शिव पुराण वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध) के ग्यारहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (From the eleventh chapter to the twentieth chapter of Shiv Purana Vayviy Samhita (uttaraarddh))


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

ग्यारहवाँ अध्याय 

"ब्राह्मण कर्म निरूपण"

  त्रिलोकीनाथ परमेश्वर शिव बोले ;- हे देवी! तीन बार नहाना, अग्निकर्म करना, लिंग पूजा, दान, ईश्वर भाव, दया भाव, सत्य, संतोष, आस्तिकता, अहिंसा, लज्जा, श्रद्धा, पढ़ना, पढ़ाना, उपदेश, ब्रह्मचर्य, श्रवण, तप, क्षमा, शौच आदि वर्ण धर्म हैं। ब्राह्मणों के लिए क्षमा, शांति, संतोष, सत्य, असत्य, ब्रह्मचर्य, तत्वज्ञान, वैराग्य, भस्म सेवन, सर्वसंग में निवृत्ति आदि परम आवश्यक है।

  ब्रह्मचारियों को रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए। क्षत्रियों को दान नहीं लेना चाहिए। सभी वर्णों की रक्षा करना, शत्रुओं पर विजय, दुष्टजन वध, ऋतुकाल में स्त्रीगमन, सेना रक्षण एवं मेरे भक्तों पर पूर्ण विश्वास करना आदि क्षत्रिय धर्म है। वैश्य धर्म गौरक्षा, व्यापार और खेती करना है। सभी वर्णों की सेवा करना शूद्र का धर्म है । गृहस्थियों को अपनी गृहस्थी का ध्यान रखना चाहिए। ब्रह्मचारियों को ब्रह्मचर्य, पत्नियों को पति आज्ञा का पालन करना चाहिए। विधवा स्त्रियों को भूमि शयन, धर्म व्रत, दान, तप, शांति का पालन करना चाहिए व चतुर्दशी, पूर्णमासी व एकादशी का व्रत करना चाहिए। मेरी आराधना करने वाले प्राणीजन को 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप करना चाहिए।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

बारहवाँ अध्याय 

"पंचाक्षर मंत्र की महिमा"

मुनि उपमन्यु बोले ;– हे श्रीकृष्ण ! वेदों एवं शास्त्रों में ॐकार और षडाक्षर मंत्र की महिमा का गुणगान किया गया है। यह मंत्र भक्तों की सभी मनोकामनाओं को पूरा करता है। वेदों का सार रूप होने के कारण इसके अर्थ में बहुत सी सिद्धियां विद्यमान हैं। यह मंत्र परम मुक्तिदाता है। ‘ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप मनोरंजक तथा परे से भी परे है। इस मंत्र की बड़ी महिमा है। अत्यंत सूक्ष्म होने पर भी यह तीनों गुणों से परे है। पंचाक्षर मंत्र सभी विद्याओं का बीज है। यह मंत्र सर्वज्ञ एवं समर्थ है। 'ॐ' में ब्रह्म स्थित है। 'नमः शिवाय' में ईशान नामक सूक्ष्म ब्रह्माण्ड स्थित है।

   भगवान शिव तो सदा इस मंत्र में निवास करते हैं। यह मंत्र संसार से मुक्ति प्रदान करने वाला है। इस मंत्र पर अविश्वास करने वाला अधर्मी मनुष्य नरक का भागी होता है। इस पंचाक्षर मंत्र में सात करोड़ मंत्र हैं तथा अनगिनत उपमंत्र हैं। पंचाक्षर मंत्र एवं षडाक्षर मंत्र में संपूर्ण शिव ज्ञान तथा सभी विद्याओं के तत्व हैं। जिसके हृदय में 'ॐ नमः शिवाय' नामक महामंत्र है, उसे अन्य किसी शास्त्र के अध्ययन की कोई आवश्यकता नहीं होती।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

तेरहवाँ अध्याय 

"कलिनाशक मंत्र"

देवी पार्वती बोलीं ;– हे स्वामी ! कलियुग में पाप रूपी अंधकार निरंतर बढ़ता जाता है, धर्म से विमुखता आ जाती है। धर्म के आचार-विचार सभी परंपराएं एवं मर्यादाएं नष्ट हो जाती हैं। तब उसमें आपके भक्तों की क्या गति होगी? और वे कैसे मुक्त हो पाएंगे?

पार्वती जी के वचन सुनकर शिवजी बोले ;- हे देवी! कलियुग में 'पंचाक्षर मंत्र' का भक्तिपूर्वक जाप करने वाले मनुष्यों को मुक्ति मिल जाती है। पापियों, निर्दयी एवं कुटिल जन भी श्रद्धा भावना से पंचाक्षर मंत्र का जाप करने से भवसागर से पार हो जाते हैं। पंचाक्षर मंत्र के जपने से शिवलोक की प्राप्ति होती है। यह सर्वोत्तम मंत्र है। महर्षि इसी मंत्र के प्रभाव से स्वधर्माचरण करते हैं। प्रलय आने पर सभी स्थावर, जंगम जीव नष्ट हो जाते हैं। तब मैं ही एकमात्र जीवित रहता हूं। सारे वेद और शास्त्र मुझ में लीन हो जाते हैं। फिर नई सृष्टि का आरंभ होता है।

सृष्टि के पुनः आरंभ में जब श्रीहरि क्षीरसागर में सो रहे थे, उस समय उनकी नाभि से पंचमुखी ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। उन्होंने सृष्टि की रचना करने हेतु मेरी तपस्या की। तब मैंने ब्रह्माजी को साक्षात दर्शने देकर उन्हें 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र की दीक्षा दी। इसी मंत्र के प्रभाव से उन्होंने देवताओं, दानवों, ऋषियों एवं प्राणीजन की रचना की। 'नमः शिवाय' यह पांच अक्षरीय मंत्र महा महिमावान है और सारे जगत का बीज रूप है। इसे वेदों से उत्तम माना गया है। मेरे द्वारा प्रकट प्रथम विद्या यही है । वामदेव इसके ऋषि हैं और पंक्ति छंद हैं। मैं इस मंत्र का देवता हूं। यह मेरा परम प्रिय मंत्र है। पंचाक्षर मंत्र कलियुग में इस भवसागर से तारने वाला मंत्र है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

चौदहवाँ अध्याय 

"व्रत ग्रहण करने का विधान"

 भगवान शिव बोले ;- हे प्रिये ! ऐसा व्रत, जो क्रिया और श्रद्धा से हीन हो, निष्फल होता है। तभी सिद्ध व्यक्ति श्रद्धा भाव बढ़ाते हैं और तत्वज्ञाता गुरु की शरण में जाते हैं। प्राणीजन शरीर, मन और वाणी द्वारा उनका पूजन करते हैं और यथायोग्य वस्तुओं का दान करते हैं। इसलिए जब प्राणीजन गुरु की शरण में जाते हैं तो गुरु उन्हें मंत्र की दीक्षा देते हैं और जब शिष्य का अहंकार का भाव समाप्त हो जाता है तब उसे घृत से स्नान करा, आभूषण से भूषित कर ब्राह्मणों का पूजन करे। फिर गौशाला या मंदिर में जाकर विधिपूर्वक ज्ञान का उपदेश दे।

  गुरुद्वारा दीक्षित मंत्र का प्रतिदिन एक सौ आठ बार जाप करना चाहिए। इससे परम गति प्राप्त होती है। वाचिक जप का फल एक गुना, उपांशु जप का सौ गुना, मानस का हजार गुना, सगर्भ का लक्ष गुना होता है। मंत्र के अंत में ओंकार होना चाहिए। ध्यान के साथ मंत्र का जाप करना चाहिए। सूर्य, अग्नि, गुरु, चंद्रमा, दीपक, जल, ब्राह्मण और गौ के पास ही जप करना चाहिए। वशीकरण हेतु पूर्व, घात करने हेतु दक्षिण, धन प्राप्ति हेतु पश्चिम, शांति हेतु उत्तर की ओर मुख करके जाप करना चाहिए।

   आचारहीन व्यक्तियों को लोकनिंदक माना जाता है। तप, उत्तम धन एवं श्रेष्ठ विद्या को आचार माना जाता है। निंदक मनुष्य को परलोक में भी सुख नहीं मिलता। इसलिए हमें सदाचार का पालन करना चाहिए। गुरु द्वारा दीक्षित मंत्र पतित, चाण्डालों को भी सुधारने वाला तथा परम गति प्रदान करने वाला होता है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

पंद्रहवाँ अध्याय 

"दीक्षा विधि"

श्रीकृष्ण बोले ;- हे महर्षे! अब आप मुझे शिव संस्कारों के बारे में बताइए ।

यह सुनकर उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण ! मनुष्य द्वारा छः मार्गों को शुद्ध कर लेना संस्कार कहलाता है। ज्ञान प्रदान करने वाले तथा बंधनों का नाश करने वाले संस्कार दीक्षा कहलाते हैं। शांभवी, शाक्ती एवं मांत्री शांभवी दीक्षा तीन प्रकार की होती है। शांभवी तीव्र और तीव्रतरा दो प्रकार की होती है। पाप नष्ट करने वाली तीव्र तथा आनंद प्रदान करने वाली तीव्रतरा शांभवी दीक्षा कहलाती है।

  योग मार्ग से शिष्य शरीर में प्रवेश कर गुरु द्वारा दी गई दीक्षा शाक्ती दीक्षा कहलाती है। कुंड - कुंडल सहित की गई क्रिया दीक्षा मांत्री दीक्षा कहलाती है। शिष्य को अपने गुरु के गौरव को बढ़ाने हेतु नित उनका पूजन करना चाहिए। गुरु और भगवान शिव में कोई अंतर नहीं मानना चाहिए। हमें गुरु आज्ञा का अनुसरण करना चाहिए। गुणवान गुरु, जो सर्वेश्वर शिव के परम भक्त हैं, परम मुक्तिदायक हैं।

   गुरुदेव अपनी शरण में आए ब्राह्मण शिष्य की एक वर्ष, क्षत्रिय की दो वर्ष एवं वैश्यों की तीन वर्ष तक परीक्षा करें। जो शिष्य दुख एवं ताड़ना पाकर भी मौन रहे और दुख का अनुभव न करे उन्हें शिव तत्पात्र एवं शिव संस्कार योग्य मानना चाहिए। परीक्षा लेने के पश्चात गुरु को सप्रेम दीक्षा देनी चाहिए।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

सोलहवाँ अध्याय 

"शिव भक्त वर्णन"

उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण ! समयाह्वय संस्कार को ग्रहण करते समय सर्वप्रथम शुभ दिन और शुभ समय देखें। भूमि पर शिल्प से मनोहर मंडल की रचना करें जिसके मध्य में वेदी हो । ईशान कोण से आठ दिशाओं में कुंडल बनाएं। फिर चंदोवा, ध्वजा-पताका, मालाओं से उसे शोभित करें। वेदी के मध्य में सुंदर मंडप होना चाहिए। फिर सोने-चांदी द्वारा ईश्वर का आवाहन करें। सोना-चांदी न होने पर चावल, सिंदूर, पुष्पों से आवाहन करें।

   दो हाथ लंबा श्वेत या लाल कमल बनाएं जिसमें आठ कर्णिका हों। वेदी पर धान चावल, सरसों, तिल, पुष्प, कुशा बिछाकर कलश की स्थापना करें। कलश में जल भरकर सुगंधित पुष्प, अक्षत, कुशा, दूर्वा डालें तथा उस पर नया लाल वस्त्र लपेटें। स्वयं आसन ग्रहण करें। मंडल के मध्य में महेश्वर का पूजन करें। फिर भगवान शिव का आवाहन करते हुए कलश का पूजन करें। दक्षिण में शिवजी के अस्त्रों को पूजें तथा मंत्रोच्चारण करते हुए यज्ञ आरंभ करें।

  शिव अग्नि में प्रधान आचार्य होम करें तथा भगवान शिव से सांसारिक दुखों से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना करें। फिर शिष्य शिवजी की तीन बार परिक्रमा करे और दंडवत प्रणाम करे। फिर शिव मंत्र का उच्चारण करते हुए शास्त्रानुसार गुरु शिष्य के शरीर में प्रविष्ट होकर मूल मंत्र के तर्पण में दस आहुतियां दे तत्पश्चात शिष्य पुनः स्नान कर शुद्ध वस्त्र धारण करे और पुनः कुश के आसन पर बैठे। गुरु शिव नाम जपते हुए शिष्य के शरीर पर भस्म लगाएं। फिर शिष्य के कान में शिव मंत्र का उपदेश दे।

  मंत्र की शिक्षा लेकर शिष्य उस मंत्र का उच्चारण कर शिवजी को प्रणाम करे। तत्पश्चात गुरु शिष्य को अभिमंत्रित रुद्राक्ष व शिवमूर्ति भेंट करें और शिष्य उसे सम्मानपूर्वक ग्रहण करे।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

सत्रहवाँ अध्याय 

"शिव-तत्व साधक"

   उपमन्यु बोले ;– हे कृष्णजी ! कला, तत्व, भवन, वर्ण, पद, मंत्र आदि छः अध्याय हैं। निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शांति और अतीत पांच अध्वा हैं, जो आवृत्त कहे जाते हैं। पृथ्वी को तत्वाध्वा कहा जाता है । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव तो तत्व सायक हैं, उनके तत्वों की गणना करना असंभव है।

   अभिमंत्रित रुद्राक्ष भेंट करने के बाद गुरु को शिष्य सहित मंडल में जाकर शिव-पूजन करना चाहिए। चार सेर चावलों की खीर बनाकर आधी खीर भगवान शिव को अर्पित कर देनी चाहिए। फिर नकार, मकार आदि पांच कलशों पर पांच वर्ण धारण कराएं। मध्य में ईशान, पूर्व में पुरुष, दक्षिण में अघोर, पश्चिम में सद्योजात, उत्तर में वामदेव को स्थापित करें। कलशों को प्रोक्षित कर हवन आरंभ करें। फिर आधी खीर को होम कर दें बाकी को प्रसाद समझकर ग्रहण करें।

  तर्पण, कृत्यकर्म कर पूर्णाहुति दें। 'ॐ नमः शिवाय' से प्रदीपन कर तीन आहुतियां दें। कन्या द्वारा काते गए सूत को अभिमंत्रित कर शिष्य की शिखा में बांध दें और पूजन करे ।

भगवान शिव का ध्यान और पंचाक्षर मंत्र का जप करते हुए शिष्य रात्रि को सोए और रात्रि में जो स्वप्न दिखे उसे विस्तारपूर्वक अपने गुरु को बताए ।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

अठारहवाँ अध्याय 

 "षडध्वशोधन विधि"

उपमन्यु बोले ;– हे श्रीकृष्ण ! तत्पश्चात आचार्य की आज्ञा से स्नान कर नित्य कर्म कर ध्यान लगाकर हाथ जोड़कर वहां से प्रस्थान करे । पुष्प अर्चन और शिव नाम का उच्चारण करते हुए मंडल में आकर ईशान देव का पूजन करे। अग्नि होम करे। फिर आहुतियां डालकर वागीश्वरी का पूजन कर वागीश को प्रणाम कर मंडल में देवता का पूजन करे। गुरुदेव शिष्य को मंत्रों द्वारा शुद्ध करें। फिर पूर्ण आहुति देकर ब्राह्मण का पूजन करे। तीन आहुतियां डालकर भगवान शिव का स्मरण करे।

  तत्पश्चात नील रुद्र वागीश्वरी, तेजस्विनी शिव शक्ति का चिंतन करे। फिर गुरु कैंची का प्रोक्षण कर शिष्य की शिखा छेदन करे। फिर उसे गोबर में स्थापित कर अग्नि में होम कर दे। मंडल में विराजमान भगवान शिव और देवी पार्वती का ध्यान करते हुए उनसे प्रार्थना करते हुए कहे - हे देवाधिदेव ! कृपानिधान! आपकी परम कृपा से ही षडध्व का शोधन हुआ है और इसे अव्यय धाम की प्राप्ति हो । आप नाड़ी संधान के साथ पंचभूतों की शुद्धि करें। फिर तीन आहुतियां डालते हुए अणिमा का निरूपण करें। तत्पश्चात त्रिलोकीनाथ भगवान शिव और देवी जगदंबा का पूजन कर अपने पुण्य कार्य को सफल करने की प्रार्थना करें।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

उन्नीसवाँ अध्याय 

"साधन भेद निरूपण"

उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण ! मंडप के मध्य में भगवान शिव का पूजन करके वहां कलश की स्थापना करें और फिर हवन करें। हवन करने हेतु शिष्य को सिर खोले हुए मंडप में बैठा दें। उसके पश्चात एक सौ आहुतियों का हवन करने के बाद सुगंधित पुष्प मिले जल से अभिषेक करें और शिष्य को देवाधिदेव भगवान शिव संबंधी विद्या प्रदान करें। तत्पश्चात शिष्य को साधन करने की रीति बताएं । साधन उपदेश को शिष्य ग्रहण करके गुरुदेव के सामने ही मंत्र का उच्चारण करे।

   साधन मूल-मंत्र का पुरश्चरण होता है। इस प्रकार विधि-विधान से भक्तिपूर्वक आराधना पूर्ण करने के पश्चात खीर का प्रसाद अर्पण करें और दंडवत प्रणाम करें। तत्पश्चात आसन पर बैठकर भगवान शिव का स्मरण करते हुए, ध्यान लगाकर दीक्षित मंत्र का जाप करना आरंभ कर दें। इस मंत्र के एक करोड़ अथवा सामर्थ्यानुसार जप करें। इस प्रकार इस मंत्र का उपदेश देने वाले गुरु और उपदेश पाने वाले शिष्य के लिए इस लोक और परलोक में कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे प्राप्त न किया जा सके।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

बीसवाँ अध्याय 

"अभिषेक"

उपमन्यु बोले ;– हे कृष्णजी ! जब शिष्य दीक्षित मंत्र को साध ले तब उसे पाशुपति व्रत - धारण कराएं। फिर उसे अभिषेक करने के लिए आसन पर बैठा दें। पंचकलाओं से पूर्ण कलश स्थापित कर भगवान शिव का पूजन करें। मध्य के कलश के जल से शिष्य का अभिषेक करें। फिर देवाधिदेव भगवान शिव को सुंदर वस्त्र एवं आभूषणों से सुशोभित कर शिव मंडल में आराधना करनी आरंभ करें।

  एक सौ आठ आहुतियां डालकर हवन संपन्न करें। फिर शिवजी की मूर्ति को वहां से उठा लें। शिव घट तथा अग्नि का पूजन और आराधना करें। फिर अश्वशोधन की क्रियाएं पूर्ण करें। भगवान शिव में असीम श्रद्धा और भक्ति भाव रखने वाले और शिव शास्त्रों को जानने वाले विद्वान और ज्ञानी ही शिवमंत्र को दुर्लभ समझते हैं। इसलिए शक्ति संस्कार कर निरूपण करते हैं।


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