शिव पुराण उमा संहिता के छियालीसवें अध्याय से इक्यावनवें अध्याय तक (From the forty-sixth chapter to the fifty-first chapter of the Shiva Purana Uma Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【उमा संहिता】

छियालीसवाँ अध्याय

"महालक्ष्मी अवतार"

  ऋषि बोले ;- दैत्यों के कुल में जन्मे महादैत्य रंभासुर का महिषासुर नामक पुत्र महावीर और पराक्रमी था। उसने समस्त देवताओं को युद्ध में परास्त करके स्वर्ग पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। तब सभी देवता दुखी होकर ब्रह्माजी और विष्णुजी को अपने साथ लेकर भगवान शिव के पास पहुंचे। उन्होंने भगवान शिव को सारी बातें विस्तारपूर्वक सुनाईं।

   सारी कथा सुनने के उपरांत क्रोधित भगवान शिव की आंखों और मुख से एक दिव्य तेज उत्पन्न हुआ। उस तेज में सब देवताओं ने अपना-अपना तेज मिलाया जिससे देवी महामाया जगदंबा का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हें देखकर देवताओं की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। सबने देवी को अनेक आयुध एवं आभूषण भेंट किए। ब्रह्माजी, विष्णु और शिवजी सहित समस्त देवताओं की अनेकों शक्तियां ग्रहण करने के पश्चात देवी ने जोर का अट्टहास और गर्जना की।

  देवी की गर्जना से धरती, आकाश और पाताल गूंज गए। उस गर्जना को सुनकर देव शत्रु दैत्यों ने अपने-अपने हथियार उठा लिए। देखते ही देखते देवी जगदंबा दैत्यों से युद्ध करने पहुंच गईं। दैत्यों और देवी के बीच घोर संग्राम होने लगा। देवी जगदंबा ने शूल, शक्ति, तोमर आदि शस्त्रों से लाखों दैत्यों का विनाश कर दिया। पराक्रमी देवी को देखकर दैत्य सेना भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगी। तब महिषासुर ने आकर देवी जगदंबा को ललकारा। उसने तलवार लेकर देवी के वाहन सिंह पर आक्रमण कर दिया। अपने सिंह पर आई इस विपत्ति को देखकर देवी ने अपना पाश महिषासुर पर फेंका।

   अपनी ओर आते पाश को देखकर महिषासुर ने महिष का रूप त्यागकर सिंह का रूप धारण कर लिया। देवी जगदंबा ने यह देखकर झपट कर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया परंतु महिषासुर फिर भी न मरा और रूप बदल-बदलकर देवी से युद्ध करने लगा और उनके सिंह को परेशान करने लगा। इस प्रकार देवी और महिषासुर का युद्ध बहुत लंबे समय तक चलता रहा। उनके इस भयानक युद्ध से पूरा त्रिलोक कांप उठा। सारे जीव-जंतु दुखी हो गए। तब देवी उछलकर महिषासुर पर चढ़ गईं। उन्होंने अपने पैरों से महिषासुर को कुचल दिया और अपने त्रिशूल से उसकी जिह्वा काट दी।

इस प्रकार देवी जगदंबा ने महिषासुर का वध कर त्रिलोक को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई। सभी देवता हर्षित होकर देवी की स्तुति करने लगे। सारी दिशाओं से पुष्प वर्षा होने लगी ।

【उमा संहिता】

सैंतालीसवाँ अध्याय

"धूम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज का वध"

ऋषि बोले ;- शुंभ और निशुंभ नामक दोनों पराक्रमी दैत्यों ने अपने अत्याचारों से पूरे चराचर जगत को दुखी कर दिया। सभी जीव-जंतु, मनुष्यगण एवं देवता उसके अत्याचारों से परेशान हो चुके थे। तब देवता अत्यंत परेशान होकर हिमालय पर श्री पार्वतीजी की शरण में गए और देवी की स्तुति करने लगे।

  वे बोले ;- हे कल्याणकारी देवी! भवानी! हम सब आपकी शरण में आए हैं। मातेश्वरी ! हमारी रक्षा कीजिए । शुंभ-निशुंभ के आतंक एवं अत्याचारों से त्रिलोक को मुक्त कराइए।

   देवताओं की स्तुति सुनकर देवी ने अपने शरीर से एक तेज उत्पन्न किया और एक कुमारिका प्रकट हुई। सब देवताओं ने हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर देवी की स्तुति की। तब पार्वती जी बोलीं- देवगण! मेरे कोश से निकलने के कारण ये कौशिकी नाम से प्रसिद्ध होंगी और मातंगी नाम से जगप्रसिद्ध होंगी। यह कहकर देवी अंतर्धान हो गईं और देवता अपने स्थान को लौट गए।

  देवी कौशिकी वहीं हिमालय की गुफा में रहने लगीं। एक दिन शुंभ-निशुंभ के सेवकों ने उन्हें देख लिया। तब उन्होंने जाकर शुंभ-निशुंभ से उनके रूप सौंदर्य की प्रशंसा की और कहा कि वह तो नारियों में रत्न हैं, उसे आपके महल की शोभा बढ़ानी चाहिए। तब देवी की प्रशंसा सुनकर शुंभ-निशुंभ ने अपना दूत वहां भेजा। तब दूत ने जाकर देवी से कहा- मेरे स्वामी शुंभ-निशुंभ आपके रूप की प्रशंसा सुनकर आपसे विवाह करना चाहते हैं। उन्होंने विवाह का प्रस्ताव लेकर ही मुझे यहां पर भेजा है।

   दूत की बात सुनकर देवी बोलीं ;- दूत ! जाकर तुम अपने स्वामियों से कहो कि मैंने यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि जो भी मुझे युद्ध में परास्त कर देगा मैं उसी से विवाह करूंगी। अपने स्वामियों से कहो आकर मुझसे युद्ध करें और मुझे हराकर मुझे अपने साथ ले जाएं।

  दूत ने शुंभ-निशुंभ को सारी बातों से अवगत कराया। सारी बातें सुनकर शुंभ और निशुंभ क्रोधित हो गए। उन्होंने अपने सेनापति धूम्रलोचन को आदेश दिया कि तुम उस नारी को यहां लेकर आओ। यदि वह प्यार से न आए तो जबरदस्ती उसे उठा लाना। अपने स्वामी की आज्ञा पाकर धूम्रलोचन हिमालय पर्वत पर देवी को लेने पहुंचा। जब देवी कौशिकी ने चलने से मना किया तो वह देवी पर शस्त्र लेकर झपटा। देवी ने उसे भस्म कर दिया और सिंह ने दैत्य सेना को तितर-बितर कर दिया।

जब शुंभ-निशुंभ को धूम्रलोचन के मारे जाने का समाचार मिला तो वे गुस्से से भर गए । उन्होंने चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज को देवी को लाने वहां भेजा और आदेश दिया कि यदि वह न आए तो उसका वध कर देना।

 वे दैत्य देवी के पास गए और बोले ;- सुंदरी ! तुम प्रेमपूर्वक शुंभ-निशुंभ में से किसी को भी अपना पति बना लो और खुशी से राज्य करो। यह सुनकर,,

देवी बोली ;- हे दैत्यो! मैं तो सूक्ष्म प्रकृति हूं। ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवता मेरी आराधना और स्तुति करते हैं । यदि तुममें शक्ति है तो मुझे युद्ध में हराकर जहां चाहो ले जा सकते हो। देवी! यदि आप ऐसा ही चाहती हैं तो ठीक है। यह कहकर दैत्यों ने देवी पर बाणों की वर्षा करनी शुरू कर दी। तब क्रोधित देवी ने अपने खड्ग से चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज का वध कर दिया।

【उमा संहिता】

अड़तालीसवाँ अध्याय

"सरस्वती का प्राकट्य"

राजा ने कहा ;- चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज के मर जाने पर शुंभ-निशुंभ ने क्या किया? 

ऋषि बोले ;- जब शुंभ-निशुंभ को पता चला कि चण्ड-मुण्ड और रक्तबीज को देवी ने मार दिया है तब वे स्वयं अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर युद्ध भूमि की ओर चल दिए। जब देवी कौशिकी ने देखा कि शुंभ और निशुंभ अपनी सेना के साथ युद्ध करने आ रहे हैं तो उन्होंने घण्टा बजा दिया। इस ध्वनि को सुनकर देवी का सिंह गर्जना करने लगा। देवी ने भी धनुष हाथों में लेकर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। जब शुंभ और निशुंभ ने देवी कौशिकी के अदभुत रूप-सौंदर्य को देखा,,,

तब देवी को देखकर वे बोले ;- हे सुंदरी ! आप इस कोमल शरीर के साथ युद्ध करेंगी? उनकी बात सुनकर देवी ने अत्यंत क्रोधित होकर बाण, त्रिशूल एवं परशु से एक साथ उन पर आक्रमण आरंभ कर दिया। देखते ही देखते युद्ध क्षेत्र में रक्त की नदियां बह निकलीं। दैत्य सेना देवी के प्रहारों के सम्मुख फीकी पड़ने लगी। दैत्य इधर-उधर भागने लगे।

अपनी विशाल सेना को इस प्रकार भयभीत होकर इधर-उधर भागते हुए देखकर,,

 निशुंभ देवी के सम्मुख जाकर बोला ;- देवी ! यदि युद्ध करना ही है तो मुझसे करो। बेचारे सिपाहियों को क्यों मार रही हो? यह कहकर निशुंभ ने देवी पर बाण वर्षा शुरू कर दी। देवी ने भी उत्तर में बाण वर्षा आरंभ कर दी। उन्होंने अपने बाणों से निशुंभ के सभी अस्त-शस्त्र काट दिए । तब उन्होंने विष बुझे बाणों से निशुंभ को मार गिराया।

   अपने भाई निशुंभ को इस प्रकार देवी के हाथों मरते देखकर शुंभ स्वयं देवी से युद्ध करने आगे आया। उसे सामने देखकर चण्डिका देवी ने भयानक अट्टहास किया जिसे सुनकर दैत्य सेना भयभीत हो गई। तब शुंभ ने प्रज्वलित शक्ति से देवी पर आक्रमण किया। देवी ने अपने बाणों से उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए और हाथ में त्रिशूल लेकर उसे शुंभ की छाती में घोंप दिया। तत्पश्चात घायल शुंभ देवी को मारने के लिए दौड़ा परंतु देवी ने चक्र से उसका सिर काट दिया। यह देखकर अन्य दैत्य पाताल लोक को चले गए।

【उमा संहिता】

उन्चासवाँ अध्याय

"उमा की उत्पत्ति"

ऋषियों ने पूछा ;- हे सूत जी ! अब आप हमसे देवी उमा के अवतार एवं प्रादुर्भाव की कथा का वर्णन कीजिए। तब ऋषियों के प्रश्न का उत्तर देते हुए,,

 सूत जी बोले ;- एक बार की बात है, देवताओं की युद्ध में विजय हुई। विजयी होकर देवताओं को बहुत घमंड हो गया और वे अपनी बहादुरी की बहुत प्रशंसा करने लगे। तभी एक कूप के रूप में तेज प्रकट हो गया। उस तेज को एकाएक देखकर देवता घबरा गए। देवराज इंद्र ने उस तेज की परीक्षा लेने के लिए सर्वप्रथम वायुदेव को वहां भेजा।

  वायुदेव उस तेज की परीक्षा लेने के लिए वहां पहुंचे। उन्होंने तेज के पास जाकर पूछा तू कौन है? तब तेज ने भी यही प्रश्न वायु से किया। 

वायुदेव ने अहंकार से कहा ;- मैं इस जगत का प्राण हूं। मेरे द्वारा ही यह जगत चल रहा है। यह सुनकर तेज ने कहा कि इस तिनके को जलाकर दिखाओ तो मैं तुम्हें शक्तिशाली समझ सकता हूं परंतु वायुदेव अपनी सारी ताकत लगाकर भी उस तिनके को हिला भी नहीं सके। तब लज्जित और हारे हुए वे देवराज इंद्र के पास पहुंचे।

   देवराज इंद्र को जब यह सब बातें ज्ञात हुईं तो उन्होंने एक-एक करके सब देवताओं को उस तेज की परीक्षा लेने के लिए भेजा, लेकिन सभी देवता परास्त होकर वापस आ गए। तब स्वयं इंद्र उस दिव्य तेज की परीक्षा लेने के लिए गए। जैसे ही इंद्र उस स्थान पर पहुंचे वह तेज अंतर्धान हो गया। यह देखकर देवेंद्र आश्चर्यचकित रह गए। तब उस तेज को दिव्य और शक्तिशाली जानकर मन ही मन इंद्र उनकी स्तुति करने लगे। 

