सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के एक सौ ग्यारहवें अध्याय से एक सौ पन्द्रहवें अध्याय तक (from the 111 chapter to the 115 chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))


 सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) एकादशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद)

"कुन्‍ती द्वारा स्‍वयंवर में पाण्‍डु का वरण और उनके साथ विवाह"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा कुन्तिभोज की पुत्री विशाल नेत्रों वाली पृथा धर्म, सुन्‍दर रुप तथा उत्तम गुणों से सम्‍पन्न थी। वह एकमात्र धर्म में ही रत रहने वाली और महान् व्रतों का पालन करने वाली थी। स्त्रीजनोचित सर्वोत्तम गुण अधिक मात्रा में प्रकट होकर उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। मनोहर रुप तथा युवावस्‍था से सुशोभित उस तेजस्विनी राजकन्‍या के लिये कई राजाओं ने महाराज कुन्तिभोज से याचना की। राजेन्‍द्र! तब कन्‍या के पिता राजा कुन्तिभोज ने उन सब राजाओं को बुलाकर अपनी पुत्री पृथा को स्‍वयंवर में उपस्थित किया। मनस्विनी कुन्‍ती ने सब राजाओं के बीच रंगमञ्च पर बैठे हुए भरतवंश शिरोमणि नृपश्रेष्ठ पाण्डु को देखा। उनमें सिंह के समान अभिमान जाग रहा था। उनकी छाती बहुत चौड़ी थी। उनके नेत्र बैल की आंखों के समान बड़े-बड़े थे। उनका बल महान् था। वे सब राजाओं की प्रभा को अपने तेज से आच्‍छादित करके भगवान् सूर्य की भाँति प्रकाशित हो रहे थे। उस राज समाज में वे द्वितीय इन्‍द्र के समान विराजमान थे।

    निर्दोष अंगों वाली कुन्तिभोजकुमारी शुभलक्षणा कुन्‍ती स्‍वयंवर की रंगभूमि में नरश्रेष्ठ पाण्‍डु को देखकर मन-ही-मन उन्‍हें पाने के लिये व्‍याकुल हो उठी। उसके सब अंग काम से व्‍याप्त हो गये और चित्त एकबारगी चञ्चल हो उठा। कुन्‍ती ने लजाते-लजाते राजा पाण्‍डु के गले में जयमाला डाल दी। सब राजाओं ने जब सुना कि कुन्‍ती ने महाराज पाण्‍डु का वरण कर लिया, तब वे हाथी, घोड़े, एवं रथों आदि वाहनों द्वारा जैसे आये थे,वैसे ही अपने-अपने स्‍थान को लौट गये। राजन्! तब उसके पिता ने (पाण्‍डु के साथ शास्त्र विधि के अनुसार) कुन्‍ती का विवाह कर दिया। अनन्‍त सौभाग्‍यशाली कुरुनन्‍दन पाण्‍डु कुन्तिभोजकुमारी से संयुक्‍त हो शची के साथ इन्‍द्र की भाँति सुशोभित हुए। राजेन्‍द्र! महाराज कुन्तिभोज ने कुन्‍ती और पाण्‍डु का विवाह संस्‍कार सम्‍पन्न करके उस समय उन्‍हें नाना प्रकार के धन और रत्नों द्वारा सम्‍मानित किया। तत्‍पश्चात् पाण्‍डु को उनकी राजधानी में भेज दिया। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! तब कौरवनन्‍दन राजा पाण्‍डु नाना प्रकार की ध्‍वजा-पताकाओं से सुशोभित विशाल सेना के साथ चले। उस समय बहुत-से ब्राह्मण एवं म‍हर्षि आशीर्वाद देते हुए उनकी स्‍तुति करवाते थे। हस्तिनापुर में आकर उन शक्तिशाली नरेश ने अपनी प्‍यारी पत्नी कुन्‍ती को राजमहल में पहुँचा दिया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में कुंतीविवाहविषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ बारहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद)

"माद्री के साथ पाण्‍डु का विवाह तथा राजा पाण्‍डु की दिग्विजय"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर शान्‍तनुनन्‍दन परमबुद्धिमान् भीष्‍म जी ने यशस्‍वी राजा पाण्डु के द्वितीय विवाह के लिये विचार किया। वे बूढ़े मन्त्रियों, ब्राह्मणों, महर्षियों, तथा चतुरंगिणी सेना के साथ मद्रराज की राजधानी में गये। वाहीक शिरो‍मणि राजा शल्‍य भीष्‍मजी का आगमन सुनकर उनकी अगवानी के लिये नगर से बाहर आये और यथोचित स्‍वागत-सत्‍कार करके उन्‍हें राजधानी के भीतर ले गये। वहाँ उनके लिये सुन्‍दर आसन, पाद्य, अर्ध्य तथा मधुपर्क अर्पण करके मद्रराज ने भीष्‍म जी से उनके आगमन का प्रयोजन पूछा। तब कुरुकुल का भार बहन करने वाले भीष्‍म जी ने मद्रराज से इस प्रकार कहा,,
भीष्म बोले ;- ‘शत्रुदमन! तुम मुझे कन्‍या के लिये आया समझो। सुना है, तुम्‍हारी एक यशस्विनी बहिन है, जो बड़े साधु स्‍वभाव की है; उसका नाम माद्री है। मैं उस यशस्विनी माद्री का अपने पाण्‍डु के लिये वरण करता हूँ। राजन्! तुम हमारे यहाँ सम्‍बन्‍ध करने में सर्वथा योग्‍य हो और हम भी तुम्‍हारे योग्‍य हैं। नरेश्वर! यों विचार कर तुम हमें विधिपूर्वक अपनाओ’। भीष्‍म जी के यों कहने पर,,
 मद्रराज ने उत्तर दिया ;- ‘मेरा विश्वास है कि आप लोगों से श्रेष्ठ वर मुझे ढूंढने से भी नहीं मिलेगा। परंतु इस कुल में पहले के श्रेष्ठ राजाओं ने कुछ शुल्‍क लेने का नियम चला दिया है। वह अच्‍छा हो या बुरा, मैं उसका उल्‍लंघन नहीं कर सकता। यह बात सब पर प्रकट है, नि:संदेह आप भी इसे जानते होंगे। साधुशिरोमणे! इस दशा में आपके लिये यह कहना उचित नहीं है कि मुझे कन्‍या दे दो। वीर! वह हमारा कुलधर्म है और हमारे लिये वही परम प्रमाण है। शत्रुदमन! इसीलिये मैं आपसे निश्चित रुप से यह नहीं कह पाता कि कन्‍या दे दूंगा’।

यह सुनकर जनेश्वर भीष्‍म जी ने मद्रराज को इस प्रकार उत्तर दिया,,

भीष्म बोले ;- 'राजन्! यह उत्तम धर्म है। स्‍वयं स्‍वयम्‍भू ब्रह्मा जी ने इसे धर्म कहा है। यदि तुम्‍हारे पूर्वजों ने इस विधि को स्‍वीकार कर लिया है तो इसमें कोई दोष नहीं है। शल्‍य! साधु पुरुषों द्वारा सम्‍मानित तुम्‍हारी कुल मार्यादा हम सबको विदित है’। यह कहकर महातेजस्‍वी भीष्‍म जी ने राजा शल्‍य को सोना और उसके बने हुए आभूषण तथा सहस्रों विचित्र प्रकार के रत्न भेंट किये। बहुत-से हाथी, घोड़े, रथ, वस्त्र, अलंकार और मणि-मोती और मूंगे भी दिये। वह सारा धन लेकर शल्‍य का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्‍होंने अपनी बहिन को वस्त्राभूषणों से विभूषित करके राजा पाण्‍डु के लिये कुरुश्रेष्ठ भीष्‍म जी को सौंप दिया।

   परम बुद्धिमान् गंगानन्‍दन भीष्‍म माद्री को लेकर हस्तिनापुर में आये। तदनन्‍तर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा अनुमोदित शुभ दिन और सुन्‍दर मुहूर्त आने पर राजा पाण्‍डु ने माद्री का विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया। इस प्रकार विवाह-कार्य सम्‍पन्न हो जाने पर कुरुनन्‍दन राजा पाण्‍डु ने अपनी कल्‍याणमयी भार्या को सुन्‍दर महल में ठहराया। राजाओं में श्रेष्ठ महाराज पाण्‍डु ने अपनी दोनों पत्नियों कुन्‍ती और माद्री के साथ यथेष्ट विहार करने लगे।

   जनमेजय! कुरुवंशी राजा पाण्‍डु तीस रात्रियों तक विहार करके समूची पृथ्‍वी पर विजय प्राप्त करने की इच्‍छा लेकर राजधानी से बाहर निकले। उन्‍होंने भीष्‍म आदि बड़े-बूढ़ों के चरणों में मस्‍तक झुकाया। कुरुनन्‍दन धृतराष्ट्र तथा अन्‍य श्रेष्ठ कुरुवंशियों को प्रणाम करके उन सब की आज्ञा ली और उनका अनुमोदन मिलने पर मंगलाचार युक्त आशीर्वादों से अभिनन्दित हो हाथी, घोड़ों तथा रथ समुदाय से युक्त विशाल सेना के साथ प्रस्‍थान किया। राजापाण्‍डु देवकुमार के सामन तेजस्‍वी थे। उन्‍होंने इस पृथ्‍वी पर विजय पाने की इच्‍छा से हृष्ट-पुष्ट सैनिकों के साथ अनेक शत्रुओं पर धावा किया। कौरवकुल के सुयश को बढ़ाने वाले, मनुष्‍यों में सिंह के समान पराक्रमी राजा पाण्‍डु ने सबसे पहले पूर्व के अपराधी दशार्णों पर धावा करके उन्‍हें युद्ध में परास्‍त किया।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) द्वादशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 26-45 का हिन्दी अनुवाद)

  तत्‍पश्चात् वे नाना प्रकार की ध्वजा-पताकाओं से युक्त और बहुसंख्‍यक हाथी, घोड़े, रथ एवं पैदलों से भरी हुई भारी सेना लेकर मगध देश में गये। वहाँ राजगृह में अनेक राजाओं का अपराधी बलाभिमानी मगधराज दीर्घ उनके हाथ से मारा गया। उसके बाद भारी खजाना और वाहन आदि लेकर पाण्डु ने मिथिला पर चढ़ाई की और विदेहवंशी क्षत्रियों को युद्ध में परास्‍त किया। नरश्रेष्ठ जनमेजय! इस प्रकार वे पाण्‍डु काशी, सुह्य तथा पुण्‍ड्र देशों पर विजय पाते हुए अपने बाहुबल और पराक्रम से कुरुकुल के यश का विस्‍तार करने लगे। उस समय शत्रुदमन राजा पाण्‍डु प्रज्‍वलित अग्नि के समान सुशोभित थे। बाणों के समुदाय उनकी शस्त्र लपटों के समान प्रतीत होते थे। उनके पास आकर बहुत से राजा भस्‍म हो गये। सेना सहित राजा पाण्‍डु ने सामने आये हुए सैन्‍यसहित नरपतियों की सारी सेनाऐं नष्ट कर दीं और उन्‍हें अपने अधीन करके कौरवों के आज्ञा पालन में नियुक्त कर दिया।
   पाण्‍डु के द्वारा परास्‍त हुए समस्‍त भूपालगण देवताओं में इन्‍द्र की भाँति इस पृथ्‍वी पर सब मनुष्‍यों में एक मात्र उन्‍हीं को शूरवीर मानने लगे। भूतल के समस्‍त राजाओं ने उनके सामने हाथ जोड़कर मस्‍तक टेक दिये और नाना प्रकार के रत्न एवं धन लेकर उनके पास आये। राजाओं के दिये हुए ढेर-के-ढेर मणि, मोती, मूंगे, स्‍वर्ण, चांदी, गौरत्न, अश्‍वरत्न, रथरत्न, हाथी, गदहे, ऊंट, भैंसे, बकरे, भेड़ें, कम्‍बल, मृगचर्म, रत्न, रंकुमृग के चर्म से बने हुए बिछौने आदि जो कुछ भी सामान प्राप्त हुए, उन सबको हस्तिनापुराधीश राजा पाण्‍डु ने ग्रहण कर लिया। वह सब लेकर महाराज पाण्‍डु अपने राष्ट्र के लोगों का हर्ष बढ़ाते हुए पुन: हस्तिनापुर चले आये। उस समय उनकी सवारी के अश्व आदि भी बहुत प्रसन्न थे। राजाओं में सिंह के समान पराक्रमी शान्‍तनु तथा परम बुद्धिमान् भरत की कीर्ति-कथा जो नष्ट-सी हो गयी थी, उसे महाराज पाण्डु ने पुनरुज्‍जीवित कर दिया। जिन राजाओं ने पहले कुरुदेश के धन तथा कुरुराष्ट्र का अपहरण किया था, उनको हस्तिनापुर के सिंह पाण्‍डु ने करद बना दिया। बहुत-से राजा तथा राजमन्‍त्री एकत्र होकर इस तरह की बातें कर रहे थे। उनके साथ नगर और जनपद के लोग भी इस चर्चा में सम्मिलित थे। उन सबके हृदय में पाण्‍डु के प्रति विश्‍वास तथा हर्षोल्‍लास छा रहा था।
   राजा पाण्‍डु जब नगर के निकट आये, तब भीष्‍म आदि सब कौरव उनकी अगवानी के लिये आगे बढ़ आये। उन्‍होंने प्रसन्नतापूर्वक देखा, राजा पाण्‍डु और उनका दल बड़े उत्‍साह के साथ आ रहे हैं। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानों वे लोग हस्तिनापुर से थोड़ी ही दूर जाकर वहाँ से लौट रहे हों, उनके साथ भाँति-भाँति के धन एवं नाना प्रकार के वाहनों पर लादकर लाये हुए छोटे-बड़े रत्न, श्रेष्ठ हाथी, घोड़े, रथ, गौऐं, ऊंट तथा भेड़ आदि भी थे। भीष्‍म के साथ कौरवों ने वहाँ जाकर देखा, तो उस धन-वैभव का कहीं अन्‍त नहीं दिखाई दिया। कौसल्‍या का आनन्‍द बढ़ाने वाले पाण्‍डु ने निकट आकर पितृव्‍य भीष्‍म के चरणों में प्रणाम किया और नगर तथा जनपद के लोगों का भी यथायोग्‍य सम्‍मान किया। शत्रुओं के राज्‍यों को धूल में मिलाकर कृतकृत्‍य होकर लौटे हुए अपने पुत्र पाण्‍डु का आलिंगन करके भीष्‍म जी हर्ष के आंसू बहाने लगे। सैकड़ों शंख, तुरही एवं नगारों की तुमुल ध्‍वनि से समस्‍त पुरवासियों को आनन्दित करते हुए पाण्‍डु ने हस्तिनापुर में प्रवेश किया।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में पाण्डुदिग्विजयविषयक एक सौ बारहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ तैरहवाँ अध्याय

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) त्रयोदशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद)

"राजा पाण्‍डु का पत्नियों सहित वन में निवास तथा विदुर का विवाह"

वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! बड़े भाई धृतराष्ट्र की आज्ञा लेकर राजा पाण्डु ने अपने बाहुबल से जीते हुए धन को भीष्‍म, सत्यवती तथा माता अम्बिका तथा अम्बालिका को भेंट किया। उन्‍होंने विदुर जी के लिये भी वह धन भेजा, धर्मात्‍मा पाण्डु ने अन्य सुहृदों को भी उस धन से तृप्त किया। भारत! तत्‍पश्चात् सत्‍यवती ने पाण्‍डु द्वारा जीत कर लाये हुए शुभ धन के द्वारा भीष्‍म और यशस्विनी कौसल्‍या को भी संतुष्ट किया। माता कौसल्‍या ने अनुपम तेजस्‍वी नरश्रेष्ठ पाण्‍डु को उसी प्रकार हृदय से लगाकर उनका अभिनन्‍दन किया जैसे शची अपने पुत्र जयन्‍त का अभिनन्‍दन करती है। वीरवर पाण्‍डु के पराक्रम से धृतराष्ट्र बड़े-बड़े सौ अश्वमेध यज्ञ किये तथा प्रत्‍येक यज्ञ में एक-एक लाख स्‍वर्णमुद्राओं की दक्षिणा दी।
    भरतश्रेष्ठ! राजा पाण्‍डु ने आलस्‍य को जीत लिया था। वे कुन्‍ती और माद्री की प्रेरणा से राजमहलों का निवास और सुन्‍दर शैय्‍याऐं छोड़कर वन में रहने लगे। पाण्‍डु सदा वन में रहकर शिकार खेला करते थे। वे हिमलाय के दक्षिण भाग की रमणीय भूमि में विचरते हुए पर्वत के शिखरों पर तथा ऊंचे शाल वृक्षों से सुशोभित वनों में निवास करते थे। कुन्ती और माद्री के साथ वन में विचरते हुए महाराज पाण्‍डु दो हथिनियों के बीच में स्थित ऐरावत हाथी की भाँति शोभा पाते थे। तलवार, बाण, धनुष और विचित्र कवच धारण करके अपनी दोनों पत्नियों के साथ भ्रमण करने वाले महान् अस्त्रवेत्ता भरतवंशी राजा पाण्‍डु को देखकर वनवासी मनुष्‍य यह समझते थे कि ये कोई देवता हैं। धृतराष्ट्र की आज्ञा से प्रेरित हो बहुत-से मनुष्‍य आलस्‍य छोड़कर वन में महाराज पाण्‍डु के लिये इच्‍छानुसार भोग सामग्री पहुँचाया करते थे। एक समय गंगानन्‍दन भीष्‍म जी ने सुना कि राजा देवक के यहाँ एक कन्‍या है, जो शूद्रजातीय स्त्री के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा उत्‍पन्न की गयी है। वह सुन्‍दर रुप और युवावस्‍था से सम्‍पन्न है। तब इन भरतश्रेष्ठ ने उसका वरण किया और उसे अपने यहाँ ले आकर उसके साथ परम बुद्धिमान् विदुर जी का विवाह कर दिया। कुरुनन्‍दन विदुर ने उसके गर्भ से अपने ही समान गुणवान् और विनयशील अनेक पुत्र उत्‍पन्न किये।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में विदुरविवाहविषयक एक सौ तेरहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ चौदहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्दशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)

"धृतराष्ट्र के गान्‍धारी से एक सौ पुत्र तथा एक कन्‍या की तथा सेवा करने वाली वैश्‍यजातीय युवती से युयुत्‍सु नामक एक पुत्र की उत्‍पत्ति"

वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! तदनन्‍तर धृतराष्ट्र के उनकी पत्नी गान्‍धारी के गर्भ से एक सौ पुत्र उत्‍पन्न हुए। धृतराष्ट्र की एक दूसरी पत्नी वैश्‍यजाति की कन्‍या थी। उससे भी एक पुत्र का जन्‍म हुआ। यह पूर्वोक्त सौ पुत्रों से भिन्‍न था। पाण्डु के कुन्‍ती और माद्री के गर्भ से पांच महारथी पुत्र उत्‍पन्न हुए। वे सब कुरुकुल की संतान परम्‍परा की रक्षा के लिये देवताओं के अंश से प्रकट हुए थे।
  जनमेजय ने पूछा ;- द्विजश्रेष्ठ! गान्‍धारी से सौ पुत्र किस प्रकार और कितने समय में उत्‍पन्न हुए? और उन सबकी पूरी आयु कितनी थी? वैश्‍यजातीय स्त्री के गर्भ से धृतराष्ट्र का वह एक पुत्र किस प्रकार उत्‍पन्न हुआ? राजा धृतराष्ट्र सदा अपने अनुकूल चलने वाली योग्य पत्नी धर्मपरायणा गान्‍धारी के साथ कैसा बर्ताव करते थे? महात्‍मा मुनि द्वारा शाप को प्राप्त हुए राजा पाण्‍डु के वे पांचों महारथी पुत्र देवताओं के अंश से कैसे उत्‍पन्न हुए? विद्वान तपोधन! ये सब बातें यथोचित रुप से विस्‍तारपूर्वक कहिये। अपने बन्‍धुजनों की यह चर्चा सुनकर मुझे तृप्ति नहीं होती।
   वैशम्‍पायन जी ने कहा ;- राजन्! एक समय की बात है, महर्षि व्‍यास भूख और परिश्रम से खिन्न होकर धृतराष्ट्र के यहाँ आये। उस समय गान्‍धारी ने भोजन और विश्राम की व्‍यवस्‍था द्वारा उन्‍हें संतुष्ट किया। तब व्‍यास जी ने गान्‍धारी को वर देने की इच्‍छा प्रकट की। गान्‍धारी ने अपने पति के समान ही सौ पुत्र मांगे। तदनन्‍तर समयानुसार गान्‍धारी ने धृतराष्ट्र से गर्भ धारण किया। दो वर्ष व्‍यतीत हो गये, तब तक गान्‍धारी उस गर्भ को धारण किये रही। फि‍र भी प्रसव नहीं हुआ। इसी बीच में गान्‍धारी ने जब यह सुना कि कुन्‍ती के गर्भ से प्रात:कालीन सूर्य के समान तेजस्‍वी पुत्र का जन्‍म हुआ है, तब उसे बड़ा दु:ख हुआ। उसे अपने उदर की स्थिरता पर बड़ी चिन्‍ता हुई। गान्‍धारी दु:ख से मूर्च्छित हो रही थी। उसने धृतराष्ट्र की अनजान में ही महान् प्रयत्न करके अपने उदर पर आघात किया। तब उसके गर्भ से एक मांस का पिण्‍ड प्रकट हुआ, जो लोहे के पिण्‍ड के समान कड़ा था। उसने दो वर्ष तक उसे पेट में धारण किया था, तो भी उसने उसे इतना कड़ा देखकर फेंक देने का विचार किया। इधर यह बात मह‍र्षि व्‍यास को मालूम हुई। तब वे बड़ी उतावली के साथ वहाँ आये। जप करने वालों में श्रेष्ठ व्‍यास जी ने उस मांसपिण्‍ड को देखा और गान्‍धारी से पूछा-

श्रेष्ठ व्‍यास जी बोले ;- ‘तुम इसका क्‍या करना चाहती थीं? और उसने महर्षि को अपने मन की बात सच-सच बता दी।
 गान्‍धारी ने कहा ;- मुने! मैंने सुना है, कुन्‍ती के एक ज्‍येष्ठ पुत्र उत्‍पन्न हुआ है, जो सूर्य के समान तेजस्‍वी है। यह समाचार सुनकर अत्‍यन्‍त दु:ख के कारण मैंने अपने उदर पर आघात करके गर्भ गिराया है। आपने पहले मुझे ही सौ पुत्र होने का वरदान दिया था; परंतु आज इतने दिनों बाद मेरे गर्भ से सौ पुत्रों की जगह यह मांसपिण्‍ड पैदा हुआ है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्दशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 18-36 का हिन्दी अनुवाद)

व्‍यास जी ने कहा ;- सुबलकुमारी! यह सब मेरे वरदान के अनुसार ही हो रहा है; वह कभी अन्‍यथा नहीं हो सकता। मैंने कभी हास-परिहास के समय भी झूठी बात मुंह से नहीं निकाली है। फि‍र वरदान आदि अन्‍य अवसरों पर कही हुई मेरी बात झूठी कैसे हो सकती है। तुम शीघ्र ही सौ मटके (कुण्‍ड) तैयार कराओ और उन्‍हें घी से भरवा दो। फि‍र अत्‍यन्‍त गुप्त स्‍थान में रखकर उनकी रक्षा की भी पूरी व्‍यवस्‍था करो। इस मांसपिण्‍डों को ठंडे जल से सींचो।

   वैशम्‍पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! उस समय सींचे जाने पर उस मांसपिण्‍ड के सौ टुकड़े हो गये। वे अलग-अलग अंगूठे के पोरु के बरावर सौ गर्भों के रुप में परिणित हो गये। राजन्! काल के परिवर्तन से क्रमश: मांसपिण्‍ड के यथायोग्‍य पूरे एक सौ एक भाग हुए। तत्‍पश्चात् गान्‍धारी ने उन सभी गर्भों को उन पूर्वोक्त कुण्‍डों में रखा। वे सभी कुण्‍ड अत्‍यन्‍त गुप्त स्‍थानों में रखे हुए थे। उनकी रक्षा की ठीक-ठीक व्‍यवस्‍था कर दी गयी।
    तब भगवान् व्‍यास ने गान्‍धारी से कहा ;- ‘इतने ही दिन अर्थात पूरे दो वर्षों तक प्रतीक्षा करने के बाद इन कुण्‍डों का ढक्‍कन खोल देना चाहिये’। यों कहकर और पूर्वोक्त प्रकार से रक्षा की व्‍यवस्‍था कराकर परमबुद्धिमान् भगवान् व्‍यास हिमालय पर्वत पर तपस्‍या के लिये चले गये।

    तदनन्‍तर दो वर्ष बीतने पर जिस क्रम से वे गर्भ उन कुण्‍डों में स्‍थापित किये गये थे, उसी क्रम से उनमें सबसे पहले राजा दुर्योधन उत्‍पन्न हुआ। जन्‍मकाल के प्रमाण से राजा युधिष्ठिर उससे भी ज्‍येष्ठ थे। दुर्योधन के जन्‍म का समाचार परम बुद्धिमान् भीष्‍म तथा विदुर जी को बतया गया। जिस दिन दुर्घर्ष वीर दुर्योधन का जन्‍म हुआ, उसी दिन परमपराक्रमी महाबाहु भीमसेन भी उत्‍पन्न हुए। राजन्! धृतराष्ट्र का वह पुत्र जन्‍म लेते ही गदहे के रेंकने की सी आवाज में रोने-चिल्‍लाने लगा। उसकी आवाज सुनकर बदले में दूसरे गदहे भी रेंकने लगे। गीध, गीदड़ और कौए भी कोलाहल करने लगे। बड़े जोर की आंधी चलने लगी। सम्‍पूर्ण दिशाओं में दाह-सा होने लगा। राजन्! तब राजा धृतराष्ट्र भयभीत-से हो उठे और बहुत-से ब्राह्मणों को, भीष्‍म जी और विदुर जी को, दूसरे-दूसरे सुहृदों तथा समस्‍त कुरुवंशियों को अपने समीप बुलवाकर उन-से इस प्रकार बोले-

धृतराष्ट्र बोले ;- ‘आदरणीय गुरुजनों! हमारे कुल की कीर्ति बढ़ाने वाले राजकुमार युधिष्ठिर सबसे ज्‍येष्‍ठ हैं। वे अपने गुणों से राज्‍य को पाने के अधिकारी हो चुके हैं। उनके विषय में हमें कुछ नहीं कहना है। किंतु उनके बाद मेरा यह पुत्र ही ज्‍येष्ठ है। क्‍या यह भी राजा बन सकेगा? इस बात पर विचार करके आप लोग ठीक-ठीक बतायें। जो बात अवश्‍य होने वाली है, उसे स्‍पष्ट कहें।’ जनमेजय! धृतराष्ट्र की यह बात समाप्त होते ही चारों दिशाओं में भयंकर मांसाहारी जीव गर्जना करने लगे। गीदड़ अमंगल सूचक बोली बोलने लगे। राजन्! सब ओर होने वाले उन भयानक अपशकुनों को लक्ष्‍य करके ब्राह्मण लोग ,,

    तथा परम बुद्धिमान विदुर जी इस प्रकार बोले ;- नरश्रेष्ठ नरेश्वर! आपके ज्‍येष्ठ पुत्र के जन्‍म लेने पर जिस प्रकार ये भयंकर अपशकुन प्रकट हो रहे हैं, उनसे स्‍पष्ट जान पड़ता है कि आपका यह पुत्र समूचे कुल का संहार करने वाला होगा। यदि इसका त्‍याग कर दिया जाय तो सब विघ्नों की शान्ति हो जायगी और यदि इसकी रक्षा की गयी तो आगे चलकर बड़ा भारी उपद्रव खड़ा होगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) चतुर्दशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 37-44 का हिन्दी अनुवाद)

‘महीपते! आपके निन्‍यान्‍बे पुत्र ही रहें; भारत! यदि आप अपने कुल की शान्ति चाहते हैं तो इस एक पुत्र को त्‍याग दें। केवल एक पुत्र के त्‍याग द्वारा इस सम्‍पूर्ण कुल का तथा समस्‍त जगत् का कल्‍याण कीजिये। नीति कहती है कि समूचे कुल के हित के लिये एक व्‍यक्ति को त्‍याग दे, गांव के हित के लिये एक कुल को छोड़ दे, देश के हित के लिये एक गांव का परित्‍याग कर दे और आत्‍मा के कल्‍याण के लिये सारे भूमण्‍डल को त्‍याग दे।’

   विदुर तथा उन सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणों के यों कहने पर भी पुत्र स्‍नेह के बन्‍धन में बंधे हुए राजा धृतराष्ट्र ने वैसा नहीं किया। जनमेजय! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र के पूरे सौ पुत्र हुए। तदनन्‍तर एक ही मास में गान्‍धारी से एक कन्‍या उत्‍पन्न हुई, जो सौ पुत्रों के अतिरिक्त थी। जिन दिनों गर्भ धारण करने के कारण गान्‍धारी का पेट बढ़ गया था और वह क्‍लेश में पड़ी रहती थी, उन दिनों महाराज धृतराष्ट्र की सेवा में एक वैश्‍यजातीय स्त्री रहती थी।

  राजन्! उस वर्ष धृतराष्ट्र के अंश से उस वैश्‍यजातीय भार्या के द्वारा महायशस्‍वी बुद्धिमान युयुत्सु का जन्‍म हुआ। जनमेजय! युयुत्‍सु करण कहे जाते थे इस प्रकार बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र के एक सौ वीर महारथी पुत्र हुए। तत्पश्चात एक कन्‍य‍ा हुई, जो सौ पुत्रों के अतिरिक्त थी। इन सबके सिवा महातेजस्‍वी परम प्रतापी वैश्‍यापुत्र युयुत्‍सु भी थे।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में गांधारीपुत्रोत्पत्तिविषयक एक सौ चौदहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)

सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (सम्भव पर्व)

एक सौ पन्द्रहवाँ अध्याय


(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) पंचदशाधिकशततम अध्‍याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)

"दु:शला के जन्‍म की कथा"

जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! महर्षि व्‍यास के प्रसाद से धृतराष्ट्र के सौ पुत्र हुए, यह बात आपने मुझे पहले ही बता दी थी। परंतु उस समय यह नहीं कहा था कि उन्‍हें एक कन्‍या भी हुई। अनघ! इस समय आपने वैश्‍यापुत्र युयुत्‍सु तथा सौ पुत्रों के अतिरिक्त एक कन्‍या की भी चर्चा की है। अमिततेजस्‍वी महर्षि व्‍यास ने गान्‍धार राजकुमारी को सौ पुत्र होने का ही वरदान दिया था। भगवन्! फि‍र आप मुझसे यह कैसे कहते हैं कि एक कन्‍या भी हुई। यदि महर्षि ने उक्त मांसपिण्‍ड के सौ भाग किये और यदि सुबलपुत्री गान्‍धारी ने किसी प्रकार फि‍र गर्भ धारण या प्रसव नहीं किया, तो उस दु:शला नाम वाली कन्‍या का जन्‍म किस प्रकार हुआ? ब्रह्मर्षे! यह सब यथार्थरूप से मुझे बताइये। मुझे इस विषय में बड़ा कौतुहल हो रहा है।

वैशम्‍पायन जी ने कहा ;- पाण्‍डवनन्‍दन! तुमने यह बहुत अच्‍छा प्रश्‍न पूछा है। मैं तुम्‍हें इसका उत्तर देता हूँ। महातपस्‍वी भगवान् व्‍यास ने स्‍वयं ही उस मांसपिण्‍ड को शीतल जल से सींचकर उसके सौ भाग किये। राजन्! उस समय जो भाग जैसा बना, उसे धाय द्वारा वे एक-एक करके घी से भरे हुए कुण्‍डों में डलवाते गये। इसी बीच में पूर्णदृढ़ता से सती व्रत का पालन करने वाली साध्‍वी एवं सुन्‍दरी गान्‍धारी कन्‍या के स्‍नेह-सम्‍बन्‍ध का विचार करके मन-ही-मन सोचने लगी- इसमें संदेह नहीं कि इस मांस पिण्‍ड से मेरे सौ पुत्र उत्‍पन्न होंगे; क्‍योंकि व्‍यास मुनि कभी झूठ नहीं बोलते; परंतु मुझे अधिक संतोष तो तब होता, यदि एक पुत्री भी हो जाती। यदि सौ पुत्रों के अतिरिक्त एक छोटी कन्‍या हो जायेगी तो मेरे पति दौहित्र के पुण्‍य से प्राप्त होने वाले उत्तम लोकों से भी वाञ्चित नहीं रहेंगे। कहते हैं, स्त्रियों का दामाद में पुत्र से भी अधिक स्‍नेह होता है। यदि मुझे भी सौ पुत्रों के अतिरिक्त एक पुत्री प्राप्त हो जाय तो मैं पुत्र और दौहित्र दोनों से घिरी रहकर कृतकृत्‍य हो जाऊं।

  यदि मैंने सचमुच तप, दान अथवा होम किया हो तथा गुरुजनों को सेवा द्वारा प्रसन्न कर लिया हो, तो मुझे भी पुत्री अवश्‍य प्राप्त हो। इसी बीच में मुनिश्रेष्ठ भगवान् श्रीकृष्‍ण द्वैपायन वेदव्‍यास ने स्‍वयं ही उस मांस पिण्‍ड के विभाग कर दिये और पूरे सौ अंशों की गणना करके गान्‍धारी से कहा,,
व्‍यास जी बोले ;- गान्‍धारी! मैंने झूठी बात नहीं कही थी; ये पूरे सौ पुत्र हैं। सौ के अतिरिक्त एक भाग और बचा है, जिससे दौहित्र का योग होगा। इस अंश से तुम्‍हें अपने मन के अनुरुप एक सौभाग्‍यशालिनि कन्‍या प्राप्त होगी। यों कहकर महातपस्‍वी व्‍यास जी ने घी से भरा हुआ एक और घड़ा मंगाया और उन तपोधन मुनि ने उस कन्‍याभाग को उसी में डाल दिया। भरतवंशी नरेश! इस प्रकार मैंने तुम्‍हें दु:शला के जन्‍म का प्रसंग सुना दिया। अनघ! बोलो, अब पुन: और क्‍या कहूँ।

(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत सम्‍भव पर्व में दु:शला की उत्पत्ति से सम्बंध रखने वाला एक सौ पंद्रहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ)


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