शिव पुराण वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध) के पहले अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the first to the tenth chapter of the Shiva Purana Vayviy Samhita (uttaraarddh))


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

प्रारंभ

प्रथम अध्याय

"श्रीकृष्ण की पुत्र प्राप्ति"

संसार के सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता भगवान शिव को प्रणाम कर,,

 सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो! मैंने आपके द्वारा पूछी गई हर कथा आपको सविस्तार सुनाई है। ये सभी कथाएं अंतःकरण की कालिमा को नष्ट करने वाली हैं। शुद्ध अंतःकरण द्वारा ही देव लीलाओं के रहस्य खुलते हैं, तथा उनके प्रति निष्ठा जागती है। बिना देवोपासना के शिवतत्व को नहीं जाना जा सकता है। ऋषिगणो! आप कथारसिक हैं, यह मैं जान गया हूं। अब आगे आप किस कथा के विषय में सुनना चाहते हैं?

 सूत जी के प्रश्न को सुनकर ऋषि बोले ;- हे सूत जी ! भगवान श्रीकृष्ण ने उपमन्यु को दर्शन देकर उन्हें पाशुपत व्रत करने की आज्ञा प्रदान की परंतु इस व्रत का ज्ञान उन्हें कैसे मिला?

  यह बात सुनकर वायुदेव बोले ;- हे ऋषियो ! श्रीकृष्ण ने अपनी इच्छानुसार अवतार लिया और फिर सांसारिक मनुष्यों की भांति पुत्र कामना की प्राप्ति हेतु तपस्या करने मुनियों के आश्रम में पहुंचे। वहां उन्होंने जटाजूट धारण कर भस्म रमाए त्रिपुण्ड का तिलक लगाए मुनि उपमन्यु को देखा। श्रीकृष्ण ने उनकी तीन परिक्रमा की तथा प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे।

  उपमन्यु जी ने श्रीकृष्ण को 'त्रायुषं जमदग्ने' मंत्र देकर बारह महीने तक पाशुपत व्रत धारण कराया और पाशुपत व्रत का ज्ञान दिया। श्रीकृष्ण ने आश्रम में रहकर एक वर्ष तक कठोर तप किया। तब प्रसन्न होकर भगवान शिव ने देवी पार्वती सहित उन्हें दर्शन दिए । शिवजी ने श्रीकृष्ण की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और अंतर्धान हो गए। वर के प्रभाव से श्रीकृष्ण को अपनी पत्नी जांबवती से सांब नामक पुत्र की प्राप्ति हुई ।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

दूसरा अध्याय

 "शिवगुणों का वर्णन"

वायुदेव बोले ;– हे मुनियो ! एक दिन श्रीकृष्ण जी ने उपमन्यु मुनि से कहा- हे महर्षे! आप मुझे देवाधिदेव भगवान शिव के पाशुपत व्रत के ज्ञान को बताइए । पशु कौन है और वे किस रस्सी से बंधे हैं और उससे कैसे मुक्त होते हैं? शिवजी पशुपति कैसे कहलाए ? कृपाकर मेरी इन जिज्ञासाओं को शांत करें।

  श्रीकृष्ण जी के इन प्रश्नों को सुनकर उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण ! इस संसार में ब्रह्मा से लेकर सभी स्थावर जीव सर्वेश्वर शिव के ही पशु हैं। शिवजी ही उनके स्वामी हैं। इसलिए उनके अधिपति होने के कारण वे पशुपति कहलाते हैं। भगवान शिव द्वारा रचित सभी पशु मोह-माया की दृढ़ रस्सियों से बंधे हैं। इसी रूप में संसारी व्यक्ति जब मोह-ममता आदि के पाश से मुक्त होने का प्रयास करता है, तो वह और भी बुरी तरह उसमें बंधता और फंसता जाता है। कोई केवल सांसारिक साधनों द्वारा पाश से मुक्त नहीं हो पाता। इसके लिए भगवान शिव की कृपा आवश्यक है। अपने भक्तों की आस्था, श्रद्धा और भक्तिपूर्ण उपासना देखकर वे उन्हें माया रूपी रस्सियों से मुक्त कर देते हैं।

   माया के चौबीस तत्वों से ही जीव बंधा रहता है। अपने जीवों को इन बंधनों में बांधने वाले स्वयं भगवान शिव ही हैं। वे उन्हें विषयों में बांधकर उनसे अपने कार्य कराते हैं। जो इन विषयों में आसक्त होकर भोगों की कामना से व्यवहार करता रहता है, वह पशुता से मुक्त नहीं हो पाता। जिसे संसार के भोगों में रस नहीं मिलता वह शिव कृपा से इन पाशों से मुक्त हो जाता है। महेश्वर संसार का अनुशासन चलाते हैं तो बाह्य जगत का बाहर से पालन करते हैं और हव्यकव्य भी ग्रहण करते हैं।

  जल जगत में जीवन भरता है और पृथ्वी जगत को धारण करती है । दैत्यों का संहार स्वयं भगवान शंकर करते हैं। देवेंद्र स्वर्ग का संचालन करते हैं। वरुण जल पर शासन करते हैं। ये सब कार्य त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के बताए मार्ग पर चलकर संपन्न होते हैं। शिवजी का पूजन सद्गति प्रदान करता है। निष्काम भाव से की गई शिव आराधना मनोकामनाओं की पूर्ति के साथ मुक्ति का साधन भी बनती है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

तीसरा अध्याय

"अष्टमूर्ति वर्णन"

  मुनि उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण ! भगवान शिव के सगुण-साकार मूर्तरूप का विभिन्न ध्यानों में नाना प्रकार से वर्णन किया गया है। ये शिव के व्यष्टि रूप हैं। भगवान शिव ने स्वयं की अंगभूता आदिशक्ति से जब इस सृष्टि की रचना की, उसके बाद वे संपूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त हो गए। शिव ने ही सृष्टि के रूप में अपना विस्तार किया, इस तरह भी कहा जा सकता है। भगवान शिव अपनी मूर्तियों से ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, महेश, सदाशिव शिवजी की ही प्रतिमाएं हैं।

   ईशान, पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात इनकी पांच मूर्तियां हैं। ईशान मूर्ति क्षेत्रज्ञ है। पुरुष स्थाणु मूर्ति है। अघोर मूर्ति बुद्धि तत्व को धारण किए है। देवाधिदेव महादेव की वामदेव मूर्ति अहंकार की अधिष्ठात्री है। सद्योजात मूर्ति शिवजी के हृदय में निवास करती है।

ईशान मूर्ति श्रोत्र वाणी और शब्द आकाश की अधिष्ठात्री है । ईश्वरीय मूर्ति हस्त, स्पर्श और वायु की अधिष्ठात्री है। अघोर मूर्ति नेत्र चरण रूप अग्नि की अधिष्ठात्री है। वाममूर्ति रस जल की अधिष्ठात्री है। भगवान शिव की आठ प्रतिमाएं हैं। जिस प्रकार माला में फूल गुंथे होते हैं, उसी प्रकार शिवजी की मूर्तियों में संसार ग्रथित है।

शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान, महादेव ये शिवजी की आठ मूर्तियां हैं। इन्होंने पृथ्वी, जल, तेज, पवन, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चंद्र को धारण किया हुआ है। शिवजी की शार्वी मूर्ति विश्वधारिका है। वायिका भावी मूर्ति है और जल को धारण किए है।

  तेजोदीत रौद्रमूर्ति जगत में अंदर और बाहर विचरती है। पवन मूर्ति जगत का संचालन करती है। आकाशात्मिका मूर्ति पूरे विश्व में व्याप्त है। पशुपति मूर्ति आत्मा की अधिष्ठात्री है। ईशानी मूर्ति जगत को प्रकाश देती है। महादेव जी की मूर्ति अपनी शीतल किरणों से जगत को तृप्त करती है। आठवीं मूर्ति के कारण सारा संसार शिवरूप है। इसलिए शिवजी का पूजन और आराधन ही भय का नाश कर मोक्ष प्रदान करने वाला एवं समस्त कामनाओं को पूरा करने वाला है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

चौथा अध्याय

"गौरी शंकर की विभूति"

  उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण ! अब मैं आपसे स्त्री-पुरुष, जो महादेव की विभूति हैं, का वर्णन करता हूं। भगवान शिव परम शक्तिमान हैं। देवी पार्वती उनकी शक्ति हैं और विश्व उनकी विभूति है। शुद्ध - अशुद्ध, पर- अपर, चेतन-अचेतन सभी स्वाभाविक रूप हैं। शिवजी और देवी पार्वती के वश में यह संसार है। वे ही विश्वेश्वर हैं। भगवान शिव ही संसार के सभी जीवों को भक्ति और मुक्ति देते हैं।

  माता शक्ति भी शिवजी के समान महाशक्ति है। वे चिद्रूपा शक्ति हैं, जो विश्व को विभक्त करती है। वे ही सभी क्रियात्मक शक्तियों को क्रियान्वित करती हैं। देवी पार्वती ही क्षोभ पाकर नाद को पैदा करती हैं। नाद से बिंदु, बिंदु से सदाशिव उससे महेश्वर और उससे युद्ध विद्या पैदा होती है। ईश्वर की वाणी शक्ति है। इस संसार को रचने वाली शक्ति है। इस संसार में स्त्री व पुरुषों की विभूति भगवान शिव और देवी पार्वती पर आश्रित है। शिव क्षेत्रज्ञ हैं और देवी क्षेत्ररूपा हैं। पार्वती जी पृथ्वी रूप हैं और शिवजी आकार रूप हैं। शिव समुद्र रूप हैं तो पार्वती जी तरंगरूपा हैं।

हे श्रीकृष्ण! इस प्रकार मैंने आपको सर्वेश्वर शिव की विभूति सुना दी है। शिव भक्तों को सायुज्य की प्राप्ति होती है और भगवान शिव का भजन-कीर्तन करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

पाँचवाँ अध्याय

"पशुपति ज्ञान योग"

  उपमन्यु बोले ;– हे कृष्णजी ! इस संसार में सभी जीव मोहमाया के पाश में बंधे हुए हैं, इसलिए भगवान शिव के स्वरूप को वे जान नहीं पाते। भगवान शिव के अविकल्प प्रभावों का वर्णन ऋषि-मुनिगण करते हैं। भगवान शिव को अपर ब्रह्मरूप में ब्रह्मात्मक, अनादि अनंतर रूप में महादेव तथा भूत, इंद्रिय, अंतकर, प्रधान विषयात्मक में अपरब्रह्म एवं चेतनात्मक परमब्रह्म कहलाते हैं। यह बहुत विशाल है और विश्व का विस्तार करने वाला है और ब्रह्म कहलाता है।

  विद्या और अविद्या ब्रह्म के रूप हैं। चेतना और अचेतना विद्या अविद्या के ही रूप हैं। विश्व भगवान शिव रूप है और संसार के सभी जीव भगवान शिव के अधीन हैं। त्रिलोकीनाथ भगवान शिव तो सत असत दोनों के स्वामी हैं। वे ही सत असत को क्षर-अक्षर करते हैं। सभी प्राणी क्षर अव्यय एवं अक्षर हैं और परमात्मा के रूप हैं। सर्वेश्वर शिव ही समष्टि और व्यष्टि रूप कहलाते हैं। वे ही संसार के प्रवर्तक और निवर्तक हैं। वे ही आविर्भाव और तिरोभाव का कारण हैं। देवाधिदेव महादेव ही सबके स्वामी और धाता हैं। सर्वेश्वर शिव अंतर्यामी हैं। जो मनुष्य अपनी बुद्धि के कारण विरोधाभासों में फंसे रहते हैं, वे किसी भी बात का निश्चय नहीं कर पाते। जो मनुष्य भगवान शिव की शरण में जाते हैं उन्हें शिवतत्व का ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

छठा अध्याय

"शिव तत्व वर्णन"

  उपमन्यु बोले ;– हे श्रीकृष्ण ! जिस प्रकार इंद्रजाल की माया जादूगर को भ्रमित नहीं करती, बल्कि उसकी लीलाओं को देखकर वह आनंदित होता है, उसी प्रकार सृष्टि रचना का आधार रूप भगवान शिव सभी प्रकार के बंधनों से सदैव मुक्त रहते हैं। त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव शिव तो सब बंधनों से दूर हैं। उन्हें कोई भी माया, प्रकृति, बुद्धि और अहंकार नहीं बांध सकता। शिव तो परमब्रह्म परमात्मा हैं। वे किसी वासना, मोह अथवा भोग के प्रभाव में नहीं आ सकते। बंधु-अबंधु, नियंता, प्रेरकपति, गुरु-त्राता, अधिक-समान, कांक्षित अकांक्षित, जन्म-मरण, विधि - निषेध, मुक्ति-बंधन कोई भी सर्वेश्वर की राह में आगे नहीं आ सकता।

