शिव पुराण शतरुद्र संहिता के छत्तीसवें अध्याय से चालीसवें अध्याय तक (From the thirty-sixth to the fortieth chapter of Shiv Purana Shatarudra Samhita)


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【शतरुद्र संहिता】

छत्तीसवाँ अध्याय

"अश्वत्थामा का शिव अवतार"

नंदीश्वर बोले ;- हे सर्वज्ञ सनत्कुमार जी ! देवगुरु बृहस्पति के पुत्र मुनि भारद्वाज हुए और उनके पुत्र के रूप में द्रोण का जन्म हुआ। द्रोण बचपन से महान धनुर्धारी, महातेजस्वी और सब अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता थे। यही नहीं, धनुर्वेद और सभी वेदों के महाज्ञाता थे। अपने इन्हीं गुणों के कारण आप कौरवों और पाण्डवों के आचार्य बने और द्रोणाचार्य इस नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हीं द्रोणाचार्य ने अपने मन में पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर भगवान शिव की आराधना की और अपनी घोर तपस्या से त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को प्रसन्न कर लिया। शिव ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए । 

शिवजी द्वारा वर मांगने के लिए कहने पर द्रोणाचार्य बोले ;- हे प्रभु! यदि आप मेरी आराधना से संतुष्ट होकर प्रसन्न हुए हैं तो भगवन्! मुझे अपने अंश से पैदा होने वाला पुत्र प्रदान कीजिए, जो वीर, पराक्रमी और अजेय हो । द्रोणाचार्य को उनका इच्छित वर प्रदान कर शिवजी अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात मुनि द्रोण प्रसन्नतापूर्वक अपने घर को चल दिए और वहां जाकर उन्होंने अपनी पत्नी को वरदान प्राप्ति के बारे में बताया। जिसे सुनकर उनकी पत्नी बहुत प्रसन्न हुई ।

   निश्चित समय पर मुनि द्रोण की पत्नी ने एक वीर बालक को जन्म दिया, जिसका नाम अश्वत्थामा रखा गया। अश्वत्थामा वीर और पराक्रमी योद्धा हुए और उन्होंने कौरव सेना का मान बढ़ाया। जब कौरव पाण्डवों का युद्ध हुआ तो अश्वत्थामा के कारण कौरव सेना अजेय हो गई और वह पाण्डव सेना पर हावी होने लगी। शिवजी के अंश से उत्पन्न होने के कारण ही अश्वत्थामा ने पाण्डव पुत्रों को युद्ध में मार डाला था। यह देखकर अर्जुन बहुत क्रोधित हुए और अपने पुत्रों का नाश करने वाले पर आक्रमण करने लगे। अर्जुन के सारथी के रूप में स्वयं श्रीकृष्ण थे। अर्जुन को अपनी ओर आता देखकर अश्वत्थामा ने उन पर ब्रह्मशिर नामक अस्त्र छोड़ दिया, जिससे सारी दिशाएं प्रचण्ड तेज से प्रकाशित हो उठीं।

   अश्वत्थामा के इस अस्त्र को देख अर्जुन एक पल के लिए विचलित हो गए। उन्होंने श्रीकृष्ण से इसका उपाय पूछा। 

तब श्रीकृष्ण बोले ;- हे अर्जुन! यह बहुत घातक शक्ति है और इससे तुम्हारी रक्षा स्वयं भगवान शिव ही कर सकते हैं। तुम उन्हीं का स्मरण करके इस अस्त्र का नाश करो। तब अर्जुन ने हाथ जोड़कर भगवान शिव की मन से बहुत आराधना और स्तुति की। तत्पश्चात उन्होंने जल को छूकर शैवास्त्र छोड़ा। इसके प्रभाव से अश्वत्थामा द्वारा चलाया गया ब्रह्मशिर अस्त्र शांत हो गया। फिर भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन सहित सब पाण्डवों को अश्वत्थामा से आशीर्वाद लेने के लिए कहा।

  श्रीकृष्ण की आज्ञा मानते हुए सभी पाण्डवों ने अश्वत्थामा को प्रणाम किया। तब प्रसन्न होकर अश्वत्थामा ने पाण्डवों को अनेकों वर प्रदान किए और फिर अपने कर्तव्य को निभाते हुए कौरव सेना से मिलकर पुनः पाण्डवों से युद्ध करने लगे। इस प्रकार भगवान शिव ने परम भक्त द्रोण के घर पुत्र के रूप में जन्म लेकर अनेक लीलाएं रचीं।

【शतरुद्र संहिता】

सैंतीसवाँ अध्याय

"पाण्डवों को शिव-पूजन के लिए व्यास जी का उपदेश"

नंदीश्वर बोले ;- हे श्रेष्ठ मुनि! जब पाण्डवों को दुर्योधन ने जुए में हरा दिया था और वे वनवास पाकर अपनी पत्नी द्रौपदी सहित द्वैत वन में निवास करने लगे थे, तब एक दिन दुर्योधन ने ऋषि दुर्वासा को उनके शिष्यों सहित पाण्डवों को कष्ट देने के लिए उनके पास भेजा। दुर्वासा ऋषि अपने एक हजार शिष्यों को अपने साथ लेकर पाण्डवों की कुटिया में पहुंच गए और युधिष्ठिर से बोले कि हम स्नान करने जा रहे हैं, इतने में आप हम सबके लिए भोजन का प्रबंध कीजिए और स्वयं चले गए।

   दुर्वासा ऋषि द्वारा भोजन की व्यवस्था करने की बात सुनकर सब पाण्डव सोच में डूब गए क्योंकि उनके पास अन्न नहीं था। तब देवी द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया और तुरंत वहां आ गए। वहां उन्होंने पाण्डवों की रसोई में बचे अन्न के एक दाने को खाया और इससे वे स्वयं भी तृप्त हो गए। साथ ही स्नान के लिए दुर्वासा और उनके शिष्यों का भी पेट भर गया और वे वहीं से लौट गए। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने पाण्डवों पर आए इस संकट को दूर कर दिया। फिर पाण्डवों को भगवान शिव की आराधना करने के लिए कहकर वे स्वयं द्वारका चले गए।

    एक दिन जटाजूट धारण किए, गले में रुद्राक्ष की माला और भस्म लगाए व्यास जी 'ॐ नमः शिवाय' पंचाक्षरी मंत्र का जाप करते हुए पाण्डवों की कुटिया में पधारे। व्यास मुन शिवजी के प्रेम में मग्न तेजपुंज से आलोकित थे। उन्हें पधारा हुआ देखकर पाण्डवों ने उन्हें प्रणाम किया और आसन पर बिठाकर उनकी पूजा-अर्चना की। 

तब महामुनि प्रसन्न होकर बोले ;- हे पाण्डवो ! तुम सत्य के मार्ग पर चलने वाले हो और सदा ही धर्म का पालन करते हो । महाराज धृतराष्ट्र ने तुम्हारे साथ पक्षपात किया और तुम्हारा राज्य दुर्योधन ने छल करके तुमसे छीन लिया। जैसा बीज बोया जाता है, अंकुर भी उसी का निकलता है। अधर्म और असत्य का मार्ग अपनाने वालों का कभी कल्याण नहीं होता। तुम सत्य और धर्म के मार्ग पर चल रहे हो, इसलिए निश्चय ही तुम्हारा कल्याण होगा।

    महामुनि व्यास के वचनों को सुनकर युधिष्ठिर बोले ;- हे नाथ! हमारे कष्टों को दूर करने के लिए कोई मार्ग बताइए । श्रीकृष्ण जी ने हमें कल्याणकारी देवाधिदेव महादेव जी की आराधना करने के लिए कहा था। आप हमें शिवभक्ति का उपदेश दीजिए । 

युधिष्ठिर के वचन सुनकर,,

 महामुनि व्यास बोले ;- हे पाण्डवो ! निश्चय ही श्रीकृष्ण ने सत्य कहा था। भगवान शिव अपने भक्तों के दुखों को दूर करने वाले तथा उनकी रक्षा करने वाले हैं। तत्पश्चात व्यास जी ने उन्हें शिवजी के पूजन का विधान बताया। फिर बोले, तुम सदा धर्म के मार्ग पर चलना। इससे तुम्हारे कार्यों की सिद्धि होगी।

यह कहकर महामुनि व्यास वहां से चले गए। तत्पश्चात व्यास जी के दिखाए मार्ग पर चलते हुए पाण्डव शिवजी की आराधना करने लगे। अर्जुन इंद्रकील नामक पर्वत के पास गंगा नदी के तट पर जाकर भक्तवत्सल, कल्याणकारी भगवान शिव की आराधना करने लगे।