और इन्द्र बोले ;- मैं आपकी शरण में आया हूं। कृपा कर मुझे दर्शन दो।

चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी के मध्यान्ह का समय। देवी उमा ने प्रकट होकर देवराज इंद्र को दर्शन दिए। 

देवी उमा बोलीं ;- हे देवराज इंद्र! ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी मेरी स्तुति करते हैं। अन्य देवता भी मुझे पूजते हैं। मैं परमब्रह्म प्रणव स्वरूप देवी हूं। मेरी ही कृपा से तुम्हें विजयश्री प्राप्त हुई है। इसलिए अपने अभिमान और घमंड को त्यागकर मेरा स्मरण करो। यह कहकर देवी शांत हो गईं।

यह सुनकर देवताओं ने देवी उमा की स्तुति करनी आरंभ कर दी ।

 देवता बोले ;- हे महामाया! हे जगदंबा ! आप हमें क्षमा करें। हम दोनों हाथ जोड़कर आपकी शरण में आए हैं। हमसे जो गलती हो गई है उसे भूलकर हम पर अपनी कृपादृष्टि रखें। यह कहकर देवता देवी मां की स्तुति करने लगे।

【उमा संहिता】

पचासवाँ अध्याय

"शताक्षी अवतार वर्णन"

सूत जी बोले ;- ऋषिगण ! एक बार की बात है, एक महा पराक्रमी रुद्र के पुत्र दुर्गम ने ब्रह्माजी की कठोर तपस्या की। उसने ब्रह्माजी से वरदान में वेद प्राप्त कर लिए। वह अपने को महाशक्तिशाली समझने लगा और वह देवताओं को कष्ट देने लगा। उसने पृथ्वी पर उपद्रव करने प्रारंभ कर दिए। वेदों के न रहने पर सारी क्रियाएं चली गईं। ब्राह्मणों ने धर्म का त्याग कर दिया। प्रजा पर यह संकट आया हुआ देखकर सभी देवता देवी उमा की शरण में गए।

देवता स्तुति करते हुए बोले ;- हे महादुर्गे ! हे जगदंबिके! जिस प्रकार आपने शुंभ-निशुंभ का वध करके हमारी रक्षा की, उसी प्रकार इस दुष्ट का भी वध करके अपने शरणागतों की रक्षा करो। इस प्रकार देवताओं की स्तुति सुनकर देवी की आंखों से आंसू बहे, तब उस जल की धाराओं से धरती पुनः हरी-भरी हो गई। वृक्ष और औषधियां फलने-फूलने लगीं। नदियां, तालाब और समुद्र जल से सराबोर हो गए।

यह देखकर देवता देवी उमा से बोले ;- हे मातेश्वरी ! कृपा कर वेदों को भी वापस दिला दीजिए। तब देवी ने वेद लौटाने का आश्वासन देकर उन्हें विदा किया। देवता अपने-अपने धाम को चले गए। तभी देवी को देवताओं का हित करने वाली जानकर दुर्गम ने उन पर आक्रमण कर दिया। देवी ने भी पलटकर वार करना आरंभ कर दिया। देखते ही देखते देवी उमा और दुर्गम के बीच भयानक युद्ध होने लगा । चारों ओर से बाणों की वर्षा होने लगी। उस समय देवी उमा बहुत क्रोधित हुईं। तब उनके शरीर से काली, तारा, छिन्नमस्ता, श्रीविद्या, भुवनेश्वरी, रौरवी, बगुला, थम्रा, त्रिपुरा, मातंगी नामक दस देवियां प्रकट हुईं। देखते ही देखते देवियों ने दैत्यों की सौ अक्षौहिणी सेना का नाश कर उसे तितर-बितर कर दिया। तत्पश्चात देवी ने अपने त्रिशूल से दैत्येंद्र दुर्गम का वध कर दिया। देवी ने उससे वेद छीनकर देवताओं को सौंप दिए ।

प्रसन्न देवता महामाया देवी उमा की स्तुति करने लगे। 

देवता बोले ;- हे मातेश्वरी ! आपने हमारी रक्षा के लिए अनंताक्षिभय रूप रखा, इसलिए आप शताक्षी नाम से जगप्रसिद्ध होंगी। शोक द्वारा लोकहित करने के कारण शाकुंभरी और दुर्गम नामक दैत्य का वध करने के कारण दुर्गा कहलाएंगी। हे महाबले! हे ज्ञानदायिनी ! हे योगनिद्रे ! हे विश्वजननी! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप सदा हमारा कल्याण करें और सबकी रक्षा करें। तब देवताओं को उनकी रक्षा का आश्वासन देकर देवी अंतर्धान हो गईं।

【उमा संहिता】

इक्यावनवाँ अध्याय

"क्रिया योग वर्णन"

एक बार महामुनि व्यास के पूछने पर सनत्कुमार जी ने उन्हें महा दिव्य क्रिया योग और उसके फल के विषय में बताया। 

सनत्कुमार जी बोले ;- हे महामुनि ! ज्ञानयोग, क्रियायोग और भक्तियोग भक्ति और मुक्ति प्रदान करने वाले हैं। ज्ञान, आत्मा और हृदय का मिलन ही क्रियायोग कहलाता है। इसी योग के साथ वाह्य अर्थ का संयोग क्रिया योग कहलाता है। कर्म से भक्ति, भक्ति से ज्ञान एवं ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है। योग ही मुक्ति का एकमात्र मार्ग है।

  पत्थर, लकड़ी एवं मृत्तिका से देवी का मंदिर बनवाने, प्रतिदिन यज्ञ करने से एक-सा पुण्य प्राप्त होता इस लोक में श्री पार्वती जी की मूर्ति का निर्माण कराने वाला निश्चय ही दुर्गालोक को जाता है। देवी का मंदिर बनवाने से पुण्य की प्राप्ति होती है। देवी की मूर्ति की स्थापना कर उसके चारों ओर पंचाहना देवी की स्थापना करने से असंख्य पुण्य की प्राप्ति होती है। सूर्य और चंद्र ग्रहण के समय विष्णु सहस्रनाम के पाठ से कई गुना अधिक फल देवाधिदेव शिवजी का नाम जपने से मिलता है। देवी का नाम जपने से उससे भी अधिक पुण्य मिलता है।

   नित्यप्रति देवी उमा का नाम जपने से दुर्गा जी के गण पद की प्राप्ति होती है। जो मनुष्य मां उमा का धूप, दीप, नैवेद्य से पूजन करते हैं, मंदिर को लीपते हैं या उसे साफ करते हैं, उन्हें उमालोक की प्राप्ति होती है। कृष्ण पक्ष की अष्टमी, नवमी तिथि को श्रीसूक्त, देवी सूक्त आदि का पाठ कर देवी पर पुष्प अर्पित किए जाते हैं। देवी को कमल का पुष्प या सोना, चांदी अर्पित करने से परम गति की प्राप्ति होती है।

   चैत्र शक्ला-ततीया को मां उमा का व्रत करने से जीवन-मरण के चक्र के बंधनों से मुक्ति मिल जाती है। वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीय तिथि को अक्षय तृतीया नाम से जाना जाता है और इस दिन रथोत्सव मनाना चाहिए। देवी की मूर्ति स्थापित करके देवी का पूजन करने के पश्चात उनसे प्रार्थना करें - हे देवी! आप हमारा पालन करने वाली हैं। हम पर प्रसन्न हों और हमारे पूजन को स्वीकार करें। हमें इस लोक में सुख देकर अपना धाम प्रदान करें।

  आश्विन माह के शुक्ल पक्ष में नवरात्र का व्रत किया जाता है। यह उत्तम व्रत सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा मनोरथ सिद्ध करने वाला है। इसी पुण्य कल्याणकारी व्रत को करने से विरथ के पुत्र सुरथ राजा बने, समाधि नामक वैश्य को मुक्ति प्राप्त हुई। इसी प्रकार विधि-विधान से नवरात्र व्रत को पूरा करने से सभी अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है। इस व्रत को करने से देवी उमा स्त्रियों के सौभाग्य की रक्षा करती हैं तथा इस व्रत के प्रभाव से विद्या, धन, पुत्र आदि की प्राप्ति होती है।

  इस प्रकार उमा संहिता का पवित्र भक्तिमय स्वरूप मैंने आपको सुनाया है। इसे पढ़ने एवं सुनने से कामनाएं पूरी होती हैं और सब सुख भोगकर मनुष्य परमधाम को प्राप्त करता है।

।। श्रीउमा संहिता संपूर्ण ।।



।।कैलाश संहिता प्रारंभ।।


(नोट :- सभी अंश, सभी संहिता के सभी अध्याय व खण्ड की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )


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