सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
इक्यानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"ययाति और अष्टक का आश्रमधर्मसम्बंधी संवास"
अष्टक ने पूछा ;- महाराज! वेदज्ञ विद्वान् इस धर्म के अन्तर्गत बहुत-से कर्मों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का द्वार बताते हैं; अत: मैं पूछता हूं, आचार्य की सेवा करने वाला ब्रह्मचारी, गृहस्थ, सन्मार्ग में स्थित वानप्रस्थ और संन्यासी किस प्रकार धर्माचरण करके उत्तम लोक में जाता है?
ययाति बोले ;- शिष्य को उचित है कि गुरु के बुलाने पर उसके समीप जाकर पढ़े। गुरु की सेवा में बिना कहे लगा रहे, रात में गुरुजी के सो जाने के बाद सोये और सबेरे उनसे पहले ही उठ जाय। वह मृदुल (विनम्र), जितेन्द्रिय, धैर्यवान, सावधान और स्वाध्याशील हो। इस नियम से रहने वाला ब्रह्मचारी सिद्धि पाता है। गृहस्थ पुरुष न्याय से प्राप्त हुए धन को पाकर उससे यज्ञ करे, दान दे और सदा अतिथियों को भोजन करावे। दूसरों की वस्तु उनके दिये बिना ग्रहण नहीं करे। यह गृहस्थ-धर्म का प्राचीन एवं रहस्यमय स्वरुप है। वानप्रस्थ मुनि वन में निवास करे। आहार और विहार को नियमित रखे। अपने ही पराक्रम एवं परिश्रम से जीवन निर्वाह करे, पाप से दूर रहे। दूसरों को दान दे और किसी को कष्ट न पहुँचावे। ऐसा मुनि परममोक्ष को प्राप्त होता है।
संन्यासी शिल्पकला से जीवन-निर्वाह न करे। शम, दम आदि श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हो। सदा अपनी इन्द्रियों को काबू में रखे। सबसे अलग रहे। गृहस्थ के घर में न सोये। परिग्रह का भार न लेकर अपने को हल्का रखे। थोड़ा-थोड़ा चले। अकेला ही अनेक स्थानों में भ्रमण करता रहे। ऐसा संन्यासी ही वास्तव में भिक्षु कहलाने योग्य है। जिस समय, रुप, रस आदि विषय तुच्छ प्रतीत होने लगें, इच्छानुसार जीत लिये जायँ तथा उनके परित्याग में ही सुख जान पड़े, उसी समय विद्वान् पुरुष मन को वश में करके समस्त संग्रहों का त्याग कर वनवासी होने का प्रयत्न करे। जो वनवासी मुनि वन में ही अपने पंचभूतात्मक शरीर का परित्याग करता है, वह दस पीढ़ी पूर्व के और दस पीढ़ी बाद के जाति-भाइयों को तथा इक्कीसवें अपने को भी पुण्य लोकों में पहुँचा देता है।
अष्टक ने पूछा ;- राजन्! मुनि कितने हैं? और मौन कितने प्रकार के हैं? यह बताइये, हम सुनना चाहते हैं।
ययाति ने कहा ;- जनेश्वर! अरण्य में निवास करते समय जिसके लिये ग्राम पीछे होता है, वह मुनि कहलाता है।
अष्टक ने पूछा ;- अरण्य में निवास करने के लिये ग्राम और ग्राम में निवास करने के लिये अरण्य पीछे कैसे है?
ययाति ने कहा ;- जो मुनि वन में निवास करता है और गांवों में प्राप्त होने वाली वस्तुओं का उपभोग नहीं करता, इस प्रकार वन में निवास करने वाले उस (वानप्रस्थ ) मुनि के लिये गांव पीछे समझा जाता है। जो अग्नि और गृह को त्याग चुका है, जिसका गोत्र और चरण ( वेद की शाखा एवं जाति) से भी सम्बन्ध नहीं रह गया है, जो मौन रहता और उतने ही वस्त्र की इच्छा रखता है जितने से लंगोटी का काम चल जाय; इसी प्रकार जितने से प्राणों की रक्षा हो सके उतना ही भोजन चाहता है; इस नियम से गांव में निवास करने वाले उस (संन्यासी) मुनि के लिये अरण्य पीछे समझा जाता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकनवतितम अध्याय के श्लोक 14-18 का हिन्दी अनुवाद)
जो मुनि सम्पूर्ण कामनाओं को छोड़कर कर्मों को त्याग चुका है और इंद्रिय-संयमपूर्वक सदा मौन में स्थित हैं, ऐसा संन्यासी लोक में परमसिद्धि को प्राप्त होता है। जिसके दांत शुद्ध और साफ हैं, जिसके नख (और केश) कटे हुए हैं, जो सदा स्नान करता है तथा यम-नियमादि से अलंकृत (है, उन्हें धारण किये हुए) है, शीतोष्ण को सहने से जिसका शरीर श्याम पड़ गया है, जिसके आचरण उत्तम हैं- ऐसा संन्यासी किसके लिये पूजनीय नहीं है?
तपस्या से मांस, हड्डी तथा रक्त के क्षीण हो जाने पर जिसका शरीर कृश और दुर्बल हो गया है, वह (वानप्रस्थ) मुनि इस लोक को जीतकर परलोक पर भी विजय पाता है। जब (वानप्रस्थ) मुनि सुख-दु:ख, राग-द्वेष आदि द्वन्द्वों से रहित एवं भली-भाँति मौनावलम्बी हो जाता है, तब वह इस लोक को जीतकर परलोक पर भी विजय पाता है। जब संन्यासी मुनि गाय-बैलों की तरह मुख से ही आहार ग्रहण करता है, हाथ आदि का भी सहारा नहीं लेता, तब उसके द्वारा ये सब लोक जीत लिये गये समझे जाते हैं और वह मोक्ष की प्राप्ति के लिये समर्थ समझा जाता है।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में उत्तरयायातविषयक इक्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
बानबेवाँ अध्याय
(महाभारत (आदि पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"अष्टक-ययाति संवाद और ययाति द्वारा दूसरों के दिये हुए पुण्य दान को अस्वीकार करना"
अष्टक ने पूछा ;- राजन्! सूर्य और चन्द्रमा की तरह अपने-अपने लक्ष्य की ओर दौड़ते हुए वानप्रस्थ और संन्यासी इन दोनों में से पहले कौन-सा देवताओं के आत्मभाव (ब्रह्म) को प्राप्त होता है?
ययाति बोले ;- कामवृत्ति वाले गृहस्थों के बीच ग्राम में ही वास करते हुए भी जो जितेन्द्रिय और गृहरहित संन्यासी है, वही उन दोनों प्रकार के मुनियों में पहले ब्रह्म भाव को प्राप्त होता है। जो वानप्रस्थ बड़ी आयु पाकर भी विषयों के प्राप्त होने पर उनसे विकृत हो उन्हीं मे विचरने लगता है, उसे यदि विषयभोग के अनन्तर पश्चात्ताप होता है तो उसे मोक्ष के लिये पुन: तप का अनुष्ठान करना चाहिये। किंतु जो वानप्रस्थ मनुष्य पापकर्मों से नित्य भय करता है और सदा अपने धर्म का आचरण करता है, वह अत्यन्त सुख रूप मोक्ष को अनायास ही प्राप्त कर लेता है। राजन्! जो पाप बुद्धि वाला मनुष्य अधर्म का आचरण करता है, उसका वह आचरण नृशंस (पापमय) और असत्य कहा गया है एवं अजितेन्द्रिय का धन भी वैसा ही पापमय और असत्य है। परंतु वानप्रस्थ मुनि का जो धर्म पालन है, वही सरलता है, वही समाधि है और वही श्रेष्ठ आचरण है।
अष्टक ने पूछा ;- राजन्! आपको यहाँ किसने बुलाया? किसने भेजा है? आप अवस्था मे तरुण, फूलों की माला से सुशोभित, दर्शनीय तथा उत्तम तेज से उद्भासित जान पड़ते हैं। आप कहाँ से आये हैं? किस दिशा में भेजे गये हैं? अथवा क्या आपके लिये इस पृथ्वी पर कोई उत्तम स्थान है?
