सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के एक सौ सौलहवें अध्याय से एक सौ बीसवें अध्याय तक (from the 116 chapter to the 120 chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ सौलहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षोडशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली"

जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! धृतराष्ट्र के पुत्रों में सबसे ज्‍येष्ठ कौन था? फि‍र उससे छोटा और उससे भी छोटा कौन था? उन सबके अलग-अलग नाम क्‍या थे? इन सब बातों का क्रमश: वर्णन कीजिये।

 वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धृतराष्ट्र के पुत्रों के नाम क्रमश: ये हैं।

1 दुर्योधन, 2 युयुत्सु, 3 दुःशासन, 4 दुःसह, 5 दु:शल, 6 जलसंध, 7 सम, 8 सह, 9 विन्‍द, 10 अनुविन्द, 11 दुर्धर्ष, 12 सुबाहु, 13 दुष्प्रधर्षण, 14 दुर्मर्षण, 15 दुर्मुख, 16 दुष्कर्ण, 17 कर्ण, 18 विविंशति, 19 विकर्ण, 20 शल, 21 सत्त्‍व, 22 सुलोचन, 23 चित्र, 24 उपचित्र, 25 चित्राक्ष, 26 चारू चित्रशरासन (चित्र-चाप), 27 दुर्मद, 28 दुर्विगाह, 29 विवित्सु, 30 विकटानन (विकट), 31 ऊर्णनाभ, 32 सुनाभ (पद्यनाभ), 33 नन्द, 34 उपनन्‍द 35 चित्रबाण (चित्रबाहु ), 36 चित्रवर्मा, 37 सुवर्मा, 38 दुर्विरोचन, 39 अयोबाहु, 40 महाबाहु चित्रांग (चित्रांगद), 41 चित्रकुण्‍डल (सुकुण्डल), 42 भीमवेग, 43 भीमबल, 44 बलाकी, 45 बलवर्धन, 46 उग्रायुध, 47 सुषेण, 48 कुण्डोदर, 49 महोदर, 50 चित्रायुध (दृढ़ायुध), 51 निषंगी, 52 पाशी,53 वृन्‍दारक, 54 दृढ़वर्मा, 55 दृढक्षत्र, 56 सोमकीर्ति, 57 अनूदर, 58 दृढ़संघ, 59 जरासंध, 60 सत्यसंध, 61 सद:सुवाक, (सहस्रवाक), 62 उग्रश्रवा, 63 उग्रसेन, 64 सेनानी (सेनापति), 65 पुष्‍पराजय, 66 अपराजित, 67 पण्डितक, 68 विशालाक्ष, 69 दुराधर (दुराधन), 70 दृढहस्थ, 71 सुहस्‍त, 72 वातवेग, 73 सुवर्चा, 74 आदित्यकेतु, 75 बहाशी, 76 नागदत्त, 77 अग्रयायी (अनुयायी), 78 कबची, 79 क्रथन, 80 दण्डी, 81 दण्डधार, 82 धर्नुग्रह, 83 उग्र, 84 भीमरथ, 85 वीरबाहु, 86 अलोलोप, 87 अभय, 88 रौद्रकर्मा, 89 दृढ़रथाश्रय (दृढरथ), 90 अनाधृष्य, 91 कुण्डभेदी, 92 विरावी, 93 विचित्र कुण्‍डलों से सुशोभित प्रमथ, 94 प्रमाथी, 95 वीर्यमान् दीर्घरोमा (दीर्घलोचन), 96 दीर्घबाहु, 97 महाबाहु व्यूढोरू, 98 कनकध्‍वज (कनकागंद), 99 कुण्‍डाशी (कुण्डज), 100 विरजा- धृतराष्ट्र के ये सौ पुत्र थे। इनके सिवा दुःशला नामक एक कन्या थी, जो सौ से अधिक थी।

  राजन्! इस प्रकार धृतराष्ट्र के सौ पुत्र और उन सौ के अतिरिक्त एक कन्‍या बतायी गयी। राजन्! जिस क्रम से इनके नाम लिये गये हैं, उसी क्रम से इनका जन्‍म हुआ समझो। ये सभी अतिरथी शूरवीर थे। सबने युद्ध विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली थी। सब-के-सब वेदों के विद्वान् तथा सम्‍पूर्ण अस्त्रविद्या के मर्मज्ञ थे। जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र ने समय पर भली-भाँति जांच पड़ताल करके अपने सभी पुत्रों का उनके योग्‍य स्त्रियों के साथ विवाह कर दिया। भरतश्रेष्ठ! महाराज धृतराष्ट्र ने विवाह के योग्‍य समय आने पर अपनी पुत्री दु:शला का राजा जयद्रथ के साथ विधिपूर्वक विवाह किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में धृतराष्ट्रपुत्रनामवर्णनविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ सत्रहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तदशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा पाण्‍डु के द्वारा मृगरुपधारी मुनि का वध तथा उनसे शाप की प्राप्ति"

जनमेजय ने कहा ;- भगवन्! आपने धृतराष्ट्र के पुत्रों के जन्‍म का उत्तम प्रसंग सुनाया है, जो महर्षि व्यास की कृपा से सम्‍भव हुआ था। आप ब्रह्मवादी हैं। आपने यद्यपि यह मनुष्‍यों के जन्‍म का वृत्तान्‍त बताया है, तथापि यह दूसरे मनुष्‍यों में कभी नहीं देखा गया। ब्रह्मन्! इन धृतराष्ट्रपुत्रों के पृथक-पृथक नाम भी जो आपने कहे हैं, वे मैंने अच्‍छी तरह सुन लिये। अब पाण्‍डवों के जन्‍म का वर्णन कीजिये। वे सब महात्‍मा पाण्‍डव देवराज इन्‍द्र के समान पराक्रमी थे। आपने ही अंशावतरण के प्रसंग में उन्‍हें देवताओं का अंश बताया था। वैशम्‍पायन जी! वे ऐसे पराक्रम कर दिखाते थे, जो मनुष्‍यों की शक्ति के परे हैं; अत: मैं उनके जन्‍म सम्बन्‍धी वृत्तान्‍त की सम्‍पूर्णता से सुनना चाहता हूं; कृपा करके कहिये।

वैशम्‍पायन जी बोले ;- जनमेजय! एक समय राजा पाण्‍डु मृगों और सर्पों से सेवित विशाल वन में विचर रहे थे। उन्‍होंने मृगों के एक यूथपति को देखा, जो मृगी के साथ मैथुन कर रहा था। उसे देखते ही राजा पाण्‍डु ने पांच सुन्‍दर एवं सुनहरे पंखों से युक्त तीखे तथा शीघ्रगामी बाणों द्वारा, उस मृगी और मृग को भी बींध डाला। राजन्! उस मृग के रुप में एक महातेजस्‍वी तपोधन ऋषि पुत्र थे, जो अपनी मृगरूप धारिणी पत्नी के साथ तेजस्‍वी मृग बनकर समागम कर रहे थे। वे उस मृगी से सटे हुए ही मनुष्‍यों की-सी बोली बोलते हुए क्षण भर में पृथ्‍वी पर गिर पड़े। उनकी इन्द्रियां व्‍याकुल हो गयीं और वे विलाप करने लगे।

मृग ने कहा ;- राजन्! जो मनुष्‍य काम और क्रोध से घिरे हुए, बुद्धि शून्‍य तथा पापों में संलग्‍न रहने वाले हैं, वे भी ऐसे क्रूरता पूर्ण कर्म को त्‍याग देते हैं। बुद्धि प्रारब्‍ध को नहीं ग्रसती (नहीं लांघ सकती), प्रारब्‍ध ही बुद्धि को अपना ग्रास बना लेता है (भ्रष्ट कर देता है) प्रारब्‍ध से प्राप्त होने वाले पदार्थों को बुद्धिमान् पुरुष भी नहीं जान पाता। भारत! सदा धर्म में मन लगाने वाले क्षत्रियों के प्रधान कुल में जन्‍म हुआ है, तो भी काम और लोभ के वशीभूत होकर तुम्‍हारी बुद्धि धर्म से कैसे विचलित हुई?

पाण्‍डु बोले ;- शत्रुओं के वध में राजाओं की जैसी वृत्ति बतायी गयी है, वैसी ही मृगों के वध में भी मानी गयी है; अत: मृग तुम्‍हें मोहवश मेरी निन्‍दा नहीं करनी चाहिये। प्रकट या अप्रकट रूप में मृगों का वध हमारे लिये अभीष्ट है। वह राजाओं के लिये धर्म है, फि‍र तुम उसकी निन्‍दा कैसे करते हो? मह‍र्षि अगस्‍त्‍य एक सत्र में दीक्षित थे, तब उन्‍होंने भी मृगया की थी। सभी देवताओं के हित के लिये उन्‍होंने सत्र में विघ्न करने वाले पशुओं को महान् वन में खदेड़ दिया था। अगस्‍त्‍य ऋषि के उक्त हिंसा कर्म के अनुसार (मुझ क्षत्रिय के लिये तो) तुम्‍हारा वध करना ही उचित है। मैं प्रमाण सिद्ध धर्म के अनुकूल बर्ताव करता हूं, तो भी तुम क्‍यों मेरी निन्‍दा करते हो? 

मृग ने कहा ;- मनुष्‍य अपने शत्रुओं पर भी, विशेषत: जब वे संकट काल में हो, बाण नहीं छोड़ते। उपयुक्त अवसर (संग्राम आदि) में ही शत्रुओं के वध की प्रशंसा की जाती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्तदशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 17-34 का हिन्दी अनुवाद)

पाण्‍डु बोले ;- मृग! राजा लोग नाना प्रकार के तीक्ष्‍ण उपायों द्वारा बलपूर्वक खुले-आम मृग का वध करते हैं; चाहे वह सावधान हो या असावधान। फि‍र तुम मेरी निन्‍दा क्‍यों करते हो?

मृग ने कहा ;- राजन्! मैं अपने मारे जाने के कारण इस बात के लिये तुम्‍हारी निन्‍दा नहीं करता कि तुम मृगों को मारते हो। मुझे तो इतना ही कहना है कि तुम्‍हें दयाभाव का आश्रय लेकर मेरे मैथुन कर्म से निवृत होने तक प्रतीक्षा करनी चाहिये थी। जो सम्‍पूर्ण भूतों के लिये हितकर और अभीष्ट है, उस समय में वन के भीतर मैथुन करने वाले किसी मृग को कौन विवेकशील पुरुष मार सकता है? राजेन्‍द्र! मैं बड़े हर्ष और उल्‍लास के साथ अपने कामरुपी पुरुषार्थ को सफल करने के लिये इस मृगी के साथ मैथुन कर र‍हा था; किंतु तुमने उसे निष्‍फल कर दिया। महाराज! क्‍लेशरहित कर्म करने वाले कुरुवंशियों के कुल में जन्‍म लेकर तुमने जो यह कर्म किया है, यह तुम्‍हारे अनुरूप नहीं है। भारत! अत्‍यन्‍त कठोरतापूर्ण कर्म सम्‍पूर्ण लोकों में निन्दित हैं। वह स्‍वर्ग और यश को हानि पहुँचाने वाला है। इसके सिवा वह महान् पापकृत्‍य है। देवतुल्‍य महाराज! तुम स्त्री-भोगों के विशेषज्ञ तथा शास्त्रीय धर्म एवं अर्थ के तत्त्व को जानने वाले हो। तुम्‍हें ऐसा नरकप्रद पाप कार्य नहीं करना चाहिये था।

   नृपशिरोमणे! तुम्‍हारा कर्तव्‍य तो यह है कि धर्म, अर्थ और काम से हीन जो पापाचारी मनुष्‍य कठोरतापूर्ण कर्म करने वाले हों, उन्‍हें दण्‍ड दो। नरेश्रेष्ठ! मैं तो फल-मूल का आहार करने वाला एक मुनि हूँ और मृग का रुप धारण करके शम-दम के पालन में तत्‍पर हो सदा जंगल में ही निवास करता हूँ। मुझ निरपराध को मारकर यहाँ तुमने क्‍या लाभ उठाया? तुमने मेरी हत्‍या की है, इसलिये बदले में मैं भी तुम्‍हें शाप देता हूँ। तुमने मैथुन-धर्म में आसक्त दो स्त्री-पुरुषों का निष्‍ठुरतापूर्वक वध किया है। तुम अजितेन्द्रिय एवं काम से मोहित हो; अत: इसी प्रकार मैथुन में आसक्त होने पर जीवन का अन्‍त करने वाली मृत्‍यु निश्‍चय ही तुम पर आक्रमण करेगी। मेरा नाम किंदम है। मैं तपस्‍या से संलग्‍न रहने वाला मुनि हूं, अत: मनुष्‍यों में मानव-शरीर से यह काम करने में मुझे लज्जा का अनुभव हो रहा था। इसीलिये मृग बनकर अपनी मृगी के साथ मैथुन कर रहा था। मैं प्राय: इसी रुप में मृगों के साथ घने वन में विचरता रहता हूँ। तुम्‍हें मुझे मारने से ब्रह्महत्‍या तो नहीं लगेगी; क्‍योंकि तुम यह बात नहीं जानते थे (कि यह मुनि है )। परंतु जब मैं मृगरुप धारण करके काम से मोहित था, उस अवस्‍था में तुमने अत्‍यन्‍त क्रूरता के साथ मुझे मारा है;

    अत: मूढ़! तुम्‍हें अपने इस कर्म का ऐसा ही फल अवश्‍य मिलेगा। तुम भी जब काम से सर्वथा मोहित होकर अपनी प्‍यारी पत्नी के साथ समागम करने लगोगे, तब इस- मेरी अवस्‍था में ही यमलोक सिधारोगे। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ महाराज! अन्‍तकाल आने पर तुम जिस प्‍यारी पत्नी के साथ समागम करोगे, वही समस्‍त प्राणियों के लिये दुर्गम यमलोक में जाने पर भक्तिभाव से तुम्‍हारा अनुसरण करेगी। मैं सुख में मग्‍न था, तथापि तुमने जिस प्रकार मुझे दु:ख में डाल दिया, उसी प्रकार तुम भी जब प्रेयसी पत्नी के संयोग-सुख का अनुभव करोगे, उसी समय तुम्‍हारे ऊपर दु:ख टूट पड़ेगा।

 वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- यों कहकर वे मृगरूप धारी मुनि अत्‍यन्‍त दु:ख से पीड़ित हो गये और उनका देहान्‍त हो गया तथा राजा पाण्‍डु भी क्षणभर में दु:ख से आतुर हो उठे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में पाण्डु को मृग का शाप नामक एक सौ सत्रहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ अठारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टादशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद)

"पाण्‍डु का अनुताप, संन्‍यास लेने का निश्चय तथा पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्‍थ आश्रम में प्रवेश"

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उन मृगरुपधारी मुनि को मरा हुआ छोड़कर राजा पाण्डु जब आगे बढ़े, तब पत्नीसहित शोक और दु:ख से आतुर हो अपने सगे भाई-बन्‍धु की भाँति उनके लिये विलाप करने लगे तथा अपनी भूल पर पश्चाताप करते हुए कहने लगे। पाण्‍डु बोले- खेद की बात है कि श्रेष्ठ पुरुषों के उत्तम कुल में उत्‍पन्न मनुष्‍य भी अपने अन्‍त:करण पर वश न होने के कारण काम के फंदे में फंसकर विवेक खो बैठते हैं और अनुचित कर्म करके उसके द्वारा भारी दुर्गति में पड़ जाते हैं। हमने सुना है, सदा धर्म में मन लगाये रहने वाले महाराज शान्तनु से जिनका जन्‍म हुआ था, वे मेरे पिता विचित्रवीर्य भी काम भोग में आसक्त चित्त होने के कारण ही छोटी अवस्‍था में ही मृत्‍यु को प्राप्त हुए थे। उन्‍हीं कामासक्त नरेश की पत्नी से वाणी पर संयम रखने वाले ऋषिप्रवर भगवान् श्रीकृष्‍ण द्वैयापन ने मुझे उत्‍पन्न किया। मैं शिकार के पीछे दौड़ता रहता हूं; मेरी इसी अनीति के कारण जान पड़ता है देवताओं ने मुझे त्‍याग दिया है। इसीलिये तो ऐसे विशुद्ध वंश में उत्‍पन्न होने पर भी आज व्यसन में फंसकर मेरी यह बुद्धि इतनी नीच हो गयी।

   अत: अब मैं इस निश्चय पर पहुँच रहा हूँ कि मोक्ष के मार्ग पर चलने से ही अपना कल्‍याण है। स्त्री-पुत्र आदि का बन्‍धन ही सबसे महान् दु:ख है। आज मैं अपने पिता वेदव्‍यास जी का उस उत्तम वृति का आश्रय लूंगा, जिससे पुण्‍य का कभी नाश नहीं होता। मैं अपने शरीर और मन को नि:संदेह‍ अत्‍यन्‍त कठोर तपस्‍या में लगाऊंगा। इसलिये अब अकेला (स्त्री रहित) ओर एकाकी (सेवक आदि से भी अलग) रहकर एक-एक वृक्ष के नीचे फल की भिक्षा माँगूंगा। सिर झुकाकर मौनी संन्‍यासी हो इन वानप्रस्थियों के आश्रमों में विचरूंगा। उस समय मेरा शरीर धूल से भरा होगा और निर्जन एकान्‍त स्‍थान में मेरा निवास होगा। अथवा वृक्षों का तल ही मेरा निवास गृह होगा। मैं प्रिय एवं अप्रिय सब प्रकार की वस्‍तुओं को त्‍याग दूंगा। न मुझे किसी के ‍वियोग का शोक होगा और न किसी की प्राप्ति या संयोग से हर्ष ही होगा। निन्‍दा और स्‍तुति दोनों मेरे लिये समान होंगी। न मुझे आशीर्वाद की इच्‍छा होगी नमस्‍कार की।

   मैं सुख-दु:ख आदि द्वन्‍द्वों से रहित और संग्रह-परिसंग्रह से दूर रहूंगा। न तो किसी की हंसी उड़ाऊंगा और न क्रोध से किसी पर भौंहें टेढ़ी करूंगा। मेरे मुख पर प्रसन्नता छायी रहेगी तथा सब भूतों के हित साधन में मैं संलग्‍न रहूंगा। (स्‍वेदज, उद्भिज्ज, अण्‍डज, जरायुज-) चार प्रकार के जो चराचर प्राणी हैं, उनमें से किसी की भी मैं हिंसा नहीं करूंगा। जैसे पिता अपनी अनेक संतानों में सर्वदा समभाव रखता है, उसी प्रकार समस्‍त प्राणियों के प्रति मेरा सदा समान भाव होगा। (पहले कहे अनुसार) मैं केवल एक समय वृक्षों से भिक्षा माँगूंगा अथवा यह सम्‍भव न हुआ तो दस-पांच घरों में घूमकर (थोड़ी-थोड़ी) भिक्षा ले लूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टादशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 13-28 का हिन्दी अनुवाद)

  अथवा यदि भिक्षा मिलनी असम्‍भव हो जाय, तो कई दिन तक उपवास ही करता चलूंगा। (भिक्षा मिल जाने पर भी) भोजन थोड़ा-थोड़ा ही करूंगा। ऊपर बताये हुए एक प्रकार से भिक्षा न मिलने पर ही दूसरे प्रकार का आश्रय लूँगा। ऐसा तो कभी न होगा कि लोभवश दूसरे-दूसरे बहुत से घरों में जाकर भिक्षा लूं। यदि कहीं कुछ न मिला तो भिक्षा की पूर्ति के लिये सात घरों पर फेरी लगा लूंगा। यदि मिला तो और न मिला तो, दोनों ही दशाओं में समान दृष्टि रखते हुए भारी तपस्‍या में लगा रहूंगा। एक आदमी बसूले से मेरी एक बांह काटता हो और दूसरा मेरी दूसरी बांह पर चन्‍दन छिड़कता हो तो उन दोनों में से एक के अकल्‍याण का और दूसरे के कल्‍याण का चिन्‍तन नहीं करूंगा। जीने अथवा मरने की इच्‍छा वाले मनुष्‍य जैसी चेष्टाऐं करते हैं, वैसी कोई चेष्टा मैं नहीं करूंगा। न जीवन का अभिनन्‍दन करूंगा, न मृत्‍यु से द्वेष।

जीवित पुरुषों द्वारा अपने अभ्‍युदय के लिये जो-जो कर्म किये जा सकते हैं, उन समस्‍त सकाम कर्मों को मैं त्‍याग दूंगा; क्‍योंकि वे सब काल से सीमित हैं। अनित्‍य फल देने वाली क्रियाओं के लिये जो सम्‍पूर्ण इन्द्रियों द्वारा चेष्टा की जाती है, उस चेष्टा को भी मैं सर्वथा त्‍याग दूंगा; धर्म के फल को भी छोड़ दूंगा। अपने अन्‍त:करण के मल को सर्वथा धोकर शुद्ध हो जाऊंगा। मैं सब पापों से सर्वथामुक्त हो अविद्याजनित समस्‍त बन्‍धनों को लांघ जाऊंगा। किसी के वश में न रहकर वायु के समान सर्वत्र विचरूंगा। सदा इस प्रकार की धृति (धारणा) द्वारा उक्त रूप से व्‍यवहार करता हुआ भयरहित मोक्षरहित मोक्षमार्ग में स्थित होकर इस देह का विसर्जन करूंगा। मैं संतानोत्‍पादन की शक्ति से रहित हो गया हूँ। मेरा गृहस्‍थाश्रम संतानोत्‍पादन आदि धर्म से सर्वथा शून्‍य है और मेरे लिये अपने वीर्य क्षय के कारण सर्वथा शोचनीय हो रहा है; अत: अत्‍यन्‍त दीनतापूर्ण मार्ग पर अब मैं नहीं चल सकता। जो सत्‍कार या तिरस्‍कार पाकर दीनतापूर्ण दृष्टि से देखता हुआ दूसरे पुरुष के पास जीविका की आशा से जाता है, वह कामात्‍मा मनुष्‍य तो कुत्तों के मार्ग पर चलता है।

वैशम्‍पायनजी कहते हैं ;- जनमेजय! यों कहकर राजा पाण्‍डु अत्‍यन्‍त दु:ख से आतुर हो लंबी सांस खींचते और कुन्‍ती-माद्री की ओर देखते हुए उन दोनों से इस प्रकार बोले,,

राजा पाण्‍डु बोले ;- ‘देवियों! तुम दोनों हस्तिनापुर को लौट जाओ और माता अम्बिका, अम्‍बालिका, चाचा भीष्‍म जी, राजपुरोहित गण, कठोर व्रत का पालन तथा सोमपान करने वाले महात्‍मा ब्राह्मण तथा वृद्ध पुरवासी जन आदि जो लोग वहाँ हम लोगों के आश्रित होकर निवास करते हैं, उन सबको प्रसन्न करके कहना, राजा पाण्‍डु संन्‍यासी होकर वन में चले गये’। वनवास के लिये दृढ़ निश्चय करने वाले पतिदेव का यह वचन सुनकर,,

 कुन्‍ती और माद्री ने उनके योग्‍य बात कही ;-‘भरतश्रेष्ठ! संन्‍यास के सिवा और भी तो आश्रम हैं, जिनमें आप हम धर्मपत्नियों के साथ रहकर भारी तपस्‍या कर सकते हैं। आपकी यह तपस्‍या स्‍वर्गदायक महान् फल की प्राप्ति कराकर इस शरीर से भी मुक्ति दिलाने में समर्थ हो सकती है। इसमें संदेह‍ नहीं कि उस तप के प्रभाव से आप ही स्‍वर्गलोक के स्‍वामी इन्‍द्र भी हो सकते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टादशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 29-50 का हिन्दी अनुवाद)

हम दोनों कामसुख का परित्‍याग करके पतिलोक की प्राप्ति की परम लक्ष्‍य लेकर अपनी सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को संयम में रखती हुई भारी तपस्‍या करेंगी। महाप्राज्ञ नरेश्वर! यदि आप हम दोनों को त्‍याग देंगे तो आज ही हम अपने प्राणों का परित्‍याग कर देंगी, इसमें संशय नहीं है’।   पाण्‍डु ने कहा ;- देवियों! यदि तुम दोनों का यही धर्मयुक्त निश्चय है तो ठीक है, मैं संन्‍यास न लेकर वानप्रस्‍थ आश्रम में ही रहूंगा तथा आज से अपने पिता वेदव्‍यास जी की अक्षयफल वाली जीवनचर्या का अनुसरण करूंगा। भोगियों के सुख और आहार का परित्‍याग करके भारी तपस्‍या में लग जाऊंगा। वल्‍कल पहनकर फल-मूल का भोजन करते हुए महान् वन में विचरूंगा। दोनों समय स्नान-संध्‍या और अग्निहोत्र करूंगा। चिथड़े, मृगचर्म और जटा धारण करूंगा। बहुत थोड़ा आहार ग्रहण करके शरीर से दुर्बल हो जाऊंगा। सर्दी, गरमी और आंधी का वेग सहूंगा। भूख-प्‍यास की परवा नहीं करूंगा तथा दुष्‍कर तपस्‍या करके इस शरीर को सुखा डालूंगा। एकान्‍त में रहकर आत्‍म-चिन्‍तन करूंगा। कच्‍चे (कन्‍द-मूल आदि) और पक्‍के (फल आदि) से जीवन-निर्वाह करूंगा। देवताओं और पितरों को जंगली फल-मूल, जल तथा मन्‍त्रपाठ द्वारा तृप्त करूंगा। मैं वानप्रस्‍थ आश्रम में रहने वालों का तथा कुटुम्‍बीजनों का भी दर्शन और अप्रिय नहीं करूंगा; फि‍र ग्रामवासियों की तो बात ही क्‍या है? इस प्रकार मैं वानप्रस्‍थ-आश्रम से सम्‍बन्‍धी शास्त्रों की कठोर-से-कठोर विधियों के पालन की आकांक्षा करता हुआ तब तक वानप्रस्‍थ-आश्रम में स्थित रहूंगा जब तक कि शरीर का अन्‍त न हो जाय।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! कुरुकुल को आनन्दित करने वाले राजा पाण्‍डु ने अपनी दोनों पत्नियों से यों कहकर अपने सिरपेंच, निष्‍क (वक्ष:स्‍थल के आभूषण), बाजूबंद, कुण्‍डल और बहुमूल्‍य वस्त्र तथा माद्री और कुन्‍ती के भी शरीर के गहने उतार कर सब ब्राह्मणों को दे दिये।

 फि‍र सेवकों से इस प्रकार कहा ;- ‘तुम लोग हस्तिनापुर में जाकर कह देना कि कुरुनन्‍दन राजा पाण्‍डु अर्थ, काम, विषय सुख और स्त्रीविषयक रति आदि सब कुछ छोड़कर अपनी पत्नियों के साथ वानप्रस्‍थ हो गये हैं।’ भरतसिंह पाण्‍डु की यह करुणायुक्त चित्र-विचित्र वाणी सुनकर उनके अनुचर और सेवक सभी हाय-हाय करके भयंकर आर्तनाद करने लगे। उस समय नेत्रों से गरम-गरम आंसुओं की धारा बहाते हुए वे सेवक राजा पाण्‍डु को छोड़कर और बचा हुआ सारा धन लेकर तुरंत हस्तिनापुर को चले गये। उन्‍होंने हस्तिनापुर में जाकर महात्‍मा राजा पाण्‍डु का सारा समाचार राजा धृतराष्ट्र को ज्‍यों-का-त्‍यों कह सुनाया और नाना प्रकार का धन धृतराष्ट्र को ही सौंप दिया।

  फि‍र उन सेवकों से उस महान् वन में पाण्‍डु के साथ घटित हुई सारी घटनाओं को यथावत् सुनकर नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र सदा पाण्‍डु की ही चिन्‍ता में दुखी रहने लगे। शय्‍या, आसन और नाना प्रकार के भोगों में कभी उनकी रुचि नहीं होती थी। वे भाई के शोक में मग्न हो सदा उन्‍हीं की बात सोचते रहते थे। जनमेजय! राजकुमार पाण्‍डु फल-मूल का आहार करते हुए, अपनी दोनों पत्नियों के साथ वहाँ से नागशत नामक पर्वत पर चले गये। तत्पश्चात चैत्ररथ नामक वन में जाकर कालकूट और हिमालय पर्वत को लांघते हुए वे गन्‍धमादन पर चले गये। महाराज! उस समय महाभूत, सिद्ध और महर्षिगण उनकी रक्षा करते थे। वे ऊंची-ऊंची जमीन पर सोते थे। इन्‍द्रद्युम्न सरोवर पर पहुँचकर तथा उसके बाद हंसकूट को लांघते हुए वे शतश्रंग पर्वत पर जा पहुँचे। जनमेजय! वहाँ वे तपस्‍वी जीवन बिताते हुए भारी तपस्‍या में संलग्‍न हो गये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में पाण्डुचरितविषयक एक सौ अठारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ उन्नीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनविंशत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)

"पाण्‍डु का कुन्‍ती को पुत्र-प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने का आदेश"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! वहाँ भी श्रेष्ठ तपस्‍या में लगे हुए पराक्रमी राजा पाण्‍डु सिद्ध और चारणों के समुदाय को अत्‍यन्‍त प्रिय लगने लगे- इन्‍हें देखते ही वे प्रसन्न हो जाते थे। भारत! वे ऋषि-मुनियों की सेवा करते, अहंकार से दूर रहते और मन को वश में रखते थे। उन्‍होंने सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को जीत लिया था। वे अपनी ही शक्ति से स्‍वर्गलोक में जाने के लिये सदा सचेष्ट रहने लगे। कितने ही ऋषियों का उन पर भाई के समान प्रेम था। कितनों के वे मित्र हो गये थे और दूसरे बहुत-से महर्षि उन्‍हें अपने पुत्र के समान मानकर सदा उनकी रक्षा करते थे।

भरतश्रेष्ठ जनमेजय! राजा पाण्‍डु दीर्घकाल त‍क पापरहित तपस्‍या का अनुष्‍ठान करके ब्रह्मर्षियों के समान प्रभावशाली हो गये थे। एक दिन अमावस्‍या तिथि को कठोर व्रत का पालन करने वाले बहुत-से ऋषि-महर्षि एकत्र हो ब्रह्मा जी के दर्शन की इच्‍छा से ब्रह्मलोक के लिये प्रस्थित हुए। ॠर्षियों को प्रस्‍थान करते देख पाण्‍डु ने उनसे पूछा,,

पाण्‍डु बोले ;- ‘वक्ताओं में श्रेष्ठ मुनीश्वरों! आप लोग कहाँ जायेंगे? यह मुझे बताइये’। 

ऋषि बोले ;- राजन्! आज ब्रह्मलोक मे महात्‍मा देवताओं, ऋषि-मुनियों तथा महामना पितरों का बहुत बड़ा समूह एकत्र होने वाला है। अत: हम वहीं स्‍वयम्‍भू ब्रह्माजी का दर्शन करने के लिये जायेंगे।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- राजन्! यह सुनकर महाराज पाण्‍डु भी महर्षियों के साथ जाने के लिये सहसा उठ खड़े हुए। उनके मन में स्‍वर्ग के पार जाने की इच्‍छा जाग उठी और वे उत्तर की ओर मुंह करके अपनी दोनों पत्नियों के साथ शतश्रंग पर्वत से चल दिये। यह देख गिरिराज हिमालय के ऊपर-ऊपर उत्तराभिमुख यात्रा करने वाले,,

 तपस्‍वी मुनियों ने कहा ;- ‘भरतश्रेष्ठ! इस रमणीय पर्वत पर हमने बहुत-से ऐसे प्रदेश देखे है, जहाँ जाना बहुत कठिन है। वहाँ देवताओं, गन्‍धर्वों तथा अप्‍सराओं की क्रीड़ा भूमि है, जहाँ सैंकड़ों विमान खचाखच भरे र‍हते हैं और मधुर गीतों के स्‍वर गूंजते रहते हैं। इसी पर्वत पर कुबेर के अनेक उद्यान हैं, जहाँ की भूमि कहीं समतल है और कहीं नीची-ऊंची। इस मार्ग में हमने कई बड़ी-बड़ी नदियों के दुर्गम तट और कितनी ही पर्वतीय घाटियां देखी हैं। यहाँ बहुत-से ऐसे स्‍थल हैं, जहाँ सदा बर्फ जमी रहती है तथा जहाँ वृक्ष, पशु और पक्षियों का नाम भी नहीं है।

कहीं-कहीं बहुत गुफाएं हैं, जिनमें प्रवेश करना अत्‍यन्‍त कठिन है। कइयों के तो निकट भी पहुँचना कठिन है। ऐसे स्‍थलों को पक्षी भी नहीं पार कर सकता, फि‍र मृग आदि अन्‍य जीवों की बात ही क्‍या है? इसी मार्ग पर केवल वायु चल सकती है तथा सिद्ध महर्षि भी जा सकते हैं। इस पर्वतराज पर चलती हुई ये दोनों राजकुमारियां कैसे कष्‍ट न पायेंगी? भरतवंश शिरोमणे! ये दोनों रानियां दु:ख सहन करने के योग्‍य नहीं हैं; अत: आप न चलिये’। पाण्‍डु ने कहा- महाभाग महर्षिगण! संतानहीन के लिये स्‍वर्ग का दरवाजा बंद रहता है, ऐसा लोग कहते हैं। मैं भी संतानहीन हूं, इसलिये दु:ख से संतप्त होकर आप लोगों से कुछ निवेदन करता हूँ। तपोधनों! मैं पितरों के ऋण से अब तक छूट नहीं सका हूं, इसलिये चिन्‍ता से संतप्त हो रहा हूँ।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनविंशत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद)

नि:संतान अवस्‍था में मेरे इस शरीर का नाश होने पर मेरे पितरों का पतन अवश्‍य हो जायगा। मनुष्‍य इस पृथ्‍वी पर चार प्रकार के ऋणों से युक्त होकर जन्‍म लेते हैं। (उन ऋणों के नाम ये हैं-) पितृ-ऋण, देव-ऋण, ऋषि-ऋण और मनुष्‍य-ऋण। उन सबका ऋण धर्मत: हमें चुकाना चाहिये। जो मनुष्‍य यथा समय इन ऋणों का ध्‍यान नहीं रखता, उसके लिये पुण्‍यलोक के सुलभ नहीं होते। यह मर्यादा धर्मज्ञ पुरुषों ने स्‍थापित की है। यज्ञों द्वारा मनुष्‍य देवताओं को तृप्त करता है, स्‍वाध्‍याय और तपस्‍या द्वारा मुनियों को संतोष दिलाता है। पुत्रोत्‍पादन और श्राद्धकर्मों द्वारा पितरों को तथा दयापूर्ण बर्ताव द्वारा वह मनुष्‍यों को संतुष्ट करता है। मैं धर्म की दृष्टि से ऋषि, देव तथा मनुष्‍य- इन तीनों ऋणों से मुक्त हो चुका हूँ। अन्‍य अर्थात पितरों के ऋण का नाश तो इस शरीर के नाश होने पर भी शायद हो सके।

तपस्‍वी मुनियों! मैं अब त‍क पितृऋण से मुक्त न हो सका। इस लोक में श्रेष्ठ पुरुष पितृ-ऋण से मुक्त होने के लिये संतानोत्‍पत्ति का प्रयास करते और स्‍वयं ही पुत्ररूप में जन्‍म लेते हैं। जैसे मैं अपने मेरे पिता के क्षेत्र में महर्षि व्‍यास द्वारा उत्‍पन्न हुआ हूं, उसी प्रकार मेरे इस क्षेत्र में भी कैसे संतान की उत्‍पत्ति हो सकती है? 

ऋषि बोले ;- धर्मात्‍मा नरेश! तुम्‍हें पापरहित देवोपम शुभ संतान होने का योग्‍य है, यह हम दिव्‍यदृष्टि से जानते हैं। नरव्‍याघ्र! भाग्‍य ने जिसे दे रखा है, उस फल को प्रयत्न द्वारा प्राप्त कीजिये। बुद्धिमान् मनुष्‍य व्‍यग्रता छोड़कर बिना क्‍लेश के ही अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है। राजन्! आपको उस दृष्ट फल के लिये प्रयत्न करना चाहिये। आप निश्चय ही गुणवान् और हर्षोत्‍पादक संतान प्राप्त करेंगें।

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तपस्‍वी मुनियों का यह वचन सुनकर राजा पाण्डु बड़े सोच-विचार में पड़ गये। वे जानते थे कि मृगरूपधारी मुनि के शाप से मेरा संतानोत्‍पादन-विषयक पुरुषार्थ नष्ट हो चुका है। एक दिन वे अपनी यशस्विनी धर्म पत्नी कुन्‍ती से एकान्‍त में इस प्रकार बोले,,

राजा पाण्डु बोले ;- ‘देवि! यह हमारे लिये आपत्तिकाल है, इस समय संतानोत्‍पादन के लिये जो आवश्‍यक प्रयत्न हो, उसका तुम समर्थन करो। सम्‍पूर्ण लोकों में संतान ही धर्ममयी प्रतिष्ठा है- कुन्‍ती! सदा धर्म का प्रतिपादन करने वाले धीर पुरुष ऐसा मानते हैं। संतानहीन मनुष्‍य इस लोक में यज्ञ, दान, तप और नियमों का भली-भाँति अनुष्ठान कर ले, तो भी उसके किये हुए सब कर्म पवित्र नहीं कहे जाते।

पवित्र मुस्कान वाली कुन्तिभोजकुमारी! इस प्रकार सोच-समझ कर मैं तो यही देख रहा हूँ कि संतानहीन होने के कारण मुझे शुभ लोकों की प्राप्ति नहीं हो सकती। मैं निरन्‍तर इसी चिन्‍ता में डूबा रहता हूँ। मेरा मन अपने वश में नहीं, मैं क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाला हूँ। भीरू! इसीलिये मृग के शाप से मेरी संतानोत्‍पादन-शक्ति उसी प्रकार नष्ट हो गयी है, जिस प्रकार मैंने उस मृग का वध करके उसके मैथुन में बाधा डाली थी। पृथे! धर्मशास्त्रों में ये आगे बताये जाने वाले छ: पुत्र ‘बन्‍धुदायाद’ कहे गये हैं, जो कुटुम्‍बी होने से सम्‍पत्ति के उत्तराधिकारी होते हैं; और छ: प्रकार के पुत्र ‘अबन्‍धुदायाद’ हैं, जो कुटुम्‍बी न होने पर भी उत्तराधिकारी बताये गये हैं। इन सबका वर्णन मुझसे सुनो।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकोनविंशत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 33-37 का हिन्दी अनुवाद)

पहला पुत्र वह है, जो विवाहिता पत्नी से अपने द्वारा उत्‍पन्न किया गया हो; उसे ‘स्‍वयं-जात’ कहते हैं। दूसरा प्रणीत कहलाता है, जो अपनी ही पत्नी के गर्भ से किसी उत्तम पुरुष के अनुग्रह से उत्‍पन्न होता है तीसरा जो अपनी पुत्री का पुत्र हो, वह भी उसके समान माना गया है। चौथे प्रकार के पुत्र की पौनर्भव संज्ञा है, जो दूसरी बार ब्‍याही हुई स्त्री से उत्‍पन्न हुआ हो।

  पांचवें प्रकार के पुत्र की कानीन संज्ञा है (विवाह से पहले ही जिस कन्‍या को इस शर्त के साथ दिया जाता है कि इसके गर्भ से उत्‍पन्न होने वाला पुत्र मेरा पुत्र समझा जायगा उस कन्‍या के पुत्र को ‘कानीन’ कहते हैं जो बहिन का पुत्र (भानजा) है, वह छठा कहा गया है। अब छ: प्रकार के अबन्‍धुदायक पुत्र कहे गये हैं-

 दत्त- (जिसे माता-पिता ने स्‍वयं समर्पित कर दिया हो), क्रीत- (जिसे धन आदि देकर खरीद लिया गया हो), कृतिम- (जो स्‍वयं मैं आपका पुत्र हूं, यों कहकर समीप आया हो), सहोढ- (जो कन्‍यावस्‍था में ही गर्भवती होकर ब्‍याही गयी हो), उसके गर्भ उत्‍पन्न पुत्र सहोढ कहलाता है, ज्ञातिरेता अपने कुल का पुत्र तथा अपने से हीन जाति की स्त्री के गर्भ से उत्‍पन्न हुआ पुत्र।

ये सभी अबन्‍धुदायक हैं। इनमें से पूर्व-पूर्व के अभाव में ही दूसरे-दूसरे पुत्र की अभिलाषा करें। आपत्तिकाल में नीची जाति के पुरुष श्रेष्ठ पुरुष से भी पुत्रोत्‍पत्ति की इच्‍छा कर सकते हैं। पृथे! अपने वीर्य के बिना भी मनुष्‍य किसी श्रेष्ठ पुरुष के सम्‍बन्‍ध से श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त कर लेते हैं और वह धर्म का फल देने वाला होता है, यह बात स्‍वायम्‍भुव मनु ने कही है। अत: यशस्विनी कुन्‍ती! मैं स्‍वयं संतानोत्‍पादन की शक्ति से रहित होने के कारण तुम्‍हें आज दूसरे के पास भेजूंगा। तुम मरे सदृश अथवा मेरी अपेक्षा भी श्रेष्ठ पुरुष से संतान प्राप्त करो’।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में पाण्डु-पृथा-संवादविषयक एक सौ उन्नीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ बीसवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) विंशत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद)

"कुन्‍ती का पाण्‍डु को व्युषिताश्व के मृत शरीर से उसकी पतिव्रता पत्नी भद्रा के द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन"

वैशम्‍पायन जी कहते है ;- महाराज जनमेजय! इस प्रकार कहे जाने पर कुन्ती अपने पति कुरुश्रेष्ठ वीरवर राजा पाण्‍डु से इस प्रकार बोली,,

कुन्ती बोली ;- ‘धर्मज्ञ! आप मुझसे किसी तरह ऐसी बात न कहें; मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ और कमल के समान विशाल नेत्रों वाले आप में ही अनुराग रखती हूँ। महाबाहु वीर भारत! आप ही मेरे गर्भ से धर्मपूर्वक अनेक पराक्रमी पुत्र उत्‍पन्न करेंगे। नरश्रेष्ठ! मैं अपके साथ ही स्‍वर्गलोक में चलूंगी। कुरुनन्‍दन! पुत्र की उत्‍पत्ति के लिये आप ही मेरे पास समागम कीजिये। मैं आपके सिवा किसी दूसरे पुरुष से समागम करने की बात मन में भी नहीं ला सकती। फि‍र इस पृथ्‍वी पर आपसे श्रेष्ठ दूसरा मनुष्‍य है भी कौन। धर्मात्‍मन्! पहले आप मेरे मुंह से यह पौराणिक कथा सुन लीजिये।

  विशालाक्ष! यह जो कथा मैं कहने जा रही हूं, सर्वत्र विख्‍यात है। कहते हैं, पूर्वकाल में एक परमधर्मात्‍मा राजा हो गये हैं। उनका नाम व्‍युषिताश्व। वे पूरुवंश की वृद्धि करने वाले थे। एक समय वे महाबाहु धर्मात्‍मा नरेश जब यज्ञ करने लगे, उस समय इन्‍द्र आदि देवता देवर्षियों के साथ उस यज्ञ में पधारे थे। उसमें देवराज इन्‍द्र सोमपान करके उन्‍मत्त हो उठे थे तथा ब्राह्मण लोग पर्याप्त दक्षिणा पाकर हर्ष से फूल उठे थे। महामना राजर्षि व्‍युषिताश्‍व के यज्ञ में उस समय देवता और ब्रह्मर्षि स्‍वयं सब कार्य कर रहे थे। राजन्! इससे व्‍युषिताश्‍व सब मनुष्‍यों से ऊंची स्थिति में पहुँचकर बड़ी शोभा पा रहे थे। राजा व्‍युषिताश्‍व समस्‍तभूतों के प्रीतिपात्र थे। राजाओं में श्रेष्ठ प्रतापी व्‍युषिताश्‍व ने अश्‍वमेध नामक महान् यज्ञ में पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण- चारों दिशाओं के राजाओं को जीतकर अपने वश में कर लिया- ठीक जिस प्रकार शिशिरकाल के अन्‍त में भगवान् सूर्यदेव सभी प्राणियों पर विजय कर लेते हैं- सबको तपाने लगते हैं।

उन महाराज में दस हाथियों का बल था। कुरुश्रेष्ठ! पुरावेत्ता विद्वान् यश में बढ़े-चढ़े हुए नरेन्‍द्र व्‍युषिताश्‍व के विषय में यह यशोगाथा गाते हैं- ‘राजा व्‍युषिताश्‍व समुद्र पर्यन्‍त इस सारी पृथ्‍वी को जीतकर जैसे पिता अपने औरस पुत्रों का पालन करता है, उसी प्रकार सभी वर्ण के लोगों का पालन करते थे। उन्‍होंने बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करके ब्राह्मणों को बहुत धन दिया। अनन्‍त रत्नों की भेंट लेकर उन्‍होंने बड़े-बड़े यज्ञ किये। अनेक सोमयागों का आयोजन करके उनमें बहुत-सा सोमरस संग्रह करके अग्निष्टोम-अत्य‍िगिन्‍ष्टोम आदि सात प्रकार की सोमयाग संस्‍थाओं का भी अनुष्ठान किया। नरेन्‍द्र! राजा कक्षीवान् की पुत्री भद्रा उनकी अत्‍यन्‍त प्‍यारी पत्नी थी।

उन दिनों इस पृथ्‍वी पर उसके रुप की समानता करने वाली दूसरी कोई स्त्री न थी। मैंने सुना है, वे दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को बहुत चाहते थे। पत्नी के प्रति अत्‍यन्‍त कामासक्त होने के कारण राजा व्‍युषिताश्‍व राजयक्ष्‍मा के शिकार हो गये। इस कारण वे थोड़े ही समय में सूर्य की भाँति अस्‍त हो गये। उन महाराज के परलोकवासी हो जाने पर उनकी पत्नी को बड़ा दु:ख हुआ। नरव्‍याघ्र जनेश्‍वर! हमने सुना है कि भद्रा के तब तक कोई पुत्र नहीं हुआ था। इस कारण वह अत्‍यन्‍त दु:ख से आतुर होकर विलाप करने लगी; वह विलाप सुनिये।'

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) विंशत्‍यधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 21-37 का हिन्दी अनुवाद)

भद्रा बोली ;- परमधर्मज्ञ! जो कोई भी विधवा स्त्री पति के बना जीवन धारण करती है, वह निरन्‍तर दु:ख में डूबी रहने के कारण वास्‍तव में जीती नहीं, अपितु मृततुल्‍या है। क्षत्रियशिरोमणे! पति के न रहने पर नारी की मृत्‍यु हो जाय, इसी में उसका कल्‍याण है। अत: मैं भी आपके ही मार्ग पर चलना चाहती हूं, प्रसन्न होइये और मुझे अपने साथ ले चलिये। आपके बिना एक क्षण भी जीवित रहने का मुझमें उत्‍साह नहीं है। राजन्! कृपा कीजिये और यहाँ से शीघ्र मुझे ले चलिये। नरश्रेष्ठ! आप जहाँ कभी न लौटने के लिये गये हैं, वहीं का मार्ग समतल हो या विषम, मैं आपके पीछे-पीछे अवश्‍य चली चलूंगी। राजन्! मैं छाया की भाँति आपके पीछे लगी रहूंगी एवं सदा आपकी आज्ञा के अधीन रहूंगी। नरव्‍याघ्र! मैं सदा आपके प्रिय और हित में लगी रहूंगी। कमल के समान नेत्रों वाले महाराज! आपके बिना आज से हृदय को सुखा देने वाले कष्ट और मानसिक चिन्‍ताऐं मुझे सताती रहेंगी। मुझ अभागिनी ने निश्‍चय ही कितने जीवनसंगियों (स्त्री-पुरुषों) में विछोह कराया होगा। इसीलिये आज आपके साथ मेरा वियोग घटित हुआ है।

   महाराज! जो स्त्री पति से बिछुड़ जाने पर दो घड़ी भी जीवन धारण करती है, वह पापिनी नरक में पड़ी हुई-सी दु:खमय जीवन बिताती है। राजन्! पूर्वजन्‍म के शरीर में स्थित रहकर मैंने एक साथ रहने वाले कुछ स्त्री-पुरुषों में कराया है। उन्‍हीं पापकर्मों द्वारा मेरे पूर्व शरीरों में जो बीजरूप से संचित हो रहा था, वही यह आपके वियोग का दु:ख आज मुझे प्राप्त हुआ है। महाराज! मैं दु:ख में डूबी हुई हूं, अत: आज से आपके दर्शन की इच्‍छा रखकर मैं कुश के बिछौने पर सोऊंगी। नरश्रेष्ठ नरेश्‍वर! करुण विलाप करती हुई मुझ दीन-दुखिया अबला को आज अपना दर्शन और कर्तव्‍य का आदेश दीजिये।

कुन्‍ती ने कहा ;- महाराज! इस प्रकार जब राजा के शव का आलिंगन करके वह बार-बार अनेक प्रकार से विलाप करने लगी, 

तब आकाशवाणी बोली ;- ‘भद्रे! उठो और जाओ, इस समय मैं तुम्‍हें वर देता हूँ। चारूहासिनि! मैं तुम्‍हारे गर्भ से कई कई पुत्रों को जन्‍म दूंगा। बरारोहे! तुम ॠतुस्‍नाता होने पर चतुर्दशी या अष्टमी की रात में अपनी शय्‍या पर मेरे इस शव के साथ सो जाना’। आकाशवाणी के यों कहने पर पुत्र की इच्‍छा रखने वाली पतिव्रता भद्रादेवी ने पति की पूर्वोक्त आज्ञा का अक्षरश: पालन किया। भरतश्रेष्ठ! रानी ने उस शव के द्वारा सात पुत्र उत्‍पन्न किये, जिनमें तीन शाल्‍वदेश के और चार मद्रदेश के शासक हुए। भरतवंशशिरोमणे! इसी प्रकार आज भी मेरे गर्भ से मानसिक संकल्‍प द्वारा अनेक पुत्र उत्‍पन्न कर सकते है; क्‍योंकि आप तपस्‍या और योगबल से सम्‍पन्न हैं।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में व्युषिताश्वोपाख्यानविषयक एक सौ बीसवाँ अध्‍याय पूरा हुआ


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