सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद)
"पाण्डु का कुन्ती को समझाना और कुन्ती का पति की आज्ञा से पुत्रोत्पत्ति के लिये धर्मदेवता का आवाहन करने के लिये उद्यत होना"
वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! कुन्ती के यों कहने पर धर्मज्ञ राजा पाण्डु ने देवी कुन्ती से पुन: यह धर्मयुक्त बात कही। पाण्डु बोले- कुन्ती! तुम्हारा कहना ठीक है। पूर्वकाल में राजा व्युषिताश्व ने जैसा तुमने कहा है, वैसा ही किया था। कल्याणी! वे देवताओं के समान तेजस्वी थे। अब मैं तुम्हें धर्म का तत्त्व बतलाता हूं, सुनो यह पुरातन धर्म तत्त्व धर्मज्ञ महात्मा ऋषियों ने प्रत्यक्ष किया है। साधु पुरुष इसी को प्राचीन धर्म कहते हैं। राजकन्ये! पति अपनी पत्नी से जो बात कहे, वह धर्म के अनुकूल हो या प्रतिकूल, उसे अवश्य पूर्ण करना चाहिये- ऐसा वेदज्ञ पुरुषों का कथन है। विशेषत: ऐसा पति, जो पुत्र की अभिलाषा रखता हो और स्वयं संतानोत्पादन की शक्ति से रहित हो, जो बात कहे, वह अवश्य माननी चाहिये। निर्दोष अंगों वाली शुभलक्षणे! मैं चूंकि पुत्र का मुंह देखने के लिये लालायित हूं, अतएव तुम्हारी प्रसन्नता के लिये मस्तक के समीप यह अञ्जलि धारण करता हूं, जो लाल-लाल अंगुलियों के युक्त तथा कमलदल के समान सुशोभित है। सुन्दर केशों वाली प्रिये! तुम मेरे आदेश से तपस्या में बढ़े-चढ़े हए किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण के साथ समागम करके गुणवान् पुत्र उत्पन्न करो। सुश्रोणि! तुम्हारे प्रयत्न से मैं पुत्रवानों की गति प्राप्त करूं, ऐसी मेरी अभिलाषा है।
वैशम्पायन जी कहते है ;- जनमेजय! इस प्रकार कही जाने पर पति के प्रिय और हित में लगी रहने वाली सुन्दरांगी कुन्ती शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले महाराज पाण्डु से इस प्रकार बोली,,
कुन्ती बोली ;- ‘भरतश्रेष्ठ! क्षत्रियशिरोमणे! स्त्रियों के लिये यह बड़े अधर्म की बात है कि पति ही उनसे प्रसन्न होने के लिये बार-बार अनुरोध करे; क्योंकि नारी का यह कर्तव्य है कि वह पति को प्रसन्न रखे। महाबाहो! आप मेरी यह बात सुनिये। इससे आपको बड़ी प्रसन्नता होगी। वाल्यावस्था में जब मैं पिता के घर थी, मुझे अतिथियों के सत्कार का काम सौंपा गया था। वहाँ कठोर व्रत का पालन करने वाले एक उग्र स्वभाव के ब्राह्मण की, जिनका धर्म के विषय में निश्चय दूसरों को अज्ञात है तथा जिन्हें लोग दुर्वासा कहते हैं, मैंने बड़ी सेवा-शुश्रूषा की। अपने मन को संयम में रखने वाले उन महात्मा को मैंने सब प्रकार के यत्नों द्वारा संतुष्ट किया। तब भगवान् दुर्वासा ने वरदान के रुप में मुझे प्रयोग विधि सहित एक मन्त्र को उपदेश दिया और मुझसे इस प्रकार कहा,,
भगवान दुर्वासा बोले ;- ‘तुम इस मन्त्र से जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, वह निष्काम हो या सकाम, निश्चय ही तुम्हारे अधीन हो जायगा। राजकुमारी! उस देवता के प्रसाद से तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा। भारत! इस प्रकार मेरे पिता के घर में उस ब्राह्मण ने उस समय मुझसे यह बात कही थी। उस ब्राह्मण की बात सत्य ही होगी। उसके उपयोग का यह अवसर आ गया है। महाराज! आपकी आज्ञा होने पर मैं उस मन्त्र द्वारा किसी देवता का आवाहन कर सकती हूँ। जिससे राजर्षे! हम दोनों के लिये हितकर संतान प्राप्त हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 16-21 का हिन्दी अनुवाद)
महाराज! उन महायशस्वी महर्षि ने जो विद्या मुझे दी थी, उसके द्वारा आवाहन करने पर कोई भी देवता आकर देवोपम पुत्र प्रदान करेगा, जो आपके संतानहीनताजनित शोक को दूर कर देगा; इस प्रकार मुझे संतान प्राप्त होगी और आपकी पुत्र कामना सफल हो जायगी। सत्यवानों में श्रेष्ठ नरेश! बताइये, मैं किस देवता का आवाहन करूं। आप समझ लें, मैं (आप के संतोषार्थ) इस कार्य के लिये तैयार हूँ। केवल आप से आज्ञा मिलने की प्रतीक्षा में हूँ।'
पाण्डु बोले ;- प्रिये! मैं धन्य हूं, तुमने मुझ पर महान् अनुग्रह किया। तुम्हीं मेरे कुल को धारण करने वाली हो। उन महर्षि को नमस्कार है, जिन्होंने तुम्हें वैसा वर दिया। धर्म! अधर्म से प्रजा का पालन नहीं हो सकता। इसलिये वरारोहे! तुम आज ही विधिपूर्वक इसके लिये प्रयत्न करो। शुभे! सबसे पहले धर्म का आवाहन करो, क्योंकि वे ही सम्पूर्ण लोकों में धर्मात्मा हैं। (इस प्रकार करने पर) हमारा धर्म कभी किसी तरह अधर्म से संयुक्त नहीं हो सकता। वरारोहे! लोक भी उनको साक्षात् धर्म का स्वरूप मानता है। धर्म से उत्पन्न होने वाला पुत्र कुरुवंशियों में सबसे अधिक धर्मात्मा होगा- इसमें संशय नहीं है। धर्म के द्वारा दिया हुआ जो पुत्र होगा, उसका मन अधर्म में नहीं लगेगा। अत: शुचिस्मिते तुम मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर धर्म को भी सामने रखते हुए उपचार (पूजा) और अभिचार (प्रयोग विधि) के द्वारा धर्म देवता का आवाहन करो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! अपने पति पाण्डु के यों कहने पर नारियों में श्रेष्ठ कुन्ती ने 'तथास्तु' कहकर उन्हें प्रणाम किया और आज्ञा लेकर उनकी परिक्रमा की।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में कुंती को पुत्रोत्पत्ति के लिये आदेशविषयक एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ बाईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंशत्यलधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)
"युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब गान्धारी को गर्भ धारण किये एक वर्ष बीत गया, उस समय कुन्ती ने गर्भ धारण करने के लिये अच्युत स्वरुप भगवान् धर्म का आवाहन किया। देवी कुन्ती ने बड़ी उतावली के साथ धर्म देवता के लिये पूजा के उपहार अर्पित किये। तत्पश्चात् पूर्वकाल में महर्षि दुर्वासा ने जो मन्त्र दिया था, उसका विधिपूर्वक जप किया। तब मन्त्र बल से आकृष्ट हो भगवान् धर्म सूर्य के समान तेजस्वी विमान पर बैठकर उस स्थान पर आये, जहाँ कुन्ती देवी जप में लगी हुई थी।
तब धर्म ने हंसकर कहा ;- ‘कुन्ती! बोलो, तुम्हें क्या दूं?’ धर्म के द्वारा हास्यपूर्वक इस प्रकार पूछने पर,,
कुन्ती बोली ;- ‘मुझे पुत्र दीजिये’।
तदनन्तर योगमूर्ति धारण किये हुए धर्म के साथ समागम करके सुन्दरांगी कुन्ती ने ऐसा पुत्र प्राप्त किया, जो समस्त प्राणियों का हित करने वाला था। तदनन्तर जब चन्द्रमा ज्येष्ठ नक्षत्र पर थे, सूर्य तुला राशि पर विराजमान थे, शुक्ल पक्ष की ‘पूर्णा’ नाम वाली पंचमी तिथी थी और अत्यन्त श्रेष्ठ अभिजित् नामक आठवां मुहूर्त विद्यमान था; उस समय कुन्तीदेवी ने एक उत्तम पुत्र को जन्म दिया, जो महान् यशस्वी था।
उस पुत्र के जन्म लेते ही आकाशवाणी हुई ;- ‘यह श्रेष्ठ पुरुष धर्मात्माओं में अग्रगण्य होगा और इस पृथ्वी पर पराक्रमी एवं सत्यवादी राजा होगा। पाण्डु का यह प्रथम पुत्र ‘युधिष्ठिर’ नाम से विख्यात हो तीनों लोकों में प्रसिद्धि एवं ख्याति प्राप्त करेगा; यह यशस्वी, तेजस्वी तथा सदाचारी होगा’।
उस धर्मात्मा पुत्र को पाकर राजा पाण्डु ने पुन: (आग्रहपूर्वक) कुन्ती से कहा ;- प्रिये! क्षत्रिय को बल से बड़ा कहा गया है। अत: एक ऐसे पुत्र का वरण करो, जो बल में सबसे श्रेष्ठ हो। जैसे अश्वमेध सब यज्ञों में श्रेष्ठ है, सूर्यदेव सम्पूर्ण प्रकाश करने वालों में प्रधान हैं और ब्राह्मण मनुष्यों में श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार वायुदेव बल में सबसे बढ़-चढ़कर हैं। अत: सुन्दरी! अबकी बार तुम पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्य से समस्त प्राणियों द्वारा प्रशंसित देव श्रेष्ठ वायु का विधिपूर्वक आवाहन करो। वे हम लोगों के लिये जो पुत्र देंगे, वह मनुष्यों में सबसे अधिक प्राण शक्ति से सम्पन्न और बलवान होगा। स्वामी के इस प्रकार कहने पर कुन्ती ने तब वायुदेव का ही आवाहन किया। तब महाबली वायु मृग पर आरुढ़ हो कुन्ती के पास आये और यों बोले,,
वायु बोले ;- कुन्ती! तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, वह कहो। मैं तुम्हें क्या दूं?
कुन्ती ने लज्जित होकर मुस्कराते हुए कहा ;- सुरश्रेष्ठ! मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये जो महाबली और विशालकाय होने के साथ ही सबके घमण्ड को चूर करने वाला हो।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंशत्यलधिकशततम अध्याय के श्लोक 14-24 का हिन्दी अनुवाद)
वायुदेव से भयंकर पराक्रमी महाबाहु भीम का जन्म हुआ। जनमेजय! उस महाबली पुत्र को लक्ष्य करके,,
आकाशवाणी ने कहा ;- यह कुमार समस्त बलवानों में श्रेष्ठ है। भीमसेन के जन्म लेते ही एक अद्भुत घटना यह हुई कि अपनी माता की गोद से गिरने पर उन्होंने अपने अंगों से एक पर्वत की चट्टान को चूर-चूर कर दिया। बात यह थी कि यदुकुलनन्दनी कुन्ती प्रसव के दसवें दिन पुत्र को गोद में लिये उसके साथ एक सुन्दर सरोवर के निकट गयी और स्नान करके लौटकर देवताओं की पूजा करने के लिये कुटिया से बाहर निकली। भरतनन्दन! वह पर्वत के समीप होकर जा रही थी कि इतने में ही उसको मार डालने की इच्छा से एक बहुत बड़ा व्याघ्र उस पर्वत की कन्दरा से बाहर निकल आया। देवताओं के समान पराक्रमी कुरुश्रेष्ठ पाण्डु ने उस व्याघ्र को दौड़कर आते देख धनुष खींच लिया और तीन बाणों से मारकर उसे विदीर्ण कर दिया। उस समय वह अपनी विकट गर्जना से पर्वत की सारी गुफा का प्रतिध्वनित कर रहा था। कुन्ती बाघ के भय से सहसा उछल पड़ी। उस समय उसे इस बात का ध्यान नहीं रहा कि मेरी गोदी में भीमसेन सोया हुआ है। उताबले में वह वज्र के समान शरीर वाला कुमार पर्वत के शिखर पर गिर पड़ा। गिरते समय उसने अपने अंगों से उस पर्वत की शिला को चूर्ण-विचूर्ण कर दिया।
पत्थर की चट्टान को चूर-चूर हुआ देख महाराज पाण्डु बड़े आश्चर्य में पड़ गये। जब चन्द्रमा मघा नक्षत्र पर विराजमान थे, बृहस्पति सिंह लग्न में सुशोभित थे, सूर्यदेव दोपहर के समय आकाश के मध्य भाग में तप रहे थे, उस समय पुण्यमयी त्रयोदशी तिथी को मैत्र मुहूर्त में कुन्ती देवी ने अविचल शक्ति वाले भीमसेन को जन्म दिया था। भरतश्रेष्ठ भूपाल! जिस दिन भीमसेन का जन्म हुआ था, उसी दिन हस्तिनापुर में दुर्योधन की भी उत्पत्ति हुई। भीमसेन के जन्म लेने पर पाण्डु ने फिर इस प्रकार विचार किया कि मैं कौन-सा उपाय करूं, जिससे मुझे सब लोगों से श्रेष्ठ उत्तम पुत्र प्राप्त हो। यह संसार दैव तथा पुरुषार्थ पर अबलम्बित है। इनमें दैव तभी सुलभ (सफल) होता है, जब समय पर उद्योग किया जाय। मैंने सुना है कि देवराज इन्द्र ही सब देवताओं में प्रधान हैं, उनमें अथाह बल और उत्साह है। वे बड़े पराक्रमी एवं अपार तेजस्वी हैं। मैं तपस्या द्वारा उन्हीं को संतुष्ट करके महाबली पुत्र प्राप्त करूंगा। वे मुझे जो पुत्र देंगे, वह निश्चय ही सबसे श्रेष्ठ होगा तथा संग्राम में अपना सामना करने वाले मनुष्यों तथा मनुष्येतर प्राणियों (दैत्य-दानव आदि) को भी मारने में समर्थ होगा। अत: मैं मन, वाणी और क्रिया द्वारा बड़ी भारी तपस्या करूंगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंशत्यलधिकशततम अध्याय के श्लोक 25-43 का हिन्दी अनुवाद)
ऐसा निश्चय करके कुरुनन्दन महाराज पाण्डु ने महर्षियों से सलाह लेकर कुन्ती को शुभदायक सांवत्सर व्रत का उपदेश दिया। और भारत! वे महाबाहु धर्मात्मा पाण्डु स्वयं देवताओं के ईश्वर इन्द्रदेव की आराधना करने के लिये चित्तवृत्तियों को अत्यन्त एकाग्र करके एक पैर से खड़े हो सूर्य के साथ-साथ उग्र तप करने लगे अर्थात सूर्योदय होने के समय एक पैर से खड़े होते और सूर्यास्त तक उसी रूप में खड़े रहते। इस तरह दीर्घकाल व्यतीत हो जाने पर इन्द्रदेव उन पर प्रसन्न हो उनके समीप आये और इस प्रकार बोले। इन्द्र ने कहा- राजन्! मैं तुम्हें ऐसा पुत्र दूंगा, जो तीनों लोगों में विख्यात होगा। वह ब्राह्मणों, गौओं तथा सुहृदों के अभीष्ट मनोरथ की पूर्ति करने वाला, शत्रुओं को शोक देने वाला और समस्त बन्धु-बान्धवों को आनन्दित करने वाला होगा, मैं तुम्हें सम्पूर्ण शत्रुओं का विनाश करने वाला सर्वश्रेष्ठ पुत्र प्रदान करूंगा।
महात्मा इन्द्र के यों कहने पर धर्मात्मा कुरुनन्दन महाराज पाण्डु बड़े प्रसन्न हुए और देवराज के वचनों का स्मरण करते हुए कुन्ती देवी से बोले- कल्याणि! तुम्हारे व्रत का भावी परिणाम मंगलमय है। देवताओं के स्वामी इन्द्र हम लोगों पर संतुष्ट हैं। यह अलौकिक कर्म करने वाला, यशस्वी, शत्रुदमन, नीतीज्ञ, महामना, सूर्य के समान तेजस्वी, दुधर्ष, कर्मठ तथा देखने में अत्यन्त अद्भुत होगा। सुश्रोणि! अब ऐसे पुत्र को जन्म दो, जो क्षत्रियोचित तेज का भंडार हो। पवित्र मुस्कान वाली कुन्ती! मैंने देवेन्द्र की कृपा प्राप्त कर ली है। अब तुम उन्हीं का आवाहन करो।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज पाण्डु के यों कहने पर यशस्विनी कुन्ती ने इन्द्र का आवाहन किया। तदनन्तर देवराज इन्द्र आये और उन्होंने अर्जुन को जन्म दिया। वह फाल्गुन मास में दिन के समय पूर्वाफल्गुनी और उत्तग-फल्गुनी नक्षत्रों के संधिकाल में उत्पन्न हुआ। फाल्गुन मास और फल्गुनी नक्षत्र में जन्म लेने के कारण उस बालक का नाम फाल्गुन हुआ। कुमार अर्जुन के जन्म लेते ही अत्यन्त गम्भीर नाद से समूचे आकाश को गुंजाती हुई आकाशवाणी ने पवित्र मुस्कान वाली कुन्ती को सम्बोधित करके समस्त प्राणियों और आश्रमवासियों के सुनते हुए अत्यन्त स्पष्ट भाषा में इस प्रकार कहा,,
आकाश वाणी बोली ;- कुन्ति भोजकुमारी! यह बालक कार्तवीर्य अर्जुन के समान तेजस्वी, भगवान् शिव के समान पराक्रमी और देवराज इन्द्र के समान अजेय होकर तुम्हारे यश का विस्तार करेगा। जैसे भगवान् विष्णु ने वामन रूप में प्रकट होकर देव माता अदिति के हर्ष को बढ़ाया था, उसी प्रकार ये विष्णु तुल्य अर्जुन तुम्हारी प्रसन्नता को बढ़ायेगा।
तुम्हारा यह वीर पुत्र मद्र, कुरु, सोमक, चेदि, काशि तथा करुष नामक देशों को वश में करके कुरुवंश की लक्ष्मी का पालन करेगा। वीर अर्जुन उत्तर दिशा में जाकर वहाँ के राजाओं को युद्ध में जीतकर असंख्य धन-रत्नों की राशि लें आयेगा। इसके बाहुबल से खाण्डव वन में अग्निदेव समस्त प्राणियों के मेद का आस्वादन करके पूर्ण तृप्ति लाभ लेंगे। यह महाबली श्रेष्ठ वीर बालक समस्त क्षत्रिय समूह का नायक होगा और युद्ध में भूमिपालों को जीतकर भाइयों के साथ तीन अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करेगा। कुन्ती! यह परशुराम के समान वीर योद्धा, भगवान् विष्णु के समान पराक्रमी, बलवानों में श्रेष्ठ और महान् यशस्वी होगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंशत्यलधिकशततम अध्याय के श्लोक 44-70 का हिन्दी अनुवाद)
यह युद्ध में देवाधिदेव भगवान् शंकर को संतुष्ट करेगा और संतुष्ट हुए उन महेश्वर से पाशुपत नामक अस्त्र प्राप्त करेगा। निवात कवच नामक दैत्य देवताओं से सदा द्वैष रखते हैं, तुम्हारा यह महाबाहु पुत्र इन्द्र की आज्ञा से उन सब दैत्यों का संहार कर डालेगा। तथा पुरुषों में श्रेष्ठ यह अर्जुन सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों का पूर्ण रुप से ज्ञान प्राप्त करेगा और अपनी खोयी हुई सम्पत्ति को पुन: वापस ले आयेगा। कुन्ती ने सौरी में से ही यह अत्यन्त अद्भुत बात सुनी। उच्चस्वर में उच्चारित वह आकाशवाणी सुनकर शतश्रृंग निवासी तपस्वी मुनियों तथा विमानों पर स्थित इन्द्र आदि देवसमूहों को बड़ा हर्ष हुआ। फिर झुंड-के-झुंड देवता वहाँ एकत्र होकर अर्जुन की प्रशंसा करने लगे। कद्रू के पुत्र (नाग), विनता के पुत्र (गरुड़ पक्षी), गन्धर्व, अप्सराऐं, प्रजापति, सप्तर्षिगण- भरद्वाज, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र, जगदग्नि, वसिष्ठ तथा जो नक्षत्र के रुप में सर्यास्त होने के पश्चात् उदित होते हैं, वे भगवान् अत्रि भी वहाँ आये मरीचि और अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु एवं प्रजापति दक्ष, गन्धर्व तथा अप्सराऐं भी आयीं। उन सबने दिव्य हार और दिव्य वस्त्र धारण कर रक्खे थे। वे सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित थे। अप्सराओं का पूरा दल वहाँ जुट गया था। वे सभी अर्जुन के गुण गाने और नृत्य करने लगीं।
महर्षि वहाँ सब ओर खड़े होकर मांगलिक मन्त्रों को जप करने लगे। गन्धर्वों के साथ श्रीमान तुम्बुरु ने मधुर स्वर गीत गाना प्रारम्भ किया। भीमसेन तथा उग्रसेन, ऊर्णायु और अनघ, गोपति एवं धृतराष्ट्र, सूर्यवर्चा, तथा आठवें युगप, तृणप, कार्ष्णि, नन्दि एवं चित्ररथ, तेरहवें शालिशिरा और चौदहवें पर्जन्य, पंद्रहवें कलि और सोलहवें नारद, ॠवा और बृहत्वा, बृहक एवं महामना कराल, ब्रह्मचारी तथा विख्यात गुणवान सुवर्ण, विश्वावसु एवं भुमन्यु, सुचन्द्र और शरु तथा गीत माधुर्य से सम्पन्न सुविख्यात हाहा और हुहु- राजन्! ये सब देव गन्धर्व वहाँ पधारे थे। इसी प्रकार समस्त आभूषणों से विभूषित बडे़-बड़े नेत्रों वाली परमसौभाग्यशालिनी अप्सराऐं भी हर्षोल्लास में भरकर वहाँ नृत्य करने लगीं। उनके नाम इस प्रकार हैं- अनूचाना और अनवद्या, गुणमुख्या एवं गुणावरा, अद्रिका तथा सोमा, मिश्रकेशी और अलम्बुषा, मरीचि और शुचिका, विद्युत्पर्णा, तिलोत्तमा, अम्बिका, लक्षणा, क्षेमा, देवी, रंभा, मनोरमा, असिता और सुबाहु, सुप्रिया एवं वपु, पुण्डरीका एवं सुगन्धा, सुरसा और प्रमाथिनी, काम्या तथा शारद्वती आदि।
ये झुंड-की झुंड अप्सराऐं नाचने लगीं। इनमें मेनका, सहजन्या, कर्णिका और पुञ्जिकस्थला, ऋतुस्थली एवं घृताची, विश्वाची और पूर्वचित्ति, उम्लोचा और प्रम्लोचा- ये दस विख्यात हैं। इन्हीं प्रधान अप्सराओं की श्रेणी में ग्यारहवीं उर्वशी है। ये सभी विशाल नेत्रों वाली सुन्दरियां वहाँ गीत गाने लगीं। धाता और अर्यमा, मित्र और वरुण, अंश एवं भग, इन्द्र, विवस्वान् और पूषा, त्वष्टा एवं सविता, पर्जन्य तथा विष्णु- ये बारह आदित्य माने गये हैं। ये सभी पाण्डुनन्दन अर्जुन का महत्त्व बढ़ाते हुए आकाश में खड़े थे। शत्रुदमन महाराज! मृगव्याघ और सर्प, महायशस्वी निर्ॠति एवं अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य और पिनाकी, दहन तथा ईश्वर, कपाली एवं स्थाणु तथा भगवान् भग- ये ग्यारह रुद्र भी वहाँ आकाश में आकर खड़े थे। दोनों अश्विनी कुमार तथा आठों वसु, महाबली मरुद्रण एवं विश्वेदेवगण तथा साध्यगण वहाँ सब ओर विद्यमान थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वाविंशत्यलधिकशततम अध्याय के श्लोक 71-78 का हिन्दी अनुवाद)
कर्कोटक सर्प तथा बासुकि नाग, कश्यप और कुण्ड, महानाग और तक्षक- ये तथा और भी बहुत-से महाबली, महाक्रोधी और तपस्वी वहाँ आकर खड़े थे। ताक्षर्य और अरिष्टनेमि, गरुड़ एवं असितध्वज, अरुण तथा आरुणि- विनता के ये पुत्र भी उस उत्सव में उपस्थित थे। वे सब देवगण और पर्वत के शिखर पर खड़े थे। उन्हें तप:सिद्ध महर्षि ही देख पाते थे, दूसरे लोग नहीं। वह महान् आश्चर्य देखकर वे श्रेष्ठ मुनिगण बड़े विस्मय में पड़े। तब से पाण्डवों के प्रति उनमें अधिक प्रेम और आदर का भाव पैदा हो गया। तदतन्तर महायशस्वी राजा पाण्डुपुत्र- लोमस से आकृष्ट हो अपनी धर्मपत्नी कुन्ती से फिर कुछ कहना चाहते थे, किंतु कुन्ती उन्हें रोकती हुई बोली,,
कुन्ती बोली ;- 'आर्यपुत्र! आपत्ति काल में भी तीन से अधिक चौथी संतान उत्पन्न करने की आज्ञा शास्त्रों ने नहीं दी है। इस विधि के द्वारा तीन से अधिक चौथी संतान चाहने वाली स्त्री स्वैरिणी होती है और पांचवें पुत्र के उत्पन्न होने पर वह कुलटा समझी जाती है। विद्वन्! आप धर्म को जानते हुए भी प्रमाद से कहने वाले के समान धर्म का लोप करके अब फिर मुझे संतानोत्पत्ति के लिये क्यों प्रेरित कर रहे हैं।'
पाण्डु ने कहा ;- प्रिये! वास्तव में धर्मशास्त्र का ऐसा ही मत है। तुम जो कुछ कहती हो, वह ठीक है।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में पाण्डवों की उत्पत्तिविषयक एक सौ बाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ तैईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोविंशत्याधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"नकुल और सहदेव की उत्पत्ति तथा पाण्डु-पुत्रों के नामकरण-संस्कार"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! जब कुन्ती के तीन पुत्र उत्पन्न हो गये और धृतराष्ट्र के भी सौ पुत्र हो गये, तब माद्री ने पाण्डु से एकान्त में कहा- शत्रुओं को संताप देने वाले निष्पाप कुरुनन्दन! आप संतान उत्पन्न करने की शक्ति से रहित हो गये, आपकी इस न्यूनता या दुर्बलता को लेकर मेरे मन में काई संताप नहीं है। यद्यपि मैं सदा कुन्ती देवी की अपेक्षा श्रेष्ठ होने के कारण पटरानी के पद पर बैठने की अधिकारिणी थी, तो भी जो सदा मुझे छोटी बनकर रहना पड़ता है, इसके लिये भी मुझे कोई दु:ख नहीं है। राजन! गान्धारी तथा राजा धृतराष्ट्र के जो सौ पुत्र हुए हैं, वह समाचार सुनकर भी मुझे वैसा दु:ख नहीं हुआ था। परंतु इस बात का मेरे मन में बहुत दु:ख है कि मैं और कुन्ती देवी दोनों समान रूप से आपकी पत्नियां हैं, तो भी उन्हें तो पुत्र हुआ और मैं संतानहीन ही रह गयी। यह सौभाग्य की बात है कि इस समय मेरे प्राणनाथ को कुन्ती के गर्भ से पुत्र की प्राप्ति हो गयी है। यदि कुन्ति राजकुमारी मेरे गर्भ से भी कोई संतान उत्पन्न करा सकें, तो यह उनका मेरे ऊपर महान् अनुग्रह होगा और इससे आपका भी हित हो सकता है। सौत होने के कारण मेरे मन में एक अभिमान है, जो कुन्ती देवी से कुछ निवेदन करने में बाधक हो रहा है; अत: यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो आप स्वयं ही मेरे लिये कुन्ती देवी को प्रेरित कीजिये।
