शिव पुराण वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) के ग्यारहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (From the eleventh chapter to the twentieth chapter of Shiv Purana Vayviy Samhita (poorvaarddh))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

ग्यारहवाँ अध्याय

"सृष्टि आरंभ का वर्णन"

ऋषिगण बोले ;- हे वायुदेव ! अब आप हम पर कृपा करके हमें मन्वंतर, कल्प व प्रति सर्ग के बारे में बताइए । 

ऋषिगणों की प्रार्थना सुनकर वायुदेव बोले ;- सर्वप्रथम ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं और उनके एक दिन में चौदह मन्वंतर पूरे हो जाते हैं । मन्वंतर असंख्य हैं। इस समय वराह कल्प है जिसमें चौदह मन्वंतर हैं। इनमें सात को स्वायंभुव और सात को सावर्णिक नाम से जाना जाता है।

  प्रथम कल्प की समाप्ति पर बहुत प्रलयकारी भयंकर हवा चली जिसने वृक्षों को उनके स्थानों से उखाड़ फेंका। उस समय तीनों देवताओं के बीच में अग्नि देवता प्रकट हुए। उन्होंने अग्नि से सबकुछ जला दिया। तत्पश्चात जले हुए पृथ्वी के भाग को वर्षा के जल में डुबो दिया। जब ब्रह्माजी ने देखा कि संसार पानी में डूब गया है और संपूर्ण ब्रह्माण्ड नष्ट हो गया है। चारों ओर अथाह जल दिखाई पड़ रहा है। तब वे भी सुखपूर्वक जल में सो गए।

  जब सृष्टि का आदिकाल होता है, उस समय श्रुतियां ईश्वर को जगाती हैं। तब योगनिद्रा में सोते हुए त्रिदिशाधिपति ब्रह्मा रूप परमेश्वर शिव की सब देवता हाथ जोड़कर स्तुति करते हुए उनसे जागने की प्रार्थना करते हैं । उस समय सबकी प्रार्थना और स्तुति से जागकर परमेश्वर ने योगनिद्रा का त्याग किया और जल शय्या पर बैठकर चारों ओर देखने लगे। जब उन्हें पृथ्वी के जल में डूबने के बारे में ज्ञात हुआ तब उन्होंने वराह रूप का स्मरण किया।

फिर वराह रूप धारण करके उन्होंने समुद्र को झकझोरा और पृथ्वी को वापस लाने के लिए जल के बीच से अंदर चले गए। यह देखकर प्रसन्न देवता उन पर फूलों की वर्षा करने लगे।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

बारहवाँ अध्याय

"सृष्टि वर्णन"

  वायुदेव बोले ;— हे ऋषिगण! ब्रह्माजी को सृष्टि की चिंता हुई और तपोमय मोह पैदा होने से अंधेरा छा गया। उस समय आत्मा वाली सृष्टि पैदा हुई। पर ऐसी सृष्टि देखकर ब्रह्माजी व्याकुल हो गए और उन्होंने दूसरी सृष्टि की रचना की। यह सृष्टि पक्षियों की थी और पैदा होते ही कुमार्ग पर पड़ गई। तब ब्रह्माजी ने तीसरी बार सात्विक अर्थात देवताओं की सृष्टि की रचना की परंतु इस सृष्टि से भी ब्रह्माजी को संतोष नहीं हुआ तब उन्होंने मानव सृष्टि का निर्माण किया। यह सृष्टि सुंदर और रजोगुण वाली थी ।

  ब्रह्मा जी द्वारा रचित प्रथम सृष्टि महत्, दूसरी भूत सृष्टि, तीसरी वैकारिक इंद्रिय प्राकृतिक सृष्टि कहलाई। चौथी सृष्टि मुख्य, पांचवीं वक्र स्रोत, छठी ऊर्ध्व स्रोत से देव सृष्टि, सातवीं मानव सृष्टि, आठवीं सृष्टि अनुग्रह वाली, नौवीं कुमार सृष्टि कहलाई । सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने सनक, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार तथा ऋभु मानस पुत्र पैदा किए। ये सभी योगमार्ग गामी हुए। इस प्रकार, जब सृष्टि की वृद्धि न हुई तब दुखी होकर ब्रह्माजी ने तपस्या करनी आरंभ कर दी परंतु जब बहुत समय बीत जाने पर भी कोई फल न मिला तब ब्रह्माजी क्रोधित हो गए। क्रोधाधिक्य के कारण उनकी आंखों में आंसू आ गए, जिससे भूत-प्रेत पैदा होने लगे।

  यह सब देखकर दुखी ब्रह्माजी ने देह त्याग दी। तब ब्रह्माजी को प्रसन्न करने हेतु भगवान रुद्र उनके मुख से पैदा हुए। भगवान रुद्र ने अपने शरीर से ग्यारह स्वरूप पैदा कर दिए और उन्हें प्रजा रचने की आज्ञा दी। यह सुनकर सभी रुद्र रोते हुए वहां से भागने लगे । तत्पश्चात महेश्वर ने ब्रह्माजी को पुनर्जीवित कर दिया। ब्रह्माजी ने रुद्र से प्रश्न पूछा कि आप कौन हैं? 

तब रुद्र बोले ;- मैं ही परमब्रह्म परमेश्वर हूं और तुम्हारी इस सृष्टि में तुम्हारे पुत्र जन्मा हूं। अब आप अपनी इस सृष्टि की रचना को पूर्ण कीजिए ।

   के रूप में यह सुनकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए, वे शिव नामाष्टक का जाप करते हुए रुद्र की स्तुति करने लगे और प्रार्थना करने लगे कि सृष्टि निर्माण के कार्य में आप मेरे सहायक बनें। जब रुद्रदेव ने अपनी सहमति दे दी तब ब्रह्माजी ने अपने मन में मरीचि आदि बारह पुत्र पैदा किए। इनमें देवताओं और क्रियात्मक महर्षियों के बारह वंश मिले। तत्पश्चात ब्रह्मा के मुख से देवता, गले से पितर, जांघों से दैत्य, गर्भ से मानव, उपस्थेंद्रिय से राक्षस पैदा हुए। ये निशाचर राक्षस बलवान थे। फिर यज्ञ, भूत और गंधर्व की उत्पत्ति हुई । ब्रह्माजी की दोनों कांखों से पक्षी, वक्ष से अन्य पक्षी, मुख से बकरी, पांव से घोड़े, हाथी, शलभ, मृग, ऊंट, खच्चर, नेवले आदि ने जन्म लिया।

ब्रह्माजी के पूर्व मुख से गायत्री, दक्षिण मुख से यजुर्वेद, पश्चिम मुख से सामवेद, उत्तर मुख से अथर्ववेद की उत्पत्ति हुई। फिर देह द्वारा इनके अनेक भेद हो गए और ये अपने काम में लग गए। सब अपने कर्मों के अनुसार जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़कर फल भोगने लगे। सभी

प्राणियों के कर्मों के अनुसार उन्हें सुख, दुख, धन, आय-व्यय, संपत्ति आदि की प्राप्ति होती है। युग एवं समय के अनुसार ही प्राणियों के गुण, कर्म व स्वभाव होते हैं।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

तेरहवाँ अध्याय

 "ब्रह्मा-विष्णु की सृष्टि का वर्णन"

ऋषि बोले ;- हे वायुदेव ! सृष्टि का आरंभ होने पर पहले महेश्वर ब्रह्मा और विष्णु को उत्पन्न करते हैं। फिर अपनी लीला के अनुसार संसार की रचना करते हैं फिर प्रलय आने पर सबका विनाश कर देते हैं। इस अनुसार तो महेश्वर ही सर्वशक्तिमान हैं फिर वे ब्रह्माजी के किस प्रकार हो सकते हैं? कृपा कर हमारे इस संदेह को दूर कीजिए ।

 पुत्र ऋषियों के वचन सुनकर,,

 वायुदेव बोले ;- हे मुनियो ! महेश्वर ने इस सृष्टि के निर्माण, पालन और संहार के लिए ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र को उत्पन्न किया। यह सब तो उनकी लीलाएं हैं, जो कि विभिन्न कल्पों में बदलती रहती हैं। किसी कल्प में ब्रह्मा विष्णु और रुद्र को उत्पन्न करते हैं तो किसी में विष्णु ब्रह्मा और रुद्र को प्रकट करते हैं। किसी कल्प में तीनों एक-दूसरे को प्रकट करते हैं।

   मेघ वाहन कल्प में श्रीहरि विष्णु ने मेघ रूप में दस हजार वर्षों तक पृथ्वी को धारण किए रखा। तब प्रसन्न होकर महेश्वर ने विष्णुजी को अव्यय शक्ति प्रदान की । यह देखकर ब्रह्माजी के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गई। उन्होंने विष्णुजी को वहां से भेज दिया और स्वयं भगवान महेश्वर की शरण में पहुंच गए। महेश्वर को प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे और बोले प्रभु! आपने ही अपने वाम अंग से विष्णु और दक्षिण अंग से मुझ ब्रह्मा को पैदा किया है। फिर हम दोनों शक्ति और सामर्थ्य में भिन्न क्यों हैं? क्या विष्णु मुझसे अधिक आपके भक्त हैं? भगवन्! कृपा कर इस अंतर को दूर करें।

  ब्रह्माजी की प्रार्थना और स्तुति से प्रसन्न होकर महेश्वर ने उन्हें विष्णुजी के समान शक्ति प्रदान कर दी। प्रसन्न होकर ब्रह्माजी विष्णुजी के पास पहुंचे। उस समय विष्णु जी क्षीर सागर में योगनिद्रा में शयन कर रहे थे। ब्रह्माजी ने उन्हें योगनिद्रा से जगाने का बहुत प्रयत्न किया, परंतु वे न जागे। तब क्रोधित होकर ब्रह्माजी विष्णु जी की शय्या में चढ़कर उन्हें अपनी छाती से लगाने लगे। उसी समय विष्णुजी वहां से अंतर्धान हो गए। जब लक्ष्मीजी को विष्णुजी कहीं न दिखाई दिए तो वे भी अंतर्धान हो गईं।

तब ब्रह्माजी की भृकुटियों के मध्य से विष्णुजी प्रकट हो गए और फिर उनमें द्वंद्व युद्ध होने लगा। यह सब भगवान शिव भी बिना प्रकट हुए देखने लगे परंतु जब ब्रह्मा-विष्णु का युद्ध किसी भी तरह समाप्त नहीं हुआ तब वे उन दोनों के मध्य प्रकट हो गए। शिवजी की कृपा से उन दोनों के क्रोध का निवारण हो गया।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

चौदहवाँ अध्याय

"रुद्र की उत्पत्ति"

वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगण ! जब ब्रह्माजी ने विभिन्न कल्पों में यह देखा कि मेरे द्वारा रचित इस सृष्टि का विकास नहीं हो रहा है अर्थात वह बढ़ नहीं रही है, तब वे बहुत दुखी हुए। तब उनका दुख मिटाने के लिए महेश्वर की इच्छा से काल स्वरूप रुद्र भगवान ब्रह्मा के पुत्र के रूप में जन्मे। ब्रह्माजी की प्रार्थना पर उन्होंने ब्रह्माजी द्वारा रचित इस सृष्टि का विस्तार करना चाहा। ऐसा सोचकर रुद्रदेव ने अपने जटाधारी स्वरूप जैसे अनेक रुद्र प्रकट कर दिए। वे संख्या में अधिक होने के कारण पूरे विश्व पर छा गए। वे सभी रूप में बहुत भयानक थे।

  इन भयानक स्वरूप वाले रुद्रों का रूप देखकर ब्रह्माजी बहुत चिंतित हो गए और हाथ जोड़कर,,

 महेश्वर से बोले ;- हे देवाधिदेव ! ये आप क्या कर रहे हैं? हमें भयानक सृष्टि की रचना नहीं करनी है। हमें तो साधारण प्रजा की रचना करनी है। जो पैदा होती रहे और मरती भी रहे।

ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव हंसने लगे और,,

शिव जी बोले ;-- ब्रह्माजी! मैं तो ऐसी ही सृष्टि की रचना कर सकता हूं। यदि तुम्हें यह नापसंद है तो तुम स्वयं अपनी इच्छा के अनुसार प्रजा की रचना करो । यह कहकर कल्याणकारी भगवान शिव सृष्टि की रचना के कार्य से मुक्त होकर वहां से चले गए।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

पंद्रहवाँ अध्याय

"शिव-शिवा की स्तुति"


वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगण ! शिवजी के वहां से चले जाने के पश्चात ब्रह्माजी ने स्वयं सृष्टि की रचना की परंतु उस सृष्टि में प्रजा की वृद्धि नहीं हो रही थी सृष्टि में वृद्धि न होती हुई देखकर ब्रह्माजी भी बहुत दुखी हुए। तब वे अपने आराध्य भगवान शिव और देवी शिवा की तपस्या करने लगे।

  ब्रह्माजी की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने उन्हें दर्शन दिए। ब्रह्माजी ने उन्हें सृष्टि में प्रजा की वृद्धि न होने के विषय में बताया। भगवान शिव और देवी पार्वती ने मिलकर उनकी समस्या का निवारण किया। शिवजी ने उन्हें अपने अर्द्धनारीश्वर स्वरूप के दर्शन कराए। भगवान शिव के अर्द्धनारीश्वर स्वरूप के दर्शन कर ब्रह्माजी की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। वे हाथ जोड़कर भगवान शिव - शिवा की स्तुति करने लगे । 

ब्रह्माजी बोले ;– हे देवाधिदेव भगवान शिव ! हे जगदंबा मां पार्वती ! आप अमोघ लीलाएं करने वाले हैं। आपका वैभव निराला है। मैं आपकी शरण में आया हूं। कृपा कर मुझ दीन पर अपनी कृपादृष्टि करें। इस प्रकार ब्रह्माजी भगवान शिव - शिवा की अनेकों स्तोत्रों से स्तुति करने लगे।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

सोलहवाँ अध्याय

"मैथुनी सृष्टि की उत्पत्ति"

वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगण ! जब ब्रह्माजी ने विभिन्न स्तोत्रों से स्तुति की और भगवान शिव-शिवा को प्रसन्न कर लिया तब शिवजी बोले- ब्रह्मदेव ! मैं आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करूंगा। तब शिवजी ने अर्द्धनारीश्वर स्वरूप से देवी महेश्वरी को अलग कर दिया। साक्षात देवी जगदंबा को अपने सामने पाकर ब्रह्माजी ने उनसे प्रार्थना की।

ब्रह्माजी बोले ;- हे देवी भगवती ! मैंने मन द्वारा देवताओं और ऋषियों की रचना की परंतु मेरे द्वारा रचित सृष्टि का विस्तार नहीं हो रहा है। इसलिए मैं मैथुनी सृष्टि रचना चाहता हूं। यह तभी संभव हो सकता है, जब सृष्टि में नारी का भी अंश हो मुझ पर कृपा कर आप मेरे प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लें और सृष्टि को वृद्धि प्रदान करें। पुत्र ब्रह्माजी की प्रार्थना से संतुष्ट होकर देवी ने अपनी भृकुटियों के मध्य से एक शक्ति उत्पन्न की।

 देवी ने उस शक्ति को ब्रह्माजी की इच्छा पूरी करने का आदेश प्रदान किया और स्वयं महेश्वर जी में समा गईं। तब भगवान महेश्वर अंतर्धान हो गए। इस प्रकार ब्रह्माजी को ब्रह्मरूप शक्ति प्राप्त हुई। उस शक्ति ने ब्रह्माजी की इच्छा के अनुसार दक्ष के घर जन्म लिया। तभी से मैथुनी सृष्टि का आरंभ हुआ।


【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

सत्रहवाँ अध्याय

"मनु की सृष्टि का वर्णन"

वायुदेव बोले ;- ऋषिगण ! भगवान महेश्वर की कृपा से ब्रह्माजी ने आधे शरीर से शतरूप नामक नारी उत्पन्न की और आधे से भुव मनु को पैदा किया। उसी कन्या ने यशस्वी मनु को पति के रूप में पाया। इन्होंने मैथुन द्वारा प्रियव्रत, उत्तानपाद नामक पुत्र एवं आकृति, देवहूति, प्रसूति नामक कन्याएं पैदा कीं। आक्रूति और रुचि के दक्षिण और यज्ञपुरुष नामक दो पुत्र पैदा हुए और प्रसूति व दक्ष की चौबीस कन्याएं हुईं। जिनमें तेरह कन्याओं का विवाह धर्म के साथ हुआ तथा अन्य का विवाह दशा, भृगु, मरीचि, अंगिरा, पुलह, कृतु, पुलस्त्य, अत्रि, वशिष्ठ एवं अग्नि के साथ हुआ।

   ऊर्जा तीन पितरों को समर्पित हुई । धर्म को तेरह पुत्रों की प्राप्ति हुई । दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में सती का जन्म हुआ और उसने देवाधिदेव भगवान शिव को पति रूप में पाया। अपने पिता के यज्ञ में पति का निरादर देखकर उसने योगाग्नि में अपने को भस्म कर लिया। फिर पुनः हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लेकर शिवजी को प्राप्त किया। भृगु ऋषि के दो पुत्र हुए व उन दोनों के हजारों पुत्र हुए। ये सभी भार्गव वंशी कहलाए। ऋषि मरीचि को पौर्णमास नामक पुत्र की प्राप्ति हुई और इनका बहुत बड़ा वंश हुआ। इसी वंश में कश्यप ऋषि पैदा हुए। अंगिरा ऋषि के दो पुत्र व चार पुत्रियां हुईं और उनकी बहुत सी संतानें हुईं। के अग्नि पुत्र पैदा हुए और इसी वंश की संतानें पौलस्त्य कहलाईं। इसी प्रकार कर्दम, पुलस्त्य के अग्नि वालखिल्य, अत्रि एवं मुनि वशिष्ठ के सैकड़ों अरब संख्या में संतानें हुईं।

   ब्रह्माजी के मानस पुत्र रुद्र के पुत्र अग्नि को पावन, पवमान, शुचि पुत्र हुए और इनके उनचास पुत्र हुए। ये नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य होने के कारण रुद्र परायण हैं। इसलिए अग्नि में होम की गई वस्तु रुद्र देव को प्राप्त होती है। पितृ वंश के वसंत आदि छः ऋषि पितरों के स्थान हैं। अग्निस्वंत, अज्यवान और यज्वान बर्हिषद है। स्वधा से मैना नामक पुत्री हुई, जिसका विवाह गिरिराज हिमालय से हुआ। उनके मैनाक और क्रौंच नामक दो पुत्र एवं मा एवं पतित पावनी गंगा नामक दो पुत्रियां हुईं। भगवान रुद्र के शाप से चाक्षुष मन्वंतर में क्ष प्रजापति इनके पुत्र हुए। इस प्रकार मैंने धर्म आदि के वंश का वर्णन आपसे संक्षेप में किया।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

अठारहवाँ अध्याय

"दक्ष का शाप"

वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगण ! एक बार की बात है सभी देवता और ऋषि-मुनि भगवान शिव के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए। उस समय देवाधिदेव महादेव जी देवी सती के साथ सिंहासन पर विराजमान थे। उसी समय दक्ष अपनी पुत्री से मिलने के लिए कैलाश पर्वत पर पहुंचे परंतु देवी सती को अपने पिता के आगमन का ध्यान नहीं रहा। इसी कारण दक्ष क्रोधित हो उठे और उन्होंने महायज्ञ में अपनी पुत्री सती और भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया।

   देवर्षि नारद घूमते-घूमते कैलाश पर पहुंचे और देवी सती को उनके पिता के यज्ञ के विषय में बताया। उन्होंने देवी सती को यह भी कहा कि दक्ष ने इस यज्ञ में सभी ऋषि-मुनियों एवं देवताओं को आमंत्रित किया, परंतु आपको और भगवान शिव को नहीं बुलाया है।

  यह सुनकर देवी सती को बहुत दुख हुआ। उन्होंने भगवान शिव से अपने पिता द्वारा किए जा रहे यज्ञ में जाने की आज्ञा मांगी। शिव ने सती को बहुत समझाया कि बिना बुलाए उनका अपने पिता के घर जाना भी व्यवहार की दृष्टि से उचित नहीं है। लेकिन सती ने तो वहां जाना ठान लिया था। वह शिव का अपमान करने के लिए अपने पिता को भी दंडित करना चाहती थी। तब वे अपने पति की आज्ञा लेकर नंदी पर सवार होकर अपने पिता के यज्ञ में पहुंचीं। यज्ञ में सती को देखकर उसके पिता को बहुत क्रोध आया। 

सती बोलीं ;- हे पिताजी! मैं आपकी कन्या हूं। आपने मुझे यज्ञ में क्यों नहीं बुलाया ? मेरे पति शिव तो सबके स्वामी हैं, यह चराचर जगत उन्हीं की अनुकंपा से चलता है, उन्हें तो आपने पूछा भी नहीं । आपने उनका अपमान करके अच्छा नहीं किया।

देवी सती के वचन सुनकर ,,

दक्ष अत्यंत क्रोधित होकर बोले ;- मेरी अन्य सभी कन्याएं व उनके पति सुपात्र एवं पूजनीय हैं। सब देवता तथा ऋषि-मुनि भी पूजनीय हैं। इसलिए वे सब यज्ञ में आमंत्रित किए गए हैं परंतु तुम और तुम्हारा पति इस यज्ञ में आने योग्य नहीं हो ।

अपने पिता के ऐसे वचन सुनकर सती को बहुत दुख हुआ और वे बोलीं- शिव निंदा सुनना शिवद्रोह करना है। मैं अपने पति की निंदा नहीं सुन सकती । यह कहकर उन्होंने योगाग्नि में अपने शरीर को भस्म कर दिया।

उधर, जब शिवजी को पता चला कि उनकी पत्नी का यज्ञ में अपमान हुआ है, तब उन्होंने दक्ष को शाप दे दिया। उसी शाप के फलस्वरूप चाक्षुष मन्वंतर में दक्ष प्रचेता के पुत्र के रूप में जन्मे और दक्ष के अन्य जामाता वैवस्वत मन्वंतर में भी वरुण देहधारी के रूप में पैदा हुए।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

उन्नीसवाँ अध्याय

"वीरगण का यज्ञ में जाना"


ऋषिगण बोले ;- हे वायुदेव ! प्रजापति दक्ष तो धर्म के कार्य में लगकर महायज्ञ कर रहे थे। फिर भगवान शिव ने उनका यज्ञ क्यों भंग किया? कृपा कर इस कथा को बताइए।

 तब ऋषिगणों की जिज्ञासा शांत करने के लिए,,

 वायुदेव बोले ;- हे ऋषियो ! गिरिराज हिमालय की तपस्या के फलस्वरूप देवी जगदंबा ने उनके घर में जन्म लिया और श्री पार्वती का विवाह भगवान शिव से हो गया।

  प्रजापति दक्ष ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। उस यज्ञ में वसु, मरुद्गण, अश्विनी कुमार, पितर, आदित्य, विष्णु आदि सभी देवता एवं ऋषि-मुनियों को आमंत्रित किया परंतु भगवान शिव को नहीं बुलाया। जब परम शिव भक्त दधीचि ने उस यज्ञ में शिवजी को उपस्थित नहीं देखा, तब उन्हें ज्ञात हुआ कि शिवजी को निमंत्रित नहीं किया गया है। वे क्रोधित होकर बोले- इस यज्ञ में जगत के स्वामी भगवान शिव को क्यों आमंत्रित नहीं किया गया? वह पूजनीयों के भी पूजनीय हैं। फिर तुम उनका पूजन क्यों नहीं कर रहे हो? दधीचि ऋषि के इन वचनों को सुनकर,,

 दक्ष बोले ;- हे ब्रह्मर्षे ! यहां ग्यारह रुद्र तो उपस्थित हैं और अन्य रुद्रों को हम नहीं जानते। इस यज्ञ के अधिष्ठाता श्रीहरि विष्णु हैं। तब क्रोधित दधीचि यज्ञ को छोड़कर चले गए। उधर भगवान शिव ने यह जानकर कि उनकी प्राणवल्लभा का यज्ञ में अपमान हो रहा है, वीरभद्र नामक गण को उत्पन्न किया। वीरभद्र हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम करके उनकी स्तुति करते हुए,,

 वीरभद्र बोला ;- हे देवाधिदेव ! मेरे लिए क्या आज्ञा है? 

भगवान शिव ने उसे आदेश देते हुए कहा ;- हे वीरभद्र ! तुम अपने योद्धाओं के साथ प्रजापति दक्ष के यज्ञ में जाओ और यज्ञ का विध्वंस कर दो। फिर दक्ष को भी नष्ट कर देना । देवाधिदेव की यह आज्ञा पाकर वीरभद्र ने अपने शरीर से हजारों-करोड़ों गण उत्पन्न किए। फिर आनंदपूर्वक यज्ञ का विध्वंस करने के लिए सेना सहित चल पड़ा।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

बीसवाँ अध्याय

"दक्ष यज्ञ का वर्णन"


वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगण ! वीरभद्र अपने गणों के साथ प्रजापति दक्ष के यज्ञ में पहुंच गए। उस समय वेद मंत्रों के घोष से पूरा यज्ञ मंडप गूंज रहा था। वहां पहुंचकर वीरभद्र ने सिंह गर्जना की। वीरभद्र की इस भीषण गर्जना से हाहाकार मच गया। देवता एवं ऋषि-मुनि अपनी प्राण रक्षा के लिए इधर-उधर भागने लगे। सारी भीड़ तितर-बितर हो गई परंतु दक्ष पूर्ववत ही यज्ञ में बैठा रहा।

 वीरभद्र जब प्रजापति दक्ष के सामने पहुंचा तो वह क्रोध भरे स्वर में बोले ;- तुम कौन हो ? और यहां पर क्यों आए हो? यहां से शीघ्र ही चले जाओ अन्यथा अच्छा नहीं होगा।

प्रजापति दक्ष के वचन सुनकर वीरभद्र बोला ;- ऐ मूर्ख दक्ष ! तुम्हें अत्यधिक विद्वान मानते हैं। तुम वेद-शास्त्र के ज्ञाता हो। लेकिन मुझे तो ऐसा नहीं लगता। मुझे तो तुम अहंकार का मूर्तरूप दिखाई दे रहे हो। इस अहंकार ने तुम्हारी सोचने-विचारने की शक्ति को हर लिया है। मैं तुम्हारी उसी बुद्धि को सही करने आया हूं। जिस मंत्र द्वारा तुमने देवाधिदेव, सर्वेश्वर, कल्याणकर्ता भगवान शिव का पूजन नहीं किया, अब उसका उच्चारण बार-बार क्यों कर रहे हो ? 

फिर वह फुफकारता हुआ विष्णुजी एवं अन्य देवताओं की ओर मुख करके,,

वीरभद्र बोला ;- क्या तुम देवताओं की भी मति मारी गई है या तुम्हें भी अपने बल का अभिमान हो गया है, जो त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का अनादर देखकर भी चुपचाप मूकदर्शक बने खड़े हो । दक्ष को समझाने की जगह तुम भी उसकी 'हां' में 'हां' मिला रहे हो। यहां मैं तुम्हारा घमंड नष्ट करने के लिए ही आया हूं।

यह कहकर वीरभद्र ने अपनी आंखों से अग्नि प्रकट की, जिससे यज्ञमंडप जलने लगा। , उसने वहां उपस्थित सभी यज्ञकर्ताओं को रस्सी से बांध दिया। यज्ञ पात्र तोड़ डाले। वीरभद्र के अन्य गण देवताओं को मारने लगे और यज्ञ भूमि में उपद्रव करने लगे उन्होंने पूरा यज्ञ तहस-नहस कर दिया। सभी अपनी प्राण रक्षा के लिए इधर-उधर भागने लगे।

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