शिव पुराण वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध) के इक्कीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the twenty-first chapter to the thirtieth chapter of Shiv Purana Vayviy Samhita (poorvaarddh))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

इक्कीसवाँ अध्याय

"श्रीहरि विष्णु एवं वीरभद्र का युद्ध"

वायुदेव बोले ;– हे मुनियो ! वीरभद्र एवं उनके गणों का उपद्रव देखकर सभी देवता भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे परंतु वीरभद्र का संकेत समझकर उनके गणों ने सभी को चारों ओर से घेर लिया। सब भागने में असमर्थ थे। वीरभद्र हाथों में त्रिशूल लेकर सब देवताओं पर प्रहार कर रहे थे। वीरभद्र ने सरस्वती की नासिका, अदिति का हाथ, अग्नि की बाहु, भगदेव की आंखें, पूषा के दांत तोड़कर घायल कर दिया।

   इस प्रकार का दृश्य देखकर सभी भयभीत थे। दक्ष ने श्रीहरि विष्णु से यज्ञ की रक्षा करने की प्रार्थना की। तब भगवान विष्णु वीरभद्र के साथ युद्ध करने के लिए आगे आए। तभी वीरभद्र के सामने एक दिव्य रथ आ गया। उसी समय शंख बजने लगे । युद्ध का आरंभ होने पर सब देवता एवं ऋषिगण वहां वीरभद्र और श्रीहरि विष्णु का युद्ध देखने लगे। श्रीहरि ने शार्गं धनुष पर बाण चढ़ाकर वीरभद्र पर प्रहार किया तो वीरभद्र ने भी अपने धनुष पर टंकार की। दोनों ओर से भयानक बाण वर्षा होने लगी ।

   वीरभद्र द्वारा चलाए गए एक भयानक तीर ने श्रीहरि विष्णु को मूर्च्छित कर दिया। वे पृथ्वी पर गिर पड़े। कुछ देर पश्चात होश में आने पर वे पुनः युद्ध करने लगे । वीरभद्र ने विष्णुजी के सभी वारों को बेकार कर दिया। फिर विष्णुजी व उनके वाहन गरुड़ को भी घायल कर दिया। तब क्रोधित होकर विष्णुजी ने सुदर्शन चक्र उठा लिया और उसे वीरभद्र पर चलाया, परंतु शिवजी की कृपा से वह चल ही नहीं पाया।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

बाईसवाँ अध्याय

"देवताओं पर शिव कृपा"

तत्पश्चात वीरभद्र के अन्य गणों ने भी सभी देवताओं को बंदी बना लिया। तब ब्रह्माजी वीरभद्र से प्रार्थना करने लगे कि वे देवताओं को दण्ड न दें। तब वीरभद्र उन सब देवताओं को बांधकर शिवजी के पास ले गए। 

  शिवजी के समक्ष पहुंचकर श्री विष्णु बोले ;- हे देवाधिदेव ! आप सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के स्वामी हैं । सब विद्याओं के भंडार हैं और अभिमानियों के अभिमान का नाश करने वाले हैं। आप ही दुखियों के दुखों को दूर करने वाले हैं।

  ब्रह्माजी बोले ;- हे कृपानिधान! आपके भक्त वीरभद्र ने दक्ष का यज्ञ पूरा तहस-नहस कर दिया है। उसने अनेक देवताओं को घायल कर दिया है। वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष को भी मार दिया है। प्रभु ! हम सब हाथ जोड़कर आपकी शरण में आए हैं, हम सब पर कृपा करें। हमारे दुखों को दूर करें। हमारे अपराध को कृपा करके क्षमा करिए । ब्रह्माजी की इस प्रार्थना को सुनकर शिवजी ने उन पर कृपा की।

   शिवजी ने दक्ष के सिर पर बकरे का सिर लगाकर उसे पुनर्जीवित कर दिया । जीवित होने पर दक्ष शिवजी से क्षमा याचना करने लगा और उनकी स्तुति करने लगा। तत्पश्चात त्रिलोकीनाथ शिव की कृपा से सभी देवताओं के सारे घाव सही हो गए और जो देवगण मर गए थे वे पुनर्जीवित हो गए। सब देवता सर्वेश्वर शिव की महिमा का गान करते हुए वापस लौट गए।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

तेईसवाँ अध्याय

"मंदराचल पर निवास"

वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगण ! एक बार की बात है, मंदराचल पर्वत ने शिवजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की । प्रसन्न होकर भगवान शिव ने देवी पार्वती सहित वहां निवास किया। उस समय मंदराचल पर्वत अनेक मणियों से चमकता हुआ अनेक गुफाओं से शोभायमान हो रहा था। शिवजी पार्वती जी के साथ वहां अनेक लीलाएं रचने लगे। इस तरह बहुत समय बीत गया।

  दूसरी ओर संसार में प्रजा का विकास तेजी से हो रहा था। उसी समय शुंभ और निशुंभ नाम के दो दानवों ने ब्रह्माजी की कठोर तपस्या करके उनसे अवध्य रहने का वर मांग लिया था। 

ब्रह्माजी ने वर देते हुए कहा ;- कि यदि तुम जगदंबा के अंश से उत्पन्न कन्या को पाने की अभिलाषा करोगे तो निश्चय ही तुम्हारा विनाश हो जाएगा। तब उन्हें वर देकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। वरदान पाकर शुंभ-निशुंभ बलवान होने के साथ-साथ अभिमानी भी हो गए थे। उन्होंने देवताओं पर आक्रमण करके देवताओं को हरा दिया और इंद्र के स्वर्गासन पर अपना कब्जा कर लिया। दोनों ने धर्म का नाश करना शुरू कर दिया। पूरा संसार उनके अत्याचारों से दुखी हो रहा था।

   सब देवता दुखी होकर भगवान शिव की शरण में गए। तब शिवजी ने उन्हें आश्वासन देकर भेज दिया। इस कार्य को करने के लिए देवी पार्वती को क्रुद्ध करना आवश्यक था। इसलिए शिवजी ने स्त्रियों की बुराई करनी शुरू कर दी। 

तब क्रोधित होकर देवी बोली ;- हे स्वामी! आपको मेरा सांवला रंग नहीं सुहाता है इसलिए आप ऐसी बातें कर रहे हैं। अब मैं जा रही हूं और ब्रह्माजी की तपस्या करूंगी। यह कहकर क्रोधित देवी पार्वती वहां से चली गईं।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

चौबीसवाँ अध्याय

"कालिका उत्पत्ति"

वायुदेव बोले ;- इस प्रकार क्रोधित होकर देवी वहां से चली गईं। फिर वे अपने माता-पिता से मिलने के लिए हिमालय पहुंचीं और फिर उनका आशीर्वाद लेकर तपस्या करने के लिए चली गईं। परम दिव्य और मनोरम स्थान देखकर वे तपस्या में बैठ गईं। वे प्रतिदिन स्नान करके धूप, दीप आदि से पूजन करतीं और मन में ब्रह्माजी का स्मरण करते हुए उनकी आराधना करनी आरंभ कर दी।

  एक दिन भगवती तपस्या में लीन थीं, उसी समय एक उग्र सिंह वहां आ गया परंतु देवी के तेज के प्रभाव से वह आगे न बढ़ सका। वह दिन-रात मूर्ति बनकर वहीं देवी के सामने खड़ा रहा। उसे देखकर देवी ने सोचा कि यज्ञ सिंह हिंसक जानवरों से मेरी रक्षा करने के लिए यहां खड़ा है। देवी की कृपादृष्टि से वह सिंह पापों से मुक्त हो गया और देवी की सेवा में लग गया। दूसरी ओर सभी देवता दैत्यों द्वारा किए जा रहे उपद्रवों से बहुत दुखी थे। बहुत दुखी होकर वे सभी ब्रह्माजी की शरण में गए और उन्हें अपना दुखड़ा सुनाया। देवताओं को सहायता का आश्वासन देकर ब्रह्माजी देवी के समक्ष पहुंचे। देवी कठोर तपस्या में लीन थीं। ब्रह्माजी को इस प्रकार सामने पाकर देवी ने प्रणाम किया। 

तब ब्रह्माजी बोले ;- हे भगवती ! आप तो सबका कल्याण करने वाली तथा सभी तपस्याओं का फल देने वाली हैं। फिर आप इस तरह कठोर तपस्या क्यों कर रही हैं?

  ब्रह्माजी के पूछे प्रश्न का उत्तर देते हुए देवी बोलीं ;- हे ब्रह्माजी ! सृष्टि के आरंभ में आप भगवान शिव से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए आप मेरे पुत्र हैं। प्रजा वृद्धि के लिए भगवान रुद्र आपके मस्तक से प्रकट हुए इसलिए आप मेरे ससुर हैं। अपना दुख आपको बताकर मैं उससे मुक्त होना चाहती हूं। मैं अपना काले रंग का शरीर त्यागकर गोरी बनना चाहती हूं।

   तब ब्रह्माजी ने कहा ;- हे देवी! जैसा आप चाहती हैं वैसा ही होगा। आप अपने काले वर्ण का त्याग कर गौरवर्ण धारण करें। देवी आपका वही काला वर्ण दैत्यराज शुंभ-निशुंभ का वध करके इस संसार को उनके पापों से मुक्त करेगा।

तभी देवी ने काले रंग का त्याग कर गोरा रंग धारण कर लिया। भगवती के काले वर्ण से मेघों के समान श्याम वर्णी कौशिकी नामक कन्या उत्पन्न हुई। वह योगिनी अष्टभुजा वाली तथा शंख, चक्र एवं त्रिशूल आदि आयुधों से सुशोभित थी । ब्रह्माजी ने देवी कौशिकी को शुंभ-निशुंभ का वध करने के लिए शक्ति प्रदान की। तब देवी कौशिकी ब्रह्माजी व देवी को प्रणाम कर विंध्याचल पहुंचीं। उन्होंने शुंभ-निशुंभ का वध कर देवताओं को सुखी कर दिया।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

पच्चीसवाँ अध्याय

"सिंह पर दया"

वायुदेव बोले ;- हे मुनियो ! देवी ने अपने काले वर्ण को अलग किया, जिससे देवी कौशिकी की उत्पत्ति हुई। फिर वह आशीर्वाद पाकर विंध्याचल पर चली गईं। 

तब देवी ने ब्रह्माजी से कहा ;- हे ब्रह्माजी! यह सिंह मेरा परम भक्त है। इसने मेरी अन्य हिंसक जीवों से रक्षा की है। इसलिए इसे मैं अपने साथ ले जाना चाहती हूं। कृपा कर मुझे आज्ञा प्रदान करें। 

देवी की बात सुनकर ब्रह्माजी बोले ;- देवी! मुझे तो यह कोई कपटी दैत्य लगता है, जो सबको धोखा देने के लिए रूप बदलकर आया है। इसलिए आप इसे यहीं छोड़ दीजिए।

ब्रह्माजी के वचन सुनकर देवी गौरी बोलीं ;- हे ब्रह्माजी ! यह सिंह मेरी शरण में आया है और मेरी सेवा में दिन-रात लगा रहता है। इसलिए मैं इसे ऐसे नहीं छोड़ सकती,,

 ब्रह्माजी बोले ;- देवी! यदि यह आपका परम भक्त है तो यह अवश्य ही निष्पाप होगा। आप जैसा उचित समझें, करें। यह कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए और देवी अपने सिंह पर सवार होकर भगवान शिव के पास वापस लौट आईं।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

छब्बीसवाँ अध्याय

"गौरी मिलाप"

वायुदेव बोले ;- हे ऋषियो ! देवी ने वहां पहुंचकर भगवान शिव के चरणों की वंदना की। उन्हें इस प्रकार सामने पाकर शिवजी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने देवी को हृदय से लगा लिया। तब शिवजी बोले- हे प्राणेश्वरी ! आपका और मेरा प्रेम साधारण नहीं है। हमें एक दूसरे से विद्वेष नहीं रखना चाहिए, क्योंकि हम ही जगत के कारण और आधार हैं। हमें कभी भी अलग नहीं होना चाहिए। देवी! मुझे आपका रूप बहुत प्रिय है। आपके काले या गौर वर्ण से कुछ नहीं होता, क्योंकि मैं आपसे आत्मिक प्रेम करता हूं।

अपने स्वामी भगवान शिव के ये वचन सुनकर,,

 देवी बोलीं ;- हे देवाधिदेव ! आपकी कृपा से मैंने अपने श्याम वर्ण से देवी कौशिकी को उत्पन्न किया। जिसने अपने बल और पराक्रम से शुंभ और निशुंभ नामक महादैत्यों का संहार किया है। उसकी आराधना से मनुष्यों को तुरंत फल की प्राप्ति होगी तथा देवता भी उसकी पूजा किया करेंगे।

भगवन्! मेरी तपस्या में सिंह ने मेरी रक्षा की जिसे मैं साथ लाई हूं और उसे अपना हूं द्वारपाल बनाना चाहती हूं।

  देवी भगवती की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने सिंह को द्वारपाल नियुक्त कर दिया। देवी ने सुंदर वस्त्र आभुषणों से शृंगार करके अपने स्वामी के समीप आसन ग्रहण किया। वे भगवान शिव के साथ ऐसी सुशोभित हो रही थीं, मानो आभा चंद्र के सौंदर्य को निखार रही हो और संध्या ने सूर्य का आलिंगन कर लिया हो ।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

सत्ताईसवाँ अध्याय

"सोम अमृत अग्नि का ज्ञान"

  वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगणो ! भगवान शिव का रूप तेजयुक्त होने के कारण अग्नि समान है और देवी गौरी का रूप शांत, अमृत के समान चंद्ररूप है। शांतमय इस तेज में अमृत अमृत है। यह विद्या एवं फल रस सभी प्राणियों में विद्यमान है। सूर्य रूप और अग्नि रूप के कारण तेज दो प्रकार का होता है। जल रूप और सोमरूप के कारण रसवृत्ति दो प्रकार की होती है। विद्युत रूपवाला तेज है और मधुरता रस है। तेज और रस सभी चराचर जीवों में होता है। अमृत की उत्पत्ति अग्नि से होती है। इसलिए सुख की कामना के लिए अग्नि में अमृत की आहुति दी जाती है । हवि के लिए अन्न होता है और अन्न वृद्धि के लिए वर्षा होती है। तभी हवि वृत्ति देने वाली कही जाती है।

  अग्नि तथा अमृत संसार को धारण किए हैं। अग्नि जल कर सोमरूपी अमृत तक पहुंचाती है। इसलिए कालाग्नि नीचे जलाई जाती है और ऊपर से शक्ति सोममय अमृत टपकाती है। संसार के नीचे शक्ति है और ऊपर सदाशिव विद्यमान हैं। ये दोनों ही संसार को चलाने वाले हैं। एक बार इसी अग्नि ने संसार को जलाकर भस्म कर दिया था, इसलिए यह भस्म अग्नि वीर्य कहलाई । इस भस्म में अग्नि मंत्र बोलकर स्नान करने वाला मनुष्य सांसारिक बंधनों से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

अठाईसवाँ अध्याय

"छः मार्गों का वर्णन"

   वायुदेव बोले ;- हे ऋषिगण ! भगवान शिव और देवी पार्वती का रूप प्राकृतिक एवं मूर्त दो प्रकार का है। स्थूल चिंता रहित और सूक्ष्म चिंता सहित है । सब कार्यों को पूर्ण करने की शक्ति प्रकृति के पास है। इसे परमादेवी कुण्डलिनी माया कहा जाता है। यह छः मार्गों वाली है। जिनमें तीन शब्द हैं और तीन उनके अर्थ हैं। ये परा प्रकृति के भेद हैं। सांख्य योग सब कलाओं में परिपूर्ण है। छः भागों में विभक्त यह पराशक्ति भाव सत्व और शिव तत्व से व्याप्त है।

  शक्ति से आरंभ करके पृथ्वी तक सभी शिव तत्व से ही उत्पन्न हुए हैं। जिस प्रकार घड़ा मिट्टी से बना होता है, उसी प्रकार हर वस्तु का निर्माण शिव तत्व से हुआ है। पांच तत्वों से शुद्ध होने पर प्राण शिवतत्व के उत्तम स्थान को पा लेता है। विद्या कला से विश्वेश्वर की शुद्धि होती है। ऊर्ध्व मार्ग से शांतिकला शुद्ध होती है। संसार का आधार रूप होकर जो शक्ति, आज्ञा, परा, शैवी, चित्ररूपा परमेश्वरी देवी है उसे त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने संपूर्ण जगत में स्थिर कर रखा है।

  भगवान शिव पुरुष हैं और शक्ति स्त्री हैं। ये दोनों परस्पर पति-पत्नी हैं परंतु कई विद्वान इन्हें एकरूप ही मानते हैं। पराशक्ति शिवजी की आज्ञा से तीन गुण वाली है और कार्य के भेद तीन प्रकार के होते हुए छ: मार्ग में विभक्त हो जाते हैं। ये शब्द व अर्थ रूप हैं तथा पूरे संसार में व्याप्त हैं।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

उन्नतिसवाँ अध्याय

"महेश्वर के सगुण और निर्गुण भेद"

ऋषि बोले ;- हे वायुदेव ! भगवान शिव तो अत्यंत अद्भुत लीलाएं रचने वाले हैं। शिव शक्ति की क्रीड़ा प्रकृति का खेल है। सभी देवता, दानव और मनुष्य देवाधिदेव महादेव की कृपा के वश हैं, जबकि वे स्वच्छंद और वैभव संपन्न हैं। भगवान शिव तो सर्वेश्वर हैं। ये कला रहित निर्गुण हैं तो कला सहित सगुण हैं। ब्रह्मा से लेकर मनुष्य और दानव आदि सभी अपने कर्मों के अधीन हैं। सब जन्म लेते हैं और सबकी मृत्यु निश्चित है।

   भगवान शिव सब पर कृपा करने वाले तथा दुष्टों को उनके दुष्कर्मों का दंड देने वाले हैं। अपराध के कारण ही ब्रह्माजी का पांचवां सिर काटा गया था। श्रीहरि विष्णु को पैरों के नीचे दबाया गया था। शिवजी की आज्ञा पाकर शिव निंदा करने वाले प्रजापति दक्ष को वीरभद्र ने दंड दिया था। कामदेव भी शिव क्रोध के कारण भस्म हुए। भगवान शिव और देवी पार्वती ने मिलकर अनेक लीलाएं रचीं। भगवान शिव ने लोक कल्याण के लिए पतित पावनी श्रीगंगा जी को अपनी जटाओं में धारण किया।

   देवाधिदेव महादेव और देवी को एक दिव्य रूप बालक की प्राप्ति हुई। उसे पाकर शिवजी और पार्वती बहुत प्रसन्न हुए परंतु देवेंद्र की प्रार्थना करने पर अपने पुत्र को महादैत्य तारकासुर के साथ युद्ध करने भेज दिया। शिव-पार्वती ने पुत्र को आशीर्वाद देते हुए क्रौंची मिनी नामक अमोघ शक्ति प्रदान की। अपने माता-पिता के आशीर्वाद से बालक ने तारकासुर का वध कर दिया। अपने परम भक्त ब्रह्मचारी मार्कण्डेयजी को अकाल मृत्यु से बचाकर चिरंजीव बना दिया। परमात्मा शिव सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूप वाले हैं।

【वायवीय संहिता (पूर्वार्द्ध)】

तीसवाँ अध्याय

"ज्ञानोपदेश"

वायुदेव बोले ;- हे मुनियो ! सज्जनों को सिर्फ भगवान शिव से ही प्रीति रखनी चाहिए, किसी अन्य से नहीं। भगवान शिव तो सर्वज्ञाता हैं । उनका अनादर करने वाले मनुष्य को संसार में कहीं भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता। हम परमात्मा की साकार व निराकार मूर्ति दोनों की आराधना करते हैं परंतु निराकार मूर्ति का ध्यान नहीं किया जा सकता, इसलिए शिवमूर्ति उसका साकार शिवरूप है। साधना के द्वारा ही ईश्वर का साक्षात्कार होता है। मूर्ति का चेतन रूप परमात्मा , जो अगाध श्रद्धा भाव से प्रसन्न होकर दर्शन देने वाले हैं। आत्मा को सांसारिक मोह माया से शिवतत्व ही मुक्त कराता है।

  सुख-दुख तो कर्मों का फल है। ज्ञान द्वारा ही इंद्रियों का निग्रह होता है तथा भक्ति द्वारा सिद्धि प्राप्त होती है। आराधना साहस में वृद्धि करती है। ईश्वर की इच्छा को सर्वोच्च माना गया है और सभी को उसी मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। श्रेष्ठ कार्य करना हमारा कर्तव्य है। हमें अपने आराध्य का सदा पूजन करना चाहिए । त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव के संयोग से आत्मा शुद्ध हो जाती है। अज्ञानी भगवान शिव की भक्ति करके अपनी आत्मा के अंधकार को दूर करते हैं।

   भगवान शिव की प्रेमरूपी लौ मनुष्य को शिवरूप कर देती है। क्षमा, चतुरता मित्रता के संयोग से मानसिक वृत्ति गण और दोष का कारण होती है। संसार से मुक्ति की कामना करने वाले अनुग्रह को अपनाते हैं। भगवान शिव अपने भक्तों पर सदा कृपा करते हैं। वे अपने भक्तों की सभी कामनाओं को पूरा करते हैं। जीव इस संसार में परतंत्र होकर अनेक दुखों को भोगता है परंतु शिवजी की कृपा से ही वह स्वतंत्र हो जाता है। जीवात्मा तो अजर-अमर है। सुकर्म और कुकर्म दो प्रकार के कार्य हैं, जो जीवन को श्रेष्ठ या निकृष्ट बनाते हैं। माया-मोह में फंसकर प्राणी हिरन की तरह इधर-उधर भटकता रहता है। शरीर में सबसे ऊपर परमात्मा, मध्य में अंतरात्मा और अधोभाग में आत्मा का निवास होता है। इसी प्रकार भगवान शिव सबसे ऊपर, मध्य में ब्रह्मा और नीचे श्रीहरि विष्णु का निवास है। भगवान शिव को अंतरात्मा भी माना जाता है क्योंकि वे सर्वत्र विद्यमान हैं।

  अच्छे कर्मों द्वारा उच्च योनि तथा बुरे कर्मों द्वारा निम्न योनि की प्राप्ति होती है। सत्व, रज तथा तम गुण त्रिगुणात्मक योनि प्रदान करने वाले हैं। देवाधिदेव महादेव जी समस्त गुणों के स्वामी, सगुण-निर्गुण मूर्ति व सच्चिदानंद रूप हैं। वे पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। मनुष्य तो सदा माया से घिरा रहता है। परमेश्वर शिव की कृपा ही उसे आवागमन के इस चक्र से मुक्ति दिलाती है। उनके नामोच्चारण से ही सब दुखों से मुक्ति मिल जाती है। सब दुखों का नाश हो जाता है। माया से दूर होकर वह शिव कृपा को पा लेता है। अज्ञानी मनुष्य शिवजी को ईश्वर नहीं मानता और अपना सारा जीवन खो देता है। इसलिए मनुष्य को सदा त्रिलोकीनाथ शिवजी की भक्ति में डूबे रहना चाहिए।

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