  देवाधिदेव महादेव सारे संसार में व्याप्त हैं। सृष्टि से पूर्व शिव थे, सृष्टि रचना के बाद सृष्टि रूप भी शिव हैं और सृष्टि के खत्म होने के बाद भी शिव ही अवशिष्ट रहेंगे। यह ज्ञान ही समस्त दुखों को समाप्त करने वाला है। यही शिवोपासना और शिवाराधना का प्रतिफल है। सदाशिव के सच्चे स्वरूप को जिस प्राणी ने समझ लिया वह कभी मोह के वश में नहीं होता । हिरण्यबाहु भी शिव रूप से काल के अग्रभाग हैं। हृदय के मध्य में सर्वेश्वर शिव का ही वास है। जो भगवान शिव का परम भक्त है उसको संसार में हर मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

सातवाँ अध्याय

"शिव-शक्ति वर्णन"

उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण ! परमब्रह्म परमात्मा शक्तिशाली और विलक्षण वाले एक ही रूप हैं। सूर्य किरणों के समान ही उनकी कीर्ति देदीप्यमान है। इच्छा ज्ञान और क्रिया रूप में उनकी अनेक शक्तियां विद्यमान हैं। इसी शक्ति के फलस्वरूप शिव पुरुष हुए और ज्ञानदायिनी आनंदमयी देवी पार्वती सूक्ष्म शक्ति कहलाईं। प्रज्ञा श्रुति स्मृति रूपी शिव विद्या है। भगवान शिव ही वैद्य हैं। भगवान शिव की शक्ति विश्व को मोहने वाली और मुक्ति प्रदान करने वाली है। अपने हृदय में शिव-शक्ति के स्वरूप का ध्यान करने वालों को परम शांति प्राप्त होती है। शिव-शक्ति का तादात्म्य संबंध है। मुक्ति की कामना करने वालों के लिए ज्ञान एवं कर्मों की आवश्यकता नहीं है। मुक्ति तो भगवान शिव और देवी पार्वती के प्रसन्न होते ही प्राप्त हो जाती है। भगवान शिव के प्रसन्न होते ही मुक्ति सुलभ हो जाती है। भगवान शिव की भक्ति उन्हें प्रसन्न करती है । देवाधिदेव महादेव जी में भक्ति भावना रखने वाले जीवों को मुक्ति मिल जाती है। सांग और अनंग दोनों सेवाभक्ति कहलाती हैं। सर्वेश्वर शिव की ध्यान, साधना करने से समस्त कामनाएं पूरी होती हैं। तप, कर्म, जप, ज्ञान, ध्यान और चांद्रायण व्रत तप हैं। परमेश्वर शिव का नाम जपने व चिंतन करने से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है। शिव शास्त्रों में भी इस ज्ञान का वर्णन है।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

आठवाँ अध्याय

"व्यासावतार"

  श्रीकृष्ण बोले ;- हे महर्षि ! अब आप वेदों का सार सुनाइए। यह सुनकर,,

 उपमन्यु बोले ;- हे श्रीकृष्ण ! जब सर्वेश्वर शिव ने सृष्टि का निर्माण करने की इच्छा की, उस समय उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्माजी को पैदा किया और उन्हें सृष्टि रचने का उपदेश दिया। ब्रह्माजी ने वर्ण और आश्रम की व्यवस्था की। फिर यज्ञार्थ सोम रचना की। सोम द्वारा स्वर्ग बना। तत्पश्चात सूर्य, पृथ्वी, अनल, यज्ञ, विष्णु और इंद्र आदि देवता हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे ।

परमात्मा ने जब देवताओं के ज्ञान का हरण कर लिया था, तब सब देवता भगवान रुद्र से पूछने लगे कि आप कौन हैं? 

तब रुद्र देव बोले ;- हे देवगण! मैं पुराण पुरुष त्रिकाल बाधित, भूत, भविष्य, वर्तमान में रहने वाला हूं। मैं ही सबका नियंता हूं। यह कहकर रुद्रदेव अंतर्धान हो गए। देवता आश्चर्यचकित होकर देखने लगे। फिर सोम मंत्र से आराध्य भगवान शिव और देवी पार्वती की वे स्तुति करने लगे।

देवताओं की स्तुति सुनकर देवाधिदेव महादेव जी ने देवी पार्वती सहित उन्हें दर्शन दिए । 

तब अपने सामने पाकर देवता उन्हें प्रणाम करने लगे,,

 और बोले ;- हे स्वामी! हमें अपने पूजन का विधान सुनाइए। यह सुनकर भगवान शिव ने अपने चतुर्मुखी तेजरूप का दर्शन कराया। शिवजी का अद्भुत स्वरूप देखकर देवताओं ने शिवजी को सूर्य और देवी पार्वती को चंद्रमा मानकर अर्घ्य प्रदान किया। तब देवताओं को शिव तत्व का अमृतमय ज्ञान देकर शिव-पार्वती अंतर्धान हो गए।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

नवाँ अध्याय

"शिव शिष्यों का वर्णन"

श्रीकृष्ण बोले ;- हे मुनिवर ! मैंने सुना है कि देवाधिदेव परमेश्वर शिव हर युग में लोक कल्याण के लिए अवतार लेते हैं। इन अवतारों में उन्होंने किसे अपना शिष्य बनाया है? उनके विषय में बताइए। 

   तब मुनि उपमन्यु बोले ;– श्रीकृष्ण जी ! श्वेत, सुतार, मदन, सुहोत्र, कङ्कलौगाक्षि, महामायावी जैगीषव्य, दधिवाह, ऋषभ मुनि, उग्र, अत्रि, सुपालक, गौतम, वेदशिरा मुनि, गोकर्ण, गुहावासी, शिखण्डी, जटामाली, अट्टहास, दारुक, लांगुली, महाकाल, शूली, दण्डी, मुण्डीश, सहिष्णु, सोमशर्मा और नकुलीश्वर - ये वाराह कल्प के इस सातवें मन्वंतर में युग क्रम से अट्ठाईस योगाचार्य प्रकट हुए हैं। इनमें से प्रत्येक के शांतचित्त वाले चार-चार शिष्य हुए हैं, जो श्वेत से लेकर रुष्यपर्यंत बताए गए हैं। 

मैं उनका क्रमशः वर्णन करता हूं, सुनो- श्वेत, श्वेतशिख, श्वेताश्व, श्वेतलोहित, दुंदुभि, शतरूप, ऋचीक, केतुमान, विकोश, विकेश, विपाश, पाशनाशन, सुमुख, दुर्मुख, दुर्गम, दुरतिक्रम, सनत्कुमार, सनक, सनंदन, सनातन, सुधामा, विरजा, शंख, अण्डज, सारस्वत, मेघ, मेघवाह, सुवाहक, कपिल, आसुरि, पंचशिख, वाष्कल, पराशर, गर्ग, भार्गव, अंगिरा, बलबंधु, निरामित्र, केतुशृंग, तपोधन, लंबोदर, लंब, लंबात्मा, लंबकेशक, सर्वज्ञ, समबुद्धि, साध्य, सिद्धि, सुधामा, कश्यप, वसिष्ठ, विरजा, अत्रि, उग्र, गुरुश्रेष्ठ, श्रवण, श्रविष्ठक, कुणि, कुणबाहु, कुशरीर, केनेत्रक, काश्यप, उशना, च्यवन, बृहस्पति, उतथ्य, वामदेव, महाकाल, महानिल, वाचः श्रवा, सुवीर, श्यावक, यतीश्वर, हिरण्यनाभ, कौशल्य, लोकाक्षि, कुथुमि, सुमंतु, जैमिनी, कुबंध, कुशकंधर, प्लक्ष, दार्भायणि, केतुमान, गौतम, भल्लवी, मधुपिंग, श्वेतकेतु, उशिज, बृहदश्व, देवल, कवि, शालिहोत्र, सुवेष, युवनाश्व, शरद्वसु, छगल, कुंभकर्ण, कुंभ, प्रबाहुक, उलूक, विद्युत, शंबूक, आश्वलायन, अक्षपाद, कणाद, उलूक, वत्स, कुशिक, गर्ग, मित्रक और रुष्य-ये योगाचार्यरूपी महेश्वर के शिष्य हैं। इनकी संख्या एक सौ बारह है। ये सब-के-सब सिद्ध पाशुपात हैं। इनका शरीर भस्म से विभूषित रहता है। ये संपूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ, वेद और वेदांगों के पारंगत विद्वान, शिवाश्रम में अनुरक्त, शिवज्ञानपरायण, सब प्रकार की आसक्तियों से मुक्त, एकमात्र भगवान् शिव में ही मन को लगाए रखने वाले संपूर्ण द्वंद्वों को सहने वाले, धीर, सर्वभूतहितकारी, सरल, कोमल, स्वस्थ, क्रोधशून्य और जितेंद्रिय होते हैं, रुद्राक्ष की माला ही इनका आभूषण है।

  उनके मस्तक त्रिपुण्ड से अंकित होते हैं। उनमें से कोई तो शिखा के रूप में ही जटा धारण करते हैं। किन्हीं के सारे केश ही जटारूप होते हैं। कोई-कोई ऐसे हैं, जो जटा नहीं रखते हैं और कितने ही सदा माथा मुड़ाए रहते हैं। वे प्रायः फल-मूल का आहार करते हैं। प्राणायाम साधन में तत्पर होते हैं। 'मैं शिव का हूं' इस अभिमान से युक्त होते हैं। सदा शिव के ही चिंतन में लगे रहते हैं। वे अपनी कठोर साधना से संसार रूपी विषवृक्ष के अंकुर को मथ देते हैं। फलस्वरूप संसार बीज का ही नाश हो जाता है। इसे ही समस्त प्रकार के कर्मों का क्षय कहते हैं - ऐसे में स्थूल सूक्ष्म शरीरों के कारण हमारा शरीर भी विगलित हो जाता है। इसी को मुक्ति और मोक्ष कहते हैं। जो योगाचार्य इस स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं, वे सदा परम धाम में जाने के लिए ही कटिबद्ध होते हैं। जो योगाचार्यों सहित इन शिष्यों को जान-मानकर सदा शिव की आराधना करता वह शिव का सायुज्य प्राप्त कर लेता है, इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिए।

【वायवीय संहिता (उत्तरार्द्ध)】

दसवाँ अध्याय

"शिवोपासना निरूपण"

श्रीकृष्ण जी बोले ;- हे महर्षे ! भगवान शिव से देवी पार्वती ने क्या प्रश्न किया और शिवजी ने उसका क्या उत्तर दिया? 

तब उपमन्यु बोले ;- हे कृष्ण जी ! 

एक दिन पार्वती जी ने,, 

भगवान शिव से पूछा ;– हे स्वामी! आप प्राणीजन पर किस प्रकार प्रसन्न होते हैं? तब शिवजी बोले हे प्रिये! मुझे प्रसन्न करने का एकमात्र साधन श्रद्धा भक्ति है। मैं कर्म, जप, यज्ञ और समाधि से इतना प्रसन्न नहीं होता, जितना भक्तिपूर्ण आराधना से। जिस भक्त के मन में श्रद्धा हो वह मेरा दर्शन, स्पर्श, पूजन एवं मेरे साथ वार्तालाप भी कर लेता है। अतः जो मुझे अपने वश में करना चाहे, उसे पहले मेरे प्रति श्रद्धा करनी चाहिए। श्रद्धा ही स्वधर्म का हेतु है और वही इस लोक में सभी वर्णों की रक्षा करता है। जो अपने वर्णाश्रम के धर्मों का पालन करता है, उसी को मुझ में श्रद्धा होती है, दूसरे को नहीं । धर्म के मार्ग का अनुसरण करके विद्वज्जन की श्रद्धा भावना बढ़ती है। वे जीव, जो एकाग्रचित्त होकर मेरा ध्यान करते हैं, मेरी भक्ति को प्राप्त होते हैं। वर्ण आश्रम पर चलने वाले जीव मोहमाया और पापों से छूटकर शिवलोक को प्राप्त कर लेते हैं। उनकी आत्मा का उद्धार हो जाता है। 

  सनातन धर्म के ज्ञान, क्रिया, चर्या और योग नामक चार पद हैं। भक्तिपूर्वक साधना ज्ञान कहलाती है। छ: मार्गों से किए गए शुद्धि विधान को क्रिया कहते हैं। वर्णाश्रम युक्त विधि से पूजन-अर्चन को चर्या कहा जाता है। मेरी भक्ति में अपने हृदय को लगाकर अन्य वृत्तियों का निरोध करना योग कहलाता है। निर्मल हृदय से भक्तिपूर्वक ध्यान करने से सौ अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। अपनी इंद्रियों को वश में करने वाले विरक्त पुरुषों को ही ज्ञान और मुक्ति प्राप्त होती है।

   तप, कर्म, जप, ध्यान और ज्ञान ये मेरे भजन के पांच प्रकार हैं। पूर्व वासनावश बाह्य अथवा आभ्यंतर जिस पूजन में मन का अनुराग हो, उसी में दृढ़ निष्ठा रखनी चाहिए। बाहरी शुद्धि को शुद्धि नहीं समझना चाहिए। आंतरिक शुद्धि से ही आत्मशोधन होता है। भजन बाह्य हो या आंतरिक, दोनों में ही भाव होना चाहिए। प्रेम और समर्पण के बिना पूजन निरर्थक है।

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