शिव पुराण शतरुद्र संहिता के छब्बीसवें अध्याय से तीसवें अध्याय तक (From the twenty-sixth to the thirtieth chapter of Shiv Purana Shatarudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【शतरुद्र संहिता】

छब्बीसवाँ अध्याय

"वैश्यनाथ अवतार वर्णन"

नंदीश्वर बोले ;– हे मुनिश्वर ! पूर्व समय में नंदी नामक गांव में महानंदा नाम की एक वेश्या रहती थी। समस्त ऐश्वर्यों से संपन्न होने पर भी वह भगवान शिव की परम भक्त थी। वह नित्य भगवान शिव-पार्वती का पूजन करती। महानंदा शिव भक्ति रस में इतना डूब जाती कि घंटों घंटों तक भक्तिभाव में उनके भजनों को गाती रहती । इस भक्तिभाव में, जब वह भजन गाती तो उसका मुर्गा और बंदर भी नाच-नाचकर साथ देते।

एक दिन भगवान शिव ने महानंदा की परीक्षा लेने के लिए एक वैश्य का रूप धारण किया और उसके दरवाजे पर पहुंच गए। उनके हाथों में एक सुंदर रत्नजड़ित कंकण था। उस वैश्य का कंकण महानंदा को भा गया। वह उसे पाना चाहती थी। 

वैश्य रूपी भगवान शिव ने उसके मन की बात जान ली और बोले ;— हे देवी! यदि आपको यह कंकण पसंद है तो इसका मूल्य चुका कर इसे आप रख लें। उस वैश्य की बात सुनकर महानंदा ने विनम्रता से मुस्कुराते हुए कहा- मैं तो एक वेश्या हूं। व्यभिचार ही मेरे कुल का धर्म है। इसके अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी नहीं है। यदि आप मुझे यह कंकण देंगे तो मैं तीन दिन तक आपकी पत्नी बनकर आपके साथ निवास करूंगी।

   देवी महानंदा के प्रस्ताव को सुनकर वह वैश्य तैयार हो गया और कहने लगा कि सूर्य और चंद्रमा इस बात के प्रमाण हैं। अब तुम मेरे हृदय पर हाथ रखकर तीन बार यह कहो कि तुम तीन दिन तक मेरे साथ मेरी पत्नी बनकर रहोगी। महानंदा ने वैश्य के कहे अनुसार वचनों को दोहरा दिया। 

तत्पश्चात वैश्य ने वह सुंदर रत्नजड़ित कंकण महानंदा के हाथ में दिया और,

 बोला ;- हे कांते! भगवान शिव का यह रत्नजड़ित शिवलिंग मुझे अपने प्राणों से भी प्यारा है। इसलिए तुम इसकी सदैव रक्षा करना। महानंदा ने वैश्य द्वारा दिया गया वह शिवलिंग अपने माथे पर लगाया और हर हाल में उसकी रक्षा करने का आश्वासन वैश्य को दिया तथा ले जाकर अपने नाटक मण्डप में रख दिया।

रात में जब सब सो गए तब उस नाटक मण्डप में आग लग गई। वह धू-धू कर जलने लगा। महानंदा ने अपने बंदर और मुर्गे को तो बचा लिया परंतु भगवान शिव के रत्नजड़ित सुंदर लिंग को, जो वैश्य ने उसे संभालकर रखने के लिए दिया था, न बचा सकी। वह आग में जलकर नष्ट हो गया था। यह देखकर वह वैश्य और महानंदा बहुत दुखी हुए ।

    उस वैश्य ने कहा ;- हे नंदे ! यह शिवलिंग मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय था। जब शिवलिंग जल गया तो मैं अब क्या करूंगा ? महानंदा के बहुत समझाने पर भी वैश्य नहीं माना और उसने अपने शरीर को अग्नि की भेंट कर दिया। यह देखकर महानंदा को बहुत दुख हुआ कि मेरी असावधानी के कारण उस वैश्य के प्राण चले गए। मेरे ही कारण एक परम शिवभक्त मर गया। यह सोच-सोचकर नंदा पागल हुई जा रही थी। उसे याद आया कि उसने वैश्य से तीन दिन तक उसके साथ रहने का वचन दिया था। तब महानंदा ने अपना सारा धन, रत्न, आभूषण आदि सभी बहुमूल्य वस्तुएं आदि प्रसन्नता से ब्राह्मणों को दान कर दिए और स्वयं उस वैश्य की चिताग्नि में कूदने लगी परंतु इससे पहले कि महानंदा उस अग्नि में प्रवेश करती वहां भगवान शिव प्रकट हो गए। भगवान शिव को साक्षात अपने सामने पाकर नंदा स्तब्ध रह गई और एकटक उन्हें देखने लगी। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। कुछ क्षण पश्चात जैसे ही उसे ध्यान आया, उसने भगवान शिव के चरण पकड़ लिए और उनकी स्तुति करने लगी।

   तब प्रसन्न होकर महादेवजी बोले ;- नंदा! मैं तुम्हारी सत्यता, धर्म- धैर्य और निश्चल भक्ति भावना से बहुत प्रसन्न हूं। मैंने ही वैश्य रूप धारण करके तुम्हारी परीक्षा ली थी जिसमें तुम सफल हुईं। मांगो, क्या मांगना चाहती हो? 

   तब महानंदा बोली ;- भगवन्! मैं और मेरे सभी साथी आपके दर्शनों से ही धन्य हो गए। इससे अधिक हमें कुछ नहीं चाहिए। हां, यदि फिर भी आप देना चाहते हैं तो अपने चरणों में थोड़ा-सा स्थान दे दीजिए। यह सुनकर शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक महानंदा को शिवलोक भेज दिया।

【शतरुद्र संहिता】

सत्ताईसवाँ अध्याय

"द्विजेश्वर-अवतार"

  नंदीश्वर बोले ;- हे तात! भद्रायु राजा, जिस पर भगवान शिव ने ऋषभ रूप में कृपा की थी, की परीक्षा लेने के लिए ही भगवान शिव ने द्विजेश्वर अवतार धारण किया था। ऋषभ के प्रभाव से अपने शत्रुओं पर विजय पाकर भद्रायु सिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने राजा चंद्रागंग की पुत्री सीमंतिनी से विवाह किया। एक समय राजा भद्रायु बसंत ऋतु में अपनी में पत्नी सीमंतिनी के साथ वन विहार करने गए। तब भगवान शिव-पार्वती उस दंपति की धर्म निष्ठा की परीक्षा लेने हेतु उस वन में पहुंचे। महान लीलाधारी भगवान शिव और पार्वती जी ने ब्राह्मण-ब्राह्मणी का रूप धारण किया और अपनी माया से रचित सिंह से भयभीत होते हुए राजा भद्रायु की शरण में गए और उनसे अपनी प्राण रक्षा करने हेतु प्रार्थना करने लगे।

उस ब्राह्मण दंपति की रक्षा हेतु राजा भद्रायु ने तुरंत धनुष-बाण उठा लिया और बाणों से उसे घायल करना चाहा, परंतु उस सिंह पर कोई प्रभाव न पड़ा। उसने झपटकर ब्राह्मणी को पकड़ लिया। वह बहुत चीखी, चिल्लाई परंतु सिंह ब्राह्मणी को बलपूर्वक घसीटता हुआ भाग गया। अपनी पत्नी को सिंह द्वारा ले जाए जाने पर ब्राह्मण बहुत दुखी हुआ और रोने लगा,, 

    और राजा भद्रायु से बोला ;- हे राजन! आपके बड़े-बड़े आयुध कहां हैं? तुम्हारे पराक्रम का क्या फल है? क्या आप जंगली जानवरों के आघातों से भी दुखियों की रक्षा नहीं कर सकते। दीन-दुखियों की रक्षा करना राजा का परम धर्म होता है। फिर आपने अपने क्षत्रिय धर्म का पालन क्यों नहीं किया? आपने अपने कुल का धर्म ही नष्ट कर दिया है। जो दुखी और शरणागतों की रक्षा नहीं कर सकता, उसे जीने का कोई अधिकार नहीं है। कृपण, अनाथ और दीन-दुखी की रक्षा करने में असमर्थ मनुष्य को जहर खा लेना चाहिए या अग्नि में जल जाना चाहिए।

   उस ब्राह्मण द्वारा कही गई बातें सुनकर राजा भद्रायु को बहुत दुख हुआ। वह अपने दुर्भाग्य को याद करके शोक में डूब गया। उसने सोचा कि आज मेरा सारा पौरुष नष्ट हो गया। आज मैं एक असहाय ब्राह्मणी की रक्षा नहीं कर सका। इसलिए मुझे घोर पाप लगेगा। मेरे कारण ब्राह्मण भी शोकाकुल हो गया है। उसकी स्त्री को भी सिंह ले गया है, पता नहीं उसने उसका क्या किया होगा? मुझे अपने पापों को कम करने के लिए इस ब्राह्मण देवता को प्रसन्न करना होगा।

यह सोचकर राजा भद्रायु उस ब्राह्मण के चरणों में गिर पड़े,,

 और बोले ;- हे ब्रह्मन ! मुझे क्षमा कर दीजिए, मैं आपकी पत्नी की रक्षा नहीं कर सका। मैं अपना राज-पाट सब आपके चरणों में न्योछावर करता हूं। 

यह सुनकर वह ब्राह्मण बोला ;- भला मैं ठहरा भिक्षा मांगने वाला एक ब्राह्मण, मैं तुम्हारे राज-पाट का क्या करूंगा? इसलिए यदि तुम वाकई मुझे कुछ देना चाहते हो तो अपनी पत्नी मुझे दान में दे दो ।

ब्राह्मण की बात सुनकर राजा भद्रायु ने कहा ;- ब्रह्मन ! पराई स्त्री का उपभोग तो महापाप है। उसका प्रायश्चित भी नहीं हो सकता। तब ब्राह्मण ने कहा कि राजन मैं तो बड़े से बड़े पाप मैं को अपनी तपस्या से पल भर में नष्ट कर सकता हूं। तब भद्रायु ने सोचा कि मुझे ब्राह्मण को अपनी स्त्री दान करके शीघ्र ही अग्नि में प्रवेश कर जाना चाहिए। तत्पश्चात राजा भद्रायु ने अपनी पत्नी उस ब्राह्मण को सौंप दी। उसके बाद उन्होंने अग्नि प्रज्वलित की और स्नान कर देवताओं को प्रणाम करने के पश्चात उस अग्नि की तीन बार परिक्रमा की। फिर त्रिलोकीनाथ के भगवान शिव का ध्यान करने लगे और उन्हीं का स्मरण करते हुए जैसे ही वे अग्नि में प्रवेश करने लगे, वैसे ही द्विजेश्वर रूपधारी भगवान शिव वहां प्रकट हो गए।

भगवान शिव के पांच मुख, तीन नेत्र, पिनाक और चंद्रकलाधारी सुंदर स्वरूप, जो कि करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशित था, देखकर राजा भद्रायु आनंदमग्न हो उठे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर शिवजी को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे।

राजा भद्रायु की स्तुति सुनकर भगवान शिव-पार्वती बोले ;- हे भद्रायु ! तुम्हारी शिवभक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं। तुमने सदा मेरा भक्तिभाव से पूजन किया है। अतः तुम अपनी पत्नी सहित मुझसे वर मांगो। आज मैं तुम्हारी मनोवांछित अभीष्ट वस्तु प्रदान करूंगा। मैंने ही तुम्हारी परीक्षा लेने हेतु ब्राह्मण का रूप धारण किया था। ब्राह्मणी के रूप में स्वयं देवी पार्वती थीं और वह सिंह मायावी था। तुम अपनी परीक्षा में सफल हुए हो राजन। कहो, क्या चाहते हो?

भगवान शिव के ये उत्तम वचन सुनकर राजा भद्रायु बोले ;- हे देवाधिदेव भगवान शिव! आप सबके परमेश्वर हैं। आपके स्वरूप के साक्षात दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया हूं। मैं सकुटुंब आपके श्रीचरणों की भक्ति करना चाहता हूं। मैं, मेरी रानी, मेरे माता-पिता आपके सेवक बनकर आपके श्रीचरणों में रहें। रानी कीर्तिमालिनी ने भी अपने माता-पिता के लिए भगवान शिव का लोक मांगा। दोनों को वरदान देकर महादेव जी पार्वती जी सहित अंतर्धान हो गए। राजा-रानी अपने नगर लौट आए। फिर दस हजार वर्षों तक राज्य करने के पश्चात वे दोनों भगवान शिव के धाम को गए। इस परम पवित्र, पापनाशक कथा को जो कोई सुनता अथवा पढ़ता है उसे इस लोक में सब भोग-ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं तथा अंत में भगवान शिव के लोक को जाता है।

【शतरुद्र संहिता】

अठ्ठाईसवाँ अध्याय

"यतिनाथ हंसरूप अवतार"

नंदीश्वर बोले ;– हे मुनिश्वर! अर्बुदाचल पर्वत के पास भीलवंशोत्पन्न आहुक नाम का एक भील रहता था। उसकी पत्नी का नाम आहुका था। वह बहुत पतिव्रता थी । वे दोनों पति पत्नी भगवान शिव के परम भक्त थे। एक दिन वह शिवभक्त भील भोजन की तलाश में बहुत दूर निकल गया। संध्या के समय भगवान शिव संन्यासी का रूप धारण करके उसकी परीक्षा लेने आए। वह भील भी शिकार से घर लौट आया था। तब यतिरूप में शिवजी उनके घर पहुंचे। भील ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया। 

इस पर यतिनाथ बोले ;- हे भील! मैं रास्ते से भटक गया हूं और आस-पास जाने का मार्ग भी नहीं पता चल रहा है क्योंकि शाम हो चुकी है। अतएव आप मुझे रात्रि के लिए आश्रय दीजिए। सुबह होते ही मैं यहां से चला जाऊंगा। यतिनाथ के वचन सुनकर वह भील बोला- स्वामी! मेरे घर में तो बहुत थोड़ा-सा स्थान है। आप यहां कैसे रह पाएंगे? भील की बात सुनकर वह चलने लगे। 

तभी भीलनी ने भील से कहा ;- स्वामी! ये मुनि हमारे अतिथि हैं। अतिथि तो भगवान का रूप होता है। इसलिए आप इन्हें यहीं रहने दीजिए। आप दोनों घर में रहना और मैं बाहर रह जाऊंगी। अपनी पत्नी के वचन सुनकर भील बोला कि तुम घर के भीतर रहो और मैं बाहर रह जाऊंगा।

  यह कहकर वह भील घर से बाहर आ गया और बैठ गया। प्रातःकाल जब वह संन्यासी और भीलनी घर से बाहर निकले तो उन्हें पता चला कि भील को जंगली पशुओं ने खा लिया है। यह देखकर वे दोनों बहुत दुखी हुए। तब वह संन्यासी बोला कि मेरी वजह से तुम्हारे पति की मृत्यु हो गई है। हे देवी! मुझे क्षमा कर दीजिए। तब वह भीलनी कहने लगी कि आप दुखी न हों। अतिथि की रक्षा करना हमारा धर्म है और मेरे पति ने तो अपना धर्म निभाया है।

यह कहकर उस भीलनी ने चिता तैयार की और उसमें अग्नि प्रज्वलित कर सती होने लगी। उसी क्षण भगवान शिव वहां प्रकट हो गए,,

 और बोले ;- तुम धन्य हो ! मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तुम अपनी इच्छानुसार वर मांगो, मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। देवाधिदेव महादेव जी को इस प्रकार सामने पाकर भीलनी बहुत प्रसन्न हुई और शिवजी की स्तुति करने लगी । बहुत कहने पर जब भीलनी ने कुछ नहीं मांगा,,

 तब भगवान शिव बोले ;- अगले जन्म में मैं हंस रूप में प्रकट होऊंगा। तुम विदर्भ नगर में भीमराज की पुत्री दमयंती के रूप में जन्म लोगी। उस समय यह भील निषाद देश का राजपुत्र होगा। उसके पिता वीरसेन होंगे और उस जन्म में उसका नाम नल होगा। तब हंसरूप में मैं तुम दोनों अर्थात नल-दमयंती का मिलन कराऊंगा। उस समय तुम समस्त राज भोग भोगने के पश्चात मोक्ष को प्राप्त होगे।

   यह कहकर भगवान शिव वहीं लिंग रूप में स्थित हो गए। भील के धर्म के प्रति अचल रहने के कारण यह लिंग 'अचलेश' नाम से जगत प्रसिद्ध हुआ। अगले जन्म में भील नल, भीलनी दमयंती बने और भगवान यतिनाथ शिव ने हंस रूप में जन्म लिया और उनके पूर्व जन्म के पुण्य से प्रसन्न होकर उन्हें सुख प्रदान किया।

【शतरुद्र संहिता】

उन्तीसवाँ अध्याय

"श्रीकृष्ण दर्शन अवतार"

  नंदीश्वर बोले ;- हे सनत्कुमार जी ! इक्ष्वाकु वंश में श्राद्धदेव की नौवीं पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ और उनके पुत्र नाभाग हुए। नाभाग के पुत्र रूप में अंबरीष का जन्म हुआ। वे परम विष्णु भक्त थे। अंबरीष के पितामह नभग को स्वयं भगवान शिव ने ज्ञान दिया था। एक समय की बात है कि जब नभग गुरुकुल में शिक्षा ग्रहण करने गए हुए थे, उस समय उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन कर लिया और नभग के भाग को भी हड़प कर अपने राज्य में मिला लिया। शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात जब वे गुरुकुल से लौटे तो उन्होंने अपना भाग मांगा परंतु उनके भाइयों ने कहा कि हमने तुम्हारा हिस्सा किया ही नहीं था। अब जो मांगना चाहते हो वह तुम पिताजी से मांगो। कुछ भी अपने भाइयों के स्वार्थी वचनों को सुनकर नभग को बहुत दुख हुआ। वे अपने पिता के पास गए और उन्हें सबकुछ बताया। पिता उन्हें धैर्य बंधाते बोले कि तुम्हारे भाइयों ने तुम्हारे साथ छल किया है। बेटा! तुम बुद्धिमान हो और अपनी जीविका का स्वयं प्रबंध कर सकते हो। इन दिनों ब्राह्मण आंगिरस एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं परंतु छठे दिन उनके यज्ञ में अवश्य ही कोई भूल होगी और यज्ञ पूरा नहीं हो पाएगा। तुम महा विद्वान हो। वहां यज्ञ में जाकर तुम उन्हें उपदेश दो। विश्वेदेव संबंधी सूक्तों को पढ़कर उनका यज्ञ पूरा हो जाएगा और वे ब्राह्मण स्वर्ग को चले जाएंगे। स्वर्ग जाते समय वे ब्राह्मण अपना बचा हुआ सारा धन तुम्हें दान दे जाएंगे जिससे तुम्हें अपार धन की प्राप्ति होगी।

अपने पिता की बताई बातों को मानकर वे तुरंत उस स्थान की ओर चल दिए, जहां वह उत्तम यज्ञ हो रहा था। वहां पहुंचकर नभग ने उन सूक्तों का स्पष्ट उच्चारण किया ज आंगिरस ब्राह्मण का यज्ञ पूर्ण हो गया। वहां उपस्थित सभी ब्राह्मण अपना सारा धन नभग को सौंपकर स्वर्ग चले गए।

   जैसे ही नभग उस धन को लेने लगे वहां शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर,,

 बोले ;- हे नभग ! तुम ये धन नहीं ले सकते, क्योंकि यह धन मेरा है। इस पर मेरा अधिकार है। उत्तर देते हुए नभग बोले कि यह सारा धन ऋषि मुझे देकर गए हैं। इसलिए यह मेरा है। इस प्रकार उन दोनों में वाद-विवाद आरंभ हो गया। तब कृष्णदर्शन ने कहा कि हम दोनों आपके पिता मनु श्राद्धदेव के पास चलते हैं। वे जो भी निर्णय देंगे वह मुझे मान्य होगा।

इस प्रकार नभग और श्रीकृष्णदर्शन मनु श्राद्धदेव के पास अपना विवाद सुलझाने के लिए पहुंचे। 

उनकी बातें सुनकर श्राद्धदेव ने अपने पुत्र नभग से कहा ;- हे पुत्र ! इस यज्ञ की सभी वस्तुएं देवाधिदेव भगवान शिव की हैं। यदि वे अपनी कृपा करें तो वह तुम पा सकते हो। तुम उनकी स्तुति करो। वे तुम्हारे अपराध को अवश्य ही क्षमा कर देंगे। भगवान शिव ही अखिलेश्वर और यज्ञ के अधिष्ठाता हैं। ब्रह्मा, विष्णु सहित सभी देवता सिद्ध और ऋषिगण उनकी आज्ञा से ही कार्य करते हैं। यह कहकर श्राद्धदेव ने अपने पुत्र को लौटा दिया। नभग पुनः यज्ञ भूमि में पहुंचे और भगवान शिव की हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे। उन्होंने क्षमा याचना की। उनकी प्रार्थना सुनकर ब्रह्मा, विष्णु व अन्य देवता भी वहां प्रकट हो गए और वे शिवरूपी कृष्णदर्शन की स्तुति करने लगे। 

तब प्रसन्न होकर वे बोले ;– हे पुत्र नभग! तुम्हारे पिता के वचन बिलकुल सत्य हैं। मैं ही यज्ञ का अधिष्ठाता हूं और तुम्हारी उत्तम स्तुति से प्रसन्न हुआ हूं। मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मज्ञान देता हूं। तुम महाज्ञानी हो और सब अभीष्ट वस्तुओं को ग्रहण करो। यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए। सब देवता भी उनके गुणों का गान करते हुए अपने-अपने धाम को चले गए।

श्राद्धदेव भी नभग के साथ अपने घर चले गए। इस लोक में अनेक सुखों को भोगकर मृत्यु के उपरांत वे शिवलोक वासी हुए।

इस प्रकार मैंने भगवान शिव के कृष्णदर्शन नामक अवतार का वर्णन किया। इसे सुनने अथवा पढ़ने से सभी प्रकार के लौकिक और पारलौकिक मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है।

【शतरुद्र संहिता】

तीसवाँ अध्याय

"भगवान शिव का अवधूतेश्वरावतार"

नंदीश्वर बोले ;- हे ब्रह्मपुत्र ! एक समय की बात है, देवगुरु बृहस्पति ने देवराज इंद्र और सब देवताओं को साथ लेकर त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव भगवान शिव के दर्शन करने के लिए उनके धाम कैलाश पर्वत की ओर प्रस्थान किया। देवराज इंद्र की परीक्षा लेने के लिए महान लीलाधारी भगवान शिव ने भयंकर अवधूत का रूप धारण किया। अग्नि के तेज से प्रज्वलित विशालकाय वे पुरुष बीच रास्ते में ही विराजमान हो गए। बृहस्पति जी के साथ इंद्र व अन्य देवता अद्भुत विशालकाय आकार वाले पुरुष को अपने मार्ग में बैठा देखकर आश्चर्यचकित हो गए। इंद्रदेव क्रोधित हो उठे। वे भी भगवान शिव को नहीं पहचान सके। वे पूछने लगे तुम कौन हो? तुम्हारा क्या नाम है और तुम कहां से आ रहे हो? मुझे जल्दी से बताओ। भगवान शिव क्या अपने स्थान पर ही विराजमान हैं या फिर कहीं गए हुए हैं? मैं देवगुरु व अन्य देवताओं के साथ कल्याणकारी परमेश्वर के दर्शनों के लिए यहां आया हूं। उनकी ऐसी बातों और प्रश्नों को सुनकर भी अवधूत रूप धारण किए शिवजी ने कोई उत्तर नहीं दिया। देवराज ने दुबारा पूछा। शिवजी फिर भी चुप रहे।

देवराज इंद्र के बार-बार पूछने पर भी महायोगी शिवजी कुछ नहीं बोले। 

तब देवराज अपने ऐश्वर्य के घमंड के कारण क्रोधित हो उठे और जोर से चिल्लाते हुए,,

 बोले ;- ओ मूर्ख! मेरे बार-बार पूछने पर भी तू कोई उत्तर क्यों नहीं देता है? अब मैं तुझे तेरी करनी का फल तू देता हूं और तुझ पर अपने वज्र का प्रहार करता हूं। देखता हूं तुझे मुझसे आज कौन बचाता है? यह कहकर देवराज इंद्र ने अपने हाथ में वज्र उठा लिया और शिवजी पर प्रहार करने लगे। लेकिन भगवान शिव ने इंद्र को वहीं जड़ कर दिया। उनका हाथ अपने स्थान से हिल न सका। अब तो इन्द्र क्रोध में अपना आपा खो बैठे।

यह दृश्य देखकर देवगुरु बृहस्पति भगवान शिव को तुरंत पहचान गए। उन्होंने जान लिया कि देवराज को इस प्रकार उनके स्थान पर जड़ करने वाले स्वयं देवाधिदेव महादेव जी हैं। वे हाथ जोड़कर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। फिर उन्होंने शिवजी से देवराज इंद्र के अपराध को क्षमा करने की प्रार्थना की। 

बृहस्पति जी बोले ;- भगवन्! अपने नेत्र से निकली हुई ज्वाला से इंद्र की रक्षा करो। उसे जीवनदान दो । तब भगवान शिव बोले- क्रोध में निकली इस ज्वाला को मैं वापस नहीं ले सकता।

शिवजी के इन वचनों को सुनकर बृहस्पति जी बोले कि आप इस ज्वाला को कहीं और स्थापित कर दीजिए। 

यह सुनकर शिवजी मुस्कुराए और बोले ;- हे देवगुरु ! इंद्र की जीवन रक्षा करने के कारण आप जगत में 'जीव' नाम से भी प्रसिद्ध होंगे। यह कहकर उन्होंने अपने नेत्र से निकली ज्वाला को हाथ में लेकर समुद्र में फेंक दिया। समुद्र में गिरते ही वह ज्वाला एक बालक के रूप में प्रकट हो गई। वह बालक सिंधुपुत्र जलंधर के नाम से विख्यात हुआ ।

भगवान शिव ने ही देवताओं के आग्रह पर उसका वध किया था। अवधूत रूप में ऐसी लीला करके शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए और देवराज इंद्र, बृहस्पति जी व अन्य देवताओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक घर को लौट आए।

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