है।' उस देवी के यह वचन सुनकर उसका प्रिय करने की इच्‍छा से द्यो नामक वसु ने पृथु आदि अपने भाइयों की सहायता से उस गौ का अपहरण कर लिया। राजन्! कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाली पत्नी से प्रेरित होकर द्यो ने गौ का अपहरण तो कर लिया; परंतु उस समय उन महर्षि वसिष्ठ की तीव्र तपस्‍या के प्रभाव की ओर वे दृष्टिपात नहीं कर सके और न यही सोच सके कि ऋषि के कोप से मेरा स्‍वर्ग से पतन हो जायगा।

   कुछ समय बाद वरुणनन्‍दन वसिष्ठ जी फल-मूल लेकर आश्रम पर आये; परंतु उस सुन्‍दर कानन में उन्‍हें बछड़े सहित अपनी गाय नहीं दिखायी दी। तब तपोधन वसिष्ठ जी उस वन में गाय की खोज करने लगे; परंतु खो जाने पर भी वे उदार बुद्धि महर्षि उस गाय को न पा सके। तब उन्‍होंने दिव्‍य दृष्टि से देखा और यह जान गये कि वसुओं ने उसका अपहरण किया है। फि‍र तो वे क्रोध के वशीभूत हो गये और तत्‍काल वसुओं को शाप दे दिया- ‘वसुओं ने सुन्‍दर पूंछ वाली मेरी कामधेनु गाय का अपहरण किया है, इसलिये वे सब-के-सब मनुष्‍य-योनि में जन्‍म लेंगे, इसमें संशय नहीं है’। भरतर्षभ! इस प्रकार मुनिवर भगवान् वसिष्ठ ने क्रोध के आवेश में आकर उन वसुओं को शाप दिया। उन्‍हें शाप देकर उन महाभाग महर्षि ने फि‍र तपस्‍या में ही मन लगाया। राजन्! तपस्‍या के धनी महर्षि वसिष्ठ का प्रभाव बहुत बड़ा है। इसीलिये उन्‍होंने क्रोध में भरकर देवता होने पर भी उन आठों वसुओं को शाप दे दिया।

   तदनन्‍तर हमें शाप मिला है, यह जानकर वे वसु पुन: महामना वसिष्ठ के आश्रम पर आये और उन महर्षि को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगे। नृपश्रेष्ठ! महर्षि आपव समस्‍त धर्मों के ज्ञान में निपुण थे। महाराज! उनको प्रसन्न करने की पूरी चेष्टा करने पर भी वे वसु उन मुनिश्रेष्ठ से उनका कृपा प्रसाद न पा सके। उस समय धर्मात्‍मा वसिष्ठ ने उनसे कहा- ‘मैंने धर आदि तुम सभी वसुओं को शाप दे दिया है; परंतु तुम लोग तो प्रति वर्ष एक-एक करके सब-के-सब शाप से मुक्त हो जाओगे। किंतु यह द्यो, जिसके कारण तुम सबको शाप मिला है, मनुष्‍यलोक में अपने कर्मानुसार दीर्घकाल तक निवास करेगा। मैंने क्रोध में आकर तुम लोगों से जो कुछ कहा है, उसे असत्‍य करना नहीं चाहता। ये महामना जो मनुष्‍यलोक में संतान की उत्‍पत्ति नहीं करेंगे। और धर्मात्‍मा तथा सब शास्त्रों में निपुण विद्वान् होंगे; पिता के प्रिय एवं हित में तत्‍पर रहकर स्त्री-सम्‍बन्‍धी भोगों का परित्‍याग कर देंगे।’

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवनवतितम अध्‍याय के श्लोक 42-49 का हिन्दी अनुवाद)

