सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (पौष्य पर्व)
तृतीय अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"जनमेजय को सरमा का शाप, जनमेजय द्वारा सोमश्रवा का पुरोहित के पद पर वरण, आरुणि, उपमन्यु, वेद और उत्तंक की गुरुभक्ति तथा उत्तंक का सर्पयज्ञ के लिये जनमेजय को प्रोत्सहान देना"
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- परिक्षित के पुत्र जनमेजय अपने भाईयों के साथ कुरुक्षेत्र में दीर्घकाल तक चलने वाले यज्ञ का अनुष्ठान करते थे। उनके तीन भाई थे- श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन। वे तीनों उस यज्ञ में बैठे थे। इतने में ही देवताओं की कुतिया सरमा का पुत्र सारमेय वहाँ आया। जनमेजय के भाईयों ने उस कुत्ते को मारा। तब यह रोता हुआ अपनी माँ के पास गया। बार-बार रोते हुए अपने उस पुत्र से माता ने पूछा ‘बेटा! क्यों रोता है? किसने तुझे मारा है?’
माता के इस प्रकार पूछने पर उसने उत्तर दिया ;- 'माँ! मुझे जनमेजय के भाईयों ने मारा है’।
तब माता उससे बोली ;- बेटा! अवश्य ही तूने उनका कोई प्रकट रूप में अपराध किया होगा, जिसके कारण उन्होंने तुझे मारा है।'
तब उसने माता से पुनः इस प्रकार कहा ;- 'मैंने कोई अपराध नहीं किया है। न तो उनके हविष्य की ओर देखा और न उसे चाटा ही है।' यह सुनकर पुत्र के दुःख से दुखी हुई उसकी माता सरमा उस सत्र में आयी, जहाँ जनमेजय अपने भाईयों के साथ दीर्घकालीन सत्र का अनुष्ठान कर रहे थे।
वहाँ क्रोध में भरी हुई सरमा ने जनमेजय से कहा ;- ‘मेरे इस पुत्र ने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया था, न तो इसने हविष्य की ओर देखा और न उसे चाटा ही था, तब तुमने इसे क्यों मारा? किन्तु जनमेजय और उनके भाईयों ने इसका कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब सरमा ने उनसे कहा, ‘मेरा पुत्र निरपाध था, तो भी तुमने इसे मारा है अतः तुम्हारे ऊपर अकस्मात ऐसा भय उपस्थित होगा, जिसकी पहले से कोई सम्भावना न रही हो।' देवताओं की कुतिया सरमा के इस प्रकार शाप देने पर जनमेजय को घबराहट हुई और वे बहुत दुखी हो गये। उस सत्र के समाप्त होने पर वे हस्तिनापुर में आये और अपने योग्य पुरोहित के दूँढ़ने का उद्देश्य यह था कि वह मेरी इस शापरूप पापकृत्या को (जो बल, आयु और प्राण का नाश करने वाली है) शान्त कर दे।
एक दिन परीक्षितपुत्र जनमेजय शिकार खेलने के लिये वन में गये। वहाँ उन्होंने एक आश्रम देखा, जो उन्हीं के राज्य के किसी प्रदेश में विद्यमान था। उस आश्रम में श्रुतश्रवा नाम से प्रसिद्ध एक ऋषि रहते थे। उनके पुत्र का नाम था सोमश्रवा। सोमश्रवा सदा तपस्या में ही लगे रहते थे। परीक्षितकुमार जनमेजय ने महर्षि श्रुतश्रवा के पास जाकर उनके पुत्र सोमश्रवा का पुरोहित पद के लिये वरण किया।
राजा ने पहले महर्षि को नमस्कार करके कहा ;- ‘भगवान! आपके ये पुत्र सोमश्रवा मेरे पुरोहित हों’। उनके ऐसा कहने पर,,
श्रुतश्रवा ने जनमेजय को इस प्रकार उत्तर दिया ;- ‘महाराज जनमेजय! मेरा यह पुत्र सोमश्रवा सर्पिणी के गर्भ से पैदा हुआ है। यह बड़ा तपस्वी और स्वाध्यायशील है। मेरे तपोबल से इसका भरण-पोषण हुआ है। एक समय एक सर्पिणी ने मेरा वीर्य-पान कर लिया था, अतः उसके पेट से इसका जन्म हुआ है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)
यह तुम्हारी सम्पूर्ण पापकृत्याओं (शापजनित उपद्रवों) का निवारण करने में समर्थ है। केवल भगवान शंकर की कृत्या को यह नहीं टाल सकता। किन्तु इसका एक गुप्त नियम है। यदि कोई ब्राह्मण इसके पास आकर इससे किसी वस्तु की याचना करेगा तो यह उसे उसकी अभीष्ट वस्तु अवश्य देगा। यदि तुम उदारतापूर्वक इसके इस व्यवहार को सहन कर सको अथवा इसकी इच्छापूर्ति का उत्साह दिखा सको तो इसे ले जाओ।' श्रुतश्रवा के ऐसा कहने पर,,
जनमेजय ने उत्तर दिया ;- ‘भगवान! सब कुछ उनकी रुचि के अनुसार ही होगा।' फिर वे सोमश्रवा पुरोहित को साथ लेकर और अपने ,,
भाईयों से बोले ;- ‘इन्हें मैंने अपना उपाध्याय (पुरोहित) बनाया है। ये जो कुछ भी कहें, उसे तुम्हें बिना किसी सोच-विचार के पालन करना चाहिये।’ जनमेजय के ऐसा कहने पर उनके तीनों भाई पुरोहित की प्रत्येक आज्ञा का ठीक-ठीक पालन करने लगे। इधर राजा जनमेजय अपने भाईयों को पूर्वोक्ता आदेश देकर स्वयं तक्षशिला जीतने के लिये चले गये और उस प्रदेश को अपने अधिकार में कर लिया।
(गुरु की आज्ञा का किस प्रकार पालन करना चाहिये, इस विषय में आगे का प्रसंग कहा जाता है) इन्हीं दिनों आयोदधौम्य नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि थे। उनके तीन शिष्य इुए - उपमन्यु, आरुणि पांचाल तथा वेद। आरुणि को खेत पर भेजा और कहा- ‘वत्स! जाओ, क्यारियों की टूटी हुई मेंड़ बाँध दो।' उपाध्याय के इस प्रकार आदेश देने पर पांचाल देशवासी आरुणि वहाँ जाकर उस धान की क्यारी की मेंड़ बाँधने लग गया। परन्तु बाँध न सका। मेंड़ बाँधने के प्रयत्न में ही परिश्रम करते-करते उसे एक उपाय सूझ गया और वह मन ही मन बोल उठा- ‘अच्छा ऐसा ही करूँ’। वह क्यारी की टूटी हुई मेंड़ की जगह स्वयं ही लेट गया। उसके लेट जाने पर वहाँ का बहता हुआ जल रुक गया। फिर कुछ काल के पश्चात उपाध्याय आयेदधौम्य ने अपने,,
शिष्यों से पूछा ;- ‘पांचाल निवासी आरुणि कहाँ चला गया?'
