शिव पुराण उमा संहिता के छत्तीसवें अध्याय से चालीसवें अध्याय तक (From the thirty-sixth to the fortieth chapter of the Shiva Purana Uma Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【उमा संहिता】

छत्तीसवाँ अध्याय

"मनु पुत्रों का कुल वर्णन"

सूत जी बोले ;- ऋषिगण वैवस्वत मनु के नौ पुत्र इक्ष्वाकु, शिविन, भाचु, धृष्ट, कार्यात, निष्तंत, कुत्रय, प्रियव्रत और नृग थे। ये सभी महा पराक्रमी, वीर और क्षत्रिय धर्म का पालन करने वाले थे। जब मनु की कोई संतान नहीं थी तो उन्होंने पुत्र प्राप्ति हेतु यज्ञ किया। तब वरुण के अंश से इड़ा की उत्पत्ति हुई। वह वरुण के पास गई और उन्हें बताया कि मैं मनु के यज्ञ में आपके अंश से ही पैदा हुई हूं। बताइए, मेरे लिए क्या आज्ञा है?

   तब वरुण देव ने उसे मनुवंश को बढ़ाने की आज्ञा प्रदान की। जब इड़ा मनु के घर की ओर जा रही थी तो रास्ते में बुधि से उसका मिलन हुआ और उनसे उसे पुरुरवा नामक पुत्र की प्राप्ति हुई, जिस पर उर्वशी नामक अप्सरा मोहित हो गई थी। तत्पश्चात भगवान शिव की कृपा से पुरुषत्व प्राप्त कर सुद्युम्न ने परम धर्मात्मा उत्कल, गय एवं विनताश्व नामक पुत्रों को पैदा किया। उत्कल ब्राह्मण होकर वल्कल देश में निवास करने लगे । विनताश्व पश्चिम देश में ब्राह्मण हुआ।

    आनति पुत्र रैन्य रैभय नाम से जगप्रसिद्ध हुआ । उसका निवास कुशस्थली में हुआ था। उनके सौ पुत्र एवं कुकुदमी सबसे श्रेष्ठ कन्या हुई। इसकी कन्या के रूप में सुंदरी रेवती पैदा हुई। रेवती के बड़े होने पर कुकुदमी को उसके विवाह की चिंता हुई। उन्होंने ब्रह्माजी से रेवती के वर के बारे में जानना चाहा।

तब ब्रह्माजी बोले ;- हे कुकुदमी ! अट्ठाईसवें द्वापर में, भगवान श्रीकृष्ण अपने कुटुंबियों सहित द्वारिकापुरी में निवास करेंगे। वहां उनके भाई और वसुदेव जी के पुत्र बलदेव से तुम रेवती का विवाह करना । वही रेवती के लिए सर्वथा योग्य वर है ब्रह्माजी के कथनानुसार कुकदमी ने रेवती का विवाह बलदेव जी से किया। स्वयं वे सुमेरु पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगे। बलदेव के सौ पुत्र हुए। श्रीकृष्ण जी को भी अनेकों पुत्रों की प्राप्ति हुई। वे सभी सारी दिशाओं में जाकर अनेक स्थानों पर बस गए।

सूत जी बोले ;- मनु के पुत्र वृषह्न वशिष्ठ जी के आश्रम में रहने लगे। उन्होंने उन्हें गौरक्षा के काम में लगा दिया। एक रात बाघ ने गौशाला पर आक्रमण कर दिया। गायों की रक्षा के लिए वृषह्न तलवार लेकर गौशाला में चले गए और अंधेरे के कारण उनके वार से गाय कट गई और बाघ भाग खड़ा हुआ। सुबह जब उसने गाय को मरा देखा तो सारी बातें गुरु जी को बताईं। यह सब जानकर वशिष्ठ जी ने उसे शूद्र होने का शाप दे दिया। तब दुख और शोक में डूबे वृषह्न ने अपने शरीर को जला दिया।

【उमा संहिता】

सैंतीसवाँ अध्याय

"मनु वंश वर्णन"

सूत जी बोले ;– ऋषिगण ! मनु जी की नाक से इक्ष्वाकु पैदा हुआ था और उसकी सौ संतानें हुईं, जिनमें सबसे बड़ा विकुक्षि अयोध्या का राजा बना। उसने एक दिन वन में श को खा लिया था। उसी दिन से यह शशाद नाम से प्रसिद्ध हुआ । अयोध के पुत्र का नाम ककुत्स्था था। अरिनाम उसका पुत्र हुआ। इसी प्रकार अरिनाम के पृथु, पृथु के विश्वराट, विश्वराट के प्रजापति इंद्र, उनके युवनाश्व, युवनाश्व के कुवलाश्व इंद्र के पुत्र युवनाश्व द्वारा प्रजापति श्राव हुए। इन्होंने श्रावस्ती पुरी बसाई।

   कुवलाश्व के सौ पुत्र हुए थे। उन्होंने अपना राज्य पुत्रों को सौंप दिया और स्वयं वन को चले गए। मार्ग में उन्हें उतंक मुनि मिले। मुनि बोले, राजन! मेरे आश्रम के पास ही धुंध नामक दानव रहता है। वह महावीर और पराक्रमी है। उसने उग्र तपस्या आरंभ कर दी है जिसके बल पर वह तीनों लोकों का विनाश करना चाहता है। आप उसका वध करके इस जगत का कल्याण करें। मुनि की बात सुनकर कुवलाश्व बोले, मुनिराज मैं तो शस्त्रों को त्याग चुका हूं। इसलिए आपका यह कार्य मेरा पुत्र करेगा। यह कहकर उन्होंने यह कार्य अपने पुत्र को सौंप दिया। तब उनका पुत्र धुंध को मारने पहुंचा। धुंध ने उनको अपनी ओर आता देखकर उन पर आक्रमण कर दिया। तब कुवलाश्व पुत्र ने बहादुरी से युद्ध कर धुंध का वध कर दिया। उतंक ऋषि ने उसे अपराजित रहने एवं अक्षय धन प्राप्ति का वर प्रदान किया।

   उनके पुत्रों में दृढ़ाश्वका हश्व, हर्यस्वका, निकुंभ एवं ग्रहताश्व कृशाश्व एवं हेमवती कन्या उत्पन्न हुई। उसके प्रसेनजित नामक पुत्र हुआ। प्रसेनजित ने अपनी पत्नी को शाप दे दिया था जिसके अनुसार वह वहुदानाम की नदी बनी । पुरुकुत्स का पुत्र जय्यारुणि और सत्यव्रत उसका पुत्र हुआ। उसे अधर्मी समझकर उसके पिता ने उसे त्याग दिया। तब वह चांडालों के साथ रहने लगा। इसी अधर्मी के कारण इंद्र ने बारह वर्षों तक वर्षा नहीं की। तत्पश्चात विश्वामित्र ने अपनी पत्नी का त्याग कर दिया और तपस्या करने लगे। उनकी पत्नी ने अपने पुत्र का गला बांधकर उसे सौ गायों के बदले बेच दिया। सत्यव्रत ने ही उसे बचाया। गला बांधने के कारण उसका नाम गालव हुआ।

【उमा संहिता】

अड़तीसवाँ अध्याय

"सगर तक राजाओं का वर्णन"

   सूत जी बोले ;- ऋषिगण ! सत्यव्रत ने विश्वामित्र की पत्नी और पुत्र का पालन पोषण किया। एक दिन की बात है राजकुमार ने मांस खाने की जिद की। तब सत्यव्रत ने महर्षि वशिष्ठ की एक गाय को मारा और तीनों ने उसे खा लिया। जब महर्षि वशिष्ठ को पता चला तो वे बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने सत्यव्रत को त्रिशंकु होने का शाप दे दिया। इधर, जब विश्वामित्र लौटे, तो उन्हें पता चला कि उनकी अनुपस्थिति में सत्यव्रत ने ही उनके पुत्र और पत्नी का ध्यान रखा, तो वे बहुत प्रसन्न हुए महर्षि विश्वामित्र ने सत्यव्रत के पिता का राज्य उसे दिला दिया। यज्ञ द्वारा उसे सीधे स्वर्ग पहुंचा दिया।

   सत्यव्रत की पत्नी सत्यरथा थी और उनके पुत्र हरिश्चंद्र राजा हुए। उनके पुत्र रोहित, रोहित के पुत्र वृक और वृक के पुत्र बाहू हुए। राजा बाहू ने ऋषि और्व के आश्रम में तालजंघाओं से रक्षा पाई थी। इसी जगह जहर सहित पुत्र पैदा हुआ। उसका नाम सगर था । सगर ने भार्गव ऋषि से आग्नेय नामक अस्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। उसने हैहय, तालजंघाओं को मारकर पूरी पृथ्वी पर विजय प्राप्त की। तत्पश्चात शकवल्टूक, पारद, तगण, खश, नामो आदि देशों में धर्म स्थापन किया।

    उन्होंने अश्वमेध यज्ञ किया और संस्कार द्वारा घोड़े को पवित्र कर छोड़ दिया। तब देवराज इंद्र ने घोड़े को पाताल में छिपा दिया। सगर पुत्रों ने घोड़े की तलाश में उस स्थान की खुदाई की। खुदाई करते-करते वे कपिल जी के आश्रम में पहुंच गए। उनके शोर से कपिल मुनि ने आंखें खोलीं। उनकी आंखों के तेज की अग्नि से साठ हजार सगर पुत्र भस्म हो गए। इनमें हर्ष, केतु, सुकेतु, धर्मरथ और शूरवीर पंचजन ही उस क्रोधाग्नि से बच पाए। इन्हीं के द्वारा सगर वंश आगे बढ़ा।

【उमा संहिता】

उन्तालीसवाँ अध्याय

"वैवस्वत वंशीय राजाओं का वर्णन"

शौनक जी बोले ;- हे सूत जी ! आपने राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के बारे में बताया। अब कृपा करके यह बताइए कि उनके साठ हजार पुत्र किस प्रकार हुए। शौनक जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए,,

 सूत जी बोले ;- 'हे मुनिवर ! सगर की दो पत्नियां थीं। उनकी पहली पत्नी ने ऋषि और्व से साठ हजार पुत्रों का वरदान मांगा था। वरदान को सिद्ध करते हुए उनके साठ हजार पुत्र हुए। रानी ने उन पुत्रों को मटकों में रख दिया। कुछ समय के पश्चात वे बलवान होकर बाहर निकल आए। ये साठ हजार पुत्र ही कपिल मुनि की क्रोधाग्नि से भस्म हो गए थे। दूसरी रानी ने वरदान में एक वंश वृद्धि करने वाला सुंदर पराक्रमी पुत्र ही मांगा था।

    इन साठ हजार भस्म हुए राजपुत्रों का उद्धार करना अति आवश्यक था। इसी सगर वंश में राजा दिलीप भी हुए। उन्हीं के पुत्र भगीरथ ने अपने पूर्वजों का उद्धार करने के लिए श्री गंगाजी को स्वर्ग से धरती पर बुलाया था। अपने पूर्वजों का उद्धार करके श्री गंगाजी को उन्होंने अपनी पुत्री बनाया। इसलिए वे भागीरथी नाम से जगप्रसिद्ध हुईं।

  भागीरथी का पुत्र श्रुतिसेन, उनका पुत्र नाभाग, नाभाग का अंबरीष, उनका सिंधुदीप, उसका आयुताजि, आयुताजि का ऋतुपर्ण, उसका अण्पर्ण, उसका मित्रसह, उसका सर्वकर्मा, सर्वकर्मा का अनरण्य, अनरण्य का मुडिद्रुह, उसका निषध और निषध का खट्वांग, खट्वांग का दीर्घबाहु, दीर्घबाहु का दिलीप, दिलीप का रघु, रघु का अज, उसका दशरथ एवं दशरथ के पुत्र के रूप में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का जन्म हुआ। श्रीराम के पुत्रों के रूप में लव-कुश का जन्म हुआ। इस प्रकार वैवस्वत वंश आगे बढ़ता रहा। इक्ष्वाकु जो कि धर्मात्मा और पुण्यात्मा माने जाते थे, उनका वंश सुमित्र राजा तक चला।

【उमा संहिता】

चालीसवाँ अध्याय

"श्राद्ध कल्प व पितरों का प्रभाव"

शौनक जी बोले ;- हे सूत जी ! सूर्य देवता को श्राद्ध देवता की संज्ञा कब और क्यों दी गई ? साथ ही यह बताइए कि श्राद्ध का क्या माहात्म्य है? एवं उसका क्या फल होता है? शौनक जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए,,

 सूत जी बोले ;- हे मुनिवर ! जो पुरुष पिता, पितामह और प्रपितामह का नित्य श्राद्ध करते हैं उन्हें धर्म एवं शुभ सम्मान की प्राप्ति होती है। 

एक बार युधिष्ठिर ने भीष्म पितामह से पूछा ;- पितामह! पितरों को श्राद्ध कैसे प्राप्त होते हैं? अपने कर्मों द्वारा कुछ लोग स्वर्ग जाते हैं तो कुछ नरक। मैंने यह भी सुना है कि देवता भी अपने पितरों का श्राद्ध करते हैं। क्या यह सच है? युधिष्ठिर के वचन सुनकर,,

 भीष्म पितामह बोले ;- पुत्र! एक दिन मैंने अपने पिताजी को पिण्डदान किया तो वे सामने प्रकट हो गए और कहने लगे कि पिंड को मेरे हाथ पर रख दो परंतु मैंने उसे कुश पर रख दिया। 

यह देखकर वे बोले ;- पुत्र ! तुम बहुत धर्मज्ञ हो। तुम पर प्रसन्न होकर मैं तुम्हें इच्छा मृत्यु का वरदान देता हूं। तुम्हें तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध कोई मार नहीं सकेगा।

   अपने पिता से वरदान पाकर मैं प्रसन्न हुआ और मैंने उनसे एक प्रश्न किया कि मुझे पितृ कल्प के विषय में बताइए । यह सुनकर,,

 वे बोले ;- पुत्र यही प्रश्न मैंने भी ऋषि मार्कण्डेय से पूछा था। तब उन्होंने कहा, एक दिन मैंने एक विमान में एक बालक को सोते हुए देखकर उससे पूछा कि आप कौन हैं? तब वह बालक बताने लगा कि मैं ब्रह्माजी का पुत्र सनत्कुमार हूं। सातों ऋषि मेरे भाई हैं। तुमने मेरे दर्शनों के लिए ही तपस्या की थी। इसलिए मैं यहां प्रकट हुआ हूं। कहो क्या चाहते हो? 

मार्कण्डेय जी बोले ;- स्वामी ! पितरों का स्वर्ग क्या है? कृपा कर उसका वर्णन कीजिए।

सनत्कुमार जी बोले ;- मुनिवर ! ब्रह्माजी ने देवताओं की रचना करके उन्हें भजन और तपस्या करने का आदेश दिया। देवता ब्रह्माजी को भूलकर आत्म मंथन करने लगे। इस - कारण रुष्ट होकर ब्रह्माजी ने उन्हें संज्ञाहीन और मूढ़ होने का शाप दे दिया। शाप सुनकर वे बहुत दुखी हुए और हाथ जोड़कर ब्रह्माजी से क्षमा याचना करने लगे। ब्रह्माजी ने उन्हें उनके बड़ों से प्रार्थना करने के लिए कहा। वे उनके पास जाकर ज्ञान के बारे में पूछने लगे। 

वे बोले ;- हे पुत्रकगण! तुम चेतना पाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करो।

उनकी बात सुनकर देवता पुनः ब्रह्माजी की शरण में गए और पूछने लगे कि आप हमें बताइए कि उन्होंने हमें पुत्रक क्यों कहा? 

तब ब्रह्माजी बोले ;- हे देवताओ ! तुम्हें पुत्रक कहने वाले देव तुम्हारे पितर होंगे। तभी से वे देव पुत्र पितरों के नाम से जगप्रसिद्ध हुए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें