शिव पुराण उमा संहिता के इकतालीसवें अध्याय से पैंतालीसवें अध्याय तक (From the forty-first to the forty-fifth chapter of the Shiva Purana Uma Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【उमा संहिता】

इकतालीसवाँ अध्याय

"सात व्याध पुत्र"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे मार्कण्डेय जी ! स्वर्ग में पितरों के सात गण हैं जिनमें चार मूर्त और तीन अमूर्त हैं। आद्य देवता एवं ब्राह्मण उनका भजन करते हैं। वे अपने योग से सोम को तृप्त कराते हैं। इसलिए श्राद्धों में ब्राह्मणों को भोजन करा कर उन्हें दान-दक्षिणा दी जाती है। श्राद्धों में अग्नि, यम व सोम का आह्वान करें। जो मनुष्य श्राद्धों में पितृ तृप्ति करते हैं, उन्हें प्रसन्न होकर पितर पुष्टि, आरोग्य एवं वृद्धि प्रदान करते हैं।

   एक बार की बात है भारद्वाज ऋषि के ब्राह्मण पुत्र वाग्दुष्ट, क्रोधन, हिंस्र, पिशुन, काव, स्वसृष, पितृवर्ती आदि दुराचारी हो गए। उनके पिता की मृत्यु हो गई । वे विश्वामित्र के पुत्र मुनि गर्ग के शिष्य बनकर उनके आश्रम में रहने लगे। एक दिन रास्ते में उन कुबुद्धि बालकों ने गाय को मार दिया और आश्रम आकर गुरु जी से झूठ बोल दिया कि गाय को शेर उठाकर ले गया है। इस कारण उन्हें गौ-हत्या का पाप लगा और उनका जन्म एक लुब्धक के घर में हुआ। वे वन-वन फिरते रहे। ज्ञान प्राप्त होने पर उन्होंने तपस्वियों के यहां भोजन करके प्राणों को त्याग दिया।

    तत्पश्चात उन्होंने चक्रवाक्योनि में जन्म पाया । पक्षी योनि में नीपदेश के राजा और रानी के सुखी जीवन को देखकर उन्होंने विचार किया कि जरूर पुण्य कर्म किए होंगे जिसके कारण उन्हें सुख और सौभाग्य की प्राप्ति हुई। तभी वहां पर सुमना पक्षी आया और प्रसन्न होकर,,

 बोला ;- हे पक्षियो ! अगली योनि में तुम कांपिल्य नगरी के राजा बनोगे। तब तुम्हारा शाप निवृत्त हो जाएगा। तुम्हें ये सब पितरों की कृपा से प्राप्त होगा क्योंकि तुमने गौ-प्रौक्षण करके उसे पितरों को भी अर्पित किया था।

【उमा संहिता】

बयालीसवाँ अध्याय

"पितरों का प्रभाव"

  भीष्म पितामह बोले ;- हे मार्कण्डेय जी ! आगे की कथा भी मुझ पर कृपा करके मुझे सुनाइए । तब उनकी जिज्ञासा शांत करने के लिए मार्कण्डेय जी बोले- तब उन सातों पक्षियों ने खाना-पीना सब छोड़ दिया। वे सिर्फ जल और वायु ही ग्रहण करते थे। उधर, राजा-रानी भी अपने राज्य में चले गए। वहां जाकर राजा ने अपना राज्य अपने पुत्र अनूप को सौंप दिया। स्वयं राजा रानी को साथ लेकर पुनः उसी वन में आकर साधारण मुनियों वाला जीवन जीने लगा।

   धीरे-धीरे उन सात पक्षियों का शरीर क्षीण होने लगा। कुछ समय बाद वे मृत्यु को प्राप्त हुए। दूसरा जन्म उन्हें कांपिल्य नगरी में प्राप्त हुआ। उनमें से एक का नाम ब्रह्मदत्त हुआ। वह पाप रहित हो गया और उसे राजा ने अपना सारा राजपाट सौंप दिया एवं स्वयं परम गति प्राप्त की। दो अन्य पंचाल एवं पुण्डरीक मंदिर के पुजारी बने । बचे हुए चार पक्षियों का जन्म एक दरिद्र ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे चारों वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता थे। भगवान शिव में -भक्ति थी। उनके चरणों की भक्ति में उन्होंने मुक्ति एवं ज्ञान प्राप्त कर उनकी असीम श्रद्धा-भ शिवलोक प्राप्त किया।

【उमा संहिता】

तैंतालीसवाँ अध्याय

"आचार्य पूजन का नियम"

  शौनक जी बोले ;- हे सूत जी ! अब आप मुझ पर कृपा करके मुझे आचार्य के पूजन की उत्तम विधि बताइए। साथ ही ग्रंथ सुनने के बाद मनुष्यगण के कर्तव्य के बारे में भी विस्तार से बताइए। शौनक जी की प्रार्थना सुनकर सूत जी ने बताना प्रारंभ किया। 

सूत जी बोले ;- हे मुनिवर! किसी को भी शिव पुराण एवं महाग्रंथ सुनने के पश्चात आचार्य का पूजन करना अति आवश्यक माना गया है। आचार्य का श्रद्धाभाव से पूजन करने के पश्चात उसे सामर्थ्य के अनुसार दान अवश्य ही देना चाहिए।

   शिव पुराण का श्रवण करने के पश्चात, त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का पूजन करके ब्राह्मण आचार्य को बछड़े वाली गाय का दान करें। जिस स्वर्ण के आसन पर पुराण को स्थापित करें उसे भी विनम्रतापूर्वक आचार्य को समर्पित करें। इस प्रकार वह बंधन मुक्त हो जाता है। पुराण वक्ता को महात्मा माना जाता है। उन्हें राज्य, घोड़ा, हाथी, गांव आदि उत्तम एवं उपयुक्त वस्तुएं तथा शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार दान देने से कल्याण होता है। इस पवित्र शिव पुराण नामक ग्रंथ को सुनने से समस्त अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है।

【उमा संहिता】

चवालीसवाँ अध्याय

"व्यास जी का जन्म"

शौनक जी बोले ;- हे सूत जी ! आप मुझे मुनि वेद व्यास के जन्म की कथा सुनाइए। तब शौनक जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए,,

 सूत जी बोले ;- हे शौनक जी! एक दिन की बात है, - पराशर जी तीर्थ यात्रा करते हुए यमुना तट पर आए। उस समय मल्लाह भोजन कर रहा था। इसलिए उसने अपनी पुत्री मत्स्यगंधा को उन्हें नाव द्वारा यमुना पार कराने का आदेश दिया। मत्स्यगंधा पराशर जी को नाव से यमुना पार ले जा रही थी। उसकी सुंदरता देखकर पराशर जी उस पर मोहित हो गए। जैसे ही उन्होंने यमुना पार की पराशर मुनि ने उसका हाथ पकड़ लिया। तब मत्स्यगंधा ने मुनिवर से कहा कि आप रात का इंतजार करें। पराशर जी ने अपने योग से दिन को रात कर दिया। दोनों का मिलन हुआ परंतु मत्स्यगंधा चिंतित थी । तब पराशर जी ने उससे वर मांगने को कहा।

   मत्स्यगंधा बोली ;- मुनिवर ! मेरे इस कर्म को मेरे माता-पिता कोई भी न जान सकें। मेरा कन्या धर्म भी न जाए और मुझे आपके समान तपस्वी और शक्तिमान पुत्र की प्राप्ति भी हो । 

   तब उसके वचन सुनकर पराशर मुनि बोले ;- देवी! जैसा आप चाहती हैं वैसा ही होगा और आज से आप 'सत्यवती' नाम से प्रसिद्ध होंगी। आपके गर्भ से भगवान श्रीहरि विष्णु का अंश उत्पन्न होगा। यह कहकर मुनिवर चले गए। नियत समय पर सत्यवती ने सूर्य के समान महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। पुत्र माता की आज्ञा लेकर तपस्या करने चला गया और जाते समय उसने माता से कहा कि कोई भी कष्ट पड़ने पर मुझे अवश्य याद करना ।

   सत्यवती अपने घर लौट आई। व्यास जी तपस्या में लीन हो गए। वेदों की शाखाओं का अध्ययन करने से वे वेदव्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए। फिर वे तीर्थ स्थानों के भ्रमण के लिए निकल पड़े। एक बार शिवलिंग का दर्शन करने के पश्चात उनके मन में विचार आया कि कोई ऐसा सिद्धिदायक लिंग हो जिसकी आराधना और भक्ति करने से सब विद्याएं प्राप्त हो जाएं और अभीष्ट फलों की प्राप्ति हो । यही सोचकर वे ध्यानमग्न हो गए। तभी उन्हें ज्ञात हुआ कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाले अतिमुक्त महाक्षेत्र में मध्येश्वर लिंग स्थित है।

   वेदव्यास जी ने गंगा में स्नान करके व्रत आरंभ कर दिया। उन्होंने भोजन त्याग दिया। वे पहले फलाहारी रहकर पूजन करने लगे। फिर उन्होंने सिर्फ जल ही ग्रहण किया। फिर उन्होंने सिर्फ हवा को ग्रहण करते हुए अपना पूजन आरंभ किया। तत्पश्चात उन्होंने निराहारी रहकर भगवान शिव की उत्तम तपस्या की। उनकी इस दुस्सह साधना से शिवजी प्रसन्न हुए और वेदव्यास जी को दर्शन दिया। देवाधिदेव महादेवजी को साक्षात अपने सामने पाकर वेदव्यास जी उनकी स्तुति करने लगे। वे बोले-हे देवाधिदेव ! कल्याणकारी शिव! आप मन और वाणी से अगोचर हैं। वेद भी आपकी महिमा को पूर्ण रूप से नहीं जानते। आप ही सृष्टि के रचनाकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता हैं है सर्वशक्तिमान ईश्वर! आप ही जन्म-मरण, देश, कुल आदि से रहित हैं। आप ही त्रिलोक के स्वामी हैं। इस प्रकार व्यास जी ने शिवजी की स्तुति की। 

प्रसन्न होकर शिवजी बोले ;- हे व्यास जी ! तुम मनचाहा वर मांगो।

तब व्यास जी बोले ;- स्वामी आप तो सर्वज्ञ सर्वेश्वर हैं आपसे कुछ भी छिपा नहीं है।

  तब त्रिलोकीनाथ भगवान शिव बोले ;- मुनिवर ! मैं तुम्हारे कंठ में स्थित होकर तुम्हारी इच्छा के अनुसार इतिहास एवं महापुराणों की रचना करूंगा। तुम्हारे द्वारा प्रयोग में लाए गए स्तुति अष्टक का जो भी शिवलिंग के सामने बैठकर एक वर्ष तक तीनों काल में मेरी स्तुति करेगा उसकी सभी मनोकामनाएं अवश्य पूर्ण होंगी। यह कहकर महादेवजी अंतर्धान हो गए।

  भगवान शिव की कृपा से वेदव्यास जी ने ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, भागवत, भविष्य, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंगवाराह, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, बामन, ब्रह्माण्ड आदि अठारह महापुराणों की रचना की। ये सभी पुराण पुण्य और यश देने वाले हैं। इनको श्रद्धापूर्वक भक्तिभावना से पढ़ने अथवा सुनने से मुक्ति प्राप्त होती है तथा समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

【उमा संहिता】

पैंतालीसवाँ अध्याय

"मधुकैटभ-वध एवं महाकाली वर्णन"

    सूत जी बोले ;- हे मुनिवर ! अब मैं आपको जगत जननी माता उमा के विषय में बताता हूं। स्वारोचिष नामक मन्वंतर में विरथ नाम के एक राजा हुए हैं। उनका सुरथ नामक पुत्र बहुत वीर और पराक्रमी था। वह महादानी भी था। वह देवराज इंद्र के समान पराक्रमी था। उसके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। एक बार उस पर नौ राजाओं ने एक साथ आक्रमण कर दिया। युद्ध में उसे हराकर उसके राज्य पर अपना कब्जा कर लिया। सुरथ घोड़े पर सवार होकर वन को चला गया।

  वन में राजा सुरथ ने एक सुंदर आश्रम देखा, वहां पर सभी जीव-जंतु शांत वातावरण में विचरण कर रहे थे। आश्रम में स्वागत पाकर राजा वहीं रहने लगा। एक दिन की बात है, राजा सुरथ मन ही मन यह विचार करने लगा कि मैं अपने दुर्भाग्य के कारण अपना राज्य खो बैठा हूं। सुरथ यह सोच ही रहा था, तभी आश्रम में एक वैश्य आया। वह आकर राजा के पास ही बैठ गया। उसे दुखी देखकर राजा ने उससे उसके दुख का कारण जानना चाहा। 

तब वह वैश्य आंखों में आंसू लिए बोला ;- 'राजन! मैं समाधि नामक वैश्य हूं। मैं एक अत्यंत धनाढ्य कुल में उत्पन्न हुआ हूं परंतु मेरे पुत्र-पौत्रादि ने धन के लालच में ही मुझे घर से बाहर निकाल दिया है।

   राजा सुरथ और वैश्य समाधि आपस में बात कर ही रहे थे कि वहां ऋषि मेधा आ गए,,

 और बोले ;- राजन! इस संसार में सबको आकर्षित और मोहित करने वाली सनातनी माया देवी सत्य रूपा ही हैं। वे ही इस जगत की रचना, पालन और संहार करती हैं। प्रलय के समय भगवान श्रीहरि विष्णु शेषशय्या पर योगनिद्रा में सोए हुए थे। उसी समय उनके कान के मैल से दो राक्षस प्रकट हो गए। उनके नाम मधु और कैटभ थे। वे दोनों राक्षस विष्णुजी के नाभि कमल में स्थित ब्रह्माजी को मारने के लिए दौड़े।

उन महादैत्यों को इस प्रकार अपनी ओर आता देखकर ब्रह्माजी महामाया देवी परमेश्वरी का ध्यान करके उनकी स्तुति करने लगे। 

वे बोले ;- हे महामाया ! हे शरणागतों की रक्षा करने वाली देवी। इन महादैत्यों से मेरी रक्षा कीजिए। मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूं। आप मधु-कैटभ दोनों दैत्यों को मोहित करें और नारायण श्रीहरि विष्णु को जगाकर मेरी रक्षा करें।

   इस प्रकार ब्रह्माजी की स्तुति एवं प्रार्थना सुनकर महामाया देवी फाल्गुन माह की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को प्रकट होकर संसार में महाकाली नाम से जगप्रसिद्ध हुईं। तभी देवी ने ब्रह्माजी को प्राण रक्षा का आश्वासन दिया। योगमाया के रूप में वे विष्णुजी के नेत्रों से बाहर आईं तो विष्णुजी जाग गए। उन दैत्यों को देखकर क्रोधित श्रीहरि उन्हें मारने दौड़े, तब वे बोले- हमारा वध आप वहीं पर कर पाएंगे जहां पृथ्वी पर जल नहीं हो। तब भगवान विष्णु ने मधु और कैटभ नामक दोनों महादैत्यों को अपनी जंघाओं पर लिटाकर अपने सुदर्शन चक्र से उनका सिर काटकर ब्रह्माजी की रक्षा की।


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