सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ छठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) षडधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद)
"महर्षि माण्डव का शूली पर चढ़ाया जाना"
जनमेजय ने पूछा ;- ब्रह्मन्! धर्मराज ने ऐसा कौन-सा कर्म किया था, जिससे उन्हें शाप प्राप्त हुआ? किस ब्रह्मर्षि के शाप से ये शूद्र योनि में उत्पन्न हुए।
वैशम्पायनजी कहते हैं ;- राजन्! पूर्वकाल में माण्डव्य नाम से विख्यात एक ब्राह्मण थे, जो धैर्यवान्, सब धर्मों के ज्ञाता, सत्यनिष्ठ एवं तपस्वी थे। वे अपने आश्रम के द्वार पर एक वृक्ष के नीचे दोनों बांहें ऊपर को उठाये हुए मौनव्रत धारण करके खड़े रहकर बड़ी भारी तपस्या करते थे। माण्डव्य जी बहुत बड़े योगी थे। उस कठोर तपस्या में लगे हुए महर्षि के बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक दिन उनके आश्रम पर चोरी का माल लिये हएु बहुत-से लुटेरे आये। जनमेजय! उन चोरों का बहुत-से सैनिक पीछा कर रहे थे। कुरुश्रेष्ठ! वे दस्यु वह चोरी का माल महर्षि के आश्रम में रखकर भय के मारे प्रजा-रक्षक सेना के आने के पहले वहीं कहीं छिप गये। उनके छिप जाने पर राक्षकों की सेना शीघ्रतापूर्वक वहाँ आ पहुँची। राजन्! चोरों का पीछा करने वाले लोगों ने इस प्रकार तपस्या में लगे हुए उन महर्षि को जब वहाँ देखा, तो पूछा कि ‘द्विजश्रेष्ठ: चोर किस रास्ते सं भगे हैं? जिससे वही मार्ग पकड़कर हम तीव्र गति से उनका पीछा करें’।
राजन्! उन रक्षकों के इस प्रकार पूछने पर तपस्या के धनी उन महर्षि ने भला-बुरा कुछ भी नहीं कहा। तब उन राज पुरुषों ने उस आश्रम में ही चोरों को खोजना आरम्भ किया और वहीं छिपे हुए चोरों तथा चोरी के माल को भी देख लिया। फिर तो रक्षकों को मुनि के प्रति मन में संदेह उत्पन्न हो गया और वे उन्हें बांधकर राजा के पास ले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने से सब बातें बतायीं और उन चोरों को भी राजा के हवाले कर दिया। राजा ने उन चारों के साथ महर्षि को भी प्राणदण्ड की आज्ञा दे दी। रक्षकों ने उन महातपस्वी मुनि को नहीं पहचाना और उन्हें शूली पर चढ़ा दिया। इस प्रकार वे रक्षक माण्डव्य मुनि को शूली पर चढ़ाकर वह सारा धन साथ ले राजा के पास लौट गये।
धर्मात्मा महर्षि माण्डव्य दीर्घकाल तक उस शूल के अग्रभाग पर बैठे रहे। वहाँ भोजन न मिलने पर भी उनकी मृत्यु नहीं हुई। वे प्राण धारण किये रहे और स्मरण मात्र करके ऋषियों को अपने पास बुलाने लगे। शूली की नोक पर तपस्या करने वाले उन महात्मा से प्रभावित होकर सभी तपस्वी मुनियों को बड़ा संताप हुआ। वे रात में पक्षियों का रुप धारण करके वहाँ उड़ते हुए आये और अपनी शक्ति के अनुसार स्वरूप को प्रकाशित करते हुए,,,
उन विप्रवर माण्डव्य मुनि से पूछने लगे ;- ‘ब्रह्मन्! हम सुनना चाहते हैं कि आपने कौन-सा पाप किया है, जिससे यहाँ शूल पर बैठने का यह महान् कष्ट आपको प्राप्त हुआ है?’
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में अणीमाण्डव्योपाख्यान विषयक एक सौ छवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ छठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) सप्ताधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्!
तब उन मुनिश्रेष्ठ ने उन तपस्वी मुनियों से कहा ;- ‘मैं किस पर दोष लागाऊं; दूसरे किसी ने मेरा अपराध नहीं किया है’। महाराज! रक्षकों ने बहुत दिनों तक उन्हें शूल पर बैठे देख राजा के पास जा सब समाचार ज्यों-का-त्यों निवेदन किया। उनकी बात सुनकर मन्त्रियों के साथ परामर्श करके राजा ने शूली पर बैठे हुए उन मुनिश्रेष्ठ को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया।
राजा ने कहा ;- मुनिवर! मैंने मोह अथवा अज्ञान वश जो अपराध किया है, उसके लिये आप मुझ पर क्रोध न करें। मैं आपसे प्रसन्न होने के लिये प्रार्थना करता हूँ।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! राजा के यों कहने पर मुनि उन पर प्रसन्न हो गये। राजा ने उन्हें प्रसन्न जानकर शूली से उतार दिया। नीचे उतारकर उन्होंने शूल के अग्रभाग के सहारे उनके शरीर के भीतर से शूल को निकालने के लिये खींचा। खींचकर निकालने में असफल होने पर उन्होंने उस शूल को मूलभाग में काट दिया। तब से वे मुनि शूलाग्रभाग को अपने शरीर के भीतर लिये हुए ही विचरने लगे। उस अत्यन्त घोर तपस्या के द्वारा महर्षि ने ऐसे पुण्यलोकों पर विजय पायी, जो दूसरों के लिये दुर्लभ हैं। अणी कहते हैं शूल के अग्रभाग को, उससे युक्त होने के कारण वे मुनि तभी से सभी लोकों में ‘अणी-माण्डव्य’ कहलाने लगे। एक समय परमात्मत्व के ज्ञाता विप्रवर माण्डव्य ने धर्मराज के भवन में जाकर उन्हें दिव्य आसन पर बैठे देखा। उस समय उन शक्तिशाली महर्षि ने उन्हें उलाहना देते हुए पूछा,,
महर्षि माण्डव्य बोले ;- मैंने अनजान में कौन-सा ऐसा पाप किया था, जिसके फल का भोग मुझे इस रुप में प्राप्त हुआ? मुझे शीघ्र इसका रहस्या बताओ। फिर मेरी तपस्या का बल देखो’।
धर्मराज बोले ;- तपोधन! तुमने फतिंगों के पुच्छ-भाग में सींक घुसेड़ दी थी। उसी कर्म का यह फल तुम्हें प्राप्त हुआ है। विप्रर्षे! जैसे थोड़ा-सा भी किया हुआ दान कई गुना फल देने वाला होता है, वैसे ही अधर्म भी बहुत दु:खरुपी फल देने वाला होता है।
अणीमाण्डव्य ने पूछा ;- अच्छा, तो ठीक-ठीक बताओ, मैंने किस समय, किस आयु में वह पाप किया था?
धर्मराज ने उत्तर दिया ;- ‘बाल्यावस्था में तुम्हारे द्वारा यह पाप हुआ था'।
अणीमाण्डव्य ने कहा ;- धर्म-शास्त्र के अनुसार जन्म से लेकर बारह वर्ष की आयु तक बालक जो कुछ भी करेगा, उसमें अधर्म नहीं होगा; क्योंकि उस समय तक बालक को धर्म-शास्त्र के आदेश का ज्ञान नहीं हो सकेगा। धर्मराज! तुमने थोड़े-से अपराध के लिये मुझे बड़ा दण्ड दिया है। ब्राह्मण का वध सम्पूर्ण प्राणियों के वध से भी अधिक भयंकर है। अत: धर्म! तुम मनुष्य होकर शूद्रयोनि में जन्म लोगे। आज से संसार में मैं धर्म के फल को प्रकट करने वाली मर्यादा स्थापित करता हूँ। चौदह वर्ष की उम्र तक किसी को पाप नहीं लगेगा। उससे अधिक की आयु में पाप करने वालों को ही दोष लगेगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! इसी अपराध के कारण महात्मा माण्डव्य के शाप से साक्षात् धर्म ही विदुर रूप में शूद्रयोनि में उत्पन्न हुए। वे धर्म-शास्त्र एवं अर्थशास्त्र के पण्डित, लोभ और क्रोध से रहित, दीर्घदर्शी, शान्तिपरायण तथा कौरवों के हित में तत्पर रहने वाले थे।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में अणीमाण्डव्योपाख्यान विषयक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ आठवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद)
"धृतराष्ट्र आदि के जन्म तथा भीष्म जी के धर्मपूर्ण शासन से कुरुदेश की सर्वांगीण उन्नति का दिग्दर्शन"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! धृतराष्ट्र, पाण्डु और महात्मा विदुर- इन तीनों कुमारों के जन्म से कुरुवंश, कुरुजांगल देश और कुरुक्षेत्र- इन तीनों की बड़ी उन्नति हुई। पृथ्वी पर खेती की उपज बहुत बढ़ गयी, सभी अन्न सरस होने लगे, बादल ठीक समय पर वर्षा करते थे, वृक्षों में बहुत-से फल और फूल लगने लगे। घोड़े-हाथी आदि वाहन हृष्ट-पुष्ट रहते थे, मृग और पक्षी बड़े आनन्द से दिन बिताते थे, फूलों और मालाओं में अनुपम सुगंध होती थी और फलों में अनोखा रस होता था। सभी नगर व्यापार-कुशल वैश्यों तथा शिल्पकला में निपुण कारीगर से भरे रहते थे। शूर-वीर, विद्वान् और संत सुखी हो गये। कोई भी मनुष्य डाकू नहीं था। पाप में रुचि रखने वाले लोगों का सर्वथा अभाव था। राष्ट्र के विभिन्न प्रान्तों में सत्ययुग छा रहा था। उस समय की प्रजा सत्य-व्रत के पालन में तत्पर हो स्वभावत: यज्ञ-कर्म में लगी रहती और धर्मानुकूल कर्मों में संलग्न रहकर एक-दूसरे को प्रसन्न रखती हुई सदा उन्नति के पथ पर बढ़ती जाती थी। सब लोग अभिमान और क्रोध से रहित लोभ से दूर रहने वाले थे; सभी एक-दूसरे को प्रसन्न रखने की चेष्टा करते थे। लोगों के आचार व्यवहार में धर्म की प्रधानता थी। समुद्र की भाँति सब प्रकार से भरा-पूरा कौरव नगर मेघ समूहों के समान बड़े-बड़े दरवाजों, फाटकों और गुपुरों से सुशोभित था। सैकड़ों महलों से संयुक्त वह पुरी देवराज इन्द्र की अमरावती के समान शोभा पाती थी। वहाँ के लोग नदियों, वनखण्डों, बावलियों, छोटे-छोटे जलाशयों, पर्वत शिखरों तथा रमणीय काननों में प्रसन्नतापूर्वक विहार करते थे।
उस समय दक्षिणकुरु देश के निवासी उत्तर कुरु में रहने वाले लोगों, देवताओं, ॠर्षियों तथा चारणों के साथ होड़-सी लगाते हुए स्वच्छन्द विचरण करते थे। कौरवों द्वारा बढ़ाये हुए उस रमणीय जनपद में न तो कोई कंजूस था और न विधवा स्त्रियां देखी जाती थीं। उस राष्ट्र के कुओं, बगीचों, सभा भवनों, बावलियों तथा ब्राह्मणों के घरों में सब प्रकार की समृद्धियां भरी रहती थीं और वहाँ नित्य-नूतन उत्सव हुआ करते थे। जनमेजय! भीष्म जी के द्वारा सब ओर से धर्मपूर्वक सुरक्षित भूमण्डल में वह कुरुदेश सैकड़ों देव स्थानों और यज्ञस्तम्भों से चिह्नित होने के कारण बड़ी शोभा पाता था। वह देश राष्ट्रों का शोधन करके निरन्तर उन्नति के पथ पर अग्रसार हो रहा था। राष्ट्र में सब ओर भीष्म जी के द्वारा चलाया हुआ धर्म का शासन चल रहा था। उन महात्माकुमारों के यज्ञोपवीतादि संस्कार किये जाने के समय नगर और देश के सभी लोग निरन्तर उत्सव मनाते थे। जनमेजय! कुरुकुल के प्रधान-प्रधान पुरुषों तथा अन्य नगर निवासियों के घरों में सदा सब ओर यही बात सुनायी देती थी कि ‘दान दो और अतिथियों को भोजन कराओ’। धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा परम बुद्धिमान् विदुर- इन तीनों भाइयों का भीष्म जी ने जन्म से ही पुत्र की भाँति पालन किया। उन्होंने ही उनके सब संस्कार कराये। फिर वे ब्रह्मचर्य व्रत के पालन और वेदों के स्वाध्याय में तत्पर हो गये। परिश्रम और व्यायाम में भी उन्होंने बड़ी कुशलता प्राप्त की। फिर धीरे-धीरे वे युवावस्था को प्राप्त हुए।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) अष्टाधिकशततम अध्याय के श्लोक 19-26 का हिन्दी अनुवाद)
धनुर्वेद, घोड़े की सवारी, गदायुद्ध, ढाल-तलवार के प्रयोग, गजशिक्षा तथा नीतिशास्त्र में वे तीनों भाई पारंगत हो गये। उन्हें इतिहास, पुराण तथा नाना प्रकार के शिष्टाचारों का भी ज्ञान कराया गया। वे वेद-वेदांगों के तत्त्वज्ञ तथा सर्वत्र एक निश्चित सिद्धान्त के मानने वाले थे। पाण्डु धनुर्विद्या में उस समय के मनुष्यों में सबसे बढ़-चढ़कर पराक्रमी थे। इसी प्रकार राजा धृतराष्ट्र दूसरे लोगों की अपेक्षा शारीरिक बल में बहुत बढ़कर थे।
राजन्! तीनों लोकों में विदुर के समान दूसरा कोई भी मनुष्य धर्मपरायण तथा धर्म में ऊंची अवस्था को प्राप्त (आत्मदृष्टा) नहीं था। नष्ट हुए शान्तनु के वंश का पुन: उद्धार हुआ देखकर समस्त राष्ट्र के लोग परस्पर कहने लगे- ‘वीर पुत्रों को जन्म देने वाली स्त्रियों में काशिराज की दोनों पुत्रियां सबसे श्रेष्ठ हैं, देशों में कुरुजांगल देश सबसे उत्तम है, सम्पूर्ण धर्मज्ञों में भीष्म जी का स्थान सबसे ऊंचा है तथा नगरों में हस्तिनापुर सर्वोत्तम है।’
धृतराष्ट्र अन्धे होने के कारण और विदुर जी पारशव (शूद्रा के गर्भ से ब्राह्मण द्वारा उत्पन्न) होने से राज्य न पा सके; अत: सबसे छोटे पाण्डु ही राजा हुए। एक समय की बात है, सम्पूर्ण नीतिज्ञ पुरुषों में श्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म जी धर्म के तत्त्व को जानने वाले विदुर जी से इन प्रकार न्यायोचित वचन बोले।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में पाण्डुराज्याभिषेक विषयक एक सौ आठवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ नवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) नवाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद)
"राजा धृतराष्ट्र का विवाह"
भीष्म जी ने कहा ;- बेटा विदुर! हमारा यह कुल अनेक सद्गुणों से सम्पन्न होकर इस जगत् में विख्यात हो रहा है। यह अन्य भूपालों को जीतकर इस भूमण्डल के साम्राज्य का अधिकारी हुआ है। पहले के धर्मज्ञ एवं महात्मा राजाओं ने इसकी रक्षा की थी; अत: हमारा यह कुल इस भूतल पर कभी उच्छिन्न नहीं हुआ। (बीच में संकट काल उपस्थित हुआ था किंतु) मैंने, माता सत्यवती ने तथा महात्मा श्रीकृष्ण्ाद्वैपायन व्यास जी ने मिलकर पुन: इस कुल को स्थापित किया है। तुम तीनों भाई इस कुल के तंतु हो और तुम्ही पर अब इसकी प्रतिष्ठा है। वत्स! यह हमारा वही कुल आगे भी जिस प्रकार समुद्र की भाँति बढ़ता रहे, नि:संदेह वही उपाय मुझे और तुम्हें भी करना चाहिये। सुना जाता है, यदुवंशी शूरसेन की कन्या पृथा (जो अब राजा कुन्तिभोज की गोद ली हुई पुत्री है) भली-भाँति हमारे कुल के अनुरुप है। इसी प्रकार गान्धारराज सुबल और मद्रनरेश के यहाँ भी एक-एक कन्या सुनी जाती है। बेटा! वे सब कन्याऐं बड़ी सुन्दरी तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हैं। वे श्रेष्ठ क्षत्रियगण हमारे साथ-विवाह-सम्बन्ध करने के सर्वथा योग्य हैं। बुद्धिमानों में श्रेष्ठ विदुर! मेरी राय है कि इस कुल की संतान परम्परा को बढ़ाने के लिये उक्त कन्याओं का वरण करना चाहिये अथवा जैसी तुम्हारी सम्मति हो, वैसा किया जाय।
विदुर बोले ;- प्रभो! आप हमारे पिता हैं, आप ही माता हैं और आप ही परम गुरु हैं; अत: स्वयं विचार करके जिस बात में इस कुल का हित हो, वह कीजिये।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- जनमेजय! इसके बाद भीष्म जी ने ब्राह्मणों से गान्धारराज सुबल की पुत्री शुभलक्षणा गान्धारी के विषय में सुना कि वह भगदेवता के नेत्रों का नाश करने वाली वरदायक भगवान् शंकर की आराधना करके अपने लिये सौ पुत्र होने का वरदान प्राप्त कर चुकी है। भारत! जब इस बात का ठीक-ठीक पता लग गया, तब कुरुपितामह भीष्म ने गान्धारराज के पास अपना दूत भेजा। धृतराष्ट्र अंधे हैं, इस बात को लेकर सुबल के मन में बड़ा विचार हुआ। परंतु उनके कुल, प्रसिद्धि और आचार आदि के विषय में बुद्धिपूर्वक विचार करके उसने धर्मपरायणा गान्धारी का धृतराष्ट्र के लिये वाग्दान कर दिया।
जनमेजय! गान्धारी ने जब सुना कि धृतराष्ट्र अंधे हैं और पिता-माता मेरा विवाह उन्हीं के साथ करना चाहते हैं, तब उन्होंने रेशमी वस्त्र लेकर उसके कई तह करके उसी से अपनी आंखें बांध लीं। राजन्! गान्धारी बड़ी पतिव्रता थीं। उन्होंने निश्चय कर लिया था कि मैं (सदा पति के अनुकूल रहूंगी,) उनके दोष नहीं देखूंगी। तदनन्तर एक दिन गान्धारराजकुमार शकुनि युवावस्था तथा लक्ष्मी के समान मनोहर शोभा से युक्त अपनी बहिन गान्धारी को साथ लेकर कौरवों के यहाँ गये और उन्होंने बड़े आदर-सत्कार के साथ धृतराष्ट्र को अपनी बहिन सौंप दी। शकुनि ने भीष्म जी की सम्मति के अनुसार विवाह-कार्य सम्पन्न किया। वीरवर शकुनि ने अपनी बहिन का विवाह करके यथा योग्य दहेज दिया। बदले में भीष्म जी ने भी उनका बड़ा सम्मान किया। तत्पश्चात् वे अपनी राजधानी को लौट आये। भारत! सुन्दर शरीर वाली गान्धारी ने अपने उत्तम स्वभाव, सदाचार तथा सद्व्यवहारों से कौरवों को प्रसन्न कर लिया। इस प्रकार सुन्दर बर्ताव से समस्त गुरुजनों की प्रसन्नता प्राप्त करके उत्तम व्रत का पालन करने वाली पतिपरायण गान्धारी ने कभी दूसरे पुरुषों का नाम तक नहीं लिया।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में धृतराष्ट्रविवाहविषयक एक सौ नवाँ अध्याय पूरा हुआ)
सम्पूर्ण महाभारत
आदि पर्व (सम्भव पर्व)
एक सौ दसवाँ अध्याय
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद)
"कुन्ती को दुर्वासा से मन्त्र की प्राप्ति, सूर्यदेव का आवाहन तथा उनके संयोग से कर्ण का जन्म एवं कर्ण के द्वारा इन्द्र को कवच और कुण्डलों का दान"
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- राजन्! यदुवंशियों में श्रेष्ठ शूरसेन हो गये हैं, जो वसुदेव जी के पिता थे। उन्हें एक कन्या हुई, जिसका नाम पृथा रखा गया। इस भूमण्डल में उसके रुप की तुलना में दूसरी कोई स्त्री नहीं थी। भारत! सत्यवादी शूरसेन ने अपने फुफेरे भाई संतानहीन कुन्तिभोज से पहले ही यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि मैं तुम्हें अपनी पहली संतान भेंट कर दूंगा। उन्हें पहले कन्या ही उत्पन्न हुई। अत: कृपाकांक्षी महात्मा सखा राजा कुन्तिभोज को उनके मित्र शूरसेन ने वह कन्या दे दी। पिता कुन्तिभोज के घर पर पृथा को देवताओं के पूजन और अतिथियों के सत्कार का कार्य सौंपा गया था। एक समय वहाँ कठोर व्रत का पालन करने वाले तथा धर्म के विषय में अपने निश्चय को सदा गुप्त रखने वाले एक ब्राह्मण महर्षि आये, जिन्हें लोग दुर्वासा के नाम से जानते हैं। पृथा उनकी सेवा करने लगी। वे बड़े उग्र स्वभाव के थे। उनका हृदय बड़ा कठोर था; फिर भी राजकुमारी पृथा ने सब प्रकार के यत्नों से उन्हें संतुष्ट कर लिया।
दुर्वासा जी ने पृथा पर आने वाले भावी संकट का विचार करके उनके धर्म की रक्षा के लिये उसे एक वशीकरण मन्त्र दिया और उसके प्रयोग की विधि भी बता दी।
तत्पश्चात वे मुनि उससे बोले ;- ‘शुभे! तुम इस मन्त्र द्वारा जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी-उसी के अनुग्रह से तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा’। ब्रह्मर्षि दुर्वासा के यों कहने पर कुन्ती के मन में बड़ा कौतुहल हुआ। वह यशस्विनी राजकन्या यद्यपि अभी कुमारी थी, तो भी उसने मन्त्र की परीक्षा के लिये सूर्य देव का आवाहन किया। आवाहन करते ही उसने देखा, सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति और पालन करने वाले भगवान् भास्कर आ रहे हैं। यह महान् आश्चर्य की बात देखकर निर्दोष अंगों वाली कुन्ती चकित हो उठी। इधर भगवान् सूर्य उसके पास आकर इस प्रकार बोले,,
सूर्य बोले ;- ‘श्याम नेत्रों वाली कुन्ती! यह मैं आ गया। बोलो, तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करूं? भद्रे! मैं दुर्वासा ऋषि के दिये हुए मन्त्र से प्रेरित हो तुम्हारे बुलाते ही तुम्हें पुत्र की प्राप्ति कराने के लिये उपस्थित हुआ हूँ। पवित्र मुस्कान वाली कुन्ती! तुम मुझे सूर्यदेव समझो।’
कुन्ती ने कहा ;- शत्रुओं का नाश करने वाले प्रभो! एक ब्राह्मण ने मुझे वरदान के रूप में देवताओं के आवाहन का मन्त्र प्रदान किया है। उसी की परीक्षा के लिये मैंने आपका आवाहन किया था। यद्यपि मुझसे यह अपराध हुआ है, तो भी इसके लिये आप के चरणों में मस्तक रखकर मैं यह प्रार्थना करती हूँ कि आप क्षमापूर्वक प्रसन्न हो जाइये। स्त्रियों से अपना अपराध हो जाय, तो भी श्रेष्ठ पुरुषों को सदा उनकी रक्षा ही करनी चाहिये।
सूर्यदेव बोले ;- शुभे! मैं यह सब जानता हूँ कि दुर्वासा ने तुम्हें वर दिया है। तुम भय छोड़कर यहाँ मेरे साथ समागम करो। शुभे! मेरा दर्शन अमोघ है और तुमने मेरा आवाहन किया है। भीरु! यदि यह आवाहन व्यर्थ हुआ, तो भी नि:संदेह तुम्हें बड़ा दोष लगेगा।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- भारत! भगवान् सूर्य ने कुन्ती को समझाते हुए इस तरह की बहुत-सी बातें कहीं; किंतु मैं अभी कुमारी कन्या हूं, यह सोचकर सुन्दरी कुन्ती ने उनसे समागम की इच्छा नहीं की। यशस्विनी कुन्ती भाई-बन्धुओं में बदनामी फैलने के डर से भी डरी हुई थी और नारी सुलभ लज्जा से भी वह विवश थी। भरतश्रेष्ठ! उस समय सूर्यदेव ने पुन: उससे कहा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 17-27 का हिन्दी अनुवाद)
'सुन्दर मुख एवं सुन्दर भौहों वाली राजकुमारी! तुम्हारे लिये जैसे पुत्र का निर्माण होगा, वह सुनो- शुचिस्मिते! वह माता अदिति के दिये हुए दिव्य कुण्डलों और मेरे कवच को धारण किये हुए उत्पन्न होगा। उसका वह कवच किन्हीं अस्त्र-शस्त्रों से टूट न सकेगा। उसके पास कोई भी वस्तु ब्राह्मणों के लिये अदेय न होगी। मेरे कहने पर भी वह कभी अयोग्य कार्य या विचार को अपने मन में स्थान न देगा। ब्राह्मणों के याचना करने पर वह उन्हें सब प्रकार की वस्तुऐं देगा ही। साथ ही वह बड़ा स्वाभिमानी होगा। रानी! मेरी कृपा से तुम्हें दोष भी नहीं लगेगा।’ कुन्ति-राजकुमारी कुन्ती से यों कहकर प्रकाश और गरमी उत्पन्न करने वाले भगवान् सूर्य ने उसके साथ समागम किया इससे उसी समय एक वीर पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ था। उसने जन्म से ही कवच पहन रखा था और वह देव कुमार के समान तेजस्वी तथा शोभा सम्पन्न था। जन्म के साथ ही कवच धारण किये उस बालक का मुख जन्मजात कुण्डली में प्रकाशित हो रहा था। इस प्रकार कर्ण नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो सब लोकों में विख्यात है। उत्तम प्रकाश वाले भगवान् सूर्य ने कुन्ती को पुन: कन्यात्व प्रदान किया।
तत्पश्चात् तपने वालों में श्रेष्ठ भगवान् सूर्य देवलोक में चले गये। उस नवजात कुमार को देखकर वृष्णिवंश की कन्या कुन्ती के हृदय में बड़ा दु:ख हुआ। उसने एकाग्रचित्त से विचार किया कि अब क्या करने से अच्छा परिणाम निकलेगा। उस समय कुटुम्बीजनों के भय से अपने उस अनुचित कृत्य को छिपाती हुई कुन्ती ने महाबली कुमार कर्ण को जल में छोड़ दिया। जल में छोड़े हुए उस नवजात शिशु को महायशस्वी सूतपुत्र अधिरथ ने, जिसकी पत्नी का नाम राधा था, ले लिया। उसने और उसकी पत्नी ने उस बालक को अपना पुत्र बना लिया। उन दम्पति ने उस बालक का नामकरण इस प्रकार किया; यह वसु (कवच-कुण्डलादि धन) के साथ उत्पन्न हुआ है, इसलिये वसुषेण नाम से प्रसिद्ध हो। वह बलवान् बालक बड़े होने के साथ ही सब प्रकार की अस्त्रविद्या में निपुण हुआ। पराक्रमी कर्ण प्रात: काल से लेकर जब तक सूर्य पृष्ठभाग की ओर न चले जाते, सूर्योपस्थान करता रहता था। उस समय मन्त्र जप में लगे हुए बुद्धिमान् वीर कर्ण के लिये इस पृथ्वी पर कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जिसे वह ब्राह्मणों के मांगने पर न दे सके। किसी समय की बात है, सूर्यदेव ने ब्राह्मण का रुप धारण करके कर्ण को स्वप्न में दर्शन दिया और इस प्रकार कहा-
सूर्यदेव बोले ;- ‘वीर! मेरी बात सुनो- आज की रात बीत जाने पर सबेरा होते ही इन्द्र तुम्हारे पास आयेंगे। उस समय वे ब्राह्मण वेष में होंगे। यहाँ आकर इन्द्र यदि तुम से भिक्षा मांगे तो उन्हें देना मत। उन्होंने तुम्हारे कवच और कुण्डलों का अपहरण करने का निश्चय किया है। अत: मैं तुम्हें सचेत किये देता हूँ। तुम मेरी यह बात याद रखना।’
कर्ण ने कहा ;- ब्रह्मन्! इन्द्र यदि ब्राह्मण का रुप धारण करके सचमुच मुझसे याचना करेंगे, तो मैं आपकी चेतावनी के अनुसार कैसे उन्हें वह वस्तु नहीं दूंगा। ब्राह्मण तो सदा अपना प्रिय चाहने वाले देवताओं के लिये भी पूजनीय हैं। देवाधिदेव इन्द्र ही ब्राह्मण रुप में आये हैं, यह जान लेने पर भी मैं उनकी अवहेलना नहीं कर सकूंगा।
सूर्य बोले ;- वीर! यदि ऐसी बात है तो सुनो, बदले में इन्द्र भी तुम्हें वर देंगे। उस समय तुम उनसे सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों का निराकरण करने वाली बरछी मांग लेना।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- स्वप्न में यों कहकर ब्राह्मण-वेषधारी सूर्य वहीं अन्तर्धान हो गये। तब कर्ण जाग गया और स्वप्न की बातों का चिन्तन करने लगा।’ तत्पश्चात् एक दिन महातेजस्वी देवराज इन्द्र ब्राह्मण बनकर भिक्षा के लिये कर्ण के पास आये और उससे उन्होंने कवच और कुण्डलों को मांगा।
(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) दशाधिकशततम अध्याय के श्लोक 28-31 का हिन्दी अनुवाद)
तब कर्ण ने हाथ जोड़कर देवराज इन्द्र को अपने शरीर के साथ ही उत्पन्न हुए कवच और शरीर से उधेड़कर एवं दोनों कुण्डलों को भी काटकर दे दिया। कवच और कुण्डलों को लेकर उसके इस कर्म से संतुष्ट हो इन्द्र ने मन-ही-मन हंसते हुए कहा,,
इन्द्र ने कहा ;- ‘अहो! यह तो बड़े साहस का काम है। देवता, दानव, यक्ष, गन्धर्व, नाग और राक्षस- इनमें से किसी को भी मैं ऐसा साहसी नहीं देखता। भला, कौन ऐसा कार्य कर सकता है।’
यों कहकर वे स्पष्ट वाणी में बोले ;- ‘वीर! मैं तुम्हारे इस कर्म से प्रसन्न हूं, इसलिये तुम जो चाहो, वही वर मुझसे मांग लो।’
कर्ण ने कहा ;- भगवन्! मैं आपकी दी हुई वह अमोघ बरछी चाहता हूं, जो शत्रुओं का संहार करने वाली है।
वैशम्पायन जी कहते हैं ;- तब देवराज इन्द्र ने बदले में उसे अपनी ओर से एक बरछी प्रदान की और कहा,,
इन्द्र ने कहा ;- ‘वीरवर! तुम देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग तथा राक्षसों में से जिस एक को जीतना चाहोगे, वही इस शक्ति के प्रहार से नष्ट हो जायगा। पहले इस पृथ्वी पर उसका नाम वसुषेण कहा जाता था। तत्पश्चात् अपने शरीर से कवच को कतर डालने के कारण वह कर्ण और वैकर्तन नाम से भी प्रसिद्ध हुआ।
(इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्तर्गत सम्भव पर्व में कर्ण की उत्पत्ति से सम्बंध रखने वाला एक सौ दसवाँ अध्याय पूरा हुआ)
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