शिव पुराण कोटिरुद्र संहिता के छब्बीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the twenty-sixth to the thirtieth chapter of the Shiva Purana Kotirudra Samhita)


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【कोटिरुद्र संहिता】

छब्बीसवाँ अध्याय

"गौतमी गंगा का प्राकट्य"

सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो! महर्षि गौतम देवी अहिल्या एवं अपने अन्य शिष्यों को साथ लेकर किसी अन्य जगह पर आश्रम बनाकर रहने लगे। सर्वप्रथम गौतम ऋषि ने ब्रह्मगिरि पर्वत की परिक्रमा की। फिर भगवान शिव के पार्थिव लिंग की स्थापना कर उसका पूजन करने लगे। पति-पत्नी की उत्तम आराधना एवं भक्तिभाव से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए। अपने आराध्य को अपने सामने पाकर गौतम ऋषि व अहिल्या बहुत प्रसन्न हुए और उनको प्रणाम कर उनकी स्तुति करने लगे।

तब भगवान शिव बोले ;- हे महर्षे! हे देवी! मैं आपकी पूजा से प्रसन्न हूं। मांगिए, क्या वर मांगना चाहते हैं? भगवान शिव के वचन 

सुनकर ऋषि गौतम बोले ;- भगवन्! मुझ पर कृपा करके मुझे गौहत्या के पाप से बचा लीजिए। तब शिवजी बोले- आपसे कोई अपराध नहीं हुआ है। वह सब तो उन दुष्ट दुराचारियों द्वारा रची गई माया थी। आप तो निर्दोष हैं। यह सुनकर महर्षि के सारे दुख दूर हो गए, तब उन्होंने शिवजी से कहा कि भगवन् मुझ पर कृपा करके पतित पावनी गंगाजी को यहां प्रकट करें, जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो सके।

गौतम ऋषि की प्रार्थना सुनकर शिवजी ने उन्हें गंगाजल दिया। वही गंगाजल श्रीगंगाजी का स्त्री रूप बन गया। तब गौतम जी ने उन्हें प्रणाम कर उनकी स्तुति की। 

गौतम ऋषि बोले ;- हे मातेश्वरी! हे पतित पावनी गंगे। मैं आपको प्रणाम करता हूं। आप पापों का खंडन करने वाली एवं अपनी शरण में आए भक्तों को मुक्ति देने वाली हैं। मैं हाथ जोड़े आपकी शरण में आया हूं। आप मेरे पापों को नष्ट करके मुझे नरक में जाने से बचा दो । तब उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर गंगाजी ने उनके पापों को अपने निर्मल जल से धो दिया। फिर वे वहां से जाने के लिए सर्वेश्वर शिव से आज्ञा मांगने लगीं।

तब शिवजी बोले ;- हे गंगे ! आप पापों का नाश करने वाली हैं। इसलिए लोक कल्याण के लिए यहीं पृथ्वी पर विराजें। हे कल्याणी! आपको कलियुग में अट्ठाईसवें मन्वंतर समाप्त होने तक यहीं पृथ्वी लोक पर निवास करना होगा और सच्चे मन एवं भक्ति भावना से अपने जल में स्नान करने वाले श्रद्धालुओं के पापों को नष्ट करना होगा । कलियुग में पापों को नष्ट करने का यही एक साधन होगा। श्रद्धापूर्वक आपके दर्शन करने वालों के पापों का क्षय भी आप करेंगी।

यह सुनकर गंगाजी बोलीं ;- हे प्रभु! मैं तो सदा आपके अधीन हूं। आपकी आज्ञा मेरे लिए शिरोधार्य है परंतु मेरी आपसे यह प्रार्थना है कि आप माता पार्वती के साथ मेरे पास ही निवास करें ताकि मैं सदा की भांति आपके पास रहूं। संसार में मेरी कीर्ति हो । 

तब गंगाजी के वचन सुनकर कल्याणकारी भगवान शिव बोले ;- हे गंगे! तुम्हारी मनोकामना मैं अवश्य पूरी करूंगा। यह कहकर भगवान शिव वहां त्र्यंबकेश्वर नाम से ज्योतिर्मय रूप में स्थित हो गए।गंगाजी वहां पर गौतम ऋषि के नाम से प्रसिद्ध होकर गौतमी गंगा कहलाईं।

【कोटिरुद्र संहिता】

सत्ताईसवाँ अध्याय

"श्रीगंगाजी के दर्शन एवं गौतम ऋषि का शाप"

    ऋषि बोले ;- हे सूत जी ! अब हमें यह बताइए कि गंगाजी की उत्पत्ति कहां से और किस प्रकार हुई ? तथा यह भी कि जिन ऋषियों ने गौतम ऋषि को छल-कपट से उनको आश्रम से दूर भेज दिया था, उनका क्या हुआ? जब गौतम ऋषि को इस बात का पता चला तो उन्होंने क्या किया?

ऋषिगणों के प्रश्नों को सुनकर महामुनि सूत जी बोले ;- जब गौतम ऋषि ने भगवान शिव को प्रसन्न करके गंगाजी को धरती पर अवतरित कराया था, तब श्री गंगाजी ने अपने जल रूप में ब्रह्मगिरि पर स्थित गूलर के पेड़ की शाखा से निकलकर दर्शन दिए थे। उनके दर्शन एवं आराधन के पश्चात गौतम ऋषि ने अपने शिष्यों सहित पतित पावनी गंगा में स्नान किया। जब गौतम ऋषि के परम शत्रु उन कपटी ब्राह्मणों को यह बात पता चली कि ऋषि गौतम ने अपनी तपस्या से गंगाजी को प्रकट कर दिया है तो वे सब भी श्रीगंगा जी के दर्शनों की चाहत लेकर वहां आए। परंतु गंगा जी उनके आते ही वहां से लुप्त हो गईं।

      यह देखकर गौतम जी को बहुत आश्चर्य हुआ और उन्होंने श्री गंगाजी से प्रार्थना की है मातेश्वरी! आप जगत का कल्याण करने हेतु यहां प्रकट हुई हैं। इसलिए आप सबको भी अपने दर्शनों से कृतार्थ करें। माते! मेरी तपस्या के प्रभाव से इन लोगों को भी दर्शन दें। गौतम ऋषि के चुप होते ही आकाशवाणी हुई-मुनि! ये लोग छल-कपट करने वाले हैं और सदा दुराचार करते हैं। इसलिए ये मेरे दर्शन के अधिकारी नहीं हैं। जब तक ये अपने पापों का प्रायश्चित नहीं करते तब तक इन्हें मैं दर्शन नहीं दूंगी। मेरे दर्शन करने के लिए इन्हें ब्रह्मगिर

   एक सौ एक परिक्रमाएं करनी पड़ेंगी। यह कहकर आकाशवाणी चुप हो गई। आकाशवाणी सुनकर वे सभी कपटी ऋषि पछताने लगे और क्षमा याचना करने लगे। तब उन्होंने आकाशवाणी के अनुसार ब्रह्मगिरि की एक सौ एक परिक्रमाएं कीं। तत्पश्चात श्री गंगाजी ने उन्हें दर्शन दिए। उस दिन से वह स्थान कुशावर्त नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

   ऋषियों ने पुनः सूत जी से पूछा ;- हे सूत जी ! हमने तो सुना था कि गौतम ऋषि ने उन कपटियों को शाप दे दिया था। क्या यह बात सही है? इस विषय में बताइए । 

   तब सूत जी बोले ;- हे महामुनियो ! आपने सही सुना था। गौतम ऋषि परम ज्ञानी और भगवान शिव के परम भक्त थे। जब उन्होंने शांत हृदय से ध्यान लगाया तो वे सब कुछ जान गए कि वह गाय, जिसकी हत्या का पाप उन्हें लगा था, बनावटी थी और उन सब ऋषियों ने मिलकर यह चाल चली थी। यह सब जानकर गौतम ऋषि क्रोधित हो उठे। तब उन्होंने उन कपटी ऋषियों को विद्यारहित, भक्तिहीन और अधर्मी हो जाने का शाप दे दिया। उन्हें शिवजी की भक्ति से विमुख होने का शाप दिया और फिर वे स्वयं अपने आश्रम में जाकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की आराधना करने लगे। दूसरी ओर वे ऋषिगण शिव-धर्म से विमुख होकर कांची नामक नगरी में चले गए।

【कोटिरुद्र संहिता】

अठ्ठाईसवाँ अध्याय

"वैद्यनाथेश्वर शिव माहात्म्य"

   सूत जी बोले ;- हे ब्राह्मणो! अब मैं वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का पापहारी माहात्म्य बताता हूं। एक बार लंकापति रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनकी भक्ति भावना से आराधना की थी। रावण ने कैलाश पर्वत पर शिवजी की बहुत तपस्या की परंतु भगवान शिव प्रसन्न नहीं हुए। तब रावण पास में स्थित वन में चला गया और वहां एक बड़ा-सा गड्ढा खोदकर उसमें अग्नि प्रज्वलित की। वहीं पास में उसने शिवजी की प्रतिमा स्थापित की। फिर उसने त्रिलोकीनाथ को प्रसन्न करने हेतु कठोर तपस्या आरंभ कर दी। गरमी में पांच ओर अग्नि से घिरकर, तो वर्षा में खुले आसमान के नीचे, सर्दियों में जल के भीतर खड़े रहकर कठिन तपस्या की। फिर भी शिवजी प्रसन्न नहीं हुए । तब राक्षसराज रावण ने अग्नि में अपने सिर को काटकर भेंट करना शुरू कर दिया। इस तरह एक-एक करके रावण ने अपने नौ सिर अग्नि को भेंट कर दिए परंतु जब दसवीं बार रावण अपना सिर चढ़ाने को उन्मुख हुआ तो शिवजी प्रकट हो गए। शिवजी के साक्षात दर्शन पाकर रावण बहुत प्रसन्न हुआ और उनकी अनेकों प्रकार से स्तुति करने लगा। 

तब शिवजी बोले ;- हे राक्षसराज ! मांगो क्या मांगना चाहते हो?

राक्षसराज रावण बोला ;- हे देवाधिदेव महादेव जी में आपको नमस्कार करता हूं। भगवन्, यदि आप मेरी तपस्या से संतुष्ट हुए हैं तो मुझ पर कृपा कर मेरे साथ लंका चलकर रहें और मेरे आतिथ्य को स्वीकार करें। प्रभो में आपकी शरण में आया हूं। कृपा कर मेरे मनोरथों को पूर्ण कीजिए। रावण के वचन सुनकर शिवजी आश्चर्य में पड़ गए। तब उन्होंने सर्वप्रथम रावण को पूर्व की भांति नीरोग किया और उसे अतुल बल प्रदान किया। तत्पश्चात उन्होंने रावण को अपना ज्योतिर्मय लिंग प्रदान किया और कहा कि मैं इस शिवलिंग में ज्योतिर्मय रूप में स्थित हूं। इसलिए तुम इसे अपने स्थान पर ले जाओ। पर एक बात का ध्यान रखना कि इसे रास्ते में कहीं भी भूमि पर न रखना, अन्यथा तुम इसे आगे नहीं ले जा सकोगे और यह वहीं पर स्थित हो जाएगा। तब भगवान शिव का आशीर्वाद एवं शिवलिंग लेकर राक्षसराज रावण वहां से अपने घर लंका की ओर चल दिया। रास्ते में शिवजी की माया से रावण को लघुशंका की इच्छा हुई और वह शिवलिंग एक ग्वाले को पकड़ाकर चला गया। ग्वाले ने थोड़ी देर तक तो वह शिवलिंग पकड़े रखा, परंतु अधिक भारी होने के कारण उसने लिंग को जमीन पर रख दिया। फिर तो वह शिवलिंग वहीं पर स्थित हो गया। यह संसार में वैद्यनाथेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके दर्शनों से सभी अभीष्ट कार्यों की सिद्धि होती है व पापों का नाश होता है। यह सत्पुरुषों को भोग और मोक्ष देने वाला है।

जब रावण को वापस आने पर यह ज्ञात हुआ कि शिवलिंग वहीं स्थित हो गया है, तो वह दर्शन के पश्चात लंका लौट गया। लंका पहुंचकर रावण ने शिवजी से वर प्राप्ति की सभी बातें अपनी प्रिया मंदोदरी को बताईं। उधर, जब देवताओं को ज्ञात हुआ कि भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग की स्थापना हो गई है तो सबने वहां आकर विधिवत शिवलिंग का दर्शन व पूजन किया परंतु रावण के वरदान प्राप्ति के विषय में सुनकर देवता घबरा उठे। तब उन्होंने देवर्षि नारद को लंकापति के पास भेजा।

नारद जी रावण के पास गए और बोले ;- हे राक्षसराज ! आपको भगवान शिव ने बलशाली होने का वर प्रदान किया है परंतु आपने अपने बल की परीक्षा तो की ही नहीं । इसलिए आपको कैलाश पर्वत को ही हिलाकर अपने बल व पराक्रम की परीक्षा करनी चाहिए। तब रावण कैलाश पर्वत के निकट पहुंचकर उसे उखाड़ने की कोशिश करने लगा। जिससे कैलाश पर्वत डोलने लगा। यह देखकर शिवजी बोले कि यह पर्वत क्यों हिल रहा है? तब देवी पार्वती व्यंग्य करते हुए बोलीं- हे देव! आपके शिष्य अपने गुरु की सेवा कर रहे हैं। यह जानकर कि राक्षसराज रावण कैलाश पर्वत को हिला रहा है, महादेव जी को क्रोध आ गया। 

वे रावण को शाप देते हुए बोले ;- ए दुर्बुद्धि रावण ! तू बल पाकर घमंडी हो गया है और मेरे ही निवास स्थान पर अपने बल का प्रयोग कर रहा है। मैं तुझे शाप देता हूं कि तेरा घमंड नष्ट हो जाएगा और तेरी इन भुजाओं को काटने वाला पुरुष शीघ्र ही प्रकट होगा। यह सुनकर रावण को कोई दुख नहीं हुआ और वह प्रसन्न मन से लंका लौट आया। उसने मन ही मन त्रिलोक को अपने वश में करने की प्रतिज्ञा कर ली।

मैंने आपको वैद्यनाथेश्वर नामक शिवलिंग का माहात्म्य सुनाया, जो कि मनुष्य के समस्त पापों का नाश करने वाला तथा शिवलोक की प्राप्ति कराने वाला है।

【कोटिरुद्र संहिता】

उन्नतिसवाँ अध्याय

"दारुका राक्षसी एवं राक्षसों का उपद्रव"

सूत जी बोले ;- हे ब्राह्मणो! प्राचीन समय में एक राक्षस था। उसका नाम दारुक तथा उसकी पत्नी का नाम दारुका था। वे दोनों पश्चिम में स्थित सुंदर वन में रहा करते थे, जो कि समुद्र से बहुत नजदीक था। वह वन चौंसठ कोस लंबा और चौड़ा था। वहां के रहने वाले मनुष्य उन दोनों राक्षस-राक्षसी के अत्याचारों से बहुत दुखी रहते थे। एक दिन वे सभी ऋषि ओर्व के पास पहुंचे और उन्हें अपना दुख सुनाया तथा प्रार्थना की- हम आपकी शरण में आए हैं। हमारी रक्षा कीजिए। तब उनकी प्रार्थना सुनकर ऋषि ओर्व बोले- आप लोग इस प्रकार चिंतित न हों। अधर्मियों का नाश अवश्य ही होता है। उन्हें धैर्य देकर ऋषि ने वहां से भेज दिया। फिर स्वयं तपस्या करने लगे, ताकि संसार का कल्याण हो। उधर, दानवों से तंग आकर देवताओं ने उन पर आक्रमण कर दिया। देवताओं और दानवों के बीच बड़ा भयानक युद्ध होने लगा। हजारों राक्षसों को देवताओं ने अपने प्रहारों से मार गिराया। राक्षसों को इस प्रकार प्रताड़ित होता देखकर दारुका को अपना वर याद आ गया। उसने राक्षसों से कहा कि आप लोग इस प्रकार भयभीत न हों, मैं आपका भय अवश्य ही दूर करूंगी।

यह कहकर दारुका ने राक्षसों की उस नगरी को उठाकर समुद्र के मध्य में स्थित कर दिया। अब सारे राक्षसों को भय से मुक्ति मिल गई। एक दिन दारुका घूमती हुई पुनः धरती पर आ गई, तब उसने देखा कि एक डोंगी में बहुत से मनुष्य बैठकर समुद्र की ओर से पृथ्वी पर आ रहे हैं। दारुका ने जाकर राक्षसों को सूचना दी कि असंख्य मनुष्य समुद्र में हैं। राक्षसों ने उन मनुष्यों को पकड़कर अपने जेलखाने में कैद कर लिया। उन मनुष्यों में एक सुप्रिय नामक बनिया भी था, जो भगवान शिव का परम भक्त था। उसने कारावास में ही भगवान शिव का पार्थिव लिंग स्थापित किया और उसकी विधिपूर्वक आराधना करनी आरंभ कर दी। उसे शिवजी का पूजन करते देखकर अन्य मनुष्य भी उसके साथ शिवजी की आराधना करने लगे। उन्हें भगवान शिव की पूजा करते-करते काफी समय व्यतीत हो गया। राक्षस उन्हें हैरानी से देखते, पर उनकी समझ में नहीं आता था कि वे किसकी पूजा कर रहे हैं।

【कोटिरुद्र संहिता】

तीसवाँ अध्याय

"नागेश्वर लिंग की उत्पत्ति व माहात्म्य"

सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! एक दिन सुप्रिय को भगवान शिव का पूजन करते हुए दारुक के किसी दूत ने देख लिया और जाकर दारुक को बता दिया। यह जानकर दुष्ट दारुक जेल में गया और,,

 सुप्रिय से बोला ;- बनिए ! सच बता कि तू किस देवता की पूजा कर रहा है? अन्यथा मैं तुम्हें मार डालूंगा । बहुत पूछने पर भी जब सुप्रिय ने कुछ नहीं बताया, तब क्रोधित होकर राक्षसराज दारुक ने उस बनिए को मारने की आज्ञा दे दी। वह परम शिव भक्त हाथ जोड़े, आंखें मूंदकर अपने आराध्य भगवान शिव का ध्यान कर उनसे मन में रक्षा करने की प्रार्थना करने लगा। भक्तवत्सल भगवान शिव अपने भक्त की पुकार सुनकर तुरंत वहां प्रकट हो गए। अपने भक्त की ओर बढ़ते उन राक्षसों को देखकर भगवान शिव ने पाशुपत अस्त्र उठा लिया और उन राक्षसों का एक पल में ही नाश कर दिया। राक्षसों का नाश करने के बाद,,

   भगवान शिव बोले ;- हे सुप्रिय ! आज से यह वन राक्षसों से मुक्त हुआ। अब तुम सब सदा के लिए निर्भय हो जाओ। अब इस वन में धर्म के मार्ग पर चलने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि ही निवास करेंगे। इन्हीं के साथ मेरे परम भक्त भी इस वन की शोभा बढ़ाएंगे।

उधर, दूसरी ओर दारुका राक्षसी देवी पार्वती की स्तुति करने लगी। उसने देवी को प्रसन्न कर लिया और प्रार्थना की कि माते! आप मेरे वंश एवं कुल की रक्षा कीजिए। तब देवी पार्वती दारुका के वचनों को सुनकर,,

 भगवान शिव से बोलीं ;- हे नाथ! आपकी कही यह बात युग के अंत में सच हो उससे पूर्व तामसी सृष्टि भी रहे, यह मेरा विचार है। भगवन्! मेरी बात को पूरा करिए । दारुका मेरी ही शक्ति है। इसलिए उसकी रक्षा करना मेरा धर्म है। यहां पर दारुका का ही राज्य होगा । देवी पार्वती के इन वचनों को सुनकर,,

    भगवान शिव बोले ;- हे प्रिये! आपकी इच्छा अवश्य ही पूरी होगी परंतु अपने भक्तों की रक्षा के लिए मैं यहीं पर स्थित रहूंगा, ताकि कोई भी उनकी जाति और धर्म के विरुद्ध कोई आचरण न कर सके। जो मनुष्य धर्म के मार्ग का अनुसरण करते हुए भक्ति भावना के साथ प्रेमपूर्वक मेरा दर्शन करेगा, वह चक्रवर्ती राजा हो जाएगा । कलियुग के अंत में और सतयुग के आरंभ में, महासेन का पुत्र वीरसेन राजाओं का भी राजा होगा और जब वह यहां आकर मेरे दर्शन करेगा तो वह चक्रवर्ती सम्राट बन जाएगा।

यह कहकर भगवान शिव और देवी पार्वती वहां ज्योतिर्मय रूप में पार्थिव लिंग में स्थित हो गए। त्रिलोकीनाथ भगवान शिव नागेश्वर नाम से व देवी पार्वती नागेश्वरी नाम से प्रसिद्ध हुईं। भगवान शिव-पार्वती अनेक प्रकार की लीलाएं करते हुए वहां स्थित हो गए। यह नागेश्वर ज्योतिर्लिंग तीनों लोकों का कल्याण करने वाला एवं सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्रादुर्भाव की कथा सुनने या पढ़ने से महापातकों का नाश होता है। कथा संपूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाली है।



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