पाण्डु बोले ;- माद्री! यह बात मेरे मन में भी निरन्तर घूमती रहती है, किंतु इस विषय में तुमसे कुछ कहने का साहस नहीं होता था; क्योंकि पता नहीं, तुम यह प्रस्ताव सुनकर प्रसन्न होओगी या बुरा मान जाओगी। यह संदेह बराबर बना रहता था। परंतु आज इस विषय में तुम्हारी सम्मत्ति जानकर अब मैं इसके लिये प्रयत्न करूंगा। मुझे विश्वास है, मेरे कहने पर कुन्ती देवी निश्चय ही मेरी बात मान लेंगी।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब राजा पाण्डु ने एकान्त में कुन्ती से यह बात कही,,
पाण्डु बोले ;- कल्याणि! मेरी कुल-परम्परा का विच्छेद न हो और सम्पूर्ण जगत् का प्रिय हो, ऐसा कार्य करो। मेरे तथा अपने पूर्वजों के लिये पिण्ड का अभाव न हो और मेरा भी प्रिय हो, इसके लिये तुम परम उत्तम कल्यणमय कार्य करो। अपने यश का विस्तार करने के लिये तुम अत्यन्त दुष्कर कर्म करो, जैसे इन्द्र ने स्वर्ग का साम्राज्य प्राप्त कर लेने के बाद भी केवल यश की कामना से अनेका-नेक यज्ञों का अनुष्ठान किया था। भामिनी! मन्त्रवेत्ता ब्राह्मण अत्यन्त कठोर तपस्या करके भी यश के लिये गुरुजनों की शरण ग्रहण करते हैं। सम्पूर्ण राजर्षियों तथा तपस्वी ब्राह्मणों ने भी यश के लिये छोटे-बड़े कठिन कर्म किये हैं। अनिन्दते! इसी प्रकार तुम भी इस माद्री को नौका पर बिठाकर पार लगा दो; इसे भी संतति देकर उत्तम यश प्राप्त करो।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोविंशत्याधिकशततम अध्याय के श्लोक 15-31 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! महाराज पाण्डु के यों कहने पर,,
कुन्ती ने माद्री से कहा ;- तुम एक बार किसी देवता का चिन्तन करो, उससे तुम्हें योग्य संतान की प्राप्ति होगी, इसमें संशय नहीं है। तब माद्री ने मन-ही-मन कुछ विचार करके दोनों अश्विनीकुमारों का स्मरण किया। तब उन दोनों ने आकर माद्री के गर्भ से दो जुड़वे पुत्र उत्पन्न किये। उनमें से एक का नाम नकुल था और दूसरे का सहदेव। पृथ्वी पर सुन्दर रुप में उन दोनों की समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं था। पहले की तरह उन दोनों यमल संतानों के विषय में भी,,
आकाशवाणी ने कहा ;- 'ये दोनों बालक अश्विनीकुमारों से भी बढ़कर बुद्धि, रुप और गुणों से सम्पन्न होंगे। अपने तेज तथा बढ़ी-चढ़ी रूप सम्पत्ति के द्वारा ये दोनों सदा प्रकाशित रहेंगे।'
तदनन्तर शतश्रंग निवासी ऋषियों ने उन सबके नामकरण संस्कार किये। उन्हें आशीर्वाद देते हुए उनकी भक्ति और कर्म के अनुसार उनके नाम रखे। कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र का नाम युधिष्ठिर, मझले का नाम भीमसेन और तीसरे का नाम अर्जुन रखा गया। उन प्रसन्नचित्त ब्राह्मणों ने माद्रीपुत्रों से जो पहले उत्पन्न हुआ, उसका नाम नकुल और दूसरे का सहदेव निश्चित किया। वे कुरुश्रेष्ठ पाण्डवगण प्रतिवर्ष एक-एक करके उत्पन्न हुए थे, तो भी देवस्वरुप होने के कारण पांच संवत्सरों की भाँति एक-से सुशोभित हो रहे थे। वे सभी महान् धैर्यशाली, अधिक वीर्यवान् महाबली और पराक्रमी थे। उन देवस्वरुप महा तेजस्वी पुत्रों को देखकर महाराज पाण्डु को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्द में मग्न हो गये। वे सभी बालक शतश्रंग निवासी समस्त मुनियों और मुनि पत्नियों के प्रिय थे।
तनदन्तर पाण्डु ने माद्री से संतान की उत्पत्ति कराने के लिये कुन्ती को पुन: प्रेरित किया। राजन्! जब एकान्त में पाण्डु ने कुन्ती से वह बात कही,
तब सती कुन्ती पाण्डु से इस प्रकार बोली ;- 'महाराज! मैंने इसे एक पुत्र के लिये नियुक्त किया था, किंतु इसने दो पा लिये। इससे मैं ठगी गयी। अब तो मैं इसके द्वारा मेरा तिरस्कार न हो जाय, इस बात के लिये डरती हूँ। खोटी स्त्रियों की ऐसी ही गति होती है। मैं ऐसी मूर्खा हूँ कि मेरी समझ में यह बात नहीं आयी कि दो देवताओं के आवाहन से दो पुत्र रुप फल की प्राप्ति होती है। अत: राजन्! अब मुझे इसके लिये आप इस कार्य में नियुक्त न कीजिये। मैं आपसे यही वर मांगती हूँ।'
इस प्रकार पाण्डु के देवताओं के दिये हुए पांच महाबली पुत्र उत्पन्न हुए, जो यशस्वी होने के साथ ही कुरुकुल की वृद्धि करने वाले और उत्तम लक्षणों से सम्पन्न थे। चन्द्रमा की भाँति उनका दर्शन सबको प्रिय लगता था। उनका अभिमान सिंह के समान था, वे बड़े-बड़े धनुष धारण करते थे। उनकी चाल-ढाल भी सिंह के ही समान थी। देवताओं के समान पराक्रमी तथा सिंह की-सी गर्दन वाले वे नरश्रेष्ठ बढ़ने लगे। उस पुण्यमय हिमालय के शिखर पर पलते और पुष्ट होते हुए वे पाण्डुपुत्र वहाँ एकत्र होने वाले महर्षियों को आश्चर्य-चकित कर देते थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोविंशत्याधिकशततम अध्याय के श्लोक 32 का हिन्दी अनुवाद)
शतश्रंग निवासी तपस्वी मुनि पाण्डु के पुत्रों को जन्मकाल से ही संरक्षण में लेकर अपने औरस-पुत्रों की भाँति उनका लाड़-प्यार करते थे। उधर द्वारका में वसुदेव आदि सब वृष्णिवंशी राजा पाण्डु के विषय में इस प्रकार विचार कर रहे थे- 'अहो! राजा पाण्डु किंदम मुनि के शाप से भयभीत हो शतश्रृंग पर्वत पर चले गये हैं और वहीं ऋषि-मुनियों के साथ तपस्या में तत्पर हो पूरे तपस्वी बन गये हैं। वे शाक, मूल और फल भोजन करते हैं, तप में लगे रहते हैं, इन्द्रियों को काबू में रखते हैं और सदा ध्यानयोग का ही साधन करते हैं। ये बातें बहुत-से संदेश बाहक मनुष्य बता रहे थे।' यह समाचार सुनकर प्राय: सभी यदुवंशी उनके प्रेमी होने के नाते शोकमग्न रहते थे। वे सोचते थे- 'कब हमें महाराज पाण्डु का शुभ संवाद सुनने को मिलेगा।' एक दिन अपने भाई-बन्धुओं के साथ बैठकर सब वृष्णिवंशी जब इस प्रकार पाण्डु के विषय में कुछ बातें कर रहे थे, उसी समय उन्होंने पाण्डु के पुत्र होने का समाचार सुना। सुनते ही सब-के-सब हर्ष विभोर हो उठे और परस्पर सद्भाव प्रकट करते हुए वसुदेव जी से इस प्रकार बोले-
वृष्णियों ने कहा ;- महायशस्वी वसुदेव जी! हम चाहते हैं कि राजा पाण्डु के पुत्र संस्कारहीन न हों; अत: आप पाण्डु के प्रिय और हित की इच्छा रखकर उनके पास किसी पुरोहित को भेजिये।।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तब बहुत अच्छा कहकर वसुदेव जी ने पुरोहित को भेजा; साथ ही उन कुमारों के लिये उपयोगी अनेक प्रकार की वस्त्राभूषण-सामग्री भी भेजी। कुन्ती और माद्री के लिये भी दासी, दास, वस्त्राभूषण आदि आवश्यक सामान, गौऐं, चांदी और सुवर्ण भिजवाये। उन सब सामग्रियों को एकत्र करके अपने साथ ले पुरोहित ने वन को प्रस्थान किया। शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले राजा पाण्डु ने पुरोहित द्विजश्रेष्ठ काश्यप के आने पर उनका विधिपूर्वक पूजन किया। कुन्ती और माद्री ने प्रसन्न होकर वसुदेव जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तब पाण्डु ने अपने पुत्रों के गर्भाधान से लेकर चूड़ाकरण और उपनयन तक सभी संस्कार-कर्म करवाये। भारत! पुरोहित काश्यप ने उनके सब संस्कार सम्पन्न किये। बैलों के समान बड़े-बड़े नेत्रों वाले वे यशस्वी पाण्डव चूड़ाकरण और उपनयन के पश्चात उपाकर्म करके वेदाध्ययन में लगे और उसमें पारंगत हो गये। भारत! शर्यातिवंशज के एक पुत्र पृषत् थे, जिनका नाम था शुक। वे अपने पराक्रम से शत्रुओं को संतप्त करने वाले थे। उन शुक ने किसी समय अपने धनुष के बल से जीतकर समुद्रपर्यन्त सारी पृथ्वी पर अधिकार कर लिया था। अश्वमेध- जैसे सौ बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान एवं सम्पूर्ण देवताओं तथा पितरों की आराधना करके परमबुद्धिमान् महात्मा राजा शुक शतश्रृंग पर्वत पर आकर शाक और फल–मूल का आहार करते हुए तपस्या करने लगे। उन्हीं तपस्वी नरेश ने श्रेष्ठ उपकरणों और शिक्षा के द्वारा पाण्डवों की योग्यता बढ़ायी।
राजर्षि शुक के कृपा-प्रसाद से सभी पाण्डव धनुर्वेद में पारंगत हो गये। भीमसेन गदा-संचालन में पारंगत हुए और युधिष्ठिर तोमर फेंकने में। धैर्यवान् और शक्तिशाली पुरुषों में श्रेष्ठ दोनों माद्रीपुत्र ढाल-तलवार चलाने की कला में निपुण हुए। परंतप सव्यसाची अर्जुन धनुर्वेद के पारगामी विद्वान् हुए। राजन्! जब दाताओं में श्रेष्ठ शकु ने जान लिया कि अर्जुन मेरे समान धनुर्वेद के ज्ञाता हो गये, तब उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर शक्ति, खड्ग, बाण, ताड़ के समान विशाल अत्यन्त चमकीला धनुष तथा विपाठ, क्षुर एवं नाराच अर्जुन को दिये। विपाठ आदि सभी प्रकार के बाण गीध की पांखों से युक्त तथा अलंकृत थे। वे देखने में बड़े-बड़े सर्पों के समान जान पड़ते थे। इन सब अस्त्र-शस्त्रों को पाकर इन्द्रपुत्र अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अनुभव करने लगे कि भूमण्डल के कोई भी नरेश तेज में मेरी समानता नहीं कर सकते। शत्रुदमन पाण्डवों की आयु में परस्पर एक-एक वर्ष का अन्तर था। कुन्ती और माद्री दोनों देवियों के पुत्र दिन-दिन बढ़ने लगे। फिर तो जैसे जल में कमल बढ़ता है, उसी प्रकार कुरुवंश की वृद्धि करने वाले जो एक सौ पांच बालक हुए थे, वे सब थोड़े ही समय में बढ़कर सयाने हो गये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में पाण्डवों की उत्पत्तिविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ चौईसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा पाण्डु की मृत्यु और माद्री का उनके साथ चितारोहण"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस महान् वन में रमणीय पर्वत-शिखर पर महाराज पाण्डु उन पांचों दर्शनीय पुत्रों को देखते हुए अपने बाहुबल के सहारे प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे। एक दिन की बात है, बुद्धिमान् अर्जुन का चौदहवां वर्ष पूरा हुआ था। उनकी जन्म-तिथी को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ब्राह्मण लोगों ने स्वस्तिवाचन प्रारम्भ किया। उस समय कुन्ती देवी को महाराज पाण्डु की देख-भाल का ध्यान न रहा। वे ब्राह्मणों को भोजन कराने में लग गयीं। पुरोहित के साथ स्वयं ही उनको रसोई परोसने लगीं। इसी समय काम मोहित पाण्डु माद्री को बुलाकर अपने साथ ले गये। उस समय चैत्र और वैशाख के महीनों की संधि का समय था, समूचा वन भाँति-भाँति के सुन्दर पुष्पों से अलंकृत हो अपनी अनुपम शोभा से समस्त प्राणियों को मोहित कर रहा था, राजा पाण्डु अपनी छोटी रानी के साथ वन में विचरने लगे।
पलाश, तिलक, आम, चम्पा, पारिभद्रक तथा और भी बहुत-से वृक्ष-फूलों की समृद्धि से भरे हुए थे। जो उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। नाना प्रकार के जलाशयों तथा कमलों से सुशोभित उस वन की मनोहर छटा देखकर राजा पाण्डु के मन में काम का संचार हो गया। वे मन में हर्षोल्लास भरकर देवता की भाँति वहाँ विचर रहे थे। उस समय माद्री सुन्दर वस्त्र पहिने अकेली उनके पीछे-पीछे जा रही थी। वह युवावस्था से युक्त थी और उसके शरीर पर झीनी-झीनी साड़ी सुशोभित थी। उसकी ओर देखते ही पाण्डु के मन में कामना की आग जल उठी, मानो घने वन में दावाग्नि प्रज्वलित हो उठी हो। एकान्त प्रदेश में कमलनयनी माद्री को अकेली देखकर राजा काम का वेग रोक न सके, वे पूर्णत: कामदेव के अधीन हो गये थे।
अत: एकान्त में मिली हुई माद्री को महाराज पाण्डु ने बलपूर्वक पकड़ लिया। देवी माद्री राजा की पकड़ से छूटने के लिये यथाशक्ति चेष्टा करती हुई उन्हें बार-बार रोक रही थी। परंतु उनके मन पर तो कामना का वेग सवार था; अत: उन्होंने मृग रूपधारी मुनि से प्राप्त शाप का विचार नहीं किया। कुरुनन्दन जनमेजय! वे काम के वश में हो गये थे, इसीलिये प्रारब्ध से प्रेरित हो शाप के भय की अवहेलना करके स्वयं ही अपने जीवन का अन्त करने के लिये बलपूर्वक मैथुन करने की इच्छा रखकर माद्री से लिपट गये। साक्षात् काल ने कामात्मा पाण्डु की बुद्धि मोह ली थी। उनकी बुद्धि सम्पूर्ण इन्द्रियों को मथकर विचार शक्ति के साथ स्वयं भी नष्ट हो गयी थी। कुरुकुल को आनन्दित करने वाले परम धर्मात्मा महाराज पाण्डु इस प्रकार अपनी धर्मपत्नी माद्री से समागम करके काल के गाल में पड़ गये। तब माद्री राजा के शव से लिपटकर बार-बार अत्यन्त दु:ख भरी वाणी में विलाप करने लगी। इतने में ही पुत्रों सहित कुन्ती और दोनों पाण्डुनन्दन माद्रीकुमार एक साथ उस स्थान पर आ पहुँचे, जहाँ राजा पाण्डु मृतकावस्था में पड़े थे।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 15-28 का हिन्दी अनुवाद)
जनमेजय! यह देख शोकातुर माद्री ने कुन्ती से कहा,,
माद्री बोली ;- बहिन! आप अकेली ही यहाँ आयें। बच्चों को वहीं रहने दें।। माद्री का यह वचन सुनकर कुन्ती ने सब बालकों को वहीं रोक दिया और हाय! मैं मारी गयी इस प्रकार आर्तनाद करती हुई सहसा माद्री के पास आ पहुँची। आकर उसने देखा, पाण्डु और माद्री धरती पर पड़े हुए हैं। यह देख कुन्ती के सम्पूर्ण शरीर में शोकाग्नि व्यात हो गयी और वह अत्यन्त दुखी होकर विलाप करने लगी- 'माद्री! मैं सदा वीर एवं जितेन्द्रिय महाराज की रक्षा करती आ रही थी। उन्होंने मृग के शाप की बात जानते हुए भी तुम्हारे साथ बलपूर्वक समागम कैसे किया? माद्री! तुम्हें तो महाराज की रक्षा करनी चाहिये थी। तुमने एकान्त में उन्हें लुभाया क्यों? वे तो उस शाप का चिन्तन करते हुए सदा दीन और उदास बने रहते थे, फिर तुझको एकान्त में पाकर उनके मन में कामजनित हर्ष कैसे उत्पन्न हुआ? बाह्लीक राजकुमारी! तुम धन्य हो, मुझसे बड़भागिनी हो; क्योंकि तुमने हर्षोल्लास से भरे हुए महाराज के मुखचन्द्र का दर्शन किया है।'
माद्री बोली ;- महारानी! मैंने रोते-बिलखते बार-बार महाराज को रोकने की चेष्टा की; परंतु वे तो उस शापजनित दुर्भाग्य को मोह के कारण मानो सत्य करना चाहते थे, इसलिये अपने-आपको रोक न सके।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! माद्री का यह वचन सुनकर कुन्ती शोकाग्नि ने संतप्त हो जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ी और गिरते ही मूर्च्छा आ जाने के कारण निश्चेष्ट पड़ी रही, हिल-डुल भी ना सकी। वह मूर्च्छावश अचेत हो गयी थी। माद्री ने उसे उठाया और कहा,,
माद्री बोली ;- 'बहिन! आइये, आइये!' यों कहकर उसने कुन्ती को कुरुराज पाण्डु का दर्शन कराया। कुन्ती उठकर पुन: महाराज पाण्डु के चरणों में गिर पड़ी। महाराज के मुख पर मुस्कराहट थी और ऐसा जान पड़ता था मानो वे अभी-अभी कोई बात कहने जा रहे हैं। उस समय मोहवश उन्हें हृदय ले लगाकर कुन्ती विलाप करने लगी। उसकी सारी इन्द्रियां व्याकुल हो गयी थीं।
इसी प्रकार माद्री भी राजा का आलिंगन करके करुण विलाप करने लगी। इस प्रकार मृत्यु शय्या पर पड़े हुए पाण्डु के पास चारणों सहित ऋषि-मुनि जुट आये और शोकवश आंसू बहाने लगे। अस्ताचल को पहुँचे हुए सूर्य तथा एकदम सूखे हुए समुद्र की भाँति नरश्रेष्ठ पाण्डु को देखकर सभी महर्षि शोकमग्न हो गये। उस समय ऋषियों को तथा पाण्डुपुत्रों को समान रूप से शोक का अनुभव हो रहा था। ब्राह्मणों ने पाण्डु की दोनों सती-साध्वी रानियों को समझा-बुझाकर बहुत आश्वासन दिया, तो भी उनका विलाप बंद नहीं हुआ। कुन्ती बोली- हा! महाराज! आप हम दोनों को किसे सौंपकर स्वर्गलोक में जा रहे हैं। हाय! मैं कितनी भाग्यहीना हूँ। मेरे राजा! आप किसलिये अकेली माद्री से मिलकर सहसा काल के गाल में चले गये। मेरा भाग्य नष्ट हो जाने के कारण ही आज वह दिन देखना पड़ा है। प्रजानाथ! युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव- इन प्यारे पुत्रों को किसके जिम्मे छोड़कर आप चले गये?
भारत! निश्चय ही देवता आपका अभिनन्दन करते होंगे; क्योंकि आपने ब्राह्मणों की मण्डली में रहकर कठोर तपस्या की है। अजमीढ़-कुलनन्दन! आपके पूर्वजों ने पुण्य-कर्मों द्वारा जिस गति को प्राप्त किया है, उसी शुभ स्वर्गीय गति को आप हम दोनों पत्नियों के साथ प्राप्त करेंगे। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार अत्यन्त विलाप करके कुन्ती और माद्री दोनों अचेत हो पृथ्वी पर गिर पड़ीं। युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डव वेद विद्या में पारंगत हो चुके थे, वे भी पिता के समीप जाकर संज्ञाशून्य हो पृथ्वी पर गिर पड़े। सभी पाण्डव पाण्डु के चरणों को हृदय से लगाकर विलाप करने लगे। कुन्ती ने कहा- माद्री! मैं इनकी ज्येष्ठ धर्म पत्नी हूं, अत: धर्म के ज्येष्ठ फल पर भी मेरा ही अधिकार है। जो अवश्यम्भावी बात है, उससे मुझे मत रोको। मैं मृत्यु के वश में पड़े हुए अपने स्वामी का अनुगमन करूंगी। अब तुम इन्हें छोड़कर उठो और इन बच्चों का पालन करो। पुत्रों को पाकर मेरा लौकिक मनोरथ पूर्ण हो चुका है; अब मैं पति के साथ दग्ध होकर वीर पत्नी का पद पाना चाहती हूँ।
माद्री बोली ;- रणभूमि से कभी पीठ न दिखाने वाले अपने पतिदेव के साथ मैं ही जाऊंगी; क्योंकि उनके साथ होने वाले कामभोग से मैं तृप्त नहीं हो सकी हूँ। आप बड़ी बहिन हैं, इसलिये मुझे आपको आज्ञा प्रदान करनी चाहिये। वे भरतश्रेष्ठ मेरे प्रति आसक्त हो मुझसे समागम करके मृत्यु को प्राप्त हुए हैं; अत: मुझे किसी प्रकार परलोक में पहुँचकर उनकी उस कामवासना की निवृत्ति करनी चाहिये। आर्ये! मैं आपके पुत्रों के साथ अपने सगे पुत्रों की भाँति बर्ताव नहीं कर सकूंगी। उस दशा में मुझे पाप लगेगा। अत: आप ही जीवित रहकर मेरे पुत्रों का भी अपने पुत्रों के समान ही पालन कीजियेगा। इसके सिवा ये महाराज मेरी ही कामना रखकर मृत्यु के अधीन हुए हैं।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 29 का हिन्दी अनुवाद)
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तदनन्तर तपस्वी ऋषियों ने सत्यपराक्रमी पाण्डवों को धीरज बंधाकर कुन्ती और माद्री को भी आश्वासन देते हुए कहा,,
तपस्वी ऋषि बोले ;- सुभगे! तुम दोनों के पुत्र अभी बालक हैं, अत: तुम्हें किसी प्रकार देह-त्याग नहीं करना चाहिये। हम लोग शत्रुदमन पाण्डवों को कौरव राष्ट्र की राजधानी में पहुँचा देंगे। राजा धृतराष्ट्र अधर्ममय धन के लिये लोभ रखता है, अत: वह कभी पाण्डवों के साथ यथा योग्य बर्ताव नहीं कर सकता। कुन्ती के रक्षक एवं सहायक वृष्णिवंशी और राजा कुन्तिभोज हैं तथा माद्री के बलवानों में श्रेष्ठ महारथी शल्य उसके भाई हैं। इसमें संदेह नहीं कि पति के साथ मृत्यु स्वीकार करना पत्नी के लिये महान् फलदायक होता है; तथापि तुम दोनों के लिये यह कार्य अत्यन्त कठोर है, यह बात सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण कहते हैं। जो स्त्री साध्वी होती है, वह अपने पति की मृत्यु हो जाने के बाद ब्रह्मचर्य के पालन में अविचल भाव से लगी रहती है, यम और नियमों के पालन का क्लेश सहन करती है और मन, वाणी एवं शरीर द्वारा किये जाने वाले शुभ कर्मों तथा कृच्छ्र चान्द्रायणदि व्रत, उपवास और नियमों का अनुष्ठान करती है। वह क्षार (पापड़ आदि) और लवण का त्याग करके एक बार ही भोजन करती और भूमि पर शयन करती है।
वह जिस प्रकार से अपने शरीर को सुखाने के प्रयत्न में लगी रहती है। किंतु विषयों के द्वारा नष्ट हुई बुद्धि वाली जो नारी देह को पुष्ट करने में ही लगी रहती है, वह तो इस (दुर्लभ मनुष्य-) शरीर को व्यर्थ ही नष्ट करके नि:संदेह महान् नरक को प्राप्त होती है। अत: साध्वी स्त्री को उचित है कि वह अपने शरीर को सुखावे, जिससे सम्पूर्ण विषय-कामनाऐं नष्ट हो जायं। इस प्रकार उपर्युक्त धर्म का पालन करने वाली जो शुभ लक्षणा नारी अपने पति देव का चिन्तन करती रहती है, वह अपने पति का भी उद्धार कर देती है। इस तरह वह स्वयं अपने को, अपने पति को एवं पुत्र को भी संसार से तार देती है। अत: हम लोग तो यही अच्छा मानते हैं कि तुम दोनों जीवन धारण करो।
कुन्ती बोली ;- महात्माओं! हमारे लिये महाराज पाण्डु की आज्ञा जैसे शिरोधार्य है, उसी प्रकार आप सब ब्राह्मणों की भी है। आपका आदेश मैं सिर-माथे रखती हूँ। आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करूंगी। पूज्यपाद विप्रगण जैसा कहते हैं, उसी को मैं अपने पति, पुत्रों तथा अपने आपके लिये भी परम कल्याण कारी समझती हूं- इसमें तनिक भी संशय नहीं है।
माद्री ने कहा ;- कुन्तीदेवी सभी पुत्रों के योग-क्षेम के निर्वाह में-पालन-पोषण में समर्थ हैं। कोई भी स्त्री, चाहे वह अरुन्धती ही क्यों न हो, बुद्धि में इनकी समानता नहीं कर सकती। वृष्णिवंश के लोग तथा महाराज कुन्तिभोज भी कुन्ती के रक्षक एवं सहायक हैं। बहिन! पुत्रों के पालन-पोषण की शक्ति जैसी आप में है, वैसी मुझमें नहीं है। अत: मैं पति का ही अनुगमन करना चाहती हूँ। पति के संयोग-सुख से मेरी तृप्ति भी नहीं हुई है। अत: आप बड़ी महारानी से मेरी प्रार्थना है कि मुझे पति लोक में जाने की आज्ञा दें। मैं वहीं धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और बुद्धिमान् पति के चरणों की सेवा करूंगी। आर्ये! आप मेरी इस इच्छा का अनुमोदन करें।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- महाराज! यों कहकर मद्र देश की राजकुमारी सती-साध्वी माद्री ने कुन्ती को प्रणाम करके अपने दोनों जुड़वे पुत्र उन्हीं हो सौंप दिये। तत्पश्चात् उसने महर्षियों को मस्तक नवाकर पाण्डवों को हृदय से लगा लिया और बार-बार कुन्ती के तथा अपने पुत्रों के मस्तक सूंघकर युधिष्ठिर का हाथ पकड़कर कहा। माद्री बोली- बच्चों! कुन्तीदेवी ही तुम सबों की असली माता हैं, मैं तो केवल दूध पिलाने वाली धाय थी। तुम्हारे पिता तो मर गये। अब बड़े भैया युधिष्ठिर ही धर्मत: तुम चारों भाइयों के पिता हैं। तुम सब बड़े-बूढ़ों-गुरुजनों की सेवा में संलग्न रहना और सत्य एवं धर्म के पालन से कभी मुंह न मोड़ना। ऐसा करने वाले लोग कभी नष्ट नहीं होते और न कभी उनकी पराजय ही होती है। अत: तुम सब भाई आलस्य छोड़कर गुरुजनों की सेवा में तत्पर रहना।
वैशम्पायन जी ने कहा ;- राजन्! तत्पश्चात् माद्री ने ऋषियों तथा कुन्ती को बारंबार नमस्कार करके, क्लेश से क्लांत होकर कुन्ती देवी से दीनतापूर्वक कहा,,
कुन्ती ने कहा ;- वृष्णिकुलनन्दिनि! आप धन्य हैं। आपकी समानता करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है; क्योंकि आपको इन अमिततेजस्वी तथा यशस्वी पांचों पुत्रों के बल, पराक्रम, तेज, योग बल तथा महात्म्य देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा। मैंने स्वर्गलोक में जाने की इच्छा रखकर इन महर्षियों के समीप जो यह बात कही है, वह कदापि मिथ्या न हो। देवि! आप मेरी गुरु, वन्दनीया तथा पूजनीया हैं; अवस्था में बड़ी तथा गुणों में भी श्रेष्ठ हैं। समस्त नैसर्गिक सद्गुण आपकी शोभा बढ़ाते हैं। यादवनन्दिनि! अब मैं आपकी आज्ञा चाहती हूँ। आपके प्रयत्न द्वारा जैसे भी मुझे धर्म, स्वर्ग तथा कीर्ति की प्राप्ति हो, वैसा सहयोग आप इस अवसर पर करें। मन में किसी दूसरे विचार को स्थान न दें। तब यशस्विनी कुन्ती ने वाष्पगद्गद वाणी में कहा- 'कल्याणि! मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी। विशाललोचने! तुम्हें आज ही स्वर्गलोक में पति का समागम प्राप्त हो भमिनि! तुम स्वर्गलोक में पति से मिलकर अनन्त वर्षों तक प्रसन्न रहो।'
माद्री बोली ;- 'मेरे इस शरीर को महाराज के शरीर के साथ ही अच्छी प्रकार ढंककर दग्ध कर देना चाहिये। बड़ी बहिन! आप मेरा यह प्रिय कार्य कर दें।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्विंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 30-31 का हिन्दी अनुवाद)
मेरे पुत्रों का हित चाहती हुई सावधान रहकर उनका पालन-पोषण करें। इसके सिवा दूसरी कोई बात मुझे आपसे कहने योग्य नहीं जान पड़ती।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुन्ती से यह कहकर पाण्डु की यशस्विनी धर्मपत्नी माद्री चिता की आग पर रखे हुए नरश्रेष्ठ पाण्डु के शव के साथ स्वयं भी चिता पर जा बैठी। तदनन्तर प्रेत कर्म के पारंगत विद्वान् पुरोहित काश्यप ने स्नान करके सुवर्ण खण्ड, घृत, तिल, दही, चावल, जल से भरा घड़ा और फरसा आदि वस्तुओं को एकत्र करके तपस्वी मुनियों द्वारा अश्वमेध की अग्नि मंगवायी और उसे चारों ओर से छुलाकर यथायोग्य शास्त्रीय विधि से पाण्डु का दाह-संस्कार करवाया।
भाइयों सहित निष्पाप युधिष्ठिर ने नूतन वस्त्र धारण करके पुरोहित की आज्ञा के अनुसार जलाञ्जलि देने का कार्य पूरा किया। शतश्रृंग निवासी तपस्वी मुनियों और चारणों ने आदरणीय राजा पाण्डु के परलोक-सम्बन्धी सब कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न किये।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में पाण्डु के परलोकगमनविषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना और उन्हें भीष्म आदि के हाथों सौंपना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा पाण्डु की मृत्यु हुई देख वहाँ रहने वाले, देवताओं के समान तेजस्वी सम्पूर्ण मन्त्रज्ञ महर्षियों ने आपस में सलाह की।
तपस्वी बोले ;- महान् यशस्वी राजा पाण्डु अपना राज्य तथा राष्ट्र छोड़कर इस स्थान पर तपस्या करते हुए तपस्वी मुनियों की शरण में रहते थे। वे राजा पाण्डु अपनी पत्नी और नवजात पुत्रों को आप लागों के पास धरोहर रखकर यहाँ से स्वर्ग लोक को चले गये। उनके इन पुत्रों को, पाण्डु और माद्री के शरीर की अस्थियों को तथा उन महात्मा नरेश की महारानी कुन्ती को लेकर हम लोग उनकी राजधानी में चलें। इस समय हमारे लिये यही धर्म प्रतीत होता है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इस प्रकार परस्पर सलाह करके उन देवतुल्य उदारचेता सिद्ध महर्षियों ने पाण्डवों को भीष्म एवं धृतराष्ट्र के हाथों सौंप देने के लिये पाण्डुपुत्रों को आगे करके हस्तिनापुर नगर में जाने का विचार किया। उन सब तपस्वी मुनियों ने पाण्डुपत्नी कुन्ती, पांचों पाण्डवों तथा पाण्डु और माद्री के शरीर की अस्थियों को साथ लेकर उसी क्षण वहाँ से प्रस्थान कर दिया। पुत्रों पर सदा स्नेह रखने वाली कुन्ती पहले बहुत सुख भोग चुकी थी, परंतु अब विपत्ति में पड़कर बहुत लंबे मार्ग पर चल पड़ी; तो भी उसने स्वदेश जाने की उत्कण्ठा अथवा महर्षियों के योगजनित प्रभाव से उस मार्ग को अल्प ही माना। यशस्विनी कुन्ती थोड़े ही समय में कुरुजांगल देश में जा पहुँची और नगर के वर्धमान नामक द्वार पर गयीं।
तब तपस्वी मुनियों ने द्वारपाल से कहा ;- राजा को हमारे आने की सूचना दो! द्वारपाल ने सभा में जाकर क्षणभर में समाचार दे दिया। सहस्रों चारणों सहित मुनियों का हस्तिनापुर में आगमन सुनकर उस समय वहाँ के लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ।
दो घड़ी दिन चढ़ते-चढ़ते समस्त पुरवासी स्त्रियों और बालकों को साथ लिये तपस्वी मुनियों का दर्शन करने के लिये नगर से बाहर निकल आये। झुंड़-की-झुंड़ स्त्रियां और क्षत्रियों के समुदाय अनेक सवारियों पर बैठकर बाहर निकले। ब्राह्मणों के साथ उनकी स्त्रियां भी नगर से बाहर निकलीं। शूद्रों और वैश्यों के समुदाय का बहुत बड़ा मेला जुट गया। किसी के मन में ईर्ष्या का भाव नहीं था। सबकी बुद्धि धर्म में लगी हुई थी। इसी प्रकार शान्तनुनन्दन भीष्म, सोमदत्त, बाह्लिक, प्रज्ञाचक्षु राजर्षि धृतराष्ट्र, संजय तथा स्वयं विदुरजी भी वहाँ आ गये। देवी सत्यवती, काशिराजकुमारी यशस्विनी कौसल्या तथा राज घराने की स्त्रियों से घिरी हुई गान्धारी भी अन्त:पुर से निकल कर वहाँ आयीं। धृतराष्ट्र के दुर्योधन आदि सौ पुत्र विचित्र आभूषणों से विभूषित हो नगर से बाहर निकले। उन महर्षियों का दर्शन करके सबने मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। फिर सभी कौरव पुरोहित के साथ उनके समीप बैठ गये। इसी प्रकार नगर तथा जनपद के सब लोग भी धरती पर माथा टेककर सबको अभिवादन और प्रणाम करके आस-पास बैठ गये।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचविंशत्यधिकशततम अध्याय के श्लोक 20-35 का हिन्दी अनुवाद)
राजन्! उस समय वहाँ आये हुए समस्त जनपद को चुपचाप बैठे देख भीष्म जी ने पाद्य-अर्ध्य आदि के द्वारा सब महर्षियों की यथोचित पूजा करके उन्हें अपने राज्य तथा राष्ट्र का कुशल समाचार निवेदन किया। तब उन महर्षियों में जो सबसे अधिक वृद्ध थे, वे जटा और मृगचर्म धारण करने वाले मुनि अन्य सब मुनियों की अनुमति लेकर इस प्रकार बोले- 'कुरुनन्दन भीष्म जी! वे जो आपके पुत्र महाराज पाण्डु विषय भोगों का परित्याग करके यहाँ से शतश्रंग पर्वत पर चले गये थे, उन धर्मात्मा ने वहाँ फल-मूल खाकर रहते हुए सावधान रहकर अपनी दोनों पत्नियों के साथ कुछ काल तक शास्त्रोक्त विधि से भारी तपस्या की। उन्होंने अपने उत्तम आचार-व्यवहार और तपस्या से शतश्रंग निवासी तपस्वी मुनियों को संतुष्ट कर लिया था। वहाँ नित्य ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए महाराज पाण्डु को किसी दिव्य हेतु से साक्षात् धर्मराज द्वारा यह पुत्र प्राप्त हुआ है, जिसका नाम युधिष्ठिर है। उसी प्रकार उन महात्मा राजा को साक्षात् वायु देवता ने यह महाबली भीम नामक पुत्र प्रदान किया है, जो समस्त बलवानों में श्रेष्ठ है। यह तीसरा पुत्र धनंजय है, जो इन्द्र के अंश से कुन्ती के ही गर्भ से उत्पन्न हुआ है। इसकी कीर्ति समस्त बड़े-बड़े धनुर्धरों को तिरस्कृत कर देगी।
माद्री देवी ने अश्विनी कुमारों से जिन दो पुरुष रत्नों को उत्पन्न किया है, वे ही दोनों महाधनुर्धर नरश्रेष्ठ हैं। इन्हें भी आप लोग देखें। इनके नाम हैं नकुल और सहदेव। ये दोनों भी अनन्त तेज से सम्पन्न हैं। ये नरश्रेष्ठ पाण्डुकुमार किसी से परास्त होने वाले नहीं हैं। नित्य धर्म में तत्पर रहने वाले यशस्वी राजा पाण्डु ने वन में निवास करते हुए अपने पितामह के उच्छिन्न वंश का उद्धार किया है। पाण्डुपुत्रों के जन्म, उनकी वृद्धि तथा वेदाध्ययन आदि देखकर आप लोग सदा अत्यन्त प्रसन्न होंगे। साधु पुरुषों के आचार-व्यवहार का पालन करते हुए राजा पाण्डु उत्तम पुत्रों की उपलब्ध करके आज से सत्रह दिन पहले पितृलोकवासी हो गये। जब वे चिता पर सुलाये गये और उन्हें अग्नि के मुख में होम दिया गया, उस समय देवी माद्री अपने जीवन का मोह छोड़कर उसी अग्नि में प्रविष्ट हो गयी। वह पतिव्रता देवी महाराज पाण्डु के साथ ही पति लोक को चली गयी। अब आप लोग माद्री और पाण्डु के लिये जो कार्य आवश्यक समझे, वह करें।
शरण में आयी हुई कुन्ती तथा यशस्वी पाण्डवों को आप लोग यथोचित रूप से अपनाकर अनुग्रहीत करें; क्योंकि यही सनातन धर्म है। ये पाण्डु और माद्री दोनों के शरीर की अस्थियां हैं और ये ही उनके श्रेष्ठ पुत्र हैं, जो शत्रुओं को संतप्त करने की शक्ति रखते हैं। आप माद्री और पाण्डु की श्राद्ध-क्रिया करने के साथ ही माता सहित इन पुत्रों को भी अनुग्रहीत करें। सपिण्डीकरणपर्यन्त निवृत्त हो जाने पर कुरुवंश के श्रेष्ठ पुरुष महायशस्वी एवं सम्पूर्ण धर्मों के ज्ञाता पाण्डु को पितृमेध (यज्ञ) का भी लाभ मिलना चाहिये।'
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! समस्त कौरवों से ऐसी बात कहकर उनके देखते-देखते ही वे सभी तपस्वी मुनि गुह्यकों के साथ क्षण भर में वहाँ से अन्तर्धान हो गये। गन्धर्व नगर के समान उन महर्षियों और सिद्धों के समुदाय को इस प्रकार अन्तर्धान होते देख वे सभी कौरव सहसा उछलकर साधु-साधु कहते हुए बड़े विस्मित हुए।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में ऋषिसंवादविषयक एक सौ पच्चीसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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