शिव पुराण वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध) के इक्कीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the twenty-first chapter to the thirtieth chapter of Shiv Purana Vayviy Samhita (uttaraarddh))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

इक्कीसवाँ अध्याय 

"कर्म निरूपण"

श्रीकृष्ण जी बोले ;- हे महर्षि! अब आप मुझे कर्मकर्ता पुरुषों के नित्यकर्मों के बारे में बताइए। 

   तब मुनिवर उपमन्यु बोले ;– श्रीकृष्ण ! सत्पुरुषों को प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में उठना चाहिए। उठकर सर्वप्रथम भगवान शिव और देवी पार्वती का ध्यान करें । अरुणोदय होने पर घर से बाहर शौच से निवृत्त होकर स्नान करें। फिर आचमन कर स्वच्छ वस्त्र पहनें।

   तीन मंडलों की रचना कर भगवान शिव के मंत्र का जाप करना आरंभ करें। घुटने के बल बैठकर शिवजी को प्रणाम करके अर्घ्य दें। अर्घ्य देने के लिए जल में कुशा डालें। फिर शरीर पर भस्म धारण करें। मस्तक, छाती और दोनों भुजाओं पर त्रिपुण्ड धारण करें। तत्पश्चात गले, कानों और हाथों में रुद्राक्ष धारण करें। ब्राह्मणों को सफेद, लाल, पीत, रंगीन नए वस्त्र धारण कराएं। वस्त्र धारण करने के बाद पूजा के स्थान पर उत्तर की ओर मुख करके बैठें और हाथ जोड़कर अपने आराध्य देव त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का ध्यान करें। ध्यान से उठने पर शिष्य नामाष्टक का पाठ कर गुरु को श्रद्धावनत होकर प्रणाम करे।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

बाईसवाँ अध्याय 

"पूजन का न्यास निरूपण"

   उपमन्यु बोले ;- हे कृष्णजी ! न्यास गृहस्थियों के क्रमानुसार तीन प्रकार का होता है। ब्रह्मचारियों के लिए उत्पत्ति न्यास, संन्यासियों के लिए लय न्यास और गृहस्थियों के लिए स्थित न्यास का विधान है। अंगूठे से लेकर कनिष्का उंगली तक स्थित न्यास होता है। लय न्यास वाम अंगुष्ठ से दक्षिण अंगुष्ठ तक है। बिंदु के साथ नकारादि वर्णों का न्यास करना चाहिए। तल और अनामिका में शिवजी का न्यास करें।

   दसों दिशाओं में अस्त्र न्यास होना चाहिए। पांच भूतों के स्वामी एवं पांच कलाओं को अपने हृदय के मध्य ब्रह्मरंध्र में धारण करें। पंचाक्षर मंत्र का जाप करें। प्राणवायु को रोककर अस्त्र मुद्राओं से भूत ग्रंथि का छेदन कर सुषुम्ना नाड़ी द्वारा जप करें। फिर वायु द्वारा शरीर शोषण करें। फिर कलाओं का संहार करें। दुग्ध कलाओं का स्पर्श कर अमृत द्वारा सिक्त कर शरीर को उचित स्थान पर स्थापित करें। तत्पश्चात भौतिक शरीर को भस्म द्वारा स्नान कराएं। हृदय में स्थित भगवान शिव का ध्यान करते हुए अमृत वर्षा से विधात्मक देह को सींचें।

    अपने शरीर को शुद्ध करके शिव तत्व प्राप्त कर ईश्वर का पूजन करें। मातृ न्यास, ब्रह्म न्यास, प्रणव न्यास और हंस न्यास करें। हकार हृदय से सकार भृकुटि मध्य में पचास वर्ण रुद्र मार्ग के द्वारा न्यास करें। फिर क्रमशः अघोर, वामदेव, प्रणाम, हंस, न्यास, पंचाक्षरी मंत्र का न्यास करें। भगवान शिव का परम भक्त और शिव पूजन और ध्यान करने वाला मनुष्य संसार सागर से पार हो जाता है। इसी के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति होती है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

तेईसवाँ अध्याय 

"मानसिक पूजन"

   उपमन्यु बोले ;- कृष्णजी ! अंगन्यास आदि कार्यों को पूरा करें। फिर अपने मन द्वारा पूजन सामग्री की कल्पना करें। सामग्री को जुटाकर उससे विधिपूर्वक विघ्न विनाशक श्री गणेश का पूजन करें। दक्षिण तथा उत्तर में क्रमश: नंदी एवं सुभद्रा का पूजन करें । कमल के सुंदर और कोमल आसन पर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव व देवी पार्वती को उस पर स्थापित करें।

   शिव-पार्वती की स्थापना कमलासन पर करने के बाद भक्तिपूर्वक विधि-विधान के अनुसार उनका पूजन करें। पुष्प अर्पित करें। ध्यान करें और भावनामय समिधा घृत से परमेश्वर की नाभि में होम करें। भृकुटि के मध्य में परम पवित्र दीप ज्योति के आकार वाले भगवान शिव का ध्यान करें। यही वानप्तिक भावनामय आराधना है। इसे पूर्ण करने के बाद अग्नि या स्थण्डिल लिंग में पूजन करें।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

चौबीसवाँ अध्याय 

"पूजन निरूपण"

   उपमन्यु बोले ;– हे श्रीकृष्णजी ! पूजन स्थान को गंध, चंदन, फूलों और जल से पवित्र कर प्रोक्षण करें। अस्त्रों द्वारा विघ्नों का निवारण कर कवच से सारी दिशाओं का अस्त्र न्यास करें। कुशा बिछाकर उसे जल से मार्जित करें। प्रोक्षणी पात्र, अर्घ्य पात्र, पाद्य आचमन को शुद्ध कर उनमें जल, खम तथा चंदन डालें और आचमन के जल में कपूर, कंकोल, कीमता, तमाल व चंदन मिलाएं। चावल, कुशा, दूर्वा, जौ, अक्षर, तिल, घृत, सरसों, पुष्प और भस्म को मिलाकर मंत्र द्वारा रक्षित करें। विनायक देव का पूजन करें। फिर नंदीश्वर का पूजन करने के पश्चात षोडशोपचार से शिवलिंग का पूजन करें।

   ऊर्ध्व भाग में कमलासन रखें। कमल दल आठ प्रकार की सिद्धि देने वाला है। वामादिक शक्तियां बीज हैं। भगवान शिव का पूजन करें। पंचगव्य द्वारा स्नान कराएं। फिर आंवले और हल्दी से इसका लेप करें। देव स्नान कराकर सुंदर वस्त्र एवं यज्ञोपवीत धारण कराएं। पाद्य, अर्घ्य, आचमन, धूप, दीप, नैवेद्य, गंध, पुष्प, भूषण जल, मुखवास कर रत्नजड़ित मुकुट एवं आभूषण चढ़ाएं। फिर भगवान शिव-पार्वती की आरती उतारें। आरती की थाली को शिवलिंग के सामने तीन बार घुमाकर माथे पर सुगंधित भस्म धारण करें। फिर अपनी पूजा अर्चना में रह गई त्रुटि के लिए भगवान से क्षमायाचना करें। इस प्रकार पूजन करने से परम फल की प्राप्ति होती है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

पच्चीसवाँ अध्याय 

"नित्य कृत्य विधि"

  उपमन्यु बोले ;– हे श्रीकृष्णजी ! दीप दान करने से पहले आरती एवं पूजन भी किया जाना चाहिए। सर्वप्रथम, ईशान देव से लेकर सद्योजात तक भगवान शिव का जाप करें। पहले आवरण में हृदय से लेकर अस्त्र न्यास कर पूजन करें। पूर्व में इंद्र, दक्षिण में यम, पश्चिम में वरुण, उत्तर में कुबेर, अग्निकोण में अग्नि, नैऋति और निऋति में वायु की पूजा करनी चाहिए। कमल से बाहर वज्रादि आयुधों का पूजन करना चाहिए।

   तत्पश्चात सभी स्थानों से आठ लोकपालों का पूजन कर मां जगदंबा का पूजन कर उनकी आराधना करें। योग, ध्यान, जप और होम कृत्यों में छः तरह का नैवेद्य होना चाहिए। उसके बाद कपूर, कंकोल, जावित्री, कस्तूरी, केसर, मृगमद, सुगंधि, पुष्प आदि अर्पण कर घी का दीपक जलाएं। फिर हाथी दांत से निर्मित आसन दिव्य छत्र, चंवर, भेरी और मृदंग चढ़ाएं। अपनी सामर्थ्य के अनुसार किया गया शिव पूजन उत्तम फल देने वाला होता है। शिवजी में अनन्य भक्ति रखने वाले प्राणी, को अवश्य ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

छब्बीसवाँ अध्याय 

"सांगोपांग पूजन"

  उपमन्यु बोले ;– हे कृष्णजी ! शिव पूजन परम फलदायक है। बड़े-बड़े पापी, ब्रह्महत्यारे, चोर, व्यभिचारी पुरुष यदि शिव पूजन करें तो उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिए पतितों को शिव - पूजन अवश्य करना चाहिए। शिव पंचाक्षरी मंत्र का जाप करने से बंधन में पड़े मनुष्य बंधन से मुक्त हो जाते हैं। अनेकों योनियों में जीवन व्यतीत करने के पश्चात हमें मनुष्य योनि मिली है। जो मनुष्य इस अलभ्य मनुष्य देह को पाकर भी शिव पूजन नहीं करता उसका जन्म सफल नहीं होता। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को भक्तिपूर्वक त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का पूजन-आराधन अवश्य करना चाहिए ।

   भगवान शिव के पूजन के समान अन्य कोई भी धर्म नहीं है। यह मनुष्य को सभी सांसारिक बंधनों एवं मोह-माया से मुक्ति दिलाने वाला है। शिव पूजन करने के पश्चात मनुष्य को परिवार एवं बंधु-बांधवों सहित प्रसाद बांटना चाहिए।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

सत्ताईसवाँ अध्याय 

"अग्नि कृत्य विधान"

 उपमन्यु बोले ;- हे कृष्णजी ! अग्नि कृत्य तो कुंड, स्थंडिल, वेदी, लोहे के पात्र अथवा मिट्टी के पात्र में कर्तव्य हैं, उसमें विधिपूर्वक अग्नि की स्थापना करनी चाहिए और फिर हवन करना आरंभ करें। सबसे पहले कुंड का निर्माण करें। कुंड के चारों ओर तीन मेखला होनी चाहिए। फिर कुंड में योनि की रचना करें। कुंड को गोबर से लीपकर उसे अग्नि में तपाएं और तत्पश्चात उस पर वेदोक्त सूत्र लिख दें । कुशा पुष्पों से कुंड को प्रोक्षित करें।

   पूजन की सभी सामग्री एकत्रित करें। मणि द्वारा उत्पन्न या किसी ब्राह्मण के घर से लाई गई अग्नि को ही ग्रहण करें। कुंड की तीन बार परिक्रमा कर अग्निबीज मंत्र का उच्चारण करते हुए कुंड में अग्नि स्थापित करें। फिर दक्षिण दिशा में शिव पूजन कर मंत्र न्यासादि कर घी में धेनु मुद्रा दिखाकर सुवा को तपाकर प्रोक्षण करें। फिर संस्कारों की सिद्धि के लिए बीज मंत्रों से होम करें। ऐसा करने से शिवाग्नि संपन्न हो जाती है।

  तत्पश्चात भगवान शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप का आह्वान कर उसका पूजन करें फिर दीपक तक सिंचन कर समिधाओं से होम करें। दूर्वा एवं घी की आहुतियां दें। धान, खील, जौ, सरसों, तिल को घी में मिलाकर उससे होम करें। फिर तीन प्रायश्चित आहुतियां दें। बचे घी को एक पुष्प पर रखकर वौषट् मंत्र द्वारा हवन करें । विसर्जन कर अग्नि की रक्षा करें। देवों का आह्वान कर उनका पूजन करें । भस्म को मंत्र द्वारा धारण करें।

  अग्नि कृत्य समाप्त होने पर शिव शास्त्रानुसार बलि कर्म करें। विद्या के सामने गुरु मंडल की रचना करें और उस पर आसन बिछाकर फूल से गुरु पूजन करें। फिर निर्धनों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करें। फिर आचमन कर शिव मंत्र को जपते हुए ध्यान करें।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

अठाईसवाँ अध्याय 

"नैमित्तिक पूजन विधि"

उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण जी ! प्रत्येक माह के दोनों पक्षों की अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उत्तरायण संक्रांति ग्रहण काल में विशेष पूजन करना चाहिए । माघ के महीने में पंचगव्य शोध कर शिवजी को स्नान कराएं और उस जल को पिएं। इस जल को पीने से ब्रह्म पाप भी नष्ट हो जाते हैं। पौष माह में पुण्य नक्षत्र में भगवान शिव की आरती करें। माघ में मघा नक्षत्र में कंबल और घी का दान करें।

  फाल्गुन के उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के दिन बहुत बड़ा उत्सव करें। चित्रा नक्षत्र में चैत्र माह में शिवजी का ढोला उत्सव करें। वैशाख के विशाखा नक्षत्र में फूल मंडली उत्सव करें। जेठ महीने के मूल नक्षत्र में शीतल जल का कुंभ दान करें। आषाढ़ के उत्तराषाढ़ा में पवित्र व्रत धारण करें। श्रावण माह के श्रवण नक्षत्र में प्राकृत प्रकार के सभी मंडल बनाकर उनका पूजन करें। उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में प्रोक्षण करें।

   पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में जल क्रीड़ा करें। असौज में खीर खाएं। शतभिषा नक्षत्र में अग्नि कर्म करें। कार्तिक में कृतिका नक्षत्र पर सहस्र दीपक जलाकर उनका दान करें। मृगशिर महीने के आर्द्रा नक्षत्र में स्नान करें। अपने द्वारा किए गए किसी बुरे कार्य के लिए भगवान शिव से क्षमा याचना करें और बुरे कार्यों के लिए प्रायश्चित करें। इस प्रकार नित्य पूजन करने से इसी जन्म में मोक्ष की प्राप्ति होती है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

उन्नतीसवाँ अध्याय 

"काम्य कर्म निरूपण"

श्रीकृष्ण बोले ;– हे महर्षे! अब आप मुझसे शिव धर्म के अधिकारी पुरुषों का कर्तव्य कर्म निरूपण करें। 

उपमन्यु बोले ;- हे कृष्ण ! कर्म ऐहिक और आयुष्मिक दो प्रकार के होते हैं जिनमें आयुष्मिक कर्म, क्रियामय, तपोमय, जनमय ध्यानमय, सर्वमय आदि कुल पांच प्रकार के होते हैं। इन कर्मों की पूर्णता हेतु हवन, दान और पूजन आदि सब कर्म किए जाते हैं। शक्तिमान पुरुष ही इन कर्मों को सफल करते हैं।

भगवान शिव ही अपने भक्तों को आज्ञा और शक्ति प्रदान करने वाले हैं। इसलिए उन्हीं पुरुषों को काम्य कर्म करना चाहिए। यह काम्यकर्म इस लोक और परलोक दोनों में परम फलदायक है। शिव महेश्वर हैं, वे सबके ईश्वर हैं। ज्ञानपूर्वक यज्ञ करने वाले शिवभक्त ही महेश्वर हैं। इसलिए ही आभ्यंतर कर्म शैव तथा वाहा कर्म महेश्वर हैं। गंध, रस, वर्ण द्वारा भूमि परीक्षा कर पृथ्वी के पृष्ठ पर पूर्व दिशा की उत्पत्ति करें और मंडल की रचना करें। फिर सर्वेश्वर महेश्वर का पूजन करें। तीन तत्वों से युक्त त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की मूर्ति के समक्ष शक्ति का आह्वान करें। तत्पश्चात पांच आवरणों का पूजन शुरू करना चाहिए।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

तीसवाँ अध्याय 

"आवरण पूजन विधान"

   उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण ! सबसे पहले भगवान शिव के दक्षिण में बैठे गणनायक, बाईं ओर कार्तिकेय एवं चारों ओर ईशान से सद्योजात का पूजन करें। द्वितीय आवरण में पूर्व दिशा के बाईं ओर से शक्ति, सूक्ष्मतत्व, पश्चिम में शक्ति, उत्तर दिशा में ईशान कोण का रुद्र सहित पूजन करें। तृतीय आवरण में शिवजी की आठों मूर्तियों का पूजन करें । फिर वृषेंद्र का पूजन करें। तत्पश्चात दक्षिण में नदी, उत्तर में महाकाल, शास्त्रों, अग्निकोण एवं मातृकाओं का दक्षिण दिशा में पूजन करें। श्री गणेश को नैऋत्य कोण में पूजें । पश्चिम में कार्तिक, वायव्य में ज्येष्ठा, उत्तर में गौरी व ईशान कोण में चंड का पूजन करें।

   चौथे आवरण में सर्वप्रथम ध्यान करें। फिर पूर्व में भानु, दक्षिण में ब्रह्मा, पश्चिम में रुद्र, उत्तर में श्रीहरि विष्णु का पूजन करें। आदित्य, भास्कर, भानु, रवि का पूजन करने के बाद आठ ग्रहों का पूजन करें। पांचवें आवरण में देव योनि का पूजन करें और फिर देवेश का पूजन करते हुए पंचाक्षरी मंत्र का जाप करें। पूजन करने के पश्चात भगवान शिव-पार्वती को सभी भोग अर्पित करें। फिर स्तुति गायन करें और 'ॐ नमः शिवाय' का एक सौ आठ बार जाप करें। क्रमानुसार गुरुदेव का पूजन करें। सभी आवरणों के साथ देव विसर्जन करें। सब सामान गुरुदेव को अर्पित करें। यह योग योगेश्वर कहलाता है जो चिंतामणि तुल्य है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें