सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) का चौथे अध्याय से दसवे अध्याय तक (From the fourth chapter to the tenth chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (पौलोम पर्व)

चौथा अध्याय

"क‍था प्रवेश"

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्थ अध्याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

नैमिषारण्य में कुलपति शौनक के बारह वर्षों तक चालू रहने वाले सत्र में उपस्थित महर्षियों के समीप एक दिन लोमहर्षणपुत्र सूतनन्दन उग्रश्रवा आये। वे पुराणों की कथा कहने में कुशल थे। वे पुराणों के ज्ञाता थे। उन्होंने पुराणविद्या में बहुत परिश्रम किया था। 

वे नैमिषारण्यवासी महर्षियों से हाथ जोड़कर बोले ;- ‘पूज्यपाद महर्षिगण! आप लोग क्या सुनना चाहते हैं? मैं किस प्रसंग पर बोलूँ?’ तब ऋषियों ने उनसे कहा लोमहर्षणकुमार! हम आपको उत्तम प्रसंग बतलायेंगे और कथा प्रसंग प्रारम्भ होने पर सुनने की इच्छा रखने वाले हम लोगों के समक्ष आप बहुत सी कथाएँ कहेंगे। किंतु पूज्यपाद कुलपति भगवान शौनक अभी अग्नि की उपासना में संलग्न हैं।

वे देवताओं और असुरों से सम्बन्ध रखने वाली बहुत सी दिव्य कथाएँ जानते हैं। मनुष्य, नागों तथा गंधर्वों की कथाओं से भी वे सर्वथा परिचित हैं। सूतनन्दन! वे विद्वान कुलपति विप्रवर शौनक जी भी इस यज्ञ में उपस्थित हैं। वे चतुर, उत्तम व्रतधारी तथा बुद्धिमान! हैं। शास्त्र (श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण) तथा आरण्यक (बृहदारण्यक आदि) के तो वे आचार्य ही हैं। वे सदा सत्य बोलने वाले, मन और इन्द्रियों के संयम में तत्पर, तपस्वी और नियमपूवर्क व्रत को निबाहने वाले हैं। वे हम सभी लोगों के लिये सम्माननीय है; अतः जब तक उनका आना न हो, तब तक प्रतीक्षा कीजिये।

गुरुदेव शौनक जब यहाँ उत्तम आसन पर विराजमान हो जायें उस समय वे द्विजश्रेष्ठ आपसे जो कुछ पूछें, उसी प्रसंग को लेकर आप बोलियेगा। 

उग्रश्रवा जी ने कहा ;- एवमस्तु (ऐसा ही होगा), गुरुदेव महात्मा शौनक जी के बैठ जाने पर उन्हीं के पूछने के अनुसार मैं नाना प्रकार की पुण्यदायिनी कथाएँ कहूँगा। तदनन्तर विप्राशिरोमणि शौनक जी क्रमशः सब कार्यों का विधिपूर्वक सम्पादन करके वैदिक स्तुतियों द्वारा देवताओं को और जल की अंजलि द्वारा पितरों को तृप्त करने के पश्चात उस स्थान पर आयें, जहाँ उत्तम व्रतधारी सिद्ध ब्रह्मर्षि गण यज्ञ मण्डप में सूत जी को आगे विराजमान करके सुखपूर्वक बैठे थे। ऋत्विजों और सदस्यों के बैठ जाने पर कुलपति शौनक जी भी वहाँ बैठे और इस प्रकार बोले।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व का  कथा प्रवेश नामक चौथा अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

आदि पर्व (पौलोम पर्व)

पाँचवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)

"भृगु के आश्रम पर पुलोमा दान का आगमन और उसकी अग्नि देव के साथ बातचीत"

शौनक जी ने कहा ;- तात लोमहर्षणकुमार! पूर्व काल में आपके पिता ने सब पुराणों का अध्ययन किया था। क्या आपने भी उन सबका अध्ययन किया है? पुराण में दिव्य कथाएँ वर्णित हैं। परमबुद्धिमान राजर्षियों और ब्रह्मषियों के आदि वंश भी बताये गये हैं। जिनको पहले हमने आपके पिता के मुख से सुना है। उनमें से प्रथम तो मैं भृगुवंश का ही वर्णन सुनना चाहता हूँ। अतः आप इसी से सम्बन्ध रखने वाली कथा कहिये। हम सब लोग आपकी कथा सुनने के लिये सर्वथा उद्यत हैं।

सूतपुत्र उग्रश्रवा ने कहा ;- भृगुनन्दन! वैशम्पायन आदि श्रेष्ठ ब्राह्मणों और महात्मा द्विजवरों ने पूर्वकाल में जो पुराण भली-भाँति पढ़ा था और उन विद्वानों ने जिस प्रकार पुराण का वर्णन किया है, वह सब मुझे ज्ञात है। मेरे पिता ने जिस पुराण विद्या का भली-भाँति अध्ययन किया था, वह सब मैंने उन्हीं के मुख से पढ़ी और सुनी है। भृगुनन्दन! आप पहले उस सर्वश्रेष्ठ भृगु वंश का वर्णन सुनिये जो देवता, इन्द्र, ऋषि और मरुद्गणों से पूजित है। महामुने! आपको इस अत्यन्त दिव्य भार्गव वंश का परिचय देता हूँ। यह परिचय अद्भुत एवं युक्तियुक्त तो होगा ही, पुराणों के आश्रय से भी संयुक्त होगा। हमने सुना है कि स्वयम्भू ब्रह्मा जी ने वरुण के यज्ञ में महर्षि भगवान भृगु को अग्नि में उत्पन्न किया था। भृगु के अत्यन्त प्रिय पुत्र च्यवन हुए, जिन्हें भार्गव भी कहते हैं। च्यवन के पुत्र का नाम प्रमति था, जो बड़े धर्मात्मा हुए। प्रमति के घृताची नामक अप्सरा के गर्भ से रुरु नामक पुत्र का जन्म हुआ। रुरु के पुत्र शुनक थे, जिनका जन्म प्रेमद्वरा के गर्भ से हुआ था। शुनक वेदों के पारंगत विद्वान और धर्मात्मा थे। वे आपके पूर्व पितामह थे। वे तपस्वी, यशस्वी, शास्त्रज्ञ तथा ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। धर्मात्मा, सत्यवादी और मन इन्द्रियों को वश में रखने वाले थे। उनका आहार-विहार नियमित एवं परिमित था।

शौनक जी बोले ;- सूतपुत्र! मैं पूछता हूँ कि महात्मा भार्गव का नाम च्यवन कैसे प्रसिद्ध हुआ? यह मुझे बताइये।

उग्रश्रवा जी ने कहा ;- महामुने! भृगु की पत्नी का नाम पुलोमा था। वह अपने पति को बहुत ही प्यारी थी। उसके उदर में भृगु जी के वीर्य से उत्पन्न गर्भ पल रहा था। भृगुवंश शिरोमणे! पुलोमा यशस्वी भृगु की अनुकूल शील-स्वभाव वाली धर्मपत्नी थी। उनकी कुक्षि में उस गर्भ के प्रकट होने पर एक समय धर्मात्माओं में श्रेष्ठ भृगु जी स्नान करने के लिये आश्रम से बाहर निकले। उस समय एक राक्षस, जिसका नाम भी पुलोमा ही था, उसके आश्रम पर आया। आश्रम में प्रवेश करते ही उसकी दृष्टि महर्षि भृगु की पतिव्रता पत्नी पर पड़ी और वह कामदेव के वशीभूत हो अपनी सुध-बुध खो बैठा।

    सुन्दरी ने उस राक्षस को अभ्यागत अतिथि मानकर वन में फल-मूल आदि से उसका सत्कार करने के लिये उसे न्योता दिया। ब्रह्मन! वह राक्षस काम से पीड़ित हो रहा था। उस समय उसने वहाँ पुलोमा को अकेली देख बड़े हर्ष का अनुभव किया, क्योंकि यह सती-साध्वी पुलोमा को हर ले जाना चाहता था। मन में उस शुभ लक्षणा सती के अपहरण की इच्छा रखकर वह प्रसन्नता से फूल उठा और मन-ही-मन बोला, ‘मेरा तो काम बन गया।’ पवित्र मुस्कान वाली पुलोमा को पहले उस पुलोमा नामक राक्षस ने वरण किया था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचम अध्याय के श्लोक 20-34 का हिन्दी अनुवाद)

किन्तु पीछे उसके पिता ने शास्त्र विधि के अनुसार महर्षि भृगु के साथ उसका विवाह कर दिया। भृगुनन्दन! उसके पिता का वह अपराध राक्षस के हृदय में सदा काँटे सा कसकता रहता था। यही अच्छा मौका है, ऐसा विचार कर उसने उस समय पुलोमा को हर ले जाने का पक्का निश्चय कर लिया। इतने में ही राक्षस ने देखा, अग्निहोत्र गृह में अग्निदेव प्रज्वलित हो रहे हैं।

तब पुलोमा ने उस समय उस प्रज्वलित पावक से पूछा ;- ‘अग्निदेव! मैं सत्य की शपथ देकर पूछता हूँ, बताओ, यह किसकी पत्नी है? पावक! तुम देवताओं के मुख हो। अतः मेरे पूछने पर ठीक-ठीक बताओ। पहले तो मैंने ही इस सुन्दरी को अपनी पत्नी बनाने के लिये वरण किया था। किन्तु बाद में असत्य व्यहार करने वाले इसके पिता ने भृगु के साथ इसका विवाह कर दिया। यदि यह एकान्त में मिली हुई सुन्दरी भृगु की भार्या है तो वैसी बात सच-सच बता दो; क्योंकि मैं इसे इस आश्रम से हर ले जाना चाहता हूँ। वह क्रोध आज मेरे हृदय को दग्ध सा कर रहा है इस सुमध्यमा को, जो पहले मेरी भार्या थी, भृगु ने अन्यायपूर्वक हड़प लिया है’।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- इस प्रकार वह राक्षस भृगु की पत्नी के प्रति, यह मेरी है या भृगु की। ऐसा संशय रखते हुए, प्रज्वलित अग्नि को सम्बोधित करके बार-बार पूछने लगा- ‘अग्निदेव! तुम सदा सब प्राणियों के भीतर निवास करते हो। सर्वज्ञ अग्ने! तुम पुण्य और पाप के विषय में साक्षी की भाँति स्थित रहते हो; अतः सच्ची बात बताओ। असत्य बर्ताव करने वाले भृगु ने, जो पहले मेरी ही थी, उस भार्या का अपहरण किया है। यदि यह वही है, तो वैसी बात ठीक-ठीक बता दो। सर्वज्ञ अग्निदेव! तुम्हारे मुख से सब बातें सुनकर भृगु की इस भार्या को तुम्हारे देखते-देखते इस आश्रम से हर ले जाऊँगा; इसलिये मुझसे सच्ची बात कहो’।

   उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- राक्षस की यह बात सुनकर ज्वालामयी सात जिह्वाओं वाले अग्निदेव बहुत दुखी हुए। एक ओर वे झूठ से डरते थे तो दूसरी ओर भृगु के शाप से; अतः धीरे से इस प्रकार बोले।

   अग्निदेव बोले ;- दानवनन्दन! इसमें संदेह नहीं कि पहले तुम्ही ने इस पुलोमा का वरण किया था, किन्तु विधिपूर्वक मन्त्रोच्चारण करते हुए इसके साथ तुमने विवाह नहीं किया था। पिता ने तो यह यशस्विनी पुलोमा भृगु को ही दी है। तुम्हारे वरण करने पर भी इसके महायशस्वी पिता तुम्हारे हाथ में इसे इसलिये नहीं देते थे कि उनके मन में तुमसे श्रेष्ठ वर मिल जाने का लोभ था। दानव! तदनन्तर महर्षि भृगु ने मुझे साक्षी बनाकर वेदोक्त क्रिया द्वारा विधिपूर्वक इसका पाणिग्रहण किया था। यह वही है, ऐसा मैं जानता हूँ। इस विषय में मैं झूठ नहीं बोल सकता। दानवश्रेष्ठ! लोक में असत्य की कभी पूजा नहीं होती है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व में पुलोमा-अंग्नि संवादविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ)


सम्पूर्ण महाभारत  

आदि पर्व (पौलोम पर्व)

छठा अध्याय

 (सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षष्‍ठ अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"महर्षि च्यवन का जन्म, उनके तेज से पुलोमा राक्षस का भस्म होना तथा भृगु का अग्निदेव को शाप देना"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- ब्रह्मन! अग्नि का यह वचन सुनकर उस राक्षस ने वराह का रूप धारण करके मन और वायु के समान वेग से उसका अपहरण किया। भृगुवंश शिरोमणि! उस समय वह गर्भ जो अपनी माता की कुक्षि में निवास कर रहा था, अत्यन्त रोष के कारण योग बल से माता के उदर से च्युत होकर बाहर निकल आया। च्युत होने के कारण ही उसका नाम च्यवन हुआ। माता के उदर से च्युत होकर गिरे हुए उस सूर्य के समान तेजस्वी गर्भ को देखते ही वह राक्षस पुलोमा को छोड़कर गिर पड़ा और तत्काल जलकर भस्म हो गया। सुन्दर कटिप्रदेश वाली पुलोमा दुःख से मूर्च्छित हो गयी और किसी तरह सँभलकर भृगुकुल को आनन्दित करने वाले अपने पुत्र भार्गव च्यवन को गोद में लेकर ब्रह्मा जी के पास चली गई। सम्पूर्ण लोकों के पितामह ब्रह्मा जी ने स्वयं भृगु की उस पतिव्रता पत्नी को रोती और नेत्रों से आँसू बहाती देखा। तब पितामह भगवान ब्रह्मा ने अपनी पुत्रवधू को सान्त्वना दी, उसे धीरज बँधाया। उसके आँसुओं की बूँदों से एक बहुत बड़ी नदी प्रकट हो गयी।

वह नहीं तपस्वी भृगु की उस पत्नी के मार्ग को आप्लावित किये हुए थी। उस समय लोक पितामह भगवान ब्रह्मा ने पुलोमा को मार्ग का अनुसरण करने वाली उस नदी को देखकर उसका नाम वसुधरा रख दिया, जो च्यवन के आश्रम के पास प्रवाहित होती है। इस प्रकार भृगुपुत्र प्रतापी च्यवन का जन्म हुआ। तदनन्तर पिता भृगु ने वहाँ अपने पुत्र च्यवन तथा पत्नी पुलोमा को देखा और सब बातें जानकर उन्होंने अपनी भार्या पुलोमा से कुपित होकर पूछा।

भृगु बोले ;- कल्याणी! तुम्हे हर लेने की इच्छा से आये हुए उस राक्षस को किसने तुम्हारा परिचय दे दिया? मनोहर मुस्कान वाली मेरी पत्नी तुझ पुलोमा को वह राक्षस नहीं जानता था। प्रिये! ठीक-ठीक बताओ। आज मैं कुपित होकर अपने उस आपराधी का शाप देना चाहता हूँ। कौन मेरे शाप से नहीं डरता हैं? किसके द्वारा यह अपराध हुआ है?

पुलोमा बोली ;- भगवन! अग्निदेव ने उस राक्षस को मेरा परिचय दे दिया। इससे कुररी की भाँति विलाप करती हुई मुझ अबला को वह राक्षस उठा ले गया। आपके इस पुत्र के तेज से मैं उस राक्षस के चंगुल से छूट सकी हूँ। राक्षस मुझे छोड़कर गिरा और जलकर भस्म हो गया।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- पुलोमा का यह वचन सुनकर परमक्रोधी महर्षि भृगु का क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने अग्निदेव को शाप दिया- ‘तुम सर्वभक्षी हो जाओगे।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व में अग्नि-शापविषयक छठा अध्याय पूरा हुआ)

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आदि पर्व (पौलोम पर्व)

सातवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"शाप से कुपित हुए अग्निदेव का उद्देश्‍य होना और ब्रह्मा जी का उनके शाप को संकुति करके उन्हें प्रसन्न करना"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- महर्षि भृगु के शाप देने पर अग्निदेव ने कुपित होकर ,,

यह बात कही ;- ‘ब्रह्मन! तुमने मुझे शाप देने का यह दुस्साहसपूर्ण कार्य क्यों किया है? मैं सदा धर्म के लिये प्रयत्नशील रहता हूँ और सत्य एवं पक्षपात शून्य वचन बोलता हूँ; अतः उस राक्षस के पूछने पर यदि मैंने सच्ची बात कह दी तो इसमें मेरा क्या अपराध है? जो साक्षी किसी बात को ठीक-ठीक जानते हुए भी पूछने पर कुछ का कुछ कह देता है। झूठ बोलता है, वह अपने कुल में पहले और पीछे की सात-सात पीढ़ियों का नाश करता है,उन्हें नरक में ढकेलता है। इसी प्रकार जो किसी कार्य के वास्तविक रहस्य का ज्ञाता है, वह उसके पूछने पर यदि जानते हुए भी नहीं बतलाता मौन रह जाता है तो वह भी उसी पाप से लिप्त होता है; इसमें संशय नहीं है। मैं भी तुम्हें शाप देने की शक्ति रखता हूँ तो भी नहीं देता हूँ; क्योंकि ब्राह्मण मेरे मान्य हैं। ब्रह्मन! यद्यपि तुम सब कुछ जानते हो, तथापि मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ’ उसे ध्यान देकर सुनो।

   मैं योग सिद्धि के बल से अपने आपको अनेक रूपों में प्रकट करके गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि आदि मूर्तियों में, नित्य किये जाने वाले अग्निहोत्रों में, अनेक व्यक्तियों द्वारा संचालित सत्रों में, गर्भाधान आदि क्रियाओं में तथा ज्योतिष्टोम आदि मखों (यज्ञों) में सदा निवास करता हूँ। मुझमें वेदोक्त विधि से जिस हविष्य की आहुति दी जाती है, उसके द्वारा निश्चय ही देवता तथा पितृगण तृप्त होते हैं। जल ही देवता हैं तथा जल ही पितृगण हैं। दर्श और पौर्णमास याग पितरों तथा देवताओं के लिये किये जाते हैं। अतः देवता पितर हैं और पितर ही देवता हैं। विभिन्न पर्वों पर ये दोनों एक रूप में भी पूजे जाते हैं और पृथक-पृथक भी। मुझमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवता और पितर दोनों भण करते हैं। इसीलिये मैं देवताओं और पितरों का मुख माना जाता हूँ। अमावस्या को पितरों के लिये और पूर्णिमा को देवताओं के लिये मेरे मुख से ही आहुति दी जाती है और उस आहुति के रूप में प्राप्त हुए हविष्य का देवता और पितर उपभोग करते हैं, सर्वभक्षी होने पर मैं इन सबका मुँह कैसे हो सकता हूँ।’

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- महर्षियों! तदनन्तर अग्निदेव ने कुछ सोच-विचार कर द्विजों के अग्निहोत्र, यज्ञ, सत्र तथा संस्कार सम्बन्धी क्रियाओं में से अपने आपको समेट लिया। फिर तो अग्नि के बिना समस्त प्रजा ॐकार, वषट्कार, स्वधा और स्वाहा आदि से वंचित होकर अत्यन्त दुखी हो गयी। तब महर्षिगण अत्यन्त उद्विग्न हो देवताओं के पास जाकर बोले। ‘पापरहित देवगण! अग्नि के अदृश्य हो जाने से अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण क्रियाओं का लोप हो गया है। इससे तीनों लोकों के प्राणी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं; अत: इस विषय में जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे आप लोग करें। इसमें अधिक विलम्ब नहीं होना चाहिये।' तत्पश्चात ऋषि ओर देवता ब्रह्माजी के पास गये और अग्नि को जो शाप मिला था एवं अग्नि ने सम्पूर्ण क्रियाओं से जो अपने आपको समेट कर अदृश्य कर लिया था, वह सब समाचार निवेदन करते हुए बोले-

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व)सप्तम अध्याय के श्लोक 17-29 का हिन्दी अनुवाद)

‘महाभाग! किसी कारण वश महर्षि भृगु ने अग्निदेव को सर्वभक्षी होने का शाप दे दिया है, किन्तु वे सम्पूर्ण देवताओं के मुख, यज्ञ भाग के अग्रभोक्ता तथा सम्पूर्ण लोकों में दी हुई आहुतियों का उपभोग करने वाले होकर भी सर्वभक्षी कैसे हो सकेंगे?’ देवताओं तथा ऋषियों की बात सुनकर विश्वविधाता ब्रह्मा जी ने प्राणियों को उत्पन्न करने वाले अविनाशी अग्नि को बुलाकर मधुर वाणी में कहा- ‘हुताशन! यहाँ समस्त धारण करने वाले हो, सम्पूर्ण क्रियाओं के प्रवर्तक भी तुम्हीं हो।

अतः लोकेश्‍वर! तुम ऐसा करो जिससे अग्निहोत्र आदि क्रियाओं का लोप न हो। तुम सबके स्वामी होकर भी इस प्रकार मूढ़ (मोहग्रस्त) कैसे हो गये, तुम संसार में सदा पवित्र हो, समस्त प्राणियों की गति भी तुम्हीं हो। तुम सारे शरीर से सर्वभक्षी नहीं होओगे। अग्निदेव! तुम्हारे अपान देश में जो ज्वालाएँ होंगी, वे ही सब कुछ भक्षण करेंगी। इसके सिवा जो तुम्हारी क्रव्याद मूर्ति है (कच्चा मांस या मुर्दा जलाने वाली जो चिता की आग है) वही सब कुछ भक्षण करेगी। जैसे सूर्य की किरणों से स्पर्श होने पर सब वस्तुएँ शुद्ध मानी जाती हैं, उसी प्रकार तुम्हारी ज्वालाओं से दग्ध होने पर सब कुछ शुद्ध हो जायेगा। अग्निदेव! तुम अपने प्रभाव से ही प्रकट हुए उत्कृष्ट तेज हो; विभो! अपने तेज से ही महर्षि के उस शाप को सत्य कर दिखाओ और अपने मुख में आहुति के रूप में पड़े हुए देवताओं के तथा अपने भाग को भी ग्रहण करो’।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- यह सुनकर अग्निदेव ने पितामह ब्रह्मा जी से कहा- ‘एवमस्तु (ऐसा ही हो)।’ यों कहकर वे भगवान ब्रह्मा जी के आदेश का पालन करने के लिये चल दिये। इसके बाद देवर्षिगण अत्यन्त प्रसन्न हो जैसे आये थे वैसे ही चले गये। फिर ऋषि-महर्षि भी अग्निहोत्र आदि सम्पूर्ण कर्मों का पूर्ववत पालन करने लगे। देवता लोग स्वर्गलोक में आनन्दित हो गये और इस लोक के समस्त प्राणी भी बड़े प्रसन्न हुए। साथ ही शापजनित पाप कट जाने से अग्निदेव को भी बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रकार पूर्वकाल में भगवान अग्निदेव को महर्षि भृगु से शाप प्राप्त हुआ था। यही अग्नि शाप सम्बन्धी प्राचीन इतिहास है। पुलोमा राक्षस के विनाश और च्यवनमुनि के जन्म का वृत्तान्त भी यही है।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व में अंग्निशापमोचन सम्बंधी सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (पौलोम पर्व)

आठवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"प्रमद्वरा का जन्म, रुरु के साथ उसका वाक्यदान तथा विवाह के पहले ही साँप के काटने से प्रमद्वरा की मृत्यु"

   उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- ब्रह्मन! भृगुपुत्र च्यवन ने अपनी पत्नी सुकन्या के गर्भ से एक पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम प्रमति था। महात्मा प्रमति बड़े तेजस्वी थे। फिर प्रमति ने घृताची अप्सरा से रुरु नामक पुत्र उत्पन्न किया तथा रुरु के द्वारा प्रमद्वरा के गर्भ से शुनक का जन्म हुआ। महाभाग शौनक जी! आप शुनक के ही पुत्र होने के कारण ‘शौनक’ कहलाते हैं। शुनक महान सत्त्वगुण से सम्पन्न तथा सम्पूर्ण भृगुवंश का आनन्द बढ़ाने वाले थे। वे जन्म लेते ही तीव्र तपस्या में संलग्न हो गये। इससे उनका अविचल यश सब और फैल गया। ब्रह्मन! मैं महातेजस्वी रुरु के सम्पूर्ण चरित्र का विस्तारपूर्वक वर्णन करूँगा। वह सब का सब आप सुनिये। पूर्वकाल में स्थूलकेश नाम से विख्यात एक तप और विद्या से सम्पन्न महर्षि थे; जो समस्त प्राणियों के हित में लगे रहते थे। 

विप्रर्षे! इन्हीं महर्षि के समय की बात है- गन्धर्वराज विश्वावसु ने मेनका के गर्भ से एक सन्तान उत्पन्न की।

   भृगुनन्दन! मेनका अप्सरा गन्धर्वराज द्वारा स्थापित किये हुए उस गर्भ को समय पूरा होने पर स्थूलकेश मुनि के आश्रम के निकट जन्म दिया। ब्रह्मन! निर्दय और निर्लज्ज मेनका अप्सरा उस नवजात गर्भ को वहीं नदी के तट पर छोड़कर चली गयी। तदनन्तर तेजस्वी महर्षि स्थूलकेश ने एकान्त स्थान में त्यागी हुई उस बन्धुहीन कन्या को देखा, जो देवताओं की बालिका के समान दिव्य शोभा से प्रकाशित हो रही थी। उस समय उस कन्या को वैसी दशा में देखकर द्विज श्रेष्ठ मुनिवर स्थूलकेश के मन में बड़ी दया आयी; अतः वे उसे उठा लाये और उसका पालन-पोषण करने लगे। वह सुन्दरी कन्या उनके शुभ आश्रम पर दिनों दिन बढ़ने लगी। महाभाग महर्षि स्थूलकेश ने क्रमशः उस बालिका के जात कर्मादि सब संस्कार विधिपूर्वक सम्‍पन्न किये। वह बुद्धि, रूप और सब उत्तम गुणों से सुशोभित हो संसार की समस्त प्रमदाओं (सुन्दरी स्त्रियों) से श्रेष्ठ जान पड़ती थी; इसलिये महर्षि ने उसका नाम ‘प्रमद्वरा’ रख दिया।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टम अध्याय के श्लोक 14-27 का हिन्दी अनुवाद)

   एक दिन धर्मात्मा रुरु ने महर्षि के आश्रम में उस प्रमद्वरा को देखा। उसे देखते ही उनका हृदय तत्काल कामदेव के वशीभूत हो गया। तब उन्होंने मित्रों द्वारा अपने पिता भृगुवंशी प्रमति को अपनी अवस्था कहलायी। तदनन्तर प्रमति ने यशस्वी स्थूलकेश मुनि से (अपने पुत्र के लिये) उनकी वह कन्या माँगी। तब पिता ने अपनी कन्या प्रमद्वरा का रुरु के लिये वाग्दान कर दिया और आगामी उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में विवाह का मुहूर्त निश्चित किया। तदनन्तर जब विवाह का मुहूर्त निकट आ गया, उसी समय वह सुन्दरी कन्या सखियों के साथ क्रीड़ा करती हुई वन में घूमने लगी। मार्ग में एक साँप चौड़ी जगह घेरकर तिरछा सो रहा था। प्रमद्वरा ने उसे नहीं देखा। वह काल से प्रेरित होकर मरना चाहती थी, इसलिये सर्प को पैर से कुचलती हुई आगे निकल गयी। उस समय कालधर्म से प्रेरित हुए उस सर्प ने उस असावधान कन्या के अंग में बड़े जोर से अपने विष भरे दाँत गड़ा दिये।

    उस सर्प के डँस लेने पर वह सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसके शरीर का रंग उड़ गया, शोभा नष्ट हो गयी, आभूषण इधर-उधर बिखर गये और चेतना लुप्त हो गयी। उसके बाल खुले हुए थे। अब वह अपने उन बन्धुजनों के हृदय में विषाद उत्पन्न कर रही थी, जो कुछ ही क्षण पहले अत्यन्त सुन्दरी एंव दर्शनीय थी, वही प्राणशून्य होने के कारण अब देखने योग्य नहीं रह गयी। वह सर्प के विष से पीड़ित होकर गाढ़ निद्रा में सोयी हुई की भाँति भूमि पर पड़ी थी। उसके शरीर का मध्यभाग अत्यन्त कृश था। वह उस अचेतनावस्था में भी अत्यन्त मनोहारिणी जान पड़ती थी। उसके पिता स्थूलकेश ने तथा अन्य तपस्वी महात्माओं ने भी आकर उसे देखा। वह कमल की सी कान्ति वाली किशोरी धरती पर चेष्टा रहित पड़ी थी। तदनन्तर स्वस्त्यात्रेय, महाजानु, कुशिक, शंखमेखल, उद्दालक, कठ, महायशस्वी, श्वेत, भरद्वाज, कौणकुत्स्य, अर्ष्टिषेण, गौतम, अपने पुत्र रुरु सहित प्रमति तथा अन्य सभी वनवासी श्रेष्ठ द्विज दया से द्रवित होकर वहाँ आये। वे सब लोग उस कन्या को सर्प के विष से पीड़ित हो प्राणशून्य हुई देख करुणा वश रोने लगे। रुरु तो अत्यन्त आर्त होकर वहाँ से बाहर चला गया और शेष सभी द्विज उस समय वहीं बैठे रहे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व में प्रमद्वरा के सर्पदंशन से सम्बंध रखने वाला आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (पौलोम पर्व)

नवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवम अध्याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"रुरु की आधी आयु से प्रमद्वरा का जीवित होना, रुरु के साथ उसका विवाह, रुरु का सर्पों को मारने का निश्चय तथा रुरु-डुण्डुभ-संवाद"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! वे ब्राह्मण प्रमद्वरा के चारों ओर वहाँ बैठे थे, उसी समय रुरु अत्यन्त दुःखित हो गहनवन में जाकर जोर-जोर से रुदन करने लगा। शोक से पीड़ित होकर उसने बहुत करुणाजनक विलाप किया और अपनी प्रियतमा प्रमद्वरा का स्मरण करके शोकभग्न हो इस प्रकार बोला- ‘हाय! वह कृशांगी बाला मेरा तथा समस्त बान्धवों का शोक बढ़ाती हुई भूमि पर सो रही है; इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है? यदि मैंने दान दिया हो, तपस्या की हो अथवा गुरुजनों की भली-भाँति आराधना की हो तो उसके पुण्य से मेरी प्रिया जीवित हो जाये। यदि मैंने जन्म से लेकर अब तक मन और इन्द्रियों पर संयम रखा हो और ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का द्दढ़तापूर्वक पालन किया हो तो यह मेरी प्रिया प्रमद्वरा अभी जी उठे। (यदि पापी असुरों का नाश करने वाले, इन्द्रियों के स्वामी जगदीश्वर एवं सर्वव्यापी भगवान श्रीकृष्ण में मेरी अविचल भक्ति हो तो यह कल्याणी प्रमद्वरा जी उठे।') इस प्रकार जब रुरु पत्नी के लिये दुःखित हो अत्यन्त विलाप कर रहा था, उस समय एक देवदूत उसके पास आया और वन में रुरु से बोला।

देवदूत ने कहा ;- 'धर्मात्मा रुरु! तुम दुःख से व्याकुल हो अपनी वाणी द्वारा जो कुछ कहते हो, वह सब व्यर्थ है क्योंकि जिस मनुष्य की आयु समाप्त हो गयी है, उसे फिर आयु नहीं मिल सकती। यह बेचारी प्रमद्वरा गन्धर्व और अप्सरा की पुत्री थी। इसे जितनी आयु मिली थी, वह पूरी हो चुकी है। अतः तात! तुम किसी तरह भी मन को शोक में न डालों। इस विषय में महात्मा देवताओं ने एक उपाय निश्चित किया है। यदि तुम उसे करना चाहो, तो इस लोक में प्रमद्वरा को पा सकोगे।'

रुरु बोला ;– 'आकाशचारी देवदूत! देवताओं ने कौन सा उपाय निश्चित किया है, उसे ठीक-ठीक बताओ? उसे सुनकर मैं अवश्य वैसा ही करूँगा। तुम मुझे इस दुःख से बचाओ।'

देवदूत ने कहा ;- 'भृगुनन्दन रुरु! तुम उस कन्या के लिये अपनी आधी आयु दे दो। ऐसा करने से तुम्हारी भार्या प्रमद्वरा जी उठेगी।'

रुरु बोला ;- 'देवश्रेष्ठ! मैं उस कन्या को अपनी आधी आयु देता हूँ। मेरी प्रिया अपने श्रृगांर, सुन्दर रूप और आभूषणों के साथ जीवित हो उठे।'

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तब गन्धर्वराज विश्वावसु और देवदूत दोनों सत्पुरुषों ने धर्मराज के पास जाकर कहा। ‘धर्मराज! रुरु की भार्या कल्याणी प्रमद्वरा मर चुकी है। यदि आप मान लें तो वह रुरु की आधी आयु से जीवित हो जाये।'

धर्मराज बोले ;- देवदूत! यदि तुम रुरु की भार्या प्रमद्वरा को जिलाना चाहते हो तो वह रुरु की ही आधी आयु से संयुक्त होकर जीवित हो उठे।

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- धर्मराज के ऐसा कहते ही वह सुन्दरी मुनि कन्या प्रमद्वरा रुरु की आधी आयु से संयुक्त हो सोयी हुई की भाँति जाग उठी। उत्तम तेजस्वी रुरु के भाग्य में ऐसी बात देखी गयी थी। उनकी आयु बहुत बढ़ी-चढ़ी थी। जब उन्होंने भार्या के लिये अपनी आधी आयु दे दी, तब दोनों के पिताओं ने निश्चित दिन में प्रसन्नतापूर्वक उनका विवाह कर दिया। वे दोनों दम्पति एक-दूसरे के हितैषी होकर आनन्दपूर्वक रहने लगे। कमल के केसर की-सी कान्ति वाली उस दुर्लभ भार्या को पाकर व्रतधारी रुरु ने सर्पों के विनाश का निश्चय कर लिया।

   वह सर्पों को देखते ही अत्यन्त क्रोध में भर जाता और हाथ में डंडा ले उन पर यथाशक्ति प्रहार करता था। एक दिन की बात है, ब्राह्मण रुरु किसी विशाल वन में गया, वहाँ उसने डुण्डुभ जाति के एक बूढ़े साँप को सोते देखा। उसे देखते ही उसके क्रोध का पारा चढ़ गया और उस ब्राह्मण ने उस समय सर्प को मार डालने की इच्छा से कालदण्ड के समान भयंकर डंडा उठाया। तब उस डुण्डुभ ने मनुष्य की बोली में कहा- ‘तपोधन! आज मैंने तुम्हारा कोई अपराध तो नहीं किया है? फिर किसलिये क्रोध के आवेश में आकर तुम मुझे मार रहे हो।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व में प्रमद्वरा के जीवित होने से सम्बन्ध रखने वाला नवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (पौलोम पर्व)

दसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) दशम अध्याय के श्लोक 1-8 का हिन्दी अनुवाद)

"रुरु मुनि और डुण्डुभ का संवाद"

रुरु बोला ;- सर्प! मेरी प्राणों के समान प्यारी पत्नी को एक साँप ने डँस लिया था। उसी समय मैंने यह घोर प्रतिज्ञा कर ली कि जिस-जिस सर्प को देख लूँगा, उसे-उसे अवश्य मार डालूँगा। उसी प्रतिज्ञा के अनुसार मैं तुम्हें मार डालना चाहता हूँ। अतः आज तुम्हें अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा।

डुण्डुभ ने कहा ;- ब्रह्मन! वे दूसरे ही साँप हैं, जो इस लोक में मनुष्यों को डँसते हैं। साँप की आकृति मात्र से ही तुम्हें डुण्डुभों को नहीं मारना चाहिये। अहो! आश्चर्य है, बेचारे डुण्डुभ अनर्थ भोगने में सब सर्पो के साथ एक हैं; परन्तु उनका स्वभाव दूसरे सर्पों से भिन्न है। तथा दुःख भोगने में तो सब सर्पों के साथ एक हैं; किन्तु सुख सबका अलग-अलग है। तुम धर्मज्ञ हो, अतः तुम्हें डुण्डुभों की हिंसा नहीं करनी चाहिये।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- डुण्डुभ सर्प का यह वचन सुनकर रुरु ने उसे कोई भयभीत ऋषि समझा, अतः उसका वध नहीं किया। 

इसके सिवा, बड़भागी रुरु ने उसे शान्ति प्रदान करते हुए कहा- ‘भुजंगम! बताओ, इस विकृत (सर्प) योनि में पड़े हुए तुम कौन हो?’

डुण्डुभ ने कहा ;- रुरु! मैं पूर्व जन्म में सहस्रपाद नामक ऋषि था; किन्तु एक ब्राह्मण के शाप से मुझे सर्पयोनि में आना पड़ा है।

रुरु ने पूछा ;- भुजगोत्तम! उस ब्राह्मण ने किसलिये कुपित होकर तुम्हें शाप दिया? तुम्हारा यह शरीर अभी कितने समय तक रहेगा?

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत पौलोम पर्व में रुरु-डुण्डुभ-संवादविषयक दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)


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