सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
छियासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडशीतितम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"वन में राजा ययाति की तपस्या और उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इस प्रकार नहुषनन्दन राजा ययाति अपने प्रिय पुत्र पुरु का राज्याभिषेक करके प्रसन्नतापूर्वक वानप्रस्थ मुनि हो गये। वे वन में ब्राह्मणों के साथ रहकर कठोर व्रत का पालन करते हुए फल-मूल का आहार तथा मन और इन्द्रियों का संयम करते थे, इससे वे स्वर्गलोक में गये। स्वर्गलोक में जाकर वे बड़ी प्रसन्नता के साथ सुखपूर्वक रहने लगे और बहुत काल के बाद इन्द्र द्वारा वे पुन: स्वर्ग से नीचे गिरा दिये गये। स्वर्ग से भ्रष्ट हो पृथ्वी पर गिरते समय वे भूतल तक नहीं पहुँचे, आकाश में ही स्थिर हो गये, ऐसा मैंने सुना है। फिर यह भी सुनने में आया हे कि वे पराक्रमी राजा ययाति मुनि समाज में राजा वसुमना, अष्टक, प्रतर्दन और शिबि से मिलकर पुन: वहाँ से साधु पुरुषों के संग के प्रभाव से स्वर्गलोक में चले गये।
जनमेजय ने पूछा ;- मुने! किस कर्म से वे भूपाल पुन: स्वर्ग में पहुँचे थे? विप्रवर! मैं ये सारी बातें पूर्णरुप से यथावत् सुनना चाहता हूँ। इन ब्रह्मर्षियों के समीप आप इस प्रसंग का वर्णन करें। कुरुवंश की वृद्धि करने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी राजा ययाति देवराज इन्द्र के समान थे। उनका यश चारों ओर फैला था। मैं उन सत्यकीर्ति महात्मा ययाति का चरित्र, जो इहलोक और स्वर्गलोक में सर्वत्र प्रसिद्ध है, सुनना चाहता हूँ।
वैशम्पायन जी बोले ;- जनमेजय! ययाति की उत्तम कथा इहलोक और स्वर्गलोक में भी पुण्यदायक है। वह सब पापों का नाश करने वाली है, मैं तुमसे उसका वर्णन करता हूँ। नहुषपुत्र महाराज ययाति अपने छोटे पुत्र पुरु को राज्य पर अभिषिक्त करके यदु आदि अन्य पुत्रों को सीमान्त (किनारे के देशों) में रख दिया। फिर बड़ी प्रसन्नता के साथ वे वन में गये। वहाँ फल-मूल का आहार करते हुए, उन्होंने दीर्घकाल तक वन में निवास किया। उन्होंने अपने मन को शुद्ध करके क्रोध पर विजय पायी और प्रतिदिन देवताओं तथा पितरों का तर्पण करते हुए वानप्रस्थाश्रम की विधि से शास्त्रीय विधान के अनुसार अग्निहोत्र प्रारम्भ किया।
वे राजा शिलोञ्छवृत्ति का आश्रय ले अन्न का भोजन करते थे। भोजन से पूर्व वे वन में उपलब्ध होने वाले फल, मूल आदि हविष्य के द्वारा अतिथियों का आदर-सत्कार करते थे। राजा को इसी वृत्ति से रहते हुए एक हजार वर्ष बीत गये। उन्होंने मन और वाणी पर संयम करके तीस वर्षों तक केवल जल का आहार किया। तत्पश्चात् वे आलस्यरहित हो एक वर्ष तक केवल वायु पीकर रहे। फिर एक वर्ष तक अग्नियों के बीच में बैठकर तपस्या की। इसके बाद छ: महीनों तक हवा पीकर वे एक पैर से खड़े रहे। तदनन्तर पुण्यकीर्ति महाराज ययाति पृथ्वी और आकाश में अपना यश फैलाकर स्वर्गलोक में चले गये।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में उत्तरयायातविषयक छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
सत्तासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्ताशीतितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"इन्द्र के पूछने पर ययाति का अपने पुत्र पुरु को दिये हुए उपदेश की चर्चा करना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! स्वर्गलोक में जाकर महाराज ययाति देवभवन में निवास करने लगे। वहाँ देवताओं, साध्यगणों, मरुद्गणों तथा वसुओं ने उनका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। सुना जाता है कि पुण्यात्मा तथा जितेन्द्रिय राजा ययाति देवलोक और ब्रह्मलोक में भ्रमण करते हुए वहाँ दीर्घकाल तक रहे। एक दिन नृपश्रेष्ठ ययाति देवराज इन्द्र के पास आये। दोनों में वार्तालाप हुआ और अन्त में इन्द्र ने राजा ययाति से पूछा।
इन्द्र ने पूछा ;- 'राजन्! जब पुरु तुमसे वृद्धावस्था लेकर तुम्हारे स्वरुप से इस पृथ्वी पर विचरण करने लगा, तुम सत्य कहो, उस समय राज्य देकर तुमने उसको क्या आदेश दिया था?'
ययाति ने कहा ;- (देवराज! मैंने अपने पुत्र पुरु से कहा था कि) बेटा! गंगा और यमुना के बीच का यह सारा प्रदेश तुम्हारे अधिकार में रहेगा। यह पृथ्वी का मध्य भाग है, इसके तुम राजा होओगे और तुम्हारे भाई सीमान्त देशों के अधिपति होंगे। देवेन्द्र! ( इसके बाद मैंने यह आदेश दिया कि) मनुष्य दीनता, शठता और क्रोध न करे। कुटिलता, मात्सर्य और वैर कहीं न करे। माता, पिता, विद्वान, तपस्वी तथा क्षमाशील पुरुष बुद्धिमान् मनुष्य कभी अपमान न करे। शक्तिशाली पुरुष सदा क्षमा करता है। शक्तिहीन मनुष्य सदा क्रोध करता है। दुष्ट मानव साधु पुरुष से और दुर्बल अधिक बलवान् से द्वेष करता है। कुरूप मनुष्य रुपवान् से, निर्धन धनवान् से, अकर्मण्य कर्मनिष्ठ से और अधार्मिक धर्मात्मा से द्वेष करता है। इसी प्रकार गुणहीन मनुष्य गुणवान् से डाह रखता है। इन्द्र! यह कलिका का लक्षण है। क्रोध करने वालों से वह पुरुष श्रेष्ठ है जो कभी क्रोध नहीं करता। इसी प्रकार असहनशील से सहनशील उत्तम है, मनुष्येतर प्राणियों से मनुष्य श्रेष्ठ हैं और मूर्खों से विद्वान उत्तम हैं। यदि कोई किसी की निन्दा करता था उसे गाली देता हो तो वह भी बदले में निन्दा या गाली-गलौच न करे; क्योंकि जो गाली या निन्दा सह लेता है, उस पुरुष का आन्तरिेक दु:ख ही गाली देने वाले या अपमान करने वाले को जला डालता है। साथ ही उसके पुण्य को भी वह ले लेता है। क्रोधवश किसी के मर्म-स्थान में चोट न पहुँचाये ( ऐसा बर्ताव न करे, जिससे किसी को मार्मिक पीड़ा हो )।
किसी के प्रति कठोर बात भी मुंह से न निकाले। अनुचित उपाय से शत्रु को भी वश में न करे। जो जी को जलाने वाली हो, जिससे दूसरे को उद्वेग होता हो, ऐसी बात मुंह से न बोले; क्योंकि पापी लोग ही ऐसी बातें बोला करते हैं। जो स्वभाव का कठोर हो, दूसरों के मर्म में चोट पहुँचाता हो, तीखी बातें बोलता हो और कठोर वचनरुपी कांटों से दूसरे मनुष्य को पीड़ा देता हो, उसे अत्यन्त लक्ष्मीहीन (दरिद्र या अभागा) समझे। (उसको देखना भी बुरा है; क्योंकि ) वह कड़वी बोली के रुप में अपने मुंह में बंधी हुई एक पिशाचिनी को ढो रहा है। (अपना बर्ताव और व्यवहार ऐसा रखे, जिससे) साधु पुरुष सामने तो सत्कार करें ही, पीठ-पीछे भी उनके द्वारा अपनी रक्षा हो। दुष्ट लोगों की कही हुई अनुचित बातें सदा सह लेनी चाहिये तथा श्रेष्ठ पुरुषों के सदाचार का आश्रय लेकर साधु पुरुषों के व्यवहार को ही अपनाना चाहिये। दुष्ट मनुष्यों के मुख से कटुवचनरुपी बाण सदा छूटते रहते हैं, जिनसे आहत होकर मनुष्य रात-दिन शोक और चिन्ता में डूबा रहता है। वे बाग्वाण दूसरों के मर्मस्थानों पर ही चोट करते हैं। अत: विद्वान पुरुष दूसरे के प्रति ऐसी कठोर वाणी का प्रयोग न करे। सभी प्राणियों के प्रति दया और मैत्री का बर्ताव, दान और सबके प्रति मधुर वाणी का प्रयोग- तीनों लोकों में इनके समान कोई वशीकरण नहीं है। इसलिये कभी कठोर वचन न बोले। सदा सान्तवनापूर्ण मधुर वचन ही बोले। पूजनीय पुरुषों का पूजन (आदर-सत्कार) करे। दूसरों को दान दे ओर स्वयं कभी-किसी से कुछ न मांगे।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में उत्तरयायातविषयक सत्तासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
अठ्ठासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टाशीतितम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"ययाति का स्वर्ग से पतन और अष्टक का उनसे प्रश्न करना"
इन्द्र ने कहा ;- राजन्! तुम सम्पूर्ण कर्मों को समाप्त करके घर छोड़कर वन में चले गये थे। अत: नहुषपुत्र ययाते! मैं तुमसे पूछता हूँ कि तुम तपस्या में किसके समान हो।
ययाति ने कहा ;- इन्द्र मैं देवताओं, मनुष्यों, गन्धर्वों और महर्षियों में से किसी को भी तपस्या में अपनी बराबरी करने वाला नहीं देखता हूँ।
इन्द्र बोले ;- राजन्! तुमने अपने समान, अपने से बड़े और छोटे लोगों का प्रभाव न जानकर सबका तिरस्कार किया है, अत: तुम्हारे इन पुण्यलोकों में रहने की अवधि समाप्त हो गयी; क्योंकि (दूसरों की निन्दा करने के कारण) तुम्हारा पुण्य क्षीण हो गया, इसलिये अब तुम यहाँ से नीचे गिरोगे।
ययाति ने कहा ;- देवराज इन्द्र! देवता, ऋषि, गन्धर्व और मनुष्य आदि का अपमान करने के कारण यदि मेरे पुण्य लोक क्षीण हो गये हैं तो इन्द्र लोक से भ्रष्ट होकर मैं साधु पुरुषों के बीच में गिरने की इच्छा करता हूँ।
इन्द्र बोले ;- राजा ययाति! तुम यहाँ से च्युत होकर साधु पुरुषों के समीप गिरोगे और वहाँ अपनी खोयी हुई प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त कर लोगे। यह सब जानकर तुम फिर कभी अपने बराबर तथा अपने से बड़े लोगों का अपमान न करना।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्तर देवराज इन्द्र के सेवन करने योग्य पुण्य लोकों का परित्याग करके राजा ययाति नीचे गिरने लगे। उस समय राजर्षियों में श्रेष्ठ अष्टक ने उन्हें गिरते देखा। वे उत्तम धर्म-विधि के पालक थे। उन्होंने ययाति से कहा। अष्टक ने पूछा- इन्द्र के समान सुन्दर रुप वाले तरुण पुरुष तुम कौन हो? तुम अपने तेज से अग्नि की भाँति देदीप्यमान हो रहे हो। मेघरूपी घने अन्धकार वाले आकाश में आकाशचारी ग्रहों में श्रेष्ठ सूर्य के समान तुम कैसे गिर रहे हो? तुम्हारा तेज सूर्य और अग्नि के सदृश्य है। तुम अप्रमेय शक्तिशाली जान पड़ते हो। तुम्हें सूर्य के मार्ग से गिरते देख हम सब लोग मोहित होकर इस तर्क-वितर्क में पड़े हैं कि ‘यह क्या गिर रहा है?’ तुम इन्द्र, सूर्य और विष्णु के समान प्रभावशाली हो।
तुम्हें आकाश में स्थित देखकर हम सब लोग अब यह जानने के लिये तुम्हारे निकट आये हैं कि तुम्हारे पतन का यथार्थ कारण क्या है? हम पहले तुमसे कुछ पूछने का साहस नहीं कर सकते और तुम भी हमसे हमारा परिचय नहीं पूछते हो; कि हम कौन हैं? इसलिये मैं ही तुमसे पूछता हूँ। मनोरम रुप वाले महापुरुष! तुम किसके पुत्र हो? और किसलिये यहाँ आये हो? इन्द्र के तुल्य शक्तिशाली पुरुष! तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। अब तुम्हें विषाद और मोह को भी तुरंत त्याग देना चाहिये। इस समय तुम संतों के समीप विद्यमान हो। बल दानव का नाश करने वाले इन्द्र भी अब तुम्हारा तेज सहन करने में असमर्थ हैं। देवेश्वर इन्द्र के समान तेजस्वी महानुभाव! सुख से वञ्चित होने वाले साधु पुरुषों के लिये सदा संत ही परमआश्रय हैं। वे स्थावर और जंगम सब प्राणियों पर शासन करने वाले सत्पुरुष यहाँ एकत्र हुए हैं। तुम अपने समान पुण्यात्मा संतों के बीच में स्थित हो। जैसे तपने की शक्ति अग्नि में है, बोये हुए बीज को धारण करने की शक्ति पृथ्वी में है, प्रकाशित होने की शक्ति सूर्य में है, इसी प्रकार संतों पर शासन करने की शक्ति केवल अतिथि में है।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में उत्तरयायातविषयक अट्ठासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
नवासीवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)
"ययाति और अष्टक संवाद"
ययाति ने कहा ;- महात्मन्! मैं नहुष का पुत्र और पुरु का पिता ययाति हूँ। समस्त प्राणियों का अपमान करने से मेरा पुण्य क्षीण हो जाने के कारण मैं देवताओं, सिद्धों तथा महर्षियों के लोक से च्युत होकर नीचे गिर रहा हूँ। मैं आप लोगों से अवस्था में बड़ा हूं, अत: आप लोगों को प्रणाम नहीं कर रहा हूँ। द्विजातियों में जो विद्या, तप और अवस्था में बड़ा होता है, वह पूजनीय माना जाता है।
अष्टक बोले ;- राजन्! आपने कहा है कि जो अवस्था में बड़ा हो वही अधिक सम्माननीय कहा जाता है। परंतु द्विजों में तो जो विद्या और तपस्या में बढ़ा-चढ़ा हो, वही पूज्य होता है। ययाति ने कहा- पाप को पुण्य कर्मों का नाशक बताया जाता है, वह नरक की प्राप्ति कराने वाला है और वह उद्दण्ड पुरुषों में ही देखा जाता है। दुराचारी के दुराचार का श्रेष्ठ पुरुष अनुसरण नहीं करते हैं। पहले के साधु पुरुष भी उन श्रेष्ठ पुरुषों के ही अनुकूल आचरण करते थे। मेरे पास पुण्यरूपी बहुत धन था; किंतु दूसरों की निन्दा करने के कारण वह सब नष्ट हो गया। अब मैं चेष्टा करके भी उसे नहीं पा सकता। मेरी इस दुरवस्था को समझ-बूझकर जो आत्म कल्याण में संलग्न रहता है, वही ज्ञानी और वही धीर है। जो मनुष्य बहुत धनी होकर उत्तम यज्ञों द्वारा भगवान् की आराधना करता है, सम्पूर्ण विद्याओं को पाकर जिसकी बुद्धि विनययुक्त है तथा जो वेदों को पढ़कर अपने शरीर को तपस्या में लगा देता है, वह पुरुष मोह रहित होकर स्वर्ग में जाता है। महान् धन पाकर कभी हर्ष से उल्लसित न हो, वेदों का अध्ययन करे, किंतु अहंकारी न बने। इस जीव-जगत् में भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले बहुत से प्राणी हैं, वे सभी प्रारब्ध के अधीन हैं, अत: उनके धनादि पदार्थों के लिये किये हुए उद्योग और अधिकार सभी व्यर्थ हो जाते हैं।
इसलिये धीर पुरुष को चाहिये कि वह अपनी बुद्धि से ‘प्रारब्ध ही बलवान् है, यह जानकर दु:ख या सुख जो भी मिले, उसमें बिकार- को प्राप्त न हो। जीव जो सुख अथवा दु:ख पाता है, वह प्रारब्ध से ही प्राप्त होता है, अपनी शक्ति से नहीं। अत: प्रारब्ध को ही बलवान मानकर मनुष्य किसी प्रकार भी हर्ष अथवा शोक न करे। दु:खों से संतप्त न हो और सुखों से हर्षित न हो। धीर पुरुष सदा समभाव से ही रहे और भाग्य को ही प्रबल मानकर किसी प्रकार चिन्ता एवं हर्ष के वशीभूत न हो। अष्टक! मैं कभी भय में पड़कर मोहित नहीं होता, मुझे कोई मानसिक संताप भी नहीं होता; क्योंकि मैं समझता हूँ कि विधाता इस संसार में मुझे जैसे रखेगा, वैसे ही रहूंगा।। स्वेदज, अण्डज, उद्गिज्ज, सरीसृप, कृमि, जल में रहने वाले मत्स्य आदि जीव तथा पर्वत, तृण और काष्ठ- ये सभी प्रारब्ध-भोग का सर्वथा क्षय हो जाने पर अपनी प्रकृति को प्राप्त हो जाते हैं। अष्टक! मैं सुख तथा दु:ख दोनों की अनित्यता को जानता हूं, फिर मुझे संताप हो तो कैसे? मैं क्या करूं और क्या करके संतप्त न होऊं, इन बातों की चिन्ता छोड़ चुका हूँ। अत: सावधान रहकर शोक-संताप को अपने से दूर रखता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोननवतितम अध्याय के श्लोक 13-23 का हिन्दी अनुवाद)
जो दु:ख में खिन्न नहीं होता, सुख से मतवाला नहीं हो उठता और सबके साथ समान भाव से बर्ताव करता है, वह धीर कहा गया है। विज्ञ मनुष्य बुद्धि से प्रारब्ध को अत्यन्त बलवान समझकर यहाँ किसी भी विषय में अधिक आसक्त नहीं होता।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा ययाति समस्त सद्गुणों से सम्पन्न थे और नाते में अष्टक के नाना लगते थे। वे अन्तरिक्ष में वैसे ही ठहरे हुए थे, मानो स्वर्गलोक में हों, जब उन्होंने उपर्युक्त बातें कहीं, तब अष्टक ने उनसे पुन: प्रश्न किया।
अष्टक बोले ;- महाराज! आपने जिन-जिन प्रधान लोकों में रहकर जितने समय तक वहाँ के सुखों का भली-भाँति उपभोग किया है, उन सबका मुझे यथार्थ परिचय दीजिये। राजन्! आप तो महात्माओं की भाँति धर्मों का उपदेश कर रहें हैं।
ययाति ने कहा ;- अष्टक! मैं पहले समस्त भूमण्डल में चक्रवर्ती राजा था। तदनन्तर सत्कर्मों द्वारा बड़े-बड़े लोकों पर मैंने विजय प्राप्त की और उनमें एक हजार वर्षों तक निवास किया। इसके बाद उनसे भी उच्चतम लोक में जा पहुँचा। वहाँ सौ योजन विस्तृत और एक हजार दरवाजों से युक्त इन्द्र की रमणीय पुरी प्राप्त हुई। उसमें मैंने केवल एक हजार वर्षों तक निवास किया और उसके बाद उससे भी ऊंचे लोक में गया। तदनन्तर लोकपालों के लिये भी दुर्लभ प्रजापति के उस दिव्य लोक में जा पहुँचा, जहाँ जरावस्था का प्रवेश नहीं हैं। वहाँ एक हजार वर्ष तक रहा, फिर उससे भी उत्तम लोक में चला गया। वह देवाधिदेव ब्रह्मा जी का धाम था। वहाँ मैं अपनी इच्छा के अनुसार भिन्न-भिन्न लोकों में विहार करता हुआ सम्पूर्ण देवताओं से सम्मानित होकर रहा। उस समय मेरा प्रभाव और तेज देवेश्वरों के समान था। इसी प्रकार मैं नन्दवन में इच्छानुसार रूप धारण करके अप्सराओं के साथ विहार करता हुआ दस लाख वर्षों तक रहा। वहाँ मुझे पवित्र गन्ध और मनोहर रूप वाले वृक्ष देखने को मिले, जो फूलों से लदे हुए थे। वहाँ रहकर मैं देवलोक के सुखों में आसक्त हो गया। तदनन्तर बहुत अधिक समय बीत जाने पर एक भयंकर रूपधारी देवदूत आकर मुझसे ऊंची आवाज में तीन बार बोला- ‘गिर जाओ, गिर जाओ, गिर जाओ’।
राजशिरोमणे! मुझे इतना ज्ञात हो सका है। तदनन्तर पुण्य क्षीण हो जाने के कारण मैं नन्दन वन से नीचे गिर पड़ा। नरेन्द्र! उस समय मेरे लिये शोक करने वाले देवताओं की अन्तरिक्ष में यह दया भरी वाणी सुनायी पड़ी। ‘अहो! बड़े कष्ट की बात है कि पवित्र कीर्ति वाले ये पुण्यकर्मा महाराज ययाति पुण्य क्षीण होने के कारण नीचे गिर रहे हैं।’
तब नीचे गिरते हुए मैंने उनसे पूछा ;- ‘देवताओं! मैं साधु पुरुषों के बीच गिरूं, इसका क्या उपाय है!’ तब देवताओं ने मुझे आपकी यज्ञ भूमि का परिचय दिया। मैं इसी को देखता हुआ तुरंत यहाँ आ पहुँचा हूँ। यज्ञभूमि का परिचय देने वाली हविष्य की सुगन्ध का अनुभव तथा धूमप्रान्त का अवलोकन करके मुझे बड़ी प्रसन्नता और सान्त्वना मिली है।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में उत्तरयायातविषयक नवासीवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
नब्बेवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)
"अष्टक और ययाति का संवाद"
अष्टक ने पूछा ;- सत्ययुग के निष्पाप राजाओं में प्रधान नरेश! जब आप इच्छानुसार रूप धारण करके दस लाख वर्षों तक नन्दन वन में निवास कर चुके हैं, तब क्या कारण है कि आप उसे छोड़कर भू-तल पर चले आये?
ययाति बोले ;- जैसे इस लोक में जाति-भाई, सुहृद् अथवा स्वजन कोई भी क्यों न हो, धन नष्ट हो जाने पर उसे सब मनुष्य त्याग देते हैं; उसी प्रकार परलोक में जिसका पुण्य समाप्त हो गया है, उस मनुष्य को देवराज इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवता तुरंत त्याग देते हैं।
अष्टक ने पूछा ;- देवलोक में मनुष्यों के पुण्य क्षीण होते हैं? इस विषय में मेरा मन अत्यन्त मोहित हो रहा हैं प्रजापति का वह कौन-सा धाम है, जिसमें विशिष्ट (पुनरावृत्ति की योग्यता वाले) पुरुष जाते हैं? यह बताईये; क्योंकि आप मुझे क्षेत्रज्ञ (आत्मज्ञानी) जान पड़ते हैं।
ययाति बोले ;- नरदेव! जो अपने मुख से अपने पुण्य कर्मों का बखान करते हैं, वे सभी इस भौम नरक में आ गिरते हैं। यहाँ वे गीधों, गीदड़ों और कौओं आदि के खाने योग्य इस शरीर के लिये बड़ा भारी परिश्रम करके क्षीण होते और पुत्र-पौत्रादि रूप से बहुधा विस्तार को प्राप्त होते हैं। इसलिये नरेन्द्र! इस लोक में जो दुष्ट और निन्दनीय कर्म हो उसको सर्वथा त्याग देना चाहिये। भूपाल! मैंने तुमसे सब कुछ कह दिया, बोलो, अब और तुम्हें क्या बताऊं?
अष्टक ने पूछा ;- जब मनुष्यों को मृत्यु के पश्चात पक्षी, गीध, नीलकण्ठ और पतंग ये नोच-नोचकर खा लेते हैं, तब वे कैसे ओर किस रूप में उत्पन्न होते हैं? मैंने अब तक भौम नामक किसी दूसरे नरक कर नाम नहीं सुना था।
ययाति बोले ;- कर्म से उत्पन्न होने और बढ़ने वाले शरीर को पाकर गर्भ से निकलने के पश्चात जीव सबके समक्ष इस पृथ्वी पर (विषयों में) विचरते हैं। उनका यह विचरण ही भौम नरक कहा गया है। इसी में वे पड़ते हैं। इसमें पड़ने पर वे व्यर्थ बीतने वाले अनेक वर्ष समूहों की ओर दृष्टिपात नहीं करते। कितने ही प्राणी आकाश (स्वर्गादि) में साठ हजार वर्ष रहते हैं। कुछ अस्सी हजार वर्षों तक वहाँ निवास करते हैं। इसके बाद वे भूमि पर गिरते हैं। यहाँ उन गिरने वाले जीवों को तीखी दाढ़ों वाले पृथ्वी के भयानक राक्षस (दुष्ट प्राणी) अत्यन्त पीड़ा देते हैं।
अष्टक ने पूछा ;- तीखी दाढ़ों वाले पृथ्वी के वे भयंकर राक्षस पाप वश आकाश से गिरते हुए जिन जीवों को सताते हैं, वे गिरकर कैसे जीवित रहते हैं? किस प्रकार इन्द्रिय आदि से युक्त होते हैं? और कैसे गर्भ में आते हैं?
ययाति बोले ;- अन्तरिक्ष से गिरा हुआ प्राणी अस्त्र (जल) होता है। फिर वही क्रमश: नूतन शरीर का बीजभूत वीर्य बन जाता है। वह वीर्य फूल और फलरूपी शेष कर्मों से संयुक्त होकर तदनुरुप योनि का अनुसरण करता है। गर्भाधान करने वाले पुरुष के द्वारा स्त्री संसर्ग होने पर वह वीर्य में आविष्ट हुआ जीव उस स्त्री के रज से मिल जाता है। तदनन्तर वहीं गर्भरूप में परिणित हो जाता है। जीव जलरुप से गिरकर वनस्पतियों और औषधियों में प्रवेश करते हैं। जल, वायु, पृथ्वी और अन्तरिक्ष आदि में प्रवेश करते हुए कर्मानुसार पशु अथवा मनुष्य सब कुछ होते हैं। इस प्रकार भूमि पर आकर फिर पूर्वोक्त क्रम के अनुसार गर्भभाव को प्राप्त होते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 12-23 का हिन्दी अनुवाद)
अष्टक ने पूछा ;- राजन्! इस मनुष्य योनि में आने वाला जीव अपने इसी शरीर से गर्भ में आता है या दूसरा शरीर धारण करता है। आप यह रहस्य मुझे बताइये। मैं संशय होने के कारण पूछता हूँ। गर्भ में आने पर भिन्न-भिन्न शरीर रुपी आश्रय को, आंख और कान आदि इन्द्रियों को तथा चेतना को भी कैसे उपलब्ध करता है? मेरे पूछने पर ये सब बातें आप बताइये। तात! हम सब लोग आपको क्षेत्रज्ञ (आत्मज्ञानी) मानते हैं।
ययाति बोले ;- ॠतुकाल में पुष्प रस से संयुक्त वीर्य को वायु गर्भाशय में खींच लाता है। वहाँ गर्भाशय में सूक्ष्मभूत उस पर अधिकार कर लेते हैं और वह क्रमश: गर्भ की वृद्धि करता रहता है। वह गर्भ बढ़कर जब सम्पूर्ण अवयवों से सम्पन्न हो जाता है, तब चेतना का आश्रय ले योनि से बाहर निकलकर मनुष्य कहलाता है। वह कानों से शब्द सुनता है, आंखों से रुप देखता है। नासिका से सुगन्ध लेता है। जिह्वा से रस का आस्वादन करता है। त्वचा से स्पर्श और मन से आन्तरिक भावों का अनुभव करता है। अष्टक! इस प्रकार महात्मा प्राणधारियों के शरीर में जीव की स्थापना होती है।
अष्टक ने पूछा ;- जो मनुष्य मर जाता है, वह जलाया जाता है या गाड़ दिया जाता है अथवा जल में बहा दिया जाता है। इस प्रकार बिनाश होकर स्थूल शरीर का अभाव हो जाता है। फिर वह चेतन जीवात्मा किस शरीर के आधार पर रहकर चैतन्य युक्त व्यवहार करता है?
ययाति बोले ;- राजसिंह! जैसे मनुष्य श्वास लेते हुए प्राणयुक्त स्थूल शरीर को छोड़कर स्वप्न में विचरण करता है, वैसे ही यह चेतन जीवात्मा अस्फुट शब्दोचारण के साथ इस मृतक स्थूल शरीर को त्यागकर सूक्ष्म शरीर से संयुक्त होता है और फिर अथवा पाप को आगे रखकर वायु के समान वेग से चलता हुआ अन्य योनि को प्राप्त होता है। पुण्य करने वाले मनुष्य पुण्य योनि में जाते हैं और पाप करने वाले मनुष्य पाप योनि में जाते हैं। इस प्रकार पापी जीव कीट-पतंग आदि होते हैं। महानुभाव! इन सब विषयों को विस्तार के साथ कहने की इच्छा नहीं होती। नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार जीव गर्भ में आकर चार पैर, छ: पैर और दो पैर वाले प्राणियों के रुप में उत्पन्न होते हैं। यह सब मैंने पूरा-पूरा बता दिया। अब और क्या पूछना चाहते हो?
अष्टक ने पूछा ;- तात! मनुष्य कौन-सा कर्म करके उत्तम लोक प्राप्त करता है? वे लोक तप से प्राप्त होते हैं या विद्या से? मैं यही पूछता हूँ। जिस कर्म के द्वारा क्रमश: श्रेष्ठ लोकों की प्राप्ति हो सके, वह सब यथार्थ रुप से बताइये।
ययाति बोले ;- राजन्! साधु पुरुष स्वर्ग लोक के सात महान् दरवाजे बतलाते हैं, जिनसे प्राणी उसमें प्रवेश करते हैं। उनके नाम ये हैं- तप, दान, शम, दम, लज्जा, सरलता और समस्त प्राणियों के प्रति दया। वे तप आदि द्वार सदा ही पुरुष के अभिमानरुप तप से आच्छादित होने पर नष्ट हो जाते हैं, यह संत पुरुषों का कथन है। जो वेदों का अध्ययन करके अपने को सबसे बड़ा पण्डित मानता है और अपनी विद्या द्वारा दूसरों के यश का नाश करता है, उसके पुण्यलोक अन्तवान् (विनाशशील) होते हैं और उसका पढ़ा हुआ वेद भी उसे फल नहीं देता।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवतितम अध्याय के श्लोक 24-27 का हिन्दी अनुवाद)
अग्निहोत्र, मौन, अध्ययन और यज्ञ- ये चार कर्म मनुष्य को भय से मुक्त करने वाले हैं; परंतु वे ही ठीक से न किये जायं, अभिमानपूर्वक उनका अनुष्ठान किया जाय तो वे उलटे भय प्रदान करते हैं। विद्वान पुरुष सम्मानित होने पर अधिक आनन्दित न हो और अपमानित होने पर संतप्त न हो। इस लोक में संत पुरुष ही सत्पुरुषों का आदर करते हैं। दुष्ट पुरुषों को ‘यह सत्पुरुष है’ ऐसी बुद्धि प्राप्त ही नहीं होती।
मैं यह दे सकता हूँ, इस प्रकार यजन करता हूँ, इस तरह स्वाध्याय में लगा रहता हूँ और यह मेरा व्रत है; इस प्रकार जो अहंकारपूर्वक वचन हैं, उन्हें भयरुप कहा गया है। ऐसे वचनों को सर्वथा त्याग देना चाहिये। जो सबका आश्रय है, पुराण (कूटस्थ) है तथा जहाँ मन की गति भी रुक जाती है वह (परब्रह्म परमात्मा) तुम सब लोगों के लिये कल्याणकारी हो। जो विद्वान् उसे जानते हैं, वे उस परब्रह्म परमात्मा से संयुक्त होकर इहलोक और परलोक में परमशान्ति को प्राप्त होते हैं।
(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत सम्भव पर्व में उत्तरयायातविषयक नब्बेवाँ अध्याय पूरा हुआ)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें