।। ॐ नमः शिवाय ।।
"शिव चालीसा हिंदी उच्चारण सहित"
सूर्योदय से पूर्व स्नान कर श्वेत वस्त्र धारण करें, तत्पश्चात मृगचर्म या कुश के आसन पर बैठकर, भगवान शंकर की मूर्ति या चित्र तथा इस पुस्तक में बने शिव यंत्र को ताम्र पत्र पर खुदवाकर सामने रखें। फिर चंदन, चावल, आक के सफेद पुष्प, धूप, दीप, धतूरे का फल, बेल-पत्र तथा काली मिर्च आदि से पूजन करके शिवजी का ध्यान करते हुए निम्न श्लोक पढ़कर पुष्प समर्पित करें।
कर्पूरगौरं करुणावतारं, संसार सारं भुजगेंद्रहारम् ।
सदा वसंतं हृदयारविंदे, भवं भवानी सहितं नमामि ॥
इसके बाद पुष्प अर्पण करें फिर चालीसा का पाठ करें। पाठ के अंत में 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का १०८ बार तुलसी या सफेद चंदन की माला से जप करें। जप के साथ अर्थ की भावना करने से कार्यसिद्धि जल्दी होती है।
"प्रारंभ"
जय गणेश गिरिजा सुवन । मंगल मूल सुजान ।
कहत अयोध्यादास तुम । देउ अभय वरदान ।।
अर्थ ;- समस्त मंगलों के ज्ञाता गिरिजा सुत श्री गणेश की जय हो। मैं अयोध्यादास आपसे अभय होने का वर मांगता हूं।
जय गिरिजापति दीनदयाला। सदा करत संतन प्रतिपाला ।
भाल चंद्रमा सोहत नीके । कानन कुण्डल नागफनी के ।।
अर्थ ;- दीनों पर दया करने वाले तथा संतों की रक्षा करने वाले, पार्वती के पति शंकर भगवान की जय हो। जिनके मस्तक पर चंद्रमा शोभायमान है और जिन्होंने कानों में नागफनी के कुण्डल धारण किए हुए हैं।
अंग गौर सिर गंग बहाए। मुण्डमाल तन क्षार लगाए ।
वस्त्र खाल बाघंबर सोहै । छवि को देखि नाग मुनि मोहै ॥
अर्थ ;- जिनके अंग गौरवर्ण हैं, सिर से गंगा बह रही है, गले में मुण्डमाला है और शरीर पर भस्म लगी हुई है। जिन्होंने बाघंबर धारण किया हुआ है, ऐसे शिव की शोभा देखकर नाग और मुनि भी मोहित हो जाते हैं।
मैना मातु कि हवै दुलारी । वाम अंग सोहत छवि न्यारी ।
कर त्रिशूल सोहत छवि भारी । करत सदा शत्रुन क्षयकारी ।।
अर्थ ;- महारानी मैना की दुलारी पुत्री पार्वती उनके वाम भाग में सुशोभित हो रही हैं। जिनके हाथ का त्रिशूल अत्यंत सुंदर प्रतीत हो रहा है, वही निरंतर शत्रुओं का विनाश करता रहता है।
नंदि गणेश सोहैं तहं कैसे । सागर मध्य कमल हैं जैसे ।
कार्तिक श्याम और गणराऊ । या छवि को कहि जात न काऊ ।।
अर्थ ;- भगवान शंकर के समीप नंदी व गणेशजी ऐसे सुंदर लगते हैं, जैसे सागर के मध्य कमल । श्याम, कार्तिकेय और उनके करोड़ों गणों की छवि का बखान करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
देवन जबहीं जाय पुकारा । तबहीं दुःख प्रभु आप निवारा ।
कियो उपद्रव तारक भारी । देवन सब मिलि तुमहिं जुहारी ।।
अर्थ ;- हे प्रभु! जब-जब भी देवताओं ने पुकार की, तब-तब आपने उनके दुखों का निवारण किया है। जब तारकासुर ने उत्पात किया, तब सब देवताओं ने मिलकर रक्षा करने के लिए आपकी गुहार की।
तुरत षडानन आप पठायउ । लव निमेष महं मारि गिरायउ ।
आप जलंधर असुर संहारा । सुयश तुम्हार विदित संसारा ।।
अर्थ ;- तब आपने तुरंत स्वामी कार्तिकेय को भेजा जिन्होंने क्षणमात्र में ही तारकासुर राक्षस को मार गिराया। आपने स्वयं जलंधर का संहार किया, जिससे आपके यश तथा बल को सारा संसार जानता है।
त्रिपुरासुर सन युद्ध मचाई। सबहिं कृपा करि लीन बचाई ।
किया तपहिं भागीरथ भारी। पुरव प्रतिज्ञा तासु पुरारी ।।
अर्थ ;- त्रिपुर नामक असुर से युद्ध कर आपने देवताओं पर कृपा की, उन सभी को आपने बचा लिया। आपने अपनी जटाओं से गंगा की धारा को छोड़कर भागीरथ के तप की प्रतिज्ञा को पूरा किया था।
दानिन महं तुम सम कोइ नाहीं। सेवक स्तुति करत सदाहीं ।
वेद माहि महिमा तब गाई । अकथ अनादि भेद नहिं पाई ।।
अर्थ ;- संसार के सभी दानियों में आपके समान कोई दानी नहीं है। भक्त आपकी सदा ही वंदना करते रहते हैं। आपके अनादि होने का भेद कोई बता नहीं सका। वेदों में भी आपके नाम की महिमा गाई गई है।
प्रकटी उदधि मथन ते ज्वाला। जरत सुरासुर भए विहाला ।
कीन्ह दया तहं करी सहाई। नीलकंठ तव नाम कहाई ।।
अर्थ ;- समुद्र-मंथन करने से जब विष उत्पन्न हुआ, तब देवता और राक्षस दोनों ही बेहाल हो गए। तब आपने दया करके उनकी सहायता की और ज्वाला पान किया। तभी से आपका नाम नीलकंठ पड़ा।
पूजन रामचंद्र जब कीन्हा । जीत के लंक विभीषण दीन्हा ।
सहस कमल में हो रहे धारी । कीन्ह परीक्षा तबहिं पुरारी ।।
अर्थ ;- रामचंद्रजी ने लंका पर चढ़ाई करने से पहले आपका पूजन किया और विजयी हो लंका विभीषण को दे दी। भगवान रामचंद्र ने जब सहस्र कमल के द्वारा पूजन किया तो आपने फूलों में विराजमान हो परीक्षा ली।
एक कमल प्रभु राखेउ गोई । कमल नैन पूजन चहं सोई ।
कठिन भक्ति देखी प्रभु शंकर भये प्रसन्न दिये इच्छित वर ।।
अर्थ ;- आपने एक कमलपुष्प माया से लुप्त कर दिया तो श्रीराम ने अपने कमलनयन से पूजन करना चाहा। जब आपने राघवेंद्र की इस प्रकार की कठोर भक्ति देखी तो प्रसन्न होकर उन्हें मनवांछित वर प्रदान किया।
जय जय जय अनंत अविनासी करत कृपा सबके घटवासी ।
दुष्ट सकल नित मोहि सतावैं। भ्रमत रहौं मोहि चैन न आवै ।।
अर्थ ;- अनंत और अविनाशी शिव की जय हो, सबके हृदय में निवास करने वाले आप सब पर कृपा करते हैं। हे शंकरजी ! अनेक दुष्ट मुझे प्रतिदिन सताते हैं। जिससे मैं भ्रमित हो जाता हूं और मुझे चैन नहीं मिलता।
त्राहि त्राहि मैं नाथ पुकारौं । यहि अवसर मोहि आन उबारौ ।।
ले त्रिशूल शत्रुन को मारो। संकट ते मोहि आन उबारो ।।
अर्थ ;- हे नाथ! इन सांसारिक बाधाओं से दुखी होकर में आपका स्मरण करता हूं। आप मेरा उद्धार कीजिए। आप अपने त्रिशूल से मेरे शत्रुओं को नष्ट कर, मुझे इस संकट से बचाकर, भवसागर से उबार लीजिए।
मात-पिता भ्राता सब होई। संकट में पूछत नहिं कोई ।
स्वामी एक है आस तुम्हारी। आय हरहु मम संकट भारी ।।
अर्थ ;- माता-पिता और भाई आदि सुख में ही साथी होते हैं, संकट आने पर कोई पूछता भी नहीं । जगत के स्वामी! आप पर ही मेरी आशा टिकी है, आप मेरे इस घोर संकट को दूर कीजिए ।
धन निर्धन को देत सदाहीं। जो कोइ जांचे सो फल पाहीं ।
अस्तुति केहि विधि करौं तुम्हारी। क्षमहु नाथ अब चूक हमारी ।।
अर्थ ;- आप सदा ही निर्धनों की सहायता करते हैं। जिसने भी आपको जैसा जाना उसने वैसा ही फल प्राप्त किया। मैं प्रार्थना - स्तुति करने की विधि नहीं जानता। इसलिए कैसे करूं? मेरी सभी भूलों को क्षमा करें।
शंकर को संकट के नाशन । विघ्न विनाशन मंगल कारन ।
योगी यति मुनि ध्यान लगावें । नारद सारद शीश नवावें ॥
अर्थ ;- आप ही संकट का नाश करने वाले, समस्त शुभ कार्यों को कराने वाले और विघ्नहर्ता हैं। योगीजन, यति व मुनिजन आपका ही ध्यान करते हैं। नारद और सरस्वतीजी आपको ही शीश नवाते हैं।
नमो नमो जय नमः शिवाय । सुर ब्रह्मादिक पार न पाय ।
जो यह पाठ करे मन लाई । ता पर होत हैं शंभु सहाई ।।
अर्थ ;- 'ॐ नमः शिवाय' पंचाक्षर मंत्र का निरंतर जप करके भी देवताओं ने आपका पार नहीं पाया। जो इस शिव चालीसा का निष्ठा से पाठ करता है, भगवान शंकर उसकी सभी इच्छाएं पूरी करते हैं।
ऋनियां जो कोइ हो अधिकारी । पाठ करे सो पावनहारी ।।
पुत्र होन कर इच्छा कोई । निश्चय शिव प्रसाद तेहि होई ।।
अर्थ ;- यदि ऋणी (कर्जदार) इसका पाठ करे तो वह ऋणमुक्त हो जाता है। पुत्र प्राप्ति की इच्छा से जो इसका पाठ करेगा, निश्चय ही शिव की कृपा से उसे पुत्र प्राप्त होगा ।
पण्डित त्रयोदशी को लावै । ध्यान पूर्वक होम करावै ।
त्रयोदशी व्रत करै हमेशा । तन नहिं ताके रहै कलेशा ।।
अर्थ ;- प्रत्येक मास की त्रयोदशी को घर पर पण्डित को बुलाकर श्रद्धापूर्वक पूजन व हवन करना चाहिए। त्रयोदशी का व्रत करने वाले व्यक्ति के शरीर और मन को कभी कोई क्लेश (दुख) नहीं रहता ।
धूप दीप नैवेद्य चढ़ावै । शंकर सम्मुख पाठ सुनावै ।
जन्म-जन्म के पाप नसावै । अंत धाम शिवपुर में पावै ।।
अर्थ ;- धूप, दीप और नैवेद्य से पूजन करके शंकरजी की मूर्ति या चित्र के सामने बैठकर यह पाठ करना चाहिए। इससे समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और अंत में शिव लोक में वास होता है अर्थात् मुक्ति हो जाती है।
कहत अयोध्या आस तुम्हारी । जानि सकल दुःख हरहु हमारी ।।
नित्य नेम कर प्रातही, पाठ करो चालीस। तुम मेरी मनोकामना पूर्ण करो जगदीस ।।
अर्थ ;- अयोध्यादास कहते हैं, हे शंकरजी ! हमें आपकी ही आशा है, यह जानते हुए मेरे समस्त दुखों को दूर करिए। इस शिव चालीसा का चालीस बार प्रतिदिन पाठ करने से भगवान मनोकामना पूर्ण करेंगे।
मंगसर छठि हेमंत ऋतु, संवत् चौसठ जान ।
अस्तुति चालीसा शिवहिं, पूर्ण कीन कल्याण ।।
अर्थ ;- हेमंत ऋतु, मार्गशीर्ष मास की छठी तिथि संवत् 64 में यह चालीसा लोककल्याण के लिए पूर्ण हुई।
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"शिव स्तुति हिंदी उच्चारण सहित"
दो०-
श्री गिरिजापति वंदिकर, चरण मध्य शिरनाय ।
कहत अयोध्यादास तुम, मो पर होहु सहाय ।।
अर्थ ;- मैं अयोध्यादास माता पार्वती के पति भगवान शंकर की वंदना करता हूं व उनके चरणों में शीश नवाकर प्रार्थना करता हूं कि वे मेरी सहायता करें।
नंदी की सवारी, नाग अंगीकार धारी,
नित संत सुखकारी, नीलकंठ त्रिपुरारी हैं ।
गले मुण्डमाला धारी, सिर सोहे जटाधारी,
वाम अंग में बिहारी, गिरिजा सुतवारी हैं ।।
अर्थ ;- नंदी जिनका वाहन है, नागों को जिन्होंने अपने अंगों पर धारण किया हुआ है, जो नित्यप्रति संतजनों को सुख प्रदान करने वाले हैं; ऐसे नीलकंठ भगवान शंकर जी हैं। उन्हें हमारा प्रणाम स्वीकार हो। जिनके गले में मुंडों की माला है, जो सिर पर जटा धारण किए हुए हैं; वाम अंग में पार्वती जी विराजमान हैं, ऐसे पर्वतों के राजा भगवान शंकर जी हैं।
दानी देख भारी, शेष शारदा पुकारी,
काशीपति मदनारी, कर त्रिशूल चक्रधारी हैं ।
कला उजियारी, लख देव सो निहारी,
यश गावें वेद चारी, सो हमारी रखवारी हैं ।।
अर्थ ;- शारदा और शेष द्वारा महादानी के रूप में स्तुत्य, काम-शत्रु, काशीपति शिव हाथ में त्रिशूल और चक्र धारण किए हुए हैं। जिनकी उज्ज्वल कला को देवता भी निहारा करते हैं, चारों वेदों द्वारा स्तुत्य भगवान शंकर हमारी रक्षा करते हैं।
शंभु बैठे हैं विशाला, भंग पीवें सो निराला,
नित रहें मतवाला, अहि अंग पै चढ़ाए हैं।।
गले सोहे मुण्डमाला, कर डमरू विशाला,
अरु ओढ़े मृगछाला, भस्म अंग में लगाए हैं ।।
अर्थ ;- जो निराली भांग को पीकर नित्यप्रति मदहोश रहते हैं, वे शंभु समाधि में लीन हैं, उनके अंगों पर सर्प शोभायमान हैं। जिनके गले में मुंडों की माला शोभा दे रही है, जो हाथ में विशाल डमरू लिए हैं, मृगछाला को जिन्होंने अपने शरीर पर लपेट रखा है और शरीर पर भस्म लगाए हुए हैं।
संग सुरभी सुतशाला, करें भक्त प्रतिपाला,
मृत्यु हरें अकाला, शीश जटा को बढ़ाए हैं ।
कहैं रामलला करो मोहि तुम निहाला,
गिरिजापति कसाला, जैसे काम को जलाए हैं ।।
अर्थ ;- देवों की शरणरूप, भक्त पालक, अकाल मृत्युहर्ता शिव सिर पर जटाओं को बढ़ाए हुए हैं। हे गिरिजापति! जैसे आपने काम को जलाया था, वैसे ही मेरी तृष्णा को जलाकर मुझे निहाल करें, यह रामलला का निवेदन है।
मारा है जलंधर और त्रिपुर को संहारा जिन,
जारा है काम जाके शीश गंगधारा है ।
धारा है अपार जासु, महिमा है तीनों लोक,
भाल सोहै इंदु जाके, सुषमा की सारा है ।।
अर्थ ;- जिन्होंने मगरमच्छ, त्रिपुर राक्षस का वध किया, जिन्होंने काम को जला डाला, जिनके शीश पर गंगा की धारा भी है। गंगधार -सी अपार महिमा वाले, जिनके मस्तक पर चंद्रमा सुशोभित है, वे समस्त सुखों के स्वामी शिव हमारे रक्षक हैं।
सारा अहिबात सब, खायो हलाहल जानि,
भक्तन के अधारा, जाहि वेदन उचारा है ।
चारों हैं भाग जाके, द्वार हैं गिरीश कन्या,
कहत अयोध्या सोई, मालिक हमारा है ।।
अर्थ ;- जिन्होंने बात ही बात में सारा जहर पी लिया, वे भक्तों के रखवाले भगवान शंकर हैं, जिनका वेदों ने गान किया है। अयोध्यादास कहते हैं कि जो यज्ञ के चारों भागों के स्वामी हैं, गिरिराज सुता जिनके साथ हैं, वही हमारे स्वामी हैं।
अष्ट गुरु ज्ञानी जाके, मुख वेदबानी शुभ,
सोहै भवन में भवानी, सुख संपत्ति लहा करें ।
मुण्डन की माला जाके, चंद्रमा ललाट सोहै,
दासन के दास जाके, दारिद दहा करें ।।
अर्थ ;- आठों गुरु जानते हैं, जिनका मुख ही चारों वेदों की वाणी का रूप है, जिनके भवन की स्वामिनी माता भवानी हैं, वह शिव सुख और संपत्ति के दाता हैं। मुंडमालाधारी, मस्तक पर चंद्रधारी शिव, सेवकों के सेवक की भी दरिद्रता का नाश (दाह) करने वाले हैं।
चारों द्वार बंदी, जाके द्वारपाल नंदी,कहत कवि अनंदी,
नर नाहक हा हा करें जगत रिसाय, यमराज की कहा बसाय,।
शंकर सहाय, तो भयंकर कहा करें ।।
अर्थ ;- जिन्होंने नरक के चारों द्वार बंद करवा दिए हैं, जिनके द्वारपाल के रूप में नंदी विराजमान हैं, कवि आनंद कहते हैं कि ऐसे आनंद को देने वाले देवता के होते हुए भी लोग व्यर्थ ही हाहाकार करते हैं, क्योंकि सांसारिक लोगों की थोड़ी-सी पूजा-अर्चना से जो प्रसन्न हो जाते हैं और शंकरजी उनकी सहायता करते हैं तो ऐसे में यमराज की क्या आवश्यकता है, अर्थात आप भयंकर यमराज की यातना से बचना चाहते हैं तो शंकरजी की शरण में जाओ।
।। सवैया हिंदी उच्चारण सहित ।।
गौर शरीर में गौर विराजत, मौर जटा सिर सोहत जाके ।
नागन को उपवीत लसै अरु, भाल विराजत है शशि ताके ।।
अर्थ ;- गौर वर्णवाली पार्वती जिनके वाम विराज रही हैं और जिनके शीश पर जटाओं का मुकुट सुशोभित है। जिन्होंने सर्पों का उपवीत (जनेऊ) पहन रखा है और चंद्रमा जिनके मस्तक पर विराजमान है।
दान करै पल में फल चारि, और टारत अंक लिखे विधना के ।
शंकर नाम निःशंक सदा ही, भरोसे रहैं निशिवासर ताके ।।
अर्थ ;- जो पल भर में चारों फल ( धर्म, अर्थ, मोक्ष और काम) को देने वाले हैं और भाग्य में लिखे को बदल सकते हैं— उनका नाम भगवान शंकर है और बिना किसी शंका के निरंतर उनके भरोसे पर रहना चाहिए।
मंगसर मास हेमंत ऋतु, छठा दिन है शुभ बुद्ध ।
कहत अयोध्यादास तुम, शिव के विनय समुद्ध ।।
अर्थ ;- अयोध्यादास जी कहते हैं कि भगवान शिव की महान कृपा से मार्गशीर्ष मास की षष्ठी तिथि, बुधवार के शुभ दिन यह कार्य संपन्न हुआ।
।। श्री शिवाष्टक ।।
आदि अनादि अनंत, अखण्ड अभेद सुवेद बतावैं ।
अलख अगोचर रूप महेश कौ, जोगी जती मुनि ध्यान न पावैं ॥
आगम-निगम-पुरान सबै, इतिहास सदा जिनके गुन गावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो, सांब सदाशिव को नित ध्यावैं ।।
सृजन, सुपालन लय लीलाहित, जो विधि हरि-हररूप बनावैं ।
एकहि आप विचित्र अनेक, सुवेष बनाइकै लीला रचावैं ।।
सुंदर सृष्टि सुपालन कर, जग पुनि बन काल जु खाय पचावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो, सांब सदाशिव को नित ध्यावैं ।।
अन अनीह अनामय अज, अविकार सहज निज रूप धरावें ।
परम सुरम्य बसन- आभूषण, सजि मुनि - मोहन रूप करावैं ।।
ललित ललाट बाल बिधु विलसै, रतन-हार उर पै लहरावें ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो, सांब सदाशिव कौ नित ध्यावैं ।।
अंग विभूति रमाय मसान की, विषमय भुजंगनि कौ लपटावैं ।
नर-कपाल कर, मुण्डमाल गल, भालु-चर्म सब अंग उढ़ावैं ।।
घोर दिगंबर, लोचन तीन, भयानक देखि कै सब थर्रावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो, सांब सदाशिव को नित ध्यावैं ।।
सुनतहिदीन की दीन पुकार, दयानिधि आप उबारन आवैं ।
पहुंच तहां अविलंब सुदारुन, मृत्यु को मर्म बिदारि भगावैं ।।
मुनि मृकंडुसुत की गाथा सुचि, अजहूं विज्ञजन गाइ सुनावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो, सांब सदाशिव कौ नित ध्यावैं ।।
चाउर चारि जो फूल धतूरे के, बेल के पात और पानी चढ़ावें ।
गाल बजाय के बोल जो, 'हर हर महादेव' धुनि जोर लगावैं ।।
तिनहिं महाफल देंय सदाशिव, सहजहि भुक्ति-मुक्ति सो पावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो, सांब सदाशिव को नित ध्यावैं ।।
बिनसि दोष दुख दुरित दैन्य, दारिद्रयं नित्य सुख-शांति मिलावैं ।
आसुतोष हर पाप-ताप सब, निर्मल बुद्धि-चित्त बकसावैं ।।
असरन-सरन काटि भवबंधन, भव जिन भवन भव्य बुलवावैं ।
बड़भागी नर-नारि सोई जो, सांब सदाशिव कौ नित ध्यावैं ।।
औढरदानी, उदार अपार जु, नैकु-सी सेवा तें दुरि जावैं ।
दमन अशांति, समन संकट, बिरद विचार जनहिं अपनावैं ।।
Shivashtak ka meaning nahi hai. शिवाष्टक का अर्थ नहीं है यहां, कृपा अर्थ डाले
जवाब देंहटाएंध्यान दिलाया इसके लिए आप का धन्यवाद ,
हटाएंहम कोशिश करेंगे की जल्द आप को अर्थ सहित शिवाष्टक पड़ने को उपलब्ध हो,,!