शिव पुराण शतरुद्र संहिता के इकतालीसवाँ अध्याय व बयालीसवाँ अध्याय (the forty-one and forty-two chapter of Shiv Purana Shatarudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【शतरुद्र संहिता】

इकतालीसवाँ अध्याय

"किरातेश्वर महादेव की कथा"

नंदीश्वर बोले ;- हे महामुने! जब किरातेश्वर शिवजी को उनके दूत ने बताया कि अर्जुन किसी भी स्थिति में समर्पण नहीं करना चाहते। और वे आपसे युद्ध करना चाहते हैं, तब शीघ्र ही किरातेश्वर शिव अपनी सेना के साथ युद्ध भूमि में पधारे। अर्जुन ने अपने आराध्य भगवान शिव के चरणों का स्मरण किया और अपना धनुष बाण लेकर उस विशाल सेना से लड़ने लगे। अर्जुन व भील सेना में बड़ा भयंकर संग्राम हुआ। दोनों ओर से बाणों की वर्षा होने लगी। अर्जुन, जो कि महान धनुर्धारी कहे जाते हैं, ने अपने बाणों से सारी गण सेना को पल भर ही में परेशान कर दिया। फिर क्या था, कुछ ही देर में सभी शिव गण अपने प्राणों की रक्षा हेतु युद्ध भूमि से इधर-उधर हो गए परंतु अर्जुन के बाण न रुके। जब भीलराज किरात की सारी सेना भाग खड़ी हुई तब अर्जुन ने किरात वेशधारी शिवजी से युद्ध करना आरंभ कर दिया।

अर्जुन ने अपने तीव्र बाणों महादेव जी पर हमला कर दिया परंतु वे भक्तवत्सल शिवजी का कुछ न बिगाड़ सके। उनका एक भी बाण शिवजी तक नहीं पहुंचता था। यह सब देखकर देवाधिदेव भगवान शिव हंस रहे थे। जब अर्जुन ने देखा कि वह किसी भी प्रकार से उस किरात को अपने वश में नहीं कर पा रहे हैं तो उन्होंने भगवान शिव की स्तुति की। 

इसके प्रभाव से तुरंत ही त्रिलोकीनाथ, भक्तवत्सल, कल्याणकारी शिवजी ने अपने अद्भुत स्वरूप के साक्षात दर्शन अर्जुन को कराए। भगवान शिव का परम मनोहारी सुंदर स्वरूप देखकर अर्जुन धन्य हो गए और प्रसन्न होकर पल भर उन्हें देखते ही रह गए। तब यह जानकर कि वह किरात कोई और नहीं अपितु स्वयं शिवजी ही थे, उन्हें अपने युद्ध करने और उनका अपमान करने के कारण बहुत लज्जा महसूस हुई। वे अपने आराध्य के चरणों में गिर पड़े। शिवजी ने उन्हें उठाया और बोले कि अर्जुन दुखी मत हो। तब अर्जुन हाथ जोड़कर भक्तवत्सल भगवान शिव की स्तुति करने लगे और बोले - हे महादेव जी! आपने इस प्रकार मुझसे रूप बदलकर युद्ध क्यों किया? मैंने आपका भक्त होते हुए भी आपका अपमान किया है। स्वामी! मुझे माफ कर दीजिए और मेरा कल्याण कीजिए ।

अर्जुन के वचनों से महेश्वर प्रसन्न हो गए और बोले ;- अर्जुन ! दुखी मत हो । मेरे द्वारा प्रेरित होने पर ही तुमने युद्ध किया था। इसलिए यह तुम्हारा अपराध नहीं धर्म था। मैं तुम पर प्रसन्न हूं। कहो पुत्र ! किस कारण से तुम इतनी घोर तपस्या और साधना कर रहे थे। मैं तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने का वचन देता हूं। शिवजी के ऐसे वचन सुनकर अर्जुन ने शिवजी की स्तुति आरंभ कर दी। 

अर्जुन बोले ;- हे देवाधिदेव ! कैलाशपति! सदाशिव ! मैं आपको नमस्कार करता हूं। हाथों में डमरू और त्रिशूल धारण करने वाले, गले में मुण्डमाला, शरीर पर बाघंबर ओढ़े, गले में सांपों, मस्तक पर चंद्रमा और जटाओं में पतित पावनी श्रीगंगा को धारण करने वाले, कल्याणकारी शिव-शंकर को मैं नमस्कार करता हूं। भगवन् मैं आपका एक छोटा-सा भक्त हूं और आप इस संसार के ईश्वर हैं। भला मैं कैसे आपके गुणों का वर्णन कर सकता हूं। जिस प्रकार बारिश की बूदों और आकाश के तारों को नहीं गिना जा सकता, उसी प्रकार आपके गुणों की गणना कर पाना भी असंभव है। प्रभो ! मैं आपका दास हूं। आपकी शरण में आया हूं। मुझ पर अपनी कृपादृष्टि सदा बनाए रखिए। आप तो अंतर्यामी हैं, अपने भक्तों के विषय में सबकुछ जानते हैं। प्रभु ! हम पर आए इस घोर संकट को दूर कीजिए।

यह कहकर अर्जुन मस्तक झुकाकर चुपचाप खड़े हो गए। 

अपने भक्त की स्तुति से हर्षित हो शिवजी बोले ;- हे अर्जुन! अपनी सारी चिंताएं त्याग दो। तुम्हारे कुल का कल्याण अवश्य होगा। तुम्हें सबकुछ मिल जाएगा, थोड़ा धैर्य रखो। यह कह शिवजी ने अर्जुन को अमोघ पाशुपत अस्त्र प्रदान किया। फिर अर्जुन को युद्ध में विजय पाने और शत्रुओं का नाश करने का वर प्रदान किया। साथ ही शिवजी ने उनकी सहायता हेतु श्रीकृष्ण जी को भी सहयोग करने के लिए कहा। तत्पश्चात अर्जुन को आशीर्वाद देकर शिवजी वहां से अंतर्धान हो गए।

शिवजी के जाने के उपरांत अर्जुन भी प्रसन्नतापूर्वक अपने आश्रम को लौट गए और जाकर अपने भाइयों को अपनी तपस्या सिद्धि और वर प्राप्ति के बारे में बताया, जिसे जानकर वे बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन की तपस्या पूर्ण होने के विषय में जानकर श्रीकृष्ण उनसे मिलने आए और बोले कि इसीलिए ही मैंने कहा था कि शिव भक्ति सभी कष्टों को दूर करने वाली है। मुने! इस प्रकार मैंने आपको शिवजी के किरात अवतार का वर्णन सुनाया। यह सब कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।

【शतरुद्र संहिता】

बयालीसवाँ अध्याय

"द्वादश ज्योतिर्लिंग"

नंदीश्वर बोले ;– हे सनत्कुमार जी ! अब मैं आपको सर्वव्यापी भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों रूपी अवतारों के बारे में बताता हूं। सौराष्ट्र में सोमनाथ, श्रीशैल में मल्लिकार्जुन, उज्जयनी में महाकालेश्वर, ओंकार में अपरेश्वर, हिमालय पर केदार, डाकिनी में भीमशंकर, काशी में विश्वनाथ, गोमती तट पर अंबकेश्वर, चिता भूमि में वैद्यनाथ, दारुक वन में नागेश, सेतुबंध में रामेश्वर तथा शिवालय में घुश्मेश्वर नामक बारह अवतार हैं। जो मनुष्य शुद्ध हृदय और भक्ति भावना से इन ज्योतिर्लिंगों का पूजन और दर्शन करता है, उसे परम आनंद की प्राप्ति होती है । वह, जो शिवजी के प्रथम ज्योतिर्लिंग सोमनाथ का सच्चे हृदय से पूजन करता है, उसके सभी रोगों जैसे क्षय, कुष्ठ आदि का नाश होता है। उसके सारे पाप धुल जाते हैं और उसे भुक्ति व मुक्ति प्राप्त होती है। श्रीशैल में स्थित दूसरे ज्योतिर्लिंग मल्लिकार्जुन के दर्शनों से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है तथा सब दुखों का नाश होता है एवं सुख मिलता है। पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूर्ति के लिए इस लिंग की स्तुति की जाती है। उज्जयनी में स्थित तीसरा ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर नाम से जग विख्यात है। अपने एक ब्राह्मण भक्त वेद के आह्वान पर प्रकट होकर शिवजी ने दूषण नामक असुर का वध किया था, तत्पश्चात वहीं स्थित हो गए। इसलिए इस ज्योतिर्लिंग को महाकालेश्वर कहा गया। इसके दर्शनों से मनुष्य की सारी कामनाएं पूरी होती हैं। चौथा ओंकार नामक ज्योतिर्लिंग है। विंध्यगिरि ने भक्तिभाव से विधिपूर्वक पार्थिव लिंग स्थापित किया। विंध्य की भक्ति से प्रसन्न होकर शिवजी उसी लिंग से प्रकट हुए और दो रूपों में विभक्त हो गए। तभी से ओंकारेश्वर नामक लिंग ओंकार और परमेश्वर नामों से प्रसिद्ध हुआ इसका दर्शन करने से भक्तों की अभिलाषा पूरी होती है।

भगवान शिव के पांचवें अवतार के रूप में केदार स्थित केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग है, वहां श्रीहरि के नर-नारायण अवतार की प्रार्थना पर वे वहां विराजे । उनका यह अवतार समस्त अभीष्टों को प्रदान करने वाला है। शिवजी के छठे अवतार का नाम भीमनायक नाम के असुर को मारने के कारण भीमशंकर है। भीम को मारकर शिवजी ने कामरूप देश के राजा सुदक्षिण की रक्षा की थी और उन्हीं की प्रार्थना पर वे डाकिनी में स्थित हो गए। शिवजी का यह अवतार ब्रह्माण्ड को भोग और मोक्ष देने वाला है। शिवजी का सातवां विश्वेश्वर नामक अवतार काशी में हुआ। इस अवतार की आराधना, ब्रह्मा, विष्णु, भैरव सहित सभी देवता करते हैं। इसको पूजने अथवा इसका नाम जपने वाले मनुष्य कर्म बंधन से छूटकर मोक्ष के भागी होते हैं। चंद्रशेखर भगवान शिव का आठवां अवतार त्र्यंबक नाम से सुविख्यात है और गोमती नदी के किनारे गौतम ऋषि की प्रार्थना और कामना से हुआ है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन और स्पर्श से सब कामनाएं पूर्ण होती हैं और मृत्यु पश्चात मुक्ति मिलती है। पवित्र पावनी गंगा गौतम ऋषि के स्नेहवश गौतमी के नाम से प्रवाहित हुई । नवां वैद्यनाथ अवतार शिवजी ने धारण किया।

अनेक लीलाएं करने वाले त्रिलोकीनाथ भगवान शिव रावण के लिए आविर्भूत हुए और चिता भूमि में ज्योतिर्लिंग रूप में स्थित होकर वैद्यनाथेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए । उनके दर्शनों भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। भगवान शिव का दसवां नागेश्वर अवतार अयोध्या में हुआ। इस अवतार में शिवजी ने दारुक नामक असुर को मारकर अपने एक वैश्य भक्त सुप्रिय की रक्षा की थी। शिवजी के इस लिंग का दर्शन और पूजन करने से महापातकों का समूह नष्ट हो जाता है। देवाधिदेव महादेव जी का ग्यारहवां अवतार सेतुबंध में रामेश्वरावतार कहलाता है। सीताजी को वापस लाने के लिए लंका जाते समय समुद्र तट पर श्रीरामचंद्र ने इस लिंग को स्थापित कर भगवान शिव की आराधना-अर्चना की थी। उनकी प्रार्थना पर शिवजी इस ज्योतिर्लिंग में स्थित हुए। रामेश्वर लिंग को गंगाजल से स्नान कराने वाले मनुष्य को जीवन के बंधनों से मुक्ति मिल जाती है। उसे परम दिव्य ज्ञान की प्राप्त होती है। यह ज्योतिर्लिंग भोग तथा मुक्ति प्रदान करने वाला है। इसका पूजन देव दुर्लभ कैवल्य मोक्ष प्रदान करता है। इसी प्रकार, शिवजी का घुश्मेश्वर नामक बारहवां अवतार हुआ जिसमें उन्होंने अपने प्रिय भक्त घुश्मा को आनंद दिया । दक्षिण दिशा में देवलोक के निकट शिवजी सरोवर में प्रकट हुए। घुश्मा ने अपने पुत्र को पुनर्जीवित करने हेतु शिवजी की तपस्या की । तब उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर महादेव जी ने उसके पुत्र को जीवित किया एवं उसकी प्रार्थना पर वहीं ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थित होकर घुश्मेश्वर नाम से विख्यात हुए। इस शिवलिंग का भक्तिपूर्वक पूजन करने से मनुष्य इस लोक में सुखों को भोगकर अंत में मोक्ष प्राप्त कर है।

हे महामुने! इस प्रकार मैंने त्रिलोकीनाथ देवाधिदेव शिवजी के बारह दिव्य ज्योतिर्लिंगों का वर्णन आपसे किया। शिवजी की यह दिव्य बारह अवतारों वाली ज्योतिर्लिंग कथा को जो मनुष्य शांतचित्त और श्रद्धाभाव से पढ़ता या सुनता है, उसे सब पापों से छूटकर भोग व मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह सौ अवतारों की शतरुद्र नामक संहिता सब कामनाओं को पूरा करने वाली है। इस कथा को मन लगाकर पढ़ने या सुनने से सभी लालसाएं और कामनाएं पूरी हो जाती हैं और सांसारिक बंधनों से मुक्ति मिल जाती है।

।। श्रीशतरुद्र संहिता संपूर्ण ।।


।।श्रीकोटिरुद्र संहिता प्रारंभ।।


(नोट :- सभी अंश, सभी संहिता के सभी अध्याय व खण्ड की मशीनी टाइपिंग है, इसमें त्रुटियाँ संभव हैं, इसे पुस्तक का हिस्सा न माना जाये  ।। )

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