   उन सब वसुओं से ऐसी बात कहकर वे महर्षि वहाँ से चल दिये। तब वे सब वसु एकत्र होकर मेरे पास आये। राजन्! उस समय उन्‍होंने मुझसे याचना की और मैंने उसे पूर्ण किया। उनकी याचना इस प्रकार थी- ‘गंगे! हम ज्‍यों-ज्‍यों जन्‍म लें, तुम स्‍वयं हमें अपने जल डाल देना’। राजशिरोमणे! इस प्रकार उन शापग्रस्‍त वसुओं को इस मनुष्‍यलोक से मुक्त करने के लिये मैंने यथावत् प्रयत्न किया है। भारत! नृपश्रेष्ठ! यह एकमात्र द्यो ही महर्षि शाप से दीर्घकाल तक मनुष्‍यलोक में निवास करेगा। राजन्! यह पुत्र देवव्रत और गंगादत्त- नामों से विख्‍यात होगा। आपका बालक गुणों में आपसे भी बढ़कर होगा। (अच्‍छा, अब जाती हूँ) आपका यह पुत्र अभी शिशु-अवस्‍था में है। बड़ा होने पर फि‍र आपके पास आ जायगा और आप जब मुझे बुलायेंगे तभी मैं आपके सामने उपस्थित हो जाऊंगी।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! यह सब बातें बता कर गंगा देवी उस नवजात शिशु को साथ ले वहीं अन्‍तर्धान हो गयीं और अपने अभीष्ट स्‍थान को चली गयीं। उस बालक का नाम हुआ देवव्रत। कुछ लोग गांगेय भी कहते थे। द्यु नाम वाले वसु शान्‍तनु के पुत्र होकर गुणों में उनसे भी बढ़ गये। इधर शान्‍तनु शोक से आतुर हो पुन: अपने नगर को लौट गये। शान्‍तनु ने उत्तम गुणों का मैं आगे चलकर वर्णन करूंगा। उन भरतवंशी महात्‍मा नरेश के महान् सौभाग्‍य का भी मैं वर्णन करूंगा, जिनका उज्ज्वल इतिहास ‘महाभारत’ नाम से विख्‍यात है।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में आपवोपाख्यानविषयक निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

सौवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) शततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"शान्‍तनु के रुप, गुण और सदाचार की प्रशंसा, गंगा जी के द्वारा सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति तथा देवव्रत की भीष्‍म-प्रतिज्ञा"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा शान्तनु बड़े बुद्धिमान थे; देवता तथा राजर्षि भी उनका सत्‍कार करते थे। वे धर्मात्‍मा नरेश सम्‍पूर्ण जगत् में सत्‍यवादी के रुप में विख्‍यात थे। उन महाबली नरश्रेष्ठ शान्‍तनु में इन्द्रियसंयम, दान, क्षमा, बुद्धि, लज्जा, धैर्य तथा उत्तम तेज आदि सद्गुण सदा विद्यमान थे। इस प्रकार उत्तम गुणों से सम्‍पन्न एवं धर्म और अर्थ के साधन में कुशल राजा शान्‍तनु भरत-वंश का पालन तथा सम्‍पूर्ण प्रजा की रक्षा करते थे। उनकी ग्रीवा शंक के समान शोभा पाती थी। कंधे विशाल थे। वे मतवाले हा‍थी के समान पराक्रमी थे। उनमें सभी राजोचित्त शुभलक्षण पूर्ण सार्थक होकर निवास करते थे। उन यशस्‍वी महाराज के धर्मपूर्ण सदाचार को देखकर सब मनुष्‍य सदा इसी निश्चय पर पहुँचे थे कि काम और अर्थ से धर्म ही श्रेष्ठ है। महान् शक्तिशाली पुरुष श्रेष्ठ शान्‍तनु में ये सभी सद्गुण विद्यमान थे। उनके समान धर्मपूर्वक शासन करने वाला दूसरा कोई राजा नहीं था। वे धर्म में सदा रहने वाले और सम्‍पूर्ण धर्मात्‍माओं में श्रेष्ठ थे; अत: समस्‍त राजाओं ने मिलकर राजा शान्‍तनु को राजराजेश्वर (सम्राट) के पद पर अभिषिक्त कर दिया।

जनमेजय! जब सब राजाओं ने शान्‍तनु को अपना स्‍वामी तथा रक्षक बना लिया, तब किस को शोक, भय और मानसिक संताप नहीं रहा। सब लोग सुख से सोने और जागने लगे। इन्‍द्र के समान तेजस्‍वी और कीर्तिशाली शान्‍तनु के शासन में रहकर अन्‍य राजा लोग भी दान और यज्ञ कर्मों में स्‍वभावत: प्रवृत होने लगे। उस समय शान्‍तनु प्रधान राजाओं द्वारा सुरक्षित जगत् में सभी वर्णों के लोग नियमपूर्वक प्रत्‍येक बर्ताव में धर्म को ही प्रधानता देने लगे। क्षत्रिय लोग ब्राह्मणों की सेवा करते, वैश्‍य, ब्राह्मण और क्षत्रियों में अनुरक्त रहते तथा शूद्र ब्राह्मण और क्षत्रियों में अनुराग रखते हुए वैश्‍यों की सेवा में तत्‍पर रहते थे। महाराज शान्‍तनु कुरुवंश की रमणीय राजधानी हस्तिनापुर में निवास करते हुए समुद्रपर्यन्‍त पृथ्‍वी का शासन और पालन करते थे। वे देवराज इन्‍द्र के समान पराक्रमी, धर्मज्ञ, सत्‍यवादी तथा सरल थे। दान, धर्म और तपस्‍या तीनों के योग से उनमें दिव्‍य कान्ति की वृद्धि हो रही थी। उनमें न राग था न द्वेष। चन्‍द्रमा की भाँति उनका दर्शन सबको प्‍यारा लगता था। वे तेज से सूर्य और वेग से वायु के सामन जान पड़ते थे; क्रोध में यमराज और क्षमा में पृथ्‍वी की समानता करते थे।

