शिव पुराण कोटिरुद्र संहिता के इकत्तीसवें अध्याय से पैंतीसवें अध्याय तक (From the thirty-first chapter to the thirty-fifth chapter of the Shiva Purana Kotirudra Samhita)


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【कोटिरुद्र संहिता】

इकत्तीसवाँ अध्याय

"रामेश्वर महिमा वर्णन"

   सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! अब मैं आपको रामेश्वर शिवलिंग की उत्पत्ति की कथा एवं माहात्म्य सुनाता हूं। भगवान श्रीहरि विष्णु ने अयोध्या के राजा दशरथ के घर उनके बेटे राम के रूप में अवतार लिया, ताकि वे दुष्ट राक्षसराज रावण का संहार करके पृथ्वी को दुष्टों से मुक्त करा सकें। श्रीराम का विवाह जनक नंदिनी देवी सीता से हुआ था। अपनी माता कैकेयी के मांगे वरदान के अनुसार वे चौदह वर्षों के लिए वनवास गए। एक दिन जब श्रीराम व लक्ष्मण कुटिया से बाहर गए तब रावण ने सीता का हरण कर लिया और उन्हें लंका ले गया।

     श्रीराम अपनी पत्नी की खोज करते हुए अपने भाई लक्ष्मण के साथ किष्किंधा पहुंचे। वहीं पर उनकी मित्रता सुग्रीव से हुई, जिसे उसके भाई बाली ने राज्य से निकाल दिया था। तब श्रीराम ने उसकी सहायता की। श्रीराम ने बाली को मारकर सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बना दिया। सुग्रीव ने श्रीराम की पत्नी देवी सीता की खोज के लिए अपनी वानर सेना को चारों ओर तलाश करने के लिए भेजा। वानरों में श्रेष्ठ हनुमान ने माता सीता को लंका में ढूंढ़ लिया और श्रीराम का संदेश उन तक पहुंचाया। जब श्रीराम को ज्ञात हुआ कि उनकी पत्नी का हरण लंकाधिपति रावण ने किया है तो उन्होंने वानर सेना के साथ लंका की ओर प्रस्थान किया। जब उनकी सेना दक्षिणी छोर पर समुद्र के किनारे पहुंची तो उन्हें चिंता हुई कि सेना इस अथाह सागर को कैसे पार करेगी? वे इसी सोच में डूब गए। श्रीराम को प्यास लगी और उन्होंने पानी मांगा। जब वानर उनके लिए पानी लेकर आए, तब उन्हें स्मरण हुआ कि आज उन्होंने अपने आराध्य का दर्शन व पूजन तो किया ही नहीं। तब श्रीराम ने जल नहीं पिया और भगवान शिव का पार्थिव लिंग स्थापित करके उसका विधिपूर्वक सोलह उपचारों से पूजन किया और भक्तिभाव से हाथ जोड़कर प्रार्थना की।

श्रीराम बोले ;- हे देवाधिदेव ! त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल भगवान शिव ! मेरी सहायता कीजिए, आपके सहयोग के बिना मेरा कार्य पूर्ण नहीं हो सकता है। मैं आपकी शरण में आया हूं। मुझ पर अपनी कृपादृष्टि कीजिए।

इस प्रकार प्रार्थना करके रामजी अपने आराध्य की स्तुति में निमग्न हो गए।

  तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर दर्शन दिए और बोले ;- हे राम! तुम्हारा कल्याण हो। वर मांगो। अपने सामने साक्षात त्रिलोकीनाथ शिव को पाकर श्रीराम अत्यंत हर्षित हुए और हाथ जोड़कर उनको प्रणाम करते हुए स्तुति करने लगे। उन्होंने शिवजी से युद्ध में विजयी होने का वर मांगा तथा भगवान शिव से जगत के कल्याण हेतु वहीं निवास करने की प्रार्थना की।

श्रीराम के वचन सुनकर कल्याणकारी शिव बहुत प्रसन्न हुए और,,

 बोले ;- हे राम! तुम्हारा मंगल हो, युद्ध में तुम्हारी जीत अवश्य होगी क्योंकि तुम सत्य और धर्म के मार्ग का अनुसरण कर रहे हो। यह कहकर शिवजी श्रीराम द्वारा स्थापित उस शिवलिंग में ज्योतिर्मय रूप में स्थित हो गए। उसी दिन से वह लिंग जगत में रामेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ । इसी शिवलिंग के पूजन के फल के रूप में श्रीराम की सेना को समुद्र पार करने का मार्ग मिल गया और वह युद्ध में विजयी हुए। श्रीराम ने रावण एवं अन्य राक्षसों का संहार किया और अपनी पत्नी सीता को मुक्त कराया । यह रामेश्वर ज्योतिर्लिंग भक्तों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। इस शिवलिंग को गंगाजल से स्नान कराने से मोक्ष की प्राप्ति होती है और मनुष्य जीवन मरण के बंधनों से मुक्त हो जाता है। रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा सुनने वालों के सभी पापों का नाश हो जाता है ।

【कोटिरुद्र संहिता】

बत्तीसवाँ अध्याय

"सुदेहा सुधर्मा की कथा"

सुत जी बोले हे ;- महर्षो! दक्षिण दिशा में देव नामक एक विशाल अद्भुत पर्वत है। उसके पास ही सुधर्मा नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी सुदेहा के साथ रहता था। वह भगवान शिव का परम भक्त था। वह सदा ही वेदों द्वारा बताए मार्ग पर चलता और प्रतिदिन अग्नि से हवन, कर्म, अतिथि का पूजन और शिवजी की आराधना करता था। इस प्रकार पूजन करते हुए वे दोनों पति-पत्नी अनेक सत्कर्मों में लिप्त रहते थे। उनकी पत्नी सुदेहा पतिव्रता स्त्री थी। उनकी पत्नी को एक बात का दुख था कि उनकी कोई संतान नहीं थी। इस कारण उनका मन परेशान रहता था। जब भी सुदेहा अपने पति से इस विषय में कहती तो वह उन्हें समझाते कि पुत्र प्राप्ति से क्या लाभ है? आजकल सभी रिश्ते-नाते स्वार्थी हो गए हैं परंतु फिर भी वे सदा दुखी रहती थीं।

   एक दिन की बात है। सुदेहा अपनी सखियों के साथ पानी भरने गई थी। वहीं पर उनका परस्पर झगड़ा हो गया और तब उनकी सहेलियों ने उसे बांझ कहकर अपमानित करना शुरू कर दिया। वे बोलीं- तू बांझ होकर इतना घमंड क्यों करती है? तेरा सारा धन तो राजा के पास ही चला जाएगा, क्योंकि तेरा कोई पुत्र तो है नहीं। दुखी मन से सुदेहा घर लौट आई। उसने सारी बातें अपने पति को बताईं। उन्होंने अपनी पत्नी को बहुत समझाया परंतु वह कुछ भी मानने को तैयार नहीं थी । तब उन ब्राह्मण देवता ने मन में भगवान शिव का ध्यान करते हुए दो फूल अग्नि की तरफ उछाले और सुदेहा से एक फूल चुनने के लिए कहा। उनकी पत्नी ने गलत फूल चुन लिया। उन्होंने अपनी पत्नी को समझाया - तुम्हारे भाग्य में पुत्र नहीं है। इसलिए अब अपनी इच्छा त्याग दो और शिवजी के पूजन में लग जाओ।

अपने पति सुधर्मा की बातों का सुदेहा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और,,

   वह उनसे इस प्रकार बोली ;- हे प्राणनाथ ! यदि आपको मेरे गर्भ से पुत्र प्राप्त नहीं हो सकता तो आप दूसरा विवाह कर लीजिए। परंतु सुधर्मा ने विवाह से इनकार कर दिया। तब सुदेहा अपनी छोटी बहन घुश्मा को अपने घर ले आई और अपने पति से प्रार्थना करने लगी कि वे उससे विवाह कर लें। 

सुधर्मा ने उसे समझाते हुए कहा ;- यदि मैंने इससे विवाह कर लिया और इससे पुत्र हो भी गया तो भी तुम दोनों बहनें सौतन बन जाने पर एक-दूसरे का विरोध करोगी और मेरे घर में झगड़ा होता रहेगा।

 तब सुदेहा बोली ;- हे प्राणनाथ ! भला मैं अपनी बहन का विरोध क्यों करूंगी। आप चिंता त्याग दें और घुश्मा से विवाह कर लें। अपनी पत्नी की प्रार्थना मानकर सुधर्मा ने घुश्मा से विवाह कर लिया।

   विवाह के पश्चात सुधर्मा ने सुदेहा और घुश्मा से मिल-जुलकर रहने एवं आपस में एक दूसरे की बात मानने के लिए कहा। फिर घुश्मा अपने पति सुधर्मा के साथ प्रतिदिन एक सौ एक शिव पार्थिव लिंगों का षोडषोपचार से पूजन करके तालाब में उनका विसर्जन कर देती ।

  इस प्रकार जब उसने एक लाख पार्थिव लिंगों का पूजन पूर्ण कर लिया तो शिवजी की कृपा से उसे परम सुंदर गुणवान पुत्र की प्राप्ति हुई । पुत्र पाकर घुश्मा और सुधर्मा बहुत प्रसन्न हुए परंतु सुदेहा को अपनी बहन से जलन होने लगी ।

【कोटिरुद्र संहिता】

तेंतीसवाँ अध्याय

"घुश्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति व माहात्म्य"

सूत जी बोले ;- हे मुनिगणो! सुदेहा अपनी छोटी बहन घुश्मा से बहुत ईर्ष्या करती थी। उसके पुत्र के प्रति भी उसका व्यवहार बुरा था। धीरे-धीरे घुश्मा का पुत्र बड़ा हो गया। उसे विवाह योग्य जानकर ब्राह्मण सुधर्मा ने उसका विवाह एक योग्य कन्या से करा दिया। इससे सुदेहा की ईर्ष्या और अधिक बढ़ गई। उसने निश्चय किया कि जब तक घुश्मा के पुत्र की मृत्यु न होगी तब तक मेरा दुख कम नहीं होगा अपनी खोई प्रतिष्ठा और घुश्मा को सबक सिखाने का निश्चय सुदेहा ने कर लिया।

   एक रात सब प्राणियों के सो जाने के बाद सुदेहा ने घुश्मा के सोते हुए पुत्र की हत्या कर दी। फिर उसके छोटे-छोटे टुकड़े करके उसी तालाब में बहा आई, जहां घुश्मा प्रतिदिन शिव पार्थिव लिंग का पूजन के उपरांत विसर्जन करती थी घर आकर सुदेहा आराम से सो गई। प्रातःकाल उठकर सुधर्मा भगवान शिव का पूजन करने चले गए, सुदेहा और घुश्मा भी अपने-अपने काम में लग गईं। जब घुश्मा की पुत्र वधू ने अपने पति की चारपाई पर खून और शरीर के अंगों के टुकड़े देखे तो वह अत्यंत व्याकुल हो गई और उसने अपनी सास को सूचित किया। वहां का दृश्य देखकर वह फौरन समझ गई कि किसी ने उनके पुत्र की हत्या कर दी है। यह जानकर घुश्मा जोर-जोर से रोने लगी । सुदेहा भी उनकी देखा-देखी आंसू बहाने लगी परंतु मन में वह अपनी सौत के दुख से बहुत प्रसन्न थी। कुछ देर पश्चात सुधर्मा शिवजी के पूजन से वापस लौटे तो उन्हें सब बातें पता चलीं।

सुधर्मा घुश्मा से बोले ;- देवी! इस तरह से रोना छोड़ दो। अपने दुख को दूर करके अपना कार्य पूरा करो। भगवान शिव ने ही हमें कृपा करके पुत्र प्रदान किया था और वही उसकी रक्षा करेंगे। इसलिए तुम रोना छोड़ो और अपना नित्य कर्म करो तब पति की आज्ञा मानकर देवी घुश्मा ने शिवजी के पार्थिव लिंगों का पूजन किया और उन्हें बहाने के लिए तालाब पर गई। जब लिंगों का विसर्जन करने के उपरांत वह मुड़ी तो उसे अपना पुत्र वहीं तालाब के किनारे खड़ा मिला। अपने पुत्र को जीवित पाकर वह बहुत प्रसन्न हुई और मन ही मन अपने आराध्य देव भगवान शिव का स्मरण करके उनका धन्यवाद व्यक्त करने लगी। उसी समय भगवान शिव वहां प्रकट हो गए और,,

 बोले ;- देवी घुश्मा! तुम्हारी आराधना से मैं प्रसन्न हूं। मांगो, क्या वर मांगना चाहती हो? तुम्हारी बहन सुदेहा ने ही तुम्हारे पुत्र की हत्या की थी परंतु मैंने इसे पुनर्जीवित कर दिया है। मैं तुम्हारी सौत को उसकी करनी का दण्ड अवश्य दूंगा।

भगवान शिव के वचन सुनकर देवी घुश्मा बोली ;- हे नाथ! सुदेहा मेरी बड़ी बहन है। इसलिए आप उनका अहित न करें। 

तब शिवजी बोले ;- तुम्हारी सौत ने तुम्हारे पुत्र को मारा, फिर भी तुम उसको दंड नहीं देना चाहती हो। 

यह सुनकर घुश्मा ने कहा ;- हे देवाधिदेव ! अपकार करने वालों पर भी उपकार करना चाहिए, यह मैंने भगवद्वाक्य पढ़ा है और मैं यही मानती भी हूँ। अतः आप सुदेहा को क्षमा कर दें।

   तब घुश्मा की बात सुनकर शिवजी बोले ;- ठीक है जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा। है! तुम और कोई वर मांगो। यह सुनकर घुश्मा बोली- हे प्रभो! आप इस जगत का हित व कल्याण करने हेतु यहीं निवास करें। 

   तब शिवजी बोले ;- हे देवी! तुम्हारी इच्छा पूरी करने हेतु मैं तुम्हारे ही नाम से घुश्मेश्वर कहलाता हुआ यहां निवास करूंगा। यह कहकर शिवजी ज्योतिर्मय रूप में शिवलिंग में स्थित हो गए। वह सरोवर शिवालय नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस सरोवर के दर्शनों के बाद घुश्मेश्वर लिंग का दर्शन करने से अभीष्ट फलों की प्राप्ति होती है।

     इस प्रकार शिवजी वहां सदा के लिए स्थित हो गए। उधर, सुधर्मा भी सुदेहा के साथ वहां आ पहुंचे और उन्हें सारी बातें ज्ञात हो गईं। सुदेहा अपनी करनी पर बहुत लज्जित हुई और उसने सबसे क्षमायाचना की। उसके मन का मैल धुल गया। तत्पश्चात उन सबने मिलकर शिवलिंग की एक सौ एक परिक्रमा कीं और उसके बाद सुखपूर्वक घर को चले गए। है मुनियो ! इस प्रकार मैंने आपको बारह शिव ज्योतिर्लिंगों की कथा एवं माहात्म्य सुनाया। जो प्राणी भक्ति भावना से इसे सुनता अथवा पढ़ता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है और उसे भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

【कोटिरुद्र संहिता】

चौंतीसवाँ अध्याय

"श्रीविष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति"

व्यासजी बोले ;- सूत जी के वचन सुनकर सभी ऋषिगणों ने उनकी बहुत प्रशंसा की। 

 तत्पश्चात वे बोले ;– सूत जी आप सबकुछ जानते हैं इसलिए हम अपनी जिज्ञासा की शांति के लिए आपसे प्रश्न पूछते हैं। अब आप हमें हरिश्वर नामक शिवलिंग का माहात्म्य बताइए । हमने सुना है कि इसी शिवलिंग के पूजन के फलस्वरूप भगवान श्रीहरि विष्णु को सुदर्शन चक्र की प्राप्ति हुई थी ।

  ऋषिगणों द्वारा किए गए प्रश्नों को सुनकर सूत जी बोले ;- हे मुनिगणो ! एक समय की बात है। पृथ्वीलोक पर दैत्यों का अत्याचार बढ़ने लगा। वे अत्यंत वीर और बलशाली हो गए तथा उन्होंने मनुष्यों को प्रताड़ित करना आरंभ कर दिया। यही नहीं, वे देवताओं के भी घर शत्रु हो गए और उन्हें भी दण्डित करने लगे। संसार से धर्म का लोप होने लगा क्योंकि दैत्य अधर्मी थे और अन्य मनुष्यों को भी पूजन नहीं करने देते थे। इस प्रकार दुष्ट दैत्यों से दुखी होकर देवता भगवान श्रीहरि विष्णु की शरण में गए। उन्होंने विष्णुजी को अपने सारे दुख बताए तथा उनसे दुखों को दूर करने की प्रार्थना की। तब सब देवताओं को समझाकर उन्होंने वापस भेज दिया और स्वयं कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान शिव की आराधना करने लगे।

  भगवान विष्णु ने कैलाश पर्वत पर जाकर सर्वेश्वर शिव का पार्थिव लिंग स्थापित किया और विधि-विधान से परमेश्वर शिव की आराधना आरंभ कर दी। श्रीहरि ने घोर तपस्या की फिर भी शिवजी प्रसन्न न हुए । तब उन्होंने देवाधिदेव महादेव जी को संतुष्ट करने के लिए शिवजी के सहस्रनामों का पाठ आरंभ कर दिया। श्रीहरि शिवजी का एक नाम लेते और एक कमल का पुष्प उन्हें अर्पित करते। इस प्रकार उन्हें शिव सहस्रनाम का पाठ करते हुए बहुत समय व्यतीत हो गया। तब एक दिन शिवजी ने भगवान विष्णु की तपस्या की परीक्षा लेने का निश्चय किया।

    विष्णु भगवान प्रतिदिन एक हजार कमल के फूलों से उनका पूजन करते थे। शिवजी ने एक फूल छिपा दिया। जब पूजा करते हुए एक फूल कम पड़ा तो विष्णुजी को बहुत आश्चर्य हुआ और वे इधर-उधर फूल ढूंढने लगे। जब फूल कहीं पर भी नहीं मिला तो उन्होंने पूजन को पूर्ण करने के लिए अपने कमल के समान नेत्र को निकालकर त्रिलोकीनाथ शिवजी को अर्पण कर दिया। श्रीहरि विष्णु की ऐसी उत्तम भक्ति भावना देखकर शिवजी ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए । शिवजी को इस प्रकार अपने सामने पाकर विष्णुजी उनकी स्तुति करने लगे।

तब शिवजी बोले ;- हे विष्णो! तुम्हारी उत्तम भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं। मांगो, क्या वर मांगना चाहते हो। शिवजी के वचनों को सुनकर विष्णुजी बोले- हे देवाधिदैव ! भगवान शिव आप तो अंतर्यामी हैं। सबकुछ जानते हैं। आप अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले हैं। प्रभो! इस समय दैत्यों ने पूरे संसार में घोर उपद्रव किया हुआ है। सारे मनुष्य एवं देवता भय से पीड़ित हैं। 

 भगवन्! मेरे अस्त्र-शस्त्रों से दैत्यों पर काबू नहीं पाया जा सकता, इसीलिए मैं आपकी शरण में आया हूं। शिवजी ने जब विष्णुजी के ऐसे वचन सुने तब उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया जिससे विष्णुजी ने सभी राक्षसों का नाश कर दिया। इस प्रकार सब सुखी हो गए।

【कोटिरुद्र संहिता】

पैंतीसवाँ अध्याय

"शिव सहस्रनाम स्तोत्र"

ऋषियों ने पूछा ;- हे सूत जी ! भगवान श्रीहरि विष्णु ने जिन सहस्रनाम स्तोत्रों द्वारा त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को प्रसन्न किया था और जिसके प्रभाव स्वरूप उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान किया, उनका माहात्म्य हमें सुनाइए ऋषियों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए,,

 सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो! त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भक्तवत्सल भगवान शिव को प्रसन्न करने वाले शिवजी के सहस्त्रनाम मैं आपको सुनाता हूं। 

शिवः, हरः, मृडः, रुद्रः, पुष्करः, पुष्पलोचनः, अर्थिगम्यः, सदाचारः, शर्वः, शंभुः, महेश्वरः, चंद्रापीडः, चंद्रमौलि, विश्वम्, विश्वभरेश्वरः, वेदांतसारसंदोहः, कपाली, नीललोहितः, ध्यानाधारः, अपरिच्छेद्यः, गौरीभर्ता, गणेश्वरः, अष्टमूर्तिः, विश्वमूर्तिः, त्रिवर्गस्वर्गसाधनः, ज्ञानगम्य, दृढ़प्रज्ञः, देवदेवः, त्रिलोचनः, वामदेवः, महादेवः पटुः परिवृढः, दृढः, विश्वरूप, विरूपाक्षः, वागीशः, शुचिसत्तमः, सर्वप्रमाणसंवादी, वृषांकः, वृषवाहनः, ईशः, पिनाकी, खटवांगी, चित्रवेषः, चिरंतनः, तमोहरः, महायोगी, गोप्ता, ब्रह्मा, धूर्जटि, कालकालः, कृत्तिवासाः, सुभगः, प्रणवात्मकः, उन्नघ्रः, पुरुषः, जुष्यः, दुर्वासाः, पुरशासन, दिव्यायुधः, स्कंदगुरुः, परमेष्टी, परात्परः, अनादिमध्यनिधनः, गिरीशः, गिरिजाधवः, कुबेरबंधुः, श्रीकंठः, लोकवर्णोत्तमः, मृदुः, समाधिवेद्यः, कोदंडी, नीलकंठ, परश्वधी, विशालाक्षः, मृगव्याधः, सुरेशः, सूर्यतापनः, धर्मधाम, क्षमाक्षेत्रम्, भगवान, भगनेत्रभित्, उग्रः, पशुपतिः, तार्क्ष्यः, प्रियभक्तः, परंतपः, दाता, दयाकरः, दक्षः, कपर्दी, कामशासनः, श्मशाननिलयः, सूक्ष्मः, श्मशानस्थ, महेश्वरः, लोककर्ता, मृगपतिः, महाकर्ता, महौषधिः ।

उत्तरः, गोपतिः, गोप्ता, ज्ञानगम्यः, पुरातनः, नीतिः, सुनीतिः, शुद्धात्मा, सोमः, सोमरतः, सुखी, सोमपः, अमृतपः, सौम्यः, महातेजाः, महाद्युतिः, तेजोमयः, अमृतमयः, अन्नमयः, सुधापतिः, अजातशत्रुः, आलोकः, संभाव्यः, हव्यवाहनः, लोककरः, वेदकरः, सूत्रकारः, सनातनः, महर्षिकपिलाचार्यः, विश्वदीप्तिः, त्रिलोचनः, पिनाकपाणिः, भूदेवः, स्वस्तिदः, स्वस्तिकृत्, सुधीः, धातृधामा, धामकरः, सर्वगः, सर्वगोचरः, ब्रह्मसृक्, विश्वसृक, सर्गः, कर्णिकारप्रियः, कविः, शाखः, विशाखः, गोशाखः शिवः, भिषगनुत्तमः, गंगाप्लवोदकः, भव्यः, पुष्कलः, स्थपतिः, स्थिरः, विजितात्मा, विधेयात्मा भूतवाहनसारथिः, सगणः, गणकायः, सुकीर्तिः, छिन्नसंशयः, कामदेवः, कामपालः, भस्मोद्धूलितविग्रहः, भस्मप्रियः, भस्मशायी, कामी, कांतः, कृतागमः, समावर्तः, अनिवृत्तात्मा, धर्मपुंजः, सदाशिवः, अकल्मषः, चतुर्बाहु, दुरावासः, दुरासदः, दुर्लभः, दुर्गमः, दुर्गः सर्वायुधविशारदः, अध्यात्मयोगनिलयः।

सुतंतु, तंतुवर्धनः, शुभांगः, लोकसारंगः, जगदीशः, जनार्दनः, भस्मशुद्धिकरः, मेरुः, ओजस्वी, शुद्धविग्रह, असाध्यः साधुसाध्यः, भृत्यमर्कटरूपधृक् हिरण्यरेताः पौराणः, रिपुजीवहरः, बली, महाह्रदः, महागर्तः, सिद्धवृंदारवंदितः, व्याघ्रचर्मांबरः, व्याली, महाभूतः, महानिधिः, अमृताशः, अमृतवपुः, पांचजन्य, प्रभंजन, पंचविंशतितत्वस्थः, पारिजातः, परावरः, सुलभः, सुव्रतः शूरः, ब्रह्मवेदनिधिः, निधिः, वर्णाश्रमगुरुः, वर्णी, शत्रुजित्, शत्रुतापनः, आश्रमः, क्षपणः, क्षामः, ज्ञानवान, अचलेश्वरः, प्रमाणभूतः, दुर्ज्ञेयः, सुपर्णः, वायुवाहनः, धनुर्धरः, धनुर्वेदः, गुणराशिः, गुणाकरः।

सत्यः, सत्यपरः, अदीनः, धर्मांगः, धर्मसाधनः, अनंतदृष्टिः, आनंदः, दण्डः, दमयिता, दमः, अभिवाद्यः, महामायः, विश्वकर्मविशारदः वीतरागः, विनीतात्मा, तपस्वी, भूतभावनः, उन्मत्तवेषः, प्रच्छन्नः, जितकामः, अजितप्रियः, कल्याणप्रकृतिः, कल्पः, सर्वलोक प्रजापतिः, तरस्वी, तारकः, धीमान, प्रधानः प्रभुः, अव्ययः, लोकपालः, अंतर्हितात्मा, कल्पादिः, कमलेक्षणः, वेदशास्त्रार्थतत्वज्ञः, अनियमः, नियताश्रयः, चंद्रः, सूर्यः, शनिः केतुः, वरांगः, विद्रुमच्छविः, भक्तिवश्यः, परब्रह्म, मृगबाणार्पण, अनघः, अद्रिः, अद्रयालयः, कांतः, परमात्मा, जगद्गुरुः, सर्वकर्मालयः, तुष्टः, मंगल्यः, मंगलावृतः, महातपाः, दीर्घत्पाः, स्थविष्ठः, स्थविरो, ध्रुवः, अहः संवत्सरः, व्याप्तिः, प्रमाणम्, परमं तपः ।

संवत्सरकरः, मंत्रप्रत्ययः सर्वदर्शनः, अजः सर्वेश्वरः सिद्धः, महारेताः, महाबलः, योगी योग्यः, महातेजाः, सिद्धिः, सर्वादि, अग्रहः, वसुः, वसुमनाः सत्यः, सर्वपापहरोहरः, सुकीर्तिशोभनः, श्रीमान्, वेदांग, वेदविन्मुनिः, भ्राजिष्णुः, भोजनम्ः, भोक्ता, लोकनाथ, दुराधरः, अमृतः शाश्वतः शांतः, बाणहस्तः प्रतापवान्, कमण्डलुधरः, धन्वी, अवागमनसगोचरः, अतींद्रियो महामायः, सर्वावासः, चतुष्पथः, कालयोगी, महानादः, महोत्साहो महाबलः, महाबुद्धिः, महावीर्यः, भूतचारी, पुरंदरः, निशाचरः, प्रेतचारी, महाशक्तिर्महाद्युतिः, अनिर्देश्यवपुः श्रीमान्, सवाचार्यमनोगतिः, बहुश्रुतः, अमहामायः, नियतात्मा, ध्रुवोध्रुवः, ओजस्तेजोद्युतिधरः, जनकः, सर्वशासनः, नृत्यप्रियः, नित्यनृत्यः, प्रकाशात्मा, प्रकाशकः, स्पष्टाक्षरः, बुधः, मंत्रः, समानः, सारसंप्लवः, युगादिकृद्युगावर्त, गंभीरः, वृषवाहनः, इष्टः, अविशिष्टः, शिष्टेष्टः, सुलभ, सारशोधनः तीर्थरूपः, तीर्थनामा, तीर्थदृश्यः, तीर्थदः, अपांनिधिः, अधिष्ठानम्, दुर्जयः, जयकालवित्ः, प्रतिष्ठितः, प्रमाणज्ञः, हिरण्यकवचः, हरिः, विमोचनः, सुरगणः, विद्येशः, विंदुसंश्रयः, बालरूपः, अबलोन्मत्तः, अविकर्ता, गहनः, गुहः, करणम्, कारणम्, कर्ता, सर्वबंधविमोचनः, व्यवसायः, व्यवस्थानः, स्थानदः । जगदादिजः, गुरुदः, ललितः, अभेदः, भावात्मात्मनि संस्थितः, वीरेश्वर, वीरभद्रः, वीरासनविधिः, विराट, वीरचूड़ामणिः।

वेत्ता, चिदानंद, नदीधरः, आज्ञाधारः, त्रिशूली, शिपिविष्टः, शिवालयः, वालखिल्य, महाचापः, तिग्मांशुः, बधिरः, खगः, अभिरामः, सुशरणः, सुब्रह्मण्यः, सुधापतिः, मघवान् कौशिकः, गोमान्, विरामः, सर्वसाधनः, ललाटाक्षः, विश्वदेह, सारः, संसार चक्रभृत्, अमोघदण्डः, मध्यस्थः, हिरण्यः, ब्रह्मवर्चसी, परमार्थः, परो मायी, शंबरः, व्याघ्रलोचनः, रुचिः, विरचिः, स्वर्बंधु, वाचस्पति, अहर्पतिः, रविः, विरोचनः, स्कंदः, शास्ता वैवस्वतो यमः, युक्तिरुन्नतकीर्तिः, सानुरागः, पंरजयः, कैलासाधिपतिः, कांतः, सविता, रविलोचनः, विद्वत्तमः, वीतभयः, विश्वभर्ता, अनिवारितः, नित्यः, नियतकल्याणः, पुण्यश्रवणकीर्तनः, दूरश्रवाः, विश्वसहः, ध्येयः, दुःस्वप्ननाशनः, उत्तारणः, दुष्कृतिहा, विज्ञेयः, दुस्सहः, अभवः, अनादिः, भूर्भुवोलक्ष्मीः, किरीटी, त्रिदशाधिपः, विश्वगोप्ता, विश्वकर्ता, सुवीरः, रुचिरागंद, जननः, जनजन्मादिः, प्रीतिमान्, नीतिमान्, घुवः, वसिष्ठः, कश्यपः, भानुः, भीमः, भीमपराक्रमः, प्रणवः, सत्पथाचारः, महाकोशः, महाधनः, जन्माधिपः, महादेवः, सकलागमपारगः, तत्वम्। तत्ववित्, एकात्मा, विभुः, विश्वभूषणः, ऋषिः, ब्राह्मणः, ऐश्वर्यजन्ममृत्युजरातिगः, पंचयज्ञसमुत्पत्तिः, विश्वेशः, विमलोदयः, आत्मयोनिः, अनाद्यंतः, वत्सलः, भक्तलोकधृक्, गायत्रीवल्लभः, प्रांशु, विश्वावासः, प्रभाकरः, शिशुः, गिरिरतः, सम्राट, सुषेणः सुरशत्रुहा, अमोघरिष्टनेमिः, कुमुदः, विगतज्वरः, स्वयं ज्योतिस्तनुज्योतिः, आत्मज्योतिः, अचंचल, पिंगलः, कपिलश्मश्रुः, भालनेत्र, त्रयीतनुः, ज्ञानस्कंदो महानीतिः विश्वोत्पत्तिः, उप्लवः, भगो विवस्वानादित्यः, योगपारः, दिवस्पतिः, कल्याणगुणनामा, पापहा, पुण्यदर्शनः, उदारकीर्तिः, उद्योगी, सद्योगी सदसन्मयः, नक्षत्रमाली, नाकेशः, स्वाधिष्ठानपदाश्रयः, पवित्रपापहारी, मणिपूरः, नभोगतिः, हृत्पुण्डरीकमासीनः शक्रः, शांतः, वृषाकपिः, उष्णः, गृहपतिः, कृष्णः, समर्थ, अनर्थनाशनः, अधर्मशत्रुः, अज्ञेयः, पुरुहूतः पुरुश्रुतः, ब्रह्मगर्भः, बृहद्गर्भः, धर्मधेनुः, धनागमः, जगद्धितैषी, सुगतः कुमारः, कुशलागमः, हिरण्यवर्णो ज्योतिष्मान्, नानाभूतरतः, ध्वनिः, अरागः, नयनाध्यक्षः, विश्वामित्रः, धनेश्वरः, ब्रह्मज्योतिः, वसुधामा, महाज्योतिरनुत्तमः, मातामहः, मातरिश्वा नभस्वान, नागहारधृक्, पुलस्त्य, पुलहः, अगस्त्यः, जातूकर्ण्यः, पराशरः, निरावरणनिर्वारः, वैरंच्यः, विष्टश्रवाः, आत्मभूः, अनरुिद्धः, अत्रिः, ज्ञानमूर्तिः, महायशाः, लोकवीराग्रणीः, वीरः, चण्डः, सत्यपराक्रमः, व्यालाकल्पः, महाकल्पः ।

कल्पवृक्षः, कलाधरः, अंलकरिष्णुः, अचलः, रोचिष्णुः, विक्रमोन्नतः, आयुः शब्दपतिः, वेगी प्लवनः, शिखिसारथिः, असंसृष्टः, अतिथिः, शक्रप्रमाथी, पादपासनः, वसुश्रवाः, हव्यवाहः, प्रतप्तः, विश्वभोजनः, जप्यः, जरादिशमनः, लोहितात्मा तनूनपात्, बृहदश्व, नभोयोनिः, सुप्रतीकः, तमिस्रहा, निदाघस्तपनः, मेघः, स्वक्षः, परपुरंजय, सुखानिलः, सुनिष्पन्न, सुरभिः शिशिरात्मकः, वसंतो माधवः, ग्रीष्मः नभस्यः, बीजवाहनः, अंगिरा गुरुः, आत्रेयः, विमलः, विश्ववाहनः, पावनः, सुमतिर्विद्वान्, त्रैविद्यः, वरवाहनः, मनोबृद्धिरहंकारः, क्षेत्रज्ञः, क्षेत्रपालकः, जमदग्निः, बलनिधिः, विगालः, विश्वगालवः, अघोरः, अनुत्तरः, यज्ञः श्रेष्ठः, निःश्रेयसप्रदः, शैलः, गगनकुंदाभः, दानवारिः, अरिंदमः, रजनीजनकश्चारुः, निःशल्यः, लोकशल्यधृक्, चतुर्वेदः, चतुर्भावः, चतुरश्चतुरप्रियः, आम्नायः, समाम्नायः, तीर्थदेवशिवालयः, बहुरूपः, महारूपः, सर्वरूपश्चराचरः, न्यायनिर्मायको न्यायी, न्यायगम्यः, निरंजन, सहस्रमूर्द्धा, देवेंद्रः, सर्वशस्त्रप्रभंजन, मुण्डः, विरूपः, विक्रांतः, दण्डी, दांतः, गुणोत्तमः, पिंगलाक्षः, जनाध्यक्षः, नीलग्रीवः, निरामयः, सहस्रबाहु, सर्वेशः, शरण्यः, सर्वलोकधृक्, पद्मासनः, परंज्योतिः, पारम्पर्य्यफलप्रदः, पद्मगर्भः, महागर्भः, विश्वगर्भः, विचक्षणः।

परावरज्ञः, वरदः, वरेण्यः, महास्वनः, देवासुरगुरुर्देवः, देवासुरनमस्कृतः, देवासुरमहामित्रः, देवासुरमहेश्वरः, देवासुरेश्वरः, दिव्यः, देवासुरमहाश्रयः, देवदेवमयः, अचिंत्यः, देवदेवात्मसंभवः, सद्योनिः असुरव्याघ्रः, देवसिंह, दिवाकरः, विबुधाग्रचर श्रेष्ठः, सर्वदेवोत्तमोत्तमः, शिवज्ञानरतः, श्रीमान, शिखि श्रीपर्वतप्रियः वज्रहस्तः, सिद्धखड्गः, नरसिंहनिपातनः, ब्रह्मचारी, लोकचारी, धर्मचारी, धनाधिपः, नंदी, नंदीश्वरः, अनंतः, नग्नव्रतधरः, शुचिः, लिंगाध्यक्षः, सुराध्यक्षः, योगाध्यक्षः, युगावहः, स्वधर्मा, स्वर्गतः, स्वर्गस्वरः, स्वरमयस्वनः, बाणाध्यक्षः, बीजकर्ता, धर्मवृद्धर्मसंभवः, दंभः, अलोभः, अर्थविच्छंभुः, सर्वभूतमहेश्वरः, श्मशाननिलयः, त्र्यक्षः, सेतुः, अप्रतिमाकृतिः, लोकोत्तरस्फुटालोकः, त्र्यंबकः, नागभूषणः, अंधकारः, मुखद्वेषी, विष्णुकंधरपातनः, हीनदोषः, अक्षयगुणः, दक्षारिः, पूषदंतभित्, धूर्जटि, खण्डपरशुः, सकलो निष्कलः, अनघः, अकालः, सकलाधारः, पाण्डुराभ:, मृडो नटः, पूर्णः, पूरयिता, पुण्यः, सुकुमारः, सुलोचनः, सामगेयप्रियः, अक्रूरः, पुण्यकीर्तिः, अनामयः, मनोजवः, तीर्थकर, जटिलः, जीवितेश्वरः, जीवितांतकरः ।

नित्यः, वसुरेता, वसुप्रदः, सद्गतिः, सस्कृतिः, सिद्धिः, सज्जातिः, खलकंटकः, कलाधरः, महाकालभूतः, सत्यपरायणः, लोकलावण्यकर्ता, लोकोत्तर सुखालयः, चंद्रसंजीवन शास्ता, लोकगूढः, महाधिपः, लोकबंधुर्लोकनाथः, कृतज्ञः, कीर्तिभूषणः, अनपायोऽक्षरः, कांतः, सर्वशस्त्रभृतां वरः, तेजोमयो द्युतिधरः, लोकानामग्रणीः, अणुः, शुचिस्मितः, प्रसन्नात्मा, दुर्जेयः, दुरतिक्रमः, ज्योतिर्मयः, जगन्नाथः, निराकारः, जलेश्वरः, तुंबवीणः, महाकोपः, विशोकः, शोकनाशनः, त्रिलोकपः, त्रिलोकेशः, सर्वशुद्धिः, अधोक्षजः, अव्यक्तलक्षणो देवः, व्यक्ताव्यक्तः, विशांपतिः, वरशीलः, वरगुणः, सारः, मानधनः, भयः, ब्रह्मा, विष्णु, प्रजापालः, हंसः, हंसगतिः, वयः, वेधा विधाता धाता, स्रष्टा, हर्ता, चतुर्मुखः, कैलासशिखरावासी, सर्वावासी, सदागतिः, हिरण्यगर्भः, द्रुहिणः, भूतपालः, भूपतिः, सद्योगी, योगविद्योगी, वरदः, ब्राह्मणप्रियः, देवप्रियो देवनाथः, देवज्ञः, देवचिंतकः, विषमाक्षः, विशालाक्षः, वृषदो वृषवर्धनः, निर्ममः, निरहंकारः, निर्मोहः, निरुपद्रवः, दर्पहा दर्पदः, दृप्तः, सर्वर्तुपरिवर्तकः सहस्रजित, सहस्रार्चि, स्निग्ध प्रकृतिदक्षिणः, भूतभव्यभवन्नाथः, प्रभवः, भूतिनाशनः, अर्थः, अनर्थः, महाकोशः, परकार्येक पण्डितः, निष्कण्टकः, कृतानंद, निर्व्याजो व्याजमर्दनः सत्ववान्, सात्विक, सत्यकीर्तिः, स्नेहकृतागमः, अकंपितः, गुणग्राही, नैकात्मा, नैककर्मकृत्, सुप्रीतः, सुमुखः, सूक्ष्मः, सुकरः, दक्षिणानिलः, नंदिस्कंधधरः, धुर्यः, प्रकटः, प्रीतिवर्धनः, अपराजितः, सर्वसत्वः, गोविंदः ।

सत्ववाहनः, अधृतः, स्वधृतः सिद्धः, पूतमूर्तिः, यशोधनः वाराहशृंगधृक्छृंगी, बलवान, एकनायकः, श्रुतिप्रकाशः, श्रुतिमान, एकबंधु, अनेककृत, श्रीवत्सल शिवारंभः, शांतभद्रः, समः, यशः, भूशयः, भूषणः, भूतिः, भृतकृत, भूतभावनः, अकं पः, भक्तिकायः, कालहा, नीललोहितः, सत्यव्रतः, महात्यागी, नित्यशांतिपरायणः, परार्थवृत्तिर्वरदः, विरक्तः, विशारदः, शुभदः, शुभकर्ता, शुभनामः शुभः, स्वयम्, अनर्थितः, अगुणः, साक्षी अकर्ता, कनकप्रभः, स्वभावभद्रः, मध्यस्थः, शत्रुघ्नः, विघ्ननाशनः, शिखण्डी कवची शूली, जटी मुण्डी च कुण्डली, अमृत्युः, सर्वदृक्सिंहः, तेजोराशिर्महामणिः, असंख्येयोऽप्रमेयात्मा, वीर्यवान् वीर्यकोविदः, वेद्य, वियोगात्मा, परावरमुनीश्वरः ।

अनुत्तमो दुराधर्षः, मधुरप्रियदर्शनः, सुरेशः, शरणम्, सर्वः, शब्दब्रह्म सतांगतिः, कालपक्षः, कालकालः, कंकणीकृत वासुकिः, महेष्वासः, महीभर्ता, निष्कलंक, विशृंखलः, धुमणिस्तरणिः, धन्यः सिद्धिदः, सिद्धिसाधनः, विश्वतः संवृतः, स्तुत्यः, व्यूढोरस्कः, महाभुजः, सर्वयोनिः, निरातंकः, नरनारायण प्रियः, निर्लेपो निष्प्रपंचात्मा, निर्व्यंग, व्यंगनाशनः, स्तव्यः, स्तवप्रियः, स्तोता, व्यासमूर्तिः, निरंकुशः, निरवद्यमयोपायः, विद्याराशिः, रसप्रियः, प्रशांत बुद्धि अक्षुण्णः, संग्रही, नित्यसुंदरः, वैयाघ्रधुर्यः, धात्रीशः, शाकल्यः, शर्वरीपतिः, परमार्थ, गुरुर्दत्तः, सूरिः, आश्रितवत्सलः, सोमः, रसज्ञ, रसदः, सर्वसत्वावलंबनः ।

सूत जी बोले ;- हे मुनियो ! इस प्रकार श्रीहरि विष्णु ने प्रतिदिन सहस्रनामों का पाठ करके भगवान शिव की स्तुति एवं पूजन कर उनके लिंग पर प्रत्येक नाम पर कमल का पुष्प चढ़ाया।

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