सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ एकवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद और विचित्रवीर्य की उत्पत्ति, शान्तनु और चित्रांगद का निधन तथा विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- सत्यवती चेदिराज वसु की पुत्री है और निषादराज ने इसका पालन-पोषण किया है- यह जानकर राजा शान्तनु ने उसके साथ शास्त्रीय विधि से विवाह किया। तदनन्तर विवाह सम्पन्न हो जाने पर राजा शान्तनु ने उस रुपवती कन्या को अपने महल में रखा। कुछ काल के पश्चात् सत्यवती के गर्भ से शान्तनु का बुद्धिमान् पुत्र वीर चित्रांगद उत्पन्न हुआ, जो बड़ा ही पराक्रमी तथा समस्त पुरुषों में श्रेष्ठ था। इसके बाद महापराक्रमी और शक्तिशाली राजा शान्तनु ने दूसरे पुत्र महान् धनुर्धर राजा विचित्रवीर्य को जन्म दिया। नरश्रेष्ठ विचित्रवीर्य अभी यौवन को प्राप्त भी नहीं हुए थे कि बुद्धिमान् महाराजा शान्तनु की मृत्यु हो गयी। शान्तनु के स्वर्गवासी हो जाने पर भीष्म ने सत्यवती की सम्मत्ति से शत्रुओं का दमन करने वाले वीर चित्रांगद को राज्य पर बिठाया। चित्रांगद अपने शौर्य के घमंड में आकर सब राजाओं का तिरस्कार करने लगे। वे किसी भी मनुष्य को अपने समान नहीं मानते थे। मनुष्यों पर ही नहीं, वे देवताओं तथा असुरों पर भी आक्षेप करते थे। तब एक दिन उन्हीं के समान नाम वाला महाबली गन्धर्वराज चित्रांगद उनके पास आया।
गन्धर्व ने कहा ;- राजकुमार! तुम मेरे सदृश नाम धारण करते हो, अत: मुझे युद्ध का अवसर दो और यदि यह न कर सके तो अपना दूसरा नाम रख लो। मैं तुमसे युद्ध करना चाहता हूँ। मेरे नाम द्वारा व्यर्थ पुकारा जाने वाला मनुष्य मेरे सामने सकुशल नहीं जा सकता। तदनन्तर उसके पास कुरुक्षेत्र में राजा चित्रांगद का बड़ा भारी युद्ध हुआ। गन्धर्वराज और कुरुराज दोनों ही बड़े बलवान थे। उनमें सरस्वती नदी के तट पर तीन वर्षों तक युद्ध होता रहा। अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा से व्याप्त घमासान युद्ध में माया ने बडे़-चढ़े हुए गन्धर्व ने कुरुक्षेत्र वीर चित्रांगद का वध कर डाला। शत्रुओं का दमन करने वाले नरश्रेष्ठ चित्रांगद को मारकर युद्ध समाप्त करके वह गन्धर्व स्वर्गलोक में चला गया। उन महान तेजस्वी पुरुषसिंह चित्रांगद के मारे जाने पर शान्तनुनंदन भीष्म ने उनके प्रेम-कर्म करवाये। विचित्रवीर्य अभी बालक थे। युवावस्था में नहीं पहुँचे थे तो भी महाबाहु भीष्म ने उन्हें कुरुक्षेत्र के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। महाराज जनमेयज! तब विचित्रवीर्य भीष्म जी की आज्ञा के अधीन रहकर अपने बाप-दादों के राज्य का शासन करने लगे। शान्तनुनंदन भीष्म धर्म एवं राजनीति आदि शास्त्रों में कुशल थे, अत: राजा विचित्रवीर्य धर्मपूर्वक उनका सम्मान करते थे और भीष्म जी इन अल्पवयस्क नरेश की सब प्रकार से रक्षा करते थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में चित्रांगदोपाख्यानविषयक एक सौ एकवां अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ एकवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वयधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"भीष्म के द्वारा स्वयंवर से काशिराज की कन्याओं का हरण, युद्ध में सब राजाओं तथा शाल्व की पराजय, अम्बिका और अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह तथा निधन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! चित्रांगद के मारे जाने पर दूसरे भाई विचित्रवीर्य अभी बहुत छोटे थे, अत: सत्यवती की राय से भीष्म जी ने ही उस राज्य का पालन किया। जब विचित्रवीर्य धीरे-धीरे युवावस्था में पहुँचे, तब बुद्धिमानों में श्रेष्ठ भीष्म जी ने उनकी वह अवस्था देख विचित्रवीर्य के विवाह पर विचार किया। राजन! उन दिनों काशिराज की तीन कन्याएं थीं, जो अप्सराओं के समान सुन्दर थीं। भीष्म जी ने सुना, वे तीनों कन्याएं साथ ही स्वयंवर सभा में पति का वरण करने वाली हैं। तब माता सत्यवती की आज्ञा से रथियों में श्रेष्ठ शत्रुविजयी भीष्म एकमात्र रथ के साथ वाराणसी पुरी को गये। वहाँ शान्तनुनंदन भीष्म ने देखा, सब ओर से आये हुए राजओं का समुदाय स्वयंवर सभा में जुटा हुआ है और कन्याएं भी स्वयंवर में उपस्थित हैं। उस समय सब ओर राजाओं के नाम ले-लेकर उन सबका परिचय दिया जा रहा था। इतने में ही शान्तनुनंदन भीष्म, जो अब वृद्ध हो चले थे, वहाँ अकेले ही आ पहुँचे। उन्हें देखकर वे सब परमसुन्दरी कन्याएं उद्विग्न सी होकर, ये बूढे़ हैं, ऐसा सोचती हुए वहाँ से दूर भाग गयीं। वहाँ जो नीच स्वभाव के नरेश एकत्र थे, वे आपस में ये बातें करते हुए उनकी हंसी उड़ाने लगे- ‘भरतवंशियों में श्रेष्ठ भीष्म तो बड़े धर्मात्मा सुने जाते थे। ये बूढ़े हो गये हैं, शरीर में झुर्रियां पड़ गयी हैं, सिर के बाल सफेद हो चुके हैं; फिर क्या कारण है कि यहाँ आये हैं? ये तो बड़े निर्लज्ज जान पड़ते हैं। अपनी प्रतिज्ञा झूठी करके ये लोगों में क्या कहेंगे- कैसे मुंह दिखायेंगे? भूमण्डल में व्यर्थ ही यह बात फैल गयी कि भीष्म जी ब्रह्मचारी हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! क्षत्रियों की ये बातें सुनकर भीष्म अत्यन्त कुपित हो उठे। राजन्! वे शक्तिशाली तो थे ही, उन्होंने उस समय स्वयं ही समस्त कन्याओं का वरण किया। इतना ही नहीं, प्रहार करने वालों में श्रेष्ठ वीरवर भीष्म ने उन कन्याओं को उठाकर रथ पर चढ़ा लिया और समस्त राजाओं को ललकारते हुए मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा,,
भीष्म ने कहा ;- ‘विद्वानों ने कन्या को यथाशक्ति वस्त्राभूषणों से विभूषित करके गुणवान् वर को बुलाकर उसे कुछ धन देने के साथ ही कन्यादान करना उत्तम (ब्राह्म विवाह) बताया है। कुछ लोग एक जोड़ा गाय और बैल लेकर कन्यादान करते हैं (यह आर्ष विवाह है)। कितने ही मनुष्य नियत धन लेकर कन्यादान करते हैं (यह आसुर विवाह है) कुछ लोग बल से कन्या का हरण करते हैं (यह राक्षस विवाह है)। दूसरे लोग वर और कन्या की परस्पर अनुमति होने पर विवाह करते हैं (यह गान्धर्व विवाह है) कुछ लोग अचेत अवस्था में पड़ी हुई कन्या को उठा ले जाते हैं (यह पैशाच विवाह है)। कुछ लोग वर और कन्या को एकत्र करके स्वयं ही उनसे प्रतिज्ञा कराते हैं कि हम दोनों गार्हस्थ्य धर्म का पालन करेंगे; फिर कन्या पिता दोनों की पूजा करके अलंकारयुक्त कन्या का वर के लिये दान करता है; इस प्रकार विवाहित होने वाले (प्राजापत्य विवाह की रीति से) पत्नी की उपलब्धि करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वयधिकशततम अध्याय के श्लोक 15-29 का हिन्दी अनुवाद)
कुछ लोक आर्ष विधि (यज्ञ) करके ॠत्विजों को कन्या देते हैं। इस प्रकार विवाहित होने वाले (दैव विवाह की रीति से) पत्नी प्राप्त करते हैं। इस तरह विद्वानों ने यह विवाह का आठवाँ प्रकार माना है। इन सबको तुम लोग समझो। क्षत्रिय स्वयंवर की प्रशंसा करते और उसमें जाते हैं; परंतु उसमें भी समस्त राजाओं को परास्त करके जिस कन्या का अपहरण किया जाता है, धर्मवादी विद्वान् क्षत्रिय के लिये उसे सबसे श्रेष्ठ मानते हैं। अत: भूमिपालों! मैं इन कन्याओं को यहाँ से बलपूर्वक हर ले जाना चाहता हूँ। तुम लोग अपनी सारी शक्ति लगाकर विजय अथवा पराजय के लिये मुझे रोकने का प्रयत्न करो। राजाओं! मैं युद्ध के लिये दृढ़ निश्चय करके यहाँ डटा हुआ हूँ।’ परमपराक्रमी कुरुकुल श्रेष्ठ भीष्म जी उन महीपालों तथा काशिराज से उपर्युक्त बातें कहकर उन समस्त कन्याओं को, जिन्हें वे उठाकर अपने रथ पर बिठा चुके थे, साथ लेकर सबको ललकारते हुए वहाँ से शीघ्रतापूर्वक चल दिये।
फिर तो समस्त राजा इस अपमान को न सह सके; वे अपनी भुजाओं का स्पर्श करते (ताल ठोकते) और दांतों से ओठ चबाते हुए अपनी जगह से उछल पड़े। सब लोग जल्दी-जल्दी अपने आभूषण उतारकर कवच पहनने लगे। उस समय बड़ा भारी कोलाहल मच गया। जनमेजय! जल्दबाजी के कारण उन सबके आभूषण और कवच इधर-उधर गिर पड़े थे। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाश मण्डल से तारे टूट-टूट कर गिर रहे हों। कितने ही योद्धओं के कवच और गहने इधर-उधर बिखर गये। क्रोध और अमर्ष के कारण उनकी भौहें टेढ़ी और आंखें लाल हो गयी थीं। सारथियों ने सुन्दर रथ सजाकर उनमें सुन्दर अश्व जोत दिये थे। उन रथों पर बैठकर सब प्रकार के अस्त्र-शास्त्रों से सम्पन्न हो हथियार उठाये हुए उन वीरों ने जाते हुए कुरुनन्दन भीष्म जी का पीछा किया।
जनमेजय! तदनन्तर उन राजाओं और भीष्म जी का घोर संग्राम हुआ। भीष्म जी अकेले थे और राजा लोग बहुत। उनमें रोंगट खड़े कर देने वाला भयंकर संग्राम छिड़ गया। राजन्! उन नरेशों ने भीष्म जी पर एक ही साथ दस हजार बाण चलाये; परंतु भीष्म जी ने उन सबको अपने ऊपर आने से पहले बीच में ही विशाल पंख युक्त बाणों की बौछार करके शीघ्रतापूर्वक काट गिराया। तब वे सब राजा उन्हें चारों ओर से घेरकर उनके ऊपर उसी प्रकार बाणों की झड़ी लगाने लगे, जैसे बादल पर्वत पर पानी की धारा बरसाते हैं। भीष्म जी ने सब ओर से उस बाण-वर्षा को रोक कर उन सभी राजाओं को तीन-तीन बाणों से घायल कर दिया। तब उनमें से प्रत्येक ने भीष्म जी को पाँच-पाँच बाण मारे।
(महाभारत (आदि पर्व) द्वयधिकशततम अध्याय के श्लोक 30-53 का हिन्दी अनुवाद)
बाणों और शक्तियों से व्याप्त उनका वह तुमुल युद्ध देवासुर-संग्राम के समान भयंकर जान पड़ता था। उस समरांगन में भीष्म ने लोक विख्यात वीरों के देखते-देखते उनके धनुष, ध्वजा के अग्रभाग, कवच और मस्तक सैकड़ों और हजारों की संख्या में काट गिराये। युद्ध में रथ से विचरने वाले भीष्म जी की दूसरे वीरों से बढ़कर हाथ की फुर्ती और आत्मरक्षा आदि की शत्रुओं ने भी सराहना की। सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भरतकुलभूषण भीष्म जी ने उन सब योद्धाओं को जीतकर कन्याओं को साथ ले भरतवंशियों की राजधानी हस्तिनापुर को प्रस्थान किया। राजन्! तब महारथी शाल्वराज ने पीछे से आकर युद्ध के लिये शान्तनुनन्दन भीष्म पर आक्रमण किया। शाल्व के शारीरिक बल की कोई सीमा नहीं थी। जैसे हथिनी के पीछे लगे हुए एक गजराज के पृष्ठभाग में उसी का पीछा करने वाला दूसरा यूथपति दांतों से प्रहार करके उसे विदीर्ण करना चाहता है, उसी प्रकार बलवानों में श्रेष्ठ महाबाहु शाल्वराज स्त्री को पाने की इच्छा से ईर्ष्या और क्रोध के वशीभूत हो भीष्म का पीछा करते हुए उनसे बोला,,
महाबाहु शाल्वराज बोला ;- ‘अरे ओ! खड़ा रह, खड़ा रह।’ तब शत्रुसेना का संहार करने वाले पुरुषसिंह भीष्म उसके उसके वचनों को सुनकर क्रोध से व्याकुल हो धूमरहित अग्नि के समान जलने लगे और हाथ में धनुष-बाण लेकर खड़े हो गये। उनके ललाट में सिकुड़न आ गयी। महारथी भीष्म ने क्षत्रिय धर्म का आश्रय ले भय और घबराहट छोड़कर शाल्व की ओर अपना रथ लौटाया। उन्हें लौटते देख सब राजा भीष्म और शाल्व के युद्ध में कुछ भाग न लेकर केवल दर्शक बन गये। ये दोनों बलवान् वीर मैथुन की इच्छा वाली गौ के लिये आपस में लड़ने वाले दो सांड़ों की तरह हुंकार करते हुए एक-दूसरे से भिड़ गये। दोनों ही बल और पराक्रम से सुशोभित थे। तदनन्तर मनुष्यों में श्रेष्ठ राजा शाल्व शान्तनुनन्दन भीष्म पर सैकड़ों और हजारों शीघ्रगामी बाणों की बौछार करने लगा। शाल्व ने पहले ही भीष्म को पीड़ित कर दिया। यह देखकर सभी राजा आश्रर्यचकित हो गये और ‘वाह-वाह’ करने लगे। युद्ध में उसकी फुर्ती देख सब राजा बड़े प्रसन्न हुए और अपनी वाणी द्वारा शाल्व नरेश की प्रशंसा करने लगे। शत्रुओं की राजधानी को जीतने वाले शान्तनुनन्दन भीष्म ने क्षत्रियों की ये बातें सुनकर कुपित हो शाल्व से कहा,,
शान्तनुनन्दन भीष्म ने कहा ;- ‘खड़ा रह, खड़ा रह’।
फिर सारथि से कहा ;- ‘जहाँ यह राजा शाल्व है, उधर ही रथ ले चलो। जैसे पक्षिराज गरुड़ सर्प को दबोच लेते हैं, उसी प्रकार मैं इसे अभी मार डालता हूँ।
जनमेजय! तदनन्तर कुरुनन्दन भीष्म ने धनुष पर उचित रीति से वारुणास्त्र का संधान किया और उसके द्वारा शाल्वराज के चारों घोड़ों को रौंद डाला। नृपश्रेष्ठ! फिर अपने अस्त्रों से राजा शाल्व के अस्त्रों का निवारण करके कुरुवंशी भीष्म ने उसके सारथि को भी मार डाला। तत्पश्चात ऐन्द्रास्त्र द्वारा उसके उत्तम अश्वों को यमलोक पहुँचा दिया। नरश्रेष्ठ! उस समय शान्तनुनन्दन भीष्म ने कन्याओं के लिये युद्ध करके शाल्व को जीत लिया और नृपश्रेष्ठ शाल्व का भी केवल प्राणमात्र छोड़ दिया। जनमेजय! उस समय शाल्व अपनी राजधानी लौट गया और धर्मपूर्वक राज्य का पालन करने लगा। इसी प्रकार शत्रुनगरी पर विजय पाने वाले जो-जो राजा वहाँ स्वयंवर देखने की इच्छा से आये थे, वे भी अपने-अपने देश को चले गये। प्रहार करने वाले योद्धाओं में श्रेष्ठ भीष्म उन कन्याओं को जीतकर हस्तिनापुर को चल दिये; जहाँ रहकर धर्मात्मा कुरुवंशी राजा विचित्रवीर्य इस पृथ्वी का शासन करते थे। उनके पिता कुरुश्रेष्ठ नृपशिरोमणि शान्तनु जिस प्रकार राज्य करते थे, वैसा ही वे भी करते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वयधिकशततम अध्याय के श्लोक 54-73 का हिन्दी अनुवाद)
जनमेजय! भीष्म जी थोड़े ही समय में वन, नदी, पर्वतों को लांघते और नाना प्रकार के वृक्षों को लांघते हुए आगे बढ़ गये। युद्ध में उनका पराक्रम अवर्णनीय था। उन्होंने स्वयं अक्षत रहकर शत्रुओं को ही क्षति पहुँचायी थी। धर्मात्मा गंगानन्दन भीष्म काशिराज की कन्याओं को पुत्रवधू, छोटी बहिन एवं पुत्री की भाँति साथ रखकर कुरुदेश में ले आये। वे महाबाहु अपने भाई विचित्रवीर्य का प्रिय करने की इच्छा से उन सबको लाये थे। भाई भीष्म ने अपने पराक्रम द्वारा हरकर लायी हुई उन सर्वसद्गुण सम्पन्न कन्याओं को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के हाथ में दिया। धर्मज्ञ एवं जितात्मा भीष्म जी इस प्रकार धर्मपूर्वक अलौकिक पराक्रम करके माता सत्यवती से सलाह ले एक निश्चय पर पहुँचकर भाई विचित्रवीर्य के विवाह की तैयारी करने लगे। काशिराज की उन कन्याओं में जो सबसे बड़ी थी, वह बड़ी सती-साध्वी थी। उसने जब सुना कि भीष्म जी मेरा विवाह अपने छोटे भाई के साथ करेंगे, तब वह उनसे इस प्रकार बोली-
सती-साध्वी बोली ;- ‘धर्मात्मन्! मैंने पहले से ही मन-ही-मन सौम नामक विमान के अधिपति राजा शाल्व को पतिरुप में वरण कर लिया था। उन्होंने भी पूर्वकाल में मेरा वरण किया था। मेरे पिता जी की भी यही इच्छा थी कि मेरा विवाह शाल्व के साथ हो। उस स्वयंवर में मुझे राजा शाल्व का ही वरण करना था। धर्मज्ञ! इन सब बातो को सोच-समझकर जो धर्म का सार प्रतीत हो, वही कार्य कीजिये। जब उस कन्या ने ब्राह्मण मण्डली के बीच वीरवर भीष्म जी से इस प्रकार कहा, तब वे उस वैवाहिक कर्म के विषय में युक्तियुक्त विचार करने लगे। वे स्वयं भी धर्म के ज्ञाता थे, फिर वेदों के पारंगत विद्वान् ब्राह्मणों के साथ भली-भाँति विचार करके उन्होंने काशिराज की ज्येष्ठ पुत्री अम्बा को उस समय शाल्व के यहाँ जाने की अनुमति दे दी। शेष दो कन्याओं का नाम अम्बिका और अम्बालिका था। उन्हें भीष्म जी ने शास्त्रोक्त विधि के अनुसार छोटे भाई विचित्रवीर्य को पत्नी रुप में प्रदान किया। उन दोनों का पाणिग्रहण करके रुप और यौवन के अभिमान से भरे हुए धर्मात्मा विचित्रवीर्य कामात्मा बन गये। उनकी वे दोनों पत्नियां सयानी थीं।
उनकी अवस्था सोलह वर्ष की हो चुकी थी। उनके केश नीले और घुंघराले थे; हाथ पैरों के नख लाल और ऊंचे थे; नितम्ब और उरोज स्थूल और उभरे हुए थे। वे यह जानकर संतुष्ट थीं कि हम दोनों को अपने अनुरुप पति मिले हैं, अत: वे दोनों कल्याणमयी देवियां विचित्रवीर्य की बड़ी सेवा-पूजा करने लगीं। विचित्रवीर्य का रुप अश्विनी कुमारों के समान था। वे देवताओं के समान पराक्रमी थे। एकान्त में वे सभी नारियों के मन को मोह लेने की शक्ति रखते थे। राजा विचित्रवीर्य ने उन दोनों पत्नियों के साथ सात वर्षों तक निरन्तर विहार किया, अत: उस असंयम के परिणामस्वरुप वे युवावस्था में ही राजयक्ष्मा के शिकार हो गये।। उनके हितैषी सगे-सम्बन्धियों ने नामी और विश्वसनीय चिकित्सकों के साथ उनके रोग-निवारण की पूरी चेष्टा की, तो भी जैसे सूर्य अस्ताचल को चले जाते हैं, उसी प्रकार वे कौरव नरेश यमलोक को चले गये। धर्मात्मा गंगानन्दन भीष्म जी भाई की मृत्यु से चिन्ता और शोक में डूब गये। फिर माता सत्यवती की आज्ञा के अनुसार चलने वाले उन भीष्म जी ने ऋत्विजों तथा कुरुकुल के समस्त श्रेष्ठ पुरुषों के साथ राजा विचित्रवीर्य के सभी प्रेतकार्य अच्छी तरह कराये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में विचित्रवीर्य का निधनविषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ दो वाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्र्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"सत्यवती का भीष्म से राज्यग्रहण और संतानोत्पादन के लिये आग्रह तथा भीष्म के द्वारा अपनी प्रतिज्ञा बतलाते हुए उसकी अस्वीकृति"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर पुत्र की इच्छा रखने वाली सत्यवती अपने पुत्र के वियोग से अत्यन्त दीन और कृपण हो गयी। उसने पुत्र वधुओं के साथ पुत्र के प्रेतकार्य करके अपनी दोनों बहुओं तथा शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीष्म जी को धीरज बंधाया। फिर उस महाभागा मंगलमयी देवी नेधर्म, पितृकुल तथा मातृकुल की ओर देखकर गंगानन्दन भीष्म से कहा,,
सत्यवती ने कहा ;- ‘बेटा! सदा धर्म में तत्पर रहने वाले परमयशस्वी कुरुनन्दन महाराज शान्तनु के पिण्ड, कीर्ति और वंश ये सब अब तुम्ही पर अवलम्बित है। जैसे शुभ कर्म करके स्वर्गलोक में जाना निश्चित है’ जैसे सत्य बोलने से आयु का बढ़ना अवश्यम्भावी है, वैसे ही तुममें धर्म का होना भी निश्चित है। धर्मज्ञ! तुम सब धर्मों को संक्षेप और विस्तार से जानते हो। नाना प्रकार की श्रुतियों और समस्त वेदांगों का भी तुम्हें पूर्ण ज्ञान है। मैं तुम्हारी धर्मनिष्ठा और कुलोचित सदाचार को भी देखती हूँ। संकट के समय शुक्राचार्य और बृहस्पति की भाँति तुम्हारी बुद्धि उपयुक्त कर्तव्य का निर्णय करने में समर्थ है। अत: धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भीष्म! तुम पर अत्यन्त विश्वास रखकर ही मैं तुम्हें एक आवश्यक कार्य में लगाना चाहती हूँ। तुम पहले उसे सुन लो; फिर उसका पालन करने की चेष्टा करो। मेरा पुत्र और तुम्हारा भाई विचित्रवीर्य जो पराक्रमी होने के साथ ही तुम्हें अत्यन्त प्रिय था, छोटी अवस्था में ही स्वर्गवासी हो गया।
नरश्रेष्ठ! उसके कोई पुत्र नहीं हुआ था। तुम्हारे भाई की ये दोनों सुन्दरी रानियां, जो काशिराज की कन्याऐं हैं, मनोहर रुप और युवावस्था से सम्पन्न हैं। इनके हृदय में पुत्र पाने की अभिलाषा है। भारत! तुम हमारे कुल की संतान परम्परा को सुरक्षित रखने के लिये स्वयं ही इन दोनों के गर्भ से पुत्र उत्पन्न करो! महाबाहो! मेरी आज्ञा से यह धर्म कार्य तुम अवश्य करो। राज्य पर अपना अभिषेक करो और भारतीय प्रजा का पालन करते रहो। धर्म के अनुसार विवाह कर लो; पितरों को नरक में न गिरने दो’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! माता और सुहृदों के ऐसा कहने पर शत्रुदमन धर्मात्मा भीष्म ने यह धर्मानुकूल उत्तर दिया- ‘माता! तुमने जो कुछ कहा है, वह धर्मयुक्त है, इसमें संशय नहीं; परंतु मैं राज्य के लोभ से न तो अपना अभिषेक कराऊंगा और न स्त्री सहवास ही करूंगा। संतानोत्पादन और राज्य ग्रहण ने करने के विषय में जो मेरी कठोर प्रतिज्ञा है, उसे तो तुम जानती ही हो। सत्यवती! तुम्हारे लिये शुल्क देने हेतु जो-जो बातें हुई थीं, वे सब तुम्हें ज्ञात हैं। उन प्रतिज्ञाओं को पुन: सच्ची करने के लिये मैं अपना दृढ़ निश्चय बताता हूँ। मैं तीनों लोकों का राज्य, देवताओं का साम्राज्य अथवा इन दोनों से भी अधिक महत्त्व की वस्तु को भी एकदम त्याग सकता हूं, परंतु सत्य को किसी प्रकार नहीं छोड़ सकता। पृथ्वी अपनी गंध छोड़ दे, जल अपने रस का परित्याग कर दे, तेज रुप का और वायु स्पर्श नामक स्वाभाविक गुण का त्याग कर दे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्र्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-26 का हिन्दी अनुवाद)
सूर्य प्रभा और अग्नि अपनी उष्णता को छोड़ दे, आकाश शब्द का और चन्द्रमा अपनी शीतलता का परित्याग कर दें। इन्द्र पराक्रम को छोड़ दें और धर्मराज धर्म की उपेक्षा कर दें; परंतु मैं किसी प्रकार सत्य को छोड़ने को विचार भी नहीं कर सकता। सारे संसार का नाश हो जाय, मुझे अमरत्व मिलता हो या त्रिलोकी का राज्य प्राप्त हो, तो भी मैं अपने किये हुए प्रण को नहीं तोड़ सकता।’ महान् तेजोरुप धन से सम्पन्न अपने पुत्र भीष्म के ऐसा कहने पर माता सत्यवती इस प्रकार बोली- ‘बेटा! तुम सत्यपराक्रमी हो। मैं जानती हूं, सत्य में तुम्हारी दृढ़ निष्ठा है। तुम चाहो तो अपने ही तेज से नयी त्रिलोकी की रचना कर सकते हो। मैं उस सत्य को भी नहीं भूल सकी हूं, जिसकी तुमने मेरे लिये घोषणा की थी। फिर भी मेरा आग्रह है कि तुम आपद्धर्म का विचार करके बाप-दादों के दिये हुए इस राज्यभार को बहन करो।
परंतप! जिस उपाय से तुम्हारे वंश की परम्परा नष्ट न हो, धर्म की भी अवहेलना न होने पावे और प्रेमी सुहृद् भी संतुष्ट हो जायं, वही करो।’ पुत्र की कामना से दीन वचन बोलने वाली और मुख से धर्मरहित बात कहने वाली सत्यवती से भीष्म ने फिर यह बात कही,,
भीष्म बोले ;- ‘राजामाता! धर्म की ओर दृष्टि डालो, हम सबका नाश न करो। क्षत्रिय का सत्य से विचलित होना किसी भी धर्म में अच्छा नहीं माना गया है। राजमाता! महाराज शान्तनु की संतान परम्परा भी जिस उपाय से इस भूतल पर अक्षय बनी रहे, वह धर्मयुक्त उपाय मैं तुम्हें बतलाऊंगा। वह सनातन क्षत्रिय धर्म है। उसे आपद्धर्म के निर्णय में कुशल विद्धान पुरोहितों से सुनकर और लोकतन्त्र की ओर देखकर निश्चय करो।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में भीष्म-सत्यवती-संवादविषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ चार वाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुरधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"भीष्म की सम्मति द्वारा व्यास का आवाहन और व्यास जी का माता की आज्ञा से कुरुवंश की वृद्धि के लिये विचित्रवीर्य की पत्नियों के गर्भ से संतानोत्पादन करने की स्वीकृति देना"
भीष्म जी कहते हैं ;- मात:! भरतवंशी की संतान परम्परा को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिये जो नियम उपाय हैं, उसे मैं बता रहा हूं; सुनो। किसी गुणवान् ब्राह्मण को धन देकर बुलाओ, जो विचित्रवीर्य की स्त्रियों के गर्भ से संतान उत्पन्न कर सके।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब सत्यवती कुछ हंसती और साथ ही लजाती हुई भीष्म जी से इस प्रकार बोली। बोलते समय उसकी वाणी संकोच से कुछ अस्पष्ट हो जाती थी।
सत्यवती ने कहा ;- ‘महाबाहु भीष्म’! तुम जैसा कहते हो वही ठीक है। तुम पर विश्वास होने से अपने कुल की संतति की रक्षा के लिये तुम्हें मैं एक बात बतलाती हूँ। ऐसे आपद्धर्म को देखकर वह बात तुम्हें बताये बिना मैं नहीं रह सकती। तुम्हीं हमारे कुल में मूर्तिमान् धर्म हो, तुम्हीं सत्य हो और तुम्ही परमगति हो। अत: मेरी सच्ची बात सुनकर उसके बाद जो कर्तव्य हो, उसे करो!
भरतश्रेष्ठ! तुमने महाराज वसु का नाम सुना होगा। पूर्वकाल में मैं उन्हीं के वीर्य से उत्पन्न हुई थी। मुझे एक मछली ने अपने पेट में धारण किया था। एक परम धर्मज्ञ मल्लाह ने जल में मेरी माता को पकड़ा, उसके पेट से मुझे निकाला और अपने घर लाकर अपनी पुत्री बनाकर रखा। मेरे उन धर्मपरायण पिता के पास एक नौका थी, जो (धन के लिये नहीं) धर्मार्थ चलायी जाती थी। एक दिन मैं नाव पर गयी हुई थी। उन दिनों मेरे यौवन का प्रारम्भ था। उसी समय धर्मज्ञों में श्रेष्ठ बुद्धिमान् महर्षि पराशर यमुना नदी पार करने के लिये मेरी नाव पर आये। मैं उन्हें पार ले जा रही थी, तब तक वे मुनिश्रेष्ठ काम-पीड़ित हो मेरे पास आ मुझे समझाते हुए मधुर वाणी में बोले और उन्होंने मुझसे अपने जन्म और कुल का परिचय दिया।
इस पर मैंने कहा ;- ‘भगवन्! मैं तो निषाद की पुत्री हूं।’ भारत! एक ओर मैं पिताजी से डरती थी और दूसरी ओर मुझे मुनि के शाप का भी डर था।
उस समय महर्षि ने मुझे दुर्लभ वर देकर उत्साहित किया, जिससे मैं उनके अनुरोध को टाल न सकी। यद्यपि मैं चाहती नहीं थी, तो भी उन्होंने मुझ अबला को अपने तेज से तिरस्कृत करके नौका पर ही मुझे अपने वश में कर लिया। उस समय उन्होंने कुहरा उत्पन्न करके सम्पूर्ण लोक को अन्धकार से आवृत कर दिया था। भारत! पहले मेरे शरीर से अत्यन्त घृणित मछली की-सी बड़ी तीव्र दुर्गन्ध आती थी। उसको मिटाकर मुनि ने मुझे यह उत्तम गन्ध प्रदान की थी।
तदनन्तर मुनि ने मुझसे कहा ;- ‘तुम इस यमुना के ही द्वीप में मेरे द्वारा स्थापित इस गर्भ को त्यागकर फिर कन्या ही हो जाओगी’। उस गर्भ से पराशर जी के पुत्र महान् योगी महर्षि व्यास प्रकट हुए। वे ही द्वैयापन नाम से विख्यात हैं। वे मेरे कन्यावस्था के पुत्र हैं। वे भगवान् द्वैयापन मुनि अपने तपोबल से चारों वेदों का पृथक-पृथक विस्तार करके लोक में ‘व्यास’ पदवी को प्राप्त हुए हैं। शरीर का रंग सांवला होने से उन्हें लोग ‘कृष्ण’ भी कहते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुरधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-34 का हिन्दी अनुवाद)
वे सत्यवादी, शान्त, तपस्वी और पापशून्य हैं। वे उत्पन्न होते ही बड़े होकर द्वीप से अपने पिता के साथ चले गये थे। मेरे और तुम्हारे आग्रह करने पर वे अनुपम तेजस्वी व्यास अवश्य ही अपने भाई के क्षेत्र में कल्याणकारी संतान उत्पन्न करेंगे। उन्होंने जाते समय मुझसे कहा था कि संकट के समय मुझे याद करना। महाबाहु भीष्म! यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं उन्हीं का स्मरण करूं। भीष्म! तुम्हारी अनुमति मिल जाय, तो महातपस्वी व्यास निश्चय ही विचित्रवीर्य की स्त्रियों को पुत्रों को उत्पन्न करेंगे’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महर्षि व्यास का नाम लेते ही,,
भीष्म जी हाथ जोड़कर बोले ;- ‘माताजी! जो मनुष्य धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों का बारंबार विचार करता है तथा यह भी जानता है कि किस प्रकार अर्थ से अर्थ, धर्म से धर्म और काम से कामरुप फल की प्राप्ति होती है और वह परिणाम में कैसे सुखद होता है तथा किस प्रकार अर्थादि के सेवन से विपरीत फल (अर्थनाश आदि) प्रकट होते हैं, इन बातों पर पृथक-पृथक भली-भाँति विचार करके जो धीर पुरुष अपनी बुद्धि के द्वारा कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करता है, वही बुद्धिमान् है। तुमने जो बात कही है, वह धर्मयुक्त तो है ही, हमारे कुल के लिये भी हितकर और कल्याणकारी है; इसलिये मुझे बहुत अच्छी लगी’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- कुरुनन्दन! उस समय भीष्म जी के इस प्रकार अपनी सम्मति देने पर काली (सत्यवती) ने मुनिवर कृष्णद्वैपायन का चिन्तन किया। जनमेजय! माता ने मेरा स्मरण किया है, यह जानकर परमबुद्धिमान् व्यास जी वेदमन्त्रों का पाठ करते हुए क्षण भर में वहाँ प्रकट हो गये। वे कब किधर से आ गये, इसका पता किसी को न चला। सत्यवती ने अपने पुत्र का भलिभाँति सत्कार किया और दोनों भुजाओं से उनका आलिंगन करके अपने स्तनों के झरते हुए दूध से उनका अभिषेक किया। अपने पुत्र को दीर्घकाल के बाद देखकर सत्यवती की आंखों में स्नेह और आनन्द के आंसू बहने लगे। तदनन्तर सत्यवती के प्रथम पुत्र महर्षि व्यास ने अपने कमण्डल के पवित्र जल से दु:खिनी माता का अभिषेक किया और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार कहा
महर्षि व्यास बोले ;- ‘धर्म के तत्त्व को जानने वाली माता जी! आपकी जो हार्दिक इच्छा हो, उसके अनुसार कार्य करने के लिये मैं यहाँ आया हूँ। आज्ञा दीजिये, मैं आपकी कौन-सी प्रिय सेवा करूं’।
तत्पश्चात् पुरोहित ने महर्षि का विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण के साथ पूजन किया और महर्षि ने उसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। विधि और मन्त्रोच्चारणपूर्वक की हुई उस पूजा से व्यासजी बहुत प्रसन्न हुए। जब वे आसन पर बैठ गये, तब माता सत्यवती ने उनका कुशल-क्षेम पूछा और उनकी ओर देखकर इस प्रकार कहा,,
सत्यवती बोली ;- ‘विद्वन्! माता और पिता दोनों से पुत्रों का जन्म होता है, अत: उन पर दोनों का समान अधिकार होता है। जैसे पिता पुत्रों का स्वामी है, उसी प्रकार माता भी है। इसमें संदेह नहीं है। ब्रह्मर्षे! विधाता के विधान या मेरे पूर्व जन्मों के पुण्य से जिस प्रकार तुम मेरे प्रथम पुत्र हो, उसी प्रकार विचित्रवीर्य मेरा सबसे छोटा पुत्र था। जैसे एक पिता के नाते भीष्म उसके भाई हैं, उसी प्रकार एक माता के नाते तुम भी विचित्रवीर्य के भाई ही हो। बेटा! मेरी तो ऐसी ही मान्यता है; फिर तुम जैसा समझो। ये सत्यपराक्रमी शान्तनुनन्दन भीष्म सत्य का पालन कर रहे हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुरधिकशततम अध्याय के श्लोक 35-54 का हिन्दी अनुवाद)
अनघ! संतानोत्पादन तथा राज्य-शासन करने का इनका विचार नहीं है; अत: तुम अपने भाई के पारलौकिक हित का विचार करके तथा कुल की संतान-परम्परा की रक्षा के लिये भीष्म के अनुरोध और मेरी आज्ञा से सब प्राणियों पर दया करके उनकी रक्षा करने के उद्देश्य से और अपने अन्त:करण की कोमल वृत्ति को देखते हुए मैं जो कुछ कहूं, उसे सुनकर उसका पालन करो। तुम्हारे छोटे भाई की पत्नियां देवकन्याओं के समान सुन्दर रुप तथा युवावस्था से सम्पन्न हैं। उनके मन में धर्मत: पुत्र पाने की कामना है। पुत्र! तुम इसके लिये समर्थ हो, अत: उन दोनों के गर्भ से ऐसी संतानों को जन्म दो, जो इस कुल-परम्परा की रक्षा तथा वृद्धि के लिये सर्वथा सुयोग्य हों’।
व्यास जी ने कहा ;- माता सत्यवती! आप पर और अपर दोनों प्रकार के धर्मों को जानती हैं। महाप्रज्ञे! आपकी बुद्धि सदा धर्म में लगी रहती है। अत: मैं आपकी आज्ञा से धर्म को दृष्टि में रखकर (काम के वश न होकर ही) आपकी इच्छा के अनुरुप कार्य करूंगा। यह सनातन मार्ग शास्त्रों में देखा गया है। मैं अपने भाई के लिये मित्र और वरुण समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न करूंगा। विचित्रवीर्य की स्त्रियों को मेरे बताये अनुसार एक वर्ष तक विधिपूर्वक व्रत (जितेन्द्रिय होकर केवल संतानार्थ साधन) करना होगा, तभी वे शुद्ध होंगी। जिसने व्रत का पालन नहीं किया है, ऐसी कोई भी स्त्री मेरे समीप नहीं आ सकती।
सत्यवती ने कहा ;- बेटा! ये दोनों रानियां जिस प्रकार शीघ्र गर्भ धारण करें, वह उपाय करो। राज्य में इस समय कोई राजा नहीं है। बिना राजा के राज्य की प्रजा अनाथ होकर नष्ट हो जाती है। यज्ञ-दान आदि क्रियाऐं भी लुप्त हो जाती हैं। उस राज्य में न वर्षा होती है, न देवता बास करते हैं। प्रभो! तुम्ही सोचो, बिना राजा का राज्य कैसे सुरक्षित और अनुशासित रह सकता है। इसलिये शीघ्र गर्भाधान करो। भीष्म बालक को पाल-पोसकर बड़ा कर लेंगे।
व्यास जी बोले ;- मां! यदि मुझे समय का नियम न रखकर शीघ्र ही अपने भाई के लिये पुत्र प्रदान करना है, तो उन देवियों के लिये यह उत्तम व्रत आवश्यक है कि वे मेरे असुन्दर रुप को देखकर शान्त रहें, डरें नहीं। यदि कौसल्या (अम्बिका) मेरे गन्ध, रुप, वेष और शरीर को सहन कर ले तो वह आज ही एक उत्तम बालक को अपने गर्भ में पा सकती हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! ऐसा कहने के बाद महातेजस्वी मुनिश्रेष्ठ व्यास जी सत्यवती से फिर ‘अच्छा तो कौसल्या (ॠतु-स्नान के पश्चात्) शुद्ध वस्त्र और श्रृंगार धारण करके शय्या पर मिलन की प्रतीक्षा करे’ यों कहकर अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर देवी सत्यवती ने एकान्त में आयी हुई अपनी पुत्रवधु अम्बिका के पास जाकर उससे (आपद्) धर्म और अर्थ से युक्त हितकारक वचन कहा-
‘कौसल्ये! मैं तुमसे जो धर्म संगत बात कह रही हूं, उसे ध्यान देकर सुनो। मेरे भाग्य का नाश हो जाने से अब भरतवंश का उच्छेद हो चला है, यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है। इसके कारण मुझे व्यथित और पितृकुल को पीड़ित देख भीष्म ने इस कुल की वृद्धि के लिये मुझे एक सम्मति दी है। बेटी! उस सम्मति की सार्थकता तुम्हारे अधीन है। तुम भीष्म के बताये अनुसार मुझे उस अवस्था में पहुँचाओ, जिससे मैं अपने अभीष्ट की सिद्धि देख सकूं। सुश्रोणि! इस नष्ट होते हुए भरतवंश का पुन: उद्धार करो। तुम देवराज इन्द्र के समान एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दो। वही हमारे कुल के इस महान् राज्य-भार को वहन करेगा’। कौसल्या धर्म का आचरण करने वाली थी। सत्यवती ने धर्म को सामने रखकर ही उसे किसी प्रकार समझा-बुझाकर (बड़ी कठिनता से) इस कार्य के लिये तैयार किया। उसके बाद ब्राह्मणों, देवर्षियों तथा अतिथियों को भोजन कराया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में सत्यवती-उपदेशविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ पाचवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"व्यास जी के द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर की उत्पत्ति"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर सत्यवती ठीक समय पर अपनी ऋतुस्नाता पुत्रवधू को शय्या पर बैठाती हुई धीरे से बोली,,
सत्यवती ने कहा ;- ‘कौसल्ये! तुम्हारे एक देवर हैं, वे ही आज तुम्हारे पास गर्भाधान के लिये आयेंगे। तुम सावधान होकर उनकी प्रतीक्षा करो। वे ठीक आधी रात के समय यहाँ पधारेंगे’। सास की बात सुनकर कौसल्या पवित्र शय्या पर शयन करके उस समय मन-ही-मन भीष्म तथा अन्य श्रेष्ठ कुरुवंशियों का चिन्तन करने लगी। उस समय नियोगविधि के अनुसार सत्यवादी महर्षि व्यास ने अम्बिका के महल में (शरीर पर घी चुपड़े हुए, संयमचित्त, कुत्सित रुप में) प्रवेश किया। उस समय बहुत से दीपक वहाँ प्रकाशित हो रहे थे। व्यासजी के शरीर का रंग काला था, उनकी जटाऐं पिंगल वर्ण की ओर आंखें चमक रही थीं तथा दाढी-मूँछ भूरे रंग की दिखाई देती थी। उन्हें देखकर देवी कौसल्या (भय के मारे) अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये। माता का प्रिय करने की इच्छा से व्यासजी ने उसके साथ समागम किया; परंतु काशिराज की कन्या भय के मारे उनकी ओर अच्छी तरह देख न सकी। जब व्यास जी उसके महल से बाहर निकले, तब माता सत्यवती ने आकर उनसे पूछा,,
सत्यवती ने बोली ;- ‘बेटा! क्या अम्बिका के गर्भ से कोई गुणवान् राजकुमार उत्पन्न होगा?’ माता का यह वचन सुनकर ,,
सत्यवतीनन्दन व्यास जी बोले ;- मां! वह दस हजार हाथियों के समान बलवान्, विद्वान्, राजर्षियों में श्रेष्ठ, परमसौभाग्यशाली, महापराक्रमी तथा अत्यन्त बुद्धिमान् होगा। उस महामना के भी सौ पुत्र होंगे। किंतु माता के दोष से वह बालक अन्धा ही होगा’ व्यासजी की यह बात सुनकर,,
माता ने कहा ;- ‘तपोधन! कुरुवंश का राजा अन्धा हो यह उचित नहीं है। अत: कुरुवंश के लिये दूसरा राजा दो, जो जाति भाइयों तथा समस्त कुल का संरक्षक और पिता का वंश बढ़ाने वाला हो’। महायशस्वी व्यास जी ‘तथास्तु‘ कहकर वहाँ से निकल गये। प्रसव का समय आने पर कौसल्या ने उसी अन्धे पुत्र को जन्म दिया।
जनमेजय! तत्पश्चात् देवी सत्यवती ने अपनी दूसरी पुत्रवधू को समझा-बुझाकर गर्भाधान के लिये तैयार किया और इसके लिये पूर्ववत् महर्षि व्यास का आवाहन किया। फिर महर्षि ने उसी (नियोग की संयमपूर्ण) विधि से देवी अम्बालिका के साथ समागम किया। भारत़! महर्षि व्यास को देखकर वह भी कान्तिहीन तथा पाण्डुवर्ण की-सी हो गयी। जनमेजय! उसे भयभीत, विषादग्रस्त तथा पाण्डुवर्ण की-सी देख ,,
सत्यवतीनन्दन व्यास ने यों कहा ;- ‘अम्बालिके! तुम मुझे विरुप देखकर पाण्डु वर्ण की-सी हो गयी थीं, इसलिये तुम्हारा यह पुत्र पाण्डु रंग का ही होगा। शुभानने! इस बालक का नाम भी संसार में ‘पाण्डु’ ही होगा।’ ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् व्यास वहाँ से निकल गये। उस महल से निकलने पर सत्यवती ने अपने पुत्र से उसके विषय में पूछा। तब व्यास जी ने भी माता से उस बालक के पाण्डु वर्ण होने की बात बता दी। उसके बाद सत्यवती ने पुन: एक दूसरे पुत्र के लिये उनसे याचना की। महर्षि ‘बहुत अच्छा’ कहकर माता की आज्ञा स्वीकार कर ली।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाधिकशततम अध्याय के श्लोक 21-32 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर देवी अम्बालिका ने समय आने पर एक पाण्डु वर्ण के पुत्र को जन्म दिया। वह अपनी दिव्य कान्ति से उद्भासित हो रहा था। यह वही बालक था, जिसके पुत्र महाधनुर्धारी पांच पाण्डव हुए। इसके बाद ऋतुकाल आने पर सत्यवती ने अपनी बड़ी बहू अम्बिका को पुन: व्यास जी से मिलने के लिये नियुक्त किया। परंतु देवकन्या के समान सुन्दरी अम्बिका ने महर्षि के उस कुत्सित रुप और गन्ध का चिन्तन करके भय के मारे देवी सत्यवती की आज्ञा नहीं मानी। काशिराज की पुत्री अम्बिका ने अप्सरा के समान सुन्दरी अपनी एक दासी को अपने ही आभूषणों से विभूषित करके काले-कलूटे महर्षि व्यास के पास भेज दिया।
महर्षि के आने पर उस दासी ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया और उन्हें प्रणाम करके उनकी आज्ञा मिलने पर वह शय्या पर बैठी और सत्कारपूर्वक उनकी सेवा पूजा करने लगी। एकान्त मिलन पर उस महर्षि व्यास बहुत संतुष्ट हुए। राजन! कठोर व्रत का पालन करने वाले महर्षि जब उसके साथ शयन करके उठे,
तब इस प्रकार बोले ;- ‘शुभे! अब तू दासी नहीं रहेगी। तेरे उदर में एक अत्यन्त श्रेष्ठ बालक आया है। वह लोक में धर्मात्मा तथा समस्त बुद्धिमानों में श्रेष्ठ होगा’। वही बालक विदुर हुआ, जो श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास का पुत्र था।
एक पिता का होने कारण वह राजा धृतराष्ट्र और महात्मा पाण्डु का भाई था। महात्मा माण्डव्य के शाप से साक्षात् धर्मराज ही विदुर रुप में उत्पन्न हुए थे। वे अर्थतत्त्व के ज्ञाता और काम-क्रोध से रहित थे। श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास ने सत्यवती को भी सब बातें बता दीं। उन्होंने यह रहस्य प्रकट कर दिया कि अम्बिका ने अपनी दासी को भेजकर मेरे साथ छल किया है, अत: शूद्रा दासी के गर्भ से ही पुत्र उत्पन्न होगा। इस तरह व्यास जी (मातृ-आज्ञा पालन रुप) धर्म से उऋण होकर फिर अपनी माता सत्यवती से मिले और उन्हें गर्भ का समाचार बताकर वहीं अन्तर्धान हो गये। विचित्रवीर्य के क्षेत्र में व्यास जी से ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए, जो देवकुमारों के समान तेजस्वी और कुरुवंश की वृद्धि करने वाले थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में विचित्रवीर्य के पुत्रों की उत्पत्तिविषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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