शिव पुराण वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) के पहले अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the first to the tenth chapter of the Shiva Purana Vayviy Samhita (poorvaarddh))


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

प्रारंभ

प्रथम अध्याय

"पुराणों और विद्यावतार का वर्णन"

व्यास जी कहते हैं ;- जो जगत की सृष्टि, पालन और संहार करने वाले हैं, उन भगवान शंकर को मैं प्रणाम करता हूं। जिनकी शक्ति अद्वितीय है, जो संसार की हर वस्तु में विद्यमान हैं अर्थात सर्वव्यापक हैं, उन विश्वकर्ता, अविनाशी भगवान शिव की मैं शरण में हूं।

  जब गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम स्थल प्रयाग में नैमिषारण्य में ऋषिगणों ने यज्ञ का अनुष्ठान किया तब व्यास मुनि के पुत्र सूत जी उस स्थान पर गए थे। उन्हें वहां देखकर मुनि प्रसन्न हो गए। उन्हें यथायोग्य आसन पर बैठाकर उनका सत्कार और पूजन किया।

  ऋषिगण बोले ;- हे सर्वज्ञ सूत जी ! आप महर्षि व्यास जी के शिष्य होने के कारण सब कथाओं और रहस्यों को जानते हैं। हम पर कृपा करके हमें भी दिव्य कथा सुनाइए । ऋषिगण की प्रार्थना सुनकर सूत जी ने मन ही मन भगवान शिव एवं देवी पार्वती का स्मरण किया ओर,,

   सूत जी बोले ;- हे ऋषिगण ! अब मैं आपको पुराणों के प्रकट होने का वृत्तांत सुनाता हूं। श्वेत कल्प में वायुदेव द्वारा कहे गए वचन ही न्यास से पूर्ण व शास्त्रों से शोभित होकर पुराण कहे जाते हैं। चार वेद, छः शास्त्र, मीमांसा, न्याय, धर्मशास्त्र एवं पुराण आदि चौदह विद्याएं हैं। आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद और अर्थशास्त्र से मिलकर ये अट्ठारह हो जाती हैं। देवाधिदेव भगवान शिव ही इन अट्ठारह विद्याओं के उत्पादक हैं।

   संसार की उत्पत्ति के समय सर्वप्रथम ब्रह्माजी उत्पन्न हुए जिन्हें ये अट्ठारह विद्याएं प्रदान कीं। उनकी रक्षा के लिए विष्णु को शक्ति प्रदान की । श्रीविष्णु जी ब्रह्मा की रक्षा करने वाले मध्य पुत्र हैं। ब्रह्मा के चार मुखों से चार वेद उत्पन्न हुए। तत्पश्चात उनके चार मुखों से शास्त्र उत्पन्न हुए। ब्रह्माजी के मुख से उत्पन्न हुए इन शास्त्रों को पढ़ना अत्यंत कठिन है। इसलिए मनुष्यगणों को वेदों और शास्त्रों का ज्ञान प्रदान करने हेतु भगवान शिव की कृपा से द्वापर युग में श्रीहरि विष्णु के रूप में व्यास जी अवतरित हुए। उन्होंने द्वैपायन नाम से द्वापर में जन्म लिया और वेद व्यास नाम से जगप्रसिद्ध हुए। उन्होंने सभी पुराणों की रचना की। संक्षेप में उन्होंने चार लाख श्लोकों की रचना की।

   ब्रह्म, पद्म, विष्णु, शिव, भागवत, भविष्य, नारद, मार्कण्डेय, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, लिंग, वराह, बामन, कूर्म, मत्स्य, गरुड़, ब्रह्माण्ड, स्कंद आदि कुल अट्ठारह पुराण हैं। शिव पुराण के धर्म तथा विधि के अनुसार पूजन एवं आराधना से सब मनुष्य तथा देवताओं को शिवलोक की प्राप्ति होती है।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

दूसरा अध्याय

"ब्रह्माजी से मुनियों का प्रश्न पूछना"

सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! वराह कल्प में ऋषिगणों के मध्य विवाद छिड़ गया कि परब्रह्म कौन है? जब इस बात का निर्णय न हो सका तब सब ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने ब्रह्माजी को प्रणाम करके उनकी स्तुति आरंभ कर दी। 

तब ब्रह्माजी ने उनसे पूछा ;- हे ऋषिगण ! आपके यहां आने का क्या प्रयोजन है?

ब्रह्माजी के प्रश्न को सुनकर ऋषिगण बोले ;- हे ब्रह्माजी ! हम संदेह रूपी अज्ञान के अंधेरे में पड़ गए हैं। इसलिए हम सब बहुत व्याकुल हैं। हम पर कृपा करके हमारे संदेह को दूर करें। हम सब यह जानना चाहते हैं कि अविनाशी, नित्य, शुद्ध चित्त स्वरूप परब्रह्म परमात्मा कौन है? अपनी लीला से संसार को रचकर इस संसार का सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता कौन है?

ऋषिगणों का यह प्रश्न सुनकर ब्रह्माजी ने त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी देवाधिदेव महादेव जी का स्मरण करके उन्हें बताया।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

तीसरा अध्याय

"नैमिषारण्य कथा"

ब्रह्माजी बोले ;- हे ऋषियो ! जिसने ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र सहित पूरे संसार को रचा है, जिनकी कृपादृष्टि पाकर संसार के सभी प्राणी भयमुक्त हो जाते हैं, जो सब इंद्रियों के मूल हैं, जिनकी कृपा से मुझे प्रजापति पद प्राप्त हुआ है, जो सब पर शासन करने वाले हैं, जिनकी कृपा से सूर्य, चंद्र, अग्नि, बिजली सहित पूरा संसार प्रकाशित होता है, वे परम ब्रह्म और कोई नहीं, स्वयं शिव ही हैं। इनकी अनंत महिमा को कोई नहीं जान सकता।

    त्रिलोकीनाथ, कल्याणकारी भगवान शिव ही निपुण, उदार, गंभीर, माधुर्य, मकरंद से सभी प्राणियों के स्वामी और अद्भुत लीला करने वाले हैं। उन्होंने ही इस संसार को उत्पन किया है। प्रलय काल में ही वे सारे ब्रह्माण्ड को अपने अधीन कर अपने में विलीन कर लेते हैं। भगवान शिव का सच्चे मन से पूजन और आराधन करने वाले को प्रभु का दर्शन प्राप्त होता है।

  भगवान शिव के तीन रूप हैं- स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्म से सूक्ष्म ।

 स्थूल रूप को देवता, सूक्ष्म रूप को योगीजन और तीसरे अर्थात अत्यंत सूक्ष्म रूप को शिवजी के परम भक्त और शिव व्रत का उत्तम पालन करने वाले ही देख सकते हैं। धर्म का विशेष ज्ञान हो जाने पर अधर्म का नाश हो जाता है और फिर शिवजी की अचल भक्ति प्राप्त हो जाती है। भगवान शिव की कृपा से कर्म के बंधनों से मुक्ति मिल जाती है तथा मनुष्य शिव धर्म में प्रवृत्त हो जाता है। 

धर्म दो प्रकार का होता है— गुरु अपेक्षित तथा गुरु अनपेक्षित ।

   गुर अपेक्षित धर्म द्वारा ही शिव धर्म में प्रवृत्त होकर शिव ज्ञान की प्राप्ति होती है और मनुष्य सांसारिक मोह माया को त्यागकर भाव साधन में लग जाता है। तत्पश्चात ज्ञान और ध्यान से युक्त होकर मनुष्य योग में प्रवृत्त हो जाता है। योग से भक्ति, भक्ति से शिवजी की कृपा और उनकी कृपा से संसार से मुक्ति मिल जाती है। तब मनुष्य शिवधाम एवं शिवपद को प्राप्त कर लेता है।

   इसलिए ऋषिगण आप सबको मन और वाणी को शुद्ध करके परमात्मा शिव के ध्यान में लग जाना चाहिए। यज्ञों और मंत्रों द्वारा आवाहन करने से वायुदेव आपके पास आएंगे, उसी से तुम्हारा कल्याण होगा। फिर आप सब पवित्र वाराणसी नगरी में चले जाना क्योंकि वहीं पर पिनाकधारी शिव देवी पार्वती जी के साथ विराजमान हैं।

  इस समय मैं मनोमय चक्र को छोड़ रहा हूं। इस चक्र की नेमि जहां टूटे उसी स्थान पर आप महायज्ञ आरंभ करना । यह कहकर ब्रह्माजी ने शिवजी का स्मरण करते हुए सूर्य के समान चमकते दिव्य अलौकिक चक्र को फेंक दिया। सब ऋषियों ने ब्रह्माजी को प्रणाम कर चक्र के पीछे चलना आरंभ कर दिया। वह चक्र बहुत दूर चलकर एक बड़ी शिला से टकराया और उसकी नेमि टूट गई। तब वही स्थान नैमिषारण्य नाम से विख्यात हुआ। ऋषिगणों ने उसी स्थान पर महायज्ञ करने की दीक्षा ग्रहण की।

    एक समय की बात है राजा पुरुरुवा रानी उर्वशी के साथ विहार करता हुआ उस स्थान पर पहुंचा। पुरुरुवा अट्टारह समुद्र द्वीपों का स्वामी होते हुए भी उस भूमि को पाने के लिए ललचा गया। मोहित होकर वह उस भूमि को उनसे छीनने लगा। तब मुनिगण ने क्रोध में राजा पर कुशा का प्रहार किया और राजा को मार गिराया । इसी भूमि खंड पर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की थी। इस भूमि खण्ड को पाकर ऋषिगण बहुत प्रसन्न और आनंदित हुए।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

चौथा अध्याय

"वायु आगमन"

   सूत जी बोले ;- ऋषिगण ! उन भाग्यशाली ऋषियों ने नैमिषारण्य क्षेत्र में भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए दस हजार वर्ष तक यज्ञ किया। तब ब्रह्माजी से प्रेरित होकर वायुदेव ने उन्हें दर्शन दिए। उन्हें अपने सामने पाकर ऋषिगण बहुत प्रसन्न हुए। ऋषिगण ने वायुदेव को उत्तम आसन देकर उनका बहुत आदर सत्कार किया।

  वायुदेव बोले ;- ऋषिगण ! भगवान शिव की परम कृपा से आपका यज्ञ निर्बाध गति से चल रहा है। कोई राक्षस अथवा महादैत्य यज्ञ में विघ्न नहीं कर रहा है। फिर भी, क्या आपको इस यज्ञ में कोई कष्ट हुआ है? आपने शास्त्र - स्तोत्र से देवताओं और पितृ कर्मों से पितरों को पूजकर यज्ञ को विधि-विधान से पूर्ण कर लिया है?

   तब वायुदेव के इन प्रश्नों का उत्तर देते हुए ऋषिगण बोले ;- हे वायुदेव ! हमने अपने अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करने के लिए ब्रह्माजी की आराधना की थी। तब उन्होंने प्रसन्न होकर हमें इस महायज्ञ को करने के लिए कहा था। उन्होंने ही हमें ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र एवं देवों के स्वामी परब्रह्म परमेश्वर, कल्याणकारी भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए शिव मंत्र जपने की आज्ञा दी थी। आपके शुभागमन के विषय में भी ब्रह्माजी ने बताया था। आपने यहां पधारकर हमारे महायज्ञ को पूर्ण कर दिया। आपके दर्शन पाकर हम सबका जीवन सफल हुआ और हम सब कृतार्थ हुए।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

पाँचवाँ अध्याय

"शिवतत्व वर्णन"

ऋषि बोले ;- हे वायुदेव ! आप हम सबको यह बताएं कि आपको यह ईश्वरीय ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ है? जिनका जन्म अभी तक अप्रकट है, ऐसे ब्रह्माजी से आपने शिव भाव को कैसे प्राप्त किया? प्रभु ! हमारी इस जिज्ञासा को शांत करें और हमें ज्ञान प्रदान करें।

   ऋषिगण के वचन सुनकर वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगण ! इक्कीसवें श्वेत रूप नामक कल्प में ब्रह्माजी ने ब्रह्माण्ड की रचना करने के लिए भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तपस्या की। तब उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर कल्याणकारी शिव ने उन्हें अपने स्वरूप के दर्शन दिए। तत्पश्चात उन्हें परम शिव तत्व ज्ञान का उपदेश दिया। अपनी तपस्या के प्रभाव से ही मुझे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई है।

  सर्वप्रथम मुझे पशु पाशपति संज्ञक ज्ञान प्राप्त हुआ। इस ज्ञान को वस्तु विनाशक माना जाता है। चेतन और प्रकृति दोनों का नायक ज्ञान ही है। पशु, पाश एवं पति को तत्वज्ञ कहते हैं। क्षर प्रकृति, अक्षर पुरुष और इन दोनों का प्रेरक परमेश्वर है। प्रकृति माया है। माया ही महेश्वर की परम शक्ति है। जीव अपने कर्मों का फल भोगने के लिए ही माया से आच्छादित रहता है। 

ऋषि बोले ;- हे वायुदेव ! कालादि क्या है? उसका कर्म व फल क्या है? भोग किसे कहते हैं और भोग के साधन क्या हैं? वायुदेव बोले- ऋषिगण! कला, विद्या, राग, काल और नियति का भोक्ता मनुष्य है। हमारा शरीर ही भोग का साधन है। जब शिवभक्ति की भावना प्रबल होती है, तब मनुष्य शिव स्वरूप हो जाता है। विद्या ज्ञान बढ़ाती है, राग को कला बढ़ाती है। सुख-दुख से मोहित होकर आत्मा सत्व, रज और तम गुणों को भोगती है। पंचभूत, पंचतन्मात्रा, पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय प्रधान बुद्धि, मन अहंकार विकारयुक्त है। श्रेष्ठ पुरुषों ने आत्मा को भिन्न माना है। मनुष्य अपने कर्मों का ही फल भोगता है।

  ईश्वर सर्वज्ञ और अगोचर है। वह ही अंतर्यामी कहलाता है। शरीर तो दुखों की खान है। वह नश्वर है और नष्ट हो जाता है। संसार में आकर वह जन्म-मरण के चक्र में घूमता रहता है। आत्मा कभी नहीं मरती, वह अमर है। आत्मा एक के बाद दूसरा शरीर धारण कर लेती है। जीवात्मा ज्ञानहीन होने के कारण सुख-दुख भोगने के लिए स्वर्ग और नरक में जाती है।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

छठा अध्याय

"शिव तत्व ज्ञान वर्णन"

ऋषि बोले ;- हे वासुदेव ! पशु और पाश के स्वामी कौन हैं?

 तब ऋषिगणों का प्रश्न सुनकर वायुदेव बोले ;- हे ऋषियो ! पशु और पाश के निवारक परमेश्वर हैं। परमेश्वर सर्वव्यापक है। उसने ही संसार का निर्माण किया है। ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव संसार में जन्म लेता है। परमात्मा ही सबका कर्ता है। जिस प्रकार अंधे मनुष्य को कुछ दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार मनुष्य भी परमेश्वर को नहीं देख पाता पशु एवं पाश को जब ज्ञान प्राप्त होता है तो ब्रह्मज्ञानियों को मुक्ति मिल जाती है।

  परमेश्वर महाज्ञानी और मायावी हैं। वह सारे संसार को अपने अधीन कर लेते हैं। वही संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाले हैं। त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव भगवान शिव ही परमेश्वर हैं। उन्होंने ही आकाश और पृथ्वी की रचना की है। उन्होंने ही सभी जीवों एवं देवताओं को रचा है। अतः वे ही पुराण पुरुष हैं। अपनी अपार अलौकिक शक्ति से उन्होंने पूरे त्रिलोक की रचना की और उसका पालन करते हैं तथा समय आने पर इसका विनाश भी स्वयं कर देते हैं।

संसार रूपी वृक्ष के दो पत्ते हैं - जीवात्मा और परमात्मा । 

जीवात्मा अपने कर्म के फल को भोगती है और परमात्मा उसका लेखा-जोखा रखते हैं। परमात्मा का प्रकाश एवं तेज चारों ओर फैला हुआ है। गुह्योपनिषद के अनुसार परब्रह्म को जानने वाला मनुष्य जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। इसलिए सदाशिव की भक्ति कर मोक्ष प्राप्ति की इच्छा करनी चाहिए। वे कल्याणकारी सदाशिव ही सब कामनाओं को पूरा करने वाले हैं। उनके अमृतरूपी ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं है। अतः सर्व व्यापक सर्वेश्वर शिव का ही ध्यान और स्मरण करना चाहिए।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

सातवाँ अध्याय

"काल-महिमा"

ऋषि बोले ;- हे देव! इस विश्व की सृष्टि, पालन और संहार रूपी चक्र के निरंतर चलने से ही जीव की उत्पत्ति एवं विनाश होता है। हमें इस काल को अपने अधीन रखने वाले के विषय में बताइए ।

तब ऋषिगणों के प्रश्न का उत्तर देते हुए वायुदेव बोले ;- हे मुनियो ! जिस काल के विषय में आप जानना चाहते हैं, वह भगवान शिव का ही तेज और दिव्य रूप है। काल को कालात्मा नाम से भी जाना जाता है। इस चराचर जगत में कोई भी काल के सामने रुकावट नहीं डाल सकता। त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव की अंशांश शक्ति ही इस कालात्मा में कार्य कर रही है। इस काल शक्ति ने पूरे विश्व को अपने अधीन कर रखा है। यह काल सिर्फ भगवान शिव के ही अधीन है क्योंकि इसमें स्वयं शिव शक्ति विद्यमान है।

इस काल को रोक पाना किसी के वश में नहीं है। कोई इसका उल्लंघन नहीं कर सकता। अपनी अथाह बल शक्ति के कारण ही यह त्रिलोक पर अपना अखंड राज्य कर रहा है। भगवान शिव की शक्ति से ही यह सब जीवों को उनके सुख-दुख का फल देता है।

  काल के अनुसार ही वायु, धूप, ठंड और मेघ द्वारा जल प्रदान करता है। समय पर सूर्यदेव अपनी तेज किरणों से जगत को तृप्त करते हैं, खेतों में अन्न पैदा करते हैं तथा फल-फूल प्रदान करते हैं। जब मनुष्यगण इस काल तत्व को भली-भांति समझ लेते हैं, तब उन्हें परमेश्वर शिव के दर्शन प्राप्त होते हैं। काल के स्वरूप को जान लेने पर ही शिवकृपा से काल का अतिक्रमण किया जा सकता है। इसे ही तो अमरता कहते हैं, यही मुक्ति है।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

आठवाँ अध्याय

"त्रिदेवों की आयु"


ऋषिगण बोले ;- हे वायुदेव ! अब आप हम पर कृपा करके आयु का परिमाण और संख्या के बारे में बताइए । 

  वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगण ! प्रलय काल आने तक की अवधि ही पूर्ण काल की अवधि है। पंद्रह निमेष की काष्ठा होती है। तीस काष्ठाओं का एक मुहूर्त अर्थात दिन-रात, पंद्रह दिन-रातों का एक पक्ष होता है। इस प्रकार महीने में दो पक्ष - शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष होते हैं। पितरों के दिन और रात क्रमशः शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष होते हैं। छः महीने का एक अयन होता है। दो अयन पूरे होने पर एक वर्ष पूरा हो जाता है। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं के एक दिन और रात के बराबर होता है। मनुष्यों की एक अयन के दक्षिण होने पर दक्षिणायन अर्थात देवताओं की रात और उत्तर होने पर उत्तरायण अर्थात देवताओं का दिन होता है।

   इस प्रकार मनुष्यों के तीन सौ आठ वर्ष पूरे दोने पर देवताओं का एक वर्ष पूरा होता है। देवताओं के वर्षों से युगों की गणना होती है। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग नामक चार युग कहे गए हैं। इसमें सतयुग देवताओं के चार सहस्र वर्षों का होता है। जिसमें चार सौ वर्ष संध्या तथा चार सौ वर्ष संध्यांश के होते हैं। त्रेता युग में तीस हजार वर्ष, द्वापर में दो हजार वर्ष और कलियुग में एक हजार वर्ष होते हैं। चारों युगों के एक हजार वर्ष बीतने पर एक कल्प पूरा होता है। इकहत्तर चतुर्युगी का एक मन्वंतर होता है । ब्रह्माजी का एक दिन एक कल्प के बराबर होता है। आठ हजार वर्षों का एक वर्ष और आठ हजार वर्षों का एक युग होता है। हजारों वर्षों का एक सवन बनता है। ब्रह्माजी की आयु तीस हजार सवन का समय बीतने पर पूरी हो जाएगी। इस प्रकार, ब्रह्माजी की पूरी आयु श्रीहरि विष्णु के एक दिन के बराबर है। श्रीहरि विष्णु की आयु रुद्र के एक दिन के बराबर मानी गई है। रुद्र की आयु पूरी होने पर ही काल की गणना पूरी होती है। त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की कृपा से ही पांच लाख चालीस हजार वर्षों की उनकी आयु में सृष्टि का आरंभ से अंत हो जाता है परंतु भगवान शिव अविनाशी हैं। काल उनको अपने वश में नहीं कर सकता। ईश्वर का एक दिन सृष्टि की उत्पत्ति तथा रात उसका संहार होती है।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

नवाँ अध्याय

"प्रलयकर्ता का वर्णन"

वायुदेव बोले ;– ऋषिगण ! सबसे पहले परब्रह्म से शक्ति उत्पन्न हुई। वह शक्ति माया कहलाई और उससे ही प्रकृति पैदा हुई। भगवान शिव की ही प्रेरणा से यह सृष्टि उत्पन्न हुई। इस सृष्टि की उत्पत्ति अनुलोम और वृतिलोम से इसका नाश होता है। यह जगत पांच कलाओं से पूर्ण एवं अप्रकट कारण रूप है। इसके मध्य में आत्मा अनुष्ठित है।

   त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव महादेव शिव ही सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वेश्वर और अनंत हैं। वे सदाशिव ही सृष्टि की रचना, पालन और संहार करते हैं। सृष्टि के आरंभ से समाप्त होने तक ब्रह्माजी के सौ वर्ष पूरे होते हैं। ब्रह्माजी की आयु के दो भाग प्रथम परिद्ध और द्वितीय परिद्ध हैं। इनकी समाप्ति पर ब्रह्माजी की आयु पूरी हो जाती है। उस समय अव्यक्त आत्मा अपने मध्य कार्य को ग्रहण कर लेती है। अव्यक्त में समावेश होने पर उत्पन्न विकार का संहार करने के लिए प्रधान तथा पुरुष धर्म सहित रहते हैं।

   सत्वगुण एवं तमोगुण से ओत-प्रोत दोनों प्रकृति पुरुष व्याप्त हैं। जब ये दोनों गुणों में समान हो जाते हैं तो अंधकार के कारण अलग नहीं हो पाते। तब शांत वायु द्वारा निश्चल होता है। अद्वितीय रूपधारी महेश्वर अपनी माहेश्वर रूप रात्रि का सेवन करते हैं। प्रातःकाल में महेश्वर अपनी योग शक्ति द्वारा प्रकृति पुरुष में प्रविष्ट हो जाते हैं। तब वे दोनों में क्षोभ उत्पन्न कर देते हैं। तब उनकी आज्ञा से चराचर जगत में सभी प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

दसवाँ अध्याय

"सृष्टि रचना वर्णन"

  सर्वप्रथम ईश्वर की प्रेरणा पुरुष रूप में अधिष्ठित अव्यक्त, बुद्धि व विकार उत्पन्न हुए। उसके पश्चात सर्वरूप रुद्र, विष्णु और ब्रह्मा नामक तीन देवताओं की उत्पत्ति हुई। इनका मुख्य कार्य सृष्टि का सृजन, पालन और संहार है। ये ईश्वरत्व युक्त हैं। एक कल्प समाप्त होने पर जब दूसरा कल्प आरंभ हुआ तब सर्वेश्वर शिव ने सबको सृष्टि के कार्य सौंपे।

  ये तीनों देवता एक-दूसरे से पैदा होकर एक-दूसरे को धारण करते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र एक-दूसरे का अनुसरण एवं प्रशंसा करते हैं। प्रधान से प्रथम वृद्धि, ख्याति, बुद्धि एवं महत्व पैदा हुए। क्षोभ से तीन प्रकार के अहंकार उत्पन्न हुए। अहंकार से पांच महाभूत तन्मात्रा इंद्रियां पैदा हुईं। सत्वगुण से सात्विक तत्व की उत्पत्ति हुई । तमोगुण अहंकार पांच महाभूत पंचतन्मात्रा से उत्पन्न ग्यारहवां मन गुण से दो प्रकार का होता है। प्राणियों में दो प्रकार के गुण होते हैं। समस्त प्राणियों में आदि भूत होता है। उससे आकाश व आकाश से स्पर्श गुण की उत्पत्ति होती है। स्पर्श गुण से वायु, वायु से रूप गुण, रूप से तेज, तेज से रस गुण, रस से गंध गुण व गंध से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। फिर इन पंचमहाभूतों से सारा संसार निर्मित होता है।

  महदादिक से एक विशेष अंड की उत्पत्ति होती है। तब ब्रह्म उस अंड में वृद्धि पाकर ब्रह्मा नाम से क्षेत्रज्ञ: जाता है। यही सर्वप्रथम शरीरधारी पुरुष है। ये तीनों गुणों को अपने अधीन रखते हैं। इन्हीं तीन गुणों के कारण वे अपने शरीर के तीन विभाग कर देते हैं। सृष्टि कार्य में ब्रह्मा, पालन में विष्णु एवं संहार कार्य में रुद्र कार्य करते हैं। उस विराट नायक का गर्भ बंधन सुमेरु पर्वत से होता है। समुद्र का जल उसका गर्भाशय है एवं इस अंड में लोक निवास करते हैं। इन लोकों में सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, वायु का निवास है। जल इस अंडे को ढक कर रखता है। जल से दस गुना तेज, तेज से दस गुना वायु, वायु से दस गुना आकाश उस आदिभूत को ढककर रखता है। फिर महतत्वादि, महतत्वादि को प्रकृति चारों ओर से ढके रहती है। इन सात आवरणों में अंड रहता है।

   इस प्रकार ये आठ प्रकृतियां हैं। अव्यक्त द्वारा ही संपूर्ण संसार निर्मित हुआ है और उसी में विलय भी हो जाता है। काल के अधीन गुण भी सम और विषम होते हैं। गुणों की कमी अथवा विशेषता होने पर सृष्टि की रचना होती है और इनका समानत्व होने पर प्रलय हो जाता है। ब्रह्मा की यही योनि है और यह अंड ही ब्रह्मा का निश्चयात्मक क्षेत्र है। प्रकृति सर्वगामिनी है जिसमें सहस्र अंड रहते हैं। उन अंडों में चतुर्मुख विष्णु, ब्रह्मा एवं रुद्र को प्रकृति रचती है। ये तीनों शिवजी की समीपता पाकर स्थिर रहते हैं। व्यक्त से अव्यक्त, अव्यक्त से अंड और अंड से ब्रह्मा उत्पन्न होकर संपूर्ण लोक की रचना करते हैं। सृष्टि की रचना और प्रलय काल में उसका नाश तो परमेश्वर की लीला है।

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