सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के छियालीसवें अध्याय से पचासवें अध्याय तक (from the forty-sixth chapter to the fiftieth chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

छियालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षट्चत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 1-23 का हिन्दी अनुवाद)

"जरत्कारु का शर्त के साथ विवाह के लिए उद्यत होना और नागराज वासुकि का जरत्कारु नाम की कन्या को लेकर आना"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! यह सुनकर जरत्कारु अत्यन्त शोक में मग्न हो गये और दुःख से आँसू बहाते हुए गद्गद वाणी में अपने पितरों से बोले। 

जरत्कारु ने कहा ;- आप मेरे ही पूर्वज पिता और पितामह आदि हैं। अतः बताइये आपका प्रिय करने के लिये मुझे क्या करना चाहिये। मैं ही आप लोगों का पुत्र पापी जरत्‍कारु हूँ। आप मुझ अकृतात्मा पापी को इच्छानुसार दण्ड दें।

 पितर बोले ;- पुत्र! बड़े सौभाग्य की बात है जो तुम अकस्मात इस स्थान पर आ गये। ब्रह्मन! तुमने अब तक विवाह क्यों नहीं किया? 

 जरत्‍कारु ने कहा ;- 'पितृगण! मेरे हृदय में यह बात निरन्तर घूमती रहती थी कि मैं उर्ध्‍वरेता (अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालक) होकर इस शरीर को परलोक (पुण्यधाम) में पहुँचाऊँ। अतः मैंने अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि मैं कभी पत्नी परिग्रह (विवाह) नहीं करूँगा। किंतु पितामहों! आपको पक्षियों की भाँति लटकते देख अखण्ड ब्रह्मचर्य के पालन सम्बन्धी निश्चय से मैंने अपनी बुद्धि लौटा ली है। अब मैं आपका प्रिय मनोरथ पूर्ण करूँगा, निश्चय ही विवाह कर लूँगा। (परंतु इसके लिये एक शर्त होगी-) यदि मैं कभी अपने ही जैसे नाम वाली कुमारी कन्या पाऊँगा, उसमें भी जो भिक्षा की भाँति बिना माँगे स्वयं ही विवाह के लिये प्रस्तुत हो जायेगी और जिसके पालन-पोषण का भार मुझ पर न होगा, उसी का मैं पाणिग्रहण करूँगा। यदि ऐसा विवाह मुझे सुलभ हो जाये तो कर लूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं। पितामहों! यह मेरा सत्यनिश्चय है। वैसे विवाह से जो पत्नी मिलेगी, उसी के गर्भ से आप लोगों को तारने के लिये कोई प्राणी उत्पन्न होगा। मैं चाहता हूँ मेरे पितर नित्य शाश्वत लोकों में बने रहें, वहाँ वे अक्षय सुख के भागी हों।'

   उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक जी! इस प्रकार पितरों से कहकर जरत्‍कारु मुनि पूर्ववत पृथ्वी पर विचरने लगे। परंतु ‘यह बूढ़ा है’ ऐसा समझकर किसी ने कन्या नहीं दी, अतः उन्हें पत्नी उपलब्ध न हो सकी। जब वे विवाह की प्रतीक्षा में खिन्न हो गये, तब पितरों से प्रेरित होने के कारण वन में जाकर अत्यन्त दुखी हो जोर-जोर से ब्याह के लिये पुकारने लगे। 

वन में जाने पर विद्वान जरत्‍कारु ने पितरों के हित की कामना से तीन बार धीरे-धीरे यह बात कही ;- ‘मैं कन्या माँगता हूँ।' (फिर जोर से बोले-) ‘यहाँ जो स्थावर जंगम दृश्य या अदृश्य प्राणी हैं, वे सब मेरी बात सुनें- ‘मेरे पितर भयंकर कष्ट में पड़े हैं और दुःख से आतुर हो संतान प्राप्ति की इच्छा रखकर मुझे प्रेरित कर रहे हैं कि ‘तुम विवाह कर लो।' अतः विवाह के लिये मैं सारी पृथ्वी पर घूमकर कन्या की भिक्षा चाहता हूँ। यद्यपि मैं दरिद्र हूँ और सुविधाओं के अभाव में दुखी हूँ, तो भी पितरों की आज्ञा से विवाह के लिये उद्यत हूँ। मैंने यहाँ जिसका नाम लेकर पुकारा है, उसमें से जिस किसी भी प्राणी के पास विवाह के योग्य विख्यात गुणों वाली कन्या हो, वह सब दिशाओं में विचरने वाले मुझ ब्राह्मण को अपनी कन्या दे। जो कन्या मेरे ही जैसे नाम वाली हो, भिक्षा की भाँति मुझे दी जा सकती हो और जिसके भरण-पोषण का भार मुझ पर न हो, ऐसी कन्या कोई मुझे दे।' तब उन नागों ने जो जरत्‍कारु मुनि की खोज में लगाये गये थे, उनका यह समाचार पाकर उन्होंने नागराज वासुकि को सूचित किया। उनकी बात सुनकर नागराज वासुकि अपनी उस कुमारी बहिन को वस्त्राभूषणों से विभूषित करके साथ ले वन में मुनि के समीप गये। ब्रह्मन! वहाँ नागेन्द्र वासुकि ने महात्मा जरत्‍कारु को भिक्षा की भाँति वह कन्या समर्पित की; किंतु उन्होंने सहसा उसे स्वीकार नहीं किया। सोचना सम्भव है, यह कन्या मेरे जैसे नाम वाली न हो। इनके भरण-पोषण का भार किस पर रहेगा, इस बात का निर्णय भी अभी तक नहीं हो पाया है। इसके सिवा मैं मोक्ष भाव में स्थित हूँ, यही सोचकर उन्होंने पत्नी-परिग्रह में शिथिलता दिखायी। 

भृगुनन्दन! इसीलिये पहले उन्होंने वासुकि से उस कन्या का नाम पूछा और यह स्पष्ट कह दिया- ‘मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा।'

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में वासुकिजरत्कारु-समागम-सम्बंधी छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

सैंतालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्‍तचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"जरत्कारु मुनि का नागकन्या के साथ विवाह, नागकन्या जरत्कारु द्वारा पतिसेवा तथा पति का उसे त्यागकर तपस्या के लिये गमन"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! उस समय वासुकि ने,,

 जरत्कारु मुनि से कहा ;- ‘द्विजश्रेष्ठ! इस कन्या का वही नाम है, जो आपका है। यह मेरी बहिन है और आपकी ही भाँति तपस्विनी भी है। आप इसे ग्रहण करें। आपकी पत्नी का भरण-पोषण मैं करूँगा। तपोधन! अपनी सारी शक्ति लगाकर मैं इसकी रक्षा करता रहूँगा। मुनिश्रेष्ठ! अब तक आप ही के लिये मैंने इसकी रक्षा की है।' 

ऋषि ने कहा ;- नागराज! मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा, मेरी वह शर्त तय हो गयी। अब दूसरी शर्त यह है कि तुम्हारी इस बहिन को कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जो मुझे अप्रिय लगे। यदि वह अप्रिय कार्य कर बैठेगी तो उसी समय मैं इसे त्याग दूँगा। 

   उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- नागराज ने यह शर्त स्वीकार कर ली कि ‘मैं अपनी बहिन का भरण-पोषण करूँगा।’ तब जरत्कारु मुनि वासुकि के भवन में गये। वहाँ मन्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ तपोवृद्ध महाव्रती धर्मात्मा जरत्कारु ने शास्त्रीय विधि और मन्त्रोचारण के साथ नाग कन्या का पाणिग्रहण किया।

   तदनन्तर महर्षियों ने प्रशंसित होते हुए वे नागराज के रमणीय भवन में, जो मन के अनुकूल था, अपनी पत्नी को लेकर गये। वहाँ बहुमूल्य बिछौनों से सजी हुई शय्या बिछी थी। जरत्कारु मुनि अपनी पत्नी के साथ उसी भवन में रहने लगे। उन साधुशिरोमणि ने वहाँ अपनी पत्नी के सामने यह शर्त रखी- ‘तुम्हें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये, जो मुझे अप्रिय लगे। साथ ही कभी अप्रिय वचन भी नहीं बोलना चाहिये। तुमसे अप्रिय कार्य हो जाने पर मैं तुम्हें और तुम्हारे घर में रहना छोड़ दूँगा। मैंने जो कुछ कहा है, मेरे इस वचन को दृढ़तापूर्वक धारण कर लों।' 

यह सुनकर नागराज की बहिन अत्यन्त उद्विग्‍न हो गयी और,,

 उस समय बहुत दुखी होकर बोली ;- ‘भगवन! ऐसा ही होगा।' फिर वह यशस्विनी नागकन्या दुःखद स्वभाव वाले पति की उसी शर्त के अनुसार सेवा करने लगी। वह श्वेतकाकीय उपायों से सदा पति का प्रिय करने की इच्छा रखकर निरन्तर उनकी आराधना में लगी रहती थी।

तदनन्तर किसी समय ऋतुकाल आने पर वासुकि की बहिन स्नान करके न्यायपूर्वक अपने पति महामुनि जरत्कारु की सेवा में उपस्थित हुई। वहाँ उसे गर्भ रह गया, जो प्रज्वलित अग्नि के समान अत्यन्त तेजस्वी तथा तप:शक्ति से सम्पन्न था। उसकी अंगकान्ति अग्नि के तुल्य थी। जैसे शुक्‍लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ते हैं, उसी प्रकार वह गर्भ भी नित्य परिपुष्ट होने लगा। तत्पश्चात कुछ दिनों के बाद महातपस्वी जरत्कारु कुछ खिन्न से होकर अपनी पत्नी की गोद में सिर रखकर सो गये। उन विप्रवर जरत्कारु के सोते समय ही सूर्य अस्ताचल को जाने लगे। ब्राह्मन! दिन समाप्त होने ही वाला था। अतः वासुकि की मनस्विनी बहिन जरत्कारु अपने पति के धर्मलोप से भयभीत हो उस समय इस प्रकार सोचने लगी- 'इस समय पति को जगाना मेरे लिये अच्छा (धर्मानुकुल) होगा या नहीं? मेरे धर्मात्मा पति का स्वभाव बड़ा दुःखद है। मैं कैसा बर्ताव करूँ, जिससे उनकी दृष्टि में अपराधिनी न बनूँ। यदि इन्हें जगाऊँगी तो निश्चय ही इन्हें मुझ पर क्रोध होगा और यदि सोते-सोते संध्योपासना का समय बीत गया तो अवश्य इनके धर्म का लोप हो जायेगा, ऐसी दशा में धर्मात्मा पति का कोप स्वीकार करूँ या उनके धर्म का लोप? इन दोनों में धर्म का लोप ही भारी जान पड़ता है।’ अतः जिससे उनके धर्म का लोप न हो, वही कार्य करने का उसने निश्चय किया। मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके मीठे वचन बोलने वाली नागकन्या जरत्कारु ने वहाँ सोते हुए अग्नि के समान तेजस्वी एवं तीव्र तपस्वी महर्षि से,,

 मधुर वाणी में यों कहा ;- ‘महाभाग! उठिये, सूर्यदेव अस्ताचल को जा रहे हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्‍तचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 21-43 का हिन्दी अनुवाद)

   भगवन! आप संयमपूर्वक आचमन करके संध्योपासन कीजिये। अब अग्निहोत्र की बेला हो रही है। यह मुहूर्त धर्म का साधन होने के कारण अत्यन्त रमणीय जान पड़ता है। इसमें भूमि आदि प्राणी विचरते हैं, अतः भयंकर भी है। प्रभो! पश्चिम दिशा में संध्या प्रकट हो रही है- उधर का आकाश लाल हो रहा है।' नागकन्या के ऐसा कहने पर महातपस्वी भगवान जरत्कारु जाग उठे। उस समय क्रोध के मारे उनके होंठ काँपने लगे। 

  वे इस प्रकार बोले ;- ‘नागकन्ये! तूने मेरा यह अपमान किया है। इसलिये अब मैं तेरे पास नहीं रहूँगा। जैसे आया हूँ, वैसे ही चला जाऊँगा। वामोरू! सूर्य में इतनी शक्ति नहीं है कि मैं सोता रहूँ और वे अस्त हो जायें। यह मेरे हृदय में निश्चय है। जिसका कहीं अपमान हो जाये ऐसे किसी भी पुरुष को वहाँ रहना अच्‍छा नहीं लगता। फिर मेरी अथवा मेरे जैसे दूसरे धर्मशील पुरुष की तो बात ही क्या है।' 

 जब पति ने इस प्रकार हृदय में कँप-कँपी पैदा करने वाली बात कही, 

तब उस घर में स्थित वासुकि की बहिन इस प्रकार बोली ;- ‘विप्रवर! मैंने अपमान करने के लिये आपको नहीं जगाया था। आपके धर्म का लोप न हो जाये, यही ध्यान में रखकर मैंने ऐसा किया है।’

यह सुनकर क्रोध में भरे हुए महातपस्वी ऋषि जरत्कारु ने अपनी पत्नी नाग कन्या को त्याग देने की इच्छा रखकर,,

 उससे कहा ;- ‘नागकन्ये! मैंने कभी झूठी बात मुँह से नहीं निकाली है, अतः मैं अवश्य जाऊँगा। मैंने तुम्हारे साथ आपस में पहले ही ऐसी शर्त कर ली थी। 

भाई से कहना ;- ‘भगवान जरत्कारु चले गये।' शुभे! भीरू! मेरे निकल जाने पर तुम्हें भी शोक नहीं करना चाहिये।' उनके ऐसा कहने पर अनिन्द्य सुन्दरी जरत्कारु भाई के कार्य की चिन्ता और पति के वियोगजनित शोक में डूब गयी। उसका मुँह सूख गया, नेत्रों में आँसू छलक आये और हृदय काँपने लगा। फिर किसी प्रकार धैर्य धारण करके सुन्दर जाँघों और मनोहर शरीर वाली वह नागकन्या हाथ जोड़ गद्गद वाणी में,,,

 जरत्कारु मुनि से बोली ;- ‘धर्मज्ञ! आप सदा धर्म में स्थित रहने वाले हैं। मैं भी पत्नी धर्म में स्थित तथा आप प्रियतम के हित में लगी रहने वाली हूँ। आपको मुझ निरपराध अबला का त्याग नहीं करना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ! मेरे भाई ने जिस उद्देश्य को लेकर आपके साथ मेरा विवाह किया था, मैं मन्दभागिनी अब तक उसे पा न सकी। नागराज वासुकि मुझसे क्या कहेंगे? साधुशिरोमणे! मेरे कुटुम्बीजन माता के शाप से दबे हुए हैं। उन्होंने मेरे द्वारा आपसे एक संतान की प्राप्ति अभीष्ट थी, किंतु उसका भी अब तक दर्शन नहीं हुआ। आपसे पुत्र की प्राप्ति हो जाये तो उसके द्वारा मेरे जातिभाइयों का कल्याण हो सकता है।

   ब्रह्मन! आपसे जो मेरा सम्बन्ध हुआ, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये। भगवन! अपने बान्धवजनों का हित चाहती हुई मैं आपसे प्रसन्न होने की प्रार्थना करती हूँ। महाभाग! आपने जो गर्भ स्थापित किया है, उसका स्वरूप या लक्षण अभी प्रकट नहीं हुआ। महात्मा होकर ऐसी दशा में मुझ निरपराध पत्नी को त्यागकर कैसे जाना चाहते हैं?’ 

यह सुनकर उन तपोधन महर्षि ने अपनी पत्नी जरत्कारु से,,

 उचित तथा अवसर के अनुसार बात कही ;- सुभगे! ‘अयं अस्ति’- तुम्हारे उदर में गर्भ है। तुम्हारा यह गर्भस्थ बालक अग्नि के समान तेजस्वी, परम धर्मात्मा मुनि तथा वेद-वेदांगों में पारंगत विद्वान होगा।' ऐसा कहकर धर्मात्मा महामुनि जरत्कारु, जिन्होंने जाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था, फिर कठोर तपस्या के लिये वन में चले गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में जरत्कारु का तपस्या के लिये निष्क्रमण-विषयक सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

अड़तालीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्‍टचत्‍वारिंश अध्‍याय के श्लोक 1-22 का हिन्दी अनुवाद)

"वासुकि नाग की चिंता, बहिन द्वारा उसका निवारण तथा आस्तीक का जन्म एवं निद्याध्ययन"

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- तपोधन शौनक! पति के निकलते ही नागकन्या जरत्कारु ने अपने भाई वासुकि के पास जाकर उनके चले जाने का सब हाल ज्यों-का-त्यों सुना दिया। यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर सर्पों में श्रेष्ठ वासुकि स्वयं भी बहुत दुखी हो गये और दुःख में पड़ी हुई अपनी बहिन से बोले। 

  वासुकि ने कहा ;- भद्रे! सर्पों का जो महान कार्य है और मुनि के साथ तुम्हारा विवाह होने में जो उद्देश्य रहा है, उसे तो तुम जानती ही हो। यदि उसके द्वारा तुम्हारे गर्भ से कोई पुत्र उत्पन्न हो जाता तो उससे सर्पों का बहुत बड़ा हित होता। वह शक्तिशाली मुनिकुमार ही हम लोगों को जनमेजय के सर्पयज्ञ में जलने से बचायेगा; यह बात पहले देवताओं के साथ भगवान ब्रह्मा जी ने कही थी। सुभगे! क्या उन मुनिश्रेष्ठ से तुम्हें गर्भ रह गया है? तुम्हारे साथ उन मनीषी महात्मा का विवाहकर्म निष्फल हो, यह मैं नहीं चाहता। मैं तुम्हारा भाई हूँ। ऐसे कार्य (पुत्रोत्पत्ति) के विषय में तुमसे कुछ पूछना मेरे लिये उचित नहीं है, परंतु कार्य के गौरव का विचार करके मैंने तुम्हें इस विषय में सब बातें बताने के लिये प्रेरित किया है। तुम्हारे महातपस्वी पति को जाने से रोकना किसी के लिये भी अत्यन्त कठिन है, यह जानकर मैं उन्हें लौटा लाने के लिये उनके पीछे नहीं जा रहा हूँ लौटने का आग्रह करूँ तो कदाचित वे मुझे शाप भी दे सकते हैं।

अतः भद्रे! तुम अपने पति की सारी चेष्टा बताओ और मेरे हृदय में दीर्घकाल से जो भयंकर काँटा चुभा हुआ है, उसे निकाल दो। भाई के इस प्रकार पूछने पर तब जरत्कारु अपने संतान भ्राता नागराज वासुकि को धीरज बँधाती हुई इस प्रकार बोली। 

जरत्कारु ने कहा ;- भाई! मैने संतान के लिये उन महातपस्वी महात्मा से पूछा था। मेरे गर्भ के विषय में ‘अस्ति (तुम्हारे गर्भ में पुत्र है)’ इतना ही कहकर वे चले गये। राजन! उन्होंने पहले कभी विनोद में भी झूठी बात कही हो, यह मुझे स्मरण नहीं है। फिर इस संकट के समय तो ये झूठ बोलेंगे ही क्यों? भैया! मेरे पति तपस्या के धनी हैं। 

उन्होंने जाते समय मुझसे यह कहा ;- ‘नागकन्ये! तुम अपनी कार्य सिद्धि के सम्बन्ध में कोई चिन्ता न करना। तुम्हारे गर्भ से अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होगा।’ इतना कहकर वे तपोवन में चले गये। अतः भैया! तुम्हारे मन में जो महान दुःख है, वह दूर हो जाना चाहिये।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! यह सुनकर,,

 नागराज वासुकि बड़ी प्रसन्नता से बोले ;- ‘एवमस्तु (ऐसा ही हो)।’ इस प्रकार उन्होंने बहिन की बात को विश्वासपूर्वक ग्रहण किया। सर्पों में श्रेष्ठ वासुकि अपनी सहोदरा बहिन को सान्त्वना, सम्मान तथा धन देकर एवं सुन्दर रूप से उसका स्वागत-सत्कार करके उसकी समाराधना करने लगे। द्विजश्रेष्ठ! जैसे शुक्लपक्ष में आकाश में उदित होने वाला चन्द्रमा प्रतिदिन बढ़ता है, उसी प्रकार जरत्कारु वह महातेजस्वी और परमकान्तिमान गर्भ बढ़ने लगा। ब्रह्मन! तदनन्तर समय आने पर वासुकि की बहिन ने एक दिव्य कुमार को जन्म दिया, जो देवताओं के बालक-सा तेजस्वी जान पड़ता था। वह पिता और माता दोनों पक्षों के भय को नष्ट करने वाला था। वह वहीं नागराज के भवन में बढ़ने लगा। बड़े होने पर उसने भृगुकुलोत्पन्न च्यवन मुनि से छहों अंगों सहित वेदों का अध्ययन किया। वह बचपन से ही ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाला, बुद्धिमान तथा सत्त्वगुण सम्पन्न हुआ। लोक में आस्तीक नाम से उसकी ख्याति हुई। वह बालक अभी गर्भ में ही था, तभी उसके पिता ‘अस्ति’ कहकर वन में चले गये थे। इसलिये संसार में उसका आस्तीक नाम प्रसिद्ध हुआ। अमित बुद्धिमान आस्तीक बाल्यावस्था में ही वहाँ रहकर ब्रह्मचर्य का पालन एवं धर्म का आचरण करने लगा। नागराज के भवन में उसका भली-भाँति यत्नपूर्वक लालन-पालन किया गया। सुवर्ण के समान कान्तिमान शूलपाणि देवेश्वर भगवान शिव की भाँति वह बालक दिनों-दिन बढ़ता हुआ समस्त नागों का आनन्द बढ़ाने लगा।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में उत्पत्ति-विषयक अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

उन्चासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा परीक्षित के धर्ममय आचार तथा उत्तम गुणों का वर्णन, राजा का शिकार के लिये जाना और उनके द्वारा शमीक मुनि का तिरस्कार"

शौनक जी बोले ;- सूतनन्दन! राजा जनमेजय ने (उत्तक की बात सुनकर) अपने पिता परीक्षित के स्वर्गवास के सम्बन्ध में मन्त्रियों से जो पूछताछ की थी, उसका आप विस्तारपूर्वक पुनः वर्णन कीजिये।

 उग्रश्रवा जी ने कहा ;- ब्रह्मन! मुनि ये, उस समय राजा ने मन्त्रियों से जो कुछ पूछा और उन्होंने परीक्षित की मृत्यु के सम्बन्ध में जैसी बातें बतायी, वह सब मैं सुना रहा हूँ। 

   जनमेजय ने पूछा ;- आप लोग यह जानते होंगे कि मेरे पिता के जीवनकाल में उनका आचार-व्यवहार कैसा था? और अन्तकाल आने पर वे महायशस्वी नरेश किस प्रकार मृत्यु को प्राप्त हुए थे? आप लोगों से अपने पिता के सम्बन्ध में सारा वृत्तान्त सुनकर ही मुझे शान्ति प्राप्त होगी; अन्यथा मैं कभी शान्त न रह सकूँगा। उग्रश्रवा जी कहते हैं- राजा के सब मन्त्री धर्मज्ञ और बुद्धिमान थे। उन महात्मा राजा जनमेजय के इस प्रकार पूछने पर वे सभी उनसे यों बोले।

   मन्त्रियों ने कहा ;- भूपाल! तुम जो कुछ पूछते हो, वह सुनो! तुम्हारे महात्मा पिता राज-राजेश्वर परीक्षित का चरित्र जैसा था और जिस प्रकार वे मृत्यु को प्राप्त हुए वह सब हम बता रहे हैं। महाराज! आपके पिता बड़े धर्मात्मा, महात्मा और प्रजापालक थे। वे महामना नरेश इस जगत में जैसे आचार-व्यवहार का पालन करते थे, वह सुनो। वे चारों वर्णों को अपने-अपने धर्म में स्थापित करके उन सबकी धर्मपूर्वक रक्षा करते थे। राजा परीक्षित केवल धर्म के ज्ञाता ही नहीं थे, वे धर्म के साक्षात स्वरूप थे। उनके पराक्रम की कहीं तुलना नहीं थी। वे श्री सम्पन्न होकर इस वसुधा देवी का पालन करते थे। जगत में उनसे द्वेष रखने वाले कोई न थे और वे भी किसी से द्वेष नहीं रखते थे। प्रजापति ब्रह्मा जी के समान वे समस्त प्राणियों के प्रति सम्भाव रखते थे। राजन! महाराज परीक्षित के शासन में रहकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सभी अपने-अपने वर्णाश्रमोचित कर्मों में संलग्न और प्रसन्नचित्त रहते थे। वे महाराज विधवाओं, अनाथों, अंगहीनों और दीनों का भी भरण-पोषण करते थे। दूसरे चन्द्रमा की भाँति उनका दर्शन सम्पूर्ण प्राणियों के लिये सुखद एवं सुलभ था।

   उनके राज्य में सब लोग हृष्ट-पुष्ट थे। वे लक्ष्मीवान, सत्यवादी तथा अटल पराक्रमी थे। राजा परीक्षित धर्नुवेद में कृपाचार्य के शिष्य थे। जनमेजय! तुम्हारे पिता भगवान श्रीकृष्ण के भी प्रिय थे। वे महायशस्वी महाराज सम्पूर्ण जगत के प्रेमपात्र थे। जब कुरुकुल परिक्षीण (सर्वथा नष्ट) हो चला था, उस समय उत्तरा के गर्भ से उनका जन्म हुआ। इसलिये वे महाबली अभिमन्युकुमार परीक्षित नाम से विख्यात हुए। राजधर्म और अर्थनीति में वे अत्यन्त निपुण थे। समस्त सद्गुणों ने स्वयं उनका वरण किया था। वे सदा उनसे संयुक्त रहते थे। उन्होंने अपनी इन्द्रियों को जीतकर मन को अपने वश में कर रखा था। वे मेधावी तथा धर्म का सेवन करने वाले थे। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ, मद और मात्सर्य- इन छहों शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली थी। उनकी बुद्धि विशाल थी। वे नीति के विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ थे। तुम्हारे पिता ने साठ वर्ष की आयु तक इन समस्‍त प्रजाजनों का पालन किया था। तदनन्तर हम सबको दुःख देकर उन्होंने विदेह-कैवल्य प्राप्त किया। पुरुषश्रेष्ठ! पिता के देहावसान के बाद तुमने धर्मपूर्वक इस राज्य को ग्रहण किया है, बाल्यावस्था में ही तुम्हारा राज्याभिषेक हुआ था। तब से तुम्हीं इस राज्य के समस्त प्राणियों का पालन करते हो।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनपंचाशत्तम अध्‍याय के श्लोक 19-31 का हिन्दी अनुवाद)

  जनमेजय ने पूछा ;- मन्त्रियों! हमारे इस कुल में कभी कोई ऐसा राजा नहीं हुआ, जो प्रजा का प्रिय करने वाला तथा सब लोगों का प्रेमपात्र न रहा हो। विशेषतः महापुरुषों के आचार में प्रवृत्त रहने वाले हमारे प्रपितामह पाण्डवों के सदाचार को देखकर प्रायः सभी धर्म परायण ही होंगे। अब मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरे वैसे धर्मात्मा पिता की मृत्यु किस प्रकार हुई? आप लोग मुझसे इसका यथावत वर्णन करें। मैं इस विषय में सब बातें ठीक-ठीक सुनना चाहता हूँ।

  उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! राजा जनमेजय के इस प्रकार पूछने पर उन मन्त्रियों ने महाराज से सब वृत्तान्त ठीक-ठीक बताया; क्योंकि वे सभी राजा का प्रिय चाहने वाले और हितैषी थे। 

मन्त्री बोले ;- राजन! समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ तुम्हारे पिता भूपाल परीक्षित का सदा महाबाहु पाण्डु की भाँति हिंसक पशुओं को मारने का स्वभाव था और युद्ध में उन्हीं की भाँति सम्पूर्ण धर्नुधर वीरों में श्रेष्ठ सिद्ध होते थे। एक दिन की बात है, वे सम्पूर्ण राजकार्य का भार हम लोगों पर रखकर वन में शिकार खेलने के लिये गये। वहाँ उन्होंने पंखयुक्त बाण से एक हिंसक पशु को बींध डाला। बींधकर तुरंत ही गहन वन में उसका पीछा किया। वे तलवार बाँधे पैदल ही चल रहे थे। उनके पास बाणों से भरा हुआ विशाल तूणीर था। वह घायल पशु उस घने वन में कहीं छिप गया। तुम्हारे पिता बहुत खोजने पर भी उसे पा न सके।

    प्रौढ़ अवस्था, साठ वर्ष की आयु और बुढ़ापे का संयोग इन सबके कारण वे बहुत थक गये थे। उस विशाल वन में उन्हें भूख सताने लगी। इसी दशा में महाराज ने वहाँ मुनिश्रेष्ठ शमीक को देखा। राजेन्द्र परीक्षित ने उनसे मृग का पता पूछा; किंतु वे मुनि उस समय मौनव्रत के पालन में संलग्न थे। उनके पूछने पर भी महर्षि शमीक उस समय कुछ न बोले। वे काठ की भाँति चुपचाप, निश्चेष्ट एवं अविचल भाव से स्थित थे। यह देख भूख-प्यास और थकावट से व्याकुल हुए राजा परीक्षित को उन मौनव्रतधारी शान्त महर्षि पर तत्काल क्रोध आ गया। राजा को यह पता नहीं था कि महर्षि मौनव्रतधारी हैं; अतः क्रोध में भरे हुए आपके पिता ने उनका तिरस्कार कर दिया। भरतश्रेष्ठ! उन्होंने धनुष की नोक से पृथ्वी पर पड़े हुए एक मृत सर्प को उठाकर उन शुद्धात्मा महर्षि के कंधे पर डाल दिया। किंतु उन मेधावी मुनि ने इसके लिये उन्हें भला या बुरा कुछ नहीं कहा। वे क्रोध रहित हो कंधे पर मरा सर्प लिये हुए पूर्ववत शान्तभाव से बैंठे रहे।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में परीक्षित-चरित्रविषयक उन्चासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

पचासवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाशत्तम अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"शृगी ऋषि का परीक्षित को शाप, तक्षक का काश्यप को लौटाकर छल से परीक्षित को डँसना और पिता की मृत्यु का वृत्तान्त सुनकर जनमेजय की तक्षक से बदला लेने की प्रतिज्ञा"

मन्त्री बोले ;- राजेन्द्र! उस समय राजा परीक्षित भूख से पीड़ित हो शमीक मुनि के कंधे पर मृतक सर्प डालकर पुनः अपनी राजधानी में लौट आये। उन महर्षि के श्रृंगी नामक एक महातेजस्वी पुत्र था, जिसका जन्म गाय के पेट से हुआ था। वह महान यशस्वी, तीव्र शक्तिशाली और अत्यन्त क्रोधी था। एक दिन उसने आचार्य देव के समीप जाकर पूजा की और उनकी आज्ञा ले वह घर को लौटा। उसी समय श्रृंगी ऋषि ने अपने एक सहपाठी मित्र के मुख से तुम्हारे पिता द्वारा अपने पिता के तिरस्कृत होने की बात सुनी। राजसिंह! श्रृंगी को यह मालूम हुआ कि मेरे पिता काठ की भाँति चुपचाप बैठे थे और उनके कंधे पर मृतक साँप डाल दिया गया। वे अब भी उस सर्प को अपने कंधे पर रखे हुए हैं। यद्यपि उन्होंने कोई अपराध नहीं किया था। वे मुनिश्रेष्ठ तपस्वी, जितेन्द्रिय, विशुद्धात्मा, कर्मनिष्ठ, अद्भुत शक्तिशाली, तपस्या द्वारा कान्तिमान शरीर वाले, अपने अंगों को संयम में रखने वाले, सदाचारी, शुभवक्ता, निश्चल, भाव से स्थित, लोभरहित, शुद्रता शून्य (गम्भीर), दोषदृष्टि से रहित, वृद्ध, मौन व्रताबलम्बी तथा सम्पूर्ण प्राणियों को आश्रय देने वाले थे, तो भी आपके पिता परीक्षित ने उनका तिरस्कार किया। यह सब जानकर यह बाल्यवस्था में भी वृद्धों का-सा तेज धारण करने वाला महातेजस्वी ऋषिकुमार क्रोध से आगबबूला हो उठा और उसने तुम्हारे पिता को शाप दे दिया।

   श्रृंगी तेज से प्रज्वलित-सा हो रहा था। उसने शीघ्र ही हाथ में जल लेकर तुम्हारे पिता को लक्ष्य करके रोषपूर्वक यह बात कही ,,,- ‘जिसने मेरे निरापराध पिता पर मरा साँप डाल दिया है, उस पापी को आज से सात रात के बाद मेरी वाकशक्ति से प्रेरित प्रचण्ड तेजस्वी विषधर तक्षक नाग कुपित हो अपनी विषाग्नि से जला देगा। देखो, मेरी तपस्या का बल।' ऐसा कहकर वह बालक उस स्थान पर गया, जहाँ उसके पिता बैठे थे। पिता को देखकर उसने राजा को शाप देने की बात बतायी। तब मुनिश्रेष्ठ शमीक ने तुम्हारे पिता के पास अपने शिष्य गौरमुख को भेजा, जो सुशील और गुणवान था। 

उसने विश्राम कर लेने पर राजा से सब बातें बतायी और महर्षि का संदेश इस प्रकार सुनाया- ‘भूपाल! मेरे पुत्र ने तुम्हें शाप दे दिया है; अतः सावधान हो जाओ। महाराज! (सात दिन के बाद) तक्षक नाग तुम्हें अपने विष से जला देगा।’ जनमेजय! यह भयंकर बात सुनकर तुम्हारे पिता नागश्रेष्ठ तक्षक से अत्‍यन्त भयभीत हो सतत सावधान रहने लगे। तदनन्तर जब सातवाँ दिन उपस्थित हुआ, तब उस दिन ब्रह्मर्षि कश्यप ने राजा के समीप जाने का विचार किया। मार्ग में नागराज तक्षक ने उस समय कश्यप को देखा। विप्रवर कश्यप बड़ी उतावली से पैर बढ़ा रहे थे। 

उन्हें देखकर नागराज ने (ब्राह्मण का वेष धारण करके),,

 इस प्रकार पूछा ;- द्विजश्रेष्ठ! आप कहाँ इतनी तीव्र गति से जा रहे हैं और कौन-सा कार्य करना चाहते हैं?’ 

कश्यप ने कहा ;- 'ब्रह्मन! मैं वहाँ जाता हूँ जहाँ कुरुकुल के श्रेष्ठ राजा परीक्षित रहते हैं। आज ही तक्षक नाग उन्हें डँसेगा। अतः मैं तत्काल ही उन्हें नीरोग करने के लिये जल्दी-जल्दी वहाँ जा रहा हूँ मेरे द्वारा सुरक्षित नरेश को वह सर्प नष्ट नहीं कर सकेगा।'

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाशत्तम अध्‍याय के श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद)

तक्षक ने कहा ;- ब्रह्मन! मेरे डँसे हुए मनुष्य को जिलाने की इच्छा आप कैसे रखते हैं। मैं ही वह तक्षक हूँ! मेरी अद्भुत शक्ति देखिये। मेरे डँस लेने पर उस राजा को आप जीवित नहीं कर सकते। ऐसा कहकर तक्षक ने एक वृक्ष को डँस लिया। नाग के डँसते ही वह वृक्ष जलकर भस्म हो गया। राजन! तदनन्तर काश्यप ने (अपनी मन्त्र विद्या के बल से) उस वृक्ष को पूर्ववत जीवित (हरा-भरा) कर दिया। अब तक्षक काश्यप को प्रलोभन देने लगा। 

तक्षक ने फिर कहा ;- ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे माँग लो।’ तक्षक के ऐसा कहने पर ,,

काश्यप ने उससे कहा ;- ‘मैं तो वहाँ धन की इच्छा से जा रहा हूँ।’ उनके ऐसा कहने पर,,

 तक्षक ने महात्मा काश्यप से मधुर वाणी में कहा ;- ‘अनघ! तुम राजा से जितना धन पाना चाहते हो, उससे भी अधिक मुझसे ही ले लो और लौट जाओ।' तक्षक नाग की यह बात सुनकर मनुष्यों में श्रेष्ठ काश्यप उससे इच्छानुसार धन लेकर लौट गये। ब्राह्मण के चले जाने पर तक्षक ने छल से भूपालों में श्रेष्ठ तुम्हारे धर्मात्मा पिता राजा परीक्षित के पास पहुँचकर, यद्यपि वे महल में सावधानी के साथ रहते थे, तो भी उन्हें अपनी विषाग्नि से भस्म कर दिया। नरश्रेष्ठ! तदनन्तर विजय की प्राप्ति के लिये तुम्हारा राजा के पद पर अभिषेक किया गया। नृपश्रेष्ठ! यद्यपि यह प्रसंग बड़ा ही निष्ठुर और दुःखदायक है; तथापित तुम्हारे पूछने से हमने सब बातें तुमसे कहीं हैं। यह सब कुछ हमने अपनी आँखों से देखा और कानों से भी ठीक-ठीक सुना है।

  महाराज! इस प्रकार तक्षक ने तुम्हारे पिता राजा परीक्षित का तिरस्कार किया है। इन महर्षि उत्तंक को भी उसने बहुत तंग किया है। यह सब तुमने सुन लिया, अब तुम जैसा उचित समझो, करो। 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- शौनक! उस समय शत्रुओं का दमन करने वाले राजा जनमेजय अपने सम्पूर्ण मन्त्रियों से इस प्रकार बोले।

 जनमेजय ने कहा ;- उस वृक्ष के डँसे जाने और फिर हरे होने की बात आप लोगों से किसने कही? उस समय तक्षक के काटने से जो वृक्ष राख का ढेर बन गया था, उसे काश्यप ने पुनः जिलाकर हरा-भरा कर दिया। यह सब लोगों के लिये बड़े आश्चर्य की बात है। यदि काश्यप के आ जाने से उनके मन्त्रों द्वारा तक्षक का विष नष्ट कर दिया जाता तो निश्चय ही मेरे पिताजी बच जाते। परंतु उस पापात्मा नीच सर्प ने अपने मन में यह सोचा होगा- ‘यदि मेर डँसे हुए राजा को ब्राह्मण जिला देंगे तो लोग कहेंगे कि तक्षक का विष भी नष्ट हो गया। इस प्रकार तक्षक लोक में उपहास का पात्र बन जायेगा।’ अवश्य ही ऐसा सोचकर उसने ब्राह्मण को धन के द्वारा संतुष्ट किया था। अच्छा, भविष्य में प्रयत्नपूर्वक कोई-न-कोई उपाय करके तक्षक को इसके लिये दण्ड दूँगा। परंतु एक बात मैं सुनना चाहता हूँ। नागराज तक्षक और काश्यप ब्राह्मण का वह संवाद तो निर्जन वन में हुआ होगा। यह सब वृत्तान्त किसने देखा और सुना था? आप लोगों तक यह बात कैसे आयी? यह सब सुनकर मैं सर्पों के नाश का विचार करूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचाशत्तम अध्‍याय के श्लोक 39-54 का हिन्दी अनुवाद)

मन्त्री बोले ;- राजन! सुनो, विप्रवर काश्यप और नागराज तक्षक का मार्ग में एक-दूसरे के साथ जो समागम हुआ था, उसका समाचार जिसने और जिस प्रकार हमारे सामने बताया था, उसका वर्णन करते हैं। भूपाल! उस वृक्ष पर पहले से ही कोई मनुष्य लकड़ी लेने के लिये सूखी डाली खोजता हुआ चढ़ गया था। तक्षक नाग और ब्राह्मण- दोनों ही नहीं जानते थे कि इस वृक्ष पर कोई दूसरा मनुष्य भी है। राजन! तक्षक के काटने पर उस वृक्ष के साथ ही वह मनुष्य भी जलकर भस्म हो गया था। परंतु राजेन्द्र! ब्राह्मण के प्रभाव से वह भी उस वृक्ष के साथ जी उठा। नरश्रेष्ठ! उसी मनुष्य ने आकर हम लोगों से तक्षक और ब्राह्मण की जो घटना थी, वह सुनायी। राजन! इस प्रकार हमने जो कुछ सुना और देखा है, वह सब तुम्हें कह सुनाया। भूपाल-शिरोमणे! यह सुनकर अब तुम्हें जैसा उचित जान पड़े, वह करो।

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- मन्त्रियों की बात सुनकर राजा जनमेजय दुःख से आतुर हो संतप्त हो उठे और कुपित होकर हाथ से हाथ मलने लगे। वे बारम्बार लम्बी और गरम साँस छोड़ने लगे। कमल के समान नेत्रों वाले राजा जनमेजय उस समय नेत्रों से आँसू बहाते हुए फूट-फूटकर रोने लगे। राजा ने दो घड़ी तक ध्यान करके मन-ही-मन कुछ निश्चय किया, फिर दुःख शोक और अमर्ष में डूबे हुए नरेश ने थमने वाले आँसुओं की अविच्छिन्न धारा बहाते हुए विधिपूर्वक जल का स्पर्श करके सम्पूर्ण मन्त्रियों से इस प्रकार बोले। 

  जनमेजय ने कहा ;- मन्त्रियों! मेरे पिता के स्वर्गलोकगमन के विषय में आप लोगों का यह वचन सुनकर मैंने अपनी बुद्धि द्वारा जो कर्तव्य निश्चित किया है, उसे आप सुन लें। मेरा विचार है, उस दुरात्मा तक्षक से तुरंत बदला लेना चाहिये, जिसने श्रृंगी ऋषि को निमित्त मात्र बनाकर स्वयं ही मेरे पिता महाराज को अपनी विष अग्नि से दग्ध करके मारा है।

   उसकी सबसे बड़ी दुष्टता यह है कि उसने काश्यप को लौटा दिया। यदि वे ब्राह्मण देवता आ जाते तो मेरे पिता निश्चय ही जीवित हो सकते थे। यदि मन्त्रियों के विनय और काश्यप के कृपा प्रसाद से महाराज जीवित हो जाते तो इसमें उस दुष्ट की क्या हानि हो जाती? जो कहीं भी परास्त न होते थे, ऐसे मेरे पिता राजा परीक्षित को जीवित करने की इच्छा से द्विजश्रेष्ठ काश्यप आ पहुँचे थे, किंतु तक्षक ने मोहवश उन्हें रोक दिया। दुरात्मा तक्षक का यह सबसे बड़ा अपराध है कि उसने ब्राह्मण देव को इसलिये धन दिया कि वे महाराज को जिला न दें। इसलिये मैं महर्षि उत्तंक का, अपना तथा आप सब लोगों का अत्यन्त प्रिय करने के लिये पिता के वैर का अवश्य बदला लूँगा।

(इस प्रकार महाभारत आदि पर्व के अंतर्गत आस्तीक पर्व में जनमेजय और मंत्रियों का संवाद-विषयक पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ)

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