शिव पुराण शतरुद्र संहिता के इकत्तीसवें अध्याय से पैंतीसवें अध्याय तक (From the thirty-first chapter to the thirty-fifth chapter of Shiv Purana Shatarudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【शतरुद्र संहिता】

इकत्तीसवाँ अध्याय

"भिक्षुवर्य शिव अवतार वर्णन"

नंदीश्वर बोले ;– हे मुनिश्रेष्ठ! विदर्भ नाम के एक नगर में सत्यरथ नामक राजा का राज्य था। वह भगवान शिव का परम भक्त था। एक बार उसके नगर पर उसके शत्रुओं ने आक्रमण किया। राजा सत्यरथ ने अपने शत्रुओं का सामना बहुत दृढ़ता से किया परंतु वह युद्ध में हार गया। उसके शत्रुओं ने उसे मार डाला। राजा के मारे जाने पर सारी सेना भयभीत होक तितर-बितर हो गई। उस समय विदर्भ नरेश की पत्नी गर्भवती थी।

जब रानी को सारी बातें ज्ञात हुई तो अपने प्राणों की रक्षा के लिए उसने रात में ही नगर छोड़ दिया। भगवान शिव का स्मरण करते हुए रानी पूर्व दिशा की ओर चली गई। बहुत दूर जाकर एक सरोवर के निकट एक सघन वट वृक्ष के नीचे अपनी कुटिया बनाकर वह रहने लगी। उसी स्थान पर रानी ने एक दिव्य बालक को जन्म दिया। एक दिन रानी अपने पुत्र को कुटिया में ही लिटाकर सरोवर से जल लेने गई तो वहां उसे एक घड़ियाल ने पकड़ लिया। उधर वह बालक अकेला पड़ा भूख-प्यास से व्याकुल होकर जोर-जोर से रोने लगा। उस बालक को रोता देखकर भक्तवत्सल दयालु भगवान शिव को उस पर दया आ गई। उन्होंने एक गरीब ब्राह्मणी को प्रेरित कर उस स्थान पर भेजा । वह विधवा ब्राह्मणी उस स्थान पर पहुंची, जहां वह बालक रो रहा था। उसको देखकर ब्राह्मणी का दिल द्रवित हो उठा। वह उस बालक के विषय में सोचने लगी कि अब इस बालक का क्या होगा?

तभी भगवान शिव स्वयं भिक्षुक का रूप धारण कर वहां पहुंच गए और,,

   ब्राह्मणी से बोले ;- हे ब्राह्मणी! अपने मन में आने वाली शंका दूर करो। इस छोटे से बालक को उठा लो और इसे अपना पुत्र मानकर इसका पालन करो। तब उनके वचन सुनकर वह ब्राह्मणी बोली ब्रह्मन्! मैं तो स्वयं इस बालक को पालने के बारे में ही सोच रही थी परंतु मेरा मन शंकित था। अब आपने मेरी दुविधा दूर कर दी है। अब मैं अवश्य ही इस बालक की माता बनकर इसे पालूंगी। पर मैं आपसे इतना जानना चाहती हूं कि आप कौन हैं और कहां से आए हैं? यह बालक किसका है और इस सुनसान जंगल में कैसे आ गया है? भिक्षुवर! आपको देखकर मेरा मन बार-बार यह कह रहा है कि आप दया और करुणा के सागर भगवान शिव हैं, जो अपने भक्त की रक्षा के लिए यहां आए हैं। मैं भी आपकी माया से मार्ग में भटककर यहां आ गई हूं। मैं जानती हूं कि आपकी कृपा से इसका अवश्य ही कल्याण होगा। से उस गरीब ब्राह्मणी की बातें सुनकर भिक्षुरूप धारण किए,,

 भगवान शिव बोले ;- 'हे ब्राह्मणी! यह बालक विदर्भनगर के नरेश सत्यरथ का पुत्र है, जिसे उसके शत्रुओं ने युद्ध में हराकर मौत के घाट उतार दिया है। सत्यरथ की गर्भवती पत्नी नगर से भागकर यहां आ गई थी। इस बालक को जन्म देने के पश्चात वह सरोवर में जल पीने गई, तो वहीं उसे घड़ियाल ने अपना आहार बना लिया। 

   शिवजी के वचनों को सुनकर ब्राह्मणी फिर प्रश्न करती हुई बोली ;- भगवन्! किस कारण से यह बालक अनाथ और बंधुहीन हो गया है? बालक के पिता सत्यरथ को शत्रुओं ने क्यों मार दिया और किसलिए शिशु की माता को घड़ियाल ने खा लिया? मेरा स्वयं का पुत्र भी गरीब और निर्धन है। भला इसको कैसे सुख प्राप्त होगा?

ब्राह्मणी के इन प्रश्नों को सुनकर भक्तवत्सल भगवान शिव अपने उसी भिक्षुक रूप में बोले ;– हे देवी! राजा सत्यरथ अपने पूर्व जन्म में पाण्डय देश के श्रेष्ठ राजा थे। वे सदैव शिव धर्म का पालन करते और भक्तिभाव से उनकी आराधना करते थे। एक दिन प्रदोषकाल में जब राजा भगवान शिव का पूजन कर रहे थे, उसी समय नगर में कोलाहल मचा। राज्य में विद्रोह फैलने की आशंका से राजा ने पूजा बीच में ही छोड़ दी। सैनिकों ने जिसे राजद्रोही के रूप में राजा के सामने ला खड़ा किया वह और कोई नहीं उसी राज्य का एक सामंत था। उसे देखकर पाण्डयराज क्रोध में अपना आपा खो बैठे और उस सामंत का सिर कटवा दिया। प्रदोष पूजन के नियम को समाप्त किए बिना राजा ने भोजन भी कर लिया। इसी तरह राजकुमार ने भी प्रदोष पूजन किए बिना भोजन कर लिया और सो गया।

वह पाण्डयराज इस जन्म में विदर्भराज हुआ। प्रदोष में शिव पूजन को बीच में छोड़ देने की वजह से उसका वध कर दिया गया और पूर्व जन्म का उसका पुत्र इस जन्म में भी उसका पुत्र बनकर जन्मा है। शिव पूजन बिना खा-पीकर सो जाने के कारण ही वह दरिद्रता में घिरा हुआ है। इसकी माता ने भी पूर्व जन्म में छल से अपनी सौतन को मार दिया था। इसलिए उसे भी घड़ियाल ने खा लिया है। तुम्हारा पुत्र पूर्व जन्म में ब्राह्मण था और महादानी था परंतु इसने कोई यज्ञकर्म नहीं किए, इसी कारण इसे भी दरिद्रता का दण्ड मिला है। इन दोनों पुत्रों के दोषों को दूर करने के लिए तुम भगवान शिव की शरण में जाओ। वे ही तुम सबका कल्याण करेंगे।

ब्राह्मणी को सबकुछ बताकर भगवान ने अपना सत्यरूप उन्हें दिखाया। साक्षात भगवान शिव के दर्शन कर ब्राह्मणी कृतार्थ हो गई और हाथ जोड़कर शिवजी की स्तुति करने लगी। तब आशीर्वाद देकर महादेव जी अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात वह ब्राह्मणी उस बालक को अपने साथ ले गई। फिर वह अपने पुत्रों के साथ एकचक्र नामक गांव में रहने लगी और अपने दोनों पुत्रों का लालन-पालन करने लगी। समय आने पर ब्राह्मणों ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार किया।

   दोनों शांडिल्य मुनि के उपदेश सुनते और शिवजी की आराधना करते । समय बीतता गया। दोनों पुत्र बड़े हो गए। एक दिन ब्राह्मणी पुत्र को नदी में स्नान के लिए जाते समय सोने से भरा कलश मिला। उस सोने के कलश से उनकी गरीबी दूर हो गई। फिर भी वे नियम से शिवजी की आराधना करते। एक दिन वे वन में गए। वहां एक गंधर्व कन्या अपने पिता के साथ आई और वह राजकुमार पर मोहित हो गई। उसके पिता ने उसका विवाह राजकुमार से कर अपना राज्य उसे सौंप दिया। ब्राह्मणी वहां की राजमाता हुई और ब्राह्मण पुत्र उसका भाई। अब वे सब लोग प्रसन्नतापूर्वक राजसुख भोगने लगे। भगवान शिव का भिक्षुवर्य अवतार पुरुषार्थ का साधक और अभीष्ट फल देने वाला है।

【शतरुद्र संहिता】

बत्तीसवाँ अध्याय

"सुरेश्वर अवतार"


नेंदीश्वर बोले ;- हे सनत्कुमार जी! व्याघ्रपाद के पुत्र उपमन्यु पूर्व जन्म में प्राप्त सिद्धि के कारण मुनिकुमार के रूप में जन्मे थे। बचपन से ही वे अपनी माता के साथ अपने मामा के घर में रहा करते थे। वे बहुत गरीब थे। एक दिन उन्हें पीने के लिए बहुत कम दूध मिला।

बालक दूध पीने का हठ करने लगा। मां के समझाने पर जब बालक न माना तो उसकी माता ने खेतों से बीनकर लाए गए दानों को पीसकर उससे कृत्रिम दूध तैयार किया और उसे अपने पुत्र को दिया। बालक ने जब उसे पिया तो वह जान गया था कि वह दूध नहीं बल्कि कुछ और है। अपने पुत्र को इस प्रकार रोता-बिलखता देखकर उसकी माता ने उसे गोद में बैठाया और उसके आंसुओं को पोंछते हुए बोली- बेटा! हम वनों में रहने वाले लोगों के पास भला दूध कहां से आएगा? भगवान शिव की कृपा से ही तुम्हें दूध मिल सकता है। 

  अपनी माता के ऐसे वचन सुनकर शोकाकुल व्याघ्रपाद का पुत्र बोला ;- मां! यदि सबकुछ प्रदान करने वाले भगवान शिव ही हैं तो मैं निश्चय ही उन्हें अपनी भक्ति से प्रसन्न करूंगा। यह कहकर वह बालक अपनी माता को प्रणाम कर वहां से चला गया। वह हिमालय पर्वत पर पहुंचा। वहां उसने एक छोटा-सा मंदिर बनाया और भगवान शिव व माता पार्वती की मूर्ति स्थापित की। तत्पश्चात जंगल के अनेकों फल-फूलों व वनस्पतियों से वह नित्य शिव-पार्वती की आराधना करता तथा पंचाक्षर मंत्र 'ॐ नमः शिवाय' का जाप करता । इस प्रकार उस बालक ने काफी समय तक भगवान शिव की कठोर तपस्या की।

उपमन्यु की घोर तपस्या के प्रभाव से तीनों लोक प्रदीप्त हो उठे। तब भगवान शिव इंद्र का और देवी पार्वती इंद्राणी का रूप धारण करके नंदी के स्थान पर ऐरावत हाथी पर बैठकर उपमन्यु के पास आए। 

वे उपमन्यु से बोले ;- ऐ बालक ! हम तुम पर प्रसन्न हैं, मांगो क्या मांगना चाहते हो? हम तुम्हें सभी अभीष्ट फल प्रदान करेंगे। उनके वचन सुनकर उपमन्यु बोले कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न होकर कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे भगवान शिव की भक्ति प्रदान कीजिए। तब देवराज इंद्र ने उपमन्यु से कहा कि उपमन्यु मैं देवताओं का स्वामी इंद्र हूं। तुम मेरी आराधना करो। मैं तुम्हें सारी अभीष्ट वस्तुएं प्रदान करूंगा। भगवान शिव तो मेरे समक्ष कुछ भी नहीं हैं। तुम उनको भूल जाओ। इस प्रकार इंद्र ने भगवान शिव की बहुत निंदा की। अपने आराध्य भगवान शिव की निंदा सुनकर उपमन्यु को क्रोध आ गया। उसने भगवान शिव का स्मरण करते हुए अपने हाथ में भस्म उठा ली और उसे अघोरमंत्र से अभिमंत्रित करके उसमें अग्नि प्रवाहित कर उसे देवराज इंद्र पर चला दिया। लेकिन वहां तो सारा दृश्य ही बदल गया था। तब इंद्र रूप धारण किए भगवान शिव ने उपमन्यु को अपने परमेश्वर स्वरूप के साक्षात दर्शन कराए। शिव में ही समस्त सृष्टि समाई हुई है, ऐसा उपमन्यु ने देखा ।

भगवान शिव बोले ;- हे उपमन्यु! मैं तुम्हारा पिता और देवी पार्वती तुम्हारी माता हैं। हम तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हैं। मैं तुम्हें सनातन कुमारत्व प्रदान करता हूं। मैं दूध, दही और शहद व अन्य भोज्य पदार्थों का खजाना तुम्हें देता हूं। तुम अमरता को प्राप्त होगे और तुम्हें मेरे गणों का आधिपत्य मिलेगा। इस प्रकार शिवजी ने उपमन्यु को अनेक दिव्य वर प्रदान किए। तत्पश्चात भगवान शिव-पार्वती वहां से अंतर्धान हो गए । फिर उपमन्यु ने घर आकर अपनी माता को सारी बातें बताईं जिसे सुनकर उसकी माता बहुत प्रसन्न हुई । जिसे भगवान शिव के दर्शन हो गए हों, उसे और क्या कुछ चाहिए।

तात! इस प्रकार भगवान शिव के सुरेश्वरातार की उत्तम कथा मैंने तुम्हें सुनाई। यह कथा सुख देने वाली तथा पापों को दूर कर मनोवांछित फल देने वाली है। इसे सुनने अथवा पढ़ने से सुखों की प्राप्ति होती है और अंत में अर्थात मृत्यु के उपरांत शिवलोक में निवास होता है।

【शतरुद्र संहिता】

तेंतीसवाँ अध्याय

"ब्रह्मचारी अवतार"

नंदीश्वर बोले ;- हे महामुने! प्रजापति दक्ष की पुत्री सती ने जब अपने पिता द्वारा होने वाले यज्ञ में अपने पति देवाधिदेव महादेव जी का अपमान होते हुए देखा तो वहीं, उसी यज्ञ में उन्होंने अपने प्राणों को त्याग दिया। तत्पश्चात वे गिरिराज हिमालय के यहां पार्वती के नाम से जन्मीं। अपनी सखियों के साथ वन में विहार करतीं। पार्वती के मन में देवर्षि नारद ने भगवान शिव को पाने की ललक जगाई। इस कार्य की सिद्धि के लिए देवी पार्वती ने भगवान शिव की आराधना और तपस्या करनी आरंभ कर दी। जब भगवान शिव को उनके इस उत्तम तप की सूचना मिली तो उन्होंने पार्वती जी के पास सप्तऋषियों को भेजा। सप्तऋषियों ने वहां जाकर देवी पार्वती की परीक्षा ली और भगवान शिव के पास लौट आए। शिवजी को प्रणाम कर उन्होंने वहां का सारा समाचार उन्हें सुनाया।

सप्तऋषियों से देवी पार्वती की तपस्या के विषय में जानकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने स्वयं उनकी परीक्षा लेने का निर्णय किया। शिवजी ने वृद्ध ब्रह्मचारी का वेश बनाया और पार्वती जी के आश्रम की ओर चल दिए। अपने द्वार पर एक वृद्ध ब्राह्मण ब्रह्मचारी को आया देखकर देवी पार्वती ने उनको आसन पर बैठाया और उनका पूजन-आराधन करने के पश्चात उनका आतिथ्य किया। 

तत्पश्चात वे उनसे पूछने लगीं ;- हे महात्मा ! आप कौन हैं और कहां से आए हैं? 

तब उन मुनि ने उत्तर दिया ;- हे देवी! मैं तो स्वच्छंद विचरण करने वाला एक साधारण तपस्वी हूं। मैं सदा मानव सेवा में लगा रहता हूं और दूसरों को सुख देने का कार्य करता हूं। देवी, आप मुझे बताइए कि आप कौन हैं? और इतनी कम उम्र में सब सुखों आदि का त्याग कर इस निर्जन वन में क्यों तपस्या कर रही हैं?

तब देवी पार्वती उन ब्रह्मचारी रूप धारण किए भगवान शिव के प्रश्नों का उत्तर देते हुए,,

 बोलीं ;- हे मुने! मैं गिरिराज हिमालय और देवी मैना की पुत्री पार्वती हूं। मैंने भगवान शिव को अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है और उन्हीं को अपने पति के रूप में पाने की इच्छा मन में लेकर मैं शिवजी की तपस्या कर रही हूं ताकि वे मुझ पर अपनी कृपादृष्टि कर मुझे कृतार्थ करें। 

देवी पार्वती के वचन सुनकर वे मुनि बोले ;- हे देवी! तुमने सारे देवताओं को, जो की अत्यंत सुंदर, सजीले और ऐश्वर्य संपन्न हैं, छोड़कर उस वैरागी, विकृतात्मा और जटाधारी भगवान शिव को अपने वर के रूप में चुना है। वे सदा अकेले रहते हैं और इधर-उधर भटकते रहते हैं। इस प्रकार वह ब्रह्मचारी भगवान शिव की बहुत निंदा करने लगा।

उस ब्रह्मचारी के मुंह से अपने आराध्य भगवान शिव की निंदा सुनकर पार्वती को बहुत क्रोध आया। 

तब वह बोलीं ;- हे मुने! मैंने तो आपको एक योगी-तपस्वी जानकर आपकी पूजा और आराधना की थी, परंतु आप तो मूर्ख और धूर्त हैं, जो परमेश्वर शिव के विषय में ऐसे विचार रखते हैं। आपने मेरे सम्मुख भगवान शिव की निंदा करके मुझे भी अपने पाप का भागी बना दिया है और मेरी तपस्या के सारे पुण्यों को नष्ट कर दिया है। फिर वे अपनी सखी से बोलीं कि यह ब्राह्मण है, इसलिए हम इसको इनकी करनी का फल अर्थात दण्ड नहीं दे सकते। इससे पूर्व कि यह फिर हमसे त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भक्तवत्सल देवाधिदेव शिव की निंदा करे, हमें यह स्थान छोड़कर चले जाना चाहिए।

यह कहकर देवी पार्वती अपनी सखियों के साथ उस स्थान से जाने लगीं तब परमेश्वर शिव ने उन्हें अपने साक्षात शिव स्वरूप के दर्शन दिए, जिस स्वरूप की आराधना पार्वती जी करती थीं। उन्हें देखकर पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुईं और उनकी स्तुति करने लगीं। 

तब भगवान शिव मुस्कुराते हुए बोले ;- हे देवी! मैं तुम्हारी उत्तम तपस्या से प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही ब्रह्मचारी का रूप धारण करके आया था। मेरे प्रति तुम्हारी श्रद्धा और भक्ति ने मुझे यहां आने पर मजबूर कर दिया है। मांगो, क्या मांगना चाहती हो? मैं तुम्हारी प्रसन्नता के लिए सब अभीष्ट तुम्हें प्रदान करूंगा।

भगवान शिव के ये उत्तम वचन सुनकर,,

 देवी पार्वती शर्माते हुए बोलीं ;- हे भक्तवत्सल ! आप तो तीनों लोकों के ज्ञाता हैं। भला आपसे भी कोई बात छिपी रह सकती है। फिर भी यदि आप मेरे मन की इच्छा जानना चाहते हैं तो मुझे अपनी पत्नी होने का वरदान दीजिए । तब भगवान शिव ने देवी पार्वती को उनका इच्छित वर दिया और उनका पाणिग्रहण किया। इस प्रकार मैंने आपसे शिवजी के ब्रह्मचारी अवतार का वर्णन किया। यह कथा सुख देने वाली और दुखों को दूर करने वाली है।

【शतरुद्र संहिता】

चौंतीसवाँ अध्याय

"सुनट नर्तक अवतार"

नंदीश्वर बोले ;– हे सनत्कुमार जी! देवी पार्वती की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर जब भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए तब देवी पार्वती ने उनसे उनकी पत्नी बनने का वर मांगा। भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उनका इच्छित वरदान उन्हें प्रदान किया। देवी पार्वती को वरदान देकर शिवजी अंतर्धान हो गए और पार्वती जी अपने घर वापस आ गईं। वहां आकर उन्होंने अपने माता-पिता को सारी बातें बताईं। तब उनके घर में प्रसन्नता छा गई और चारों ओर महोत्सव होने लगा। खुश होकर गिरिराज हिमालय ने ब्राह्मणों को बहुत दान-दक्षिणा दी। फिर गंगा स्नान करने चले गए।

एक दिन जब गिरिराज हिमालय गंगा स्नान हेतु गए थे, भगवान शिव ने सुंदर नट-नर्तक का रूप धारण किया और मैना के घर पहुंच गए। उनके बाएं हाथ में शिवलिंग और दाहिने हाथ में डमरू था। उन्होंने लाल रंग के वस्त्र पहन रखे थे। पीठ पर गुदड़ी टांग रखी थी। ऐसे रूप में वे मैना के घर के आंगन में आकर सुंदर नृत्य एवं गान करने लगे। अपने डमरू को बजाकर वे अनेक प्रकार की लीलाएं दिखाने लगे। नगर के सारे वृद्ध, नर-नारी और बच्चे प्रसन्नतापूर्वक उनका नृत्य देख रहे थे। महारानी मैना खुश होकर एक पात्र भरकर स्वर्ण मुद्राएं एवं रत्न नट को देने गईं परंतु नट के रूप में आए भगवान शिव ने उन्हें लेने से इनकार कर दिया और कहा कि यदि आप वाकई प्रसन्न होकर मुझे कुछ देना ही चाहती हैं तो अपनी पुत्री पार्वती का हाथ मेरे हाथ में दे दीजिए ।

उस नट-नर्तक की बात सुनकर देवी मैना को बहुत क्रोध आया और वे ट को बुरा भला कहने लगीं। उसी समय गिरिराज हिमालय भी गंगा स्नान करके वापस लौट आए। जब उन्हें इस बात का पता चला तो उन्होंने अपने सेवकों को उस नट को वहां से बाहर निकालने की आज्ञा दी। सेवक नट की ओर बढ़े ही थे कि मायावर लीलाधारी भगवान शिव ने मैना और हिमालय को पार्वती सहित क्षणभर के लिए अपने दिव्यरूप के दर्शन कराए और अगले ही पल तेज कदमों से चलकर वहां से गायब हो गए। नट-नर्तक के चले जाने के उपरांत देवी मैना और गिरिराज हिमालय बैठकर नट के विषय में बात करने लगे और उसी की लीलाओं की प्रशंसा करने लगे। तभी माया से मोहित उनको उस नट-नर्तक के देवाधिदेव महादेव भगवान शिव होने का ज्ञान प्राप्त हुआ। तब उन्हें बहुत दुख हुआ कि हमने अपने द्वार पर पधारे शिवजी का अपमान किया और उन्हें अपनी कन्या नहीं सौंपी। यह विचारकर दोनों बहुत दुखी हुए और अपने अपराध का प्रायश्चित करने हेतु भगवान शिव की आराधना करने लगे। उनकी भक्तिभाव से की गई पूजा से प्रसन्न होकर शिवजी ने देवी पार्वती का पाणिग्रहण किया। यह शिवजी के नट-नर्तक अवतार का माहात्म्य मैंने तुम्हें सुनाया । यह वर्णन सब अभीष्ट फलों को प्रदान करने वाला है।

【शतरुद्र संहिता】

पैंतीसवाँ अध्याय

"शिवजी का द्विज अवतार"

नंदीश्वर बोले ;- हे सनत्कुमार जी! जब देवी मैना और गिरिराज हिमालय ने अपने द्वार पर नट का रूप धारण करके आए शिवजी को अपनी कन्या देने से इनकार कर दिया तब उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ और वे क्षमा याचना करने हेतु भगवान शिव की भक्तिभाव से आराधना करने लगे। उनकी शिवजी में परम भक्ति स्थापित हो गई। उनकी इस घनिष्ठ भक्ति से देवता चिंतित हो उठे। उन्हें लगा कि यदि गिरिराज ने अपनी भक्ति से प्रसन्न कर शिवजी को अपनी कन्या पार्वती दे दी तो उन्हें भगवान शिव द्वारा निर्वाण प्राप्त हो जाएगा और वे संसार के बंधनों से छूटकर परम शिवलोक को प्राप्त कर लेंगे। गिरिराज हिमालय तो रत्नों का आधार हैं और यदि ये मुक्त हो गए तो पृथ्वी रत्नगर्भा कैसे कहलाएगी? फिर तो वे अपना वर्तमान स्थिर रूप त्याग कर दिव्य रूप को धारण कर लेंगे और शिवलोक के वासी हो जाएंगे।

यह सब सोचकर देवताओं को चिंता सताने लगी और वे अपनी समस्या का समाधान करने हेतु देवगुरु बृहस्पति की शरण में गए। वहां जाकर उन्होंने बृहस्पति जी को प्रणाम किया और,,

 बोले ;- हे देवगुरु! आप कोई ऐसा उपाय करें जिससे गिरिराज हिमालय भगवान शिव की भक्ति से विरक्त हो जाएं। आप हिमालय के पास जाकर उनसे शिवजी की निंदा करें। देवराज इंद्र के ऐसे वचन सुनकर देवगुरु बृहस्पति बोले कि मैं परम कल्याणकारी परमेश्वर की निंदा नहीं कर सकता। आप अपना यह कार्य किसी अन्य देवता से पूर्ण कराइए। देवगुरु के इनकार कर देने पर इंद्र सब देवताओं सहित ब्रह्माजी के पास गए और उनसे हिमालय के घर जाकर भगवान शिव की निंदा करने के लिए कहने लगे। तब ब्रह्माजी ने भी भक्तवत्सल कल्याणकारी भगवान शिव की निंदा करने से मना कर दिया। यह सुनकर देवराज इंद्र निराश हो गए। तब ब्रह्माजी ने उनसे कहा कि इंद्र इस संसार में हर कार्य भगवान शिव की आज्ञा से ही पूर्ण होते हैं। तुम अपने कार्य की सिद्धि हेतु उन्हीं की शरण में जाओ। वे अवश्य ही तुम्हारे हित का कार्य करेंगे।

तब ब्रह्माजी से आज्ञा लेकर देवराज भगवान शिव के पास गए और उनसे सारी बातें कहीं। उनकी बातें सुनकर कल्याणकारी भगवान शिव ने इंद्र को उनके कार्य की पूर्ति का आश्वासन देकर वहां से विदा किया। देवराज इंद्र के कार्य को पूरा करने के लिए शिवजी ने साधु का वेश धारण किया। उन्होंने हाथ में दण्ड और छत्र लिया, मस्तक पर तिलक, गले में शालिग्राम और हाथ में स्फटिक की माला ली तथा भगवान श्रीहरि विष्णु का नाम जपते हुए गिरिराज हिमालय के राजदरबार में पहुंच गए। अपने दरबार में आए उन तपस्वी को देखकर हिमालय ने सिंहासन को त्याग दिया और स्वयं उन्हें प्रणाम कर यथायोग्य आसन देकर उनका परिचय पूछा।

तब ब्राह्मण देवता बोले ;- हे गिरिराज मैं एक तपस्वी ब्राह्मण हूं और परोपकार व सेवा के लिए भ्रमण करता रहता हूं। अपनी दिव्य दृष्टि और योगबल से मुझे ज्ञात हुआ है कि आप अपनी लक्ष्मी स्वरूपा बेटी पार्वती का विवाह शिवजी से करना चाहते हैं परंतु शायद आप यह नहीं जानते कि शिवजी कुलहीन, बंधु-बांधवहीन, आश्रयहीन, एकाकी रहने वाले, कुरूप, निर्गुण, अव्यय, श्मशान वासी, गले में सर्प धारण करने वाले हैं। वे सदा अपने शरीर पर चिता की भस्म लपेटे रखते हैं। ऐसे व्यक्ति को अपनी परमगुणी सुंदर कन्या को सौंपना सर्वथा अनुचित है।

यह कहकर महान लीलाधारी भगवान शिव साधु रूप में ही वहां से चले गए। उनकी बातों का मैना-हिमालय पर गहरा प्रभाव पड़ा और वे भगवान शिव की भक्ति से विमुख होकर इस सोच में डूब गए कि आगे क्या करें? इस प्रकार मैंने तुमसे शिवजी के साधु वेशधारी द्विजअवतार का वर्णन किया।

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