जनमेजय! महाराज शान्‍तनु के इस पृथ्‍वी का पालन करते समय पशुओं, वराहों, मृगों तथा पक्षियों का वध नहीं होता था। उनके राज्‍य में ब्रह्म और धर्म की प्रधानता थी। महाराज शान्‍तनु बड़े विनयशील तथा काम-राग आदि दोषों से दूर रहने वाले थे। वे सब प्राणियों का समान भाव से शासन करते थे। उन दिनों देवयज्ञ, ऋषियज्ञ तथा पितृयज्ञ के लिये कर्मों का आरम्‍भ होता था। अधर्म का भय होने के कारण किसी भी प्राणी का वध नहीं किया जाता था। दुखों, अनाथ एवं पशु-पक्षियों की योनि में पड़े हुए जीव- इन सब प्राणियों का वे राजा शान्‍तनु ही पिता के सामन पालन करते थे।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) शततम अध्‍याय के श्लोक 19-39 का हिन्दी अनुवाद)

कुरुवंश नरेशों में श्रेष्ठ राजा राजेश्वर शान्तनु के शासन काल में सबकी वाणी सत्‍य के आश्रित थी- सभी सत्‍य बोलते थे और सबका मन दान एवं धर्म में लगता था। राजा शान्‍तनु सोलह; आठ; चार और आठ कुल छत्तीस वर्षों तक स्त्री विषयक अनुराग का अनुभव न करते हुए वन में रहे। वसु के अवतार भूत गांगेय उनके पुत्र हुए, जिनका नाम देवव्रत था, वे पिता के समान ही रुप, आचार, व्‍यवहार तथा विद्या से सम्‍पन्न थे। लौकिक और अलौकिक सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों की कला में वे पारंगत थे। उनके बल, सत्‍य (धैर्य) तथा वीर्य (पराक्रम) महान थे। वे महारथी वीर थे। एक समय किसी हिंसक पशु को बाण से बींधकर राजा शान्‍तनु उसका पीछा करते हएु भागीरथी गंगा के तट पर आये। उन्‍होंने देखा कि गंगा जी में बहुत थोड़ा जल रह गया है। उसे देखकर पुरुषों में श्रेष्ठ महाराज शान्‍तनु इस चिन्‍ता में पड़ गये कि यह सरिताओं में श्रेष्ठ देव नदी आज पहले की तरह क्‍यों नहीं बह रही है।

तदनन्‍तर महामना नरेश ने इसके कारण का पता लगाते हुए जब आगे बढ़कर देखा, तब मालूम हुआ कि एक परम सुन्‍दर मनोहर रुप से सम्‍पन्न विशालकाय कुमार देवराज इन्‍द्र के समान दिव्‍यास्त्र का अभ्‍यास कर रहा है और अपने तीखे बाणों से समूची गंगा की धारा को रोक कर खड़ा है। राजा ने उसके निकट की गंगा नदी को उसके बाणों से व्‍याप्त देखा। उस बालक का यह अलौकिक कर्म देखकर उन्‍हें बड़ा आश्चर्य हुआ। शान्‍तनु ने अपने पुत्र को पहले पैदा होने के समय ही देखा था; अत: उन बुद्धिमान नरेश को उस समय उसकी याद नहीं आयी; इसीलिये वे अपने ही पुत्र को पहचान न सके। बालक ने अपने पिता को देखकर उन्‍हें माया से मोहित कर दिया और मोहित करके शीघ्र यहीं अन्‍तर्धान हो गया। यह अद्भुत बात देखकर राजा शान्‍तनु को कुछ संदेह हुआ और उन्‍होंने गंगा से अपने पुत्र को दिखाने को कहा। तब गंगा जी परम सुन्‍दर रुप धारण करके अपने पुत्र का दाहिना हाथ पकड़े सामने आयीं और दिव्‍य वस्त्राभूषणों से विभूषित कुमार देवव्रत को दिखाया। गंगा दिव्‍य आभूषणों से अलंकृत हो स्‍वच्‍छ-सुन्‍दर साड़ी पहिने हुए थीं। इससे उनका अनुपम सौन्‍दर्य इतना बढ़ गया था कि पहले की देखी होने पर भी राजा शान्‍तनु उन्‍हें पहचान न सके।

गंगा जी ने कहा ;- महाराज! पूर्वकाल में आपने अपने जिस आठवें पुत्र को मेरे गर्भ से प्राप्त किया था, यह वही है। पुरुषसिंह! यह सम्‍पूर्ण अस्त्रवेत्ताओं में अत्‍यन्‍त उत्तम है। राजन्! मैंने इसे पाल-पोसकर बड़ा कर दिया है। अब आप अपने इस पुत्र को ग्रहण कीजिये। नरश्रेष्ठ! स्‍वामिन्! इसे घर ले जाइये। आपका यह बलवान् पुत्र महर्षि वशिष्ठ से छहों अंगों सहित वेदों का अध्‍ययन कर चुका है। यह अस्त्र-विद्या का भी पण्डित है, महान् धनुर्धर है और युद्ध में देवराज इन्‍द्र के समान पराक्रमी है। भारत! देवता और असुर भी इसका सदा सम्‍मान करते हैं। शुक्राचार्य जिस (नीति) शास्त्र को जानते हैं, उसका यह भी पूर्ण रुप से जानकार है। इसी प्रकार अंगिरा के पुत्र देव-दानव वन्दित बृह‍स्‍पति जिस शास्त्र को जानते हैं, वह भी आपके इस महावाहु महात्‍मा पुत्र में अंग और उपांगों सहित पूर्णरूप से प्रतिष्ठित है। जो दूसरों से परास्‍त नहीं होते, वे प्रतापी महर्षि जमदग्निनन्‍दन परशुराम जिस अस्त्र-विद्या को जानते हैं, वह भी मेरे इस पुत्र में प्रतिष्ठित है। वीरवर महाराज! यह कुमार राजधर्म तथा अर्थशास्त्र का महान् पण्डित है। मेरे दिये हुए इस महाधनुर्धर वीर पुत्र को आप घर ले जाइये।'

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) शततम अध्‍याय के श्लोक 40-59 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- ऐसा कहकर महाभागा गंगा देवी वहीं अन्‍तर्धान हो गयीं। गंगा जी के इस प्रकार आज्ञा देने पर महाराज शान्तनु सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले अपने पुत्र को लेकर राजधानी में आये। उनका हस्तिनापुर इन्‍द्र नगरी अमरावती के समान सुन्‍दर था। पूरूवंशी राजा शान्‍तनु पुत्र सहित उसमें जाकर अपने आपको सम्‍पूर्ण कामनाओं से सम्‍पन्न एवं सफल मनोरथ मानने लगे। तदनन्‍तर उन्‍होंने सबको अभय देने वाले महात्‍मा एवं गुणवान् पुत्र को राजकाज में सहयोग करने के लिये समस्‍त पौरवों के बीच में युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया।

जनमेजय! शान्‍तनु के उस महायशस्‍वी पुत्र ने अपने आचार-व्‍यवहार से पिता को, पौरव समाज को तथा समूचे राष्ट्र को प्रसन्न कर लिया। अमित पराक्रमी राजा शान्‍तनु ने वैसे गुणवान् पुत्र के साथ आनन्‍दपूर्वक रहते हुए चार वर्ष व्‍यतीत किये। एक दिन वे यमुना नदी के निकटवर्ती वन में गये। वहाँ राजा को अवर्णीय एवं परम उत्तम सुगन्‍ध का अनुभव हुआ। वे उसके उद्गम स्‍थान का पता लगाते हुए सब ओर विचरने लगे। घूमते-घूमते उन्‍होंने मल्लाओं की एक कन्‍या देखी, जो देवांगनाओं के समान रुपवती थी। श्‍याम नेत्रों वाली उस कन्‍या को देखते ही,,

 राजा ने पूछा ;- ‘भीरु! तू कौन है, किसी पुत्री है और क्‍या करना चाहती है?’ वह बोली- राजन्! आपका कल्‍याण हो। मैं निषाद कन्‍या हूँ और अपने पिता महामना निषादराज की आज्ञा से धर्मार्थ नाव चलाती हूँ।’

राजा शान्‍तनु ने रुप, माधुर्य तथा सुगन्‍ध से युक्त देवांगना के तुल्‍य उसके पिता के समीप जाकर उन्‍होंने उसका वरण किया। 

उन्‍होंने उसके पिता से पूछा ;- ‘मैं अपने लिये तुम्‍हारी कन्‍या चाहता हूँ।' यह सुनकर निषादराज ने राजा शान्‍तनु को यह उत्तर दिया,,

निषादराज ने कहा ;- ‘जनेश्वर! जब से इस सुन्‍दरी कन्‍या का जन्‍म हुआ है, तभी से मेरे मन में यह चिन्‍ता है कि इसका किसी श्रेष्ठ वर के साथ विवाह करना चाहिये; किंतु मेरे हृदय में एक अभिलाषा है, उसे सुन लीजिये। पापरहित नरेश! यदि इस कन्‍या को अपनी धर्मपत्नी बनाने के लिये आप मुझसे मांग रहे हैं, तो सत्‍य को सामने रखकर मेरी इच्‍छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कीजिये; क्‍योंकि आप सत्‍यवादी हैं। राजन! मैं इस कन्‍या को एक शर्त के साथ आपकी सेवा में दूंगा। मुझे आपके समान दूसरा कोई श्रेष्ठ वर कभी नहीं मिलेगा’।

शान्‍तनु ने कहा ;- निषाद! पहले तुम्‍हारे अभी फि‍र वर को सुन लेने पर मैं उसके विषय में कुछ निश्चय कर सकता हूँ। यदि देने योग्‍य होगा, तो दूंगा और देने योग्‍य नहीं होगा, तो कदापि नहीं दे सकता। 

निषाद बोला ;- पृथ्‍वीपते! इसके गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्न हो, आपके बाद उसी का राजा के पद पर अभिषेक किया जाय, अन्‍य किसी राजकुमार का नहीं।

 वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा शान्‍तनु प्रचण्‍ड कामाग्नि से जल रहे थे, तो भी उनके मन में निषाद को वह वर देने की इच्‍छा नहीं हुई। काम की वेदना से उनका चित्त चंचल था। वे उस निषाद कन्‍या का ही चिन्‍तन करते हुए उस समय हस्तिनापुर को लौट गये। तदनन्‍तर एक दिन राजा शान्‍तनु ध्‍यानस्‍थ होकर कुछ सोच रहे थे- चिन्‍ता में पड़े थे। इसी समय उनके पुत्र देवव्रत अपने पिता के पास आये और इस प्रकार बोले।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) शततम अध्‍याय के श्लोक 60-73 का हिन्दी अनुवाद)

देवव्रत बोले ;- ‘पिता जी! आपका तो सब ओर से कुशल-मंगल है, भू-मण्‍डल के सभी नरेश आपकी आज्ञा के अधीन हैं; फि‍र किसलिये आप निरन्‍तर दुखी होकर शोक और चिन्‍ता में डूबे रहते हैं। राजन! आप इस तरह मौन बैठे रहते हैं, मानो किसी का ध्‍यान कर रहे हों; मुझसे कोई बातचीत तक नहीं करते। घोड़े पर सवार हो कहीं बाहर भी नहीं निकलते। आपकी कान्ति मलिन होती जा रही है। आप पीले और दुबले हो गये हैं। आपको कौन-सा रोग लग गया है, वह मैं जानना चाहता हूं, जिससे उसका प्रतीकार कर सकूं।’ पुत्र के ऐसा कहने पर शान्‍तनु ने उत्तर दिया-

शान्‍तनु ने कहा ;- ‘बेटा! इसमें संदेह नहीं कि मैं चिन्‍ता में डूबा रहता हूँ। वह चिन्‍ता कैसी है, सो बताता हूं, सुनो। भारत! तुम इस विशाल वंश में मेरे एक ही पुत्र हो। तुम भी सदा अस्त्र-शस्त्रों के अभ्‍यास में लगे रहते हो और पुरुषार्थ के लिये सदैव उद्यत रहते हो। बेटा! मैं इस जगत् की अनित्‍या को लेकर निरन्‍तर शोक ग्रस्‍त एवं चिन्तित रहता हूँ। गंगानन्‍दन! यदि किसी प्रकार तुम पर कोई विपत्ति आयी, तो उसी दिन हमारा यह वंश समाप्त हो जायेगा। इसमें संदेह नहीं कि तुम अकेले ही मेरे लिये सौ पुत्रों से भी बढ़कर हो। मैं पुन: व्‍यर्थ विवाह नहीं करना चाहता; किंतु हमारी वंश परम्‍परा का लोप न हो, इसी के लिये मुझे पुन: पत्नी की कामना हुई है। तुम्‍हारा कल्‍याण हो। धर्मवादी विद्वान् कहते हैं कि एक पुत्र का होना संतान हीनता के ही तुल्‍य है। भारत! एक आंख अथवा एक पुत्र यदि है, तो वह भी नहीं के बराबर है। नेत्र का नाश होने पर मानो शरीर का ही नाश हो जाता है, इसी प्रकार पुत्र के नष्ट होने पर कुल-परम्‍परा ही नष्ट हो जाती है। अग्निहोत्र, तीनों वेद तथा शिष्‍य-प्रशिष्‍य के क्रम से चलने वाले विद्याजनित वंश की अक्षय परम्‍परा- ये सब मिलकर भी जन्‍म से होने वाली संतान की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं है।

भारत! महाप्राज्ञ! इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि संतान, कर्म और विद्या- ये तीन ज्‍योतियां हैं; इनमें भी जो संतान है, उसका महत्त्व सबसे अधिक है। यही वेदत्रयी पुराण तथा देवताओं का भी सनातन मत है। तात! मेरी चिन्‍ता का जो कारण है, वह सब तुम्‍हें स्‍पष्ट बता दिया। भारत! तुम शूरवीर हो। तुम कभी किसी की बात सहन नहीं कर सकते और सदा अस्त्र-शस्त्रों के अभ्‍यास में ही लगे रहते हो; अत: युद्ध के सिवा और किसी कारण से कभी तुम्‍हारी मृत्‍यु होने की सम्‍भावना नहीं है। इसलिये मैं इस संदेह में पड़ा हूँ कि तुम्‍हारे शान्‍त हो जाने पर इस वंश परम्‍परा का निर्वाह कैसे होगा? तात! यही मेरे दु:ख का कारण है; वह सब-का-सब तुम्‍हें बता दिया’। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा के दु:ख का वह सारा कारण जानकर परमबुद्धिमान् देवव्रत ने अपनी बुद्धि से भी उस पर विचार किया। तदनन्‍तर वे उसी समय तुरंत अपने पिता के हितैषी बूढ़े मन्‍त्री के पास गये और पिता के शोक का वास्‍तविक कारण क्‍या है, इसके विषय में उनसे पूछताछ की।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) शततम अध्‍याय के श्लोक 74-84 का हिन्दी अनुवाद)

भरतश्रेष्ठ! कुरुवंश के श्रेष्ठ पुरुष देवव्रत के भली-भाँति पूछने पर वृद्ध मन्‍त्री ने बताया कि महाराज एक कन्‍या से विवाह करना चाहते हैं। उसके बाद भी दु:ख से दुखी देवव्रत ने पिता के सारथि को बुलाया। राजकुमारी की आज्ञा पाकर कुरुराज शान्‍तनु का सारथि उनके पास आया। तब महाप्राज्ञ भीष्‍म ने पिता के सारथि से पूछा। 

भीष्‍म बोले ;- सारथे! तुम मेरे पिता के सखा हो, क्‍योंकि उनका रथ जोतने वाले हो, क्‍या तुम जानते हो कि महाराज का अनुराग किस स्त्री में है? मेरे पूछने पर तुम जैसा कहोगे, वैसा ही करूंगा, उसके विपरीत नहीं करूंगा।

सूत बोला ;- नरश्रेष्ठ! एक धीवर की कन्‍या है, उसी के प्रति आपके पिता का अनुराग हो गया है। महाराज ने धीवर से उस कन्‍या को मांगा भी था, परंतु उस समय उसने यह शर्त रखी कि 'इसके गर्भ से जो पुत्र हो, वही आपके बाद राजा होना चाहिये।' आपके पिताजी के मन में धीवर को ऐसा वर देने की इच्‍छा नहीं हुई। इधर उसका भी पक्का निश्चय है कि यह शर्त स्‍वीकार किये बिना मैं अपनी कन्‍या नहीं दूंगा। वीर! यही वृत्तान्‍त है, जो मैंने आपसे निवेदन कर दिया। इसके बाद आप जैसा उचित समझें वैसा करें। यह सुनकर कुमार देवव्रत ने उस समय बूढ़े क्षत्रियों के साथ निषादराज के पास जाकर स्‍वयं आने पिता के लिये उसकी कन्‍या मांगी। भारत! उस समय निषाद ने उनका बड़ा सत्‍कार किया और विधि पूर्वक पूजा करके आसन पर बैठने के पश्चात् साथ आये हुए क्षत्रियों की मण्‍डली में दाशराज ने उनसे कहा।

दाशराज बोला ;- याचकों में श्रेष्ठ राजकुमार! इस कन्‍या को देने में मैंने राज्‍य को ही शुल्‍क रखा है। इसके गर्भ से जो पुत्र उत्‍पन्न हो, वही पिता के बाद राजा हो। भरतर्षभ! राजा शान्‍तनु के पुत्र अकेले आप ही सबकी रक्षा के लिये पर्याप्त हैं। शस्त्रधारियों में आप सबसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं; परंतु तो भी मैं अपनी बात आपके सामने रखूंगा। ऐसे मनुऽनुकूल और स्‍पृहणीय उत्तम विवाह-सम्‍बन्‍ध को ठुकराकर कौन ऐसा मनुष्‍य होगा जिसके मन में संताप न हो? भले ही वह साक्षात इन्‍द्र ही क्‍यों न हो। यह कन्‍या एक आर्य पुरुष की संतान है, जो गुणों में आप लोगों के ही समान हैं और जिनके वीर्य से सुन्‍दरी सत्‍यवती का जन्‍म हुआ है।

तात! उन्‍होंने अनेक बार मुझसे आपके पिता के विषय में चर्चा की थी। वे कहते थे, सत्‍यवती को ब्याहने के योग्‍य तो केवल धर्मज्ञ राजा शान्‍तनु ही हैं। महान् कीर्ति वाले राजर्षि शान्‍तनु सत्यवती को पहले भी बहुत आग्रहपूर्वक मांग चुके हैं; किंतु उनके मांगने पर भी मैंने उनकी बात अस्‍वीकार कर दी थी। युवराज! मैं कन्‍या का पिता होने के कारण कुछ आपसे भी कहूंगा ही। आपके यहाँ जो सम्बन्‍ध हो रहा है, उसमें मुझे केवल एक दोष दिखाई देता है, बलवान् के साथ शत्रुता। परंतप! आप जिसके शत्रु होंगे, वह गन्‍धर्व हो या असुर, आपके कुपित होने पर कभी चिरजीवी नहीं हो सकता। पृथ्‍वीनाथ! बस, विवाह में इतना ही दोष है, दूसरा कोई नहीं। परंतप! आपका कल्‍याण हो, कन्‍या को देने या न देने में केवल यही दोष विचारणीय है; इस बात को आप अच्‍छी तरह समझ लें।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) शततम अध्‍याय के श्लोक 85-98 का हिन्दी अनुवाद)

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! निषाद के ऐसा कहने पर गंगानन्‍दन देवव्रत ने पिता के मनोरथ को पूर्ण करने के लिये सब राजाओं के सुनते-सुनते यह उचित उत्तर दिया,,

देवव्रत बोले ;- ‘सत्‍यवानों में श्रेष्ठ निषादराज! मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा सुनो और ग्रहण करो। ऐसी बात कह सकने वाला कोई मनुष्‍य न अब तक पैदा हुआ है और न आगे पैदा होगा। लो, तुम जो कुछ चाहते या कहते हो, वैसा ही करूंगा। इस सत्‍यवती के गर्भ से जो पुत्र पैदा होगा, वही हमारा राजा बनेगा’। भरतवंश जनमेजय! देवव्रत! के ऐसा कहने पर निषाद उनसे फि‍र बोला। वह राज्‍य के लिये उनसे कोई दुष्‍कर प्रतिज्ञा कराना चाहता था।

उसने कहा ;- ‘अमित तेजस्‍वी युवाराज! आप ही महाराज शान्‍तनु की ओर से मालिक बनकर यहाँ आये हैं। धर्मात्‍मन्! इस कन्‍या पर भी आपका पूरा अधिकार है। आप जिसे चाहें, इसे दे सकते हैं। आप सब कुछ करने समर्थ हैं। परंतु सौम्‍य! इस विषय में मुझे आपसे कुछ और कहना है और वह आवश्‍यक कार्य है; अत: आप मेरे इस कथन को सुनिये। शत्रुदमन! कन्‍याओं में प्रति स्‍नेह रखने वाले सगे-सम्‍बन्धियों का जैसा स्‍वभाव होता है, उसी से प्रेरित होकर मैं आपसे कुछ निवेदन करूंगा। सत्‍यधर्म पारायण राजकुमार! आपने सत्‍यवती के हित के लिये इन राजाओं के बीच में जो प्रतिज्ञा की है, वह आपके ही योग्‍य है। महाबाहो! वह टल नहीं सकती; उसके विषय में मुझे कोई संदेह नहीं है, परंतु आपका जो पुत्र होगा, वह शायद इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ न रहे, यही हमारे मन में बड़ा भारी संशय है’।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! निषादराज के इस अभिप्राय को समझकर सत्‍यधर्म में तत्‍पर रहने वाले कुमार देवव्रत ने उस समय पिता का प्रिय करने की इच्‍छा से यह कठोर प्रतिज्ञा की।

भीष्‍म ने कहा ;- नरश्रेष्ठ निषादराज! मेरी यह बात सुनो। जो-जो ऋषि एवं अन्‍तरिक्ष के प्राणी यहाँ हों, वे सब भी सुनें। मेरे समान वचन देने वाला दूसरा नहीं है। निषाद! मैं सत्‍य कहता हूं, पिता के हित के लिये सब भूमिपालों के सुनते हुए मैं जो कुछ कहता हूं, मेरी इस बात को समझो। राजाओं! राज्‍य तो मैंने पहले ही छोड़ दिया है; अब संतान के लिये भी अटल निश्चय कर रहा हूँ। निषादराज! आज से मेरा आजीवन अखण्‍ड ब्रह्मचर्य व्रत चलता रहेगा। मेरे पुत्र न होने पर भी स्‍वर्ग में मुझे अक्षय लोक प्राप्त होंगे। मैंने जन्‍म से लेकर अब तक कोई झूठ बात नहीं कही है। जब तक मेरे शरीर में प्राण रहेंगे, तब तक मैं संतान नहीं उत्‍पन्न करूंगा। तुम पिताजी के लिये अपनी कन्‍या दे दो। काश! मैं राज्‍य तथा मैथुन का सर्वथा परित्‍याग करूंगा और उर्ध्‍वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) होकर रहूंगा- यह मैं तुमसे सत्‍य कहता हूँ।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- देवव्रत का यह वचन सुनकर धर्मात्‍मा निषादराज के रोंगटे खड़े हो गये। उसने तुरंत उत्तर दिया,,

 निषादराज बोले ;- ‘मैं यह कन्‍या आपके पिता के लिये अवश्‍य देता हूं’। उस समय अन्‍तरिक्ष में अप्‍सरा, देवता तथा ऋषिगण फूलों की वर्षा करने लगे और बोल उठे- ‘ये भयंकर प्रतिज्ञा करने वाले राजकुमार भीष्‍म हैं (अर्थात भीष्‍म के नाम से इनकी ख्‍याति होगी)।’

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) शततम अध्‍याय के श्लोक 99-103 का हिन्दी अनुवाद)

तत्‍पश्चात भीष्म पिता के मनोरथ की सिद्धि के लिये उस यशस्विनी निषाद कन्‍या से बोले,,

भीष्म बोले ;- ‘माता जी! इस रथ पर बैठिये। अब हम लोग अपने घर चलें’।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहकर भीष्‍म ने उस भामिनी को रथ पर बैठा लिया और हस्तिनापुर आकर उसे महाराज शान्तनु को सौंप दिया। उनके इस दुष्‍कर कर्म की सब राजा लोग एकत्र होकर और अलग-अलग भी प्रशंसा करने लगे। सबने एक स्‍वर से कहा, ‘यह राजकुमार वास्‍तव में भीष्‍म है’। भीष्‍म के द्वारा किये हुए उस दुष्‍कर कर्म की बात सुनकर राजा शान्‍तनु बहुत संतुष्ट हुए और उन्‍होंने उन महात्‍मा भीष्‍म को स्‍वच्‍छन्‍द मृत्‍यु का वरदान दिया।

राजा शान्‍तनु बोले ;- ‘मेरे निष्‍पाप पुत्र! तुम जब तक यहाँ जीवित रहना चाहोगे, तब तक मृत्‍यु तुम्‍हारे ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। तुमसे आज्ञा लेकर ही मृत्यु तुम पर अपना प्रभाव प्रकट कर सकती है’।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में सत्यवतीलाभोपाख्यान-विषयक सौवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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