शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खण्ड) के छत्तीसवें अध्याय से चालीसवें अध्याय तक (From the thirty-sixth to the fortieth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (5th volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

छत्तीसवाँ अध्याय 

"देव-दानव युद्ध"

व्यास जी ने सनत्कुमार जी से पूछा ;- हे ब्रह्मापुत्र! जब भगवान शिव का संदेश लेकर दैत्यराज शंखचूड़ का वह दूत वापस अपने स्वामी शंखचूड़ के पास चला गया, तब क्या हुआ? उस दूत ने शंखचूड़ से क्या कहा और उस दूत से सारी बातें जानने के पश्चात दैत्यराज शंखचूड़ ने क्या कहा? हे महर्षे! कृपा करके इस संबंध में मुझे सविस्तार बताइए।

व्यास जी के प्रश्न को सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे महामुने! उस दूत ने अपने स्वामी शंखचूड़ के पास जाकर उसे भगवान शिव से हुई सारी बातें बता दीं। शिवजी की कही बातें के सुनकर शंखचूड़ और अधिक क्रोधित हो उठा और उसने अपनी विशाल दैत्य सेना को तुरंत युद्ध के लिए चलने की आज्ञा प्रदान की। दूसरी ओर भगवान शिव ने भी अपने गणों और देवताओं को युद्ध भूमि की ओर प्रस्थान करने के लिए कहा। देवताओं और दानवों दोनों की सेनाएं पूरे जोश और साहस के साथ लड़ने हेतु तत्पर होकर आगे बढ़ने लगीं । दानवों की सेना में सबसे आगे शंखचूड़ था और दूसरी ओर देवसेना में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव सबसे आगे चल रहे थे। दोनों सेनाएं अपने स्वामियों के जयघोष के साथ आगे बढ़ रही थीं। उस समय चारों ओर रणभेरियां बजने लगी थीं। कुछ ही समय पश्चात देवता और दैत्य आमने सामने थे। एक-दूसरे को अपना घोर शत्रु समझकर दोनों एक-दूसरे पर टूट पड़े। भयानक युद्ध होने लगा। हर ओर मार-काट, चीख-पुकार मची हुई थी । युद्ध का दृश्य अत्यंत हृदय विदारक था। भगवान श्रीहरि विष्णु के साथ दंभ, कलासुर के साथ कालका, गोकर्ण के साथ हुताशन तो कालंबिक के साथ वरुण देव का युद्ध होने लगा।

सब युद्ध करने में मग्न थे परंतु भगवान शिव तथा देवी भद्रकाली अभी तक ऐसे ही बैठे थे। उन्होंने युद्ध करना शुरू नहीं किया था। उधर, दैत्यराज शंखचूड़ भी युद्ध का दृश्य देख रहा था। उस समय युद्ध अपने चरम पर था। दोनों सेनाएं घमासान युद्ध कर रही थीं। सभी बड़ी वीरता से लड़ रहे थे और युद्ध में अनेक प्रकार के आयुधों का प्रयोग कर रहे थे। कुछ ही देर में पृथ्वी कटे-मरे और घायल योद्धाओं से पट गई।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

सैंतीसवाँ अध्याय 

"शंखचूड़ युद्ध"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे व्यास जी ! इस प्रकार देवताओं और दानवों में बड़ा भयानक विनाशकारी युद्ध चल रहा था। धीरे-धीरे दानव देवताओं पर भारी पड़ने लगे। तब देवता अत्यंत भयभीत होकर अपनी रक्षा हेतु इधर-उधर भागने लगे। कुछ देवता भागकर देवाधिदेव भगवान शिव की शरण में आए। 

तब वे देवता बोले ;- प्रभु ! हमारी रक्षा करें । असुर सेना परास्त होने के बजाय हम पर हावी होती जा रही है। यदि शीघ्र ही कुछ नहीं किया गया, तो हम अवश्य हार जाएंगे।

देवताओं के ये वचन सुनकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया। वह उठकर खड़े हो गए और स्वयं युद्ध करने के लिए आगे बढ़े। युद्ध स्थल में पहुंचते ही उन्होंने असुरों की अक्षौहिणी सेना का नाश कर दिया। देवी भद्रकाली भी अनेक दैत्यों को मार-मारकर उनका रक्त पीने लगी। इस प्रकार असुरों को युद्ध में कमजोर पड़ता देखकर देवताओं में एक नई जान आ गई। जो देवता इधर-उधर अपने प्राणों की रक्षा के लिए भाग गए थे, वे भी आकर पुनः युद्ध करने लगे। उधर, भद्रकाली देवी क्रोध से भरकर दैत्यों को पकड़-पकड़कर अपने मुख में डालने लगी। स्कंद ने अपने बाणों से करोड़ों दानवों को मौत के घाट उतार दिया। यह देखकर असुर सेना भयभीत होकर अपने प्राणों की रक्षा करने हेतु इधर-उधर भागने लगी असुर सेना को इस प्रकार तितर-बितर होता देखकर दानवराज शंखचूड़ क्रोधित होकर स्वयं युद्ध में कूद पड़ा। उसने अपने हाथों में धनुष बाण उठाया और भयानक बाणों की वर्षा करनी प्रारंभ कर दी। देखते ही देखते शंखचूड़ ने देवसेना के अनेकों सैनिकों का संहार कर दिया। यह देखकर स्कंद देव आगे बढ़े और शंखचूड़ को ललकारने लगे। शंखचूड़ ने क्रोधित होकर स्कंद पर पलटकर वार किया। उसने स्कंद का धनुष काट दिया और पूरी शक्ति से स्कंद की छाती पर प्रहार किया। फलस्वरूप स्कंद मूर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़े।

कुछ ही देर बाद स्कंद उठकर खड़े हो गए और उन्होंने अपने बाण से शंखचूड़ के रथ में छेद कर दिया। यही नहीं, स्कंद ने शंखचूड़ का कवच, किरीट आदि कुण्डल भी गिरा दिया। तत्पश्चात उसने एक भयानक विष बुझी शक्ति से शंखचूड़ पर प्रहार किया। इस प्रहार से शंखचूड़ मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ा और काफी समय तक ऐसे ही पड़ा रहा। कुछ समय पश्चात वह ठीक होकर पुनः युद्ध करने लगा। इस बार उसने भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय को अपना निशाना बनाया और उस पर भयानक शक्ति का प्रहार किया, जिससे कार्तिकेय बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े।

तब कार्तिकेय को इस प्रकार धरती पर बेहोश पड़ा हुआ देखकर देवी भद्रकाली उन्हें गोद में उठा लाईं। उनकी दशा देखकर शिवजी ने उन पर अपने कमण्डल का जल छड़का। जल छिड़कते ही कार्तिकेय फौरन उठ बैठे और पुनः युद्ध करने के लिए   युद्ध चल रहा था। यह कह पाना कठिन था कि दोनों में से कौन अधिक वीर और बलशाली है। एक-दूसरे पर वे बड़े शक्तिशाली ढंग से प्रहार कर रहे थे। देवी भद्रकाली भी पुनः युद्ध में आकर दानवों का भक्षण करने लगीं।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

अड़तीसवाँ अध्याय 

"भद्रकाली- शंखचूड़ युद्ध"

सनत्कुमारजी बोले ;– हे व्यास जी ! देवी भद्रकाली ने युद्धभूमि में जाकर भयंकर सिंहनाद किया, जिससे डरकर अनेकों दानव मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़े। भद्रकाली ने अपने तेज और नुकीले दांतों से दानवों का रक्त चूसना शुरू कर दिया। यह देखकर युद्धरत दानव भय से आतंकित हो उठे। वे डरकर इधर-उधर भागने लगे। यह देखकर दानवराज शंखचूड़ दौड़कर देवी भद्रकाली से युद्ध करने के लिए आगे आया।

शंखचूड़ को सामने खड़ा देखकर भद्रकाली ने प्रलय अग्नि के समान भयंकर बाणों की वर्षा करनी शुरू कर दी परंतु शंखचूड़ ने वैष्णव नामक अस्त्र से उस वर्षा को शांत कर दिया। देवी भद्रकाली ने उसके जवाब में नारायण अस्त्र चलाया परंतु शंखचूड़ हाथ जोड़कर उस अस्त्र को प्रणाम करने लगा, जिससे वह नारायण अस्त्र वहीं पर शांत हो गया। दैत्यराज शंखचूड़ अपने भयानक बाणों से देवी पर प्रहार करता और देवी उन असंख्य बाणों को अपनी विकराल दाढ़ों से चबा जातीं। इस प्रकार देवी और शंखचूड़ में भयानक संग्राम होने लगा। तभी क्रोधित भद्रकाली ने पाशुपात नामक ब्रह्मास्त्र उठा लिया परंतु तभी आकाशवाणी हुई कि अभी दैत्येंद्र की मृत्यु का समय नहीं आया है और इसकी मृत्यु आपके हाथों से नहीं लिखी है।

तब देवी ने पाशुपात अस्त्र को वापस कर दिया और उसे काटने के लिए दौड़ीं। यह देखकर असुरराज ने रौद्रास्त्र चलाकर उनकी गति को कम किया। तब भद्रकाली ने असुरराज द्वारा प्रयोग की गई सारी शक्तियों को तहस-नहस कर दिया और आगे बढ़कर शंखचूड़ की छाती पर अपने मुक्के का जोरदार प्रहार किया। इस प्रहार से शंखचूड़ बेहोश होकर धरती पर गिर पड़ा। लेकिन कुछ ही देर पश्चात पुनः उठकर वह भद्रकाली देवी से युद्ध करने लगा।

तब देवी ने उसे कसकर पकड़ लिया और चारों ओर घुमाकर धरती पर फेंक दिया। शंखचूड़ कुछ समय तक ऐसे ही पड़ा रहा। तब देवी ने अन्य दानवों का वध करना शुरू कर दिया। शंखचूड़ चुपचाप उठा और जाकर अपने रथ पर धीरे से बैठ गया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

उन्तालीसवाँ अध्याय 

"शंखचूड़ की सेना का संहार"

व्यास जी बोले ;– हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! जब देवी भद्रकाली द्वारा युद्ध में घायल होकर शंखचूड़ पुनः अपने रथ पर जाकर बैठ गया, तब क्या हुआ? भगवान शिव ने, जो उस युद्ध में असुरराज शंखचूड़ का वध करने के लिए ही आए थे, क्या किया? कृपा कर मुझे इस कथा को सविस्तार सुनाइए ।

व्यास जी की इस जिज्ञासा को शांत करते हुए सनत्कुमार जी ने कहना आरंभ किया। 

सनत्कुमार जी बोले ;– हे महामुने! जब देवी भद्रकाली ने असुरराज शंखचूड़ को उठाकर बलपूर्वक जमीन पर पटक दिया तो कुछ समय तक शंखचूड़ इस प्रकार से धरती पर पड़ा रहा मानो मूर्च्छित हो गया हो। तब देवी जाकर दानवों पर प्रलय की भांति टूट पड़ीं। दूसरी ओर कुछ देवताओं ने भगवान शिव के पास जाकर उन्हें भद्रकाली और शंखचूड़ के इस भयानक युद्ध के बारे में बताया। ये सारी बातें सुनकर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव स्वयं युद्ध करने के लिए आगे बढ़े।

जब कल्याणकारी सर्वेश्वर देवाधिदेव भगवान शिव अपने वाहन नंदीश्वर पर चढ़कर आरूढ़ होकर युद्ध स्थल में पधारे तो उन्हें देखकर असुरराज शंखचूड़ ने उनका अभिवादन किया। तत्पश्चात शंखचूड़ अपने विमान पर चढ़ गया और भगवान शिव से युद्ध करने की तैयारी करने लगा। उसने अपना रक्षा कवच पहना और युद्ध करने के लिए अपने हाथ में धनुष-बाण उठा लिया। वह पूरे उत्साह के साथ भगवान शिव पर दिव्यास्त्रों का प्रहार कर रहा था।

इस प्रकार त्रिलोकीनाथ भगवान शिव और असुरराज शंखचूड़ का भयानक युद्ध सौ वर्षों तक निरंतर चलता रहा। महावीर और पराक्रमी शंखचूड़ ने अनेक शक्तिशाली बाणों और असंख्य मायावी अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग शिवजी पर किया परंतु परमेश्वर शिव ने उन सबको पल भर में काट दिया। भगवान शिव ने क्रोधित होकर उस पर पुनः प्रहार किया। यह देखकर शंखचूड़ ने चतुराई से काम लेते हुए मन में सोचा कि यदि मैं भगवान शिव के वाहन को ही नुकसान पहुंचा दूं तो वे पल भर में ही जमीन पर आ गिरेंगे और इस प्रकार मैं उन पर झपटकर उन्हें अपने वश में कर लूंगा। यह विचार मन में आते ही शंखचूड़ ने शिवजी के वाहन नंदीश्वर के सिर पर तलवार से वार किया परंतु देवाधिदेव ने क्षणमात्र में ही उस तलवार के दो टुकड़े कर दिए ।

अपने प्रिय नंदीश्वर को युद्ध में निशाना बनता देखकर उनके सब्र का बांध टूट गया और उन्होंने अपने तेज बाणों से दैत्यराज की ढाल को भी काट दिया। जब तलवार और ढाल दोनों ही खराब हो गईं, तब शंखचूड़ ने अपनी गदा से युद्ध लड़ना आरंभ कर दिया परंतु गदा का भी हाल वही हुआ जो तलवार और ढाल का हुआ था। तभी देवी भद्रकाली वहां पहुंचकर राक्षसों को मारने-काटने लगीं। देखते ही देखते उन्होंने अनेकों वीर दैत्यों का संहार कर दिया।

कई का रक्त चूस लिया और बहुतों को अपने मुख में डालकर जिंदा ही निगल लिया। अपनी विशाल दैत्य सेना का इस प्रकार सर्वनाश होता देखकर शंखचूड़ को अत्यधिक पीड़ा हुई। उसका दर्द तब और भी बढ़ गया जब उसने अपने साहसी वीर राक्षसों को प्राण बचाने के लिए जहां-तहां भागते हुए देखा।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

चालीसवाँ अध्याय 

"शिवजी द्वारा शंखचूड़ वध"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे व्यास जी! अपनी विशाल सेना का इस प्रकार संहार होता देखकर असुरराज शंखचूड़ अत्यंत क्रोधित होकर निरंतर उन पर अस्त्रों का प्रहार करने लगा। तत्पश्चात उसने अपनी माया का प्रयोग करते हुए सभी देवताओं सहित देवाधिदेव महादेव को भयभीत करने का प्रयास किया परंतु इस जगत के स्वामी को इस प्रकार भला कोई डरा सकता है क्या? देवाधिदेव महादेव जी उसकी माया से तनिक भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने शंखचूड़ पर अनेक दिव्य शक्तियों से प्रहार किया। जिनके फलस्वरूप शंखचूड़ की माया पल भर में ही विलुप्त हो गई।

क्रोधित महादेव जी ने दैत्येंद्र का वध करने के लिए अपने हाथ में त्रिशूल उठा लिया। जैसे ही वे त्रिशूल का प्रहार करने आगे बढ़े, तभी उन्हें एक आकाशवाणी सुनाई दी जो कि सिर्फ शिवजी के लिए ही थी। 

आकाशवाणी बोली ;- हे कल्याणकारी शिव! आप तो सर्वेश्वर हैं। इस जगत के स्वामी हैं। आपकी आज्ञा के बिना तो इस जगत में कुछ हो ही नहीं सकता। भगवन्! आप इस तुच्छ राक्षस का वध करने के लिए त्रिशूल का प्रयोग क्यों कर रहे हैं? इसे मारना आपके लिए बहुत ही आसान है। भगवन्! आप तो सब वेदों के परम ज्ञाता हैं तथा सबकुछ जानते हैं। जब तक शंखचूड़ के पास भगवान विष्णु का कवच और पतिव्रता स्त्री है, तब तक शास्त्रानुसार यह अवध्य है।

आकाशवाणी सुनते ही भगवान शिव ने अपने त्रिशूल को तुरंत ही रोक दिया और मन में श्रीहरि विष्णु का स्मरण किया। श्रीहरि अगले ही क्षण हाथ जोड़े उनके सामने उपस्थित हो गए। तब शिवजी ने विष्णुजी को इस संकट को दूर करने का आदेश दिया। भगवान विष्णु ने तुरंत एक ब्राह्मण का वेश धारण किया और भिक्षा मांगने के लिए दैत्यराज शंखचूड़ के पास पहुंच गए। वहां पहुंचकर विष्णुजी ने भिक्षा मांगी। 

तब शंखचूड़ ने पूछा ;- हे ब्राह्मण देव! आपको क्या चाहिए? मैं अवश्य ही दूंगा। परंतु पहले यह बताइए तो सही कि आप क् चाहते हैं? तब ब्राह्मण का रूप धारण किए हुए विष्णुजी बोले कि पहले प्रतिज्ञा करो कि मैं जो मांगूंगा, तुम मुझे दोगे। इस प्रकार जब शंखचूड़ ने ब्राह्मण को उसकी इच्छित वस्तु देने का वचन दे दिया, तब विष्णुजी ने उससे उसका कवच मांग लिया। कवच लेने के पश्चात वे ब्राह्मण के रूप में ही दैत्यराज की पत्नी देवी तुलसी के पास गए। मायावी विष्णुजी देवताओं के कार्य को पूरा करने के लिए देवी तुलसी के साथ भक्तिपर्वक विहार करने लगे।

दूसरी ओर, जब भगवान शिव को अपनी दिव्य अलौकिक शक्ति द्वारा इस बात का ज्ञान हुआ कि शंखचूड़ की रक्षा करने वाला कवच और उसकी पतिव्रता स्त्री की शक्ति, अब उसके साथ नहीं रही, तो तुरंत ही उन्होंने अपना विजय नामक त्रिशूल उठा लिया और पूरी शक्ति से उस त्रिशूल का प्रहार दैत्यराज पर किया। उस दिव्य त्रिशूल के प्रहार से पल भर में ही शंखचूड़ के प्राण पखेरू उड़ गए।

दैत्यराज शंखचूड़ के मरते ही आकाश में दुंदुभियां बजने लगीं। चारों दिशाओं में मंगल गान होने लगा और भगवान शिव पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। वहां उपस्थित सभी देवता भगवान शिव की स्तुति करने लगे और उनको धन्यवाद कहने लगे असुरराज शंखचूड़ भी भगवान शिव के हाथों मृत्यु को प्राप्त होकर अपने शाप से मुक्त हो गया। उसकी हड्डियों से एक विशेष शंख की जाति बनी। उस शंख में रखा गया जल अत्यंत शुद्ध माना जाता है और उसका प्रयोग देवताओं पर जल चढ़ाने के लिए तथा घरों को शुद्ध करने के लिए किया जाता है। वह जल देवी लक्ष्मी और श्रीहरि विष्णु को बहुत प्रिय है परंतु इस जल को भगवान शिव की पूजा में प्रयोग नहीं किया जाता।

इस प्रकार दैत्यराज शंखचूड़ के वध के पश्चात कल्याणकारी भगवान शिव प्रसन्नतापूर्वक नंदीश्वर पर आरूढ़ होकर देवी भद्रकाली, कुमार कार्तिकेय और गणेश सहित अपने अनेकों गणों को साथ लेकर पुनः अपने निवास कैलाश पर्वत की ओर चल दिए । तत्पश्चात अन्य देवता भी प्रसन्न हृदय से अपने लोकों को चले गए।


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