शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खण्ड) के इकतालीसवें अध्याय से पैंतालीसवें अध्याय तक (From the forty-first to the forty-fifth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (5th volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

इकतालीसवाँ अध्याय 

"तुलसी द्वारा विष्णुजी को शाप"

व्यास जी बोले ;– हे सनत्कुमार जी ! भगवान विष्णु ने पतिव्रता तुलसी को किस प्रकार अपने अधीन कर लिया? किस प्रकार पतिव्रता धर्म का पालन करने वाली देवी तुलसी एकाएक धर्म से विमुख होकर अधर्म का आचरण करने लगीं? कृपा कर इस कथा को मुझे बताइए।

व्यास जी के प्रश्न को सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे महामुने! देवताओं के हित का सदा ध्यान रखने वाले भगवान विष्णु ने अपने आराध्य भगवान शिव की आज्ञा पाकर उनके द्वारा बताए गए कार्यों को पूर्ण करना अपना ध्येय माना। तब तुरंत वे ब्राह्मण का वेश धरकर शंखचूड़ से उसका कवच ले आए। तत्पश्चात वे अतिशीघ्र दैत्यराज शंखचूड़ के नगर की ओर चल दिए। भगवान विष्णु ने दैत्येंद्र के नगर के समीप पहुंचने से पहले ही अपना रूप बदल लिया। उन्होंने शंखचूड़ का रूप धारण कर लिया। फिर वे देवी तुलसी के पास पहुंचे। अपने पति शंखचूड़ को सामने पाकर देवी तुलसी फूली नहीं समाई । वह उनके गले से लग गई। उसकी आंखों से अश्रुधारा बही जा रही थी। उसने अपने स्वामी को सिंहासन पर बैठाकर उनके चरणों को धोया और युद्ध का समाचार पूछा।

शंखचूड़ का रूप धारण किए हुए भगवान विष्णु बोले ;- हे प्रिये ! युद्ध के मध्य में ही ब्रह्माजी ने मेरे और भगवान शिव के बीच संधि करा दी। इसलिए मैं वापस आ गया हूं। भगवान शिव भी वापस कैलाश पर्वत पर चले गए हैं। यह कहकर उन्होंने देवी तुलसी की जिज्ञासा को शांत कर दिया। तत्पश्चात शंखचूड़ भगवान विष्णु तुलसी के साथ आनंदपूर्वक रमण करने लगे परंतु झूठ की हांडी रोज नहीं चढ़ती। एक दिन देवी तुलसी को ज्ञात हुआ कि उसके साथ रमण करने वाला पुरुष उसका पति शंखचूड़ नहीं बल्कि कोई और है।

यह पता चलते ही देवी तुलसी आत्मग्लानि से भर उठी। उन्हें स्वयं से घृणा होने लगी। वह क्रोध से वेश बदले श्रीविष्णु पर फट पड़ीं। 

उन्होंने श्रीविष्णु से पूछा ;- तू कौन है? मुझे सच सच बता। क्यों तूने मुझ जैसी पतिव्रता स्त्री का पतिव्रत धर्म नष्ट कर दिया? मैं तुझे नहीं छोडूंगी। ये वचन सुनकर विष्णु भगवान ने भयभीत होकर अपने स्थान पर अपनी एक मूर्ति बना दी ताकि देवी तुलसी उनके विषय में कुछ न जान पाएं परंतु तुलसी ने उनके पचिन्हों से विष्णुजी को पहचान लिया। तब गुस्से से उन्होंने भगवान विष्णु को शाप देते हुए,,

कहा ;- हे विष्णो! लोग तुम्हें भगवान मानकर तुम्हारी पूजा करते हैं पर वास्तव में तुम पूजा के योग्य नहीं हो। तुम तो सिर्फ पत्थर हो। तुम्हारे मन में दयाभाव नाम की कोई वस्तु नहीं है। तुमने मेरे सतीत्व को भंग किया है और मेरे पति शंखचूड़ को मार डाला है। इसलिए मैं तुम्हें शाप देती हूं कि तुम आज, अभी से पत्थर के हो जाओगे। यह कहकर देवी तुलसी अत्यंत दुखी मन से रोने लगीं।

    देवी तुलसी का दिया शाप सुनकर भगवान विष्णु भी दुखी हुए और भगवान शिव का स्मरण करने लगे। विष्णुजी की पुकार सुनकर भक्तवत्सल भगवान शिव वहां प्रकट हो गए । उन्हें देखकर देवी तुलसी और विष्णुजी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। तब वे देवी तुलसी को समझाने लगे। उन्होंने तुलसी को समझाया कि देवी तुलसी यह तो पूर्व निश्चित था। शंखचूड़ को मिले शाप के फलस्वरूप उसका जन्म दानव कुल में हुआ और इसी कारण उसे मेरे हाथों मृत्यु प्राप्त हुई है। देवी तुम्हारी मनोस्थिति मैं समझ सकता हूं परंतु यह संसार नश्वर है। अतः तुम अपने द्वारा की गई तपस्या का फल लो और इस शरीर को त्याग दो। मेरे आशीर्वाद के फलस्वरूप तुम्हें दिव्य देह की प्राप्ति होगी । तुम्हारी श्रीहरि में विशेष प्रीति होगी । इस शरीर को त्यागने के पश्चात जब तुम नया शरीर धारण करोगी तो तुम गण्डकी नाम की नदी होगी और सभी के द्वारा पूजित होने के कारण प्रधान रूपा तुलसी के नाम से विख्यात होगी। चाहे स्वर्ग हो या पाताल या फिर पृथ्वी तुम वनस्पतियों में श्रेष्ठ होगी तथा श्रीहरि की विशेष कृपा सदा तुम पर रहेगी। तुमने जो श्रीहरि को शाप दिया है, वह भी अवश्य पूरा होगा। गण्डकी के तट पर सदा भगवान विष्णु भी पाषाण के रूप में स्थित होंगे। तेज दांतों वाले अनेक कीड़े उस शिला को छेद-छेदकर उसमें चक्र बना देंगे। उस शिला को इस जगत में शालिग्राम के नाम से प्रसिद्धि मिलेगी। यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।

तत्पश्चात देवी तुलसी ने अपना शरीर त्याग दिया और गण्डकी नदी बन गईं। तब श्रीविष्णु ने भी उस नदी के तट पर पाषाण के रूप में निवास किया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

बयालीसवाँ अध्याय 

"हिरण्याक्ष-वध"

नारद जी बोले ;- हे ब्रह्मान! आप मुझे भगवान शिव की उन उत्तम लीलाओं के विषय में बताइए, जिनकी ये लीलाएं बड़ी सुखदायिनी हैं।

 ब्रह्माजी बोले ;- जलंधर के संहार के बारे में जानकर देवी सत्यवती के पुत्र व्यास जी सनत्कुमार जी से यही बातें पूछने लगे। तब उनकी उत्सुकता देखकर,,

   सनत्कुमारजी बोले ;- हे व्यास जी ! अब मैं तुम्हें अंधकासुर नामक दैत्य के शिवगण बन उनकी भक्ति में लीन रहने की कथा सुनाता हूं। एक समय की बात है, देवाधिदेव भगवान शिव अपनी प्राण वल्लभा देवी पार्वती और अपने प्रिय गणों के साथ कैलाश पर्वत से काशी जा रहे थे। उनका विचार कुछ समय काशी में व्यतीत करने का था। इसलिए उन्होंने अपने वीर गण भैरव को काशी का रक्षक बना दिया और स्वयं सबके साथ सुखपूर्वक निवास करने लगे। एक बार भगवान शिव, पार्वती देवी के साथ आनंदपूर्वक विहार करते हुए मंदराचल नामक पर्वत पर गए। एक दिन शिव-पार्वती बैठे आपस में वार्तालाप और मनोविनोद कर रहे थे। तभी देवी पार्वती ने अपने हाथों से भगवान शिव के नेत्र कुछ पल के लिए बंद कर दिए ।

भगवान शिव के नेत्र बंद होते ही चारों ओर भयानक अंधकार छा गया। उसी समय भगवान शिव के माथे से पसीने की कुछ बूंदें निकलीं। जैसे ही वे बूंदें धरती पर गिरीं, तुरंत एक जटाधारी काला, विकृत, डरावना राक्षस वहां उत्पन्न हो गया और वह जोर-जोर से हंसने लगा। उसकी भयानक आवाज सुनकर देवी पार्वती एकदम चौंक गईं कि एकाएक उनके सामने यह भयानक जीव कहां से प्रकट हो गया है? 

तब देवी पार्वती ने भगवान शिव से पूछा ;— हे स्वामी! यह भयानक पुरुष कौन है? यह सुनकर भगवान शिव मुस्कुराते हुए बोले- हे देवी! यह आपका पुत्र है। जब आपने मेरी आंखें बंद की, उस समय मेरे माथे से कुछ पसीने की बूंदें गिरीं। उसी से यह प्रकट हुआ है। यह जानकर कि वह पुरुष उनका पुत्र है देवी बड़ी प्रसन्न हुईं। भगवान शिव ने उसका नाम अंधक रख दिया।

उसी समय हिरण्यनेत्र नाम का एक राक्षस पुत्र प्राप्ति की कामना मन में लेकर वन में घोर तपस्या कर रहा था। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव उसे वरदान देने के लिए गए। उसने भगवान शिव से एक बलवान और वीर पुत्र की प्राप्ति की इच्छा प्रकट की । 

भगवान शिव ने कहा ;— हे हिरण्यनेत्र ! मेरा पुत्र अंधक बड़ा ही वीर और बलवान है। तुम चाहो तो मैं उसे तुम्हें सौंप सकता हूं।

भगवान शिव के पुत्र को अपना पुत्र बनाने के लिए वह राक्षस व्यग्र हो उठा। उस पुत्र को प्राप्त कर हिरण्यनेत्र बहुत प्रसन्न हुआ और उसे गले से लगा लिया। भगवान शिव पुत्र अंधक को हिरण्यनेत्र को सौंपकर अपने धाम को चले गए। हिरण्यनेत्र अपने प्रिय पुत्र अंधक को साथ लेकर अपने घर लौट आया और उसको बहुत लाड़-प्यार से पालने लगा। तत्पश्चात हिरण्यनेत्र ने, जिसे हिरण्याक्ष भी कहा जाता था, पृथ्वीलोक और पाताल लोक के राज्यों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। दैत्यों के राजा उस हिरण्याक्ष के आतंक से तीनों लोक कांपने लगे। यहां तक कि देवता भी व्याकुल और भयभीत हो गए। उन्होंने भगवान विष्णु को वाराह रूप धारण करके पाताल लोक भेजा। क्रोधित श्रीहरि ने हिरण्याक्ष का वध सुदर्शन चक्र से कर दिया। तत्पश्चात अंधक का राज्याभिषेक करवाया। सभी देवता भयमुक्त होकर बड़े प्रसन्न हुए और भगवान विष्णु की जय-जयकार करने लगे। भगवान श्रीहरि विष्णु आशीर्वाद देकर अपने बैकुण्ठ धाम को चले गए। अपने भाई हिरण्याक्ष के वध का समाचार पाकर उसका भाई हिरण्यकशिपु क्रोधित हो उठा और उसने भगवान विष्णु से वैर बांध लिया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

तैंतालीसवाँ अध्याय 

"हिरण्यकशिपु की तपस्या और नृसिंह द्वारा उसका वध"

सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी! वाराहरूपधारी श्रीहरि विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का संहार किए जाने से, हिरण्यकशिपु बहुत दुखी और क्रोधित तो था ही, अतः उसने अपनी असुर सेना को देवताओं का संहार करने की आज्ञा दी तथा अपनी विष्णुभक्त प्रजा को भी दंड देने के लिए कहा। तब आज्ञा पाकर स्वामीभक्त असुरों ने देवलोक का विनाश कर दिया। उनके आतंक से देवता स्वर्ग छोड़कर भाग खड़े हुए। हिरण्यकशिपु के राज्य में उसकी प्रजा को बहुत डराया जाता था । सबने भक्ति का मार्ग छोड़ दिया था। 

   विष्णु भक्तों की खैर नहीं थी एक दिन हिरण्यकशिपु अपने मृत भाई हिरण्याक्ष को जलांजलि देकर उसकी स्त्री और बच्चों से मिला और उन्हें सांत्वना दी । दैत्यराज हिरण्यकशिपु के मन में विचार आया कि यदि मैं अजर, अमर, अजेय हो जाऊं और मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी न रहे तो कोई भी मुझे हरा नहीं सकेगा और तब सभी मुझे झुककर प्रणाम करेंगे। यह सोचते ही हिरण्यकशिपु मंदराचल पर्वत पर जाकर घोर तपस्या करने लगा। तपस्या हेतु वह एक पैर के अंगूठे पर खड़ा था। सिर के ऊपर दोनों हाथ जोड़े आसमान की ओर देखते हुए वह घोर तपस्या कर रहा था ।

इधर, जब हिरण्यकशिपु तपस्या में लीन था तो देवताओं ने असुरों से अपना राज्य छीन लिया। वे आनंदपूर्वक अपना राज्य करने लगे । हिरण्यकशिपु की तपस्या का तेज दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा था। उसके तप की अग्नि से देवता तप्त हो उठे और भयभीत होकर ब्रह्माजी के पास गए। तब सब देवताओं ने हाथ जोड़कर ब्रह्माजी को प्रणाम किया।

    तत्पश्चात उन्होंने बताया कि हे प्रभु! दैत्यराज हिरण्यकशिपु की तपस्या के तेज से सब लोक भयभीत हो रहे हैं। आप कृपा करके हमें भयमुक्त कीजिए सब देवताओं की प्रार्थना सुनकर ब्रह्माजी हिरण्यकशिपु को वर देने के लिए उस स्थान पर गए, जहां वह तपस्या कर रहा था। वहां जाकर उन्होंने हिरण्यकशिपु से कहा- वत्स! मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम जो चाहो मांग सकते हो। मैं तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी करूंगा ।

ब्रह्माजी के ये शुभ वचन सुनकर हिरण्यकशिपु ने आंखें खोल दीं और हाथ जोड़कर सामने खड़े ब्रह्माजी को प्रणाम किया। 

तत्पश्चात वह बोला ;- हे प्रजापति! हे पितामह! मैं चाहता हूं कि मुझे कभी भी मृत्यु का भय न हो। मैं किसी अस्त्र-शस्त्र, पाश, वज्र, सूखे पेड़, पर्वत, जल, अग्नि से न मरूं देवता, दैत्य, मुनि, सिद्धवर अथवा सृष्टि की कोई भी रचना मेरा वध न कर सके। दिन-रात, स्वर्ग-नरक, पृथ्वी - पाताल, अंदर बाहर कहीं भी किसी भी समय मेरी मृत्यु न हो सके। ब्रह्माजी ने प्रसन्न होते हुए 'तथास्तु' कह दिया तुम्हें तुम्हारे अभीष्ट फलों की अवश्य प्राप्ति होगी। जो वरदान तुमने मांगा है, वह अवश्य फलीभूत होगा। तुमने छियानवे हजार वर्षों तक तपस्या करके मुझे प्रसन्न किया है। अब तुम सुखपूर्वक राज्य करो।

   अपना इच्छित वरदान प्राप्त करके दैत्यराज हिरण्यकशिपु बहुत प्रसन्न हुआ और हाथ जोड़कर ब्रह्माजी की स्तुति करने लगा। तत्पश्चात ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। हिरण्यकशिपु अपने घर वापस चला गया। वहां पहुंचकर उसके मन में यह विचार आया कि अब मैं अमर हो गया हूं। अब कोई भी मुझे नहीं मार सकता। इसलिए अब मुझे अपने राज्य का विस्तार करना चाहिए। यह विचार मन में आते ही उसने तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित करने का निर्णय किया। उसने देवताओं से भयंकर संग्राम किया और उन्हें हराकर उनके राज्य पर अधिकार कर लिया। देवता अपने प्राणों की रक्षा हेतु वहां से भाग खड़े हुए और भगवान श्रीहरि विष्णु के पास गए।

    भगवान श्रीहरि के पास पहुंचकर देवताओं ने उन्हें अपनी व्यथा सुनाई और उनसे अपनी पीड़ा और कष्टों को दूर करने की प्रार्थना की। तब विष्णुजी ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे स्वयं हिरण्यकशिपु का वध करके उन्हें उसके अत्याचारों से मुक्ति दिलाएंगे। भगवान विष्णु के आश्वासन पर देवता उन्हें धन्यवाद देकर बैकुण्ठ लोक से वापस आ गए। वे अपनी रक्षा के लिए अलग-अलग जगहों पर निवास करने लगे।

    उधर, श्रीहरि विष्णु ने देवताओं को उनके कष्टों से मुक्ति दिलाने हेतु दैत्यराज हिरण्यकशिपु का संहार करने का निश्चय किया । परंतु ब्रह्माजी द्वारा दिए गए वरदान को भी उन्हें पूरा करना था। तब विष्णुजी ने ऐसा रूप धारण किया जो आधा मनुष्य के जैसा था आधा शेर जैसा। ऐसा अत्यंत भयानक रूप धारण कर विष्णुजी अग्नि के समान प्रलयंकारी नजर आ रहे थे। नृसिंह के रूप में श्रीहरि ने दैत्यराज हिरण्यकशिपु की नगरी में प्रवेश किया। उस समय सूर्यास्त का समय हो रहा था।

   उनका यह अनोखा भयानक रूप देखकर दैत्यसेना के वीर उन पर टूट पड़े और उनसे युद्ध करने लगे। तब पल भर में ही उन्होंने सब दैत्यों को मार गिराया और राजमहल की ओर चल दिए। तभी विष्णुजी के परम भक्त और दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद की दृष्टि नृसिंह भगवान पर पड़ी । 

प्रह्लाद बोला ;- हे पिताजी! ये अद्भुत रूप धारण किए नृसिंह अवतार मुझे तो भगवान जान पड़ते हैं। इनकी वीरता की प्रशंसा करना तो असंभव है। अतः आपको इनकी शरण में चले जाना चाहिए।

अपने पुत्र की इन बातों को सुनकर दैत्यराज हिरण्यकशिपु को बहुत क्रोध आ गया। 

वह बोला ;— पुत्र! तुम बिना कारण ही भयभीत हो रहे हो। तुम दैत्यों के अधिपति के पुत्र हो, तुम्हें इस प्रकार कायरता भरी बातें कदापि नहीं करनी चाहिए। यह कहकर हिरण्यकशिपु ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि शीघ्र जाकर विचित्र आकृति वाले उस जीव को बंदी बनाकर ले आओ। अपने स्वामी दैत्यराज हिरण्यकशिपु की आज्ञा पाकर उनके वीर दैत्यगण नृसिंह भगवान को पकड़ने के लिए दौड़े, परंतु उनके समीप जाते ही वे भस्म हो गए। अब दैत्यराज स्वयं युद्ध करने के लिए अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित आगे आए। तब भगवान नृसिंह और राज हिरण्यकशिपु में बहुत भयानक युद्ध हुआ परंतु भगवान नृसिंह के आगे दैत्यराज हिरण्यकशिपु की एक न चली। नृसिंह ने हिरण्यकशिपु को खींचकर अपनी जंघा पर लिटा लिया और उसकी छाती को अपने नाखूनों से चीर दिया, उसके प्राण पखेरू उड़ गए। तभी हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद ने वहां आकर नृसिंह भगवान के चरणों में अपना सिर झुकाकर क्षमायाचना की। भगवान विष्णु ने प्रह्लाद को आशीर्वाद देकर हिरण्यकशिपु का राज्य सौंप दिया। जैसे ही देवताओं को हिरण्यकशिपु के मारे जाने की सूचना मिली, वे बहुत प्रसन्न वे होकर नृत्य और श्रीहरि विष्णु की स्तुति करने लगे। आकाश में मंगल ध्वनि गूंजने लगी और फूलों की वर्षा होने लगी।

    इस प्रकार हिरण्यकशिपु का वध करने के पश्चात प्रह्लाद को राज्य सौंपकर भगवान नृसिंह वहां से अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात सभी प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने लोकों को चले गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

चवालीसवाँ अध्याय 

"अंधक की अंधता"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे व्यास जी ! एक बार हिरण्याक्ष के पुत्र अंधक से उसके भाइयों ने मजाक उड़ाते हुए,,

 कहा ;- अंधक ! तुम तो अंधे और कुरूप हो ! भला तुम राज्य का क्या करोगे? दैत्यराज हिरण्याक्ष तो मूर्ख थे, जो भगवान शिव की इतनी कठोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न करके भी तुम जैसा कुरूप, नेत्रहीन और बेडौल पुत्र वरदान में प्राप्त किया। कभी दूसरे से प्राप्त पुत्र का भी पिता की संपत्ति पर अधिकार होता है? इसलिए इस राज्य के स्वामी हम ही हैं, तो हमारे सेवक हो । 

    तुम अपने भाइयों के इस प्रकार के कटु वचनों को सुनकर अंधक निराश और उदास हो गया। रात के समय जब सब सो रहे थे तो वह अपने राजमहल को छोड़कर निर्जन सुनसान और भयानक डरावने वन 'चला गया। वहां उस सुनसान वन में जाकर उसने तपस्या आरंभ कर दी। वह दस हजार वर्षों तक घोर तपस्या करता रहा परंतु जब कोई परिणाम नहीं निकला तो उसने अपने शरीर को अग्नि में जलाकर होम करना चाहा। ठीक उसी समय स्वयं ब्रह्माजी वहां प्रकट हो गए।

ब्रह्माजी बोले ;— पुत्र अंधक! मांगो क्या मांगना चाहते हो? मैं तुम्हारी तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अपना इच्छित वर मांग सकते हो। मैं तुम्हारी मनोकामना अवश्य ही पूरी करूंगा। यह सुनकर अंधक बहुत प्रसन्न हुआ। उसने हाथ जोड़कर ब्रह्माजी की स्तुति की और

 बोला ;— हे कृपानिधान ब्रह्माजी ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न होकर मुझे कोई वर देना चाहते हैं तो आप कुछ ऐसा करें कि मेरे निष्ठुर भाइयों ने जो मुझसे मेरा राज्य छीन लिया है, वे सब मेरे अधीन हो जाएं। मेरे नेत्र ठीक हो जाएं अर्थात मुझे दिव्य-दृष्टि की प्राप्ति हो तथा मुझे कोई भी न मार सके- वह देवता, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, मनुष्य, नारायण अथवा स्वयं भगवान शिव ही क्यों न हों। अंधक के इन वचनों को सुनकर,,

 ब्रह्माजी बोले ;- हे अंधक! तुम्हारे द्वारा कही हुई दोनों बातों को मैं स्वीकार करता हूं परंतु इस संसार में कोई भी अजर अमर नहीं है। सभी को एक न एक दिन काल का ग्रास बनना पड़ता है। मैं सिर्फ तुम्हारी इतनी मदद कर सकता हूं कि जिस प्रकार की और जिसके हाथ से तुम चाहो अपनी मृत्यु प्राप्त कर सकते हो।

तब ब्रह्माजी के वचन सुनकर अंधक कुछ देर के लिए सोच में डूब गया। 

फिर बोला ;– हे प्रभु ! तीनों कालों की उत्तम, मध्यम और नीच नारियों में से जो भी नारी सबकी जननी हो, सबमें रत्न हो, जो सब मनुष्यों के लिए दुर्लभ तथा शरीर व मन के लिए अगम्य है, उसको अपने सामने पाकर जब मेरे अंदर काम भावना उत्पन्न हो, उसी समय मेरा नाश हो। इस प्रकार का वरदान सुनकर ब्रह्माजी ने 'तथास्तु' कहा और,,, 

उससे बोले ;- दैत्येंद्र ! तेरे सभी वचन अवश्य ही पूरे होंगे। अब तू जाकर अपना राज्य संभाल।

ब्रह्माजी के वचन सुनकर अंधक बोला ;- हे भगवन्! अब मेरा शरीर इस लायक नहीं रहा कि मैं युद्ध कर सकूं। अब तो मेरे शरीर में सिर्फ नसें और हड्डियां ही बची हैं। अब मैं कैसे युद्ध कर पाऊंगा और अपनी शत्रु सेना को परास्त कर पाऊंगा। इस प्रकार के वचनों को सुनकर ब्रह्माजी मुस्कुराए और उन्होंने अंधक के शरीर का स्पर्श किया। उनके स्पर्श करते ही अंधक का शरीर भरा-पूरा हो गया। अब वह परम शक्तिशाली योद्धा जान पड़ता था, जिसके सामने अच्छे से अच्छा वीर भी न टिक पाए।

इस प्रकार अंधक को मनोवांछित वर देकर ब्रह्माजी वहां से अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात अंधक भी प्रसन्नतापूर्वक अपने घर की ओर चल दिया। जब अंधक ने अपने राज्य में प्रवेश किया तो यह जानकर कि अंधक को ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त हुआ है, सारे दानव उसके वश में होकर उसके दास बनकर रहने लगे। तब अंधक ने विचार किया कि हमें दैत्य साम्राज्य का विस्तार करना चाहिए और अपने घोर शत्रु देवताओं को पराजित करके, उनके राज्य पर अपना अधिकार स्थापित कर लेना चाहिए।

यह सोचकर दैत्यराज अंधक ने अपनी विशाल दैत्य सेना के साथ स्वर्गलोक पर आक्रमण कर दिया और स्वर्ग पर अपना आधिपत्य जमाकर देवराज इंद्र को अपना बंधक बना लिया। तत्पश्चात उसने नागों, सुपर्णों, श्रेष्ठ राक्षसों, गंधर्वों, यक्षों, मनुष्यों, ऊंचे-ऊंचे पर्वतों और भयानक वृक्षों और सिंहों को भी युद्ध में परास्त कर अपने अधीन कर लिया। अंधक मदांध होकर कुमार्गी हो गया। उसने स्वर्ग, भूतल और रसातल की सर्वश्रेष्ठ सुंदरियों को अपनाकर उनके साथ रमणीय विहार किया। दिन पर दिन वह बुराई के दलदल में धंसता जा रहा था। उसने वैदिक धर्म का पूर्णतया त्याग कर दिया था।

एक दिन उसके दुर्योधन, वैधस और हस्ती नामक तीनों मंत्री उसके पास आए और,,,

 बोले ;— हे दैत्येंद्र! हमने मंदराचल पर्वत की एक गुफा में एक मुनि को देखा है जो कि योग ध्यान में मग्न आंखें बंद करके बैठा है। उस रूपवान मुनि के मस्तक पर अर्द्धचंद्र, कमर में गजेंद्र की खाल बंधी है। सिर पर जटाजूट, गले में खोपड़ियों की माला तथा उसके शरीर पर बड़े भयानक सांप लिपटे हुए हैं। उस मुनि के एक हाथ में त्रिशूल तो दूसरे में डमरू है। अपने गौर अंगों पर उसने भस्म लपेट रखी है। उस तपस्वी का वेष बड़ा ही अद्भुत है। साथ ही एक विकराल वानर अनेक आयुधों को धारण किए उस तपस्वी की रक्षा कर रहा है। वहीं उनके पास में एक सफेद रंग का बैल बंधा हुआ है।

उस तपस्वी के पास ही एक सुंदर रत्न स्वरूपा नारी बैठी है, जो संपूर्ण शुभ लक्षणों से युक्त है। उसका रूप बड़ा मनोहारी है, जो सभी के मन को मोह लेता है। उसने सुंदर मूंगे, मोती, मणियों और सोने के रत्नजड़ित आभूषणों को धारण किया हुआ है। वह इतनी रूपवती है कि जो उसे एक बार देख लेता है उसकी आंखों का होना सफल हो जाता है। उस परम सुंदरी को एक बार देख लेने के बाद संसार की अन्य किसी स्त्री को देखने की आवश्यकता ही न पड़ेगी। स्वामी! आप इस त्रिलोक के अधिपति हैं। आपके पास इस संसार की सभी बहुमूल्य और अमूल्य धरोहर हैं। ऐसी परम सुंदरी रूपवती नारी को भी आपके अनमोल राज्य की शोभा बढ़ानी चाहिए। अतः आप हमारे साथ चलें और उस सुंदरी को यहां ले आएं।

अपने वीर मंत्रियों के इस प्रकार के वचन सुनकर दैत्येंद्र अंधक बहुत प्रसन्न हुआ और उसके मन में उस सुंदर नारी को देखने की इच्छा बलवती हो गई। उसने अपने मंत्रियों को आदेश दिया कि तुम शीघ्र वहां जाकर उस तपस्वी से उसकी सुंदर स्त्री को मांगकर मेरे पास ले आओ।

अपने स्वामी दैत्यराज अंधक की आज्ञा पाकर वे तीनों मंत्री पुनः उसी स्थान पर गए और,,,

 भगवान शिव से बोले ;– हे महातपस्वी ब्राह्मण! हमारे स्वामी दैत्यराज अंधक आपकी भार्या की सुंदरता के विषय में जानकर उन पर मोहित हो गए हैं और उन्हें अपनी पटरानी बनाना चाहते हैं। आप सहर्ष उन्हें हमें सौंप दें। उनके ऐसे वचनों को सुनकर शिवजी को बहुत क्रोध आया परंतु वे फिर भी सिर्फ इतना ही बोले – दैत्यो! ये मेरी भार्या हैं। ये स्वयं शक्ति संपन्न और सिद्धिरूपा हैं। देवी स्वयं अपने भक्तों के कष्टों को दूर करती हैं। आप अपनी परेशानी इन्हें बताइए। ये अवश्य ही आपके दुखों को दूर करेंगी।

भगवान शिव के ये वचन सुनकर क्रोधित और मदांध दैत्य और कुछ न बोले और वहां से वापस आ गए। तब दैत्यराज अंधक को उन्होंने वहां घटित हुई सारी बातें बढ़ा-चढ़ाकर बताईं, जिन्हें सुनकर दैत्येंद्र का क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया। तब वह मूढ़ बुद्धि दैत्य सुंदरी को देखने के लिए आतुर हो उठा। उसने स्वयं वहां जाकर उस रत्नों में सर्वश्रेष्ठ रत्न को अपने साथ लाने का निश्चय किया ।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

पैंतालीसवाँ अध्याय 

"युद्ध आरंभ"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे व्यास जी! जब इस प्रकार अंधक के उन तीनों मंत्रियों ने वहां आकर अंधक को सब बताया तब क्रोधित होकर वह स्वयं वहां जाने को आतुर हो गया। तब मदिरापान करके वह अपनी विशाल सेना को साथ लेकर मंदराचल पर्वत की ओर चल दिया।

वहां रास्ते में उसकी मुठभेड़ भगवान शिव के वीर गणों से हो गई। उनमें बड़ा भारी युद्ध हुआ। शिवगणों ने दैत्य सेना को मार-मारकर वहां से भगा दिया। वीर बलशाली दैत्य विरोचन, बलि, बाणासुर, सहस्रबाहु आदि बड़ी दृढ़ता से लड़े परंतु शिवगणों ने उन्हें वहां से खदेड़कर ही दम लिया। उस समय वहां की धरती रक्त से लाल हो गई। जब असुरों की सेना ने देखा कि वे किसी भी प्रकार से शिवजी के गणों को नहीं हरा पाएंगे, तब वे स्वतः ही वहां से लौट गए। उधर, जब वहां शांति हो गई, तब भगवान शिव अपनी प्रिया देवी पार्वती से बोले - हे प्रिये! मैं यहां पर अपने उत्तम पाशुपत व्रत का पालन करने के लिए आया था, परंतु यहां पर मेरे व्रत में विघ्न पड़ गया है। अतः अब मैं इस व्रत को यहां पर पूरा नहीं कर सकता । इस व्रत को पूरा करने के लिए मुझे पुनः किसी अन्य निर्जन स्थान पर जाना पड़ेगा। देवी तुम यहीं पर रहो और मैं किसी अन्यत्र स्थान पर जाकर अपने पाशुपत व्रत का अनुष्ठान पूरा करूंगा। 

   यह कहकर भगवान शिव अपने व्रत को पूरा करने के लिए वहां से किसी दूसरे वन में चले गए और पार्वती देवी वहीं मंदराचल पर्वत पर एक गुफा में रहने लगीं। भगवान शिव निर्जन वन में जाकर अपने पाशुपत व्रत को पूरा करने के लिए घोर साधना करने लगे। उधर, दूसरी ओर देवी पार्वती वहां अकेली रहकर अपने पति भगवान शिव के लौटने की प्रतीक्षा करने लगीं। उनकी रक्षा के लिए भगवान शिव का गण वीरक सदा उनकी गुफा के बाहर पहरा देता रहता था।

    दूसरी ओर दैत्यराज अंधक को, जिसे एक बार शिवगणों ने परास्त करके वहां से खदेड़ दिया था, देवी को प्राप्त किए बिना चैन कहां आने वाला था। उसने पुनः मंदराचल पर्वत पर चढ़ाई कर दी। जैसे ही अंधक और उसकी दानव सेना पर्वत पर पहुंची, वीरक ने उनसे युद्ध करना आरंभ कर दिया। महाबली वीरक बड़ी वीरता से उन दैत्यों से युद्ध करता रहा और उन्हें हराता रहा। उनके बीच भयानक अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग होता रहा। जब किसी भी तरह वीरक को युद्ध में पराजित करना संभव न हुआ, तो दैत्यों ने वीरक को चारों ओर से मिलकर घेर लिया।

    जब गुफा के अंदर बैठीं देवी पार्वती को यह ज्ञात हुआ कि उनका प्रिय रक्षक चारों ओर से दानवों से घिर चुका है तो उन्होंने अलौकिक रीति से ब्रह्मा, विष्णु और देवताओं का मन में स्मरण किया। यह ज्ञात होते ही कि जगत जननी जगदंबा मां पार्वती ने स्मरण किया है, पल भर में सब देवता वहां मंदराचल पर्वत पर उपस्थित हो गए और दैत्यों से युद्ध करने लगे। जब वीरक ने देखा कि अब वह अकेला नहीं है, उसके साथ पूरी देव सेना खड़ी है तो वह हर्षित मन से पुनः युद्ध में लग गया और तब उसका जोश देखते ही बनता था।

देवताओं ने ब्राह्मी, नारायणी, ऐंद्री, वैश्वानरी, याम्या, नैर्ऋति, वारुणी, वायवी, कौबेरी, यक्षेश्वरी और गारुड़ी देवी का रूप धारण किया हुआ था। अनेकों आयुधों से सुसज्जित होकर वे युद्ध कर रहे थे। इस प्रकार इस भीषण युद्ध को चलते-चलते कई हजार वर्ष बीत गए। देव सेना जितने भी असुरों को मारती, दैत्य गुरु शुक्राचार्य अपनी मृत संजीवनी विद्या से पल भर में उन्हें पुनः जीवित कर देते। इस प्रकार दैत्य सेना न कम हो रही थी और न ही वह हार मान रही थी । युद्ध दिन-प्रतिदिन और भयानक होता जा रहा था। भगवान शिव भी अपना पाशुपत-व्रत पूरा करके वहां मंदराचल पर्वत पर वापस आ गए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें