शिव पुराण उमा संहिता के छब्बीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the twenty-sixth to the thirtieth chapter of the Shiva Purana Uma Samhita)


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【उमा संहिता】

छब्बीसवाँ अध्याय

"काल-चक्र निवारण का उपाय"

देवी पार्वती बोलीं ;- हे नाथ! आपने कालचक्र का वर्णन मुझे सुनाया । हे देवाधिदेव ! अब कृपा करके इससे बचाव का उपाय भी मुझे बताइए । अपनी प्राण वल्लभा के इस प्रकार के प्रश्न को सुनकर,,

 त्रिलोकीनाथ भगवान शिव बोले ;- देवी उमे! पृथ्वी, जल, तेज, पवन और आकाश आदि पांच तत्वों के संयोग से इस भौतिक शरीर की उत्पत्ति होती है। आकाश सर्वव्यापक है और सब वस्तुएं उसी में लीन हो जाती हैं। एक बार मैंने क्रोधवश काल को जला दिया था। जब-जब मैं स्तुतियों द्वारा प्रसन्न हुआ तब काल पुनः प्रकृति में स्थिर हो गया।

    आकाश से वायु, वायु से तेज, तेज से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। जल के चार, तेज के तीन, वायु के दो और आकाश का एक गुण है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध आदि पांच भूत, जब शरीर को त्याग देते हैं, तभी प्राणी की मृत्यु होती है और जब ये पाचों भूत शरीर को ग्रहण करते हैं तो प्राणी की उत्पत्ति होती है। काल को जीतने वाले योगीगण इन गुणों का ध्यान करते हैं।

देवी पार्वती ने कहा ;- हे नाथ! काल पर विजय पाने के लिए योगीजन जिस यंत्र का ध्यान या अभ्यास करते हैं, उसके विषय में बताइए । पार्वती जी के इस प्रश्न को सुनकर,,

 देवाधिदेव शिवजी बोले ;- देवी! रात्रि के अंधकार में जब पूरा जगत गहरी नींद में सो रहा हो, उस समय बैठकर योग करें। आसन पर बैठकर अपनी तर्जनी अंगुलियों से दोनों कानों को बंद कर लें। इस प्रकार प्रतिदिन यही साधना करें। जब यह साधना इतनी कठोर हो जाए कि दो पहर इसी आसन में बीतें तथा उसके बाद अग्नि द्वारा प्रेरित शब्द या नाद सुनाई दे, उस समय मनुष्य को इच्छानुसार मृत्यु प्राप्त हो जाती है। यह शब्द या नाद ब्रह्मरूप है, जो सुख तथा मुक्ति को देने वाला है। इस नाद ध्वनि या शब्द को सांसारिक मोह माया में लिप्त लोग भला कैसे जान पाएंगे?

     जिन उत्तम मनुष्यों को इसका ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वे आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं। उन्हें तत्वज्ञान व मुक्ति की प्राप्ति होती है। यह नाद अनाहत है, जिसका उच्चारण नहीं किया जा सकता। योगीजन अपने प्रयत्न एवं ध्यान द्वारा इसे प्राप्त करते हैं। वे पापों से दूर होकर मृत्यु पर विजय पा लेते हैं। उसी मृत्यु से पर विजय प्रदान करने वाला शब्द उत्पन्न होता है। घोष, कांस्य, श्रंग, घण्टा, वीणा, वंशज, दुंदुभि, शंखनाद व मेघ गर्जित नामक इन नौ शब्दों का ध्यान करने वाले ज्ञानियों एवं योगीजनों पर कभी कोई विपत्ति नहीं आती। इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर नियमपूर्वक तुकांग शब्द की स्तुति और ध्यान करने वाले मनुष्यों के लिए कुछ भी असाध्य नहीं होता। उसकी हर कामना की सिद्धि होती है और अभीष्ट फल मिलता है।

【उमा संहिता】

सत्ताईसवाँ अध्याय

"अमरत्व प्राप्ति की साधनाएं"

पार्वती जी बोलीं ;- हे प्रभो ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह बताएं कि योगीजन वायु के पद को कैसे प्राप्त करते हैं? 

   यह सुनकर महादेव जी बोले ;- हे कल्याणी! जिस प्रकार दरवाजे की देहरी पर रखा दीपक घर के अंदर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करता है, उसी प्रकार हमारे हृदय के भीतर स्थित वायु भी अंदर और बाहर दोनों ओर प्रकाश करती है। ज्ञान, विज्ञान और उत्साह सभी का मूल वायु ही है। इसलिए जिसने वायु पर अपनी विजय प्राप्त कर ली है, उसे पूरे जगत पर विजय प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार लोहार मुख से फूंकनी में फूक (वायु) भरता हुआ अपने काम में लगा रहता है, उसी प्रकार संत और योगीजन भी अपने अभ्यास में लगे रहते हैं। अभ्यास करते-करते जब वे पारंगत हो जाते हैं तो वे आसन से दस अंगुल ऊपर उठ जाते हैं।

  प्राणायाम में सिर एवं व्याहृतियों के साथ गायत्री मंत्र का जाप करते हुए प्राणवायु को रोका जाता है और अंदर स्थित वायु को नाक के रास्ते बाहर फेंका जाता है। इसे करने से बड़ा उत्तम फल मिलता है। योगीजनों को एकांत स्थान पर, जहां सूर्य-चंद्र का प्रकाश हो, सोना चाहिए। आंखों को अंगुलियों द्वारा बंद करके ध्यानमग्न होने पर योगीजनों को ईश्वर की ज्योति के दर्शन होते हैं। जब योगीजनों को इस प्रकार अंधकार में ईश्वर ज्योति के दर्शन हो जाते हैं तब वह योगी परम सिद्ध हो जाता है। उसे अनेक सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं। वह जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है और उसे मोक्ष रूपी परम तत्व की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार ध्यान करने वाले योगियों को तुरीय गति प्राप्त हो जाती है।

【उमा संहिता】

अठ्ठाईसवाँ अध्याय

"छाया पुरुष का वर्णन"

श्री पार्वती जी शिवजी से पूछने लगीं ;- कि भगवन्! आपने मुझे काल और वचन का वर्णन किया, अब मुझे छाया पुरुष के श्रेष्ठ ज्ञान को बताइए।

   भगवान शिव बोले ;- श्वेत वस्त्र धारण करके धूप दीप प्रज्वलित करके 'ॐ नमः भगवते रुद्राय' नामक बारह अक्षरों के मंत्र का जाप करते समय जब मनुष्य को अपनी छाया दिखाई देने लगे तो उसे ब्रह्म की प्राप्ति होती है। यदि ऐसी छाया बिना सिर के दिखाई दे तो छः महीने में मृत्यु हो जाती है। शुक्लवर्ण होने पर धर्म वृद्धि होती है, कृष्ण वर्ण पाप, रक्त वर्ण पर बंधन, पीत पर शत्रु का भय होता है। यदि नाक कटी दिखे तो विवाह बंधु मृत्यु, भूख का डर होता है। इस प्रकार जब मनुष्य को छाया पुरुष दिखाई दे, तो उसे नवाक्षर मंत्र का मन में जाप करना चाहिए। इस प्रकार एक वर्ष तक इसे जपने से सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है। अब मैं तुम्हें एक गुप्त विद्या के बारे में बताता हूं। यह विद्या ब्राह्मणों के सिर पर विद्यमान होती है। यह विद्या सभी विद्याओं की माता कहलाती है। वेद भी प्रतिदिन इसकी स्तुति करते हैं। इस विद्या को खेचरी नाम से जाना जाता है। यह विद्या अदृश्या, दृश्या, चला, नित्या, व्यक्ता, अव्यक्ता और सनातनी कहलाती है। यह वर्ण रहित, वर्ण सहित बिंदु मालिनी है। इस विद्या का दर्शन करने वाले योगी का जन्म सफल हो जाता है।

  इसलिए योगीजनों को अपने ज्ञान और विद्याओं का नित्य अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास से सभी सिद्धियां सिद्ध होती हैं।

【उमा संहिता】

उन्नतिसवाँ अध्याय

"आदि-सृष्टि का वर्णन"

सूत जी बोले ;- हे ऋषिगण ! सत् और असत् का परम स्वरूप प्रधान पुरुष परमात्मा ही ब्रह्माजी के रूप में सृष्टि को उत्पन्न करते हैं। वे ही सृष्टि के रचयिता हैं। विष्णुजी इस सृष्टि का पालन और शंकरजी इसका संहार करते हैं। ब्रह्माजी ने जब सृष्टि की रचना के बारे में सोचा तो सबसे पहले जल की उत्पत्ति हुई। जल को नरक पुत्र कहा जाता है और जल में नारायण रहते हैं। ब्रह्माजी ने स्वयं यज्ञ किया और स्वयंभू कहलाए। जल में सर्वप्रथम एक अण्डा हुआ जिसके दो भाग हिरण्यगर्भ ने किए।

    अण्डे के ये दो भाग आकाश और पृथ्वी हुए । ब्रह्माजी ने अधो भाग में चौदह भुवन, मध्य में आकाश की रचना की। उन्होंने ही जल के ऊपर पृथ्वी की रचना की। आकाश में दस दिशाओं की रचना हुई ब्रह्माजी ने तत्पश्चात मन, वाणी, काम, क्रोध, रूप और रति की भी रचना की। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु, वशिष्ठ महामुनि तेजस्वी ऋषियों के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुए। ये सब ऋषि ही सप्तऋषि के नाम से जाने जाते हैं और इनका वर्णन सभी पुराणों में किया गया है।

   पुराणों और सप्तऋषि रचना के पश्चात यज्ञ सिद्धि के लिए ऋग्, यजु, साम और अथर्व वेदों का निर्माण ब्रह्माजी ने किया। तत्पश्चात उन्होंने देव पूजन किया वक्षस्थल से पितर, जंघाओं से मानव एवं जंघा के नीचे के भाग से दैत्य बनाए गए। इस प्रकार ब्रह्माजी ने सारी सृष्टि की रचना पूरी की परंतु उनकी बनाई गई इस सृष्टि में विकास न होता देखकर ब्रह्माजी ने प्रकृति और पुरुष को बनाया जिन्होंने सृष्टि का निर्माण किया। भगवान नर और नारायण द्वारा बनाई गई सृष्टि प्रजा अमैथुन सृष्टि से उत्पन्न हुई।

【उमा संहिता】

तीसवाँ अध्याय

"सृष्टि रचना क्रम"

सूत जी बोले ;- हे ऋषिगण ! इस प्रकार ब्रह्माजी द्वारा निर्मित सृष्टि का निरंतर प्रसार होने लगा। प्रजापति ने अयोनिजा शतरूपा से विवाह किया। शतरूपा ने सौ वर्षों तक तपस्या करके उन्हें पति रूप में प्राप्त किया। इन्हीं के मनु नामक पुत्र हुए। मनु से इकहत्तर मनुओं की रचना मन्वंतर संज्ञा कहलाती है। फिर वीरका हुई। इनसे उत्तानपाद की उत्पत्ति हुई। राजा उत्तानपाद का विवाह सुनीति से हुआ। इन्हीं के परम तेजस्वी पुत्र के रूप में ध्रुव पैदा हुआ। ध्रुव ब्रह्माजी की तीन हजार वर्षों तक कठोर तपस्या करके सप्तऋषियों से भी ऊपर स्थान प्राप्त किया था।

   पुष्टि और धान्य नामक ध्रुव के दो पुत्र हुए। पुष्टि की पत्नी सुनत्था थी। उनसे रिपु, रिपुजय, विप्र, नकल, वृष, तेजा नामक पांच पुत्र पुष्टि को प्राप्त हुए। रिपु से चाक्षुष, पूष्करिर्ण पत्नी से चाक्षुष को वरुण नामक पुत्र प्राप्त हुए । सुनीथा से अंग को बेन नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। बेन के शरीर से ऋषिगण ने मंथन किया। उनके दक्षिण हाथ से राजा पृथु पैदा हुए, जो भगवान विष्णु के अवतार थे। पृथु ने पृथ्वी का दोहन किया ताकि प्रजा का हित हो सके। इनके विजिताश्व और हर्यश्व नामक दो पुत्र हुए। शिखंडिनी ने वीर वर्णिनी से विवाह किया। इनसे प्रजापति की प्राप्ति हुई, जो कि सोम के अंश थे। तत्पश्चात दक्ष ने दो पैर वाले और चार पैर वाले जीवों को उत्पन्न किया। हर्यश्व नामक दस हजार पुत्र उत्पन्न किए, जो महर्षि नारद के वचनों और उपदेशों को सुनकर वैरागी हो गए। फिर ब्रह्माजी ने शवलाश्व नामक दस हजार पुत्र उत्पन्न किए जिन्हें नारद जी ने वैरागी बना दिया। यह सब जानकर दक्ष बहुत क्रोधित हुए। क्रोधित दक्ष ने देवर्षि नारद को शाप दिया - नारद! तुमने मेरे पुत्रों को गलत मार्ग पर डाल दिया है। उन्हें मुझसे दूर कर दिया है। इसलिए तुम भी कहीं चैन से नहीं बैठ सकोगे। तुम्हारा कोई निश्चित ठिकाना नहीं होगा। तुम जगह-जगह घूमते रहोगे ।

   पुत्रों के बाद दक्ष की तेरह कन्याएं हुईं। जिनका विवाह कश्यप, अंगिरा, कृष्णश्व एवं चंद्रमा से हुआ। इस प्रकार अनेकों जीवों का निर्माण करने के पश्चात भी ब्रह्माजी की सृष्टि का विकास नहीं हुआ। तब उन्होंने मैथुनी सृष्टि का सृजन करने के बारे में सोचा।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें