शिव पुराण कोटिरुद्र संहिता के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the Twenty-one to Twenty-five chapter of the Shiva Purana Kotirudra Samhita)


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【कोटिरुद्र संहिता】

इक्कीसवाँ अध्याय

"भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य"

सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो! अब मैं आपको भीमशंकर ज्योतिर्लिंग के माहात्म्य के बारे में बताता हूं। इधर, जब दानव भीम को यह ज्ञात हुआ कि राजा कैदखाने में कोई अनुष्ठान कर रहा है तब वह क्रोधित होकर जेलखाने में पहुंचा। 

भीम राजा से बोला ;- हे दुष्ट ! तू मुझे मारने के लिए कैसा अनुष्ठान कर रहा है। बता, अन्यथा मैं अपनी इस तलवार से तेरे टुकड़े टुकड़े कर दूंगा। इस प्रकार भीम और उसके अन्य राक्षस सैनिक राजा को धमकाने लगे। राजा भयभीत होकर मन ही मन भगवान शिव से प्रार्थना करने लगा। 

राजा बोला ;- हे देवाधिदेव! कल्याणकारी भक्तवत्सल भगवान शिव । मैं आपकी शरण में आया हूं। आप मेरी इस राक्षस से रक्षा करें। इधर, जब राजा ने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया तो वह क्रोधित होकर तलवार हाथ में लिए उस पर झपटा। एकाएक वह तलवार शिवजी के पार्थिव लिंग पर पड़ी और उसमें से भगवान शिव प्रकट हो गए। उन्होंने अपने त्रिशूल से उस तलवार के दो टुकड़े कर दिए। फिर उनके गणों का दैत्य सेना के साथ महायुद्ध हुआ। उस भयानक युद्ध से धरती और आकाश डोलने लगा। ऋषि तथा देवतागण आश्चर्यचकित रह गए। तब भगवान ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से भीम को भस्म कर दिया, जिससे वन में भी आग लग गई और अनेक औषधियां नष्ट हो गईं, जो अनेकों रोगों का नाश करने वाली थीं।

तब अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए कल्याणकारी भगवान शिव सदा के लिए राजा द्वारा स्थापित उस पार्थिव लिंग में विराजमान हो गए और संसार में भीमशंकर नाम से प्रसिद्ध हुए। भगवान शिव का यह लिंग सदैव पूजनीय और सभी आपत्तियों का निवारण करने वाला है।

【कोटिरुद्र संहिता】

बाईसवाँ अध्याय

"काशीपुरी का माहात्म्य"

सूत जी बोले ;- हे मुनिवरो ! इस पृथ्वी लोक में दिखाई देने वाली प्रत्येक वस्तु सच्चिदानंद स्वरूप, निर्विकार एवं सनातन ब्रह्मरूप है। वह अद्वितीय परमात्मा ही सगुण रूप में शिव कहलाए और दो रूपों में प्रकट हुए। वे शिव ही पुरुष रूप में शिव एवं स्त्री रूप में शक्ति नाम से प्रसिद्ध हुए शिव-शक्ति ने मिलकर दो चेतन अर्थात प्रकृति एवं पुरुष (विष्णु) की रचना की है। तब प्रकृति एवं पुरुष अपने माता-पिता को सामने न पाकर सोच में पड़ गए। उसी समय आकाशवाणी हुई।

आकाशवाणी बोली ;- तुम दोनों को जगत की उत्पत्ति हेतु तपस्या करनी चाहिए। तभी सृष्टि का विस्तार होगा। वे दोनों बोले- हे स्वामी! हम कहां जाकर तपस्या करें? यहां पर तो ऐसा कोई स्थान नहीं है जहाँ तपस्या की जा सके। तब भगवान शिव ने पांच कोस लंबे-चौड़े शुभ व सुंदर नगर की तुरंत रचना कर दी। वे दोनों त्रिलोकीनाथ भगवान शिव के चरणों का स्मरण करके वहां तपस्या करने लगे। उन्हें इस प्रकार तपस्या करते-करते बहुत समय बीत गया। उनकी कठिन तपस्या के कारण उनके शरीर से पसीने की बूंदें निकलीं। उन श्वेत जल की बूंदों को गिरता हुआ देखकर भगवान श्रीहरि विष्णु ने अपना सिर हिलाया तभी उनके कान से एक मणि गिरी और वह स्थान मणिकर्णिका नाम से प्रसिद्ध हो गया। जब उनके शरीर से निकली जलराशि से वह नगरी बहने लगी तब कल्याणकारी भगवान शिव ने अपने त्रिशूल की नोक पर उसे रोक लिया।

तपस्या में किए गए परिश्रम से थककर विष्णु तथा उनकी पत्नी प्रकृति वहीं उसी नगर में सो गए। तब शिवजी की प्रेरणा स्वरूप विष्णुजी की नाभि से कमल उत्पन्न हुआ। उसी कमल से ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। भगवान शिव की आज्ञा पाकर ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना आरंभ कर दी। ब्रह्माजी ने पचास करोड़ योजन लंबा और पचास करोड़ योजन चौड़ा ब्रह्माण्ड रच दिया। इसमें चौदह अद्भुत लोकों का भी निर्माण ब्रह्माजी ने किया इस प्रकार जब सर्वेश्वर शिव की आज्ञा से ब्रह्माजी द्वारा ब्रह्माण्ड का निर्माण हो गया तब भक्तवत्सल भगवान शिव के मन में विचार आया कि इस संसार के सभी प्राणी तो कर्मपाश में बंधे रहेंगे। सांसारिक मोह माया में पड़कर भला वे मुझे किस प्रकार पा सकेंगे।

ऐसा सोचकर त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से पांच कोस नगरी उतारकर ब्रह्माण्ड से अलग की। तत्पश्चात उसमें अपने अविमुक्ति ज्योतिर्लिंग की स्थापना कर दी। यही पंचकोसी, कल्याणदायिनी, ज्ञानदात्री एवं मोक्षदात्री नगरी काशी कहलाई। भगवान शिव ने इस नगरी में अपने ज्योतिर्लिंग की स्थापना करने के पश्चात इसे पुनः मृत्युलोक में त्रिशूल के माध्यम से जोड़ दिया। कहते हैं ब्रह्माजी का एक दिन पूरा होने पर प्रलय आती है परंतु इस काशी नगरी का नाश असंभव है, क्योंकि प्रलय के समय शिवजी

इस काशी नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं तथा सब शांत हो जाने पर काशी को पृथ्वीलोक से जोड़ देते हैं। इसलिए मुक्ति की कामना करने वालों को काशी जाना चाहिए। यहां के दर्शनों से हर प्रकार के पापों से मुक्ति मिल जाती है। काशी मोक्ष देने वाली नगरी के रूप में प्रसिद्ध है।

संसार के समस्त प्राणियों के मध्य में सत्व रूप में और बाहर तामस रूप में विराजमान परमात्मा भगवान शिव ही हैं। सत्व आदि गुणों से युक्त वही रुद्र हैं, जो सगुण होते हुए निर्गुण और निर्गुण होते हुए सगुण हैं उन कल्याणकारी भगवान शिव को प्रणाम करके,,

 रुद्र बोले ;- हे विश्वनाथ ! महेश्वर लोकहित की कामना से आपको यहां विराजमान रहना चाहिए। मैं आपके अंश से उत्पन्न हूं। आप मुझ पर कृपा करें और देवी पार्वती सहित यहीं पर निवास करें।

ब्राह्मणो! जब विश्वनाथ ने भगवान शिव से इस प्रकार प्रार्थना की तब भगवान शिव संसार के कल्याण के लिए काशी में देवी पार्वती सहित निवास करने लगे। उसी दिन से काशी सर्वश्रेष्ठ नगरी हो गई।

【कोटिरुद्र संहिता】

तेईसवाँ अध्याय

"श्री विश्वेश्वर महिमा"

सूत जी बोले ;- हे मुनियो ! अब मैं आपको काशीपुरी में स्थित अविमुक्त ज्योतिर्लिंग का माहात्म्य सुनाता हूं। एक बार जगदंबा माता पार्वती ने त्रिलोकीनाथ भगवान शिव से विश्वेश्वर ज्योतिर्लिंग की महिमा पूछी थी। तब अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती का प्रश्न सुनकर,,

 भगवान शिव बोले ;- हे प्रिये ! मनुष्य को भक्ति और मुक्ति प्रदान करने वाला उत्तम धाम काशी है । मेरा प्रिय स्थान होने के कारण काशी में अनेक सिद्ध और योगी पुरुष आकर मेरे अनेकों रूपों का वर्णन करते हैं। काशी में मृत्यु को प्राप्त करने वाले मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। वह सीधे शिवलोक को प्राप्त करता है। स्त्री पवित्र हो या अपवित्र, कुंआरी हो या सुहागन या अन्य काशी में मरकर मोक्ष को प्राप्त करती हैं। काशी में निवास करने वाले भक्तजन बिना जाति, वर्ण, ज्ञान, कर्म, दान, संस्कार, स्मरण अथवा भजन के सीधे मुक्ति को प्राप्त होते हैं।

   हे उमे ! जिस विशेष कृपा को पाने के लिए ब्रह्माजी एवं श्रीहरि विष्णु ने जन्म-जन्मांतरों तक तपस्या की, वह काशी नगरी में मरने से ही प्राप्त हो जाती है। मनुष्य योग्य, अयोग्य कर्म करे या धर्म अथवा अधर्म के मार्ग पर चले, इस काशीपुरी में मृत्यु पाकर जीवन-मरण के बंधनों से छूट जाता है। हे देवी! जो काशी नगरी में निवास करते हुए भक्तिपूर्वक मेरा ध्यान, स्मरण करता है अथवा मेरी आराधना अथवा तपस्या करता है, उसके पुण्यों की महिमा का वर्णन करना तो मेरे लिए भी असंभव है। वे सब मुझमें ही स्थित हैं। शुभ कर्मों से स्वर्ग प्राप्त होता है एवं अशुभ कर्मों से नरक की प्राप्ति होती है। हमारे द्वारा किए गए शुभ-अशुभ कर्मों से ही जन्म-मरण निश्चित होता है तथा सुख की प्राप्ति होती है।

   पार्वती! तीन प्रकार के कर्म होते हैं- 1. पहले जन्म में किए कर्म संचित होते हैं। 2. इस जन्म में किए हुए क्रियमाण हैं। 3. दोनों के द्वारा मिल रहा फल, जो शरीर में भोगे जा रहे हैं, प्रारब्ध कर्म कहलाते हैं। संचित तथा क्रियमाण कर्मों को दान-दक्षिणा देकर एवं पुण्य कर्मों द्वारा कम अथवा खत्म किया जा सकता है परंतु प्रारब्ध कर्मों को मनुष्य को भोगना ही पड़ता है। काशीपुरी में किया गया गंगा स्नान संचित एवं क्रियमाण कर्मों को नष्ट कर देता है। प्रारब्ध कर्म काशी में मृत्यु से ही नष्ट होते हैं। काशी का रहने वाला यदि कोई पाप करता है तो काशी के पुण्य प्रताप से तुरंत ही पाप से मुक्त हो जाता है।

   हे ऋषिगणो! इस प्रकार काशी नगरी एवं विश्वेश्वर लिंग का माहात्म्य मैंने आपको सुनाया है जो कि भक्तों एवं ज्ञानियों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है।

【कोटिरुद्र संहिता】

चोबीसवाँ अध्याय

"गौतम-प्रभाव"

सूत जी बोले ;- हे महामुनियो ! प्राचीन काल में गौतम नामक एक महामुनि थे, जिनकी पत्नी का नाम अहिल्या था । वे महामुनि गौतम दक्षिण में स्थित ब्रह्म पर्वत पर हजार वर्षों में सिद्ध होने वाली तपस्या कर रहे थे। उस समय लगभग सौ वर्षों से वर्षा नहीं हुई थी, जिससे सूखा पड़ा हुआ था। पीने के लिए जल भी उपलब्ध नहीं था। सारे वृक्ष-पौधे आदि सभी वनस्पतियां सूख चुकी थीं। उस समय आए इस संकट से मुक्ति दिलाने हेतु बहुत से ऋषि मुनियों ने समाधि ले ली थी। तब गौतम ऋषि ने इस वर्षा के संकट को दूर करने हेतु वर्षा के देव वरुण को प्रसन्न करने हेतु उनकी तपस्या करनी आरंभ की। गौतम ऋषि ने छः महीने तक वरुण देव की घोर तपस्या की, जिससे वरुण देवता प्रसन्न हुए और उन्होंने गौतम ऋषि को साक्षात दर्शन दिए ।

वरुण देव बोले ;- हे गौतम ऋषि ! मैं आपकी उत्तम भक्तिभावना से की गई तपस्या से बहुत संतुष्ट हुआ हूं। मांगो, क्या वर मांगना चाहते हो? तब वरुण देव का प्रश्न सुनकर,,

 महर्षि गौतम बोले ;- हे वरुण देव ! आप तो सर्वज्ञाता हैं। भगवन्! आप जानते ही हैं कि वर्षा न होने के कारण संसार के सभी चराचर प्राणी व्याकुल हैं। इसलिए सबकी परेशानियों एवं दुखों को दूर करने के लिए मैं चाहता हूं कि वर्षा हो जाए।

महर्षि गौतम के वर को सुनकर वरुण देव बोले कि मैं तो इस जगत के ईश्वर कल्याणकारी भगवान शिव के अधीन हूं और उन्हीं की आज्ञा और प्रेरणा के फलस्वरूप कार्य करता हूं। इसलिए इस वरदान को तो सर्वेश्वर शिव ही दे सकते हैं। अतः आप मुझसे कुछ और मांग लें। 

तब महर्षि गौतम बोले ;- प्रभो ! आप मुझे जलदान दीजिए। इससे बडा और कोई पुण्य नहीं है और इसे कोई नष्ट भी नहीं कर सकता। तब गौतम जी की विनती को स्वीकार करते हुए वरुण देव बोले कि आप एक गड्ढा खोदें। मैं उसे जल से भर दूंगा और उस गड्ढे का जल कभी भी खाली नहीं होगा और इसके लिए तुम्हारा नाम भी संसार में प्रसिद्ध हो जाएगा।

वरुण देव की आज्ञा मानते हुए महर्षि गौतम ने तुरंत एक हाथ लंबा और चौड़ा गड्ढा खोद दिया। तब वरुण देव ने उसे जल से भर दिया और,,

 महर्षि गौतम से बोले ;- हे महामुने ! इस स्थान पर किए गए सभी कर्म, दान, हवन, देव पूजन, तपस्या, पितृ श्राद्ध आदि सब सफल होंगे। यह कहकर वरुण देव अंतर्धान हो गए। तब गौतम ऋषि बहुत प्रसन्न हो गए कि सबके संकटों को उन्होंने दूर कर दिया है। इसलिए कहते हैं कि संकट के समय बड़ों की शरण में जाने से दुखों से मुक्ति मिलती है।

इस प्रकार महर्षि गौतम इच्छित वर पाकर खुश हो एवं स्नान आदि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर, जौ आदि अन्न पैदा करने लगे। उस जल से सींचकर उन्होंने मुरझाए हुए वृक्षों एवं पौधों को पुनः लहलहा दिया। उस स्थान को छोड़कर चले गए सभी जीव पुनः लौट आए।

महर्षि गौतम की परम कृपा से यह स्थान ऋद्धि-सिद्धियों से युक्त एवं सभी मनुष्यों के लिए कल्याणकारी एवं सुखदायक हुआ।

【कोटिरुद्र संहिता】

पच्चीसवाँ अध्याय

"महर्षि गौतम को गोहत्या का दोष"

   सूत जी बोले ;- हे मुनियो ! एक बार की बात है महर्षि गौतम ने अपने शिष्यों को कमण्डल में जल लाने के लिए भेजा। जब शिष्य जल लेने उस गड्ढे पर गए तो उस समय वहां कुछ ऋषि-पत्नियां जल भरने आई हुई थीं। उन्होंने गौतम ऋषि के शिष्यों को डांटकर बिना जल दिए ही वहां से भगा दिया। आश्रम जाकर शिष्यों ने सारी बातें गुरु पत्नी देवी अहिल्या को बता दीं। तब देवी अहिल्या स्वयं जल भरने गईं और जल लाकर अपने पति को दिया। उस दिन से स्वयं अहिल्या ही जल लेने जाने लगीं। एक दिन अन्य ऋषि पत्नियों ने जान-बूझकर अहिल्या से लड़ना आरंभ कर दिया और अपने घर आकर अपने पतियों से अहिल्या की झूठी शिकायत कर दी कि वह हमें जल भरने देने से मना करती है और कहती है कि यह जल तो मेरे पति को वरदानस्वरूप वरुणदेव से प्राप्त हुआ है।

  अपनी पत्नियों की बातें सुनकर ऋषियों को बहुत क्रोध आया। गौतम ऋषि को सबक सिखाने के लिए अन्य ऋषियों ने गणपति की आराधना आरंभ कर दी। उनके पूजन से प्रसन्न होकर गणपति प्रकट हुए और वर देने के लिए कहने लगे। 

  तब ऋषि बोले ;- हे विघ्न विनाशक गणपति! हम चाहते हैं कि गौतम ऋषि यहां से आश्रम छोड़कर किसी दूसरे स्थान पर चले जाएं। उनके यह वचन सुनकर गणेश जी बोले गौतम ऋषि ने तो कोई अपराध नहीं किया है, फिर आप उनका बुरा क्यों चाहते हैं? आप कोई और वरदान मांग लीजिए परंतु जब ऋषि नहीं माने तो उनका इच्छित वरदान देकर गणेश जी वहां से अंतर्धान हो गए।

  गणेश जी ने अपना दिया वरदान सिद्ध करने के लिए एक गाय का रूप धारण किया और गौतम जी द्वारा लगाए गए जौ खाने उनके खेत में चली गई। जब महर्षि गौतम ने देखा कि वह गाय उनका खेत नष्ट कर रही है तो स्वयं एक तिनका हाथ में लेकर उसे बाहर निकालने लगे। उस तिनके से पीड़ित होकर गाय धरती पर गिरी और मर गई। गाय को मरा जानकर गौतम ऋषि बहुत दुखी हुए। वे अपनी पत्नी से कहने लगे कि शायद मुझसे कोई भारी भूल हो गई जिस कारण मेरे आराध्य भगवान शिव मुझसे नाराज हो गए हैं और मुझ पर गौहत्या का पाप लग गया है।

   उसी समय वहां अन्य ऋषि भी आ गए, जो गौतम ऋषि से बैर रखते थे। उन्होंने महर्षि गौतम, उनकी पत्नी और शिष्यों को भला-बुरा कहकर वहां से निकल जाने को मजबूर किया तो वे सब उस स्थान को छोड़कर वहां से चलने लगे। उन्होंने उन ऋषियों से पूछा कि मेरे द्वारा की गई इस गौहत्या का क्या प्रायश्चित होगा? 

  तब वे ऋषि बोले ;- पतित पावनी गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सारे पाप धुल जाते हैं। इसलिए अपने द्वारा की गई गौहत्या के प्रायश्चित से मुक्त होने के लिए आप गंगा जी को प्रकट कर उसमें स्नान करें और भगवान शिव के पार्थिव लिंग की स्थापना कर उसका भक्तिपूर्वक विधि-विधान से पूजन करें। तभी आप इस महापाप से मुक्ति पा सकेंगे। अन्य ऋषियों से पश्चाताप का मार्ग पूछकर गौतम ऋषि अपनी पत्नी और शिष्यों को साथ लेकर वहां से दूर चले गए।

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