शिष्यों ने उत्तर दिया ;- ‘भगवान! आप ही ने तो उसे यह कहकर भेजा था कि ‘जाओ’ क्यारी की टूटी हुई मेड़ बाँध दो।’ शिष्यों के ऐसा कहने पर उपाध्याय ने उनसे कहा ‘तो चलो, हम सब लोग वहीं चलें, जहाँ आरूणि गया है।'
वहाँ जाकर उपाध्याय ने उसे आने के लिये आवाज दी ‘पांचाल निवासी आरुणि! कहाँ हो वत्स! यहाँ आओ।' उपाध्याय का यह वचन सुनकर आरुणि पांचाल सहसा उस क्यारी की मेड़ से उठा और उपाध्याय के समीप आकर खड़ा हो गया।
फिर उनसे विनयपूर्वक बोला ;- ‘भगवान! मैं यहाँ हूँ। क्यारी की टूटी हुई मेड़ से निकलते हुए अनिवार्य जल को रोकने के लिये स्वयं ही यहाँ लेट गया था। इस समय आपकी आवाज सुनते ही सहसा उस मेड़ को विदीर्ण करके आपके पास आ खड़ा हुआ। मैं आपके चरणों में प्रणाम करता हूँ, आप आज्ञा दीजिये, मैं कौन सा कार्य करूँ?’
आरुणि के ऐसा करने पर उपाध्याय ने उत्तर दिया ;- ‘तुम क्यारी के मेड़ को विदीर्ण करके उठे हो, अतः इस उद्दलनकर्म के कारण उद्दालक नाम से ही प्रसिद्ध होओगे।’ ऐसा कहकर उपाध्याय ने आरुणि को अनुगृहीत किया। साथ ही यह भी कहा कि, तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है, इसलिये तुम कल्याण के भागी होओगे। सम्पूर्ण वेद और समस्त धर्मशास्त्र तुम्हारी बुद्धि में स्वयं प्रकाशित हो जायेंगे’।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 33-47 का हिन्दी अनुवाद)
उपाध्याय के इस प्रकार आशीर्वाद देने पर आरुणि कृतकृत्य हो अपने अभीष्ट देश को चला गया। उन्हीं आयोद धौम्य उपाध्याय का उपमन्यु नामक दूसरा शिष्य था। उसे उपाध्याय ने आदेश दिया, 'वत्स उपमन्यु! तुम गौओं की रक्षा करो।' उपाध्याय की आज्ञा से उपमन्यु गौओं की रक्षा करने लगा। वह दिन भर गौओं की रक्षा में रहकर संध्या के समय गुरु जी के घर पर आता और उनके सामने खड़ा हो नमस्कार करता। उपाध्याय ने देखा उपमन्यु खूब मोटा-ताजा हो रहा है,
तब उन्होंने पूछा ;- ‘बेटा उपमन्यु! तुम कैसे जीविका चलाते हो, जिससे इतने अधिक हृष्ट-पुष्ट हो रहे हो?’
उसने उपाध्याय से कहा ;- 'गुरुदेव! मैं भिक्षा से जीवन निर्वाह करता हूँ।'
यह सुनकर उपाध्याय उपमन्यु से बोले ;- ‘मुझे अर्पण किये बिना तुम्हें भिक्षा का अन्न अपने उपयोग में नहीं लाना चाहिये।’ उपमन्यु ने 'बहुत अच्छा’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वह भिक्षा लाकर उपध्याय को अर्पण करने लगा।
उपाध्याय उपमन्यु से सारी भिक्षा ले लेते थे। उपमन्यु ‘तथास्तु’ कहकर पुनः पूर्ववत गौओं की रक्षा करता रहा। वह दिनभर गौओं की रक्षा में रहता और (संध्या के समय) पुनः गुरु के घर पर आकर गुरु के सामने खड़ा हो नमस्कार करता था। उस दशा में भी उपमन्यु को पूर्ववत हृष्ठ-पुष्ट ही देखकर,,
उपाध्याय ने पूछा ;- ‘बेटा उपमन्यु! तुम्हारी सारी भिक्षा तो मैं ले लेता हूँ, फिर तुम इस समय कैसे जीवन निर्वाह करते हो?' उपाध्याय के ऐसा कहने पर उपमन्यु ने उन्हें उत्तर दिया ‘भगवान! पहले की लायी हुई भिक्षा आपको अर्पित करके अपने लिये दूसरी भिक्षा लाता हूँ और उसी से अपनी जीविका चलाता हूँ।’
यह सुनकर उपाध्याय ने कहा ;- यह न्याययुक्त एवं श्रेष्ठवृत्ति नहीं है। तुम ऐसा करके दूसरे भिक्षाजीवी लोगों की जीविका में बाधा डालते हो अतः तुम लोभी हो (तुम्हें दुबारा भिक्षा नहीं लानी चाहिये।)।' उसने ‘तथास्तु’ कहकर गुरु की आज्ञा मान ली और पूर्ववत गौओं की रक्षा करने लगा।
एक दिन गायें चराकर वह फिर (सायंकाल को) उपाध्याय के घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया। उपाध्याय ने उसे फिर भी मोटा-ताजा ही देखकर पूछ ‘बेटा उपमन्यु! मैं तुम्हारी सारी भिक्षा ले लेता हूँ और अब तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं माँगते, फिर भी बहुत मोटे हो। आजकल कैसे खाना-पीना चलाते हो?’ इस प्रकार पूछने पर,,
उपमन्यु ने उपाध्याय को उत्तर दिया ;- ‘भगवन! मैं इन गौओं के दूध से जीवन निर्वाह करता हूँ।’ (यह सुनकर)
उपाध्याय ने उससे कहा ;- ‘मैंने तुम्हें दूध पीने की आज्ञा नहीं दी है, अतः इन गौओं के दूध का उपयोग करना तुम्हारे लिये अनुचित है।' उपमन्यु ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर दूध न पीने की भी प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत गोपालन करता रहा। एक दिन गोचारण के पश्चात वह पुनः उपाध्याय के घर आया और उनके सामने खड़े होकर उसने नमस्कार किया। उपाध्याय ने अब भी उसे हृष्ट- पुष्ट ही देखकर पूछा ‘बेटा उपमन्यु! तुम भिक्षा का अन्न नहीं खाते, दुबारा भिक्षा नहीं माँगते और गौओं का दूध भी नहीं पिते; फिर भी बहुत मोटे हो। इस समय कैसे निर्वाह करते हो?’
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 48-58 का हिन्दी अनुवाद)
इस प्रकार पूछने पर,,
उसने उपाध्याय को उत्तर दिया ;- ‘भगवन! ये बछड़े अपनी माताओं के स्तनों का दूध पीते समय जो फेन उगल देते हैं, उसी को पी लेता हूँ। यह सुनकर,,
उपाध्याय ने कहा ;- ‘ये बछड़े उत्तम गुणों से युक्त हैं, अतः तुम पर दया करके बहुत-सा फेन उगल देते होंगे। इसलिये तुम फेन पीकर तो इन सभी बछड़ों की जीविका में बाधा उपस्थित करते हो, अतः आज से फेन भी न पिया करो।’ उपमन्यु ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसे न पीने की प्रतिज्ञा कर ली और पूर्ववत गौओं की रक्षा करने लगा। इस प्रकार मना करने पर उपमन्यु न तो भिक्षा का अन्न खाता, न दुबारा भिक्षा लाता, न गौओं का दूध पीता और न बछड़ों के फेन को ही उपयोग में लाता था (अब वह भूखा रहने लगा)। एक दिन वन में भूख से पीड़ित होकर उसने आक के पत्ते चबा लिये। आक के पत्त खारे, तीखे, कड़वे और रूखे होते हैं। उनका परिणाम तीक्ष्ण होता है (पाचनकाल में वे पेट के अन्दर आग की ज्वाला सी उठा देते हैं)। अतः उनको खाने से उपमन्यु की आँखों की ज्योति नष्ट हो गयी। वह अन्धा हो गया। अन्धा होने पर भी वह इधर- उधर घूमता रहा; अतः कुएँ में गिर पड़ा।
तदनन्तर जब सूर्यदेव अस्ताचल की चोटी पर पहुँच गये, तब भी उपमन्यु गुरु के घर पर नहीं आया,
तो उपाध्याय ने शिष्यों से पूछा ;- ‘उपमन्यु क्यों नहीं आया?’ वे बोले वह तो गाय चराने के लिये वन में गया था।
तब उपाध्याय ने कहा ;- ‘मैने उपमन्यु की जीविका के सभी मार्ग बन्द कर दिये हैं, अतः निश्चय ही वह रूठ गया है; इसीलिये इतनी देर हो जाने पर भी वह नहीं आया, अतः हमें चलकर उसे खोजना चाहिये।’ ऐसा कहकर शिष्यों के साथ वन में जाकर उपाध्याय ने उसे बुलाने के लिये आवाज दी- ‘ओ उपमन्यु! कहाँ हो बेटा! चले आओ।' उसने उपाध्याय की बात सुनकर,,
उच्च स्वर में उत्तर दिया ;- ‘गुरुजी! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।’
तब उपाध्याय ने उससे पूछा ;- ‘वत्स! तुम कुएँ मे कैसे गिर गये?’ उसने
उपाध्याय को उत्तर दिया ;- ‘भगवन! मैं आक के पत्ते खाकर अन्धा हो गया हूँ; इसीलिये कुएँ में गिर गया।'
तब उपाध्याय ने कहा ;- ‘वत्स! दोनों अश्विनीकुमार देवताओं के वैद्य हैं। तुम उन्हीं की स्तुति करो। वे तुम्हारी आँखे ठीक कर देंगे।’ उपाध्याय के ऐसा कहने पर उपमन्यु ने अश्विनीकुमार नामक दोनों देवताओं की ऋग्वेद के मन्त्रों द्वारा स्तुति प्रारम्भ की। हे अश्विनीकुमारों! आप दोनों सृष्टि से पहले विद्यमान थे। आप ही पूर्वज हैं। आप ही चित्रभानु हैं। मैं वाणी और तप के द्वारा आपकी स्तुति करता हूँ; क्योंकि आप अनन्त हैं। दिव्य स्वरूप हैं। सुन्दर पंख वाले दो पक्षियों की भाँति सदा साथ रहने वाले हैं। रजोगुण शून्य तथा अभिमान से रहित हैं। सम्पूर्ण विश्व में आरोग्य का विस्तार करते हैं। सुनहरे पंख वाले दो सुन्दर विहंगमों की भाँति आप दोनों बन्धु बड़े सुन्दर हैं। पारलौकिक उन्नति के साधनों से सम्पन्न हैं। नासत्य तथा दस्त्र- ये दोनों आपके नाम हैं। आपकी नासिका बड़ी सुन्दर है। आप दोनों निश्चित रूप से विजय प्राप्त करने वाले हैं। आप ही विवस्वान (सूर्यदेव) के सुपुत्र हैं; अतः स्वयं ही सूर्यरूप में स्थित हो, दिन तथा रात्रिरूप काले तन्तुओं से संवत्सर रूप वस्त्र बुनते रहते हैं और उस वस्त्र द्वारा वेगपूर्वक देवयान और पितृयान नामक सुन्दर मार्गों को प्राप्त करते हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 59-66 का हिन्दी अनुवाद)
परमात्मा की कालशक्ति ने जीवरूपी पक्षी को अपना ग्रास बना रखा है। आप दोनों अश्विनीकुमार नामक जीवन्मुक्त महापुरुषों ने ज्ञान देकर कैवल्यरूप महान सौभाग्य की प्राप्ति के लिये उस जीव को काल के बन्धन से मुक्त किया है। माया के सहवासी अत्यन्त अज्ञानी जीव जब तक राग आदि विषयों से आक्रान्त हो अपनी इन्द्रियों के समक्ष नतमस्तक रहते हैं, तब तक वे अपने आपको शरीर से आबद्ध ही मानते हैं। दिन एवं रात- ये मनोवांछित फल देने वाली तीन सौ साठ दुधारू गौएँ हैं। वे सब एक ही संवत्सररूपी बछड़े को जन्म देती और उसको पुष्ट करती हैं। वह बछड़ा सबका उत्पादक और संहारक है। जिज्ञासु पुरुष उक्त बछड़े को निमित्त बनाकर उन गौओं से विभिन्न फल देने वाली शास्त्रविहित क्रियाएँ दुहते रहते हैं, उन सब क्रियाओं का एक (तत्त्वज्ञान की इच्छा) ही दोहनीय फल है। पूर्वोक्त गौओं को आप दोनों अश्विनीकुमार ही दुहते हैं।
हे अश्विनीकुमार! इस कालचक्र की एकमात्र संवत्सर ही नाभि है, जिस पर रात और दिन मिलाकर सात सौ बीस अरे टिके हुए हैं। वे सब बारह मासरूपी प्रधियों (अरों को थामने वाले पुट्ठों) में जुड़े हुए हैं। अश्विनीकुमारों! यह अविनाशी एवं मायामय कालचक्र बिना नेमि के ही अनियत गति से घूमता तथा इहलोक और परलोक दोनों लोकों की प्रजाओं का विनाश करता रहता है। अश्विनीकुमारों! मेष आदि बारह राशियाँ जिसके बारह अरे, छहों ऋतुएँ जिसकी छः नाभियाँ हैं और संवत्सर जिसकी एक धुरी है, वह एकमात्र कालचक्र सब ओर चल रहा है। यही कर्मफल को धारण करने वाला आप दोनों मुझे इस कालचक्र से मुक्त करें, क्योंकि मैं यहाँ जन्म आदि के दु:ख से अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ। हे अश्विनीकुमारों! आप दोनों में सदाचार बाहुल्य है। आप अपने सुयश से चन्द्रमा, अमृत तथा जल की उज्ज्वलता को भी तिस्कृत कर देते हैं। इस समय मेरु पर्वत को छोड़कर आप पृथ्वी पर सानन्द विचर रहे हैं। आनन्द और बल की वर्षा करने के लिये ही आप दोनों भाई दिन में प्रस्थान करते हैं।
हे अश्विनीकुमारों! आप दोनों ही सृष्टि के प्रारम्भ काल में पूर्वादि दसों दिशाओं को प्रकट करके उनका ज्ञान कराते हैं। उन दिशाओं के मस्तक अर्थात अन्तरिक्ष लोक में रथ से यात्रा करने वाले तथा सबको समान रूप से प्रकाश देने वाले सूर्यदेव का और आकाश आदि पाँच भूतों का भी आप ही ज्ञान कराते हैं। उन-उन दिशाओं में सूर्य का जाना देखकर ऋषि लोग भी उनका अनुसरण करते हैं तथा देवता और मनुष्य (अपने अधिकार के अनुसार) स्वर्ग या मृत्युलोक की भूमि का उपयोग करते हैं।
हे अश्विनकुमारों! आप अनेक रंग की वस्तुओं, के सम्मिश्रण से सब प्रकार की औषधियाँ तैयार करते हैं, जो सम्पूर्ण विश्व का पोषण करती हैं। वे प्रकाशमान औषधियाँ सदा आपका अनुसरण करती हुई आपके साथ ही विचरती हैं। देवता और मनुष्य आदि प्राणी अपने अधिकार के अनुसार स्वर्ग और मृत्युलोक की भूमि में रहकर उन औषधियों का सेवन करते हैं। अश्विनीकुमारों! आप ही दोनों ‘नासत्य’ नाम से प्रसिद्ध हैं। मैं आपकी तथा आपने जो कमल की माला धारण कर रखी है, उसकी पूजा करता हूँ। आप अमर होने के साथ ही सत्य का पोषण और विस्तार करने वाले हैं। आपके सहयोग के बिना देवता भी उस सनातन सत्य की प्राप्ति में समर्थ नहीं हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 67-80 का हिन्दी अनुवाद)
युवक माता-पिता संतानोत्पत्ति के लिये पहले मुख से अन्न रूप गर्भ धारण करते हैं। तत्पश्चात पुरुषों में वीर्य रूप में और स्त्री में रजोरूप में परिणत होकर वह अन्न जड़ शरीर बन जाता है। तत्पश्चात जन्म लेने वाला गर्भस्थ जीव उत्पन्न होते ही, माता के स्तनों का दूध पीने लगता है। हे अश्विनीकुमारों! पूर्वोक्त रूप से संसार बन्धन में बँधे हुए जीवों को आप तत्त्वज्ञान देकर मुक्त करते हैं। मेरे जीवन-निर्वाह के लिये मेरी नेत्रेन्द्रिय को भी रोग से मुक्त करें। अश्विनीकुमारों! मैं आपके गुणों का बखान करके आप दोनों की स्तुति नहीं कर सकता। मैं इस समय नेत्रहीन (अन्धा) हो गया हूँ। रास्ता पहचानने में भूल हो जाती हैं; इसलिए इस दुर्गम कूप में गिर पड़ा हूँ। आप दोनों शरणागतवत्सल देवता हैं, अतः मैं आपकी शरण लेता हूँ।' इस प्रकार उपमन्यु के स्तवन करने पर दोनों अश्विनीकुमार वहाँ आये और उससे बोले- ‘उपमन्यु! हम तुम्हारे ऊपर बहुत प्रसन्न हैं। यह तुम्हारे खाने के लिये पूआ है, इसे खा लो।' उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु बोला- ‘भगवन! आपने ठीक कहा है, तथापि मैं गुरु जी को निवेदन किये बिना इस पूए को अपने उपयोग में नहीं ला सकता।' तब दोनों अश्विनीकुमार बोले- ‘वत्स! पहले तुम्हारे उपाध्याय ने भी हमारी इसी प्रकार स्तुति की थी। उस समय हमने उन्हें जो पूआ दिया था, उसे उन्होंने अपने गुरुजी को निवेदन किये बिना ही काम में ले लिया था। तुम्हारे उपाध्याय ने जैसा किया है, वैसा ही तुम भी करों।' उनके ऐसा कहने पर उपमन्यु ने उत्तर दिया- ‘इसके लिये तो आप दोनों अश्विनीकुमारों की मैं बड़ी अनुनय-विनय करता हूँ। गुरुजी से निवेदन किये बिना मैं इस पूए को नहीं खा सकता’।
तब अश्विनी कुमार उससे बोले, ‘तुम्हारी इस गुरुभक्ति से हम बड़े प्रसन्न हैं। तुम्हारे उपाध्याय के दाँत काले लोहे के समान हैं। तुम्हारे दाँत सुवर्णमय हो जायँगे। तुम्हारी आँखे भी ठीक हो जायेंगी और तुम कल्याण के भागी भी होओगे।' अश्विनीकुमारों के ऐसा कहने पर उपमन्यु को आँखें मिल गयीं और उसने उपाध्याय के समीप आकर उन्हें प्रणाम किया। तथा सब बातें गुरुजी से कह सुनायीं। उपाध्याय उसके ऊपर बड़े प्रसन्न हुए। और उससे बोले- ‘जैसा अश्विनीकुमारों ने कहा है, उसी प्रकार तुम कल्याण के भागी होओगे। तुम्हारी बुद्धि में सम्पूर्ण वेद और सभी धर्मशास्त्र स्वतः स्फुरित हो जायँगे।’ इस प्रकार यह उपमन्यु की परीक्षा बतायी गयी। उन्हीं आयोद धौम्य के तीसरे शिष्य थे वेद। उन्हें उपाध्याय ने आज्ञा दी, ‘वत्स वेद! तुम कुछ काल तक यहाँ मेरे घर में निवास करो। सदा शुश्रूषा में लगे रहना, इससे तुम्हारा कल्याण होगा।' वेद ‘बहुत अच्छा’ कहकर गुरु के घर में रहने लगे। उन्होंने दीर्घकाल तक गुरु की सेवा की। गुरु जी उन्हें बैल की तरह सदा भारी बोझ ढोने में लगाये रखते थे और वे सरदी-गरमी तथा भूख-प्यास का कष्ट सहन करते हुए सभी अवस्थाओं में गुरु के अनुकूल ही रहते थे। इस प्रकार जब बहुत समय बीत गया, तब गुरु जी उन पर पूर्णतः संतुष्ट हुए। गुरु के संतोष से वेद ने श्रेय तथा सर्वज्ञता प्राप्त कर ली इस प्रकार यह वेद की परीक्षा का वृत्तान्त कहा गया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 81-95 का हिन्दी अनुवाद)
तदनन्तर उपाध्याय की आज्ञा होने पर वेद समावर्तन संस्कार के पश्चात स्नातक होकर गुरुगृह से लौटे। घर आकर उन्होंने गृहस्थाश्रम में प्रवेश किया। अपने घर में निवास करते समय आचार्य वेद के पास तीन शिष्य रहते हैं, किन्तु वे ‘काम करो अथवा गुरु सेवा में लगे रहो’ इत्यादि रूप से किसी प्रकार का आदेश अपने शिष्यों को नहीं देते थे; क्योंकि गुरु के घर में रहने पर छात्रों को जो इसलिये उनके मन में अपने शिष्यों को लोकेशदायक कार्य में लगाने की कभी इच्छा नहीं होती थी।
एक समय की बात है ,,- ब्रह्मवेत्ता आचार्य वेद के पास आकर ‘जनमेजय और पौष्य’ नाम वाले दो क्षत्रियों ने उनका वरण किया और उन्हें अपना उपाध्याय बना लिया। तदनन्तर एक दिन उपाध्याय वेद ने यज्ञमान के कार्य से बाहर जाने के लिये उद्यत हो उत्तंक नाम वाले शिष्य को अग्निहोत्र आदि के कार्य में नियुक्त किया और कहा- ‘वत्स उत्तंग! मेरे घर में मेरे बिना जिस किसी वस्तु की कमी हो जाये, उसकी पूर्ति तुम कर देना, ऐसी मेरी इच्छा है।’ उत्तंक को ऐसा आदेश देकर आचार्य वेद बाहर चले गये। उत्तंग गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए सेवा परायण हो गुरु के घर में रहने लगे। वहाँ रहते समय उन्हें उपाध्याय के आश्रय में रहने वाली सब स्त्रियों ने मिलकर बुलाया और कहा। तुम्हारी गुरुपत्नी रजस्वला हुई हैं और उपाध्याय परदेश गये हैं। उनका यह ऋतुकाल जिस प्रकार निष्फल न हो, वैसा करो इसके लिये गुरुपत्नी बड़ी चिन्ता में पड़ी हैं।
यह सुनकर उत्तंक ने उत्तर दिया ;- ‘मैं स्त्रियों के कहने से यह न करने योग्य निन्द्य कर्म नहीं कर सकता। उपाध्याय ने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी है कि ‘तुम न करने योग्य कार्य भी कर डालना’। इसके बाद कुछ काल बीतने पर उपाध्याय वेद परदेश से अपने घर लौट आये। आने पर उत्तंक का सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, इससे वे बड़े प्रसन्न हुए। और बोले- ‘बेटा उत्तंक! तुम्हारा कौन सा प्रिया कार्य करूँ? तुमने धर्मपूर्वक मेरी सेवा की है। इससे हम दोनों की एक-दूसरे के प्रति प्रीति बढ़ गयी है। अब मैं तुम्हें घर लौटने की आज्ञा देता हूँ- जाओ, तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी’। गुरु के ऐसा कहने पर,,
उत्तंक बोले ;- ‘भगवन! मैं आपका कौन सा प्रिय कार्य करूँ? वृद्ध पुरुष कहते भी हैं। जो अधर्मपूर्वक अध्यापन या उपदेश करता है अथवा जो अधर्मपूर्वक प्रश्न या अध्ययन करता है, उन दोनों में एक (गुरु अथवा शिष्य) मृत्यु एवं विद्वेष को प्राप्त होता है। अतः आपकी आज्ञा मिलने पर मैं अभीष्ट गुरु दक्षिणा भेंट करना चाहता हूँ।’ उत्तंक के ऐसा कहने पर,
उपाध्याय बोले ;- ‘बेटा उत्तंक! तब कुछ दिन और यहीं ठहरों’। तदनन्तर किसी दिन उत्तंक ने फिर,,
उपाध्याय से कहा ;- ‘भगवन्! आज्ञा दीजिये, मैं आपको कौन सी प्रिय वस्तु गुरु दक्षिणा के रूप में भेंट करूँ।
यह सुनकर उपाध्याय ने उनसे कहा ;- ‘वत्स उत्तंक! तुम बार बार मुझसे कहते हो कि ‘मैं क्या गुरु दक्षिणा भेट करूँ?’ अतः जाओ, घर के भीतर प्रवेश करके अपनी गुरुपत्नी से पूछ लो कि ‘मैं क्या गुरुदक्षिणा भेंट करूँ। वे जो बतावें वही वस्तु उन्हें भेंट करो। उपाध्याय के ऐसा कहने पर,,
उत्तंक ने गुरुपत्नी में पूछा ;- ‘देवि! उपाध्याय ने मुझे घर जाने की आज्ञा दी है, अतः मैं आपको कोई अभीष्ट वस्तु गुरुदक्षिणा के रूप में भेंट करके गुरु के ऋण से उऋण होकर जाना चाहता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 96-108 का हिन्दी अनुवाद)
अतः आप आज्ञा दें मैं गुरुदक्षिणा के रूप में कौन सी वस्तु ला दूँ।’ उत्तंक के ऐसा कहने पर,,
गुरुपत्नी उनसे बोलीं ;- ‘वत्स! तुम राजा पौष्य के यहाँ, उनकी क्षत्राणी पत्नी ने जो दोनों कुण्डल पहन रखे हैं, उन्हें माँग लाने के लिये जाओ और उन कुण्डलों को शीघ्र ले आओ। आज के चौथे दिन पुण्यक व्रत होने वाला है, मैं उस दिन कानों में उन कुण्डलों को पहन कर सुशोभित हो ब्राह्मणों को भोजन परोसना चाहती हूँ, अतः तुम मेरा यह मनोरथ पूर्ण करो। तुम्हारा कल्याण होगा। अन्यथा कल्याण की प्राप्ति कैसे सम्भव है?’ गुरुपत्नी के ऐसा कहने पर उत्तंक वहाँ से चल दिये। मार्ग में जाते समय उन्होंने एक बहुत बड़े बैल को और उस पर चढ़े हुए एक विशालकाय पुरुषों को भी देखा।
उस पुरुष ने उत्तंक से कहा ;- ‘उत्तंक! तुम इस बैल का गोबर खा लो।’ किन्तु उसके ऐसा कहने पर भी उत्तंक को वह गोबर खाने की इच्छा नहीं हुई।
तब वह पुरुष फिर उनसे बोला ;- ‘उत्तंक! खालो’ विचार न करो। 'तुम्हारे उपाध्याय ने भी पहले इसे खाया था।’ उसके पुनः ऐसा कहने पर उत्तंक ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसकी बात मान ली और उस बैल के गोबर तथा मूत्र को खा पीकर उतावली के कारण खड़े-खड़े ही आचमन किया। फिर वे चल दिये। जहाँ वे क्षत्रिय राजा पौष्य रहते थे। वहाँ पहुँचकर उत्तंक ने देखा- वे आसन पर बैठे हुए हैं, तब उत्तंक ने उनके समीप जाकर आशीर्वाद से उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा। ‘राजन! मैं याचक होकर आपके पास आया हूँ।
राजा ने उन्हें प्रणाम करके कहा ;- ‘भगवन! मैं आपका सेवक पौष्य हूँ। कहिये, किस आज्ञा का पालन करूँ?’ उत्तंक ने पौष्य से कहा- ‘राजन! गुरुदक्षिणा के निमित्त दो कुण्डलों के लिये आपके यहाँ आया हूँ। आपकी क्षत्राणी ने जिन्हें पहन रखा है, उन्हीं दोनों कुण्डलों को आप मुझे दे दें। यह आपके योग्य कार्य है’।
यह सुनकर पौष्य ने उत्तंक से कहा ;- ‘ब्रह्मन! आप अन्तःपुर में जाकर क्षत्राणी से वे कुण्डल माँग लें।’ किन्तु वहाँ उन्हें क्षत्राणी नहीं दिखायी दी।
तब वे पुनः राजा पौष्य के पास आकर बोले ;- ‘राजन! आप मुझे सन्तुष्ट करने के लिये झूठी बात कहकर मेरे साथ छल करें, यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके अन्तःपुर में क्षत्राणी नहीं हैं, क्योंकि वहाँ वे मुझे नहीं दिखायी देती हैं’। उत्तंक के ऐसा कहने पर पौष्य ने एक क्षण तक विचार करके उन्हें उत्तर दिया- ‘निश्चय ही आप झूठे मुँह हैं, स्मरण तो कीजिये, क्योंकि मेरे क्षत्राणी पतिव्रता होने के कारण उच्छिष्ट अपवित्र मनुष्य के द्वारा नहीं देखी जा सकती हैं। आप उच्छिष्ट होने के कारण अपवित्र हैं, इसलिये वे आपकी दृष्टि में नहीं आ रही हैं’। उनके ऐसा कहने पर उत्तंक ने स्मरण करके कहा ‘हाँ अवश्य ही मुझमें अशुद्धि रह गयी है। यहाँ की यात्रा करते समय मैंने खड़े होकर चलते-चलते आचमन किया है।’
तब पौष्य ने उनसे कहा ;- ‘ब्रह्मन! यहीं आपके द्वारा विधि का उल्लंघन हुआ है। खड़े होकर और शीघ्रतापूर्वक चलते-चलते किया हुआ आचमन नहीं के बराबर है। तत्पश्चात उत्तंक राजा से ‘ठीक है’ ऐसा कहकर हाथ, पैर और मूंछ भली-भाँति धोकर पूर्वाभिमुख हो आसन पर बैठे और हृदय तक पहुँचने योग्य शब्द तथा फेन से रहित शीतल जल के द्वारा तीन बार आचमन करके उन्होंने दो बार अँगूठे के मूल भाग से मुख पोंछा और नेत्र, नासिका आदि इन्द्रिय-गोलकों का जल सहित अंगुलियों द्वारा स्पर्श करके अन्तःपुर में प्रवेश किया।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 109-123 का हिन्दी अनुवाद)
तब उन्हें क्षत्राणी का दर्शन हुआ। महारानी उत्तंक को देखते ही उठकर खड़ी हो गयीं और,,
प्रणाम करके बोलीं ;- ‘भगवन! आपका स्वागत है, आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ ?’
उत्तंक ने महारानी से कहा ;- ‘देवि! मैंने गुरु के लिये आपके दोनों कुण्डलों की याचना की है। वे ही मुझे दे दें।’ महारानी उत्तंक के उस सद्भाव (गुरुभक्ति) से बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने यह सेाचकर कि ‘ये सुपात्र ब्राह्मण हैं, इन्हें निराश नहीं लौटाना चाहिये’ अपने दोनों कुण्डल स्वयं उतार कर उन्हें दे दिये और,,
महारानी ने उनसे कहा ;- ‘ब्रह्मन! नागराज तक्षक इन कुण्डलों को पाने के लिये बहुत प्रयत्नशील हैं। अतः आपको सावधान होकर इन्हें ले जाना चाहिये।'
रानी के ऐसा कहने पर उत्तंक ने उन क्षत्राणी से कहा ;- ‘देवि! आप निश्चिन्त रहें। नागराज तक्षक मुझसे भिड़ने का साहस नहीं कर सकता।' महारानी से ऐसा कहकर उनसे आज्ञा ले उत्तंक राजा पौष्य के निकट आये,,
और बोले ;- ‘महाराज पौष्य! मैं बहुत प्रसन्न हूँ (और आपसे विदा लेना चाहता हूँ)।’ यह सुनकर,,
पौष्य ने उत्तंक से कहा ;- ‘भगवन! बहुत दिनों पर कोई सुपात्र ब्राह्मण मिलता है। आप गुणवान अतिथि पधारें हैं, अतः मैं श्राद्ध करना चाहता हूँ। आप इसमें समय दीजिये।'
तब उत्तंक ने राजा से कहा ;- ‘मेरा समय तो दिया ही हुआ है, किन्तु शीघ्रता चाहता हूँ। आपके यहाँ जो शुद्ध एवं सुसंस्कृत भोजन तैयार हो उसे मँगायें।’ राजा ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर जो भोजन सामग्री प्रस्तुत थी, उसके द्वारा उन्हें भोजन कराया। परन्तु जब भोजन सामने आया, तब उत्तंक ने देखा, उसमें बाल पड़ा है और वह ठण्डा हो चुका है। फिर तो ‘यह अपवित्र अन्न है’ ऐसा निश्चय करके वे,,
राजा पौष्य से बोले ;- ‘आप मुझे अपवित्र अन्न दे रहे हैं, अतः आप अन्धे हो जायेंगे।' तब पौष्य ने भी उन्हें शाप के बदले शाप देते हुए
पौष्य कहा ;-- ‘आप शुद्ध अन्न को भी दूषित बता रहे हैं, अतः आप भी संतानहीन हो जायेंगे।’
तब उत्तंक राजा पौष्य से बोले ;- ‘महाराज! अपवित्र अन्न देकर फिर बदले में शाप देना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। अतः पहले अन्न को ही प्रत्यक्ष देख लीजिये।’ तब पौष्य ने उस अन्न को अपवित्र देखकर उसकी अपवित्रता का कारण का पता लगाया। वह भोजन खुले केश वाली स्त्री ने तैयार किया था। अतः उसमें केश पड़ गया था। देर का बना होने से वह ठण्डा भी हो गया था। इसलिये वह अपवित्र है, इस निश्चय पर पहुच कर,,
राजा ने उत्तंक ऋषि को प्रसन्न करते हुए कहा ;- ‘भगवन! यह केश युक्त और शीतल अन्न अनजान में आपके पास लाया गया है। अतः इस अपराध के लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। आप ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मैं अन्धा न होऊँ।’
तब उत्तंक ने राजा से कहा ;- ‘राजन! मैं झूठ नहीं बोलता। आप पहले अन्धे होकर फिर थोड़े ही दिनों में इस दोष से रहित हो जायेंगे। 'अब आप भी ऐसी चेष्टा करें, जिससे आपका दिया हुआ शाप मुझ पर लागू न हो’। यह सुनकर,,
पौष्य ने उत्तंक से कहा’ ;- ‘मैं शाप को लौटाने में असमर्थ हूँ, मेरा क्रोध अभी तक शान्त नहीं हो रहा है। क्या आप यह नहीं जानते कि ब्राह्मण का हृदय मक्खन के समान मुलायम और जल्दी पिघलने वाला होता है? केवल उसकी वाणी में ही तीखी धार वाले छुरे का सा प्रभाव होता है। किन्तु ये दोनों ही बातें क्षत्रिय के लिये विपरीत हैं। उसकी वाणी तो नवनीत के समान कोमल होती है, लेकिन हृदय पैनी धार वाले छुरे के समान तीखा होता है।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 124-136 का हिन्दी अनुवाद)
‘अतः ऐसी दशा में कठोर हृदय होने के कारण मैं उस शाप को बदलने में असमर्थ हूँ। इसलिये आप जाइये।'
तब उत्तंक बोले ;- राजन! आपने अन्न की अपवित्रता देखकर मुझसे क्षमा के लिये अनुनय-विनय की है, किन्तु पहले आपने कहा था कि ‘तुम शुद्ध अन्न को दूषित बता रहे हो, इसलिये संतानहीन हो जाओगे।' इसके बाद अन्न का दोषयुक्त होना प्रमाणित हो गया, अतः आपका यह शाप मुझ पर लागू नहीं होगा। ‘अब हम अपना कार्य साधन कर रहे हैं।’ ऐसा कहकर उत्तंक दोनों कुण्डलों को लेकर वहाँ से चल दिये। मार्ग में उन्होंने अपने पीछे आते हुए एक नग्न क्षपणक को देखा जो बार बार दिखायी देता और छिप जाता था। कुछ दूर जाने के बाद उत्तंक ने उन कुण्डलों को एक जलाशय के किनारे भूमि पर रख दिया और स्वयं जल सम्बन्धी कृत्य (शौच, स्नान, आचमन, संध्या-तर्पण आदि) करने लगे। इतने में ही वह क्षपणक बड़ी उतावली के साथ वहाँ आया और दोनों कुण्डलों को लेकर चंपत हो गया।
उत्तंक ने स्त्रान-तर्पण आदि जल सम्बन्धी कार्य पूर्ण करके शुद्ध एवं पवित्र होकर देवताओं तथा गुरुओं को नमस्कार किया और जल से बाहर निकल कर बड़े वेग से उस क्षपणक का पीछा किया। वास्तव में वह नागराज तक्षक ही था। दौड़ने से वह उत्तंक के अत्यन्त समीपवर्ती हो गया। उत्तंक ने उसे पकड़ लिया। पकड़ में आते ही उसने क्षपणक का रूप त्याग दिया और तक्षक नाग का रूप धारण करके वह सहसा प्रकट हुए पृथ्वी के एक बहुत बड़े विवर में घुस गया। बिल में प्रवेश करके वह नागलोक में अपने घर चला गया। तदनन्तर उस क्षत्राणी की बात का स्मरण करके उत्तंक ने नागलोक तक उस तक्षक का पीछा किया। पहले तो उन्होंने उस विवर को अपने डंडे की लकड़ी से खोदना आरम्भ किया, किन्तु इसमें उन्हें सफलता न मिली। उस समय इन्द्र ने उन्हें क्लेश उठाते देखा तो उनकी सहायता के लिये अपना वज्र भेज दिया।
उन्होंने वज्र से कहा ;- ‘जाओ, इस ब्राह्मण की सहायता करो।’ तब वज्र ने डंडे की लकड़ी में प्रवेश करके उस बिल को विदीर्ण कर दिया (इससे पाताल लोक में जाने के लिये मार्ग बन गया।)।
तब उत्तंक उस बिल में घुस गये और उसी मार्ग से भीतर प्रवेश करके उन्होंने नागलोक का दर्शन किया, जिसकी कहीं सीमा नहीं थी। जो अनेक प्रकार के मन्दिरों, महलों, झुके हुए छज्जों वाले ऊँचे-ऊँचे मण्डपों तथा सैकड़ों दरवाजों से सुशोभित और छोटे बड़े अद्भुत क्रीडास्थानों से व्याप्त था। वहाँ उन्होंने इन श्लोकों द्वारा उन नागों का स्तवन किया- ऐरावत जिसके राजा हैं, जो समरांगण में विशेष शोभा पाते हैं, बिजली और वायु से प्रेरित हो जल की वर्षा करने वाले बादलों की भाँति बाणों की धारावाहित वृष्टि करते हैं, उन सर्पों की जय हो। ऐरावतकुल में उत्पन्न नागगणों में से कितने ही सुन्दर रूप वाले हैं, उनके अनेक रूप हैं, वे विचित्र कुण्डल धारण करते हैं तथा आकाश में सूर्य देव की भाँति स्वर्गलोक में प्रकाशित होते हैं। गंगा जी के उत्तर तट पर बहुत से नागों के घर हैं, वहाँ रहने वाले बड़े-बड़े सर्पों की भी मैं स्तुति करता हूँ।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 137-153 का हिन्दी अनुवाद)
ऐरावत नाग के सिवा दूसरा कौन है, जो सूर्यदेव की प्रचण्ड किरणों के सैन्य में विचरने की इच्छा कर सकता है? ऐरावत के भाई धृतराष्ट्र जब सूर्यदेव के साथ प्रकाशित होते और चलते हैं, उस समय अट्ठाईस हजार आठ सर्प सूर्य के घोड़ों की बागडोर बनकर जाते हैं। जो इसके साथ जाते हैं और जो दूर के मार्ग पर जा पहुँचे हैं, ऐरावत के उन सभी छोटे बन्धुओं को मैंने नमस्कार किया है। जिनका निवास सदा कुरुक्षेत्र और खाण्डव वन में रहा है, उन नागराज तक्षक की मैं कुण्डलों के लिये स्तुति करता हूँ। तक्षक और अश्वसेन- ये दोनों नाग सदा साथ विचरने वाले हैं। ये दोनों कुरुक्षेत्र में इक्षुमती नदी के तट पर रहा करते थे। जो तक्षक के छोटे भाई हैं, श्रुतसेन नाम से जिनकी ख्याति है तथा जो पाताललोक में नागराज की पदवी पाने के लिये सूर्यदेव की उपासना करते हुए कुरुक्षेत्र में रहे हैं, उन महात्मा को मैं सदा नमस्कार करता हूँ। इस प्रकार उन श्रेष्ठ नागों की स्तुति करने पर भी जब ब्रह्मर्षि उत्तंक उन कुण्डलों को न पा सके तो उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। इस प्रकार नागों की स्तुति करते रहने पर जब वे उन दोनों कुण्डलों को प्राप्त न कर सके, तब उन्हें वहाँ दो स्त्रियाँ दिखायी दीं, जो सुन्दर करघे पर रखकर सूत के ताने में वस्त्र बुन रही थीं, उस ताने में उत्तंक मुनि ने काले और सफेद दो प्रकार के सूत और बारह अरों का एक चक्र भी देखा, जिसे छः कुमार घुमा रहे थे। वहीं एक श्रेष्ठ पुरुष भी दिखायी दिये। जिनके साथ एक दर्शनीय अश्व भी था। उत्तंक ने इन मन्त्र तुल्य श्लोकों द्वारा उनकी स्तुति की।
यह जो अविनाशी कालचक्र निरन्तर चल रहा है, इसके भीतर तीन सौ साठ अरे हैं, चौबीस पर्व हैं और इस चक्र को छः कुमार घुमा रहे हैं। यह सम्पूर्ण विश्व जिनका स्वरूप है, ऐसी दो युवतियाँ सदा काले और सफेद तन्तुओं को इधर-उधर चलाती हुई इस वासना जलरूपी वस्त्र को बुन रही हैं तथा वे ही सम्पूर्ण भूतों और समस्त भुवनों का निरन्तर संचालन करती हैं। जो महात्मा वज्र धारण करके तीनों लोकों की रक्षा करते हैं, जिन्होंने वृत्रासुर का वध तथा नमुचि दानव का संहार किया है, जो काले रंग के दो वस्त्र पहनते और लोक में सत्य एवं असत्य का विवेक करते हैं, जल से प्रकट हुए प्राचीन वैश्वानररूप अश्व को वाहन बनाकर उस पर चढ़ते हैं तथा जो तीनों लोकों के शासक हैं, उन जगदीश्वर पुरन्दर को मेरा नमस्कार है।
तब वह पुरुष उत्तंक से बोला ;- ‘ब्रह्मन! मैं तुम्हारे इस स्तोत्र से बहुत प्रसन्न हूँ। कहो, तुम्हारा कौन सा प्रिय कार्य करूँ?’
यह सुनकर उत्तंक ने कहा ;- ‘सब नाग मेरे अधीन हो जायें।' उनके ऐसा कहने पर ,,
वह पुरुष पुनः उत्तंक से बोला ;- ‘इस घोड़े की गुदा में फूँक मारो।' यह सुनकर उत्तंक ने घोड़े की गुदा में फूँक मारी। फूँकने से घोड़े के शरीर के समस्त छिद्रों से धुएँ सहित आग की लपटें निकलने लगीं। उस समय सारा नागलोक धुएँ से भर गया। फिर तो तक्षक घबरा गया और आग की ज्वाला के भय से दुखी हो दोनों कुण्डल लिये सहसा घर से निकल आया और उत्तंक से बोला।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 154-170 का हिन्दी अनुवाद)
‘ब्रह्मन! आप ये दोनों कुण्डल ग्रहण कीजिये।’ उत्तंक ने उन कुण्डलों को लिया।
कुण्डल लेकर वे सोचने लगे,,- ‘अहो! आज ही गुरुपत्नी का वह पुण्यक व्रत है और मैं बहुत दूर चला आया हूँ। ऐसी दशा में किस प्रकार इन कुण्डलों द्वारा उनका सत्कार कर सकूँगा?’
तब इस प्रकार चिन्ता में पड़े हुए उत्तंक से उस पुरुष ने कहा ;- ‘उत्तंक! इसी घोड़े पर चढ़ जाओ! यह तुम्हें क्षण भर में उपाध्याय के घर पहुँचा देगा।' 'बहुत अच्छा’ कहकर उत्तंक उस घोड़े पर चढ़े और तुरन्त उपाध्याय के घर आ पहुँचे। इधर गुरु पत्नी स्नान करके बैठी हुई अपने केश सँवार रही थीं। ‘उत्तंक अब तक नहीं आया’ यह सोचकर उन्होंने शिष्य को शाप देने का विचार कर लिया। इसी बीच में उत्तंक ने उपाध्याय के घर में प्रवेश करके गुरुपत्नी को प्रणाम किया और उन्हें वे दोनों कुण्डल दे दिये।
तब गुरु पत्नी ने उत्तंक से कहा ;- ‘उत्तंक! तू ठीक समय पर उचित स्थान में आ पहुँचा। वत्स! तेरा स्वागत है। अच्छा हुआ जो मैंने बिना अपराध के ही तुझे शाप नहीं दिया। तेरा कल्याण उपस्थित है, तुझे सिद्धि प्राप्त हो।' तदनन्तर उत्तंक ने उपाध्याय के चरणों में प्रणाम किया।
उपाध्याय ने उससे कहा ;- ‘वत्स उत्तंक! तुम्हारा स्वागत है। लौटने में देर क्यों लगायी?’
तब उत्तंक ने उपाध्याय को उत्तर दिया ;- ‘भगवन। नागराज तक्षक ने इस कार्य में विघ्न डाल दिया था। इसलिये मैं नागलोक में चला गया था। वहीं मैंने दो स्त्रियाँ देखीं, जो करघे पर सूत रखकर कपड़ा बुन रही थीं। उस करघे में काले और सफेद रंग के सूत लगे थे। वह सब क्या था? वहीं, मैंने एक चक्र भी देखा, जिसमें बारह अरे थे। छः कुमार उस चक्र को घुमा रहे थे। वह भी क्या था? वहाँ एक पुरुष भी मेरे देखने में आया था। वह कौन था? तथा एक बहुत बड़ा अश्व भी दिखायी दिया था। वह कौन था? तब उस पुरुष के कहने से मैंने उस बैल का गोबर खा लिया। अतः वह बैल और पुरुष कौन थे? मैं आपके मुख से सुनना चाहता हूँ, वह सब क्या था?’
उत्तंक के इस प्रकार पूछने पर,,
उपाध्याय ने उत्तर दिया ;- ‘वे जो दोनों स्त्रियाँ थीं, वे धाता और विधाता हैं। जो काले और सफेद तन्तु थे, वे रात और दिन हैं। बारह अरों से युक्त चक्र को जो छः कुमार घुमा रहे थे, वे छः ऋतुएँ हैं। बारह महीने ही बारह अरे हैं। संवत्सर हो वह चक्र है। जो पुरुष था, वह पर्जन्य (इन्द्र) हैं। जो अश्व था, वह अग्नि है। इधर से जाते समय मार्ग में तुमने जिस बैल को देखा था, वह नागराज ऐरावत है। और जो उस पर चढ़ा हुआ पुरुष था, वह इन्द्र हैं। तुमने बैल के जिस गोबर को खाया है, वह अमृत था। इसीलिये तुम नागलोक में जाकर भी मरे नहीं। वे भगवान इन्द्र मेरे सखा हैं। तुम पर कृपा करके ही उन्होंने यह अनुग्रह किया है। यही कारण है कि तुम दोनों कुण्डल लेकर फिर यहाँ लौट आये हो। अतः सौम्य! अब तुम जाओ, मैं तुम्हें जाने की आज्ञा देता हूँ। तुम कल्याण के भागी होओगे।’ उपाध्याय की आज्ञा पाकर उत्तंक तक्षक के प्रति कुपित हो उससे बदला लेने की इच्छा से हस्तिनापुर की और चल दिये।
(सम्पूर्ण महाभारत(आदि पर्व) तृतीय अध्याय के श्लोक 171-188 का हिन्दी अनुवाद)
हस्तिनापुर में शीघ्र पहुँचकर विप्रवर उत्तंक राजा जनमेजय से मिले। जनमेजय पहले तक्षशिला गये थे। वे वहाँ जाकर पूर्ण विजय पा चुके थे। उत्तंक ने मन्त्रियों से घिरे हुए उत्तम विजय से सम्पन्न राजा जनमेजय को देखकर पहले उन्हें न्यायपूर्वक जय सम्बन्धी आशीवार्द दिया। तत्पश्चात उचित समय पर उपयुक्त शब्दों से विभूषित वाणी द्वारा ,,
उनसे इस प्रकार कहा ;- नेृपश्रेष्ठ! जहाँ तुम्हारे लिये करने योग्य दूसरा कार्य उपस्थित हो, वहाँ अज्ञान वश तुम कोई और ही कार्य कर रहे हो।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- विप्रवर उत्तंक के ऐसा कहने पर राजा जनमेजय ने उन द्विजश्रेष्ठ का विधिपूर्वक पूजन किया और इस प्रकार कहा।
जनमेजय बोले ;- 'ब्रह्मन! मैं इन प्रजाओं की रक्षा द्वारा अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करता हूँ। बताइये, आज मेरे करने योग्य कौन से कार्य उपस्थित हैं? जिसके कारण आप यहाँ पधारे हैं।'
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- राजाओं में श्रेष्ठ जनमेजय के इस प्रकार कहने पर पुण्यात्माओं में अग्रगण्य विप्रवर उत्तंक ने उन उदार हृदय वाले,,
नरेश से कहा ;- ‘महाराज! वह कार्य मेरा नहीं आपका ही है, आप उसे अवश्य कीजिये’।
इतना कहकर उत्तंक फिर बोले ;- भूपाल शिरोमणे! नागराज तक्षक ने आपके पिता की हत्या की है; अतः आप उस दुरात्मा सर्प से उसका बदला लीजिये। मैं समझता हूँ शत्रुनाशन कार्य की सिद्धि के लिये जो सर्प यज्ञ रूप कर्म शास्त्र में देखा गया है, उसके अनुष्ठान का यह उचित अवसर प्राप्त हुआ है। अतः राजन! अपने महात्मा पिता की मृत्यु का बदला आप अवश्य लें। यद्यपि आपके पिता महाराज परीक्षित ने कोई अपराध नहीं किया था तो भी उस दुष्टात्मा सर्प ने उन्हें डँस लिया और वे वज्र के मारे हुए वृक्ष की भाँति तुरंत ही गिरकर काल के गाल में चले गये।
सर्पों में अधर्मी तक्षक अपने बल के घमण्ड से उन्मत्त रहता है। उस पापी ने यह बड़ा भारी अनुचित कर्म किया। वे महाराज परीक्षित राजर्षियों के वंश की रक्षा करने वाले और देवताओं के समान तेजस्वी थे, कश्यप नामक एक ब्राह्मण आपके पिता की रक्षा करने के लिये उसके पास आना चाहते थे, किंतु उस पापाचारी ने उन्हें लौटा दिया। अतः महाराज! आप सर्पयज्ञ का अनुष्ठान करके उसकी प्रज्वलित अग्नि में उस पापी को होम दीजिये और जल्दी से जल्दी यह कार्य कर डालिये। ऐसा करके आप अपने पिता की मृत्यु का बदला चुका सकेंगे एवं मेरा भी अत्यन्त प्रिय कार्य सम्पन्न हो जायेगा। समूची पृथ्वी का पालन करने वाले नरेश! तक्षक बड़ा दुरात्मा है। पापरहित महाराज! मैं गुरु जी के लिये एक कार्य करने जा रहा था, जिसमें उस दुष्ट ने बहुत बड़ा विघ्न डाल दिया था।
उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- महर्षियों! यह समाचार सुनकर राजा जनमेजय तक्षक पर कुपित हो उठे। उत्तंक के वाक्य ने उनकी क्रोधाग्नि में घी का काम किया। जैसे घी की आहुति पड़ने से अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वे क्रोध से अत्यन्त कुपित हो गये। उस समय राजा जनमेजय ने अत्यन्त दुखी होकर उत्तंक के निकट ही मन्त्रियों से पिता के स्वर्गगमन का समाचार पूछा। उत्तंक के मुख से जिस समय उन्होंने पिता के मरने की बात सुनी, उसी समय वे महाराज दुःख और शोक में डूब गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत पौष्य पर्व में (पौष्याख्यानविषयक) तीसरा अध्याय पूरा हुआ।)
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