शिव पुराण उमा संहिता के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the Twenty-one to Twenty-five chapter of the Shiva Purana Uma Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【उमा संहिता】

इक्कीसवाँ अध्याय

"युद्ध धर्म का वर्णन"

व्यास जी बोले ;- सनत्कुमार जी ! यह माना जाता है कि ब्राह्मण कुल में जन्म मिलना कठिन है। मैंने यह भी सुना है कि सर्वेश्वर शिव के सिर से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य एवं चरणों से शूद्र उत्पन्न हुए हैं। महर्षे! कृपा कर बताइए कि नीच मनुष्यों की क्या स्थिति होती है?

   व्यास जी के वचन सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे महामुनि व्यास जी ! मनुष्य अपने द्वारा किए गए पापों के कारण अपने स्थान से गिर जाता है। मनुष्य द्वारा किए गए शुभ व अच्छे कर्म मनुष्य के स्थान की रक्षा करते हैं। क्षत्रिय जाति में जन्म पाने वाले मनुष्यों को पूर्व जन्म में किए गए बुरे कर्मों के कारण ही क्षत्रिय वर्ण में जन्म मिला होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह विपत्ति एवं कठिनाइयों के समय भी दृढ़ता से अपने कर्तव्य का अनुसरण करे । उसे अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। उसे बुरे कार्यों में नहीं लगना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्य अपने स्थान की रक्षा कर सकते हैं।

    शूद्र वर्ण में जन्म लेने वाले मनुष्य यदि अपने से ऊंचे तीनों वर्णों की सेवा मन लगाकर उचित रीति से धर्मानुसार जीवन भर करते हैं तो उन्हें अगले जन्म में वैश्य वर्ण में जन्म मिलता है। इसी प्रकार जो वैश्य विधि-विधान के अनुसार पूजा-अर्चना करता है और हवन आदि करता है और सदा धर्म और सत्य के पथ पर चलता है तो उसे अपने दूसरे जन्म में क्षत्रिय होने का गौरव मिलता है। जो क्षत्रिय विधिपूर्वक यज्ञ और अनुष्ठान श्रेष्ठ ऋषिगणों के सान्निध्य में पूरे करता है व अपने क्षत्रिय धर्म का सही से पालन करता है, उसे ब्राह्मण कुल में दूसरा जन्म मिलता है। इसी प्रकार ब्राह्मण कुल का जो ब्राह्मण अपने धर्म का दृढ़ता एवं स्थिरता से पालन करता है वह देवता को प्रसन्न करता है उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

व्यास जी ने फिर पूछा ;- हे सनत्कुमार जी ! अब आप हम सबको युद्ध का माहात्म्य सुनाएं।

 सनत्कुमार जी बोले ;- हे महामुने! जिस अद्भुत फल की प्राप्ति विभिन्न प्रकार के यज्ञों जैसे अग्निष्टोमादि को विधि-विधान से करने से भी नहीं होती, उस महाफल की प्राप्ति युद्ध द्वारा आसानी से हो सकती है। धर्मपूर्वक अपने पथ पर अडिग रहने वाला क्षत्रिय, जो कि युद्ध में पराजित नहीं होता और न ही युद्ध में पीठ दिखाता है, ऐसा वीर योद्धा, जो लड़ते लड़ते युद्ध क्षेत्र में पराजित न होकर वीरगति को प्राप्त होता है उसे सीधे स्वर्गलोक की प्राप्ति होती है। वह जीवन-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाता है। अपने शत्रुओं को मारकर स्वयं भी मर जाने वाले क्षत्रियों को निश्चय ही स्वर्ग में स्थान मिलता है।

   युद्धभूमि में प्राप्त हुई मृत्यु सभी जाति एवं वर्णों के लिए सुखदायक है। युद्ध के मैदान में यदि ब्राह्मण भी शस्त्रों को साथ लेकर युद्ध के लिए आता है तो उसका वध करना ब्रह्महत्या नहीं होता और उसका पाप भी नहीं लगता। मरता हुआ मनुष्य यदि पानी मांगे तो उसकी प्यास बुझाना धर्मसंगत है। कभी भी शरण में आए मनुष्यों को युद्ध में नहीं मारना चाहिए अन्यथा ब्रह्महत्या का पाप लगता है।

【उमा संहिता】

बाईसवाँ अध्याय

"गर्भ में स्थित जीव, उसका जन्म तथा वैराग्य"

   व्यास जी बोले ;- हे महर्षे! आपने हमारी बहुत-सी जिज्ञासाओं को शांत किया है। अब आप हमें जीव का जन्म, उसकी गर्भ में स्थिति एवं जीव के वैराग्य के बारे में बताइए । महामुनि व्यास के प्रश्न को सुनकर सनत्कुमार जी बोले- हे मुने! हमारे शरीर की पुष्टि रस एवं मैल से हुई है। मैल बारह रूपों में शरीर से बाहर होता है। कान, आंख, नाक, जीभ, दांत, लिंग, गुदा, मलाशय, स्वेद, कफ, विष्ठा, मूत्र आदि मल स्थान हैं। हमारा हृदय सभी नाड़ियों से जुड़ा हुआ है। इसी के द्वारा शरीर में रस पहुंचता है। यही रस आत्मा से परिपक्व होता हैं। जब यह रस पकता है तो सर्वप्रथम त्वचा का निर्माण होता है और त्वचा शरीर से लिपट जाती है। फिर खून बनता है। तत्पश्चात रोम, बाल, स्नायु, अस्थि, मज्जा पैदा होते हैं। ऋतुकाल में स्त्रियों के शरीर में प्रवेश वीर्य शरीर का निर्माण करता है। एक दिन में कलिल, पांच दिन में बबूला, सात रात्रि में मांस पिंड बन जाता है। धीरे-धीरे समय के साथ-साथ जीव के अंग बनते जाते हैं। इस प्रकार जीव अपनी माता के गर्भ में बढ़ता है और उसका विकास होता है। अपनी माता द्वारा खाए गए भोजन के रस से ही उसे भी भोजन मिलता है।

   इस प्रकार अपनी माता के गर्भ में पलता हुआ जीव अपने बारे में विचार करता है। उसे सुख-दुख की प्राप्ति भी अपने पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार होती है। उसे गर्भ में ज्ञान होता है कि मैं इसी तरह जन्म-मरण पाता रहता हूं और प्रत्येक योनि में अनेकों दुखों को भोगता हूं। इसलिए मुझे अपनी आत्मा के उद्धार के लिए अवश्य ही कुछ करना चाहिए। गर्भ में जीव अनेकों कष्टों को भोगता है क्योंकि गर्भ भी एक प्रकार की कैद ही है। जीवात्मा गर्भ में इस प्रकार पड़ी रहती है, जैसे उस पर कोई पहाड़ रखा हो। इस प्रकार गर्भ में वह अनेक कष्टों को भोगता है।

   गर्भ में अनेक दुख और यातनाएं झेलनी पड़ती हैं। तभी तो धर्मात्मा सातवें माह में ही जन्म ले लेते हैं और पापी नौ महीने तक गर्भ की परेशानियों और कष्टों को झेलते हैं।

【उमा संहिता】

तेईसवाँ अध्याय

"शरीर की अपवित्रता तथा बालकपन के दुख"

    सनत्कुमार जी बोले ;- हे महामुने ! हमारा शरीर रज और वीर्य के मिलने से बनता है। विष्ठा के गर्त में स्थित गर्भ में बनता है। इसी कारण इसे अपवित्र माना जाता है। इस अपवित्र देह को पंचगव्यों, किंवा, कुशाजला आदि किसी भी वस्तु से पवित्र नहीं किया जा सकता। शरीर को मिट्टी से मां कर गंगाजल से धोने से भी कुछ नहीं होता। उसकी शुद्धि किसी भी प्रकार से नहीं होती। जिस प्रकार मलिन आत्मा अनेकों वर्षों तक भटकती रहती है, उसे किसी भी प्रकार से मुक्ति नहीं मिलती। दूषित पुरुष अग्नि की परिक्रमा एवं हवन यज्ञ आदि से भी पवित्र नहीं होते। मंदिरों एवं अन्य तीर्थ स्थानों पर निवास करने वाले जीव भी अपने कर्मों का फल भोगते रहते हैं। उन्हें वहां भी पवित्रता एवं शुद्धि नहीं मिलती । शुद्ध भावना से ईश्वर की स्तुति में लीन रहकर जीवन बिताने से ज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञान से हमारा हृदय शुद्ध हो जाता है। ज्ञान रूपी जल एवं वैराग्य रूपी मृतिका से उसे शुद्धि प्राप्त हो जाती है। हमारा शरीर तो अपवित्र है। यह जानकर और समझकर मनुष्य यदि शांति से विचार करे तो उसे ज्ञान मिल जाता है। इस प्रकार वह जीवन से मुक्त हो जाता है।

सच्चाई यह है कि सभी दुखों की जड़ यह मोह-ममता है। यदि हम इसका त्याग कर दें तो फिर हमें सुख प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता। वह जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है परंतु ऐसा होता नहीं, क्योंकि जब गर्भ में ज्ञान प्राप्त करके जीव संसार में पैदा होता है तो फिर सबकुछ भूल जाता है। वह ईश्वर को पहचान नहीं पाता। आंख होने पर भी वह अंधा, कान होते हुए भी बहरा हो जाता है। उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है और संसार में फंसकर वह दुख प्राप्त करता है।

बालकपन व किशोरावस्था में जीव अनेक दुखों को भोगता है। वह अपने कल्याण का उसमें काम, क्रोध आदि की भावनाएं प्रबल हो जाती हैं। वह रास्ता नहीं ढूंढ़ पाता। जवानी में स्त्रियों का साथ पाना चाहता है। इस प्रकार के क्षणिक सुख को ही वह महासुख समझ लेता है और ईश्वर की ओर ध्यान नहीं देता वह सांसारिक बंधनों में बंधकर अनेक दुखों को भोगता रहता है।

【उमा संहिता】

चौबीसवाँ अध्याय

"स्त्री स्वभाव"

व्यास जी बोले ;– हे मुनिराज ! अब आप हमें पंचचूड़ा अप्सरा द्वारा वर्णित स्त्रियों के कुत्सित अर्थ के बारे में बताइए । 

व्यास जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए सनत्कुमार जी बोले ;– हे - व्यास जी! एक बार देवर्षि नारद भ्रमण कर रहे थे, तो पंचचूड़ा अप्सरा मिली, 

तब नारद जी ने उससे कहा ;- सुंदरी ! आप मुझे स्त्री स्वभाव के बारे में बताइए । 

तब पंचचूड़ा ने कहा ;- हे देवर्षि! एक स्त्री होते हुए भला मैं स्त्रियों की बुराई कैसे कर सकती हूं? आप स्त्री स्वभाव को स्वयं जानते ही हैं। नारियों का स्वभाव बड़ा रहस्यमय होता है। कुलीन और पवित्र कही जाने वाली स्त्रियां भी मर्यादा की रेखा को नहीं मानतीं। वे पापी पुरुषों का सेवन भी कर लेती हैं। सब पापों की जड़ नारी को ही माना जाता है।

   पुरुष द्वारा थोड़ा-सा प्यार जताने पर स्त्रियां उसकी हो जाती हैं। आभूषण और वस्त्रों की चाह रखने वाली स्त्रियां कुसंगति में पड़कर बिगड़ जाती हैं। चंचल स्त्रियां बड़े-बड़े विद्वानों और ऋषि-मुनियों को भी मोह-माया के झंझट में डालने वाली होती हैं। वे पुरुषों के साथ से कभी भी संतुष्ट नहीं होतीं । वे पुरुषों को देखते ही पाप की ओर उन्मुख हो जाती हैं। वे रति विलास को ही परम सुख मानती हैं। उन्हें धन-वैभव की भी सदैव लालसा रहती है। सब प्रकार के दुर्गुण मिलकर भी स्त्री स्वभाव की समानता नहीं कर सकते । यमराज, मृत्यु, पाताल, बड़वानल, क्षुरधारा, विषसर्प, अग्नि सब मिलकर भी स्त्रियों की बराबरी नहीं कर सकते। वे महादारुण होती हैं। ब्रह्माजी ने इस जगत को बनाते समय पंचमहाभूतों की रचना की। सारे लोकों को रच दिया। अपनी बनाई कृतियों में उन्होंने अनेक गुण भरे परंतु स्त्रियों को बनाते समय सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने उनमें सिर्फ दोष ही दोष भर दिए। इस प्रकार पंचचूड़ा अप्सरा से स्त्रियों के बारे में ऐसे वचन सुनकर नारद जी को स्त्रियों से वैराग्य हो गया।

【उमा संहिता】

पच्चीसवाँ अध्याय

"काल का ज्ञान वर्णन"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे महामुने! एक बार शिवजी ने देवी पार्वती को काल चक्र के बारे में बताना आरंभ किया। 

  शिवजी बोले ;- हे देवी! मृत्युकाल का ज्ञान इस प्रकार है - जिस मनुष्य का शरीर अचानक पीला पड़ जाए और ऊपरी भाग में लालिमा आ जाए, जिसकी जीभ, मुंह, कान व आखें स्तब्ध हो जाएं, जो शोर-शराबा न सुन सके, जो सूर्य, चंद्र, अग्नि को काला या धुंधला देखे ऐसा मनुष्य छः महीने के अंदर ही काल का शिकार बनकर मृत्यु को प्राप्त होता है।

   जिस मनुष्य का बायां हाथ सात दिन तक लगातार फड़कता रहे, शरीर कांपता रहे, तालु सूखा रहे, वह मनुष्य एक महीने का ही मेहमान होता है। जिसकी जीभ मोटी हो जाए, नाक बहती रहे, जिसे जल, तेल, घी व शीशे में अपना प्रतिबिंब न दिखाई दे, जिसे ध्रुव मण्डल न दिखाई दे, जिसे सूर्य और चंद्र की किरणें न दिखाई दें, जिसे रात को इंद्रधनुष व दिन में उल्कापात दिखे, जिसे गिद्ध व कौए घेरे हों, तो उसकी जिंदगी छह महीने की रह गई, ऐसा जानना चाहिए।

   हे कल्याणी! आत्म-विज्ञान, क्षण, त्रुटि, लव, काष्ठ मुहूर्त, दिन-रात्रि, पल, मास, ऋतु, वर्ष, युग, कल्प, महाकल्प के अनुसार शंकर जीवों का संहार करते हैं। वाम, दक्षिण एवं मध्य तीन मार्ग हैं। नाड़ियां प्राणों को धारण करती हैं। हमारे शरीर में सोलह नाड़ियां हैं, जो चार स्थानों पर रहती हैं। इन्हीं सब के अनुसार ही आयु की प्राप्ति मनुष्य को होती है। नाड़ियों एवं वायु का प्रवाह मनुष्य को शेष आयु बताने का कार्य करता है। इस प्रकार काल ज्ञानियों ने काल चक्र का वर्णन किया है।


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