सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) के प्रथम अध्याय (The first chapter of the entire Mahabharata (Aadi Parv))

 


महाभारत के पर्व (sections of mahabharat)

महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग है। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठ्ठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठ्ठारह थे। महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया है और महाभारत में 'भीष्म पर्व' के अन्तर्गत वर्णित 'श्रीमद्भगवद्गीता' में भी अठारह अध्याय हैं।

सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है। ‘पर्व’ का मूलार्थ है- "गाँठ या जोड़"। पूर्व कथा को उत्तरवर्ती कथा से जोड़ने के कारण महाभारत के विभाजन का यह नामकरण यथार्थ है। इन पर्वों का नामकरण, उस कथानक के महत्त्वपूर्ण पात्र या घटना के आधार पर किया जाता है। मुख्य पर्वों में प्राय: अन्य भी कई पर्व हैं। इन पर्वों का पुनर्विभाजन अध्यायों में किया गया है। पर्वों और अध्यायों का आकार असमान है। कई पर्व बहुत बड़े हैं और कई पर्व बहुत छोटे हैं। अध्यायों में भी श्लोकों की संख्या अनियत है। किन्हीं अध्यायों में पचास से भी कम श्लोक हैं और किन्हीं-किन्हीं में संख्या दो सौ से भी अधिक है। मुख्य अठारह पर्वों के नाम इस प्रकार हैं-

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1. आदि पर्व  (महाभारत) (Aadi Parv - Mahabharat)

2. सभापर्व (महाभारत) (Sabha Parv - Mahabharat)

3. वन पर्व (महाभारत) (Van Parv - Mahabharat)

4. विराट पर्व (महाभारत) (Virat Parv - Mahabharat)

5. उद्योग पर्व (महाभारत) (Udyog Parv - Mahabharat)

6. भीष्म पर्व (महाभारत) (Bheeshm Parv - Mahabharat)

7. द्रोण पर्व (महाभारत) (Dron Parv - Mahabharat)

8. कर्ण पर्व (महाभारत) (Karna Parv - Mahabharat)

9. शल्य पर्व (महाभारत) (Shalya Parv - Mahabharat)

10. सौप्तिक पर्व (महाभारत) (Souptik Parv - Mahabharat)

11. स्त्री पर्व (महाभारत) (Stree Parva - Mahabharat)

12. शान्ति पर्व (महाभारत) (Shanti Parv - Mahabharat) 

13. अनुशासन पर्व (महाभारत) (Anushasan Parv - Mahabharat)

14. आश्वमेधिक पर्व (महाभारत) (Aashwamedhik Parv - Mahabharat)

15. आश्रमवासिक पर्व (महाभारत) (Aashramvasik Parv - Mahabharat)

16. मौसल पर्व (महाभारत) (Mausal Parv - Mahabharat)

17. महाप्रास्थानिक पर्व (महाभारत) (Mahaprasthanik Parv - Mahabharat)

18. स्वर्गारोहण पर्व (महाभारत) (Swargarohan Parv - Mahabharat)


1. आदि पर्व  (महाभारत) (Aadi Parv - Mahabharat) प्रारम्भ ...….


सम्पूर्ण महाभारत 

आदि पर्व (अनुक्रमणिका पर्व)

प्रथम अध्याय

(श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद)

ब‍दरिकाश्रम निवासी प्रसिद्ध ऋषि श्री नारायण तथा श्री नर, उनकी लीला प्रकट करने वाली भगवती सरस्‍वती और उसके वक्‍ता महर्षि वेदव्‍यास को नमस्‍कार कर आसुरी शक्तियों का नाश करके अंत:करण पर दैवी शक्तियों पर विजय प्राप्‍त करने वाले जय महाभारत एवं अन्‍य इतिहास–पुराणादि का पाठ करना चाहिये।

ॐकारस्‍वरूप भगवान वासुदेव को नमस्‍कार है।

ॐकारस्‍वरूप भगवान पितामह को नमस्‍कार है।

ॐकारस्‍वरूप प्रजापतियों को नमस्‍कार है।

ॐकारस्‍वरूप श्रीकृष्‍ण द्वैपायन को नमस्‍कार है।

ॐकारस्‍वरूप सर्वविघ्‍नाशक विनायकों को नमस्‍कार है।

एक समय की बात है, नैमिषारण्य.में कुलपति महर्षि शौनक के बारह वर्षो तक चालू रहने वाले सत्र में जब उत्‍तम एवं कठोर ब्रह्मर्षिगण अवकाश के समय सुखपूर्वक बैठे थे, सूत कुल को आनन्दित करने वाले लोमहर्षण पुत्र उग्रश्रवा सौति स्‍वयं कौतूहलवश उन ब्रह्मर्षियों के समीप बड़े विनीत भाव से आये।

वे पुराणों के विद्वान और कथावाचक थे। उस समय नैमिषारण्‍य वासियों के आश्रम में पधारे हुए उन उग्रश्रवा जी को, उनसे चित्र-विचित्र कथाएँ सुनने के लिये, सब तपस्वियों ने वहीं घेर लिया। उग्रश्रवा जी ने पहले हाथ जोड़कर उन सभी मुनियों का अभिवादन किया और ‘आप लोगों की तपस्‍या सुखपूर्वक बढ़ रही है न? इस प्रकार कुशल प्रश्र किया। उन सत्‍पुरुषों ने भी उग्रश्रवा जी का भली-भाँति स्‍वागत-सत्‍कार किया। इसके उपरांत जब वे सभी तपस्‍वी अपने-अपने आसन पर विराजमान हो गये, तब लोमहर्षण पुत्र उग्रश्रवा जी ने भी उनके बताये हुए आसन को विनयपूर्वक ग्रहण किया।

तत्‍पश्‍चात यह देखकर कि उग्रश्रवा जी थकावट से रहित होकर आराम में बैठे हुए हैं, किसी म‍हर्षि ने बातचीत का प्रसंग उपस्थित करते हुए,,

  यह प्रश्‍न पूछा ;-- 'कमलनयन सूतकुमार! आपका शुभागमन कहाँ से हो रहा है? अब तक आपने कहाँ आनन्‍दपूर्वक समय बिताया है?' मेरे इस प्रश्‍न का उत्‍तर दीजिये। 

उग्रश्रवा जी एक कुशल वक्‍ता थे। इस प्रकार प्रश्‍न किये जाने पर वे शुद्ध अन्‍त:करण वाले मुनियों की उस विशाल सभा में ऋषियों तथा राजाओं से सम्‍बन्‍ध रखने वाली उत्‍तम एवं यथार्थ कथा कहने लगे। 

   उग्रश्रवा जी ने कहा ;-– महर्षियों! चक्रवर्ती सम्राट महात्‍मा राजर्षि परीक्षितनन्‍दन जनमेजय के सर्पयज्ञ में उन्‍ही के पास वैशम्‍पायन ने श्रीकृष्‍ण द्वैपायन व्‍यास जी के द्वारा निर्मित परमपुण्‍यमयी चित्र-विचित्र अर्थ से युक्‍त महाभारत की जो विविध कथाएँ विधिपूर्वक कही हैं, उन्हें मैं सुन कर आ रहा हूँ। 

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 12-27 का हिन्दी अनुवाद)

   मैं बहुत से तीर्थों एवं धामों की यात्रा करता हुआ ब्राह्मणों के द्वारा सेवित उस परमपुण्‍यमय समन्‍तपंचक क्षेत्र कुरुक्षेत्र देश में गया, जहाँ पहले कौरव-पाण्डव एवं अन्‍य सब राजाओं का युद्ध हुआ था। वहीं से आप लोगों के दर्शन की इच्‍छा लेकर मैं यहाँ आपके पास आया हूँ। मेरी यह मान्‍यता है कि आप सभी दीर्घायु एवं ब्रह्मस्‍वरूप हैं। ब्राह्मणों! इस यज्ञ में सम्मलित आप सभी महात्‍मा बड़े भाग्‍यशाली तथा सूर्य और अग्नि के समान तेजस्‍वी हैं। इस समय आप सभी स्‍नान, संध्‍या वन्‍दन, जप और अग्निहोत्र आदि करके शुद्ध हो अपने-अपने आसन पर स्‍वस्‍थचित्त से विराजमान हैं। आज्ञा कीजिये, मैं आप लोगों को क्‍या सुनाऊँ? क्‍या मैं आप लोगों को धर्म और अर्थ के गूढ़ रहस्‍य से युक्‍त, अन्‍त:करण को शुद्ध करने वाली भिन्‍न-भिन्‍न पुराणों की कथा सुनाऊँ अथवा उदार चरित महानुभाव ऋषियों एवं सम्राटों के पवित्र इतिहास?

  ऋषियों ने कहा ;- उग्रश्रवा जी! परमर्षि श्रीकृष्‍ण द्वैपायन ने जिस प्राचीन इतिहासरूप पुराण का वर्णन किया है और देवताओं तथा ऋषियों ने अपने-अपने लोक में श्रवण करके जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जो आख्‍यानों में सर्वश्रेष्‍ठ है, जिसका एक-एक पद, वाक्‍य एवं पर्व विचित्र शब्‍द विन्‍यास और रमणीय अर्थ से परिपूर्ण है, जिसमें आत्‍मा-परमात्‍मा के सूक्ष्‍म स्‍वरूप का निर्णय एवं उनके अनुभव के लिये अनुकूल युक्तियाँ भरी हुई हैं और जो सम्‍पूर्ण वेदों के तात्‍पर्यानुकूल अर्थ से अलंकृत है, उस भारत इतिहास के परमपुण्‍यमयी ग्रन्‍थ के गुप्‍त भावों को स्‍पष्‍ट करने वाली, पदों वाक्‍यों की व्‍युत्पत्ति से युक्‍त, सब शास्त्रों के अभिप्राय के अनुकूल और उनसे समर्थित हो अद्भुतकर्म व्‍यास की संहिता है, उसे हम सुनना चाहते है। अवश्‍य ही वह चारों वेदों के अर्थों से भरी हुई तथा पुण्‍यस्‍वरूप है। पाप और भय को नाश करने वाली है। भगवान वेदव्‍यास की आज्ञा से राजा जनमेजय के यज्ञ में प्रसिद्ध ऋषि वैशम्पायन ने आनन्‍द में भरकर भली-भाँति इसका निरूपण किया है।

   उगश्रवा जी ने कहा ;- जो सबका आदि कारण अन्‍तर्यामी और नियन्‍ता है, यज्ञों में जिसका आवाहन और जिसके उद्देश्‍य से हवन किया जाता है, जिसकी अनेक पुरुषों द्वारा अनेक नामों से स्‍तुति की गयी है, जो ऋत (सत्‍यस्‍वरूप), एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव एवं एकमात्र अविनाशी और सर्वव्‍यापी परमात्‍मा), व्‍यक्‍ताव्‍यक्‍त (साकार-निराकार) स्‍वरूप एवं सनातन है, असत-सत एवं उभयरूप से जो स्‍वयं विराजमान है; फिर भी जिसका वास्‍तविक स्वरूप सत-असत दोनों से विलक्षण है, यह विश्‍व जिससे अभिन्‍न है, जो सम्‍पूर्ण परावर (स्‍थूल-सूक्ष्‍म) जगत का स्रष्टा पुराण पुरुष, सर्वोत्‍कृष्‍ट परमेश्‍वर एवं वृद्धि-क्षय आदि विकारों से रहित है, जिसे पाप कभी छू नहीं सकता, जो सहज शुद्ध है, वह ब्रह्म ही मंगलकारी एवं मंगलमय विष्‍णु है। उन्‍हीं चराचर गुरु ऋषिकेश (मन-इन्द्रियों के प्रेरक) श्रीहरि को नमस्‍कार करके सर्वलोक पूजित अद्भुत कर्मा महात्‍मा महर्षि व्‍यासदेव के इस अन्‍त:करणाशोचक मत का मैं वर्णन करूँगा।

  पृथ्वी पर इस इतिहास का अनेकों कवियों ने वर्णन किया है और इस समय भी बहुत से वर्णन करते हैं। इसी प्रकार अन्य कवि आगे भी इसका वर्णन करते रहेंगे। इस महाभारत की तीनों लोकों में एक महान ज्ञान के रूप में प्रतिष्ठा है। ब्राह्मणादि द्विजाति संक्षेप और विस्तार दोनों ही रूपों में अध्ययन और अध्यापन की परम्परा के द्वारा इसे अपने हृदय में धारण करते हैं।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 28-41 का हिन्दी अनुवाद)

  यह शुभ, ललित एवं मंगलमय शब्द विन्यास से अलंकृत है तथा वैदिक-लौकिक या संस्कृत-प्राकृत संकेतों से सुशोभित है। अनुष्टुप आदि नाना प्रकार के छन्द भी इसमें प्रयुक्त हुए है; अत: यह ग्रन्थ विद्वानों को बहुत ही प्रिय है। हिमालय की पवित्र तलहटी में पर्वतीय गुफा के भीतर धर्मात्मा व्यास जी स्नानादि से शरीर-शुद्धि करके पवित्र हो कुश का आसन बिछाकर बैठै थे। उस समय नियमपूर्वक शान्त चित्त हो वे तपस्या में संलग्न थे। ध्यानासन योग में स्थित हो उन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत-इतिहास के स्वरूप का विचार करके ज्ञानदृष्टि द्वारा आदि से अन्त तक सब कुछ प्रत्यक्ष की भाँति देखा और इस ग्रन्थ का निर्माण किया।

  सृष्टि के प्रारम्भ में जब यहाँ वस्तु विशेष या नाम रूप आदि का भान नहीं होता था, प्रकाश का कहीं नाम नहीं था; सर्वत्र अन्ध‍कार-ही-अन्धकार छा रहा था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डक प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण प्रजा का अविनाशी बीज था। ब्रह्मकल्प के आदि में उसी महान एवं दिव्य अण्डक को चार प्रकार के प्राणि-समुदाय का कारण कहा जाता है। जिसमें सत्य स्वरूप ज्योतिर्मय सनातन ब्रह्म अन्तर्यामी रूप से प्रविष्ट हुआ है, ऐसा श्रुति वर्णन करती है वह ब्रह्म अद्भुत, अचिन्त्य, सर्वत्र समान रूप से व्याप्त, अव्यक्त, सूक्ष्म, कारण स्वरूप एवं अनिर्वचनीय है और जो कुछ सत-असत रूप में उपलब्ध होता है, सब वही है। उस अण्डक से ही प्रथम देहधारी, प्रजापालक प्रभु, देवगुरु पितामह ब्रह्मा तथा रुद्र, मनु, प्रजापति, प्रमेष्ठी, प्रचेताओं के पुत्र, दक्ष तथा दक्ष के सात पुत्र प्रकट हुए। तत्पश्चात इक्कीस प्रजापति मरीचि आदि सात ऋषि और चौदह मनु पैदा हुए। जिन्हें मत्स्य कूर्म आदि अवतारों के रूप में सभी ऋषि मुनि जानते हैं, वे अप्रमेयात्मा विष्‍णु रूप पुरुष और उनकी विभूति रूप विश्व‍देव, आदित्य, वसु एवं अश्विनी कुमार आदि भी क्रमश: प्रकट हुए हैं। तदनन्तर यक, साध्य, पिशाच, गुह्मक और पितर एवं तत्त्वज्ञानी सदाचार परायण साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षिगण प्रकट हुए। इसी प्रकार बहुत से राजर्षियों का प्रदुर्भाव हुआ है, जो सब के सब शौर्यादि सद्गुणों से सम्पन्न थे। क्रमश: उसी ब्रह्माण्ड से जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष और दिशाएँ भी प्रकट हुई हैं।

   संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, दिन तथा रात्रि का प्राकट्य भी क्रमश: उसी से हुआ है। इसके सिवा और भी जो कुछ लोक में देखा या सुना जाता है वह सब उसी अण्डक से उत्पन्न हुआ है। यह जो कुछ भी स्थावर-जगत दृष्टिगोचर होता है, वह सब प्रलय काल आने पर अपने कारण में विलीन हो जाता है। जैसे ऋतु के आने पर उसके फल-पुष्प आदि नाना प्रकार के चिह्न प्रकट होते हैं और ऋतु बीत जाने पर वे सब समाप्त हो जाते हैं उसी प्रकार कल्प का आरम्भ होने पर पूर्ववत वे पदार्थ दृष्टिगोचर होने लगते हैं और कल्प के अन्त में उनका विलय हो जाता है। इस प्रकार यह अनादि और अनन्त काल-चक्र लोक में प्रवाह रूप से नित्य घूमता रहता है। इसी में प्राणियों की उत्पति और संहार हुआ करते हैं। इसका कभी उद्भव और विनाश नहीं होता। देवताओं की सृष्टि संक्षेप में तैंतीस हजार, तैंतीस सौ और तैंतीस लक्षित होती है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 42-58 का हिन्दी अनुवाद)

  पूर्वकाल में दिव:पुत्र, वृहत, भानु, चक्षु, आत्मा, विभावसु, सविता, ऋचीक, अरु, भानु, आशा तथा रवि ये सब शब्द विवस्वान के बोधक माने गये हैं, इन सबमें जो अन्तिम ‘रवि’ हैं वे ‘मह्य’ (मही-पृथ्वी में गर्भ स्थापन करने वाले एवं पूज्य) माने गये हैं। इनके तनय देवभ्राट हैं और देवभ्राट के तनय सुभ्राट माने गये हैं। सुभ्राट के तीन पुत्र हुए, वे सबके सब संतानवान और बहुश्रुत (अनेक शास्त्रों के) ज्ञाता हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- दशज्योति, शतज्योति तथा सहस्रज्योति। महात्मा दशज्योति के दस हजार पुत्र हुए। उनसे भी दस गुने अर्थात् एक लाख पुत्र यहाँ शतज्योति के हुए। फिर उनसे भी दस गुने अर्थात् दस लाख पुत्र सहस्र ज्योति के हुए। उन्हीं से यह कुरुवंश, यदुवंश, भरतवंश, ययाति और इक्ष्वाुकु वंश तथा अन्य राजर्षियों के सब वंश चले। प्राणियों की सृष्टि परम्परा और बहुत से वंश भी इन्हीं से प्रकट हो विस्तार को प्राप्त हुए हैं।

   परमेष्‍ठी ब्रह्मा जी की आज्ञा से वे उनके आसन के पास ही बैठ गये। उस समय व्‍यास जी के हृदय में आनंद का समुद्र उमड़ रहा था और मुख पर मन्‍द-मन्‍द पवित्र मुस्‍कान लहरा रही थी। परम तेजस्‍वी व्‍यास जाने परमेष्‍ठी ब्रह्माजी से निवेदन किया ‘भगवन! मैंने यह सम्‍पूर्ण लोकों से अत्‍यन्‍त पूजित एक महाकाव्‍य की रचना की है। ब्रह्मन! मैंने इस महाकाव्‍य में सम्‍पूर्ण वेदों का गुप्‍ततम रहस्‍य तथा अन्‍य सब शास्‍त्रों का सार संकलित करके स्‍थापित कर दिया है। केवल वेदों का ही नहीं, उनके अगं एवं उपनिषदों का भी इसमें विस्‍तार से निरूपण किया है।

   भगवान वेदव्‍यास, ने अपनी ज्ञानदृष्टि से सम्‍पूर्ण प्राणियों के निवास स्‍थान, धर्म, अर्थ और काम के भेद से त्रिविध रहस्‍य, कर्मोपासना ज्ञान रूप वेद, विज्ञान सहित योग, धर्म, अर्थ एवं काम; इन धर्म, काम और अर्थरूप तीन पुरुषार्थों के प्रतिपादन करने वाले विविध शास्‍त्र, लोक व्‍यवहार की सिद्धि के लिये आयुर्वेद, धनुर्वेद, स्‍थापत्‍यवेद, आदि लौकिक शास्‍त्र सब उन्‍हीं दश्‍ज्‍योति आदि से हुए हैं- इस तत्‍व को और उनके स्‍वरूप को भली- भाँति अनुभव किया। उन्‍होंने ही इस महाभारत ग्रन्थ में, व्‍याख्‍या के साथ इतिहास का तथा विविध प्रकार की श्रुतियों के रहस्‍य आदि का पूर्ण रूप से निरूपण किया है और इस पूर्णता को ही इस ग्रन्थ का लक्षण बताया गया है। म‍हर्षि ने इस महान ज्ञान का संक्षेप और विस्‍तार दोनों ही प्रकार से वर्णन किया है; क्‍योंकि संसार में विद्वान पुरुष संक्षेप और विस्‍तार दोनों ही रीतियों को पसंद करते हैं।

   कोई-कोई इस ग्रन्थ का आरम्‍भ ‘नारायण’ ‘नमस्‍कृत्‍य’ से मानते हैं और कोई-कोई आस्‍तीक पर्व से। दूसरे विद्वान ब्राह्मण उपचिर वसु की कथा से इसका विधिपूर्वक पाठ प्रारम्‍भ करते हैं। विद्वान पुरुष इस भारत संहिता के ज्ञान को विविध प्रकार से प्रकाशित करते हैं। कोई–कोई ग्रन्‍थ की व्‍यवस्था करके समझाने में कुशल होते हैं तो दूसरे विद्वान अपनी तीक्ष्‍ण मेधाशक्ति के द्वारा इन ग्रन्‍थों को धारण करते हैं। सत्‍यवतीनन्‍दन भगवान व्‍यास ने अपनी तपस्‍या एवं ब्रह्मचर्य की शक्ति से सनातन वेद का विस्‍तार करके इस लोक पावन पवित्र इतिहास का निर्माण किया है। प्रशस्‍त व्रतधारी, निग्रहानुग्रह-समर्थ, सर्वज्ञ पराशरनन्‍दन ब्रह्मर्षि श्रीकृष्‍ण द्वैपायन इस इतिहास शिरोमणि महाभारत की रचना करके यह विचार करने लगे कि अब शिष्‍यों को इस ग्रन्‍थ का अध्‍ययन कैसे कराऊँ? जनता में इसका प्रचार कैसे हो। द्वैपायन ऋषि का यह विचार जानकर लोकगुरु भगवान ब्रह्मा उन महात्‍मा की प्रसन्‍न्‍ता तथा लोक कल्याण की कामना से स्‍वयं ही व्यास जी के आश्रम पर पधारे।

(सम्पूर्ण महाभारत) आदि पर्व के प्रथम अध्याय: श्लोक 59-78 का हिन्दी अनुवाद)

  व्यास जी ब्रह्मा जी को देखकर आश्चर्यचकित रह गये। उन्‍होनें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और खड़ रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि मुनियों के साथ उन्‍होंने ब्रह्मा जी के लिये आसन की व्‍यवस्‍था की। जब उस श्रेष्‍ठ आसन पर ब्रह्मा जी विराज गये, तब व्‍यास जी ने उनकी परिक्रमा की और ब्रह्माजी के आसन के समीप ही विनयपूर्वक खड़े हो गये।

  इस ग्रन्‍थ में इतिहास और पुराणों का मन्थन करके उनका प्रशस्‍त रूप प्रकट किया गया है। भूत, वर्तमान और भविष्‍यकाल की इन तीनों संज्ञाओं का भी वर्णन हुआ है। इस ग्रन्‍थ में बुढ़ापा, मृत्‍यु, भय, रोग और पदार्थो के सत्‍यत्‍व और मिथ्‍यात्‍मक का विशेष रूप से निश्‍चय किया गया है तथा अधिकारी-भेद से भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के धर्मो एवं आश्रमों का भी लक्षण बताया गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र इन चारों वर्णों के कर्तव्‍य का विधान, पुराणों का सम्‍पूर्ण मूलतत्‍व भी प्रकट हुआ है। तपस्‍या एवं ब्रह्मचर्य के स्‍वरूप, अनुष्‍ठान एवं फलों का विवरण, पृथ्‍वी, चन्‍द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग-इन सबके परिमाण और प्रमाण, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और इनके आध्‍यात्मिक अभिप्राय और अध्‍यात्‍म शास्‍त्र का इस ग्रन्‍थ में विस्‍तार से वर्णन किया गया है। न्‍याय, शिक्षा, चिकित्‍सा, दान तथा पाशुपत (अन्‍तर्यामी की महिमा) का भी इसमें विशद निरूपण है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि देवता, मनुष्‍य आदि भिन्‍न-भिन्‍न योनियों में जन्‍म का कारण क्‍या है? लोकपावन तीर्थों, देशों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्र का भी इसमें वर्णन किया गया है। दिव्‍य नगर एवं दुर्गों के निर्माण का कौशल तथा युद्ध की निपुणता का भी वर्णन है। भिन्‍न-भिन्‍न भाषाओं और जातियों की जो विशेषताएँ है, लोक व्‍यवहार की सिद्धि के लिये जो कुछ आवश्‍यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी है; परन्‍तु मुझे इस बात की चिन्‍ता है कि पृथ्‍वी में इस ग्रन्‍थ को लिख सके ऐसा कोई नहीं है। 

ब्रह्मा जी ने कहा ;– व्‍यास जी! संसार में विशिष्ट तपस्‍या और विशिष्‍ट कुल के कारण जितने भी श्रेष्‍ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्‍हें सर्वश्रेष्‍ठ समझता हूँ; क्‍योंकि तुम्हें जगत, जीव और ईश्‍वर-तत्त्‍व का जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो। मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्‍हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्‍य भाषण करती रही है और तुमने अपनी रचना को काव्‍य कहा है, इसलिये अब यह काव्‍य के नाम से ही प्रसिद्ध होगी।

   संसार के बड़े से बड़े कवि भी इस काव्य से बढ़कर कोई रचना नहीं कर सकेंगे। ठीक वैसे ही, जैसे ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास तीनों आश्रम अपनी विशेषताओं द्वारा गृहस्थ आश्रम से आगे नहीं बढ़ सकते। मुनिवर! अपने काव्य को लिखवाने के लिये तुम गणेश जी का स्मरण करो। 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- महात्माओं! ब्रह्मा जी व्यास जी से इस प्रकार सम्भाषण करके अपने धाम ब्रह्मलोक में चले गये। निष्पाप शौनक! तदनन्तर सत्यवतीनन्दन व्यास जी ने भगवान गणेश का स्मरण किया और स्मरण करते ही भक्तवाञ्छाकल्पतरू विघ्नेनश्वर श्रीगणेश जी महाराज वहाँ आये, जहाँ व्यास जी विद्यमान थे। व्या‍स जी ने गणेश जी का बड़े आदर और प्रेम से स्वागत सत्कार किया और वे जब बैठ गये, 

तब उनसे कहा ;- गणनायक! आप मेरे द्वारा निर्मित इस महाभारत ग्रन्थ के लेखक बन जाइये; मैं बोलकर लिखाता जाऊँगा, मैंने मन ही मन इसकी रचना कर ली है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 79-94 का हिन्दी अनुवाद)

यह सुनकर विघ्नराज श्रीगणेश जी ने कहा ;– व्यास जी! यदि लिखते समय क्षणभर के लिये भी मेरी लेखनी न रुके तो मैं इस गन्थ का लेखक बन सकता हूँ। 

 व्यास जी ने भी गणेश जी से कहा ;-- ‘बिना समझे किसी भी प्रसंग में एक अक्षर भी न लिखियेगा।’ गणेश जी ने ‘ॐ’ कहकर स्वीकार किया और लेखक बन गये। तब व्यास जी भी कौतूहलवश ग्रन्थ में गाँठ लगाने लगे, वे ऐसे–ऐसे श्लोक बोल देते जिनका अर्थ बाहर से दूसरा मालूम पड़ता और भीतर कुछ और होता। इसके सम्बन्ध में प्रतिज्ञापूर्वक श्रीकृष्ण द्वैपायन मुनि ने यह बात कही है। इस ग्रन्थ में 8800 (आठ हजार आठ सौ श्लोक) ऐसे हैं, जिनका अर्थ मैं समझता हूँ, शुकदेव समझते हैं और संजय समझते हैं या नहीं, इसमें संदेह है। मुनिवर! वे कूट श्लोक इतने गुथे हुए और गम्भीरार्थक हैं कि आज भी उनका रहस्य-भेदन नहीं किया जा सकता; क्योंकि उनका अर्थ भी गूढ़ है और शब्द भी योगवृत्ति और रूढ़वृत्ति और आदि रचना वैचित्र्य के कारण गम्भीर हैं।

  स्वयं सर्वज्ञ गणेश जी भी उन श्लोकों का विचार करते समय क्षणभर के लिये ठहर जाते थे। इतने समय में व्यास जी भी और बहुत से श्लोकों की रचना कर लेते थे। संसारी जीव अज्ञानान्धकार से अन्धे होकर छटपटा रहे हैं। यह महाभारत ज्ञानाञ्जन की शलाका लगाकर उनकी आँख खोल देता है। वह शलाका क्या है? धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूप पुरुषार्थों का संक्षेप और विस्तार से वर्णन। यह न केवल अज्ञान की रतौंधी दूर करता, प्रत्युत सूर्य के समान उदित होकर मनुष्यों की आँख के सामने का सम्पूर्ण अन्धकार ही नष्ट कर देता है। यह भारत-पुराण पूर्ण चन्द्रमा के सामने है, जिससे श्रुतियों की चाँदनी छिटकती है और मनुष्यों की बु‍द्धिरूपी कुमुदिनी सदा के लिये खिल जाती है। यह भारत-इतिहास एक जाज्वल्यमान दीपक है। यह मोह अन्धकार मिटाकर लोगों के अंत:करण रूपी सम्पूर्ण अन्तरंग गृह को भली-भाँति ज्ञानालोक से प्रकाशित कर देता है।

  महाभारत वृक्ष का बीज है संग्रहध्याय और जड़ है पौलोम एवं आस्तीक-पर्व। सम्भवपर्व इसके स्कन्ध का विस्तार है और सभा तथा अरण्य पर्व पक्षियों के रहने योग्य कोटर हैं। अरणीपर्व इस वृक्ष का ग्रन्थि स्थल है। विराट और उद्योग पर्व इसका सारभाग है। भीष्म पर्व इसकी बड़ी शाखा है और द्रोण पर्व इसके पत्ते हैं। कर्ण पर्व इसके श्वेत पुष्प हैं और शल्य पर्व सुगन्ध। स्त्री पर्व और ऐषीक पर्व इसकी छाया है तथा शान्ति पर्व इसका महान फल है। आश्वमेधिक पर्व इसका अमृतमय रस है और आश्रमवासिक पर्व आश्रम लेकर बैठने का स्थान। मौसल पर्व श्रुतिरूपा ऊँची-ऊँची शास्त्रों का अन्तिम भाग है तथा सदाचार एवं विद्या से सम्पन्न द्विजाति इसका सेवन करते हैं। संसार में जितने भी श्रेष्ठ कवि होंगे उनके काव्य के लिये यह मूल आश्रय होगा। जैसे मेघ सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जीवनदाता है, वैसे ही यह अक्षय भारत-वृक्ष है। 

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- यह भारत एक वृक्ष है, इसके स्वादु, पवित्र, सरस एवं अविनाशी पुष्प तथा फल हैं- धर्म और मोक्ष। उन्हें देवता भी इस वृक्ष से अलग नहीं कर सकते; अब मैं उन्हीं का वर्णन करूँगा।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व)के प्रथम अध्याय श्लोक 95-115 का हिन्दी अनुवाद)

पहले की बात है ,,- शाक्तिशाली, धर्मात्मा श्रीकृष्ण द्वैपायन (व्यास) ने अपने माता सत्यवती और परमज्ञानी गंगापुत्र भीष्म पितामह की आज्ञा से विचित्रवीर्य की पत्नी अम्बिका आदि के गर्भ से तीन अग्नियों के समान तेजस्वी तीन कुरुवंशी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं- धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर।

इस महाभारत ग्रन्‍थ में व्‍यास जी ने कुरु वंश के विस्‍तार, गान्धारी की धर्मशीलता, विदुर की उत्तम प्रज्ञा और कुन्‍ती देवी के धैर्य का भली-भाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान व्यास ने इसमें वसुदेवनन्दन श्रीकृष्‍ण के माहात्मय, पाण्‍डवों की सत्‍यपरायणता तथा धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन आदि के दुर्व्‍यवहारों का स्‍पष्‍ट उल्‍लेख किया है। पुण्‍यकर्मा मानवों के उपाख्‍यानों सहित एक लाख श्‍लोकों के इस उत्तरग्रन्‍थ को आद्य भारत (महाभारत) जानना चाहिये। तदनन्‍तर व्‍यास जी ने उपाख्‍यान भाग को छोड़कर चौबीस हजार श्‍लोकों की 'भारत संहिता' बनायी; जिसे विद्वान पुरुष भारत कहते हैं। इसके पश्चात महर्षि ने पुन: पर्व सहित ग्रन्‍थ में वर्णित वृत्तान्‍तों की अनुक्रमणिका (सूची) का एक संक्षिप्‍त अध्‍याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्‍लोक हैं। व्‍यास जी ने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेव जी को इस महाभारत ग्रन्‍थ का अध्‍ययन कराया। तदनन्‍तर उन्‍होंने दूसरे सुयोग्‍य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्‍यों को इसका उपदेश दिया।

तत्‍पश्चात भगवान व्‍यास ने साठ लाख श्‍लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी। उसके तीन लाख श्‍लोक देवलोक में समादृत हो रहे हैं, पितृलोक में पंद्रह लाख तथा गन्‍धर्वलोक में चौदह लाख श्‍लोकों का पाठ होता है। इस मनुष्‍य लोक में एक लाख श्‍लोकों का आद्य भारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। देवर्षि नारद ने देवताओं को और असित देवल ने पितरों को इसका श्रवण कराया है। शुकदेव जी ने गन्धर्व, यक्ष तथा राक्षसों को महाभारत की कथा सुनायी है; परन्‍तु इस मनुष्‍य लोक में सम्‍पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि व्‍यास शिष्‍य धर्मात्‍मा वैशम्पायन जी ने इसका प्रवचन किया है। मुनिवरों! वही एक लाख श्‍लोकों का महाभारत आप लोग मुझसे श्रवण कीजिये। दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्ष के समान है। कर्ण स्‍कन्‍ध, शकुनि शाखा और दु:शासन समृद्ध फल पुष्‍प है। अज्ञानी राजा धृतराष्‍ट्र ही इसके मूल हैं।

  युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन स्‍कन्‍ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनन्‍दन इसके समृद्ध फल पुष्‍प हैं। श्रीकृष्‍ण, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्ष के मूल (जड़) हैं। महाराज पाण्डु अपनी बुद्धि और पराक्रम से अनेक देशों पर विजय पाकर (हिसंक) मृगों को मारने के स्‍वभाव वाले होने के कारण ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही निवास करते थे। एक दिन उन्‍होंने मृगरूपधारी महर्षि को मैथुनकाल में मार डाला। इससे वे बड़े भारी संकट में पड़ गये (ऋषि ने यह शाप दे दिया कि स्‍त्री सहवास करने पर तुम्‍हारी मृत्‍यु हो जायेगी), यह संकट होते हुए भी युधिष्ठिर आदि पाण्‍डवों के जन्‍म से लेकर जात-कर्म आदि सब संस्‍कार वन में ही हुए और वहीं उन्‍हें शील एवं सदाचार की रक्षा का उपदेश प्राप्त हुआ। पूर्वोक्‍त शाप होने पर भी संतान होने का कारण यह था कि कुल धर्म की रक्षा के लिये दुर्वासा द्वारा प्राप्‍त हुई विद्या का आश्रय लेने के कारण पाण्‍डवों की दोनों माताओं कुन्ती और माद्री के समीप क्रमश: धर्म, वायु, इन्‍द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार- इन देवताओं का आगमन सम्‍भव हो सका।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 116-129 का हिन्दी अनुवाद)

  पतिप्रिया कुन्‍ती ने पति से सब के धर्म-रहस्‍य की बातें सुनकर पुत्र पाने की इच्‍छा से मन्‍त्र जापपूर्वक स्‍तुति द्वारा धर्म, वायु और इन्‍द्र देवता का आवाहन किया। कुन्‍ती के उपदेश देने पर माद्री भी उस मन्‍त्र विद्या को जान गयी और उसने संतान के लिये दोनों अश्विनीकुमारों का आवाहन किया। इस प्रकार इन पाँचों देवताओं से पाण्‍डवों की उत्‍पत्ति हुई। पाँचों पाण्‍डव अपनी दोनों माताओं द्वारा ही पाले-पोसे गये। वे वनों में और महात्‍माओं के परमपुण्‍य आश्रमों में ही तपस्‍वी लोगों के साथ दिनों-दिन बढ़ने लगे। (पाण्‍डु की मृत्‍यु होने के पश्‍चात) बड़े-बड़े ऋषि मुनि स्‍वयं ही पाण्‍डवों को लेकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रों के पास आये। उस समय पाण्‍डव नन्‍हे नन्‍हे शिशु के रूप में बड़े ही सुन्‍दर लगते थे। वे सिर पर जटा धारण किये ब्रह्मचारी के वेश में थे।

  ऋषियों ने वहाँ जाकर धृतराष्ट्र एवं उनके पुत्रों से कहा ;- ‘ये तुम्‍हारे पुत्र, भाई, शिष्‍य और सुहृद हैं। ये सभी महाराज पाण्‍डु के ही पुत्र हैं।' इतना कहकर वे मुनि वहाँ से अंर्तधान हो गये। ऋषियों द्वारा लाये हुए उन पाण्‍डवों को देखकर सभी कौरव और नगर निवासी, शिष्‍ट तथा वर्णाश्रमी हर्ष से भरकर अत्‍यन्‍त कोलाहल करने लगे। कोई कहते, 'ये पाण्‍डु के पुत्र नहीं हैं।’ दूसरे कहते, ‘अजी! ये उन्‍हीं के हैं।’ कुछ लोग कहते, ‘जब पाण्‍डु को मरे इतने दिन हो गये, तब ये उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं? फिर सब लोग कहने लगे, ‘हम तो सर्वथा इनका स्‍वागत करते हैं। हमारे लिये बड़े सौभाग्‍य की बात है कि आज हम महाराज पाण्‍डु की संतान को अपनी आँखों से देख रहे हैं।’ फिर तो सब ओर से स्‍वागत बोलने वालों की ही बातें सुनायी देने लगीं।

  दर्शकों का वह तुमुल शब्‍द बंद होने पर सम्‍पूर्ण दिशाओं को प्रतिध्‍वनित करती हुई अद्दश्‍य भूतों-देवताओं की यह सम्मिलित आवाज (आकाशवाणी) गूँज उठी- ‘ये पाण्‍डव ही हैं’। जिस समय पाण्‍डवों ने नगर में प्रवेश किया, उसी समय फूलों की वर्षा होने लगी, सब ओर सुगन्‍ध छा गयी तथा शंख और दुन्‍दुभियों के मांगलिक शब्‍द सुनायी देने लगे। यह एक अदभुत चमत्‍कारी सी बात हुई। सभी नागरिक पाण्‍डवों के प्रेम से आनन्‍द में भरकर ऊँचे स्‍वर से अभिनन्‍दन ध्‍वनि करने लगे। उनका वह महान शब्‍द स्‍वर्गलोक तक गूँज उठा जो पाण्‍डवों की कीर्ति बढ़ाने वाला था। वे सम्‍पूर्ण वेद एवं विविध शास्‍त्रों का अध्‍ययन करके वहीं निवास करने लगे। सभी उनका आदर करते थे और उन्‍हें किसी से भय नहीं था। राष्‍ट्र की सम्‍पूर्ण प्रजा के शौचाचार, भीमसेन की धृति, अर्जुन के विक्रम तथा नकुल-सहदेव की गुरु शुश्रूषा, क्षमाशीलता और विनय से बहुत ही प्रसन्‍न होती थी। सब लोग पाण्‍डवों के शौर्य गुण से संतोष का अनुभव करते थे।

  तदनन्‍तर कुछ काल के पश्‍चात राजाओं के समुदाय में अर्जुन ने अत्‍यन्‍त दुष्‍कर पराक्रम करके स्‍वयं ही पति चुनने वाली द्रुपदकन्‍या कृष्णा को प्राप्‍त किया। तभी से वे इस लोक में सम्‍पूर्ण धर्नुधारियों के पूज्यनीय (आदरणीय) हो गये; और समरांगण में प्रचण्‍ड मार्तण्‍ड की भाँति प्रतापी अर्जुन की ओर किसी के लिये आँख उठाकर देखना भी कठिन हो गया। उन्‍होंने पृथक-पृथक तथा महान संघ बनाकर आये हुए सब राजाओं को जीतकर महाराज युधिष्ठिर के राजसूय नामक महायज्ञ को सम्पन्न कराया।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 130-145 का हिन्दी अनुवाद)

  भगवान श्रीकृष्‍ण की सुन्‍दर नीति और भीमसेन तथा अर्जुन की शक्ति से बल के घमण्‍ड में चूर रहने वाले जरासन्ध और चेदिराज शिशुपाल को मरवाकर धर्मराज युधिष्ठिर ने महायज्ञ राजसूय का सम्‍पादन किया। वह यज्ञ सभी उत्तम गुणों से सम्‍पन्‍न था। उसमें प्रचुर अन्न और पर्याप्‍त दक्षिणा का वितरण किया गया था। उस समय इधर-उधर विभिन्न देशों तथा नृपतियों के यहाँ से मणि, सुवर्ण, रत्न, गाय, हाथी, घोड़े, धन-सम्पत्ति, विचित्र वस्त्र, तम्बू, कनात, परदे, उत्तम कम्बल, श्रेष्ठ मृगचर्म तथा रंकु नामक मृग के बालों से बने हुए कोमल बिछौने आदि जो उपहार की बहुमूल्य वस्तुएँ आतीं, वे दुर्योधन के हाथ में दी जातीं- उसी की देख-रेख में रखी जाती थीं।

उस समय पाण्डवों की वह बढ़ी-चढ़ी समृद्धि, सम्पत्ति देखकर दुर्योधन के मन में ईर्ष्‍याजनित महान रोष एवं दुःख का उदय हुआ। उस अवसर पर मयदान ने पाण्डवों को एक सभा भवन भेंट में दिया था, जिसकी रूप-रेखा विमान के समान थी। वह भवन उसके शिल्प कौशल का एक अच्छा नमूना था। उसे देखकर दुर्योधन को और अधिक संताप हुआ। उसी सभा भवन में जब सम्भ्रम (जल में स्थल और स्थल में जल का भ्रम) होने के कारण दुर्योधन के पाँव फिसलने से लगे, तब भगवान श्रीकृष्ण के सामने ही भीमसेन ने उसे गँवार सा सिद्ध करते हुए उसकी हँसी उड़ायी थी। दुर्योधन नाना प्रकार के भोग तथा भाँति-भाँति के रत्नों का उपयोग करते रहने पर भी दिनों-दिन दुबला रहने लगा। उसका रंग फीका पड़ गया। इसकी सूचना कर्मचारियों ने महाराज धृतराष्ट्र को दी। धृतराष्ट्र अपने उस पुत्र के प्रति अधिक आसक्त थे, अतः उसकी इच्छा जानकर उन्होंने उसे पाण्डवों के साथ जुआ खेलने की आज्ञा दे दी। जब भगवान श्रीकृष्ण ने यह समाचार सुना, तब उन्हें धृतराष्ट्र पर बड़ा क्रोध आया। यद्यपि उनके मन में कलह की सम्भावना के कारण कुछ विशेष प्रसन्नता नहीं हुई, यथापि उन्होंने (मौन रहकर) इन विवादों का अनुमोदन ही किया और भिन्न-भिन्न प्रकार के भयंकर अन्याय, द्यूत आदि को देखकर भी उनकी उपेक्षा कर दी।

(इस अनुमोदन या उपेक्षा का कारण यह था कि वे धर्मनाशक दुष्ट राजाओं का संहार चहाते थे।) अतः उन्हें विश्वास था कि इस विग्रहजनित महान युद्ध में विदुर, भीष्म,, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य की अवहेलना करके सभी दुष्ट क्षत्रिय एक दूसरे को अपनी क्रोधाग्रि में भस्म कर डालेंगे। जब युद्ध में पाण्डवों की जीत होती गयी, तब यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर तथा दुर्योधन, कर्ण और शकुनि के दुराग्रहपूर्ण निश्चित विचार जानकर धृतराष्ट्र बहुत देर तक चिन्ता में पड़े रहे। 

फिर उन्होंने संजय से कहा ;- ‘संजय! मेरी सब बातें सुन लो। फिर इस युद्ध या विनाश के लिये तुम मुझे दोष न दे सकोगे। तुम विद्वान, मेधावी, बुद्धिमान और पण्डित के लिये भी आदरणीय हो। इस युद्ध में मेरी सम्मति बिल्कुल नहीं थी और यह जो हमारे कुल का विनाश हो गया है, इससे मुझे तनिक भी प्रसन्नता नहीं हुई है। मेरे लिये अपने पुत्रों और पाण्डवों में कोई भेद नहीं था। किन्तु क्या करूँ? मेरे पुत्र क्रोध के वशीभूत हो मुझ पर ही दोषारोपण करते थे और मेरी बात नहीं मानते थे। मैं अंधा हूँ, अतः कुछ दीनता के कारण और कुछ पुत्रों के प्रति अधिक आसक्ति होने से भी वह सब अन्याय सहता आ रहा हूँ। मन्दबुद्धि दुर्योधन जब मोहवश दुखी होता था, तब मैं भी उसके साथ दुखी हो जाता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 146-159 का हिन्दी अनुवाद)

  राजसूय-यज्ञ में महापराक्रमी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर की सर्वोपरि समृद्धि, सम्पत्ति देखकर तथा सभा भवन की सीढ़ियों पर चढ़ते और उस भवन को देखते समय भीमसेन के द्वारा उपहास पाकर दुर्योधन भारी अमर्ष में भर गया था। युद्ध में पाण्डवों को हराने की शक्ति तो उसमें थी नहीं; अतः क्षत्रिय होते हुए भी वह युद्ध के लिये उत्साह नहीं दिखा सका। परन्तु पाण्डवों की उस उत्तम सम्पत्ति को हथियाने के लिये उसने गान्धारराज शकुनि को साथ लेकर कपटपूर्ण द्यूत खेलने का ही निश्चय किया। संजय! इस प्रकार जुआ खेलने का निश्चय हो जाने पर उसके पहले और पीछे जो-जो घटनाएँ घटित हुई हैं उन सबका विचार करते हुए मैंने समय-समय पर विजय की आशा के विपरीत जो-जो अनुभव किया है उसे कहता हूँ, सुनो। सूतनन्दन! मेरे उन बुद्धिमत्तापूर्ण वचनों को सुनकर तुम ठीक-ठीक समझ लोगे कि मैं कितना प्रज्ञाचक्षु हूँ।

  संजय! जब मैंने सुना कि अर्जुन ने धनुष पर बाण चढ़ाकर अद्भुत लक्ष्य बेध दिया और उसे धरती पर गिरा दिया। साथ ही सब राजाओं के सामने, जबकि वे टुकुर-टुकुर देखते ही रह गये, बलपूर्वक द्रौपदी को ले आया, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। संजय! तब मैंने सुना कि अर्जुन ने द्वारका में मधुवंश की राजकुमारी (और श्रीकृष्ण की बहिन) सुभद्रा का बलपूर्वक हरण कर लिया और श्रीकृष्ण एवं बलराम (इस घटना का विरोध न कर) दहेज लेकर इन्द्रप्रस्थ में आये, तभी समझ लिया था कि मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि खाण्डवदाह के समय देवराज इन्द्र तो वर्षा करके आग बुझाना चाहते थे और अर्जुन ने उसे अपने दिव्य बाणों से रोक दिया तथा अग्नि देव को तृप्त किया। संजय! तभी मैंने समझ लिया कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती।

   जब मैंने सुना कि लाक्षाभवन से अपनी माता सहित पाँचों पाण्डव बच गये हैं और स्वयं विदुर उनकी स्वार्थ सिद्धि के प्रयत्न में तत्पर हैं। संजय! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। जब मैंने सुना कि रंगभूमि में लक्ष्य-बेध करके अर्जुन ने द्रौपदी प्राप्त कर ली है और पांचाल वीर तथा पाण्डव वीर परस्पर सम्बद्ध हो गये हैं। संजय! उसी समय मैंने विजय की आशा छोड़ दी। जब मैंने सुना कि मगधराज-शिरोमणि क्षत्रिय जाति के जाज्वल्यमान रत्न जरासन्ध को भीमसेन ने उसकी राजधानी में जाकर बिना अस्त्र-शस्त्र हाथों से ही चीर दिया। संजय! मेरी जीत की आशा तो तभी टूट गयी। जब मैंने सुना कि दिग्विजय के समय पाण्डवों ने बलपूर्वक बड़े-बडे़ भूमिपतियों को अपने अधीन कर लिया और महायज्ञ राजसूय सम्पन्न कर दिया, संजय! तभी मैंने समझ लिया कि मेरी विजय की कोई आशा नहीं है।

  संजय! जब मैंने सुना कि दुःखिता द्रौपदी रजस्वलावस्था में आँखों में आँसू भरे केवल एक वस्त्र पहने वीर पतियों के रहते हुए भी अनाथ के समान भरी सभा में घसीट कर लायी गयी है, तभी मैंने समझ लिया था कि अब मेरी विजय नहीं हो सकती। जब मैंने सुना कि धूर्त एवं मन्द बुद्धि दुःशासन ने द्रौपदी का वस्त्र खींचा और वहाँ वस्त्रों का इतना ढेर लग गया कि वह उसका पार न पा सका, संजय! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही। संजय! जब मैंने सुना कि धर्मराज युधिष्ठिर को जूए में शकुनि ने हरा दिया और उनका राज्य छीन लिया, फिर भी उनके अतुल बलशाली धीर गम्भीर भाईयों ने युधिष्ठिर का अनुगमन ही किया, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 160-169 का हिन्दी अनुवाद)

 जब मैंने सुना कि वन में जाते समय धर्मात्मा पाण्डव धर्मराज युधिष्ठिर के प्रेमवश दुःख पा रहे थे और अपने हृदय का भाव प्रकाशित करने के लिये विविध प्रकार की चेष्टाएँ कर रहे थे; संजय! तभी मेरी विजय की आशा नष्ट हो गयी। जब मैंने सुना कि हजारों स्नातक वनवासी युधिष्ठिर के साथ रह रहे हैं और वे तथा दूसरे महात्मा एवं ब्राह्मण उनसे भिक्षा प्राप्त करते हैं। संजय! तभी मैं विजय के सम्बन्ध में निराश हो गया।

  संजय! जब मैंने सुना कि किरातवेषधारी देव-देव त्रिलोचन महादेव को युद्ध में संतुष्ट करके अर्जुन ने पाशुपत नामक महान अस्त्र प्राप्त कर लिया है, तभी मेरी आशा निराशा में परिणत हो गयी। जब मैंने सुना कि वनवास में भी कुन्ती-पुत्रों के पास पुरातन महर्षिगण पधारते और उनसे मिलते हैं। उनके साथ उठते-बैठते और निवास करते हैं तथा सेवक-सम्बन्धियों सहित पाण्डवों के प्रति उनका मैत्री भाव हो गया है। संजय! तभी से मुझे अपने पक्ष की विजय का विश्वास नहीं रह गया था। जब मैंने सुना कि सत्यसंध धनंजय अर्जुन स्वर्ग में गये हुए हैं और वहाँ साक्षात इन्द्र से दिव्य अस्त्र-शस्त्र की विधिपूर्वक शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और वहाँ उनके पौरूष एवं ब्रह्मचर्य आदि की प्रशंसा हो रही है, संजय! तभी से मेरी युद्ध में विजय की आशा जाती रही।

  जब से मैंने सुना कि वरदान के प्रभाव से घमंड के नशे में चूर कालकेय तथा पौलोम नाम के असुरों को, जिन्हें बड़े-बड़े देवता भी नहीं जीत सकते थे, अर्जुन ने बात-की-बात में पराजित कर दिया, तभी से संजय! मैंने विजय की आशा कभी नहीं की। मैंने जब सुना कि शत्रुओं का संहार करने वाले किरीटी अर्जुन असुरों का वध करने के लिये गये थे और इन्द्रलोक से अपना काम पूरा करके लौट आये हैं, संजय! तभी मैंने समझ लिया-अब मेरी जीत की कोई आशा नहीं। जब मैंने सुना कि पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर महर्षि लोमश जी के साथ तीर्थ यात्रा कर रहे हैं और लोमश जी के मुख से ही उन्होंने यह भी सुना है कि स्वर्ग में अर्जुन को अभीष्ट वस्तु (दिव्यास्त्र) की प्राप्ति हो गयी है, संजय! तभी से मैंने विजय की आशा ही छोड़ दी।

   जब मैंने सुना कि भीमसेन तथा दूसरे भाई उस देश में जाकर, जहाँ मनुष्यों की गति नहीं है, कुबेर के साथ मेल-मिलाप कर आये, संजय! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी। जब मैंने सुना कि कर्ण की बुद्धि पर विश्वास करके चलने वाले मेरे पुत्र घोष-यात्रा के निमित्त गये और गन्धर्वों के हाथ बन्दी बन गये और अर्जुन ने उन्हें उनके हाथ से छुड़ाया संजय! तभी से मैंने विजय की आशा छोड़ दी। सूत संजय! जब मैंने सुना कि यमराज यक्ष का रूप धारण करके युधिष्ठिर से मिले और युधिष्ठिर ने उनके द्वारा किये गये गूढ़ प्रश्नों का ठीक-ठीक समाधान कर दिया, तभी विजय के सम्बन्ध में मेरी आशा टूट गयी। संजय! विराट की राजधानी में गुप्त रूप से द्रौपदी के साथ पाँचों पाण्डव निवास कर रहे थे, परन्तु मेरे पुत्र और उनके सहायक इस बात का पता नहीं लगा सके; जब मैंने यह बात सुनी, मुझे यह निश्चय हो गया कि मेरी विजय सम्भव नहीं है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 170-181 का हिन्दी अनुवाद)

संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेन ने द्रौपदी के प्रति किये हुए अपराध का बदला लेने के लिये कीचकों के सर्वश्रेष्ठ वीर को उसके सौ भाईयों सहित युद्ध में मार डाला था, तभी से मुझे विजय की बिल्कुल आशा नहीं रह गयी थी। संजय! जब मैंने सुना कि विराट की राजधानी में रहते समय महात्मा धनंजय ने एकमात्र रथ की सहायता से हमारे सभी श्रेष्ठ महारथियों को (जो गो-हरण के लिये पूर्ण तैयारी के साथ वहाँ गये थे) मार भगाया, तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही।

  जिस दिन मैंने यह बात सुनी कि मत्स्यराज विराट ने अपनी प्रिय एवं सम्मानित पुत्री उत्तरा को अर्जुन के हाथ अर्पित कर दिया, परंतु अर्जुन ने अपने लिये नहीं, अपने पुत्र के लिये उसे स्वीकार किया, संजय! उसी दिन से मैं विजय की आशा नहीं करता था। संजय! युधिष्ठिर जूए में पराजित हैं, निर्धन हैं, घर से निकाले हुए हैं और अपने सगे-सम्बंधियों से बिछुड़े हुए हैं। हिर भी जव मैंने सुना कि उनके पास सात अक्षौहिणी सेना एकत्र हो चुकी है, तभी निजय के लिये मेरे मन में जो आशा थी, उस पर पानी जिर गया। (वामनावतार के समय) यह सम्पूर्ण पृथ्वी जिनके एक डग में ही आ गयी बतायी जाती है, वे लक्ष्मीपति भगवान श्रीकृष्ण पूरे हृदय से पाण्डवों की कार्य-सिद्धि के लिये तत्पर हैं, जब यह बात मैंने सुनी, संजय! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही।

  जब देवर्षि नारद के मुख से मैंने यह बात सुनी कि श्रीकृष्ण और अर्जुन साक्षात नर और नारायण हैं और इन्हें मैंने ब्रह्मलोक में भली-भाँति देखा है, तभी से मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय! जब मैंने सुना कि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण लोक कल्याण के लिये शान्ति की इच्छा से आये हुए हैं और कौरव-पाण्डवों में शान्ति सन्धि करवाना चाहते हैं, परंतु वे अपने प्रयास में असफल होकर लौट गये तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रही। संजय! जब मैंने सुना कि कर्ण और दुर्योधन दोनों ने यह सलाह की है कि श्रीकृष्ण को कैद कर लिया जाये और श्रीकृष्ण ने अपने-आपको अनेक रूपों में विराट या अखिल विश्व के रूप में दिखा दिया, तभी से मैंने विजयाशा त्याग दी थी। जब मैंने सुना यहाँ से श्रीकृष्ण के लौटते समय अकेली कुन्ती उनके रथ के सामने आकर खड़ी हो गयी और अपने हृदय की आर्ति-वेदना प्रकट करने लगी, तब श्रीकृष्ण ने उसे भली-भाँति सान्त्वना दी। संजय! तभी से मैंने विजय की आशा छोड़ दी।

  संजय! जब मैंने सुना कि श्रीकृष्ण पाण्डवों के मन्त्री हैं और शान्तनुनन्दन भीष्म तथा भारद्वाज द्रोणाचार्य उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं, तब मुझे विजय-प्राप्ति की किं‍चित भी आशा नहीं रही। जब कर्ण ने भीष्म से यह बात कह दी कि जब तक तुम युद्ध करते रहोगे तब तक मैं पाण्डवों से नहीं लड़ूँगा, इतना ही नहीं- वह सेना को छोड़कर हट गया, संजय! तभी से मेरे मन में विजय के लिये कुछ भी आशा नहीं रह गयी। संजय जब मैंने सुना कि भगवान श्रीकृष्ण, वीरवर अर्जुन और अतुलित शक्तिशाली गाण्डीव धनुष- ये तीनों भयंकर प्रभावशाली शक्तियाँ इकट्ठी हो गयी हैं, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय! जब मैंने सुना कि रथ के पिछले भाग में स्थित मोहग्रस्त अर्जुन अत्यन्त दुखी हो रहे थे और श्रीकृष्ण ने अपने शरीर में उन्हें सब लोकों का दर्शन करा दिया, तभी मेरे मन से विजय की सारी आशा समाप्त हो गयी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 182-195 का हिन्दी अनुवाद)

  जब मैंने सुना कि शत्रुघाती भीष्म रणांगण में प्रतिदिन दस हजार रथियों का संहार कर रहे हैं, परंतु पाण्डवों का कोई प्रसिद्ध योद्धा नहीं मारा जा रहा हैं, संजय! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी। जब मैंने सुना कि परमधार्मिक गंगानन्दन भीष्म ने युद्धभूमि में पाण्डवों को अपनी मृत्यु का उपाय स्वयं बता दिया और पाण्डवों ने प्रसन्न होकर उनकी उस आज्ञा का पालन किया। संजय! तभी मुझे विजय की आशा नहीं रही। जब मैंने सुना कि अर्जुन ने सामने शिखण्डी को खड़ा करके उसकी ओट से सर्वथा अजय अत्यन्त शूर भीष्म पितामह को युद्धभूमि में गिरा दिया। संजय! तभी मेरी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब मैंने सुना कि हमारे वृद्धवीर भीष्म पितामह अधिकांश सोमकवंशी योद्धाओं का वध करके अर्जुन के बाणों से क्षत-विक्षत शरीर हो शरशय्या पर शयन कर रहे हैं, संजय! तभी मैंने समझ लिया अब मेरी विजय नहीं हो सकती।

   संजय! जब मैंने सुना कि शान्तनुनन्दन भीष्म पितामह ने शरशय्या पर सोते समय अर्जुन को संकेत किया और उन्होंने बाण से धरती का भेदन करके उनकी प्यास बुझा दी, तब मैंने विजय की आशा त्याग दी। जब वायु अनुकूल बहकर और चन्द्रमा-सूर्य लाभ स्थान में संयुक्त होकर पाण्डवों की विजय की सूचना दे रहे हैं और कुत्ते आदि भयंकर प्राणी प्रतिदिन हम लोगों को डरा रहे हैं। संजय! तब मैंने विजय के सम्बन्ध में अपनी आशा छोड़ दी। संजय! हमारे आचार्य द्रोण बेजोड़ योद्धा थे और उन्होंने रणांगण में अपने अस्त्र-शस्त्र के अनेकों विविध कौशल दिखलाये, परंतु जब मैंने सुना कि वे वीर शिरोमणि पाण्डवों में से किसी एक का भी वध नहीं कर रहे हैं, तब मैंने विजय की आशा त्याग दी।

  संजय! मेरी विजय की आशा तो तभी नहीं रही, जब मैंने सुना कि मेरे जो महारथी वीर संशप्तक योद्धा अर्जुन के वध के लिये मोर्चे पर डटे हुए थे, उन्हें अकेले ही अर्जुन ने मौत के घाट उतार दिया। संजय! स्वयं भारद्वाज द्रोणाचार्य अपने हाथ में शस्त्र उठाकर उस चक्रव्यूह की रक्षा कर रहे थे, जिसको कोई दूसरा तोड़ ही नहीं सकता था, परंतु सुभद्रानन्दन वीर अभिमन्यु अकेला ही छिन्न-भिन्न करके उसमें घुस गया, जब यह बात मेरे कानों तक पहुँची, तभी मेरी विजय की आशा लुप्त हो गयी। संजय! मेरे बड़े-बड़े महारथी वीरवर अर्जुन के सामने तो टिक न सके और सबने मिलकर बालक अभिमन्यु को घेर लिया और उसको मारकर हर्षित होने लगे, जब यह बात मुझ तक पहुँची, तभी से मैंने विजय की आशा त्याग दी।

   जब मैंने सुना कि मेरे मूढ़ पुत्र अपने ही वंश के होनहार बालक अभिमन्यु की हत्या करके हर्षपूर्ण कोलाहल कर रहे हैं और अर्जुन ने क्रोधवश जयद्रथ को मार डालने की जो दृढ़ प्रतिज्ञा की थी, उसने वह शत्रुओं से भरी रणभूमि में सत्य एवं पूर्ण करके दिखा दी। संजय! तभी से मुझे विजय की सम्भावना नहीं रह गयी। युद्धभूमि में धनंजय, अर्जुन के घोड़े अत्यन्त शांत और प्यास से व्याकुल हो रहे थे। स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें रथ से खोलकर पानी पिलाया, फिर से रथ के निकट लाकर उन्हें जोत दिया और अर्जुन सहित वे सकुशल लौट गये। जब मैंने यह बात सुनी, संजय! तभी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब संग्रामभूमि में रथ के घोड़े अपना काम करने में असमर्थ हो गये, तब रथ के समीप ही खड़े होकर पाण्डव वीर अर्जुन ने अकेले ही सब योद्धाओं का सामना किया और उन्हें रोक दिया। मैंने जिस समय यह बात सुनी, संजय! उसी समय मैंने विजय की आशा छोड़ दी।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 196-207 का हिन्दी अनुवाद)

जब मैंने सुना कि वृष्णिवंशावतंस युयुधान-सात्यकि ने अकेले ही द्रोणाचार्य की उस सेना को, जिसका सामना हाथियों की सेना भी नहीं कर सकती थी, तितर-बितर और तहस-नहस कर दिया तथा श्रीकृष्ण और अर्जुन के पास पहुँच गये। संजय! तभी से मेरे लिये विजय की आशा असम्भव हो गयी। संजय! जब मैंने सुना कि वीर भीमसेन कर्ण के पंजे में फँस गये थे, परंतु कर्ण ने तिरस्कारपूर्वक झिड़क कर और धनुष की नोक चुभाकर ही छोड़ दिया तथा भीमसेन मृत्यु के मुख से बच निकले। संजय! तभी मेरी विजय की आशा पर पानी फिर गया। जब मैंने सुना द्रोणाचार्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, कर्ण और अश्वत्थामा तथा वीर शल्य ने भी सिन्धुराज जयद्रथ का वध सह लिया, प्रतीकार नहीं किया। संजय! तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी।

  संजय! देवराज इन्द्र ने कर्ण को कवच के बदले एक दिव्य शक्ति दे रखी थी और उसने उसे अर्जुन पर प्रयुक्त करने के लिये रख छोड़ा था, परंतु मायापति श्रीकृष्ण ने भयंकर राक्षस घटोत्कच पर उसे छुड़वाकर उससे भी वंचित करवा दिया। जिस समय यह बात मैंने सुनी, उसी समय मेरी विजय की आशा टूट गयी। जब मैंने सुना कि कर्ण और घटोत्कच के युद्ध में कर्ण ने वह शक्ति घटोत्कच पर चला दी, जिससे रणांगण में अर्जुन का वध किया जा सकता था। संजय! तब मैंने विजय की आशा छोड़ दी। संजय! जब मैंने सुना कि आचार्य द्रोण पुत्र की मृत्यु के शोक से शस्त्रादि छोड़कर आमरण अनशन करने के निश्रय से अकेले रथ के पास बैठे थे और धृष्टद्युम्न ने धर्म युद्ध की मर्यादा का उल्लंघन करके उन्हें मार डाला, तभी मैंने विजय की आशा छोड़ दी थी।

  जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा जैसे वीर के साथ बड़े-बड़े वीरों के सामने ही माद्रीनन्दन नकुल अकेले ही अच्छी तरह युद्ध कर रहे हैं। संजय! तभी मुझे जीत की आशा न रही। जब द्रोणाचार्य की हत्या के अनन्तर अश्वत्थामा ने दिव्य नारायणास्त्र का प्रयोग किया; परंतु उससे यह पाण्डवों का अन्त नहीं कर सका। संजय! तभी मेरी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब मैंने सुना कि रणभूमि में भीमसेन ने अपने भाई दुःशासन का रक्तपान किया, परंतु वहाँ उपस्थित सत्पुरुषों में से किसी एक ने भी निवारण नहीं किया। संजय! तभी से मुझे विजय की आशा बिल्कुल नहीं रह गयी।

  संजय! वह भाई का भाई से युद्ध देवताओं की गुप्त प्रेरणा से हो रहा था। जब मैंने सुना कि भिन्न-भिन्न युद्ध भूमियों में कभी पराजित न होने वाले अत्यन्त शूरशिरोमणि कर्ण को पृथापुत्र अर्जुन ने मार डाला, तब मेरी विजय की आशा नष्ट हो गयी। जब मैंने सुना धर्मराज युधिष्ठिर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, शूरवीर दुःशासन एवं उग्र योद्धा कृतवर्मा को भी युद्ध में जीत रहे हैं, संजय! तभी से मुझे विजय की आशा नहीं रह गयी। संजय! जब मैंने सुना कि रणभूमि में धर्मराज युधिष्ठिर ने शूरशिरोमणि मद्रराज शल्य को मार डाला, जो सर्वदा युद्ध में घोड़े हाँकने के सम्बन्ध में श्रीकृष्ण की होड़ करने पर उतारू रहता था, तभी से मैं विजय की आशा नहीं करता था।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 208-220 का हिन्दी अनुवाद)

  जब मैंने सुना कि कलहकारी द्यूत के मूल कारण, केवल छल-कपट के बल से बली पापी शकुनि को पाण्डुनन्दन सहदेव ने रणभूमि में यमराज के हवाले कर दिया, संजय! तभी मेरी विजय की आशा समाप्त हो गयी। जब दुर्योधन का रथ छिन्न-भिन्न हो गया, शक्ति क्षीण हो गयी और वह थक गया, तब वह सरोवर पर जाकर वहाँ का जल स्तम्भित करके उसमें अकेला ही सो गया। संजय! जब मैनें यह संवाद सुना, तब मेरी विजय की आशा भी चली गयी। जब मैंने सुना कि उसी सरोवर के तट पर श्रीकृष्ण के साथ पाण्डव जाकर खड़े हैं और मेरे पुत्र को असहाय, दुर्वचन कहकर नीचा दिखा रहे हैं, तभी संजय! मैंने विजय की आशा सर्वथा त्याग दी। संजय! जब मैंने सुना कि गदा युद्ध में मेरा पुत्र बड़ी निपुणता से पैंतरे बदल कर रणकौशल प्रकट कर रहा है और श्रीकृष्ण की सलाह से भीमसेन ने गदायुद्ध की मर्यादा के विपरीत जाँघ में गदा का प्रहार करके उसे मार डाला, तब तो संजय! मेरे मन में विजय की आशा रह ही नहीं गयी।

   संजय! जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा आदि दुष्‍टों ने सोते हुए पांचाल नरपतियों और द्रौपदी के होनहार पुत्रों को मारकर अत्यन्त वीभत्स और वंश के यश को कलंकित करने वाला काम किया है, तब तो मुझे विजय की आशा रही ही नहीं। संजय! जब मैंने सुना कि भीमसेन के पीछा करने पर अश्वत्थामा ने क्रोधपूर्वक सींक के बाण पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर दिया, जिससे कि पाण्डवों का गर्भस्थ वंशधर भी नष्ट हो जाये, तभी मेरे मन में विजय की आशा नहीं रही। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा के द्वारा प्रयुक्त ब्रह्मशिर अस्त्र को अर्जुन ने ‘स्वस्ति स्वस्ति’ कहकर अपने अस्त्र से शान्त कर दिया और अश्वत्थामा को अपना मणिरत्न भी देना पड़ा। संजय! उसी समय मुझे जीत की आशा नहीं रही। जब मैंने सुना कि अश्वत्थामा अपने महान अस्त्रों का प्रयोग करके उत्तरा का गर्भ गिराने की चेष्टा कर रहा है तथा द्वैपायन व्यास और स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने परस्पर विचार करके उसे शापों से अभिशप्‍त कर दिया है, तभी मेरी विजय की आशा सदा के लिये समाप्त हो गयी।

  इस समय गान्धारी की दशा शोचनीय हो गयी है; क्‍योंकि उसके पुत्र, पौत्र, पिता तथा भाई बन्धुओं में से कोई नहीं रहा। पाण्डवों ने दुष्कर कार्य कर डाला। उन्होंने फिर से अपना अकण्टक राज्य प्राप्त कर लिया। हाय-हाय! कितने कष्ट की बात है, मैंने सुना है कि इस भयंकर युद्ध में केवल दस व्यक्ति बचे हैं; मेरे पक्ष के तीन कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कृतवर्मा तथा पाण्डव पक्ष के सात श्रीकृष्ण, सात्यकि और पाँचों पाण्डव। क्षत्रियों के इस भीषण संग्राम में अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ नष्ट हो गयी। सारथे! यह सब सुनकर मेरी आँखों के सामने घना अन्धकार छाया हुआ है। मेरे हृदय में मोह का आवेश-सा होता जा रहा है। मैं चेतनाशून्य हो रहा हूँ। मेरा मन विह्वल-सा हो रहा है। उग्रश्रवाजी कहते हैं- धृतराष्ट्र ने ऐसा कहकर बहुत विलाप किया और अत्यन्त दुःख के कारण वे मूर्च्छित हो गये। फिर होश में आकर कहने लगे। 

धृतराष्ट्र ने कहा ;- संजय! युद्ध का यह परिणाम निकलने पर अब मैं अविलम्ब अपने प्राण छोड़ना चाहता हूँ। अब जीवन धारण करने का कुछ भी फल मुझे दिखलायी नहीं देता।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 221-245 का हिन्दी अनुवाद)

उग्रश्रवा जी कहते हैं ;- जब राजा धृतराष्ट्र दीनतापूर्वक विलाप करते हुए ऐसा कर रहे थे और नाग के समान लम्बी साँस ले रहे थे तथा बार-बार मूर्च्छित होते जा रहे थे, तब बुद्धिमान संजय ने यह सार-गर्भित प्रवचन किया। 

संजय ने कहा ;- महाराज! अपने परमज्ञानी देवर्षि नारद एवं महर्षि व्यास के मुख से महान उत्साह से युक्त एवं परमपराक्रमी नृपतियों का चरित्र श्रवण किया है। आपने ऐसे ऐसे राजाओं के चरित्र सुने हैं, जो सर्वगुणसम्पन्न महान राजवंशों में उत्पन्न, दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के पारदर्शी एवं देवराज इन्द्र के समान प्रभावशाली थे। जिन्होंने धर्मयुद्ध से पृथ्वी पर विजय प्राप्त की बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञ किये, इस लोक में उज्ज्वल यश प्राप्त किया और फिर काल के गाल में समा गये। इसमें से महारथी शैव्य, विजयी वीरों में श्रेष्ठ सृंजय, सुहोत्र, रन्तिदेव, काक्षीवान औशिज, बाह्लीक, दमन, चैद्य, शर्याति, अपराजित नल, शत्रुघाती विश्वामित्र, महाबली अम्बरीष, मरुत्त, मनु, इक्ष्वाकु, गय, भरत, दशरथनन्दन श्रीराम, शशबिन्दु, भागीरथ, महाभाग्यशाली कृतवीर्य, जनमेजय और वे शुभकर्मा ययाति, जिनका यज्ञ देवताओं ने स्वयं करवाया था, जिन्होंने अपनी राष्ट्रभूमि को यज्ञों से खास बना दिया था और सारी पृथ्वी यज्ञ सम्बन्धी यूपों (खंभों) से अंकित कर दी थी- इन चौबीस राजाओं का वर्णन पूर्वकाल में देवर्षि नारद ने पुत्र- शोक से अत्यन्त संतप्त महाराज श्वैल्य का दुःख दूर करने के लिये किया था।

    महाराज! पिछले युग में इन राजाओं के अतिरिक्त दूसरे और बहुत से महारथी, महात्मा, शौर्य-वीर्य आदि सद्गुणों से सम्पन्न, परमपराक्रमी राजा हो गये हैं। जैसे- पूरु, कुरु, यदु, शूर, महातेजस्वी विष्वगश्व, अणुह, युवनाश्व, ककुत्स्थ, पराक्रमी रघु, विजय, वीतिहोत्र, अंग, भव, श्वेत, बृहद्गुरू, उशीनर, शतरथ, कंक, दुलिदुह, द्रुम, दम्भोद्भव, पर, वेन, सगर, संकृति, निमि, अजेय, परशु, पुण्ड्र, शम्भु, निष्पाप देवावृध, देवाह्बय, सुप्रतिम, सुप्रतीक, बृहद्रथ, महान, उत्साही और महाविनयी सुक्रतु, निषधराज नल, सत्यव्रत, शान्तभय, सुमित्र, सुबल, प्रभु, जानुजंघ, अनरण्य, अर्क, प्रियभृत्य, शुचिवृत, बलबन्धु, निरामर्द, केतुश्रृंग, बृहद्बल, धृष्टकेतु, बृहत्केतु, दीप्तकेतु, निरामय, अवीक्षित, चपल, धूर्त, कृतबन्धु, दृढेषुधि, महापुराणों में सम्मानित प्रत्यंग, परहा और श्रुति- ये और इनके अतिरिक्त दूसरे सैकड़ों तथा हजारों राजा सुने जाते हैं, जिनका सैकड़ों बार वर्णन किया गया है और इनके सिवा दूसरे भी, जिनकी संख्या पद्मों में कही गयी है, बड़े बुद्धिमान और शक्तिशाली थे। महाराज! किंतु वे अपने विपुल भोग वैभव को छोड़कर वैसे ही मर गये, जैसे आपके पुत्रों की मृत्यु हुई है।

  जिनके दिव्य कर्म, पराक्रम, त्याग, माहात्म्य, आस्तिकता, सत्य, पवित्रता, दया और सरलता आदि सद्गुणों का वर्णन बड़े-बड़े विद्वान एवं श्रेष्ठतम कवि प्राचीन ग्रन्थों में तथा लोक में भी करते रहते हैं, वे समस्त सम्पत्ति और सदगुणों से सम्पन्न महापुरुष भी मृत्यु को प्राप्त हो गये। आपके पुत्र दुर्योधन आदि तो दुरात्मा, क्रोध से जले भुने, लोभी एवं अत्यन्त दुराचारी थे। उनकी मृत्यु पर आपको शोक नहीं करना चाहिये। आपने गुरुजनों से सत शास्त्रों का श्रवण किया है। आपकी धारणाशक्ति तीव्र है, आप बुद्धिमान हैं और ज्ञानवान पुरुष आपका आदर करते हैं। भरतवंशशिरोमणे! जिनकी बुद्धि शास्त्र के अनुसार सोचती है, वे कभी शोक-मोह से मोहित नहीं होते। महाराज! आपने पाण्डवों के साथ निर्दयता और अपने पुत्रों के प्रति पक्षपात का जो बर्ताव किया है, वह आपको विदित ही है। इसलिये अब पुत्रों के जीवन के लिये आपको अत्यन्त व्याकुल नहीं होना चाहिये।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 246-263 का हिन्दी अनुवाद)

  होनहार ही ऐसी थी, इसके लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। भला, इस सृष्टि में ऐसा कौन- सा पुरुष है, जो अपनी बुद्धि की विशेषता से होनहार मिटा सके। अपने कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है- यह विधाता का विधान है। इसको कोई टाल नहीं सकता। जन्म-मृत्यु और सुख-दुख सबका मूल कारण काल ही है। काल ही प्राणियों की सृष्टि करता है और काल ही समस्त प्रजा का संहार करता है। फिर प्रजा का संहार करने वाले उस काल को महाकाल स्वरूप परमात्मा ही शान्त करता है। सम्पूर्ण लोकों में यह काल ही शुभ-अशुभ सब पदार्थों का कर्ता है। काल ही सम्पूर्ण प्रजा का संहार करता है और वही पुनः सबकी सृष्टि भी करता है।

   जब सुषुप्ति अवस्था में सब इन्द्रियाँ और मनोवृत्तियाँ लीन हो जाती हैं, तब भी यह काल जागता रहता है। काल की गति का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता वह सम्पूर्ण प्राणियों में समान रूप से बेरोक-टोक अपनी क्रिया करता रहता है। इस सृष्टि में जितने पदार्थ हो चुके, भविष्य में होंगे और इस समय वर्तमान में हैं, वे सब काल की रचना हैं; ऐसा समझकर आपको अपने विवेक का परित्याग नहीं करना चाहिये। उग्रश्रवा जी कहते हैं- सूतवंशी संजय ने यह सब कहकर पुत्र शोक से व्याकुल नरपति धृतराष्ट्र को समझाया-बुझाया और उन्हें स्वस्थ किया। इसी इतिहास के आधार पर श्रीकृष्ण द्वैपायन ने इस परमपुण्यमयी उपनिषद रूप महाभारत का (शोकातुर प्राणियों का शोक नाश करने के लिये) निरूपण किया। विद्वज्जन लोक में और श्रेष्ठतम कवि पुराणों में सदा से इसी का वर्णन करते आये हैं।

   महाभारत का अध्ययन अन्तःकरण को शुद्ध करने वाला है। जो कोई श्रद्धा के साथ इसके किसी एक श्लोक के एक पाद का भी अध्ययन करता है, उसके सब पाप सम्पूर्ण रूप से मिट जाते हैं। इस ग्रन्थ रत्न में शुभ कर्म करने वाले देवता, देवर्षि, निर्मल ब्रह्मर्षि, यक्ष और महानागों का वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ के मुख्य विषय हैं स्वयं सनातन परब्रह्मस्वरूप वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण। उन्हीं का इसमें संकीर्तन किया गया है। वे ही सत्य, ऋत, पवित्र एवं पुण्य हैं। वे ही शाश्वत परब्रह्म हैं और वे ही अविनाशी सनातन ज्योति हैं। मनीषी पुरुष उन्हीं की दिव्य लीलाओं संकीर्तन किया करते हैं। उन्हीं से असत, सत तथा सदसत-उभयरूप सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न होता है। उन्हीं से संतति (प्रजा), प्रवृत्ति (कर्तव्य कर्म), जन्म-मृत्यु तथा पुर्नजन्म होते हैं।

इस महाभारत में जीवात्मा का स्वरूप भी बतलाया गया है एवं जो सत्य रज-तम इन तीनों गुणों के कार्यरूप पाँच महाभूत हैं, उनका तथा जो अव्यक्त प्रकृति आदि के मूल कारण परमब्रह्म परमात्मा हैं, उनका भी भलि-भाँति निरूपण किया गया है। जो इस अनुक्रमणिका अध्याय का कुछ अंश भी प्रातः, सांय अथवा मध्याह्न में जपता है, वह दिन अथवा रात्रि के समय संचित सम्पूर्ण पापराशि से तत्काल मुक्त हो जाता है।

(सम्पूर्ण महाभारत (आदि पर्व) प्रथम अध्याय के श्लोक 264-276 का हिन्दी अनुवाद)

  यह अध्याय महाभारत का मूल शरीर है। यह सत्य एवं अमृत है। जैसे दही में नवनीत, मनुष्यों में ब्राह्मण, वेदों में उपनिषद, औषधियों में अमृत, सरोवरों में समुद्र और चौपायों में गाय सबसे श्रेष्ठ है, वैसे ही उन्हीं के समान इतिहासों में यह महाभारत भी है। जो श्राद्ध में भोजन करने वाले ब्राह्मणों को अन्त में इस अध्याय का एक चौथाई भाग अथवा श्लोक का एक चरण भी सुनाता है, उसके पितरों को अक्षय अन्न पान की प्राप्ति होती है। इतिहास और पुराणों की सहायता से ही वेदों के अर्थ का विस्तार एवं समर्थन करना चाहिये। एवं जो पुराणों से अनभिज्ञा हैं, उनसे वेद डरते रहते हैं कि कहीं यह मुझ पर इस वेद का दूसरों को श्रवण कराते हैं, उन्हें मनोवांछित अर्थ की प्राप्ति होती है।

  अतएव महत्ता, भार अथवा गम्भीरता की विशेषता से ही इसको महाभारत कहते हैं। जो इस ग्रन्थ के निर्वाचन को जान लेता है, वह सब पापों से छूट जाता है। तपस्या निर्मल है, शास्त्रों का अध्ययन भी निर्मल है, वर्णाश्रम के अनुसार स्वाभाविक वेदोक्त विधि भी निर्मल है और कष्टपूर्वक उपार्जन किया हुआ धन भी निर्मल है, किंतु वे ही सब विपरीत भाव से किये जाने पर पापमय हैं अर्थात दूसरे के अनिष्ट के लिये किया हुआ तप, शास्त्राध्ययन और वेदोक्त हो जाता है। (तात्पर्य यह कि इस ग्रन्थ रत्न में भाव शुद्धि पर विशेष जोर दिया गया है; इसलिये महाभारत ग्रन्थ का अध्ययन करते समय भी भाव शुद्ध रखना चाहिये)।

(नोट :- महाभारत के सभी पर्व  के सभी अध्याय की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )


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