शिव पुराण वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध) के इकतीसवें अध्याय से इकतालीसवें अध्याय तक (From the thirty-first chapter to the forty-first chapter of Shiv Purana Vayviy Samhita (uttaraarddh))


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

इकत्तीसवाँ अध्याय 

"शिव-स्तोत्र निरूपण"

   उपमन्यु बोले ;– हे श्रीकृष्ण ! अब मैं आपको पंचवरण नामक पवित्र स्तोत्र सुनाता हूं। हे जगतनाथ! प्रकृति से सुंदर नित्य चेतन स्वरूप की सदा जय-जयकार हो। हे सरल स्वभाव वाले पवित्र, चरित्रवान सर्वशक्ति संपन्न! पुरुषोत्तम तुम्हारी सदा ही जय हो । हे मंगलमूर्ति कृपानिधान! देवाधिदेव! मैं आपको प्रणाम करता हूं। भगवन् ! पूरा संसार आपके वश में है। प्रभु आप सब पर कृपा करके अपने भक्तों की कामनाओं को पूरा करें।

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   हे जगदंबा ! हे मातेश्वरी! आप हम सब भक्तों के मनोरथों को पूरा कीजिए । हे गणनायक! हे स्कंद देव! आप भगवान शिव की आज्ञा का पालन करने वाले और उनके ज्ञान रूपी अमृत को पीने वाले हैं। भगवन्! आप मेरी रक्षा करें। हे पांच कला के स्वामी आप मेरी अभिलाषा पूरी करें। हे आठ शक्तियों के स्वामी! आप सर्वेश्वर शिव की आज्ञा से हमारी कामनाएं पूरी करें। हे सात लोकों की माता! आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें। हे विघ्न विनाशक ! आप हमारे शुभ कार्यों में आने वाले सभी विघ्नों को दूर करें। इस प्रकार यह आवरण स्तोत्र अत्यंत शुभ है। प्रतिदिन इस कीर्तन को श्रवण करने वाला पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होता है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

बत्तीसवाँ अध्याय 

"सिद्धि कर्मों का निरूपण"

   उपमन्यु बोले ;- कृष्णजी ! सर्वप्रथम प्राण वायु को जीतना चाहिए क्योंकि इस पर विजय प्राप्त होने से सब वायुओं पर विजय मिल जाती है। क्रमानुसार अभ्यस्त किया गया प्राणायाम सब दोषों को हटा देता है। यह शरीर की भी रक्षा करता है। जब प्राण वायु पर विजय प्राप्त हो जाती है तो विष्ठा, मूत्र, कफ सभी मंद पड़ जाते हैं। श्वास वायु लंबी तथा देर से आने लगती है। हल्कापन, द्रुतगमन, उत्साह, बोलने में चातुर्य सभी रोगों का विनाश सब प्राणायाम की सिद्धि से पूरे हो जाते हैं।

   इंद्रियों को वश में करने का नाम प्रत्याहार है, क्योंकि इंद्रियां ही विषयों में संलग्न होती हैं। सभी इंद्रियों को वश में कर लेना ही परम सुखकारी होता है। यह ही विद्वानों को ज्ञान और वैराग्य प्रदान करता है। अपनी इंद्रियों को वश में कर लेने से आत्मा का उद्धार होता है। अपने हृदय को एकाग्र करना और शिव चरणों में समर्पित कर देना ही सांसारिक बंधनों से मुक्ति प्रदान करता है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

तेंतीसवाँ अध्याय 

"लिंग स्थापना से फलागम"

   मुनिवर उपमन्यु श्रीकृष्ण को पारलौकिक विधि के बारे में बताते हैं। यह विधि सर्वोत्तम है। इस त्रिलोक में निवास करने वाले सभी प्राणी इस विधि का आश्रय लेकर अपने पद को प्राप्त करते हैं। सबने अपने पदों के अनुसार सुख, शासन और राज्य को प्राप्त किया है। भगवान शिव को श्वेत चंदन के जल से स्नान कराएं, श्वेत कमल से ही उनका पूजन कर हाथ जोड़कर प्रणाम करें। उन्हें कमल के ही आसन पर विराजमान करें। धातु का शिवलिंग बनाकर उसका पूजन करें। बेल पत्रों द्वारा कमल के दाईं ओर बैठे हुए भगवान शिव और देवी पार्वती का पूजन-आराधन करें। फिर सुगंधित वस्तुओं से सुरभित करें। मूर्ति के दाईं ओर अगर (अंगरू), पश्चिम में मैनसिल, उत्तर में चंदन और पूर्व में हरिताल लगाएं।

   तत्पश्चात भगवान शिव की मूर्ति के चारों ओर गूगल और अगर की धूप दें। फिर उन्हें नए वस्त्र पहनाएं। फिर उन्हें खीर का नैवेद्य अर्पित कर घी का दीपक जलाएं। मंत्रोच्चारण करते हुए शिवजी की परिक्रमा करके हाथ जोड़कर प्रार्थना करें और अपने द्वारा किए गए अपराधों के लिए क्षमा याचना करें। इस प्रकार पूजन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

चौंतीसवाँ अध्याय 

"लिंग स्थापना से शिव प्राप्ति"

मुनि उपमन्यु ने श्रीकृष्ण से कहा ;- हे कृष्ण ! जितने भी प्रकार की सिद्धियां हैं, वे शिवलिंग की स्थापना करने से तत्काल सिद्ध हो जाती हैं। सारा संसार लिंग का ही रूप है इसलिए इसकी प्रतिष्ठा से सबकी प्रतिष्ठा हो जाती है। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र कोई भी अपने पद पर स्थिर नहीं रह सकते। अब मैं तुम्हें भगवान शिव के लिंग के बारे में बताता हूं।

   लिंग तीन गुणों को उत्पन्न करने का कारण है। वह आदि और अंत दोनों से रहित है। इस संसार का मूल प्रकृति है और इसी से चर-अचर जगत की उत्पत्ति हुई है। यह शुद्ध, अशुद्ध और शुद्धाशुद्ध आदि से तीन प्रकार का है। सभी देवता और प्राणीजन इसी से उत्पन्न होकर अंत में इसी में लीन हो जाते हैं। इसलिए भगवान शिव को लिंग रूपी मानकर उनका देवी पार्वती सहित पूजन किया जाता है। भगवान शिव और देवी पार्वती की आज्ञा के बिना इस संसार में कुछ भी नहीं हो सकता।

   त्रिलोकी के प्रलयकाल आने पर जब भयानक प्रलय मची थी उस समय श्रीहरि भगवान विष्णु क्षीरसागर में अथाह जल के बीच शेष शय्या में सो गए। तब उनके नाभि कमल से ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई। शिवजी की माया से मोहित ब्रह्माजी विष्णुजी के पास जाकर उनसे बोले- तुम कौन हो ? यह कहकर उन्होंने निद्रामग्न श्रीहरि को झिंझोड़ दिया।

तब जागकर श्रीहरि ने आश्चर्य से अपने सम्मुख खड़े व्यक्ति को देखकर पूछा ;- पुत्र तुम कौन हो और यहां क्यों आए हो? यह सुनकर ब्रह्माजी को क्रोध आ गया। तब वे दोनों ही अपने को बड़ा और सृष्टि का रचयिता मानकर आपस में झगड़ने लगे। जल्दी ही बढ़ते-बढ़ते बात युद्ध तक पहुंच गई और ब्रह्मा-विष्णु में भयंकर युद्ध होने लगा। तब त्रिलोकीनाथ भगवान शिव उस युद्ध को रोकने के लिए दिव्य अग्नि के समान प्रज्वलित लिंग रूप में उनके बीच में प्रकट हो गए। उन्हें देखकर दोनों आश्चर्यचकित हो गए और उनका अभिमान जाता रहा। तब वे उस लिंग के आरंभ और अंत की खोज के लिए निकल पड़े। ब्रह्मा ने हंस का रूप धारण किया और तीव्र गति से ऊपर चले गए। श्रीहरि ने वराह रूप धारण किया और नीचे की ओर गए । एक हजार वर्षों तक दोनों लिंग के आदि अंत की तलाश में घूमते रहे परंतु उन्हें कुछ न मिला। उन्होंने यही समझा कि यह कोई प्रकाशमान आत्मा है। तब ब्रह्माजी और विष्णुजी दोनों ने हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से प्रकाश पुंज शिवलिंग को प्रणाम किया।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

पैंतीसवाँ अध्याय 

"ब्रह्मा-विष्णु मोह"

   मुनि उपमन्यु बोले ;– हे वासुदेव ! उस समय वहां पर ओंकार का नाद होने लगा परंतु ब्रह्मा - और विष्णु दोनों ही उस ब्रह्म ध्वनि को समझ न सके। 'ॐ' में स्थित अकार, उकार और मकार क्रमशः दक्षिण, उत्तर और मध्य भाग में तथा अर्द्ध मात्रा रूपी नाद लिंग के मस्तक पर जा पहुंचा। प्रणव अपना रूप बदलकर वेद के रूप में प्रकट हुए। अकार से ऋग्वेद, उकार से यजुर्वेद, मकार से सामवेद और नाद से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई।

  सर्वप्रथम ऋग्वेद की उत्पत्ति हुई। इसमें रजोगुण से संबंधित विधि मूर्ति थी। सृष्टि लोक, तत्वों में पृथ्वी, अव्यय, आत्मा, काल निवृत्ति, चौंसठ कलाएं और ऐश्वर्य आदि विभूतियां ऋग्वेद से प्राप्त हुईं। यजुर्वेद से सत्वगुण, अंतरिक्ष और विद्या आदि तत्वों की प्राप्ति हुई । सामवेद से तमोगुणी रुद्र मूर्ति एवं संहारक वस्तुएं उत्पन्न हुईं। अथर्ववेद में निर्गुण आत्मा का वैभव, माहेश्वरी, सदाशिव, निर्विकार आत्माओं की स्थिति का वर्णन है। नाद मेरी आत्मा है। समस्त विश्व ओंकार के अर्थ का सूचक है।

  'ॐ' शब्द शिव का वाचक है। शिव और प्रणव में कोई अंतर नहीं है। संसार के रचनाकर्ता ब्रह्मा, रक्षक विष्णु और संहारक रुद्र हैं। रुद्र ही ब्रह्मा-विष्णु को अपने नियंत्रण में रखते हैं। वे शिव ही सब कारणों के कारण हैं। आप दोनों बिना बात ही एक-दूसरे के दुश्मन बने हैं। इसलिए मैं आपके बीच शिवलिंग रूप में उत्पन्न हुआ हूं। यह सुनकर ब्रह्मा और विष्णु दोनों का ही अभिमान टूट गया और वे,,

 भगवान शिव से बोले ;- हे ईश्वर ! आपने हमें अपने चरण कमलों के दर्शन का सुअवसर प्रदान किया है। हम धन्य हो गए। हमारा अपराध क्षमा करें। 

तब भगवान शिव बोले ;- हे पुत्रो ! तुम दोनों अभिमानी हो गए थे इसलिए मुझे यहां लिंग रूप में प्रकट होना पड़ा। अब अभिमान त्यागकर सृष्टि के कार्यों को पूरा करने में अपना योगदान दो।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

छत्तीसवाँ अध्याय 

"शिवलिंग प्रतिष्ठा विधि"

श्रीकृष्णजी बोले ;– हे मुनिवर ! आपने मुझ पर कृपा कर इस अद्भुत कथा को मुझे बताया। अब आप लिंग और वेदी की प्रतिष्ठा की विधि भी बताइए। 

  यह सुनकर उपमन्यु बोले ;- हे कृष्ण ! शुक्ल पक्ष में शिव-शास्त्र के अनुसार शिवलिंग का निर्माण कराएं। गणेश जी का पूजन कर लिंग को स्नान के लिए ले जाएं। पांच स्थान की मिट्टी, गोबर और पंचगव्य से शिवलिंग को स्नान कराएं। मंत्रोच्चारण करते हुए लिंग का जल में अधिवास करें। मूर्ति को सुंदर वस्त्र और आभूषणें से सुसज्जित कर उनका पूजन करें और उन्हें चौकी पर स्थापित करें। पूर्व की ओर मूर्ति का माथा और पश्चिम में पिंडी होनी चाहिए। तत्पश्चात पुनः स्नान कराकर पूजन करें। वेदी की भूमि के ईशान कोण में कमल लिखें। शिवजी का आह्वान कर पूजन करें। वेदी के पश्चिम में चंडिका कमल लिखकर पुष्प अर्पित करें। फिर शिवलिंग को नए वस्त्रों में लपेटें। विधेश कुंभ और वर्धिनी शैवी की स्थापना करें। फिर चार विप्र मंत्रोच्चारण करते हुए हवन करें। एक सौ आठ घी की आहुतियों से हवन करें। हवन के पश्चात पूर्णाहुति दें। फिर महापूजन आरंभ करें। दस कलशों के जल में शिवमंत्र पढ़कर अंगूठे और अनामिका द्वारा मृत्तिका मंत्र जाप करें। फिर उस जल से शिवलिंग का अभिषेक करें। फिर विधेश के घट से अभिषेक करें।

   तत्पश्चात दोनों हाथ जोड़कर भक्ति भावना से भगवान शिव का देवी पार्वती सहित स्तुति करते हुए आह्वान करें। फिर पंचोपचार से उनका पूजन करें। पूजन करने के पश्चात हाथ जोड़कर क्षमा-याचना करें। फिर अन्य मूर्तियों को भी इसी विधि से स्थापित करें। सब कार्यों के पूर्ण हो जाने पर आचार्य को यथावत दक्षिणा देकर उसके चरण छूकर आशीर्वाद प्राप्त करें।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

सैंतीसवाँ अध्याय 

"योग-निरूपण"

  मुनि उपमन्यु बोले ;- हे केशव ! अब मैं आपको योग विधि के बारे में बताता हूं। जिसके द्वारा सभी विषयों से निवृत्ति हो और अंतःकरण की सब वृत्तियां शिवजी में स्थित हो जाएं, वह परम योग है। योग पांच प्रकार का होता है। मंत्र योग, स्पर्श योग, भावयोग, अभाव योग और महायोग। मंत्रों का उनके अर्थ सहित ज्ञान होना महायोग कहलाता है। मंत्रों को प्राणायाम द्वारा सिद्ध करना स्पर्श योग कहलाता है। जब जिह्वा मंत्रों को स्पर्श न करते हुए भी उनका जाप करती है तो वह भावयोग कहलाता है। प्रलय के समय से संबद्ध पूरे संसार का विचार अभावयोग कहलाता है। जब साधना करने वाले की सभी मानसिक वृत्तियां भगवान शिव से जुड़ जाएं और वह नित्य शिव - चिंतन में मग्न रहे ऐसी दशा महायोग कहलाती है।

   सांसारिक बंधनों से मुक्ति की कामना करने वाले मनुष्य ही इस चिंतन और वैराग्य को अपने जीवन में अपनाकर महायोग को प्राप्त करते हैं। हमारे शरीर में रहने वाली प्राणवायु 'रहने को रोकना प्राणायाम कहलाता है। प्राणायाम रेचक, पूरक और कुंभक तीन प्रकार का होता है। साधक को इनका अभ्यास करना चाहिए क्योंकि इसी से शरीर की शुद्धि होती है। प्राणायाम सगर्भ और अगर्भ दो प्रकार का होता है। जप और ध्यान वाला प्राणायाम सगर्भ कहलाता है परंतु जिसमें जप और ध्यान नहीं करते, वह अगर्भ प्राणायाम कहलाता है। योगीजन सगर्भ प्राणायाम करते हैं। प्राणवायु पर विजय प्राप्त कर लेने पर सभी वायु उस योगी के अधिकार में आ जाती हैं । प्राणायाम शरीर को पुष्ट, स्वस्थ और निरोगी बनाता है। इसके नियमित अभ्यास से कफ, मूत्र, पुरीष आदि कम हो जाते हैं। समस्त इंद्रियों को अपने वश में कर लेना प्रत्याहार कहलाता है। इंद्रियों को अपने वश में रखने से स्वर्ग और न रखने से नरक की प्राप्ति होती है। इसलिए अपने चित्त को एकाग्र रखना चाहिए।

  भगवान शिव, जो कि सबके ईश्वर हैं, त्रिलोकीनाथ हैं, का ध्यान करने से योगी का कल्याण होता है। अपने पूरे शरीर के साथ-साथ इंद्रियों पर काबू पाने से आत्मा का उद्धार होता है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

अड़तीसवाँ अध्याय 

"योग गति में विघ्न"

  उपमन्यु बोले ;- हे केशव ! आलस्य, व्याधि, प्रमदा, स्थान, संशय, चित्त का एकाग्र न होना, अश्रद्धा, दुख, वैमनस्य आदि योग में पड़ने वाले विघ्न हैं। इन विघ्नों को सदा शांत करते रहना चाहिए। इन सब विघ्नों के शांत होने पर छः उपसर्ग उत्पन्न हो जाते हैं। प्रतिमा, श्रवण, वार्ता, दर्शन, आस्वादन, वेदना आदि भोग के विषय हैं। यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो जाने पर भी विप्रकृष्ट नहीं होता, यही प्रतिमा है।

  यत्न के बिना जब सबकुछ हमें सुनाई देने लगता है उसे श्रवण कहते हैं। सभी प्राणियों की बात को जानना और समझ लेना वार्ता कहलाता है। बिना कोई कोशिश किए जब सबकुछ आसानी से दिखाई देने लगे तो उसे दर्शन कहते हैं। दिव्य पदार्थों के स्वाद का नाम ‘आस्वादन' है। वेदना को सभी प्रकार के स्पर्शो का ज्ञान माना जाता है। योगी उपसर्ग पाकर सिद्ध हो जाता है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

उन्तालीसवाँ अध्याय 

"योग वर्णन"

  उपमन्यु बोले ;- हे केशव ! त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का सभी योगी-मुनि ध्यान करते हैं। इसी के द्वारा सिद्धियां प्राप्त होती हैं। सविनय और निर्विषय आदि ध्यान कहे गए हैं। निर्विषय ध्यान करने वाले अपनी बुद्धि के विस्तार से ध्यान करते हैं और ब्रह्म में प्रवेश करते हैं। सविषय ध्यान सूर्य किरणों को आश्रय देने वाला होता है। शांति, प्रशांति, दीप्ति, प्रसाद ये दिव्य सिद्धियां देवी का ध्यान करते हुए प्राणायाम द्वारा सिद्ध होती हैं।

  बाह्य और आभ्यंतर अंधकार का विनाश प्रशांति और सभी आपत्तियों का नाश शांति है। बाह्य आभ्यंतर प्रकाश का दीप कहा जाता है। जब हमारी बुद्धि शुद्ध हो जाए, यही प्रसाद है। बाहर-भीतर के सभी कार्य पूर्ण होने पर सब कारण प्रसिद्ध हो जाते हैं। भगवान शिव, जो साक्षात परमेश्वर हैं, का भक्तिपूर्वक ध्यान करने से सभी पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। बुद्धि का प्रवाह ध्यान एवं स्मरण से होता है। समस्त ऐश्वर्य, अणिमा आदि सिद्धियां एवं मुक्ति भगवान शिव का स्मरण एवं ध्यान करने से मिलती हैं।

  देवाधिदेव महादेव जी का ध्यान मोक्ष प्रदान करने वाला है। इसलिए ज्ञानी मनुष्यों को शिव ध्यान एवं स्मरण अवश्य करना चाहिए। ज्ञान योग यज्ञों से बढ़कर फल देता है। महायोगी योग सिद्ध कर लोकहित और लोक कल्याण हेतु लोक भ्रमण करते रहते हैं। वे विषय वासना को तुच्छ मानते हैं और सब इच्छाओं को त्यागकर वैराग्य ले लेते हैं। वे शिव शास्त्रों में वर्णित विधि के अनुसार अपनी देह का त्याग कर देते हैं। इससे उन्हें मुक्ति प्राप्त हो जाती है।

  भगवान शिव में अगाध भक्ति और श्रद्धा रखने वाले ज्ञानी मनुष्यों को इस सांसारिक मोह माया से मुक्ति मिल जाती है और वे जन्म-मरण के चक्कर से मुक्त होकर परम शिवधाम को प्राप्त कर लेते हैं।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

चालीसवाँ अध्याय 

"मुनियों का नैमिषारण्य गमन"

  सूत जी बोले ;- हे मुनियो ! महर्षि उपमन्यु ने भगवान श्रीकृष्ण को ज्ञान योग का उपदेश दिया। वही उपदेश वायुदेव ने ऋषिगणों को सुनाया था जिसे सुनकर वे बहुत हर्षित हुए थे। प्रातःकाल होने पर नैमिष तीर्थ में निवास करने वाले मुनिजन यज्ञांत स्नान के लिए परम पवित्र नदी को ढूंढ़ने लगे। उस समय ब्रह्माजी की आज्ञा से परम पवित्रा सरस्वती नदी वहां बहने लगी। तब सब ऋषिगणों ने वहां यज्ञांत स्नान कर संध्या पितृ तर्पण किया और वहां से काशी के लिए निकल पड़े।

काशी पहुंचकर उन्होंने पतित पावनी भागीरथी गंगा में स्नान किया एवं बाबा विश्वनाथ के दर्शन कर विधिनुसार पूजन किया। काशी से वे चल पड़े। रास्ते में उन्हें एक अद्भुत दिव्य प्रकाश चारों और फैला दिखाई दिया जिसमें पाशुपत व्रत की सिद्धियां प्राप्त भस्मधारी मुनिजन विलीन हो रहे थे। फिर शीघ्र ही वह तेज भी विलीन हो गया। यह देखकर नैमिषारण्य के सभी मुनिजन ब्रह्माजी से मिलने ब्रह्मलोक चल दिए। वहां पहुंचकर उन्होंने ब्रह्माजी को प्रणाम कर उनकी स्तुति की।

  मुनिश्वर बोले ;– हे जगतपिता ब्रह्माजी ! वायुदेव ज्ञानोपदेश देकर वहां से चले आए, तब हम सबने यज्ञ कर यज्ञांत स्नान से निवृत्त हो काशी नगरी की ओर प्रस्थान किया। वहां गंगा में स्नान कर बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए। वहां हमें एक अद्भुत तेज के दर्शन हुए। उस तेज में अनेक तपस्वी विलीन हो रहे थे। कुछ समय पश्चात वह तेज स्वयं विलीन हो गया। उसे देखकर में बहुत आश्चर्य हुआ । भगवन् वह क्या था?

ऋषिगणों के प्रश्न को सुनकर ब्रह्माजी बोले ;- हे ऋषिगणो! आपने बहुत समय यह करके देवाधिदेव भगवान शिव को प्रसन्न किया है। उस दिव्य तेज में प्रवेश करने वाले पाशुपत व्रतधारी मुनि थे। उसके दर्शन का यही अर्थ है कि आपको शीघ्र ही दिव्य लोक की प्राप्ति होने वाली है। इसलिए आप मोक्ष प्राप्त करने हेतु पाशुपत व्रत धारण करें। अब आप सब यहां से सुमेरु पर्वत पर चले जाएं। वहां सनत्कुमार जी आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे पूर्व में अपने अहंकार के कारण मिले शाप से मुक्ति पाने के लिए वहां तपस्या कर रहे हैं। वहां उन्हें ज्ञान प्राप्त होगा।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

इकतालीसवाँ अध्याय 

"मुनियों को मोक्ष"

  सूत जी बोले ;- हे मुनिवर ! ब्रह्माजी के वचन सुनकर ऋषिगण उन्हें प्रणाम कर सुमेरु पर्वत पर चले गए। वहां उन्होंने पर्वत शिखर पर एक सुंदर तालाब की उत्तर दिशा में तपस्या करते सनत्कुमार जी को देखा। मुनि उन्हें प्रणाम कर उनके पास बैठ गए। 

सनत्कुमार जी ने आंखें खोलकर अपने पास बैठे मुनियों को देखकर,,

 उनसे प्रश्न किया ;- हे ऋषिवर! आप कौन हैं और यहां क्या कर रहे हैं? यह सुनकर ऋषिगणों ने सारी बातें उन्हें बता दीं। उसी समय नंदीश्वर भी वहां आ गए। नंदीश्वर को अपने सामने पाकर सभी मुनियों और सनत्कुमार जी ने आसन से उठकर उन्हें दंडवत प्रणाम किया और हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगे।

  सनत्कुमार जी बोले ;- हे नंदीश्वर ! इन मुनियों ने, जो कि नैमिषारण्य में निवास करते हैं, दस हजार वर्षों तक यज्ञ किया है। उस महायज्ञ के समाप्त होने पर ब्रह्माजी ने इन्हें आपकी शरण में भेजा है। आप इनका कल्याण करें और इन्हें दिव्य अद्भुत ज्ञान प्रदान करें।

  सनत्कुमार जी के वचन सुनकर नंदीश्वर ने अपनी कृपादृष्टि ऋषिगणों पर कर दी। नंदीश्वर ने परम दिव्य शिवतत्व का उपदेश उन्हें दिया। तब उपदेश देकर वे बोले-यह परम ज्ञान धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सभी प्रदान करने वाला है। अब आप मुझे जाने की आज्ञा प्रदान करें। यह कहकर नंदीश्वर वहां से चले गए। इसके पश्चात सभी ऋषिगण प्रयाग तीर्थ चले गए और वहां उन्होंने अपना महान योग पूरा किया। योग पूर्ण होने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि कलियुग आ रहा है। यह देखकर वे नैमिषारण्य मुनि काशी चले गए। वहां मुक्ति की कामना करते हुए उन्होंने पाशुपत व्रत धारण किया। उनकी सिद्धि सफल हुई और वे शिव पद को प्राप्त हुए।

श्री व्यासजी बोले ;- इस प्रकार यह शिव पुराण पूर्ण हुआ । इस शिव पुराण को आदरपूर्वक पढ़ने अथवा सुनने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इसे प्रथम बार पढ़ने या सुनने से सारे पाप भस्म हो जाते हैं। दुबारा श्रवण से भक्तिहीन को भक्ति व भक्त को भक्ति की समृद्धि प्राप्त होती है। तीसरी बार श्रवण करने से मुक्ति मिल जाती है। अपनी मनोकामना पूर्ण करने हेतु इसका पांच बार पाठ करना चाहिए। प्राचीन काल में शिव पुराण का सात बार पाठ कर अनेक राजाओं, ब्राह्मणों और वैश्यों साक्षात शिव दर्शन किए। इस पवित्र ग्रंथ को भक्तिपूर्वक सुनने वाला मनुष्य संसार में सभी सुखों को भोगकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। शिव पुराण भगवान शिव को बहुत प्रिय है। यह वेदों के समान भोग और मोक्ष देने वाला है। शिव पुराण का पाठ करने वाले मनुष्य पर देवाधिदेव महादेव की सदा कृपादृष्टि रहती है। वे सदा सबका कल्याण करते हैं।


।। श्रीवायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध) संपूर्ण ।।


।। शिव पुराण संपूर्ण ।।


 


(नोट :- सभी अंश, सभी संहिता के सभी अध्याय व खण्ड की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )


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