ययाति ने कहा ;- मैं अपने पुण्य का क्षय होने से भौम नरक में प्रवेश करने के लिये आकाश से गिर रहा हूँ। ब्रह्मा जी के जो लोकपाल हैं, वे मुझे गिरने के लिये जल्दी मचा रहे हैं, अत: आप लोगों से पूछकर विदा लेकर इस पृथ्वी पर गिरूंगा। नरेन्द्र! मैं जब इस पृथ्वी तल पर गिरने वाला था, उस समय मैंने इन्द्र से यह वर मांगा कि मैं साधु पुरुषों के समीप गिरूं। वह वर मुझे मिला, जिसके कारण सब सद्गुणी संतों का संग प्राप्त हुआ।
अष्टक बोले ;- महाराज! मेरा विश्वास है कि आप पारलौकिक धर्म के ज्ञाता हैं। मैं आपसे एक बात पूछता हूं- क्या अन्तरिक्ष या स्वर्ग लोक में मुझे प्राप्त होने वाले पुण्यलोक भी हैं? यदि हों तों (उनके प्रभाव से) आप नीचे न गिरें, आपका पतन न हो।
ययाति ने कहा ;- नरेन्द्रसिंह! इस पृथ्वी पर जंगली और पर्वतीय पशुओं के साथ जितने गाय, घोड़े आदि पशु रहते हैं, स्वर्ग में तुम्हारे लिये उतने ही लोक विद्यमान हैं। तुम इसे निश्चय जानो।
अष्टक बोले ;- राजेन्द्र! स्वर्ग में मेरे लिये जो लोक विद्यमान हैं, वे सब आपको देता हूं, परंतु आपका पतन न हो। अन्तरिक्ष या द्यूलोक में मेरे लिये जो स्थान हैं, उनमें आप शीघ्र ही मोहरहित होकर चले जायं।
ययाति ने कहा ;- नृपश्रेष्ठ! ब्राह्मण ही प्रतिग्रह लेता है। मेरे-जैसा क्षत्रिय कदापि नहीं। नरेन्द्र! जैसे दान करना चाहिये, उस विधि से पहले मैंने भी सदा उत्तम ब्राह्मणों को बहुत दान दिये हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्विनवतितम अध्याय के श्लोक 13-19 का हिन्दी अनुवाद)
जो ब्राह्मण नहीं हैं, उसे दीन याचक कभी जीवन नहीं बिताना चाहिये। याचना तो विद्या से दिग्विजय करने वाले विद्वान् ब्राह्मण की पत्नी है अर्थात् ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण को ही याचना करने का अधिकार है। मुझे उत्तम सत्कर्म करने की इच्छा है; अत: ऐसा कोई कार्य कैसे कर सकता हूं, जो पहले कभी नहीं किया हो।
प्रतर्दन बोले ;- वाञ्छनीय रुप वाले श्रेष्ठ पुरुष! मैं प्रतर्दन हूँ और आपसे पूछता हूं, यदि अन्तरिक्ष अथवा स्वर्ग में मेरे भी लोक हों तो बताइये। मैं आपको पारलौकिक धर्म का ज्ञाता मानता हूँ।
ययाति ने कहा ;- नरेन्द्र! आपके तो बहुत लोक हैं, यदि एक-एक लोक में सात-सात दिन रहा जाय तो भी उनका अन्त नहीं है। वे सब-के-सब अमृत के झरने बहाते हैं एवं घृत (तेज) से युक्त हैं। उनमें शोक का सर्वथा अभाव है। वे सभी लोक आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
प्रतर्दन बोले ;- महाराज! वे सभी लोक मैं आपको देता हूं, आप नीचे न गिरें। जो मेरे लोक हैं वे सब आपके हो जायं। ये अन्तरिक्ष में हों या स्वर्ग में, आप शीघ्र मोहरहित होकर उनमें चले जाइये।
ययाति ने कहा ;- राजन्! कोई भी राजा समान तेजस्वी होकर दूसरे से पुण्य तथा योग-क्षेम की इच्छा न करे। विद्वान् राजा दैववश भारी आपत्ति में पड़ जाने पर भी कोई पापमय कार्य न करे। धर्म पर दृष्टि रखने वाले राजा को उचित है कि वह प्रयत्नपूर्वक धर्म और यश के मार्ग पर ही चले। जिसकी बुद्धि धर्म में लगी हो उस मेरे-जैसे मनुष्य को जान-बूझकर ऐसा दीनता पूर्ण कार्य नहीं करना चाहिये, जिसके लिये आप मुझसे कह रहे हैं। जो शुभ कर्म करने की इच्छा रखता है, वह ऐसा काम नहीं कर सकता, जिसे अन्य राजाओं ने नहीं किया हो।
जो धर्म और अधर्म का भली-भाँति निश्चय करके कर्तव्य और अकर्तव्य के विषय में सावधान होकरविचरता है, वही राजा बुद्धिमान्, सत्यप्रतिज्ञ और मनस्वी है। वह अपनी महिमा से लोकपाल होता है। जब धर्मकार्य में संशय हो अथवा जहाँ न्यायत: काम और अर्थ दोनों आकर प्राप्त हों, वहाँ पहले धर्मकार्य का ही सम्पादन करना चाहिये, अर्थ और काम का नहीं। यही धर्म है। इस प्रकार की बातें कहने वाले राजा ययाति से नृपश्रेष्ठ वसुमान बोले।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में उत्तरयायातविषयक बानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
तिरानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना तथा अष्टक आदि चारों राजाओं के साथ स्वर्ग में जाना"
वसुमान ने कहा ;- नरेन्द्र! मैं उषदश्व का पुत्र वसुमान हूँ और आपसे पूछ रहा हूँ। यदि स्वर्ग या अन्तरिक्ष में मेरे लिये भी कोई विख्यात लोक हों तो बताइये। महात्मन्! मैं आपको पारलौकिक धर्म का ज्ञाता मानता हूँ।
ययाति ने कहा ;- राजन्! पृथ्वी आकाश और दिशाओं में जितने प्रदेश को सूर्यदेव अपनी किरणों से तपाते और प्रकाशित करते हैं; उतने लोक तुम्हारे लिये स्वर्ग में स्थित हैं। वे अन्तवान् न होकर चिरस्थायी हैं और आपकी प्रतीक्षा करते हैं।
वसुमान बोले ;- राजन्! वे सभी लोक मैं आपके लिये देता हूं, आप नीचे न गिरें। मेरे लिये जितने पुण्य लोक हैं, वे सब आपके हो जायं। धीमन्! यदि आपको प्रतिग्रह लेने में दोष दिखाई देता हो तो एक मुट्ठी तिनका मुझे मूल्य के रुप में देकर मेरे इन सभी लोकों को खरीद लें।
ययाति ने कहा ;- मैंने इस प्रकार कभी झूट-मूठ की खरीद-बिक्री की हो अथवा छलपूर्वक व्यर्थ कोई वस्तु ली हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है। मैं कालचक्र से शंकित रहता हूँ। जिसे पूर्ववर्ती अन्य महापुरुषों ने नहीं किया वह कार्य मैं भी नहीं कर सकता हूं; क्योंकि मैं सत्कर्म करना चाहता हूँ।
वसुमान बोले ;- राजन्! यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्वत: अर्पण किये हुए पुण्य लोकों को ग्रहण कीजिये। नरेन्द्र! निश्चय जानिये, मैं उन लोकों में नहीं जाऊंगा। वे सब आपके ही अधिकार में रहें।
शिबि ने कहा ;- तात! मैं उशीनरपुत्र शिबि आपसे पूछता हूँ। यदि अन्तरिक्ष या स्वर्ग में मेरे भी पुण्यलोक हों, तो बताइये; क्योंकि मैं आपको उक्त धर्म का ज्ञाता मानता हूँ।
ययाति बोले ;- नरेन्द्र! जो-जो साधु पुरुष तुमसे कुछ मांगने के लिये आये, उनका तुमने वाणी से कौन कहे, मन से भी अपमान नहीं किया। इस कारण स्वर्ग में तुम्हारे लिये अनन्त लोक विद्यमान हैं, जो विद्युत के समान तेजोमय, भाँति-भाँति के सुमधुर शब्दों से युक्त तथा महान् हैं।
शिबि ने कहा ;- महाराज! यदि आप खरीदना नहीं चाहते तो मेरे द्वारा स्वयं अर्पण किये हुए पुण्य लोकों को ग्रहण कीजिये। उन सबको देकर निश्चय ही मैं उन लोकों में नहीं जाऊंगा। वे लोक ऐसे हैं,जहाँ जाकर धीर पुरुष कभी शोक नहीं करते।
ययाति बोले ;- नरदेव शिबि! जिस प्रकार तुम इन्द्र के समान प्रभावशाली हो, उसी प्रकार तुम्हारे वे लोक भी अनन्त हैं; तथापि दूसरे के दिये हुए लोक में विहार नहीं कर सकता, इसीलिये तुम्हारे दिये हुए का अभिनन्दन नहीं करता।
अष्टक ने कहा ;- राजन्! यदि आप हममें से एक-एक के दिये हुए लोकों को प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण नहीं करते तो हम सब लोक अपने पुण्य लोक आपकी सेवा में समर्पित करके नरक (भूलोक) में जाने को तैयार हैं।
ययाति बोले ;- मैं जिसके योग्य हूं, उसी के लिये यत्न करो; क्योंकि साधु पुरुष सत्य का ही अभिनन्दन करते हैं। मैंने पूर्वकाल में जो कर्म नहीं किया, उसे अब भी करने योग्य नहीं समझता।
अष्टक ने कहा ;- आकाश में ये किसके पांच सुवर्णमय रथ दिखायी देते हैं, जिन पर आरूढ़ होकर मनुष्य सनातन लोकों में जाने की इच्छा करता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 13-14 का हिन्दी अनुवाद)
ययाति बोले ;- ऊपर आकाश में स्थित प्रज्वलित अग्नि की लपटों के समान जो पांच सुवर्णमय रथ प्रकाशित हो रहे हैं, ये आप लोगों को ही स्वर्ग ले जायंगे।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इसी सयम तपस्विनी माधवी उधर आ निकली। उसने मृगचर्म से अपने सब अंगों को ढक रखा था। वृद्धावस्था प्राप्त होने पर वह मृगों के साथ विचरती हुई मृगव्रत का पालन कर रही थी। उसकी भोजन-सामग्री और चेष्टा मृगों के ही तुल्य थी। वह मृगों के झुंड के साथ यज्ञ मण्डप में प्रवेश करके अत्यन्त विस्मित हुई और यज्ञीय धूम की सुगन्ध लेती हुई मृगों के साथ वहाँ विचरने लगी। यज्ञशाला में घूम-घूम कर अपने अपराजित पुत्रों को देखती और यज्ञ की महिमा अनुभव करती हुई माधवी बहुत प्रसन्न हुई। उसने देखा, स्वर्गवासी नहुषनन्दन महाराज ययाति आये हैं, परंतु पृथ्वी का स्पर्श नहीं कर रहे हैं (आकाश में ही स्थित हैं)। अपने पिता को पहचानकर माधवी ने उन्हें प्रणाम किया। तब वसुमना ने अपनी तपस्विनी माता से प्रश्न करते हुए कहा।
वसुमना बोले ;- मा! तुम श्रेष्ठ वर्ण की देवी हो। तुमने इन महापुरुष को प्रणाम किया है। ये कौन हैं? कोई देवता हैं या राजा? यदि जानती हो, तो मुझे बताओ।
माधवी ने कहा ;- पुत्रों! तुम सब लोग एक साथ सुन लो- ‘ये मेरे पिता नहुषनन्दन महाराज ययाति हैं। मेरे पुत्रों के सुविख्यात मातामह (नाना) ये ही हैं। इन्होंने मेरे भाई पुरु को राज्य पर अभिषिक्त करके स्वर्ग लोक की यात्रा की थी; परंतु न जाने किस कारण से ये महायशस्वी महाराज पुन: यहाँ आये हैं’।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! माता की यह बात सुनकर वसुमना ने कहा- माँ! ये अपने स्थान से भ्रष्ट हो गये हैं। पुत्र का यह वचन सुनकर माधवी भ्रान्तचित्त हो उठी और दौहित्रों से घिरे हुए अपने पिता से इस प्रकार बोली।
माधवी ने कहा ;- पिता जी! मैंने तपस्या द्वारा जिन लोकों पर अधिकार प्राप्त किया है, उन्हें आप ग्रहण करें। पुत्रों और पौत्रों की भाँति और दौहित्रों का धर्माचरण से प्राप्त किया हुआ धन भी अपने ही लिये है, यह वेदवेत्ता ऋषि कहते हैं; अत: आप हम लोगों के दान एवं तपस्याजनित पुण्य से स्वर्गलोक में जाइये।
ययाति बोले ;- यदि यह धर्मजनित फल है, तब तो इसका शुभ परिणाम अवश्यम्भावी है। आज मुझे मेरी पुत्री तथा महात्मा दौहित्रों ने तारा है। इसलिये आज से पितृ-कर्म (श्राद्ध) में दौहित्र परमपवित्र समझा जायगा। इसमें संशय नहीं कि वह पितरों का हर्ष बढ़ाने वाला होगा। श्राद्ध में तीन वस्तुऐं पवित्र मानी जायंगी- दौहित्र, कुतप और तिल। साथ ही इसमें तीन गुणा भी प्रशंसित होंगे- पवित्रता, अक्रोध और अत्वरा (उतावलेपन का अभाव)। तथा श्राद्ध में भोजन करने वाले, परोसने वाले और (वैदिक या पौराणिक मन्त्रों का पाठ) सुनाने वाले- ये तीन प्रकार के मनुष्य भी पवित्र माने जायेंगे। दिन के आठवें भाग में जब सूर्य का ताप घटने लगता है, उस समय का नाम कुतप है। उसमें पितरों को दिया हुआ दान अक्षय होता है। तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं, कुश राक्षसों से बचाते हैं, श्रोत्रिय ब्राह्मण पंक्ति की रक्षा करते हैं और यदि यतिगण श्राद्ध में भोजन कर लें, तो वह अक्षय हो जाता है। उत्तम व्रत का आचरण करने वाला पवित्र श्रोत्रिय ब्राह्मण श्राद्ध का उत्तम पात्र है। वह जब प्राप्त हो जाय, वही श्राद्ध का उत्तम काल समझना चाहिये। उसको दिया हुआ दान उत्तम काल का दान है। इसके सिवा और कोई उपयुक्त काल नहीं है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! बुद्धिमान् ययाति उपर्युक्त बात कहकर पुन: अपने दौहित्रों से बोले- ‘तुम सब लोग अवभृथस्थान कर चुके हो। अब महत्त्वपूर्ण कार्य की सिद्धि के लिये शीघ्र तैयार हो जाओ’। अष्टक बोले- राजन्! आप इन रथों में बैठिये और आकाश में ऊपर की ओर बढ़िये। जब समय होगा, तब हम भी आपका अनुसरण करेंगे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रिनवतितम अध्याय के श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)
ययाति बोले ;- हम सब लोगों ने साथ-साथ स्वर्ग पर विजय पायी है, इसलिये इस समय सबको वहाँ चलना चाहिये। देवलोक का यह रजोहीन सात्त्विक मार्ग हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! तदनन्तर वे सभी नृपश्रेष्ठ उन दिव्य रथों पर आरूढ़ हो धर्म के बल से स्वर्ग में पहुँचने के लिये चल दिये। उस समय पृथ्वी और आकाश में उनकी प्रभा व्याप्त हो रही थी। अष्टक, शिबि, काशिराज प्रतर्दन तथा इक्ष्वाकुवंशी वसुमना- ये चारों साधु नरेश यज्ञान्त-स्नान करके एक साथ स्वर्ग में गये।
अष्टक बोले ;- राजन्! महात्मा इन्द्र मेरे बड़े मित्र हैं, अत: मैं तो समझता था कि अकेला ही मैं सबसे पहले उनके पास पहुँचूंगा। परंतु ये उशीनरपुत्र शिबि अकेले सम्पूर्ण वेग से हम सबके वाहनों को लांघकर आगे बढ़ गये हैं, ऐसा कैसे हुआ।
