शिव पुराण उमा संहिता के सोलहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (From the sixteenth to the twentieth chapter of the Shiva Purana Uma Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【उमा संहिता】

सोलहवाँ अध्याय

"शिव स्मरण द्वारा नरकों से मुक्ति"

   सनत्कुमार जी बोले ;– हे महामुने ! इन्हीं लोकों में सबसे ऊंचे हिस्से में रौरव, शंकर, शूकर, - महाज्वाला, तप्त कुंड, लवण, वैतरणी नदी, कृमि - कृमि, भोजन, कठिन, असिपत्र वन, बालाभक्ष्य, दारुण, संदेश कालसूत्र, महारौरव, शालमलि आदि नाम के बड़े ही दुखदायी और कष्टकारक नरक हैं। इन नरकों में आकर पापी मनुष्य की आत्मा अनेक यातनाएं भोगती है। जो ब्राह्मण असत्य के मार्ग पर चलता है, उसे रौरव नामक नरक को भोगना पड़ता है।

   चोरी करने वाला, दूसरे को धोखा देने वाला, शराब पीने वाला, गुरु की हत्या करने वाले पापी कुंभी नरक में जाते हैं। बहन, कन्या, माता, गाय व स्त्री को बेचने वाला और ब्याज खाने वाले पापी तप्तेलोह नरक के वासी होते हैं। गाय की हत्या करने वाले देवता और पितरों से बैर रखने वाले मनुष्य कृमिभक्ष नरक को भोगते हैं। इस नरक में उन्हें कीड़े खाते हैं।

    पितरों और ब्राह्मणों को भोजन न देने वालों को लाल भक्ष नरक को भोगना पड़ता है। नीच व पापियों का साथ करने वाले, अभक्ष्य वस्तु खाने वाले एवं बिना घी के हवन करने वाले रुधिरोध नरक में जाते हैं।

   युवा अवस्था में मर्यादाओं को तोड़ने वाले, शराब व अन्य नशा करने वाले, स्त्रियों की कमाई खाने वाले कृत्य नरक में जाते हैं। वृक्षों को अकारण काटने वाले असिपत्र नरक में, मृगों का शिकार करने वाले ज्वाला नरक में जाते हैं। दूसरों के घर में आग लगाने वाले श्वपाक नरक में तथा अपनी संतान को पढ़ाई से वंचित रखने वाले श्वभोजन नरक में अपने पापों को भोगते हैं। 

  मनुष्य को अपने शरीर एवं वाणी द्वारा किए गए पापों का प्रायश्चित अवश्य करना पड़ता है। बड़े से बड़े पापों का प्रायश्चित त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का स्मरण करके किया जा सकता है। पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक ये सब कारण हैं। असल में सुख-दुख सब मन की कल्पनाएं हैं। परम ब्रह्म को पहचानकर उसका पूजन करना ही ज्ञान का सार है।

【उमा संहिता】

सत्रहवाँ अध्याय

"जंबू द्वीप वर्ष का वर्णन"

सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी ! अब मैं आपको भूमंडल के सात द्वीपों के विषय में बताता हूं। जंबू, प्लक्षु, शालमलि, कुश, क्रौंच, शाक, पुष्कर ये सात महाद्वीप हैं। इन द्वीपों के चारों ओर सात समुद्र हैं। ये सातों समुद्र जल, ईख, क्षीर, केसर, मद्य, घी, दूध और दही से भरे हैं। इन द्वीपों के बीच में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु के दक्षिण में निषध, हिमाचल, हेमकूट पर्वत हैं। दक्षिण में हरि, उत्तर में रम्यक है वही हिरण्मय है। इसके बीच में इलावृत्त है जिसके बीच में मेरु पर्वत स्थित है। मेरु पर्वत के पूर्व दिशा में मंदिर, दक्षिण दिशा में गंधमादन, पश्चिम दिशा में विपुल एवं उत्तर दिशा में सुपार्श्व शिखर स्थित हैं। इनके ऊपर कदंब, जामुन, पीपल आदि वृक्ष हमेशा ही पाए जाते हैं।

   जंबूद्वीप में जामुन के पेड़ों से बड़े-बड़े फल गिरते हैं। इसके फलों का रस धारा के रूप में बहता हुआ जंबू नदी के नाम से जाना जाता है। मेरु के पूर्व में भद्राश्व, पश्चिम में केतुमाल तथा इसके बीच में इलावृत्त है। पूर्व में चैत्र रथ, दक्षिण में गंधमादन, पश्चिम में विभ्राज्य, उत्तर में नंदन वन है। यहीं पर अरुणोद, महाभद्र, शीतोद और मानस नामक सरोवर हैं। मेरु पर्वत के पूर्व में कुरूंग, शीताज्जन, कुररहा, माल्यवान आदि पर्वत हैं। दक्षिण में शिखिर, चित्रकूट, पलंग, रुचक, निषध, कपिल नामक पर्वत हैं। पश्चिम दिशा में सिनी वास, कुशुंभ, कपिल, नारद, नाग आदि स्थित हैं। उत्तर दिशा में शंखचूर्ण, ऋषभ, हंस, काल, जरा और केशराच आदि पर्वत स्थित हैं।

    सुमेरु नामक पर्वत पर ब्रह्मा की शातकोणपुरी विद्यमान हैं। शातकोणपुरी के पास ही अमरावती, तेजोवती, संयमनी, कृष्णांगना, श्रद्धावती, गंधवती, यशोवती नामक आठ पुरियां हैं। शतकोणपुरी के बीच में पतित पावनी गंगा नदी चंद्र मण्डल को भेदकर, सीता, अलकनंदा, चक्षु एवं भद्र धाराओं में बंट जाती है। सीता पूर्व दिशा से, अलकनंदा दक्षिण से, चक्षु पश्चिम से तथा भद्रा उत्तर दिशा में बहती हुई महासागर में गिरती हैं। सुनील, माल्यवान, निषद, गंधमादन आदि पर्वत सुमेरु पर्वत के चारों ओर खिली हुई कलियों के समान हैं। इसी प्रकार केतुमाल, भद्राश्च कुश्व, मर्यादा, लोक पर्वत लोकपदम भारत के चारों ओर पत्तों की तरह खड़े हैं। देवकूट पर्वत पर केवल धर्मात्मा पुरुष ही रह सकते हैं। वहां पापी मनुष्य नहीं जा सकते। यहां पर रोग, शोक, कष्ट नहीं सताते और वे बारह हजार वर्ष की आयु पाते हैं।

【उमा संहिता】

अठारहवाँ अध्याय

"सातों द्वीपों का वर्णन"

व्यास जी बोले ;- हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! अब आप हमें सातों द्वीपों के विषय में बताइए। 

यह सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी! मैं आपको सातों द्वीपों के बारे में बताता हूं।

 १. जंबूद्वीप - हिमालय के दक्षिण समुद्र से उत्तर की ओर फैला नौ हजार योजन जंबूद्वीप है। यह कर्मभूमि भी कहलाता है। यहीं पर मनुष्यों को अपने द्वारा किए गए अच्छे और बुरे कर्मों का फल भोगना होता है। इंद्रद्युम्न कसेरु, ताम्रवर्ण, गमस्तिमान नाग, द्वीप, सौम्य, गंधर्व वारुण व भारत खंड है। इसके दक्षिण में ऋषि-मुनि निवास करते हैं। जंबूद्वीप के बीच में क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य एवं शूद्रों का निवास है । यहीं पर मलय, महेंद्र, सह्य, सुदामा, ऋक्ष, विंध्याचल और पारियात्र सात विशाल पर्वत हैं। पारियात्र पर्वत पर वेद स्मृति एवं पुराण प्रकट हुए। ये सभी सद्ग्रंथ पापों का नाश करने वाले हैं।

२.  ऋक्षद्वीप - ऋक्ष पर्वत का विशाल क्षेत्र ऋक्षद्वीप के नाम से जाना जाता है। इसी स्थान से समस्त पापों का नाश करने वाली गोदावरी, भीमरथी, ताप्ती व अन्य नदियां बहती हैं। कृष्णा वेणी नदियां सह्य पर्वत से, कृतमाला और ताम्रवर्णी मलयाचल पर्वत से बहती हैं। महेंद्र पर्वत से त्रिमाया, ऋषिकुल्या और कुमारी नदियां बहती हैं। इन पवित्र नदियों के मार्ग में अनेक शहर, गांव आदि पड़ते हैं। ये पवित्र नदियां वहां निवास करने वालों की प्यास को शांत करती हैं। यही नहीं, उनके पापों का नाश भी इनके जल स्पर्श से हो जाता है।

३.  प्लक्षद्वीप - प्लक्षद्वीप क्षार समुद्र से घिरा हुआ है। इसी द्वीप पर गोमंत, चंद्र, नारद, दर्दुर, सोनक, सुमन, बैभ्राज्र नामक पर्वत हैं। अनुतप्त, शिखी, पापहनी, त्रिदिवा, कृपा, अमृता, सुकृभा नामक सात नदियां प्लक्षद्वीप की शोभा बढ़ाती हैं। यहां के मनोहर वातावरण में देवता और गंधर्वों सहित अनेक जातियां निवास करती हैं। इस द्वीप में निवास करने वाले प्राणियों की रक्षा के लिए देवाधिदेव महादेव का ब्रह्मा और विष्णु भी पूजन किया करते हैं।

४.  शाल्मलिद्वीप – शाल्मलिद्वीप के बीचों-बीच सेमल का एक विशाल वृक्ष है। यहां पर श्वेत, हरित, जीमूत, रोहित, बैकल, मानस, सुप्रभु नामक वृक्ष हैं। इसी द्वीप पर शुक्ला, रक्ता, हिरण्या, चंद्रा, शुभ्रा, विमोचना, निवृता नाम की सुंदर नदियां बहती हैं। ये पवित्र एवं निर्मल नदियां भक्तगणों की प्यास बुझाती हैं। अपना कार्य पूर्ण करते हुए यहां के निवासी ब्रह्मा, विष्णु व शिवजी का पूजन करते हैं।

५.  क्रौंचद्वीप - क्रौंचद्वीप घृतोद समुद्र से बाहर दही से घिरा है। विशाल क्षेत्र में फैला द्वीप है। यहां पर क्रौंच, वामन, अंशकारक दिवावृत्ति, मन पुण्डरीक, दुंदुभि आदि पर्वत एवं गौरी, कुमुद्धती, संध्या, मनोजवा, शांति पुण्डरीक नामक अनेक बड़ी नदियां स्थित हैं।

६.  शाकद्वीप - शाकद्वीप दही समुद्र के बाहर दूध के सागर से घिरा है। यहां पर शाक का बहुत बड़ा वृक्ष स्थित है। उदयाचल, अस्ताचल, जलन्धार, विवेक, केसरी नामक पर्वत हैं। सुकुमारी, नलिनी, कुमारी, वेणुका, इक्षु, रेणुका और गर्भास्त नामक नदियां स्थित हैं। यहां के सुंदर मनोरम स्थलों पर सभी जाति के लोग रहते हैं।

७. पुष्पकर द्वीप - क्षीरसमुद्र से बाहर का जो क्षेत्र मधुर जल से घिरा है वह पुष्पकर द्वीप कहलाता है। यहीं पर मानस पर्वत स्थित है। यहां निवास करने वाले मनुष्य सभी प्रकार के रोगों से दूर रहते हैं। वे लंबी आयु वाले होते हैं और आनंदपूर्वक निवास करते हैं। पुष्पकर द्वीप के महावत खण्ड में ब्रह्माजी का निवास माना जाता है और यहां रहने वाले देवता और दानव उनको पूजते हैं।

इस प्रकार मनुष्यों के निवास करने हेतु पृथ्वी पर सात लोक स्थित हैं जिन्हें सात द्वीपों के नाम से जाना जाता है।

【उमा संहिता】

उन्नीसवाँ अध्याय

"राशि, ग्रह-मण्डल व लोकों का वर्णन"

सनत्कुमार जी कहते हैं ;- हे महामुनि व्यास जी ! पृथ्वी लोक के जिस भाग पर सूर्य और चंद्रमा का प्रकाश पड़ता है वह स्थान भूलोक कहलाता है। पृथ्वीलोक से हजारों योजन ऊपर सूर्यमंडल है और इससे ऊपर चंद्रमंडल है। चंद्रमंडल से दस हजार योजन ऊपर ग्रह और नक्षत्रों का साम्राज्य है। इससे ऊपर सप्तऋषि मंडल है और उसके ऊपर ध्रुवमंडल स्थित है। ध्रुवमंडल, जो कि पृथ्वी का सबसे ऊंचा मण्डल है, से एक करोड़ योजन नीचे भूः, भुवः स्वः नामक तीन लोक स्थित हैं। इनके बीच में कल्प निवासी ऋषि रहते हैं।

   ध्रुव मंडल से ऊपर महलोक स्थित है। महलोक में सनक, सनंदन, सनातन, कपिल, आसुरि, बोढ, पच्चशिख नामक ब्रह्माजी के सात पुत्र निवास करते हैं। इसी महलोक से दो लाख योजन ऊपर शुक्र ग्रह स्थित है। शुक्र ग्रह से दो लाख योजन दूर बुध है। बुध से दस लाख योजन दूरी पर मंगल ग्रह स्थित है। मंगल से दो लाख योजन की दूरी पर बृहस्पति स्थित है। बृहस्पति से दो लाख योजन की ही दूरी पर शनिश्चर मंडल स्थित है। ये सभी ग्रह अपनी राशियों पर आरूढ़ रहते हैं।

  जनलोक से छब्बीस लाख योजन की दूरी पर तपलोक स्थित है। तपलोक से छः गुनी दूरी पर सत्यलोक स्थित है। भूलोक पर ज्ञानी, महात्मा, सत्य पथ का पालन करने वाले ब्रह्मचारी निवास करते हैं। भुवः लोक में मुनि, देवता, सिद्धि आदि निवास करते हैं। स्वर्ग लोक में आदित्य, पवन, वसु, अश्वनीकुमार एवं विश्वदेव रुद्र नागपक्षी आदि रहते हैं। ब्रह्माण्ड जल, अग्नि, पवन, आकाश और अंधकार से घिरा हुआ है। इसी के ऊपर महाभूत स्थित हैं। परम ब्रह्म परमात्मा गुण, संख्या, नाम और परिमाण से अलग हैं।

   भगवान शिव और प्रकृति देवी शक्ति के मिलन से ही देवताओं का प्राकट्य हुआ है। इसी से सृष्टि का निर्माण हुआ है। प्रलय काल आने पर यह पूरी सृष्टि शिव-भक्ति में मिलकर समाप्त हो जाएगी। ब्रह्मलोक के ऊपर बैकुण्ठ लोक स्थित है। इसके पश्चात कौमार लोक है जिसमें स्कंद निवास करते हैं। तत्पश्चात उमालोक स्थित है। उमालोक में देवी जगदंबा का निवास है। आदि शक्ति जगदंबा से ही ब्रह्मा और विष्णु का प्राकट्य हुआ है। उमालोक के आगे इस जगत के पिता परम ब्रह्म परमेश्वर भगवान शिव का निवास स्थित है। भगवान शिव ही निर्गुण, निराकार, सर्वेश्वर हैं और सबका कल्याण करने वाले हैं।

【उमा संहिता】

बीसवाँ अध्याय

"तपस्या से मुक्ति प्राप्ति"

व्यास जी ने पूछा ;- हे सनत्कुमार जी ! अब आप मुझे यह बताइए कि कल्याणकारी देवाधिदेव महादेव जी के परम भक्त किस लोक में जाते हैं? जहां जाकर भक्तों का इस लोक में आगमन नहीं होता है। 

यह सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी! भगवान शिव की परम कृपा प्राप्त करने हेतु सिर्फ एक मार्ग है- वह है तपस्या । तपस्या के बिना शिव लोक की प्राप्ति संभव नहीं है। इस संसार में सभी मनुष्यों, स्वर्ग के देवताओं, ऋषि-मुनि और साधु संतों आदि ने तपस्या द्वारा ही महत्वपूर्ण सिद्धियां प्राप्त की हैं।

    तपस्या तीन प्रकार की होती हैं- सात्विक, राजस और तामस । जो तपस्या बिना किसी फल की इच्छा किए हुए की जाती है वह सात्विक है। किसी कामना की पूर्ति हेतु की गई तपस्या राजस और उसी कामना की सिद्धि हेतु अपने शरीर को कष्ट देकर की गई तपस्या को तामस तप कहा जाता है । मन एवं विचारों से पवित्र होकर, पूजन, जप, हवन, उपवास, आचार-विचार, मौन इंद्रिय करके किया गया तप सात्विक तप है। बावड़ी, तालाब, कुआं, मकान, धर्मशालाएं और विद्यालय बनवाने से शिवपद को पाने का मार्ग प्रशस्त होता है।

   धन, वैभव और मद में चूर होकर मनुष्य सांसारिक बंधनों में बंधा रहता है। चौरासी हजार योनियों को भोगने के पश्चात मनुष्य योनि की प्राप्ति होती है। यदि इसमें भी उद्धार का कोई उपाय नहीं किया जाता तो सिर्फ पश्चाताप ही शेष रह जाता है। यहीं पर कर्मभूमि और फलभूमि दोनों हैं। धरती पर किए गए शुभ कर्मों का फल स्वर्गलोक में मिलता है। इसलिए सदा सत्य के मार्ग का अनुसरण करें। दान-पुण्य के मार्ग पर चलें। अपने जीवन काल में जिन्होंने कुछ समय के लिए त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के नाम का स्मरण किया है उन्हें भयानक नरक को नहीं भोगना पड़ता। हर प्रकार के दुख-दर्द एवं पापों से मुक्ति दिलाने वाली शिव भक्ति ही है जिसके द्वारा मनुष्य जीवन के बंधनों से मुक्त होकर शिवपद को प्राप्त करता है।

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