शिव पुराण कोटिरुद्र संहिता के सोलहवें अध्याय से बीसवें अध्याय तक (From the sixteenth to the twentieth chapter of the Shiva Purana Kotirudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【कोटिरुद्र संहिता】

सोलहवाँ अध्याय

" महाकालेश्वर का आविर्भाव"

    सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! अब मैं आपको महाकालेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव के संबंध में बताता हूं। अवंतिकापुरी में एक ब्राह्मण रहते थे। वे भगवान शिव के परम भक्त थे। वे प्रतिदिन विधि-विधान से शिवजी के पार्थिव लिंग का पूजन किया करते थे । देवाधिदेव भगवान शिव के आशीर्वाद से उन्हें धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी। वे प्रतिदिन अग्निहोम करते और सदा ज्ञान की खोज में लगे रहते थे। इस प्रकार सभी प्रकार के सुखों को भोगकर अंत में उन्हें शिवलोक की प्राप्ति हुई । उन ब्राह्मण देवता के देवप्रिय, मेधाप्रिय, सुकृत एवं धर्मबाहु नाम के चार पुत्र थे । ये चारों भी अपने पिता के समान ही सद्गुणी थे। उनके कारण अवंतिका नगरी ब्रह्मतेज से परिपूर्ण थी। वहीं पास ही में रत्नमाला नामक एक पर्वत था। उसी पर्वत पर दूषण नामक एक राक्षस रहता था। उसने घोर तपस्या करके ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया था। ब्रह्माजी से इच्छित वर पाकर वह दुष्ट धर्म का शत्रु बन गया था। वह धर्म का नाश कर देना चाहता था। अपने अथाह बल और पराक्रम से उसने सभी देवताओं, मनुष्यों और तीनों लोकों के जीवों को अपने अधीन कर लिया था। वह ब्राह्मणों एवं सदाचारियों पर आक्रमण करके उन्हें अनेक प्रकार से दण्डित करता था।

   एक दिन दूषण नामक वह दैत्य अपनी सेना को साथ लेकर अवंतिकापुरी पहुंच गया। वहां उसने अपने दैत्य सैनिकों को आज्ञा दी कि जो भी ब्राह्मण मेरी आज्ञा को न माने उसे दण्ड दो। आज्ञा पाकर वे दैत्य नगरी में उपद्रव करने लगे। सारी जनता हाहाकार करने लगी। वे लोग उन ब्राह्मण कुमारों के पास आए और उन्हें सारी बातें बताईं। वे ब्राह्मण कहने लगे कि इस जगत का कल्याण करने वाले और अपने भक्तों की सदा रक्षा करने वाले भगवान शिव हैं, इसलिए हमें उन्हें ही प्रसन्न करना चाहिए। यह कहकर वे चारों ब्राह्मण पुत्र अन्य ब्राह्मणों के साथ मिलकर अपने आराध्य भगवान शिव का पूजन करने लगे।

   उसी समय चारों महादैत्य वहां पहुंच गए और उन ब्राह्मणों को शिवजी की आराधना में देखकर अत्यंत क्रोधित होकर बोले- मार डालो इन सबको। परंतु जैसे ही वे दैत्य ब्राह्मणों को पीड़ित करने के लिए आगे बढ़े उसी समय भगवान शिव पार्थिव लिंग में से प्रकट हो गए। उन्होंने पल भर में ही सब दैत्यों को मार डाला और दूषण नामक महादैत्य को भी मौत के घाट उतार दिया। शिवजी को साक्षात सामने पाकर वे सभी ब्राह्मण भगवान शिव की स्तुति करने लगे। आकाश से देवता पुष्प वर्षा करने लगे। भगवान शिव ने प्रसन्नतापूर्वक उन ब्राह्मण कुमारों को वरदान मांगने के लिए कहा।

अपने आराध्य भगवान शिव के वचन सुनकर,,

 ब्राह्मण बोले ;- हे देवाधिदेव ! कल्याणकारी! भगवन्! यदि आप हमारी आराधना से प्रसन्न हैं तो हम पर कृपा कर हमें अपने श्रीचरणों में स्थान दें ताकि हम जीवन-मरण के बंधन से छूट जाएं और आपके दर्शनों की हमारी अभिलाषा पूरी होती रहे। तब अपने भक्तों की इच्छा को पूरा करते हुए सदाशिव उसी स्थान पर ज्योतिर्मय रूप में शिवलिंग में स्थित हो गए और वह लिंग 'महाकालेश्वर' नाम से जगप्रसिद्ध हुआ । इसकी उपासना करने से सभी मनोरथ पूरे हो जाते हैं।

【कोटिरुद्र संहिता】

सत्रहवाँ अध्याय

"महाकाल माहात्म्य"

    सूत जी बोले ;- हे ब्राह्मणो! अब में आपको महाकालेश्वर की उत्पत्ति की कथा सुनाता हूँ। उज्जैन नगरी में राजा चंद्रसेन का राज्य था। भगवान शिव के मुख्य सेवक मणिभद्र के साथ उसकी घनिष्ठ मित्रता थी मणिभद्र ने राजा चंद्रसेन को कौस्तुभ मणि भेंट की। राजा ने प्रसन्नतापूर्वक मणि को अपने गले में धारण कर लिया वह कौस्तुभ मणि सूर्य के समान चमकती थी। जिसे देखकर अन्य राजा चंद्रसेन से ईर्ष्या रखने लगे। सब राजाओं ने मिलकर चंद्रसेन पर आक्रमण कर दिया जब राजा चंद्रसेन चारों ओर से अन्य राजाओं की चतुरंगिणी सेना से घिर गया तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिए महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग की शरण में गया और भक्ति भावना से देवाधिदेव महादेव जी का पूजन करने लगा।

    राजा चंद्रसेन भगवान शिव के पूजन में मगन था । उसी समय एक विधवा गोपी अपने छोटे से बालक को गोद में लिए वहां आई। वह बालक राजा को शिव पूजन करते हुए देखता रहा। जब गोपी वापस घर आ गई तब वह बालक मन में शिव-पूजन का निश्चय करके कहीं से एक पत्थर ढूंढ़ लाया और उसे स्थापित करके धूप, दीप, गंध, पुष्प, नैवेद्य से उसी प्रकार पूजने लगा जिस प्रकार उसने राजा को करते देखा था उसकी माता ने उसे भोजन करने के लिए बुलाया परंतु वह तो अपनी आराधना में लगा था। जब बार-बार बुलाने पर भी बालक नहीं आया तब उसकी माता को क्रोध आ गया और वह वहां से बालक को खींचकर ले गई और डांटने फटकारने लगी। उसने शिवलिंग रूप में स्थापित उस पत्थर को उठाकर फेंक दिया।

      यह देखकर बालक बहुत दुखी हुआ और शिवजी का नाम लेते हुए मूर्च्छित हो गया । बालक की ऐसी हालत देखकर माता रोने लगी और रोते-रोते वह भी बेहोश हो गई। कुछ समय बीतने पर बालक को जब होश आया तो उसने स्वयं को भगवान शिव के सुंदर मंदिर में, जहां रत्नमय ज्योतिर्लिंग स्थित था, पाया। यह देखकर वह बड़ा आश्चर्यचकित हुआ। भगवान शिव को धन्यवाद करके उनका नाम जपता हुआ वह बालक अपने घर की ओर चल पड़ा। घर पहुंचकर उसने देखा कि उसके घर के स्थान पर एक सुंदर महल खड़ा था। अंदर उसकी मां सुंदर वस्त्र आभूषण पहने रत्नजड़ित पलंग पर सोई थी। उसने अपनी माता को जगाया। सबकुछ जानकर वह अत्यंत प्रसन्न हो गई।

     दूसरी ओर, जब राजा चंद्रसेन का पूजन समाप्त हुआ तो उसे सबकुछ ज्ञात हुआ। राजा अपने मंत्रियों को साथ लेकर गोपी के पास पहुंचा। वहां उन्होंने उत्सव किया। शीघ्र ही यह समाचार पूरे नगर में फैल गया। जब चंद्रसेन के शत्रुओं को यह पता चला कि उसकी नगरी पर भगवान शिव की विशेष कृपा है। तब उनके शत्रुओं को यह समझ आ गया कि राजा चंद्रसेन महाकालेश्वर का परम भक्त है। इसलिए हम उसे कभी जीत नहीं सकते। वे सब राजा चंद्रसेन से मित्रता करने हेतु उस गोपी के घर चले गए। वहां पहुंचकर उन्होंने शिवजी का पूजन किया और राजा से मित्रता कर ली। तभी वहां हनुमान जी ने प्रत्यक्ष दर्शन दिए । हनुमान जी को सामने पाकर सबने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया।

हनुमान जी ने उस बालक को गले लगाया और बोले ;- इस संसार का कल्याण करने वाले भगवान शिव हैं। वे भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों पर कृपादृष्टि रखते हैं। इस बालक ने सच्चे मन से शिवजी की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इसके सभी दुखों को दूर किया है। इस लोक में सभी सुखों को भोगकर इसे मोक्ष की प्राप्ति होगी। यह आठवां महायज्ञ पुरुष होगा और नंद नाम से जाना जाएगा। भगवान विष्णु जब कृष्ण का अवतार लेंगे तो इसी के घर में निवास करेंगे। यह कहकर वे अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात सब राजा विदा लेकर अपने-अपने नगर चले गए। राजा चंद्रसेन विधिपूर्वक महाकालेश्वर का पूजन करने लगे और इस लोक में सभी सुखों को भोगकर अंत में मोक्ष पद को प्राप्त हुए।

【कोटिरुद्र संहिता】

अठारहवाँ अध्याय

"ओंकारेश्वर माहात्म्य"

सूत जी बोले ;- हे विप्रगण ! प्राचीन काल में श्री नारद जी ने गोकर्ण क्षेत्र में भगवान शिव का पूजन किया। फिर वे विंध्याचल पर्वत पर गए। विंध्याचल ने उनका आदर-सत्कार किया और उन्हें उत्तम आसन पर बैठाया। स्वयं भी वह नारद जी के पास बैठ गया। 

तब नारद जी कहने लगे ;- विंध्याचल ! तुम निश्चय ही महा बलशाली और विशाल हो। सभी पर्वत तुममें व्याप्त हैं परंतु सुमेरु पर्वत का अपना अलग अस्तित्व व पहचान है। यद्यपि तुममें सभी गुण विद्यमान हैं, परंतु फिर भी सुमेरु की बराबरी तुम नहीं कर सकते।

   नारद जी के वचन सुनकर विंध्याचल पर्वत को बहुत दुख हुआ। वह सोचने लगा, मेरा जीवन तो व्यर्थ है। जब मैं किसी के कोई काम नहीं आता तो मुझे अपने जीवन को सुधारना चाहिए। यह विचारकर वह भगवान शिव की शरण में गया। विंध्याचल में ओंकारेश्वर जाकर वहीं समीप में भगवान शिव का पार्थिव लिंग स्थापित किया और विधि-विधान से भक्तिपूर्वक उसकी नियमित आराधना करने लगा। वह घंटों शिवजी के चरणारविंदों के ध्यान में मगन रहता। इस प्रकार उसे शिवजी का ध्यान और तप करते हुए बहुत समय बीत गया। एक दिन उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर देवाधिदेव भगवान शिव ने उसे साक्षात दर्शन दिए तथा उसकी कामना जाननी चाही ।

शिवजी बोले ;- विंध्याचल, मैं तुम्हारी भक्ति भावना से प्रसन्न हूं। वर मांगो। भगवान शिव के निर्मल वचनों को सुनकर विंध्याचल की खुशी का कोई ठिकाना न रहा। उसने अपने आराध्य देव की स्तुति आरंभ कर दी।

 फिर बोला ;- हे कल्याणकारी भगवान शिव । यदि आप प्रसन्न हैं तो कृपा कर मेरी बुद्धि को शुद्ध करें और मुझे श्रेष्ठ विचार प्रदान करें। भगवन्! आप यहीं पर निवास कर इस जगत का कल्याण करें। तब विंध्याचल की मनोकामना को पूरा करते हुए भगवान शिव ने उनके इच्छित वर को प्रदान किया और स्वयं विंध्याचल द्वारा स्थापित लिंग में ज्योतिर्मय रूप में विराजमान हो गए। यह ज्योतिर्लिंग परमेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ । ओंकारेश्वर व परमेश्वर नामक शिव ज्योतिर्लिंग अलग-अलग होते हुए भी एक हैं। ये अपने भक्तों को अभीष्ट फल प्रदान करने वाले तथा उन्हें मोक्ष देने वाले हैं। इस प्रकार अपने भक्त विंध्याचल पर अपनी कृपादृष्टि कर शिवजी अंतर्धान हो गए। ऋषियो! इस प्रकार मैंने आपसे ओंकारेश्वर नामक शिवलिंग की महिमा का वर्णन किया।

【कोटिरुद्र संहिता】

उन्नीसवाँ अध्याय

"केदारेश्वर माहात्म्य"

सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो! भगवान विष्णु के नर-नारायण नामक अवतार ने बद्रिकाश्रम में तपस्या करनी आरंभ कर दी। तब अपने उन दोनों श्रेष्ठ भक्तों की इच्छा पूर्ण करने हेतु भगवान शिव पार्थिव लिंग में उनके पूजन को ग्रहण करने के लिए आते थे। इस प्रकार नर नारायण को भगवान शिव का पूजन करते-करते बहुत समय व्यतीत हो गया। इससे उनकी भक्ति भावना दिन-प्रतिदिन प्रबल होती गई और वे शिवजी को प्रसन्न करने हेतु उनका पूजन करते रहे।

उनकी उत्तम तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव उनके समक्ष प्रकट हो गए,,

 और बोले ;- हे नर-नारायण ! मैं तुम्हारी आराधना से बहुत प्रसन्न हूं। तुम मुझसे वर मांगो। भगवान शिव के वचन सुनकर नर-नारायण बहुत प्रसन्न हुए और,,

 भक्तवत्सल कल्याणकारी शिव को प्रणाम करते हुए बोले ;– हे देवेश्वर! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो हमारी प्रार्थना से आप साक्षात रूप में यहां सदा विराजमान रहें।

उन दोनों के अनुरोध पर देवाधिदेव महादेव जी हिमालय के केदार नामक उस तीर्थ में ज्योतिर्लिंग रूप में स्थित हो गए और वह ज्योतिर्लिंग संसार में केदारेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह लिंग दुख और भय का नाश करने वाला है। इसके दर्शनों से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। कहते हैं कि जो भक्त शिवलिंग के निकट शिव के रूप में अंकित वलय पर कंकड़ या कड़ा चढ़ाता है, उसे उनके वलय रूप के दर्शन होते हैं तथा सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। केदार तीर्थ का दर्शन कर केदारेश्वर लिंग का पूजन करने एवं वहां का जल पीने के पश्चात मनुष्य जीवन-मरण के चक्र से छूट जाता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार मैंने आपसे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग महिमा का वर्णन किया।

【कोटिरुद्र संहिता】

बीसवाँ अध्याय

"भीम उपद्रव का वर्णन"

सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! पूर्वकाल में भीम नाम का एक बलशाली राक्षस हुआ था, जो कि रावण के भाई कुंभकरण और कर्कटी राक्षसी का पुत्र था। वह कर्कटी अपने पुत्र भीम के साथ सह्य पर्वत पर रहती थी। एक बार भीम ने अपनी माता से पूछा-माताजी! मेरे पिताजी कौन हैं और कहां हैं? हम इस प्रकार यहां अकेले क्यों रह रहे हैं?

   अपने पुत्र के प्रश्न का उत्तर देते हुए कर्कटी बोली ;- पुत्र भीम ! तुम्हारे पिता रावण के छोटे भाई कुंभकर्ण थे। पूर्व में मैं विराध राक्षस की पत्नी थी, जिसे श्रीराम ने मार डाला था। फिर मैं अपने माता-पिता के साथ रहने लगी। एक दिन जब मेरे माता-पिता अगस्त्य ऋषि के आश्रम में एक मुनि का भोजन खा रहे थे, तब मुनि ने शाप द्वारा उन्हें भस्म कर दिया था। मैं पुनः अकेली रह गई । तब मैं इस पर्वत पर आकर रहने लगी। यहीं पर मेरी कुंभकर्ण से भेंट हुई थी और हमने विवाह कर लिया। उसी समय श्रीराम ने लंका पर आक्रमण कर दिया और तुम्हारे पिता को वापस जाना पड़ा। तब श्रीराम ने युद्ध में उनका वध कर दिया।

   अपनी माता के वचन सुनकर भीम को भगवान विष्णु से द्वेष उत्पन्न हो गया और उसने बदला लेने की ठान ली। वह ब्रह्माजी को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या करने लगा। उसकी घोर तपस्या से अग्नि प्रज्वलित हो गई, जिससे सभी जीव दग्ध होने लगे। तब ब्रह्माजी उसे वर देने के लिए गए। ब्रह्माजी ने उसके सामने प्रकट होकर वरदान मांगने के लिए कहा।

   तब भीम बोला ;- हे पितामह ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे महाबली होने का वर प्रदान करें। तब तथास्तु कहकर ब्रह्माजी वहां से अंतर्धान हो गए।

वर प्राप्त करने के बाद प्रसन्न होकर,, 

भीम अपनी माता के पास आया और बोला ;- माता! मैं शीघ्र ही विष्णु से अपने पिता कुंभकर्ण के वध का बदला ले लूंगा। यह कहकर भीम वहां से चला गया। उसने देवताओं से भयानक युद्ध किया और उन्हें हराकर स्वर्ग पर अधिकार स्थापित कर लिया। फिर उसने कामरूप देश के राजा से युद्ध करना आरंभ कर दिया। उसे जीतकर कैद कर लिया और उसके खजाने पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। राजा दुखी था। उसने जेल में ही पार्थिव लिंग बनाकर शिवजी का पूजन करना शुरू कर दिया और विधिपूर्वक 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का जाप करने लगा।

   दूसरी ओर, राजा की पत्नी भी अपने पति को पुनः वापस पाने के लिए भगवान शिव की आराधना करने लगी। इधर, भीम नामक राक्षस से दुखी सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। तब विष्णुजी ने सब देवताओं को साथ लेकर महाकेशी नदी के तट पर शिवजी के पार्थिव लिंग की विधि-विधान से स्थापना कर उसकी स्तुति-आराधना की। भगवान शिव उनकी उत्तम आराधना से प्रसन्न होकर वहां प्रकट हुए। 

शिवजी बोले ;- हे देवताओ! मैं तुम्हारी स्तुति से प्रसन्न हूं। मांगो, क्या मांगना चाहते हो?

शिवजी के वचन सुनकर देवता सहर्ष बोले कि ;- भगवन्! भीम नामक उस असुर ने सभी देवताओं को दुखी कर रखा है। आप उसका वध करके हमें उसकी दुष्टता से मुक्ति दिलाएं। देवताओं को इच्छित वर प्रदान कर शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए। देवता बहुत प्रसन्न हुए और जाकर राजा को भी सूचना दी कि भगवान जल्दी ही तुम्हारे शत्रु भीम का नाश कर तुम्हें मुक्त करेंगे।


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