शिव पुराण उमा संहिता के इकत्तीसवें अध्याय से पैंतीसवें अध्याय तक (From the thirty-first chapter to the thirty-fifth chapter of the Shiva Purana Uma Samhita)


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【उमा संहिता】

इक्कतीसवाँ अध्याय

"मैथुनी सृष्टि वर्णन"

शौनक जी बोले ;- हे सूत जी ! कृपा करके मुझे देव, दानव, गंधर्व, राक्षस और सर्पों आदि के बारे में बताइए। 

यह सुनकर सूत जी बोले ;- जब ब्रह्माजी द्वारा निर्मित सृष्टि का प्रजापति द्वारा विकास नहीं हुआ तब वीरसा ने अपनी कन्या का विवाह धर्म से कर दिया और मैथुनी सृष्टि का आरंभ हुआ। प्रजापति दक्ष के पांच हजार पुत्र नारद जी के उपदेश का अनुसरण करते हुए ज्ञान की तलाश में घर छोड़कर चले गए और फिर कभी नहीं लौटे। इसी कारण दुखी दक्ष ने देवर्षि नारद को शाप दिया था।

    तत्पश्चात प्रजापति दक्ष ने अट्ठावन कन्याएं उत्पन्न कीं और उनका विवाह कश्यप, चंद्रमा, अरिष्टनेम, कृशाश्व, अंगिरा से कर दिया। जिनसे इन्हें विश्व से विश्व देवता, संध्या से साध्य, मरुवती से मरुत्वान, वसु से आठ वसु, भानु से बारह भानु, मुहूर्तज, लंबा से घोस, यामि से नाग, वीथी एवं अरुंधती से पृथ्वी उत्पन्न हुए । संकल्पा से संकल्प, वसु से अय, ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्यूषा, प्रभाष ये आठ पुत्र पैदा हुए।

   आठवें वसु प्रभा से विश्वकर्मा प्रजापति की उत्पत्ति हुई। वे शिल्प कला में निपुण थे। विश्वकर्मा देवताओं के लिए आभूषण, विमान, घर एवं अनेक वस्तुएं उनकी इच्छानुसार बनाया करते थे। इसी कारण विश्वकर्मा देवताओं के शिल्पी कहलाए। रैवत अज, भीम, भव, उग्र, बाम, वृष, कपि, अजैकपाद, अहिर्बुघ्न, बहुरूप एवं महान ये ग्यारह रुद्र प्रधान हैं। वैसे तो सरूपा के अनेकों पुत्र हुए और उनसे पैदा हुए रुद्रों की संख्या करोड़ों में है परंतु इन्हीं ग्यारह रुद्रों को ही मुख्य माना जाता है। ग्यारह रुद्र संसार के स्वामी भी कहे जाते हैं।

【उमा संहिता】

बत्तीसवाँ अध्याय

"कश्यप वंश का वर्णन"

सूत जी बोले ;- अदिति, दिति, सुरसा, अरिष्ठा, इला, दनु, सुरभि, विनीता, ताब्रा, क्रोध, वशी, कद्रू आदि कश्यप ऋषि की पत्नियां थीं। मन्वंतर में तुषिता नामक बारह देवता अदिति से उत्पन्न हुए। इनकी उत्पत्ति लोकहित के लिए ही हुई थी। दक्ष कन्या से ही विष्णुजी व इंद्रदेव की भी उत्पत्ति हुई ।

   सोम की सत्ताईस पत्नियां थीं। उनके अरिष्टनेमि नामक सोलह पुत्र एवं एक कन्या हुई । कुशाश्व का देव प्रहरण नामक पुत्र हुआ। स्वधा तथा सती इनकी दो पत्नियां थीं। स्वधा से पितर व सती से अंगिरा पैदा हुए। कश्यप जी को दिति से हिरण्यकशिपु तथा हिरण्याक्ष पुत्र प्राप्त हुए। विप्रचित्ति द्वारा सिंहा कन्या हुई । हिरण्यकशिपु को अनुह्लाद, व्रह्लाद, सव्लाद एवं प्रह्लाद नामक चार पुत्र प्राप्त हुए। प्रह्लाद भगवान के परम भक्त थे। हिरण्याक्ष के कुकर, शकुनि, महानाद, विक्रांत एवं काल नामक पांच पुत्र हुए।

   अयोमुख, शंबर, कपाल, वामन, वैश्वानर, पुलोमा, विद्रवण, महाशिर, स्वर्भानु, वृषपर्वा, विप्रचित्ति की प्रभा कन्याएं हुईं। वैश्वानर की पुलोम और पुलोमक कन्याओं का विवाह मरीचि से हुआ जिनसे उन्हें दानवों की प्राप्ति हुई। राहू, शल्प, सुबलि, बल, महाबल, बातपि, नमुचि, इल्वल, स्वसृप, ओजन, नरक, कालनाम, शरमाण, शर कल्प आदि इनके वंशवर्द्धक हुए।

विनिता से गरुण एवं अरुण पैदा हुए। सुरसा से अत्यंत तेजस्वी एवं परम ज्ञानी सर्पों की उत्पत्ति हुई। इसी प्रकार क्रोधवशा के बहुत से गण हुए। सुरभ से शशा एवं भैंसा, झला से बैल एवं वृक्ष, शशि से यक्ष, राक्षस, अप्सरा व मुनिगण तथा अरिष्ठा से मनुष्य एवं सर्प उत्पन्न हुए। इस प्रकार मैंने आपको कश्यप जी के वंश में उत्पन्न पुत्र एवं पौत्रों का वर्णन किया।

【उमा संहिता】

तेंतीसवाँ अध्याय

"हवन सृष्टि वर्णन"

सूत जी बोले ;– हे मुनियो ! वैवस्वान मन्वंतर में हवन करने वाली सृष्टि का वर्णन है। इस सृष्टि में सात ऋषि हुए जिन्हें ब्रह्माजी ने अपना पुत्र माना । दिति ने कश्यप ऋषि की बहुत सेवा की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने दिति को वरदान मांगने के लिए कहा। वरदान में दिति ने इंद्र को मारने वाला पराक्रमी पुत्र मांगा। उनकी इच्छा कश्यप मुनि ने पूरी की। वरदान देकर वे तप करने चले गए। 

   इंद्रदेव को दिति के इस वरदान के बारे में पता चल गया। वे उस अवसर की प्रतीक्षा करने लगे जिसमें वे दिति के व्रत को भंग कर सके। एक दिन इंद्र को अवसर मिल ही गया । दिति बिना हाथ मुंह धोए जूठे मुंह सो गई। इंद्र ने उसके गर्भ में प्रवेश कर उसके गर्भ के वज्र द्वारा सात टुकड़े कर दिए परंतु टुकड़े होने पर भी वे जीवित रहे और इंद्र से प्रार्थना करते हुए,,

 बोले ;- हम आपके भ्राता हैं। आप हमसे कैसी शत्रुता कर रहे हैं। यह सुनकर इंद्रदेव ने शत्रुता त्याग दी। इस प्रकार वे मरुद्गण के रूप में हुए । ब्रह्माजी ने पृथु को आधा राज्य दिया। सोम को ब्राह्मण, वृक्ष, नक्षत्र, ग्रह एवं भूतों का राजा बनाया। वरुण को जल, विष्णु को आदित्य, पावक वसुओं के, प्रजापतियों के इंद्र, मरुद्गणों के प्रह्लाद, दैत्यों के वैवस्वत, यत पितरों के राजा हुए। हिमालय पर्वतों के, समुद्र नदियों के, सिंह पशुओं के, वट वृक्ष वनस्पति व अन्य वृक्षों के राजा हुए। तब ब्रह्माजी ने सभी राजाओं का अभिषेक किया।

【उमा संहिता】

चौंतीसवाँ अध्याय

"मन्वंतरों की उत्पत्ति"

शौनक जी बोले ;- सूत जी ! अब आप हमें मन्वंतरों एवं मनुओं के बारे में विस्तारपूर्वक बताइए। उनकी बात स्वीकारते हुए,,

 सूत जी बोले ;- हे मुनि जी ! स्वायंभुव स्वारोचिष उत्तम रैवत, चाक्षुष आदि पांच मन्वंतरों का वर्णन मैंने आपको सुना दिया है। अब वैवस्वत मन्वंतर के बारे में सुनो। सावर्णि रोच्य, ब्रह्मा धर्म सावर्णि, रुद्र, सावर्णि देव, सावर्णि इंद्र ये सभी मनु हैं। तीनों काल के मन्वंतर कहे जाते हैं। जिसका हजार युगों तक कल्प बनता है। मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, ऋतु, पूलस्त्य, वशिष्ठ ये सातों व्रभा पुत्र हैं। स्वायंभुव मन्वंतर में यामनायक देवता सात ऋषि उत्तर दिशा में रहते हैं। आग्नीध्र, अग्नि, बाहु, मेधातिथि, बस, ज्योतिष्मान, धृतमान, हव्य, पवन, शुभ ये दस स्वयंभुव मनु पुत्र हैं। इनमें यज्ञ नामक इंद्र कहे गए हैं।

   दूसरे मन्वंतर में अर्जस्तमा, परस्तंभ, ऋषभ, वसुमान, ज्योतिष्मान, द्युतिमान एवं सातवें रोचिष्मान सात ऋषि हैं। स्वरोचिष मन्वंतर में रोचन, इंद्र तथा तुषिता नामक देवता कहे हैं। हरि, सुकृति, ज्योति, अयोमूर्ति, अयस्मय, प्रथित, मनुष्य, नभ, सूर्य महात्मा, स्वारोचिष के पुत्र हैं। तीसरे मन्वंतर में वशिष्ठ के सातों पुत्र एवं हिरण्यगर्भ के ऊर्जा तेजस्वी पुत्र ऋषि कहलाए। चौथे मन्वंतर में गार्ग्य, पृथु, गम्या, जन्य धाता और कपिनक आदि सात ऋषि हैं। त्रिशिख इंद्र हैं। द्युतिपोत, सौत, पस्यतप, शूल, तापन, तपोरित अकल्याष, धन्वी, खंगी, तामस, मनु दस पुत्र हैं।

    पांचवें मन्वंतर में देवबाहु, जय मुनि, वेदशिरा, हिरण्य रामा, पर्जन्य, उर्ध्व बाहु एवं सत्व जादिक सात ऋषि कहलाए। विभु नाम के इंद्र तथा रैवत मनु कहलाए। छठे मन्वंतर में रुचि प्रजापति के पुत्र रौच्य मनु, राम, व्यास, अत्रैय, बहश्रुति, भारद्वाज, अश्वत्थामा, शरद्वान, कृपाचार्य, कौहिक वंशी गाल्व, रुक, कश्यप आदि ऋषि और देवता कहलाए। इसी प्रकार आने वाले मन्वंतरों में विषांग, नीबासुमत, द्युतिमान, वसु, सूट, सुराविष्णु, राजा, सुमति, सावर्णि मनु पुत्र होंगे।

   नवें मन्वंतर में मेधा तिथि, पौलस्त्य वस्तु कश्यप ज्योतिष्मान, भार्गव, अंगिरा तथा सवन, वशिष्ठ आदि रोहित मन्वंतर में होंगे और मनु दक्षसावर्णि होगा। इस प्रकार जब दूसरा मन्वंतर आरंभ होगा तब हविष्मान, प्रकृति, अधोमुक्ति, अव्यय, प्रयाति, भाभार, अनेना ऋषि होंगे। द्विष्मंत नामक देवता होंगे। तृतीय मन्वंतर में ग्यारहवां मनु होगा। उसमें हविष्मान व पुष्पमान वशिष्ठ अनय चारु निखर तेजस अग्नि ब्रह्माजी के वधृत कहलाएंगे। द्युति, सुताया, अंगिरा, पौलस्त्य, पुलह, भार्गव सात ऋषि एवं ब्रह्मा के पांच मानस पुत्र देवता होंगे। इस मन्वंतर में दिवस्पति इंद्र होंगे।

   चौदहवां सत्य मनु मन्वंतर होगा। इसमें आग्नीध्र, अति ब्राह्य, मागध, शुक्ति, युक्ति, अजित, पुलह नामक सात ऋषि, दाक्षुव देवता एवं शुचि इंद्र होगा। चौदहवें मन्वंतर में पांच देवता होगे। तरंग, भीरू, दुघ्न, अनुग्र, अतिमानी प्रवीण विष्णु संक्रंदन मनु के पुत्र होंगे। इस प्रकार मैंने आपसे भूत, भविष्य काल के पहले कल्प के सभी मनुओं का वर्णन किया । मनु अपने धर्म और तप के प्रभाव से सहस्रों युगों तक प्रजा का पालन करके ब्रह्मलोक को जाते हैं। चौदह मन्वंतर अर्थात इकहत्तर युगों तक स्थिर रहकर सृष्टि का पुनः आरंभ होता है। सौ हजार वर्ष पूर्ण होने पर एक 'कल्प' पूरा माना जाता है।

【उमा संहिता】

पैंतीसवाँ अध्याय

"वैवस्वत मन्वंतर वर्णन"

सूत जी बोले ;- कश्यप मुनि को दक्ष कन्या से विवश्वान सूर्य की प्राप्ति हुई। सूर्य की संज्ञा, त्वष्ट्री, सुरेणुका नामक तीन पत्नियां हुईं। संज्ञा और सूर्य की तीन संतानें हुईं। श्राद्धदेव, मनु और प्रजापति यम । यम के साथ यमुना कन्या के रूप में पैदा हुई । उस समय संज्ञा सूर्य के तेज को सहन न कर सकीं। अपनी माया रूपी छाया प्रकट कर उसे अपनी संतानों का पालन-पोषण करने की आज्ञा देकर संज्ञा अपने पिता के घर चली गई।

    उसके पिता ने उसे इस प्रकार आया देखकर धिक्कारा, तो संज्ञा वहां से वापस आ गई। घोड़ी का वेश धारण करके वह कुरु देशों का भ्रमण करने लगी। इधर, सूर्य ने संज्ञा की छाया को ही अपनी पत्नी माना। उससे उन्हें सावर्णि मनु नामक पुत्र प्राप्त हुआ। छाया को अपने पुत्र से अधिक प्यार था। वह संज्ञा की संतानों का सही से ध्यान नहीं रखती थी। एक दिन यम को किसी बात पर क्रोध आ गया और उसने छाया को लात मार दी। यह देखकर क्रोधित छाया ने यम को शाप दिया कि तुम्हारा पांव, जिससे तुमने मुझे मारा, वह गिर पड़े।

    शाप सुनकर यम बहुत चिंतित हुए और उन्होंने सारी बातें जाकर अपने पिता सूर्य को बताईं और शाप से बचाने की प्रार्थना की। सूर्यदेव बोले- बेटा, मैं तुम्हारी माता के शाप को असत्य नहीं कर सकता परंतु उसे कम करने की कोशिश अवश्य करूंगा। सूर्य ने क्रोधित होकर छाया से पूछा, बताओ, तुमने यम को शाप क्यों दिया? क्या कोई मां अपने पुत्रों से ऐसा व्यवहार कर सकती है। तुम्हारा सबसे छोटे पुत्र से विशेष स्नेह है, अन्य सभी को तुम सदा डांटती रहती हो। ऐसा क्यों? इस प्रकार क्रोधित सूर्य के वचन सुनकर घबराई हुई छाया ने सारी बातें सच-सच बता दीं।

    फिर छाया ने सूर्य को शनि चक्र पर चढ़ाकर उनका तेज कम कर दिया। अब सूर्य का रूप सुंदर और शीतल हो गया था। उन्होंने योगदृष्टि से अपनी पत्नी संज्ञा के बारे में जानना चाहा। तब उन्हें ज्ञात हुआ कि संज्ञा घोड़ी के रूप में है। तब सूर्य उसके पास पहुंचे, अपनी पत्नी को वापस पाकर वे बहुत प्रसन्न हुए। संज्ञा भी उन्हें पाकर बहुत खुश हुई। उनके मिलन से वैद्य अश्विनी कुमार की उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात खुशी-खुशी संज्ञा और सूर्य अपने घर लौट आए।

  यमराज धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे और धर्मराज कहलाए। सावर्णि मनु तपस्वी होने के कारण प्रजापति कहलाए और सावर्णि मन्वंतर में मनु हुए। यमुना, सूर्य की सबसे छोटी कन्या यमलोक को पवित्र करके बहती हुई नदी हुई।

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