【शतरुद्र संहिता】

अड़तीसवाँ अध्याय

"अर्जुन द्वारा शिवजी की तपस्या करना"

नंदीश्वर बोले ;- हे सनत्कुमार जी ! अर्जुन भक्ति भावना से गंगाजी के तट पर बैठकर भगवान शिव की आराधना कर रहे थे। शिव मंत्र के जाप से उनका अतुल तेज प्रकाशित हो रहा था। पाण्डवों को अर्जुन का तेज देखकर विजय में कोई संदेह न रहा । जब अर्जुन तपस्या करने के लिए उनसे दूर गए, तब अर्जुन के वियोग से द्रौपदी और अन्य पाण्डव बहुत दुखी थे परंतु उनके मन में अटूट विश्वास था कि शिवजी की भक्ति से उनका निश्चय ही कल्याण होगा।

   उनके दुख को जानकर एक बार व्यास जी फिर उन्हें समझाने के लिए उनके पास आए। उन्हें देखकर पाण्डव बहुत प्रसन्न हुए और उनका आतिथ्य सत्कार करने लगे। तब महामुनि व्यास ने उन्हें उपदेश दिया और अनेक कथाएं सुनाई परंतु पाण्डवों का दुख दूर न हुआ। 

   एक दिन युधिष्ठिर ने महामुनि व्यास से प्रश्न किया ;- हे महाप्रज्ञ ! जिस प्रकार के दुख और कष्टों को हम भोग रहे हैं, क्या पहले भी किसी को ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़ा है?

    युधिष्ठिर के इस प्रश्न को सुनकर व्यास मुनि कहने लगे कि पाण्डवो! निश्चय ही तुम्हारे साथ कौरवों ने छल किया है परंतु अनेकों सिद्ध पुरुषों ने इससे भी अधिक दुखों को हंसते हंसते झेला है। निषध देश के स्वानी नल, सत्यवादी राजा हरिचंद्र, श्रीरामचंद्र जी ने भी इन कष्टों को हंसकर झेला है। यह तो सप्तुरूषों का स्वभाव होता है कि वे विपरीत परिस्थितियों और दुखों से विचलित नहीं होते और सदा सत्य के मार्ग पर ही आगे बढ़ते रहते हैं। मानव को तो दुख झेलने ही पड़ते हैं। बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था सभी में मनुष्य को दुख और कष्ट प्राप्त होता है। इसलिए अपने मन को मत भटकाओ और सत्य के मार्ग का अनुसरण करो क्योंकि शिवजी सत्य से प्रसन्न होते हैं इसलिए सभी मनुष्यों को सत्य के पथ पर चलना चाहिए।

     दूसरी ओर, अर्जुन ने इंद्रकील नामक पर्वत के निकट गंगाजी के तट पर महामुनि व्यास के उपदेश के अनुसार शिवलिंग बनाकर उसकी विधिपूर्वक उपासना आरंभ कर दी। अर्जुन प्रतिदिन स्नान करके भक्तिभावना से इंद्रियों को अपने वश में करके भगवान शिव का ध्यान करते। दिन-ब-दिन उनकी भक्तिभावना और अधिक प्रबल होती जा रही थी। उनकी तपस्या के तेज से जीवों को भय होने लगा था। अर्जुन की तपस्या से दग्ध होकर अनेक देवता देवराज इंद्र के पास गए और उनसे बोले कि देवराज! अर्जुन भगवान शिव की घोर तपस्या कर रहा है और उसके तेज से सभी प्राणी दग्ध हो रहे हैं।

   अर्जुन की तपस्या के विषय में सुनकर देवराज इंद्र उनकी परीक्षा लेने के लिए उनके पास गए। इंद्र ने ब्राह्मण का रूप धारण किया और अर्जुन के पास जाकर पूछने लगे कि तुम इतनी छोटी उम्र में तपस्या क्यों कर रहे हो? तुम मुक्ति चाहते हो या विजय के लिए तपस्या कर रहे हो। परंतु इंद्र तो मोक्ष के स्थान पर सुख प्रदान करते हैं। इंद्रदेव के वचनों को सुनकर अर्जुन को क्रोध आ गया,,

 और वे बोले ;- हे मुनि! आप यहां क्यों पधारे हैं और इस प्रकार के प्रश्नों से मेरी तपस्या में क्यों व्यवधान डाल रहे हैं? मैं शिवजी की आराधना कर रहा हूं। तब इंद्रदेव ने ब्राह्मण वेश त्यागकर अपने वास्तविक रूप के दर्शन अर्जुन को दिए। इंद्रदेव को अपने सामने पाकर अर्जुन को लज्जा का अनुभव हुआ कि मैंने इंद्र से अपशब्द कहे। उन्होंने देवराज इंद्र से क्षमा याचना की। 

देवराज इंद्र प्रसन्न होकर बोले ;- अर्जुन ! तुम मांगो, क्या मांगना चाहते हो? मैं निश्चय ही तुम्हारा इच्छित वर तुम्हें प्रदान करूंगा।

देवराज इंद्र के वचन सुनकर अर्जुन बोले ;- हे देवेंद्र ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे शत्रुओं पर विजय का वरदान प्रदान कीजिए। अर्जुन के वर को सुनकर,,

 देवेंद्र बोले ;- अर्जुन ! तुम्हारी विजय अवश्य होगी क्योंकि भगवान शिव के भक्तों पर कभी कोई कष्ट नहीं आता । उनको संसार में किसी का भय नहीं होता। इसलिए तुम इसी प्रकार शांत चित्त और भक्ति भाव से त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव महादेव जी की तपस्या करो। उनकी प्रसन्नता से श्रेष्ठ जीवन में और कुछ नहीं है। यह कहकर देवराज वहां से अंतर्धान हो गए तब अर्जुन पुनः शिवलिंग को प्रणाम कर उनकी आराधना करने लगे।

【शतरुद्र संहिता】

उन्तालीसवाँ अध्याय

"शिवजी का किरात अवतार"

नंदीश्वर बोले ;- हे सनत्कुमार जी ! अर्जुन महामुनि व्यास जी द्वारा बताई गई विधि से शिवजी की उपासना कर रहे थे। काफी समय तक तपस्या करने के पश्चात उनके तप का तेज बढ़ना आरंभ हो गया और उनका तप और रौद्र रूप धारण करता जा रहा था। अर्जुन ने एक पैर पर खड़े होकर सूर्य की ओर देखते हुए पंचाक्षर मंत्र का जाप करना आरंभ कर दिया। उनके तप के प्रभाव से सभी प्राणी, जीव-जंतु और देवता दग्ध होने लगे। अर्जुन की इस घोर तपस्या के विषय में दुर्योधन को ज्ञात हुआ। उसने मूक नाम के दैत्य को अर्जुन के पास शूकर का भेष धारण करके भेजा।

    वह दुष्ट राक्षस अनेक प्रकार की ध्वनि निकालता और वृक्षों को उखाड़ता हुआ अर्जुन के तप के स्थान के निकट पहुंचने लगा। तब अर्जुन का मन एकाएक व्याकुल हो उठा और उन्होंने पलटकर उस कपटी राक्षस को देखा और मन में विचार किया कि जिसे देखकर मन व्याकुल हो, वह अवश्य ही हमारा शत्रु होता है। यह विचार मन में आते ही अर्जुन को दुर्योधन का छल-कपट याद आ गया। अर्जुन ने वहीं बैठे-बैठे उस पर बाण चला दिया। उसी समय स्वयं भक्तवत्सल भगवान शिव भी अपने भक्त अर्जुन पर आए संकट को देखकर उनकी रक्षा व परीक्षा हेतु तुरंत वहां आ गए और उन्होंने भी उस बहुरूपिए राक्षस पर अपना बाण चला दिया। उस समय देवाधिदेव महादेव जी ने भील का वेश धारण कर रखा था। उनके शरीर में श्वेत धारियां थीं और वह कच्छ बांधे हुए थे। उनके कमर पर तरकश और हाथ में धनुष बाण था और वे भी उसी शूकर का पीछा कर रहे थे।

    भीलरूपी भगवान शिव और अर्जुन दोनों के बाणों ने एक साथ उस शूकर को अपना निशाना बनाया। शिवजी का बाण उस विशाल शूकर की पूंछ में और अर्जुन का बाण उसके मुख में लगा। उस भयंकर आघात को वह सह नहीं सका। पल भर में ही भयानक शब्द करता हुआ वह धरती पर गिर पड़ा और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। उस समय सब देवता भगवान शिव की जय-जयकार करने लगे। शूकर रूपी दैत्य के मारे जाने पर दोनों बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन सोचने लगे कि यह भयानक दैत्य अवश्य ही मुझे मारने के लिए आया था परंतु भगवान शिव ने आज मेरी रक्षा की और मुझे बचा लिया। उन्होंने ही मुझे सद्बुद्धि देकर उसे मारने की प्रेरणा मेरे मन में जगाई। ऐसा विचार मन में आते ही अर्जुन ने भगवान शिव के चरणों में प्रणाम किया और पुनः भक्तिभाव से शिव स्तुति शुरू कर दी।

【शतरुद्र संहिता】

चालीसवाँ अध्याय

"किरात-अर्जुन विवाद"

नंदीश्वर बोले ;- हे सर्वज्ञ ! जब वह भयानक शूकर शिवजी व अर्जुन दोनों के बाणों से मारा गया और पृथ्वी पर बेजान होकर गिर पड़ा, तो भील रूपधारी शिवजी ने अपने एक सेवक को भेजकर मृत शूकर से अपना बाण निकालकर लाने के लिए कहा। उधर अर्जुन भी उस शूकर से अपना बाण लेने के लिए आए। तब अर्जुन और उस शिवगण में बाण को लेकर विवाद शुरू हो गया। वह गण बोला कि ये दोनों बाण मेरे स्वामी के हैं, इसलिए इन्हें मुझे दे दो। परंतु अर्जुन ने बाण देने से मना कर दिया। तब वह बोला कि तुम झूठे तपस्वी हो । यदि तुम सच्चे हो तो इन बाणों को मुझे दिखाओ। मैं अपने बाण की पहचान कर लूंगा क्योंकि उन पर मेरा फल अंकित है।

यह सुनकर अर्जुन उस गण से बोले ;- तुमसे मैं युद्ध नहीं कर सकता । युद्ध सदैव समान योद्धा से किया जाता है। मेरे बल और पराक्रम को देखना चाहते हो तो जाओ और जाकर अपने स्वामी को भेजो। अर्जुन के वचन सुनकर वह गण किरात रूप धारण किए भगवान शिव के पास गया। अर्जुन ने जो कुछ कहा था, उसने अपने स्वामी को वह सब यथावत बता दिया। सारी बातें सुनकर किरातेश्वर को बहुत प्रसन्नता हुई और वे अपनी सेना को साथ लेकर अर्जुन से युद्ध करने के लिए वहां आ गए । युद्धभूमि में पहुंचकर किरातरूपी भगवान शिव ने अपने दूत को पुनः अर्जुन के पास भेजा।

   शिव का वह दूत अर्जुन के पास गया और बोला ;- हे तपस्वी! जरा हमारी विशाल सेना को नजर उठाकर देखो, तुम क्यों एक बाण की खातिर अपने प्राणों की आहुति देना चाहते हो। अच्छा हो कि खुशी से वह बाण हमें दे दो और अपनी रक्षा करो। यह सुनकर अर्जुन को क्रोध आ गया। वे बोले कि तुम जाकर अपने स्वामी से कह दो कि मैं अपने कुल को कलंक नहीं लगा सकता। भले ही मेरे भाई दुखी हों, पर मैं युद्ध से डरकर पीछे नहीं हट सकता। क्या कभी शेर भी गीदड़ से डरा करते हैं। जाकर अपने स्वामी को बता दो कि क्षत्रिय युद्ध से डरते नहीं हैं, बल्कि अपने शत्रुओं को युद्ध में पछाड़कर आगे बढ़ते हैं।

   अर्जुन के ऐसे वचन सुनकर वह दूत अपने स्वामी किरातेश्वर भगवान शिव के पास वापस चला गया और उन्हें अर्जुन की कही सारी बातें बता दीं। अपने गण की बातों को सुनकर लीलाधारी शिव मन ही मन अर्जुन की भक्ति, निडरता और अपनी बात की अडिगता देखकर प्रसन्न हुए। फिर उन्होंने अपनी सेना सहित आगे बढ़ना शुरू कर दिया।

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