ययाति ने कहा ;- राजन्! उशीनर के पुत्र शिबि ने ब्रह्मलोक के मार्ग की प्राप्ति के लिये अपना सर्वस्व दान कर दिया था, इसलिये ये तुम सब लोगों में श्रेष्ठ हैं। नरेश्वर! दान, तपस्या, सत्य, धर्म, ह्री, श्री, क्षमा, सौम्यभाव और व्रत-पालन की अभिलाषा- राजा शिबि में ये सभी गुण अनुपम हैं तथा बुद्धि में भी उनकी समता करने वाला कोई नहीं है। राजा शिबि ऐसे सदाचार सम्पन्न और लज्जाशील हैं! (इनमें अभिमान की मात्रा छू भी नहीं गयी है।) इसीलिये शिबि हम सबसे आगे बढ़ गये हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर अष्टक ने कौतुहलवश इन्द्र के तुल्य अपने नाना राजा ययाति से पुन: प्रश्न किया। महाराज! आपसे एक बात पूछता हूँ। आप उसे सच-सच बताइये। आप कहाँ से आये हैं, कौन हैं और किसके पुत्र हैं? आपने जो कुछ किया है, उसे करने वाला आपके सिवा दूसरा कोई क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण इस संसार में नहीं है।
ययाति ने कहा ;- मैं नहुष का पुत्र और पुरु का पिता राजा ययाति हूँ। इस लोक में चक्रवर्ती नरेश था। आप सब लोग मेरे अपने हैं; अत: आपसे गुप्त बात भी खोलकर बतलाये देता हूँ। मैं आप लोगों का नाना हूँ। (यद्यपि पहले भी यह बात बता चुका हूं, तथापि पुन: स्पष्ट कर देता हूं)। मैंने इस सारी पृथ्वी को जीत लिया था। मैं ब्राह्मणों को अन्न-वस्त्र दिया करता था। मनुष्य जब एक सौ सुन्दर पवित्र अश्वों का दान करते हैं तब वे पुण्यात्मा देवता होते हैं। मैंने तो सवारी, गौ, सुवर्ण तथा उत्तम धन से परिपूर्ण यह सारी पृथ्वी ब्राह्मणों को दान कर दी थी एवं सौ अर्बुद (दस अरब) गौओं का दान भी किया था। सत्य से ही पृथ्वी और आकाश टिके हुए हैं।
इसी प्रकार सत्य से ही मनुष्य-लोक में अग्नि प्रज्वलित होती है। मैंने कभी व्यर्थ बात मुंह से नहीं निकाली है; क्योंकि साधु पुरुष सदा सत्य का ही आदर करते हैं। अष्टक! मैं तुमसे, प्रतर्दन से और उपदश्व के पुत्र वसुमान् से भी यहाँ जो कुछ कहता हूं; वह सब सत्य ही है। मेरे मन का यह विश्वास है कि समस्त लोक, मुनि और देवता सत्य से ही पूजनीय होते हैं। जो मनुष्य हृदय में ईर्ष्या ने रखकर स्वर्ग पर अधिकार करने वाले हम सब लोगों के इस वृत्तान्त को यथार्थ रुप से श्रेष्ठ द्विजों के सामने सुनायेगा, वह हमारे ही समान पुण्य लोकों को प्राप्त कर लेगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा ययाति बड़े महात्मा थे। शत्रुओं के लिये अजेय और उनके कर्म अत्यन्त उदार थे। उनके दौहित्रों ने उनका उद्धार किया और वे अपने सत्कर्मों द्वारा सम्पूर्ण भूमण्डल को व्याप्त करके पृथ्वी छोड़कर स्वर्गलोक में चले गये।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में उत्तरयायातसमाप्तिविषयक तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
चौरानबेवाँ अध्याय
(महाभारत (आदि पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद)
"पूरुवंश का वर्णन"
जनमेजय बोले ;- भगवन्! अब मैं पुरु के वंश का विस्तार करने वाले राजाओं का परिचय सुनना चाहता हूँ। उनका बल और पराक्रम कैसा था? वै कैसे और कितने थे? मेरा विश्वास है कि इस वंश में पहले कभी किसी प्रकार भी कोई ऐसा राजा नहीं हुआ है, जो शीलरहित, बल पराक्रम से शून्य अथवा संतान हीन रहा हो। तपोधन! जो अपने सदाचार के लिये प्रसिद्ध और विवेक सम्पन्न थे, उन सभी पूरुवंशी राजाओं के चरित्र को मुझे विस्तारपूर्वक सुनने की इच्छा है।
वैशम्पायन जी ने कहा ;- जनमेजय! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वह सब मैं बताऊंगा। पूरु के वंश में उत्पन्न हुए वीर नरेश इन्द्र के समान तेजस्वी, अत्यन्त धनवान्, परमपराक्रमी तथा समस्त शुभ लक्षणों से सम्मानित थे। (उन सबका परिचय देता हूं)। पुरु के पौष्टि नामक पत्नी के गर्भ से प्रवीर, ईश्वर तथा रौद्राश्व नामक तीन महारथी पुत्र हुए इनमें से प्रवीर अपनी वंश-परम्परा को आगे बढ़ाने वाले हुए। प्रवीर के पुत्र का नाम मनस्यु था, जो शूरसेनी के पुत्र और शक्तिशाली थे। कमल के समान नेत्र वाले मनस्यु ने चारों समुद्रों से घिरी हुई समस्त पृथ्वी का पालन किया। मनस्यु के सौवीरी के गर्भ से तीन पुत्र हुए- शक्त, संहनन और वाग्मी। वे सभी शूरवीर और महारथी थे। पूरु के तीसरे पुत्र मनस्वी रौद्राश्व के मिश्रकेशी अप्सरा के गर्भ से अन्वग्भानु आदि दस महाधनुर्धर पुत्र हुए, जो सभी यज्ञकर्ता, शूरवीर, संतानवान, अनेकशास्त्रों के विद्वान् सम्पूर्ण अस्त्र विद्या के ज्ञाता तथा धर्मपरायण थे।
उन सबके नाम इस प्रकार हैं,,,- ऋचेयु, कक्षेयु, पराक्रमी कृकणेयु, स्थण्डिलेयु, वनेयु, महायशस्वी जलेयु, बलवान् और बुद्धिमान् तेजेयु, इन्द्र के समान पराक्रमी सत्येयु, धर्मेयु तथा दसवें देवतुल्य पराक्रमी संनतेयु। ॠचेयु जिनका नाम अनाधृष्टि भी है, अपने सब भाइयों में वैसे ही विद्वान् और पराक्रमी हुए, जैसे देवतओं में इन्द्र। वे भूमण्डल के चक्रवर्ती राजा थे। अनाधृष्टि के पुत्र का नाम मतिनार था। राजा मतिनार राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञ करने वाले एवं परम धर्मात्मा थे। राजन्! मतिनार के चार पुत्र हुए, जो अत्यन्त पराक्रमी थे। उनके नाम ये हैं- तंसु, महान् अतिरथ और अनुपम तेजस्वी द्रुह्यु। इनमें महापराक्रमी तंसु ने पौरववंश का भार वहन करते हुए उज्ज्वल यश का उपार्जन किया और सारी पृथ्वी को जीत लिया। पराक्रमी तंसु ने ईलिन नामक पुत्र उत्पन्न किया, जो विजयी पुरुषों में श्रेष्ठ था। उसने भी सारी पृथ्वी जीत ली थी। ईलिन ने रथन्तरीन नाम वाली अपनी पत्नी के गर्भ से पंचमहाभूतों के समान दुष्यन्त आदि पांच राजपुत्रों को पुत्ररूप में उत्पन्न किया। (उनके नाम ये हैं-) दुष्यन्त, शूर, भीम, प्रवसु तथा वसु।
जनमेजय! इनमें सबसे बड़े होने के कारण दुष्यन्त राजा हुए। दुष्यन्त से विद्वान् राजा भरत का जन्म हुआ, जो शकुन्तला के पुत्र थे। उन्हीं से भरतवंश का महान् यश फैला। भरत ने अपनी तीन रानियों से नौ पुत्र उत्पन्न किये। किंतु ‘ये मेरे अनुरुप नहीं हैं’ ऐसा कहकर राजा ने उन शिशुओं का अभिनन्दन नहीं किया। तब उन शिशुओं की माताओं ने कुपित होकर उनको मार डाला। इससे महाराज भरत का वह पुत्रोत्पादन व्यर्थ हो गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 22-41 का हिन्दी अनुवाद)
भारत! तब महाराज भरत ने बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया और महर्षि भरद्वाज की कृपा से एक पुत्र प्राप्त किया, जिसका नाम भुमन्यु था। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर पौरव कुल का आनन्द बढ़ाने वाले भरत ने अपने को पुत्रवान् समझकर भुमन्यु को युवराज के पद पर अभिषिक्त किया। भुमन्यु के दिविरथ नामक पुत्र हुआ। उसके सिवा सुहोत्र, सुहोता, सुहवि, सुजयु और ऋचीक भी भुमन्यु के ही पुत्र थे। ये सब पुष्करिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। इन सब क्षत्रियों में सुहोत्र ही ज्येष्ठ थे। अत: उन्हीं को राज्य मिला। राजा सुहोत्र ने राजसूय तथा अश्वमेध आदि अनेक यज्ञों द्वारा यजन किया और समुद्र पर्यन्त सम्पूर्ण पृथ्वी का, जो हाथी-घोड़ों से परिपूर्ण तथा अनेक प्रकार के रत्नों से सम्पन्न थी, उपभोग किया। जब राजा सुहोत्र धर्मपूर्वक प्रजा का शासन कर रहे थे, उस समय सारी पृथ्वी हाथी, घोड़ों, रथ और मनुष्यों से खचाखच भरी थी। उन पशु आदि के भारी भार से पीड़ित होकर राजा सुहोत्र के शासन काल की पृथ्वी मानों नीचे धंसी जाती थी।
उनके राज्य की भूमि लाखों चैत्यों (देव-मन्दिरों) और यज्ञयूपों से चिह्नित दिखाई देती थी। सब लोग हृष्ट-पुष्ट होते थे। खेती की उपज अधिक हुआ करती थी। इस प्रकार उस राज्य की पृथ्वी सदा ही अपने वैभव से सुशोभित होती थी। भारत! राजा सुहोत्र से ऐक्ष्वाकी ने अजमीढ, सुमीढ तथा पुरुमीढ नामक तीन पुत्रों को जन्म दिया। उनमें अजमीढ ज्येष्ठ थे। उन्हीं पर वंश की मार्यादा टिकी हुई थी। जनमेजय! उन्होंने भी तीन स्त्रियों के गर्भ से छ: पुत्रों को उत्पन्न किया। उनकी धूमिनी नाम वाली स्त्री ने ॠक्ष को, नीली ने दुष्यन्त और परमेष्ठी को तथा केशिनी ने जह्न, व्रजन तथा रूपिण इन तीन पुत्रों को जन्म दिया। इनमें दुष्यन्त और परमेष्ठी के सभी पुत्र पाञ्चाल कहलाये। राजन्! अमिततेजस्वी जह्न के वंशज कुशिक नाम से प्रसिद्ध हुए। व्रजन तथा रूपिण के ज्येष्ठ भाई ॠक्ष को राजा कहा गया है। ॠक्ष से संवरण का जन्म हुआ। राजन्! ये वंश की वृद्धि करने वाले पुत्र थे।
जनमेजय! ऋक्षपुत्र संवरण जब इस पृथ्वी का शासन कर रहे थे, उस समय प्रजा का बहुत बड़ा संहार हुआ था, ऐसा हमने सुना है। इस प्रकार नाना प्रकार से क्षय होने के कारण वह सारा राज्य नष्ट-सा हो गया। सबको भूख, मृत्यु, अनावृष्टि और व्याधि आदि के कष्ट सताने लगे। शत्रुओं की सेनाऐं भरतवंशी योद्वाओं का नाश करने लगीं। पाञ्चाल नरेश ने इस पृथ्वी को कम्पित करते हुए चतुरंगिणी सेना के साथ संवरण पर आक्रमण किया और उनकी सारी भूमि वेगपूर्वक जीतकर दस अक्षौहिणी सेनाओं द्वारा संवरण को भी युद्ध में परास्त कर दिया। तदनन्तर स्त्री, पुत्र, सुहृद् और मन्त्रियों के साथ राजा संवरण महान् भय के कारण वहाँ से भाग चले। उस समय उन्होंने सिंधु नामक महानद के तटवर्ती निकुञ्ज में, एक पर्वत के समीप से लेकर नदी के तट तक फैला हुआ था, निवास किया। वहाँ उस दुर्ग का आश्रय लेकर भरतवंशी क्षत्रिय बहुत वर्षों तक टिके रहे। उन सबको वहाँ रहते हुए एक हजार वर्ष बीत गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्नवतितम अध्याय के श्लोक 42-64 का हिन्दी अनुवाद)
इसी समय उनके पास भगवान् महर्षि वसिष्ठ आये। उन्हें आया देख भरतवंशियों ने प्रयत्नपूर्वक उनकी अगवानी की और प्रणाम करके सबने उनके लिये अर्ध्य अर्पण किया। फिर उन तेजस्वी महर्षि को सत्कारपूर्वक अपना सर्वस्व समर्पण करके उत्तम आसन पर बिठाकर,,
राजा ने स्वयं उनका वरण करते हुए कहा ;- ‘भगवन्! हम पुन: राज्य के लिये प्रयत्न कर रहे हैं। आप हमारे पुरोहित हो जाइये’। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर वसिष्ठ जी ने भी भरतवंशियों को अपनाया और समस्त भूमण्डल में उत्कृष्ट पूरुवंशी संवरण को समस्त क्षत्रियों के सम्राट-पद पर अभिषिक्त कर दिया, ऐसा हमारे सुनने में आया है। तत्पश्चात महाराजा संवरण, जहाँ प्राचीन भरतवंशी राजा रहते थे, उस श्रेष्ठ नगर में निवास करने लगे। फिर उन्होंने सब राजाओं को जीतकर उन्हें करद बना लिया। तदनन्तर वे महाबली नरेश अजमीढवंशी संवरण पुन: पृथ्वी का राज्य पाकर बहुत दक्षिणा वाले बहुसंख्यक महायज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करने लगे। कुछ काल के पश्चात् सूर्यकन्या तपनी ने संवरण के वीर्य से कुरु नामक पुत्र को जन्म दिया।
कुरु को धर्मज्ञ मानकर सम्पूर्ण प्रजावर्ग के लोगों ने स्वयं उनका राजा के पद पर वरण किया। उन्हीं के नाम से पृथ्वी पर कुरुजांगलदेश प्रसिद्ध हुआ। उन महातपस्वी कुरु ने अपनी तपस्या के बल से कुरुक्षेत्र को पवित्र बना दिया। उनके पांच पुत्र सुने गये हैं- अश्ववान, अभिष्यन्त, चैत्ररथ, मुनि तथा सुप्रसिद्ध जनमेजय! इन पांचों पुत्रों को उनकी मनस्विनी पत्नी वाहिनी ने जन्म दिया था। अश्ववान् का दूसरा नाम अविक्षित था। उसके आठ पुत्र हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं- परिक्षित्, पराक्रमी शबलाश्व, आदिराज, विराज, महाबली शल्मलि,उच्चै:श्रवा, भंगकार तथा आठवां जितारि। इनके वंश में जनमेजय आदि अन्य सात महारथी भी हुए, जो अपने कर्मजनित गुणों से प्रसिद्ध हैं। परिक्षित् के सभी पुत्र धर्म और अर्थ के ज्ञाता थे; जिनके नाम इस प्रकार हैं- कक्षसेन, उग्रसेन, पराक्रमी चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण और भीमसेन। जनमेजय के महाबली पुत्र भूमण्डल में विख्यात थे। उनमें प्रथम पुत्र का नाम धृतराष्ट्र था। उनसे छोटे क्रमश: पाण्डु, वाह्लीक महातेजस्वी निषध, बलवान् जाम्बूनद, कुण्डोदर, पदाति तथा वसाति थे। इनमें वसाति आठवां था।
ये सभी धर्म और अर्थ में कुशल तथा समस्त प्राणियों के हित में संलग्न रहने वाले थे। इनमें धृतराष्ट्र राजा हुए। उनके पुत्र कुण्डिक, हस्ती, वितर्क, क्राथ, कुण्डिन, हवि:श्रवा, इन्द्राभ, भुमन्यु और अपराजित थे। भारत! इनके सिवा प्रतीप, धर्म नेत्र और सुनेत्र ये तीन पुत्र और थे। धृतराष्ट्र के पुत्रों में ये ही तीन इस भूतल पर अधिक विख्यात थे। इनमें भी प्रतीप की प्रसिद्धि अधिक थी। भूमण्डल में उनकी समानता करने वाला कोई नहीं था। भरतश्रेष्ठ! प्रतीप के तीन पुत्र हुए- देवापि, शान्तनु और महारथी वाह्लीक। इनमें से देवापि धर्माचरण द्वारा कल्याण प्राप्ति की इच्छा से वन को चले गये, इसलिये शान्तनु एवं महारथी वाह्लीक ने इस पृथ्वी का राज्य प्राप्त किया। राजन्! भरत के वंश में सभी नरेश धैर्यवान् एवं शक्तिशाली थे। उस वंश में बहुत-से श्रेष्ठ नृपतिगण देवर्षियों के सामन थे। ऐसे ही और कितने ही देवतुल्य महारथी मनुवंश में उत्पन्न हुए थे, जो महाराज पूरुरवा के वंश की वृद्धि करने वाले थे।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में पूरुवंशवर्णनविषयक चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
पंचानबेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)
"दक्ष प्रजापति से लेकर पूरुवंश,भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन"
जनमेजय बोले ;- ब्रह्मन्! मैं आपके मुख से पूर्ववर्ती राजाओं की उत्पत्ति का महान् वृत्तान्त सुना। इस पूरु वंश में उत्पन्न हुए राजाओं के नाम भी मैंने भली-भाँति सुन लिये। परंतु संक्षेप से कहा हुआ यह प्रिय आख्यान सुनकर मुझे पूर्णत: तृप्ति नहीं हो रही है। अत: आप मुझ पुन: विस्तारपूर्वक मुझसे इसी दिव्य कथा का वर्णन कीजिये। दक्ष प्रजापति और मनु से लेकर उन सब राजाओं का पवित्र जन्म-प्रसंग किसको प्रसन्न नहीं करेगा? उत्तम धर्म और गुणों के माहात्मय से अत्यन्त वृद्धि को प्राप्त हुआ इन राजाओं का श्रेष्ठ और उज्ज्वल यश तीनों लोक में व्याप्त हो रहा है। ये सभी नरेश उत्तम गुण, प्रभाव, बल-पराक्रम, ओज, सत्तच (धैर्य) और उत्साह से सम्पन्न थे। इनकी कथा अमृत के समान मधुर है, उसे सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं हो रही है।
वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन्! पूर्वकाल में मैंने महर्षि कृष्ण द्वैपायन के मुख से जिसका भली-भाँति श्रवण किया था, वह सम्पूर्ण प्रसंग तुम्हें सुनाता हूँ। अपने वंश की उत्पत्ति का वह शुभ वृत्तान्त सुनो। दक्ष से अदिति, अदिति से विवस्वान् (सूर्य), विवस्वान् से मनु, मनु से इला, इला से पुरूरवा, पुरूरवा से आयु, आयु से नहुष और नहुष से ययाति का जन्म हुआ। ययाति के दो पत्नीयां थीं; पहली शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी तथा दूसरी वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा। यहाँ उनके वंश का परिचय देने वाला यह श्लोक कहा जाता है- देवयानी ने यदु और तुर्वसु नाम वाले दो पुत्रों को जन्म दिया और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने द्रह्यु, अनु तथा पूरु- ये तीन पुत्र उत्पन्न किये। इनमें यदु से यादव और पूरु से पौरव हुए। पूरु की पत्नी का नाम कौसल्या था (उसी को पौष्टि भी कहते हैं)।
उसके गर्भ से पूरु के जनमेजय नामक पुत्र हुआ (इसी का दूसरा नाम प्रवीर है); जिसने तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान किया था और विश्वजित यज्ञ करके वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया था। जनमेजय मधुवंश की कन्या अनन्ता के साथ विवाह किया था। उसके गर्भ से उनके प्राचिन्वान् नामक पुत्र दिशा को एक ही दिन में जीत लिया था; इसीलिये उसका नाम प्रचिन्वान् हुआ। प्रचिन्वान् ने यदुकुल की कन्या अश्मकी को अपनी पत्नी बनाया। उसके गर्भ से उन्हें संयाति नामक पुत्र प्राप्त हुआ। संयाति ने दृषद्वान की पुत्री वरांगी से विवाह किया। उसके गर्भ से उन्हें अहंयाति नामक पुत्र हुआ। अहंयाति ने कृतवीर्यकुमारी भानुमति को अपनी पत्नी बनाया। उसके गर्भ से अहंयाति के सार्वभौम नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
सार्वभौम ने युद्ध में जीतकर केकयकुमारी सुनन्दा का अपहरण किया और उसी को अपनी पत्नी बनाया। उससे उसको जयत्सेन नामक पुत्र प्राप्त हुआ। जयत्सेन ने विदर्भराजकुमारी सुश्रुवा से विवाह किया। उसके गर्भ से उनके अवाचीन नामक पुत्र हुआ। अवाचीन ने भी विदर्भ राजकुमारी मर्यादा के साथ विवाह किया, जो आगे बतायी जाने वाली देवातिथि की पत्नी से भिन्न थी। उसके गर्भ से उन्हें ’अरिह’ नामक पुत्र हुआ। अरिह ने अंग देश की राजकुमारी से विवाह किया और उसके गर्भ से उन्हें महाभौम नामक पुत्र प्राप्त हुआ। महाभौम ने प्रसेनजित की पुत्री सुयज्ञा से विवाह किया उसके गर्भ से उन्हें अयुतनायी नामक पुत्र प्राप्त हुआ; जिसने दस हजार पुरुषमेध ‘यज्ञ’ किये। अयुत यज्ञों का आनयन (अनुष्ठान) करने के कारण ही उनका नाम अयुतनायी हुआ।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 21-41 का हिन्दी अनुवाद)
अयुतनायी ने पृथुश्रवा की पुत्री कामा से विवाह किया, जिसके गर्भ से अक्रोधन का जन्म हुआ। अक्रोधन ने कलिंग देश की राजकुमारी करम्भा से विवाह किया। जिसके गर्भ से उनके देवातिथि नामक पुत्र का जन्म हुआ। देवातिथि ने विदेह राजकुमारी मर्यादा से विवाह किया, जिसके गर्भ से अरहि नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। अरिह ने अंग राजकुमारी सुदेवा के साथ विवाह किया, और उसके गर्भ से ॠक्ष नामक पुत्र को जन्म दिया। ॠक्ष ने तक्षक की पुत्री ज्वाला के साथ विवाह किया, उसके गर्भ से मतिनार नामक पुत्र उत्पन्न किया। मतिनार ने सरस्वती के तट पर उत्तम गुणों से युक्त द्वादशवार्षिक यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसके समाप्त होने पर सरस्वती ने उनके पास आकर उन्हें पति रूप में वरण किया। मतिनार ने उसके गर्भ से तंसु नामक पुत्र उत्पन्न किया।
यहाँ वंश परम्परा का सूचक श्लोक इस प्रकार है- सरस्वती ने मतिनार से तंसु नामक पुत्र उत्पन्न किया और कलिंग राजकुमारी के गर्भ से ईलिन नामक पुत्र को जन्म दिया। ईलिन ने रथन्तरी के गर्भ से दुष्यन्त आदि पांच पुत्र उत्पन्न किये। दुष्यन्त ने विश्वामित्र की पुत्री शकुन्तला के साथ विवाह किया; जिसके गर्भ से उनके पुत्र भरत का जन्म हुआ। यहाँ वंश परम्परा के सूचक दो श्लोक हैं- ‘माता तो भाथी (धौंकनी) के समान हैं। वास्तव में पुत्र पिता का ही होता है; जिससे उसका जन्म होता है, वही उस बालक के रूप में प्रकट होता है। दुष्यन्त! तुम अपने पुत्र का भरण-पोषण करो; शकुन्तला का अपमान न करो। गर्भाधान करने वाला पिता ही पुत्ररूप में उत्पन्न होता है। नरदेव! पुत्र यमलोक से पिता का उद्धार कर देता है। तुम्ही इस गर्भ के आधान करने वाले हो। शकुन्तला का कथन सत्य है’। आकाशवाणी ने भरण-पोषण के लिये कहा था, इसलिये उस बालक का भरत हुआ।
भरत ने राजा सर्वसेन की पुत्री सुनन्दा से विवाह किया। वह काशी की राजकुमारी थी उसके गर्भ से भरत के भुमन्यु नामक पुत्र हुआ। भुमन्यु ने दशार्हकन्या विजया से विवाह किया; जिसके गर्भ से सुहोत्र का जन्म हुआ। सुहोत्र ने इक्ष्वाकु कुल की कन्या सुवर्णा से विवाह किया। उसके गर्भ से उन्हें हस्ती नामक पुत्र हुआ; जिसने यह हस्तिनापुर नामक नगर बसाया था। हस्ती के बसाने से ही यह नगर ‘हस्तिनापुर’ कहलाया। हस्ति ने त्रिगर्तराज की पुत्री यशोधरा के साथ विवाह किया और उसके गर्भ से विकुण्ठन नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। विकुण्ठन ने दशार्हकुल की कन्या सुदेवा से विवाह किया और उसके गर्भ से उन्हें अजमीढ़ नामक पुत्र प्राप्त हुआ। अजमीढ़ के कैकेयी, गान्धारी, विशाला तथा ॠक्षा से एक सौ चौबीस पुत्र हुए। वे सब पृथक्-पृथक् वंश प्रर्वतक राजा हुए। इनमें राजा संवरण कुरुवंश के प्रर्वतक हुए। संवरण ने सूर्यकन्या तपती से विवाह किया; जिसके गर्भ से कुरु का जन्म हुआ। कुरु ने दशार्हकुल की कन्या शुभांगी से विवाह किया। उसके गर्भ से कुरु के विदूर नामक पुत्र हुआ। विदूर ने मधुवंश की कन्या सम्प्रिया से विवाह किया; जिसके गर्भ से उन्हें अनश्वा नामक पुत्र प्राप्त हुआ। अनश्वा ने मगधराजकुमारी अमृता को अपनी पत्नी बनाया। उसके गर्भ से उनके परिक्षित नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।
(महाभारत (आदि पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 42-60 का हिन्दी अनुवाद)
परिक्षित के बाहुदराज की पुत्री सुयशा के साथ विवाह किया: जिससे उनके भीमसेन नामक पुत्र हुआ। भीमसेन ने केकयदेश की राजकुमारी कुमारी को अपनी पत्नी बनाया; जिसके गर्भ से प्रतिश्रवा का जन्म हुआ। प्रतिश्रवा से प्रतीप उत्पन्न। उसने शिवि देश की राजकन्या सुनन्दा से विवाह किया और उसके गर्भ से देवापि, शान्तनु तथा वाह्लीक - इन तीन पुत्रों को जन्म दिया। देवापि बाल्यवस्था में ही वन को चले गये, अत: शान्तनु राजा हुए। शान्तनु के विषय में यह अनुवंश श्लोक उपलब्ध होता है- वे जिस-जिस बूढ़े को अपने दोनों हाथों से छू देते थे, वह बड़े सुख और शान्ति का अनुभव करता था तथा पुन: नौजवान हो जाता था। इसीलिये ये लोग उन्हें शान्तनु के रुप में जानने लगे। यही उनके शान्तनु नाम पड़ने का कारण हुआ। शान्तनु ने भागीरथी गंगा को अपनी पत्नी बनाया; जिसके गर्भ से उन्हें देवव्रत नामक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसे लोग ‘भीष्म’ कहते हैं। भीष्म ने अपने पिता का प्रिय करने की इच्छा से उनके साथ माता सत्यवती का विवाह कराया; जिसे गन्धकाली भी कहते हैं।
सत्यवती के गर्भ से पहले कन्यावस्था में महर्षि पराशर से द्वैपायन व्यास उत्पन्न हुए थे। फिर उसी सत्यवती के राजा शान्तनु द्वारा दो पुत्र और हुए। जिनका नाम था, विचित्रवीर्य और चित्रांगद। उनमें से चित्रांगद युवावस्था में पदार्पण करने से पहले ही एक गन्धर्व के द्वारा मारे गये; परंतु विचित्रवीर्य राजा हुए। विचित्रवीर्य ने अम्बिका और अम्बालिका से विवाह किया। वे दोनों काशिराज की पुत्रियां थीं और उनकी माता का नाम कौसल्या था। विचित्रवीर्य के अभी कोई संतान नहीं हुई थी, तभी उनका देहवसान हो गया। तब सत्यवती को यह चिन्ता हुई कि ‘राजा दुष्यन्त का यह वंश नष्ट न हो जाय’। उसने मन-ही-मन द्वैयापन महर्षि व्यास का चिन्तन किया।
फिर तो व्यास जी उसके आगे प्रकट हो गये और बोले ;- ‘क्या आज्ञा है?’
सत्यवती ने उनसे कहा ;- ‘बेटा! तुम्हारे भाई विचित्रवीर्य संतानहीन अवस्था में ही स्वर्गवासी हो गये। अत: उनके वंश की रक्षा के लिये उत्तम संतान उत्पन्न करो’।
उन्होंने ‘तथास्तु‘ कहकर धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर- इन तीन पुत्रों को उत्पन्न किया। उनमें से राजा धृतराष्ट्र के गान्धारी के गर्भ से व्यास जी के दिये हुए वरदान के प्रभाव से सौ पुत्र हुए। धृतराष्ट्र के उन सौ पुत्रों में चार प्रधान थे- दुर्योधन, दु:शासन, विकर्ण और चित्रसेन। पाण्डु की दो पत्नियां थीं; कुन्तिभोज की कन्या पृथा और माद्री ये दोनों ही स्त्रियों में रत्नस्वरुपा थीं। एक दिन राजा पाण्डु ने शिकार खेलते समय एक मृग रुपधारी ऋषि को मृगी रुपधारिणी अपनी पत्नी के साथ मैथुन करते देखा। वह अद्भुत मृग अभी काम-रस का आस्वादन नहीं कर सका था। उसे अतृप्त अवस्था में ही राजा ने बाण से मार दिया। बाण से घायल होकर,,
उस मुनि ने पाण्डु से कहा ;- ‘राजन्! तुम भी इस मैथुन धर्म का आचरण करने वाले तथा काम-रस के ज्ञाता हो, तो भी तुमने मुझे उस दशा में मारा है, जबकि मैं काम-रस से तृप्त नहीं हुआ था। इस कारण इसी अवस्था में पहुँचकर काम-रस का आस्वादन करने से पहले ही शीघ्र मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।’ यह सुनकर राजा पाण्डु उदास हो गये और शाप का परिहार करते हुए पत्नियों के सहवास से दूर रहने लगे। उन्होंने कहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 61-75 का हिन्दी अनुवाद)
पाण्डु ने कहा ;- ‘देवियों! अपनी चपलता के कारण मुझे यह शाप मिला है। सुनता हूं, संतान हीन को पुण्यलोक नहीं प्राप्त होते हैं। अत: तुम मेरे लिये पुत्र उत्पन्न करो।' यह बात उन्होंने कुन्ती से कही। उनके ऐसा करने पर कुन्ती ने तीन पुत्र उत्पन्न किये- धर्मराज से युधिष्ठिर को, वायुदेव से भीमसेन को और इन्द्र से अर्जुन को जन्म दिया। इससे पाण्डु को बड़ी प्रसन्नता हुई।
उन्होंने कुन्ती से कहा ;- ‘यह तुम्हारी सौत माद्री तो संतानहीन ही रह गयी, इसके गर्भ से भी सुन्दर संतान उत्पन्न होने की व्यवस्था करो। ‘ऐसा ही हो’ कहकर कुन्ती ने अपनी वह विद्या (जिससे देवता आकृष्ट होकर चले आते थे) माद्री को भी दे दी। माद्री के गर्भ से अश्विनीकुमारों ने नकुल और सहदेव को उत्पन्न किया। एक दिन माद्री को श्रृंगार किये देख पाण्डु उसके प्रति आसक्त हो गये और उनका स्पर्श होते ही उनका शरीर छूट गया। तदनन्तर वहाँ चिता की आग में स्थित पति के शव के साथ माद्री चिता पर आरूढ़ हो गयी और कुन्ती से बोली,,
माद्री बोली ;- ‘बहिन! मेरे जुड़वें बच्चों के भी लालन-पालन में तुम सदा सावधान रहना’।
इसके बाद तपस्वी मुनियों ने कुन्तीसहित पाण्डवों को वन से हस्तिनापुर में लाकर भीष्म तथा विदुर जी को सौंप दिया। साथ ही समस्त प्रजावर्ग के लोगों को भी सारे समाचार बताकर वे तपस्वी उन सब के देखते-देखते वहाँ से अन्तर्धान हो गये। उन ऐश्वर्यशाली मुनियों की बात सुनकर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी और देवताओं की दुन्दुभियां बज उठीं। भीष्म और धृतराष्ट्र के द्वारा अपना लिये जाने पर पाण्डवों ने उनसे अपने पिता की मृत्यु का समाचार बताया, तत्पश्चात् पिता की और्ध्वदैहिक क्रिया को विधिपूर्वक सम्पन्न करके पाण्डव वहीं रहने लगे। दुर्योधन को बाल्यावस्था से ही पाण्डवों का साथ रहना सहन नहीं हुआ। पापाचारी दुर्योधन राक्षसी बुद्धि का आश्रय ले अनेक उपायों से पाण्डवों की जड़ उखाड़ने का प्रयत्न करता रहता था। परंतु जो होने वाली बात है, वह होकर ही रहती है; इसलिये दुर्योधन आदि पाण्डवों को नष्ट करने में सफल न हो सके।
इसके बाद धृतराष्ट्र ने किसी बहाने से पाण्डवों को जब वारणावत नगर में जाने के लिये प्रेरित किया, तब उन्होंने वहाँ से जाना स्वीकार कर लिया। वहाँ भी उन्हें लाक्षागृह में जला डालने का प्रयत्न किया गया; किंतु पाण्डवों के विदुर जी की सलाह के अनुसार काम करने के कारण विरोधी लोग उनको दग्ध करने में समर्थ न हो सके। पाण्डव वारणावत से अपने को छिपाते हुए चल पड़े और मार्ग में हिडिम्ब राक्षस का वध करके वे एकचक्रा नगरी में पहुँचे। एकचक्रा में भी बक नाम वाले राक्षस का संहार करके वे पाञ्चाल नगर में चले गये। वहाँ पाण्डवों ने द्रौपदी को पत्नीरुप में प्राप्त किया और फिर अपनी राजधानी हस्तिनापुर में लौट आये। वहाँ कुशलतापूर्वक रहते हुए उन्होंने द्रौपदी से पांच पुत्र उत्पन्न किये। युधिष्ठिर ने प्रतिविन्ध्य को, भीमसेन ने सुतसोम को, अर्जुन ने श्रुतकीर्ति को, नकुल ने शतानीक को और सहदेव ने श्रुतकर्मा को जन्म दिया।
(महाभारत (आदि पर्व) पंचनवतितम अध्याय के श्लोक 76-90 का हिन्दी अनुवाद)
युधिष्ठिर ने शिबिदेश के राजा गोवासन की पुत्री देविका को स्वयंवर में प्राप्त किया और उसके गर्भ से एक पुत्र को जन्म दिया; जिसका नाम यौधेय था। भीमसेन ने भी काशिराज की कन्या बलन्धरा के साथ विवाह किया; उसे प्राप्त करने के लिये बल एवं पराक्रम का शुल्क रखा गया था अर्थात यह शर्त थी कि जो अधिक बलवान् हो, वही उसके साथ विवाह कर सकता है। भीमसेन से उसके गर्भ से एक पुत्र उत्पन्न किया, जिसका नाम सर्वग था। अर्जुन ने द्वारिका में जाकर मंगलमय वचन बोलने वाली वासुदेव की बहिन सुभद्रा को पत्नीरुप में प्राप्त किया और उसे लेकर कुशलतापूर्वक अपनी राजधानी में चले आये। वहाँ उसके गर्भ से अत्यन्त गुणसम्पन्न अभिमन्यु नामक पुत्र को उत्पन्न किया; जो वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण को बहुत प्रिय था।
नकुल ने चेदि नरेश की पुत्री करेणुमती को पत्नी रुप में प्राप्त किया और उसके गर्भ से निरमित्र नामक पुत्र को जन्म दिया। सहदेव ने भी मद्रदेश की राजकुमारी विजया को स्वयंवर में प्राप्त किया। वह मद्रराज द्युतिमान् की पुत्री थी। उसके गर्भ से उन्होंने सुहोत्र नामक पुत्र को जन्म दिया। भीमसेन ने पहले ही हिडिम्बा के गर्भ से घटोत्कच नामक राक्षस जातीय पुत्र को उत्पन्न किया था। इस प्रकार ये पाण्डवों के ग्यारह पुत्र हुए। इनमें से अभिमन्यु का ही वंश चला। अभिमन्यु ने विराट की पुत्री उत्तरा के साथ विवाह किया था। उसके गर्भ से अभिमन्यु के एक पुत्र हुआ; जो मरा हुआ था। पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से कुन्ती ने उसे अपनी गोद में ले लिया। उन्होंने यह आश्वासन दिया कि छ: महीने के इस मरे हुए बालक को मैं जीवित कर दूंगा। अश्वत्थामा के अस्त्र की अग्नि से झुलसकर वह असमय में (समय से पहले) ही पैदा हो गया था। उसमें बल, वीर्य और पराक्रम नहीं था। परंतु भगवान् कृष्ण ने उसे अपने तेज से जीवित कर दिया। इसको जीवित करके वे इस प्रकार बोले- ‘इस कुल के परिक्षण (नष्ट) होने पर इसका जन्म हुआ है; अत: यह बालक परिक्षित नाम से विख्यात हो।’ परिक्षित् ने तुम्हारी माता माद्रवती के साथ विवाह किया, जिसके गर्भ से तुम जनमेजय नामक पुत्र उत्पन्न हुए। तुम्हारी पत्नी वपुष्टमा के गर्भ से दो पुत्र उत्पन्न हुए हैं- शतानीक और शंकुकर्ण। शतानीक की पत्नी विदेह राजकुमारी के गर्भ से उत्पन्न हुए पुत्र का नाम है अश्वेधदत्त।
यह पूरु तथा पाण्डवों के वंश का वर्णन किया गया; जो धन और पुण्य की प्राप्ति कराने वाला एवं परम पवित्र है, नियमपरायण ब्राह्मणों, अपने धर्म में स्थित प्रजापालक क्षत्रियों, वैश्यों तथा तीनों वर्णों की सेवा करने वाले श्रद्धालु शूद्रों को भी सदा इसका श्रवण एवं स्वाध्याय करना चाहिये। जो पुण्यात्मा मनुष्य मन को वश में करके ईर्ष्या छोड़कर सबके प्रति मैत्रीभाव रखते हुए वेदपरायण हो इस सम्पूर्ण पुण्यमय इतिहास को सुनायेंगे अथवा सुनेंगे वे स्वर्गलोक के अधिकारी होंगे और देवता, ब्राह्मण तथा मनुष्यों के लिये सदैव आदरणीय तथा पूजनीय होंगे। जो ब्राह्मण आदि वर्णों के लोग मात्सर्यरहित, मैत्रीभाव से संयुक्त और वेदाध्ययन से सम्पन्न हो श्रद्धापूर्वक भगवान् व्यास के द्वारा कहे हुए इस परम पावन महाभारत ग्रन्थ को सुनेंगे, वे भी स्वर्ग के अधिकारी और पुण्यात्मा होंगे तथा उनके लिये इस बात का शोक नहीं रह जायगा कि उन्होंने अमुक कर्म क्यों किया और अमुक कर्म क्यों नहीं किया। इस विषय में यह श्लोक प्रसिद्ध है- ‘यह महाभारत वेदों के समान पवित्र, उत्तम तथा धन, यश और आयु की प्राप्ति कराने वाला है। मन को वश में रखने वाले साधु पुरुषों को सदैव इसका श्रवण करना चाहिये।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में पूरुवंशानुकीर्तनविषयक पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें