शिव पुराण शतरुद्र संहिता के इक्कीसवें अध्याय से पच्चीसवें अध्याय तक (From the Twenty-one to Twenty-five chapter of Shiv Purana Shatarudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【शतरुद्र संहिता】

इक्कीसवाँ अध्याय

"महेश अवतार वर्णन"

नंदीश्वर बोले ;— हे महामुने! एक समय भगवान शिव और देवी पार्वती प्रसन्नतापूर्वक अपनी इच्छा से विहार कर रहे थे। उन्होंने भैरव को द्वार पर द्वारपाल बनाकर खड़ा किया था, जिसका कार्य किसी को भी द्वार पार नहीं करने देना था। उधर दूसरी ओर भगवान शिव अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती के साथ लीलाएं कर रहे थे और उनसे विनोदपूर्ण बातें कर रहे थे। बात करते हुए काफी समय बीत गया। तभी देवी पार्वती की कुछ सखियां, जो राजमहल में ही थीं, वहां उनके कक्ष में आ गईं। तब वे भी महादेव जी के पास बैठकर उनसे लीलाओं के वर्णन को सुनने लगीं। 

  काफी देर तक उन सखियों से भगवान शिव की बातें करते देख देवी पार्वती को क्रोध आ गया। वे गुस्से से महल के बाहर जाने लगीं। द्वार पर खड़े द्वारपाल भैरव ने देवी पार्वती को देखा तो उसके मन में विकार आ गया, वह उन्हें साधारण स्त्री समझकर घूरने लगा। देवी पार्वती ने भैरव के मन की बात पहचानते हुए उसे शाप दे दिया - भैरव, तू पृथ्वी पर जाकर एक साधारण मनुष्य की भांति जीवन जिएगा और अपनी करनी का फल भोगेगा। जब देवी पार्वती इस प्रकार भैरव को शाप दे रही थीं तो भगवान शिव भी वहां आ पहुंचे। शाप से दुखी होकर भैरव ने देवी के चरणों में गिरकर उनसे क्षमा याचना की। तब त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल देवाधिदेव भगवान शिव ने भैरव को आश्वासन दिया। 

 भैरव बोले ;- कि हे प्रभु! देवी के शाप के प्रकोप से मुझे बचाइए। तब शिवजी भैरव को सांत्वना देने लगे और,,

 बोले ;– देवी पार्वती का शाप मिथ्या तो नहीं हो सकता परंतु भैरव हम अपने परम - भक्त को ऐसे भी नहीं छोड़ सकते। तुम चिंता मत करो।

भैरव को आश्वासन देकर शिवजी देवी पार्वती को साथ लेकर चले गए। शाप के अनुसार भैरव जी शीघ्र ही वेताल के रूप में पृथ्वी लोक पर विचरने लगे। तब अपने भक्त का उद्धार करने के लिए भगवान शिव ने पृथ्वी पर अवतार लिया और वे महेश के रूप में और देवी पार्वती शारदा के नाम से पृथ्वीलोक पर लीलाएं करने लगे ।

【शतरुद्र संहिता】

बाईसवाँ अध्याय

"वृषभावतार वर्णन"

नंदीश्वर बोले ;- हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! एक बार देवताओं और दैत्यों ने मिलकर बहुमूल्य रत्नों और खजानों को हासिल करने के लिए समुद्र मंथन करने का निश्चय किया परंतु वह मंथन किस प्रकार किया जाए यही सब सोच रहे थे। तभी आकाशवाणी हुई, आकाशवाणी ने कहा- हे कल्याणकारी देवताओ! तुम्हारा कार्य अवश्य ही सिद्ध होगा। तुम मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकी को रस्सी बनाकर क्षीरसागर का मंथन करो।

    आकाशवाणी सुनकर देवता और दानव उत्साहित होकर मंदराचल पर्वत को उखाड़ने लगे। अपने इस कार्य में वे सफल भी हो गए परंतु जब वे मंदराचल को मथानी बनाने के लिए क्षीरसागर में डालने लगे तो अत्यंत भारी होने के कारण वह उनके ऊपर गिर पड़ा। अनेक देवता और दानव उसमें दब गए। भयभीत होकर सब भगवान शिव की आराधना करने लगे। भगवान शिव अपने भक्तों पर सदा अपनी कृपा रखते हैं। उन्होंने देवताओं- दानवों को बल प्रदान किया। सबने मिलकर मंदराचल पर्वत को क्षीरसागर के जल में डाल दिया। फिर नागराज वासुकी को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन करना आरंभ किया।

    समुद्र मंथन के फलस्वरूप धन्वंतरि वैद्य, चंद्रमा, पारिजात, कल्पवृक्ष, उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, मदिरा, हरि का धनुष, शंख, कामधेनु, कौस्तुभमणि, अमृत तथा कालकूट विष आदि वस्तुएं निकलीं। साथ ही परम सुंदर मनोहर रूप एवं धन वैभव की स्वामिनी देवी लक्ष्मी भी निकलीं। भगवान श्रीहरि विष्णु ने देवी लक्ष्मी, शंख, कौस्तुभ मणि तथा गदा को ग्रहण किया। सूर्यदेव ने उच्चैःश्रवा नामक घोड़े को लिया। इंद्रदेव ने पारिजात, कल्पवृक्ष और ऐरावत हाथी से देवलोक की शोभा बढ़ाई। त्रिलोकीनाथ भक्तवत्सल भगवान शिव ने देवताओं और असुरों सहित पूरे संसार की रक्षा हेतु मंथन से निकला कालकूट विष पीया और नीलकण्ठ नाम से प्रसिद्ध हुए। उन्होंने चंद्रमा की रक्षा हेतु उसे अपने सिर पर धारण किया।

    असुरों ने रमण कराने वाली मदिरा को लिया तो मनुष्यों ने धन्वंतरि वैद्य को ग्रहण किया। मुनिजनों ने कामधेनु को ग्रहण किया। तत्पश्चात सबसे अंत में निकले अमृत कलश को देखकर सब उसे लेने के लिए झपटे। देवता और असुर दोनों ही अमृत पीना चाहते थे। असुरों ने देवताओं से अमृत छीन लिया। दुखी देवता भगवान शिव की शरण में गए। तब अपने भक्तों के दुख को जानकर शिव ने श्रीहरि विष्णु को मोहिनी रूप धारण कर अपनी माया से अमृत कलश असुरों से लाने के लिए कहा। विष्णुजी की माया से मोहित होकर दैत्यों ने उन्हें अमृत कलश दे दिया। तब विष्णुजी ने देवताओं को ही अमृत पान कराया। यह देखकर दैत्यों को सारी माया समझ आ गई। फिर वे बलपूर्वक अमृत पाने के लिए युद्ध करने लगे। घोर युद्ध हुआ। भगवान शिव और विष्णुजी की कृपा से देवता विजयी हुए और असुरों को विष्णुजी ने पाताल लोक जाने का आदेश दिया। वे स्वयं असुरों को पाताल ले गए परंतु दैत्यों ने अपनी चालाकी और माया से उन्हें वहीं बंदी बना लिया और स्वयं उपद्रव करने लगे।

   जब देवताओं को असुरों ने प्रताड़ित करना आरंभ कर दिया तब वे परेशान होकर ब्रह्माजी के पास पहुंचे और उन्हें अपनी व्यथा-कथा सुनाई। फिर ब्रह्माजी देवराज इंद्र सहित अन्य देवताओं को अपने साथ लेकर त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव भगवान शिव के पास गए। वहां पहुंचकर उन्होंने शिवजी को प्रणाम किया और स्तुति आरंभ कर दी। तत्पश्चात ,,

देवगण ने शिवजी से कहा ;- हे भगवन्! असुरों ने हमें परेशान कर रखा है। उन्होंने भगवान श्रीहरि विष्णु को भी बंदी बनाकर पाताल में कैद कर लिया है। अतः प्रभु आप उन्हें मुक्त कराएं और हमारी रक्षा करें।

देवताओं की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने उन्हें रक्षा का आश्वासन देकर विदा किया और स्वयं देवताओं के कल्याण हेतु वृषभावतार धारण किया।

【शतरुद्र संहिता】

तेईसवाँ अध्याय

"वृषभावतार लीला वर्णन"

नंदीश्वर बोले ;– हे सनत्कुमार जी ! कल्याणकारी भगवान शिव ने अपने भक्तों की रक्षा के लिए वृषभ का रूप धारण किया और पाताल की ओर चल पड़े। भगवान शिव ने भयंकर गर्जना के साथ पाताल में प्रवेश किया। उस प्रचण्ड गर्जन से पातालवासी व्याकुल हो गए और उनके नगर में विध्वंस होने लगा। इस प्रकार की गर्जना को सुनकर असुरों को संदेह हुआ। जब उन्हें पता चला कि भगवान शिव वृषभ रूप धारण करके युद्ध करने आए हैं तो वे भी अपनी पूरी शक्ति से उनसे युद्ध करने लगे। असुर सेना ने शिवजी पर आक्रमण कर दिया। शिवजी हाथों में धनुष बाण उठाए उनका ही इंतजार कर रहे थे। उन्होंने अपने बाणों की वर्षा आरंभ कर दी और अनेक दैत्यों को मार डाला।

बैल का रूप धारण किए हुए कल्याणकारी शिवजी ने अपने सींगों व खुरों से भी अनेक दैत्यों को मृत्यु के घाट उतार दिया और बहुत से दैत्यों को घायल कर दिया। इस प्रकार काफी समय तक उनके मध्य भयानक युद्ध चलता रहा। उधर, दूसरी ओर असुरों ने विष्णुजी को भी अपनी माया से मोहित करके उन्हें अपने साथ मिला लिया था। वे असुर के साथ रहकर उनकी प्रवृत्ति को ग्रहण करने लगे थे। उन पर संकट देखकर उनकी रक्षा के लिए वे भी युद्ध करने आए, उन्होंने वृषभ रूप धारण किए अपने आराध्य शिवजी को नहीं पहचाना और उनसे युद्ध करने लगे।

भगवान श्रीहरि विष्णु ने वृषभरूपी शिवजी पर अनेक अस्त्रों का प्रयोग किया परंतु शिवजी ने सबको काट डाला। फिर शिवजी ने माया के बंधन से विष्णुजी को आजाद किया तो वे तुरंत शिवजी को पहचान गए और उनसे क्षमा याचना करने लगे। 

विष्णुजी बोले ;– हे देवाधिदेव! मैं मूर्ख हूं जो अपने आराध्य स्वामी को नहीं पहचान सका और उनसे युद्ध करने लगा। मुझे क्षमा कर दें और मुझ पर कृपा करें।

श्रीहरि की विनयपूर्ण प्रार्थना को सुनकर शिवजी बोले ;- हे विष्णो! आप तो बड़े बुद्धिमान और ज्ञानी हैं फिर आप कैसे राक्षसों के मायाजाल में फंस गए तथा उनके साथी बन गए? शिवजी की बातें सुनकर विष्णु जी शर्म के मारे नीचे देखने लगे। 

तब शिवजी बोले ;- हे विष्णु ! अब तुम यहां से चले जाओ। यह कहकर शिवजी ने उनका सुदर्शन चक्र ले लिया और उसके स्थान पर तेजसूर्य नामक दूसरा सुदर्शन चक्र उन्हें दिया। तत्पश्चात विष्णुजी स्वर्ग को चले गए। उनका मोह दूर हो गया था। शिवजी भी दैत्यों को उनकी करनी का फल देकर वहां से अंतर्धान हो गए।

【शतरुद्र संहिता】

चौबीसवाँ अध्याय

"पिप्पलाद चरित्र"

नंदीश्वर बोले ;- हे महामुने! एक बार देवताओं और असुरराज वृत्रासुर में बड़ा भयानक में युद्ध हुआ। वृत्रासुर ने सभी देवताओं को युद्ध में हरा दिया। तब सब देवता अपने प्राणों की रक्षा हेतु ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्माजी के पास पहुंचकर देवताओं ने उन्हें अपनी सारी परेशानियां बताईं और उनसे अपनी प्राण रक्षा की प्रार्थना की। ब्रह्माजी ने कुछ देर तक विचार किया और फिर देवताओं से कहा- हे देवताओ! महर्षि दधीचि ने भगवान शिव की घोर तपस्या करके उनसे वर मांगा है कि उसकी हड्डियां वज्र सी कठोर हो जाएं। 

    इसलिए तुम महर्षि दधीचि से उनकी अस्थियों को मांग लो। उनकी हड्डियों से वज्र का निर्माण करके ही वृत्रासुर का संहार किया जा सकता है। ब्रह्माजी के वचन सुनकर देवराज इंद्र देवगुरु बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर महर्षि दधीचि के आश्रम में गए। वहां पहुंचकर उन्होंने महर्षि को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। देवताओं को अचानक इस प्रकार आया देखकर दधीचि ने उनके आने का कारण पूछा। तब देवराज इंद्र ने उनसे कहा- हे महर्षे! आप परम शिवभक्त हैं और शिवजी से मिले वरदान के कारण आपकी हड्डियां वज्र के समान हैं। मुने! हमें अपनी अस्थियां दान करके हमारी रक्षा करें, क्योंकि वृत्रासुर का वध तभी संभव हो सकेगा।

   महर्षि दधीचि ने मन ही मन सोचा कि परोपकार से बढ़कर कोई दूसरा कार्य नहीं है। तब देवताओं का कार्य सिद्ध करने हेतु उन्होंने भगवान शिव का स्मरण करते हुए अपने शरीर को त्याग दिया। देवता उन पर पुष्प वर्षा करने लगे। जब इंद्र को ज्ञात हुआ कि महर्षि ने अपने प्राणों को त्याग दिया है तो उन्होंने कामधेनु द्वारा महर्षि दधीचि की सब अस्थियां निकाल लीं और वे अस्थियां त्वष्टा को देकर उससे वज्रे का निर्माण कराने के लिए कहा। देवराज इंद्र की आज्ञा से त्वष्टा देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा के पास गए और उनसे अस्थियों का सुदृढ़ वज्र बनाने के लिए कहा। विश्वकर्मा ने दधीचि की अस्थियों से वज्र का निर्माण किया।

    इस प्रकार महर्षि दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र को पाकर देवराज इंद्र बहुत प्रसन्न हुए और असुरराज वृत्रासुर का वध करने के लिए चल दिए। उन्होंने युद्धभूमि में जाकर वृत्रासुर को ललकारा और अपने वज्र से उस पर कठोर प्रहार कर उसे किसी पर्वत की भांति खण्ड-खण्ड कर डाला। वृत्रासुर के मरते ही देवताओं की प्रसन्नता की कोई सीमा न रही। वे उत्सव करने लगे। चारों ओर मंगल गान होने लगे तथा देवता इंद्र की स्तुति करने लगे।

   उधर, दूसरी ओर जब महर्षि दधीचि की पत्नी सुवर्चा घर के सारे काम पूरे करके बाहर आई तो अपने पति को न देखकर सशंकित हो उठी। देवता भी वहां नहीं थे। उसे निश्चय हो गया कि उसके पति के साथ देवताओं ने छल किया है। सुवर्चा ने देवताओं को कोसते हुए पशु बनने का शाप दे दिया। अपने मृत पति के पास जाने हेतु सुवर्चा ने जब चिता में प्रवेश चाहा, तभी आकाशवाणी हुई- हे प्राज्ञे! तुम ऐसा मत करो क्योंकि तुम्हारे उदर में महर्षि का तेज विद्यमान है। शास्त्र कहते हैं कि गर्भवती स्त्री को सती नहीं होना चाहिए।

   आकाशवाणी सुनकर सुवर्चा आश्चर्यचकित हो गई। उसने वहीं पड़ा हुआ एक पत्थर उठा लिया जिससे अपना गर्भ विदीर्ण कर दिया। उसके गर्भ से एक महादिव्य शरीर वाला परम कांतिवान बालक उत्पन्न हुआ। वह भगवान शिव का ही रूप था। अपने पुत्र को पाकर देवी सुवर्चा बहुत प्रसन्न हुईं परंतु अगले ही पल उन्हें अपने पति का वियोग सताने लगा। सुवर्चा ने अपने पुत्र को चूमा और अगले ही पल उसे पिप्पल वृक्ष के मूल में लिटा दिया और बोली- हे पुत्र! तुम इसी वृक्ष के पास निवास करो और सभी मनुष्यों के साथ प्रेम का व्यवहार करो। यह कहकर सुवर्चा समाधि लेकर अपने पति के पास चली गई।

   देवी सुवर्चा समाधि लेकर शिवलोक पहुंची और अपने पति के साथ आनंदपूर्वक निवास करने लगी । उधर दधीचि मुनि के पुत्र को भगवान शिव का अवतार जानकर ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु, इंद्र आदि सब देवता वहां आए और उस बालक को वहां पाकर बहुत प्रसन्न हुए। ब्रह्माजी ने उसके जात-संस्कार विधिपूर्वक संपन्न करके उस बालक का नाम पिप्पलाद रखा। उस समय देवताओं ने बहुत उत्सव किया फिर अपने लोक को चले गए। पिप्पलाद बहुत समय तक उसी वृक्ष के मूल में तपस्या करते रहे और मनुष्यों के हित के लिए कार्य करते रहे।

【शतरुद्र संहिता】

पच्चीसवाँ अध्याय

"पिप्पलाद-महादेव लीला"

नंदीश्वर बोले ;— हे सनत्कुमार जी ! एक दिन दधीचि पुत्र ऋषि पिप्पलाद पुष्पभद्र नामक नदी में स्नान कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि एक सुंदर मनोहर युवती पर पड़ी । वह युवती भगवान शिव का ही अंश थी। उसे देखकर मुनि पिप्पलाद मोहित हो गए और उसे प्राप्त करने की इच्छा करने लगे। उन्हें ज्ञात हुआ कि वह परम सुंदरी राजा अनरण्य की पुत्री है। यह जानकर मुनि पिप्पलाद राजा अनरण्य के घर पधारे और उनसे उनकी पुत्री का हाथ मांगा। ऋषि की बातें सुनकर राजा सोच में डूब गए कि मैं अपनी प्रिय पुत्री, जो कि सदैव राजसी ठाठ-बाट से रही है, को कैसे एक योगी के साथ ब्याह दूं। जिसके न कोई रहने का ठिकाना है, न खाने-पीने का ।

इस प्रकार राजा अनरण्य को सोच में डूबा देखकर ऋषि पिप्पलाद को क्रोध आ गया और,,

 वे राजा से बोले ;- हे राजन! तुम मुझे अपनी कन्या खुशी से सौंप दो अन्यथा मैं तुम्हें तुम्हारे राज्य सहित भस्म कर दूंगा। मुनि की बातें सुनकर राजा अनरण्य भयभीत हो गए। उन्होंने अपने राज्य और प्रजा की रक्षा हेतु अपनी पुत्री पद्मा का विवाह सहर्ष मुनि पिप्पलाद से कर दिया। प्रसन्न होकर मुनि पिप्पलाद अपनी पत्नी को साथ लेकर आश्रम पहुंचे और आनंदपूर्वक वहां रहने लगे। ऋषि पत्नी पद्मा ने अपने पति की बहुत सेवा की । वह हमेशा मन, वचन और कर्म से अपने पति की सेवा-सुश्रूषा में लगी रहती थी। उससे ऋषि को दस महात्मा और तपस्वी पुत्रों की प्राप्ति हुई ।

   मुनि पिप्पलाद ने अनेक लीलाएं कीं। उन्होंने संसार में किसी से भी निवारण न होने वाली शनिश्चर की पीड़ा को हरने का प्रयत्न किया। ऋषि ने अपने अनुयायी शिष्यों को यह वरदान दिया कि जन्म से लेकर सोलह वर्ष तक की आयु वाले शिवभक्त मनुष्यों को शनि की पीड़ा नहीं हो सकती। यदि शनि मेरे इस वचन को झुठलाने के लिए ऐसा करेगा तो भस्म हो जाएगा। इसलिए शनि का प्रकोप कभी भी सोलह वर्ष की आयु से कम के मनुष्यों पर नहीं पड़ता है।

तात! मनुष्य रूप धारण करने वाले ऋषि पिप्पलाद का यह चरित्र मैंने तुम्हें सुनाया है। यह उत्तम चरित्र निर्दोष, स्वर्गप्रद, कुग्रहजनित दोषों का नाश करने वाला, मनोरथ पूर्ण करने वाला तथा शिव भक्ति में वृद्धि करने वाला है।

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