शिव पुराण शतरुद्र संहिता के छठे अध्याय से दसवें अध्याय तक (From the sixth to the tenth chapter of Shiv Purana Shatarudra Samhita)


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【शतरुद्र संहिता】

छठावाँ अध्याय

"नंदीकेश्वर अवतार"

सनत्कुमार जी ने पूछा ;- हे प्रभो! आप महादेव जी के अंश से उत्पन्न होकर भगवान शिव को कैसे प्राप्त हुए। कृपा कर मुझे इस उत्तम कथा का वर्णन सुनाइए ।

नंदीश्वर बोले ;- हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! शिलाद नामक एक धर्मात्मा मुनि थे । एक बार जल पुत्र की कामना से शिलादि ऋषि इंद्र की तपस्या और उनका ध्यान करने लगे। तब देवराज इंद्र ने प्रकट होकर उनसे कहा कि मैं आपकी इच्छा को पूरा करने में असमर्थ हूं। अतः आप परमपिता परमेश्वर, भक्तवत्सल भगवान शिव की स्तुति करो। वे ही आपकी इच्छा पूरी करने में सक्षम हैं। यह सुनकर शिलाद प्रसन्न होकर पूर्ण भक्तिभावना और श्रद्धापूर्वक देवाधिदेव भगवान शिव की तपस्या करने लगा।

शिलाद की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे साक्षात दर्शन दिए और,,,

   बोले ;- हे शिलाद ! ब्रह्माजी, श्रीहरि विष्णु सहित सभी देवताओं और ऋषि-मुनियों ने मेरे अवतार धारण करने के लिए मेरी तपस्या की और मुझे सभी इस पूरे संसार का पिता मानते हैं। फिर भी मैं आपको अपना पिता बनने का वरदान देता हूं। मैं आपका अयोनिज पुत्र बनकर जन्म लूंगा और मेरा नाम नंदी होगा।

यह कहकर भगवान शिव वहां से अंतर्धान हो गए। तत्पश्चात शिलाद भगवान शिव की जय-जयकार करते हुए अपने आश्रम में चले गए। वहां उन्होंने सभी को यह बात बताई। कुछ समय उपरांत मेरे पिता शिलाद यज्ञ भूमि को सही कर रहे थे कि उसी समय मैं भगवान शिव की आज्ञा से उनके शरीर से उत्पन्न हुआ। तब चारों ओर प्रसन्नता छा गई। जब मेरे पिता शिलाद ने मेरे बालरूप को देखा, जो सूर्य और अग्नि के समान तेज, प्रभावशाली और प्रकाशमान था, हाथ में त्रिशूल एवं सिर पर जटाजूट धारण किया था, तो मेरा रूप देखकर वे आनंद से झूम उठे ।

शिलाद बोले ;- हे सुरेश्वर ! आपने मुझे बहुत आनंद दिया है। इसी कारण मैं आपका नाम नंदी रखता हूं। तब मेरे पिता अत्यंत प्रसन्न होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। तत्पश्चात वे अपनी कुटिया में चले गए। उस कुटिया में जाकर मैंने अपने इस रूप का त्याग कर दिया और साधारण बालक की भांति रहने लगा। तब मेरे पिता शिलाद ने मेरे नामकरण आदि संस्कार पूरे किए। पांच वर्ष का होने पर मुझे संपूर्ण वेदों का अध्ययन कराया गया। जब मैं सात वर्ष का हुआ तो देवाधिदेव भगवान शिव की आज्ञा से मित्र और वरुण नामक मुनि मुझे देखने मेरे आश्रम आए। 

मेरे पिता शिलाद ने उन दोनों को उत्तम आसन पर बैठाया और उनकी बहुत आवभगत की। तब वे दोनों मुझे बार-बार निहारने लगे और कुछ देर पश्चात वे,,

 मेरे पिता से बोले ;- हे तात! तुम्हारा यह पुत्र इतनी छोटी आयु में ही सब शास्त्रों का ज्ञाता हो गया है, लेकिन इसकी

आयु तो बहुत कम है। इसके जीवन का तो मात्र एक वर्ष शेष रह गया है। तब उन दोनों की बातें सुनकर मेरे पिता शिलाद अत्यंत दुख से भर गए और रोने लगे। अपने पिता को इस प्रकार दुखी देखकर नंदीश्वर ने उनसे प्रश्न किया।

   वे पूछने लगे ;- पिताजी! आप किस कारण इतना दुखी हो रहे हैं? तब पिता शिलाद ने मुझे मेरी अल्पायु के विषय में बताया।

  तब मैं बोला ;- हे पिताजी! आप इस प्रकार दुखी न हों। मुझे देवता, दानव, यक्ष, गंधर्व, काल, यमराज या कोई भी मनुष्य नहीं मार सकता। मेरी अल्पायु में मृत्यु नहीं होगी।

मेरे इस प्रकार के वचनों को सुनकर,

 मेरे पिता शिलाद ने पूछा ;- कि पुत्र ! तुमने ऐसा कौन सा तप किया है या तुम्हें ऐसी कौन-सी शक्ति प्राप्त हो गई है, जो तुम ऐसा कह रहे हो?

  तब मैंने कहा ;- हे पिताजी! मैं भगवान शिव की आराधना और स्तुति से ही मृत्यु को दूर भगा दूंगा। आप चिंता न करें। यह कहकर नंदी ने पिता शिलाद को प्रणाम किया और स्वयं वन की ओर चल दिया।

【शतरुद्र संहिता】

सातवाँ अध्याय

"नंदी को वर प्राप्ति और विवाह वर्णन"

नंदीश्वर बोले;— हे महामुने! मैंने वन में जाकर घोर तपस्या करनी शुरू कर दी। मैं स्वच्छ मन और श्रद्धाभाव से भगवान शिव के तीन नेत्र, दस भुजा तथा पांच मुख वाले रूप का ध्यान करते हुए मंत्र का जाप करने लगा। मेरी दुष्कर तपस्या से अभिभूत होकर भगवान शिव प्रसन्न हो गए। तब भगवान शिव ने देवी पार्वती सहित मुझे दर्शन दिए । 

भगवान शिव बोले ;– हे शिलाद पुत्र नंदी! मैं तुम्हारी इस तपस्या से बहुत प्रसन्न हुआ हूं। तुम जो चाहो मनोवांछित वर मांग सकते हो। तुम्हारी इच्छा मैं अवश्य पूरी करूंगा। देवाधिदेव भगवान शिव के ये उत्तम वचन सुनकर मैं उनके चरणों में गिर पड़ा और पुनः उनकी स्तुति करने लगा। तब भगवान शिव ने अपने हाथों से मुझे ऊपर उठाया और ,,

बोले ;— हे वत्स नंदी! मेरे होते हुए भला तुम्हें मृत्यु-भय कैसा? तुम अजर, अमर हो और सदा मेरे गणनायक बनकर रहोगे । मेरा प्रेम तुम पर सदा बना रहेगा और तुम मृत्यु को कभी प्राप्त नहीं होगे । तुम्हारे घर पधारे वे दोनों मुनि मैंने ही भेजे थे। अतः अब तुम अपने शोक और चिंताओं को त्याग दो।

यह कहकर भगवान शिव ने कमल के फूलों की माला अपने गले में से उतारकर मेरे गले में डाल दी। माला मेरे गले में पड़ते ही मेरे तीन नेत्र और दस भुजाएं हो गईं। तत्पश्चात भगवान शिव मुझसे बोले कि तुम और क्या चाहते हो? 

मैंने कहा ;- प्रभु! मैं आपकी सवारी बनना चाहता हूं। तब महादेव शिवजी ने अपनी जटाओं से हार के समान निर्मल जल मुझ पर छिड़ककर कहा कि 'नंदी' हो जाओ। तब उन परमेश्वर शिव की जटा से जटोरक, त्रिस्तोता, वृषभध्वनि, स्पणीदका और जंबु नदियां बह निकलीं। ये पांचों नदियां पंचद नाम से जप्तेश्वर नामक स्थान के पास बह रही हैं। जो मनुष्य इन पंचनद नामक नदियों पर जाकर प्रसन्न मन से भगवान शिव की उपासना करता है, उसे परम मोक्ष की प्राप्ति होती है। उसकी सभी कामनाएं भगवान शिव अवश्य पूरी करते हैं ।

भगवान शिव ने देवी पार्वती से कहा कि देवी! मैं नंदी को अपने गणों का अधिपति बनाना चाहता हूं। शिवजी के वचन सुनकर देवी पार्वती बोलीं- प्रभु! मैं नंदी को अपना पुत्र मानती हूं। तब भगवान शिव ने अपने सभी गणों को बुलाकर उनसे कहा कि मैंने नंदी को आप सब गणों का अधिपति बनाया है। भगवान शिव का यह कथन सुनकर सभी गणों ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें अपना स्वामी स्वीकार किया। फिर सब देवताओं और मुनियों ने नंदी का अभिषेक किया। तत्पश्चात नंदी का विवाह मरुतों की सुंदर दिव्य कन्या सुयशा से संपन्न हुआ। नंदी ने सपत्नीक परमेश्वर शिव को नमस्कार किया। महादेव जी ने नंदी को ऐश्वर्य संपन्न, महायोगी, महान धनुर्धारी, अजेय और महाबली होने का आशीर्वाद प्रदान किया। देवी पार्वती ने प्रसन्नतापूर्वक नंदी से मनोवांछित फल मांगने के लिए कहा। 

   नंदी बोला कि हे माते! मेरी सदैव आपके चरणों में भक्ति बनी रहे। यह सुनकर देवी पार्वती ने उसकी इच्छा पूर्ण कर दी। तत्पश्चात सब देवताओं ने भी हर्षित मन से मुझे अनेक वरदान प्रदान किए। तब भगवान शिव से आज्ञा लेकर सब उनका गुणगान करते हुए अपने स्थान को चले गए । महामुने! नंदीश्वर के अवतार का वर्णन शिव भक्ति बढ़ाने वाला और आनंददायक है। इसे पढ़ने अथवा सुनने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है।

【शतरुद्र संहिता】

आठवाँ अध्याय

"भैरव अवतार"

नंदीश्वर बोले ;– हे सनत्कुमार जी ! भगवान शिव के परम रूप भैरव जी हैं। एक समय की बात है। ब्रह्माजी सुमेरु पर्वत पर बैठकर ध्यान में मग्न थे। उसी समय देवता उनके पास आए और उन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार करने लगे।

   तत्पश्चात उन्होंने पूछा ;- हे ब्रह्मन् ! इस संसार में अविनाशी तत्व क्या है? कृपा कर इस विषय में हमें बताइए ।

तब भगवान शिव की माया से मोहित होकर ब्रह्माजी बोले ;- हे देवताओ! आपकी प्रसन्नता के लिए मैं आपको उस अविनाशी तत्व के बारे में बताता हूं। इस संसार में मुझसे बढ़कर कोई भी नहीं है । मेरे द्वारा ही यह सारा संसार उत्पन्न हुआ है। मैं ही स्वयं भू, अज, ईश्वर, अनादि, भोक्ता, ब्रह्मा और निरंजन आत्मा हूं। मेरे कारण ही संसार प्रवृत्त और निवृत्त होता है।

ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर वहीं बैठे भगवान श्रीहरि विष्णु को बहुत बुरा लगा। तब श्रीहरि ब्रह्माजी को समझाते हुए बोले कि ब्रह्मन् तुम इस प्रकार अपनी स्वयं ही प्रशंसा न करो क्योंकि मेरी आज्ञा के फलस्वरूप ही तुम इस सृष्टि के रचयिता हो । इस प्रकार ब्रह्माजी व श्रीहरि आपस में लड़ाई करने लगे। दोनों ही अपने को बड़ा और दूसरे को निम्न समझ रहे थे। तब उन्होंने अपने को उच्च सिद्ध करने के लिए वेदों का स्मरण किया। फलस्वरूप चारों वेद वहां उपस्थित हो गए। जब ब्रह्माजी और श्रीहरि विष्णु ने उन चारों वेदों से अपनी श्रेष्ठता के संबंध में पूछा, तब सर्वप्रथम 'ऋग्वेद' भगवान शिव का स्मरण करते हुए,,

 बोले ;– हे ब्रह्मन् ! हे श्रीहरि ! जिसके भीतर समस्त भूत निहित हैं तथा जिसके द्वारा सबकुछ प्रवृत्त होता है, जिन्हें इस संसार में परम तत्व कहा जाता है, वह एक भगवान शिव ही हैं । तब 'यजुर्वेद' बोले कि उन परमेश्वर भगवान शिव की कृपा से ही वेदों की प्रामाणिकता भी सिद्ध होती है। उन्हीं भगवान शिवशंकर को संपूर्ण यज्ञों तथा योग में स्मरण किया जाता है। तत्पश्चात 'सामवेद' बोले कि जो समस्त संसार के लोगों को भरमाता है और जिसकी खोज में सदा ऋषि-मुनि लगे रहते हैं, जिनकी कांति से सारा विश्व प्रकाशमान होता है वह त्र्यंबक महादेव जी हैं। इस पर ‘अथर्व' बोल उठे, भक्ति से साक्षात्कार कराने वाले तथा समस्त दुखों का नाश करने वाले एकमात्र देव भगवान शिव ही हैं।

वेदों द्वारा कहे गए इन वचनों को सुनकर ब्रह्मा और विष्णु बोले ;- हे वेदो! तुम्हारे वचनों से सिर्फ तुम्हारी अज्ञानता ही झलकती है। भगवान शिव तो सदा नंगे रहते हैं, अपने शरीर पर भस्म धारण करते हैं। उनके सिर पर जटाजूट व गले में रुद्राक्ष है। वे सर्पों को भी धारण करते में हैं। भला शिव को परम तत्व कैसे कहा जा सकता है? उन्हें परमब्रह्म किस प्रकार माना जा सकता है?

     ब्रह्माजी और श्रीहरि विष्णु के इन वचनों को सुनकर हर जगह मूर्त और अमूर्त रूप में विद्यमान रहने वाले ओंकार बोले कि भगवान शिव शक्तिधारी हैं। वही परमेश्वर हैं तथा सबका कल्याण करने वाले हैं। वे महान लीलाधारी हैं और इस संसार में सब कुछ उनकी आज्ञा से ही होता है। ओंकार की बातें सुनकर भी ब्रह्माजी और विष्णुजी की बुद्धि में ये बातें नहीं आईं और वे इसी प्रकार आपस में लड़ते रहे। उनका विवाद खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था तभी उन दोनों के बीच में एक विशाल ज्योति प्रकट हो गई। इस विशाल ज्योति का न तो आरंभ था ना ही कोई अंत। उस अग्नि की ज्वाला से ब्रह्माजी का पांचवां मुख जलने लगा। उसी समय कल्याणकारी भगवान शिव वहां प्रकट हो गए। 

  ब्रह्माजी शिवजी से बोले ;– हे पुत्र ! तुम मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा। तुम मेरे सिर से ही प्रकट हुए हो । तुमने प्रकट होकर रोना आरंभ कर दिया था, इसी कारण मैंने तुम्हारा नाम रुद्र रखा था। ब्रह्माजी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर सर्वेश्वर भगवान शिव को भी क्रोध आ गया। उनके क्रोध से तत्काल ही एक पुरुष उत्पन्न हो गया, उसका नाम भैरव था। 

भगवान शिव ने उस पुरुष को आदेश देते हुए कहा ;- हे कालराज! तुम साक्षात काल के समान हो। इसलिए आज से तुम जगत में काल भैरव के नाम से विख्यात होगे। तुम ब्रह्मा पर शासन करो और उनके गर्व को नष्ट करो तथा इस संसार का पालन करो। आज से मैं तुम्हें काशीपुरी का आधिपत्य प्रदान करता हूं। वहां के पापियों को दण्ड देना तुम्हारा ही कार्य होगा। वहां के मनुष्यों द्वारा किए गए अच्छे-बुरे कर्मों का लेखा चित्रगुप्त स्वयं लिखेंगे।

भगवान शिव के इस आदेश को काल भैरव ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया। तत्पश्चात उन्होंने अपनी बांईं उंगली के अग्रभाग से ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया। यह देखकर ब्रह्माजी भयभीत होकर शतरुद्रीय का पाठ करने लगे। भगवान शिव की कृपा से दोनों के बीच का विवाद तुरंत समाप्त हो गया। उन्हें शिवजी का अपमान करने पर अत्यंत पछतावा होने लगा। भगवान शिव भक्तवत्सल हैं और अपने भक्तों का सदैव कल्याण करते हैं। उन्होंने ब्रह्माजी और विष्णुजी को भी क्षमा करके उन्हें अभय प्रदान कर दिया। तत्पश्चात भगवान शिव ने काल भैरव को आज्ञा प्रदान की कि वे सदा ब्रह्मा और विष्णु का आदर करें और पापियों को दंड प्रदान करें।

【शतरुद्र संहिता】

नवाँ अध्याय

"भैरव जी का अभिवादन"

नंदीश्वर बोले ;– हे सनत्कुमार जी! भगवान शिव का आशीर्वाद पाकर भैरव जी कालों के भी काल हुए। उन्होंने अपने प्रभु भगवान शिव की आज्ञा से कापालिक व्रत को धारण किया। कालभैरव हाथ में कपाल लेकर काशी नगरी की ओर चल दिए परंतु ब्रह्म-हत्या नामक कन्या उनके पीछे लग गई। एक दिन जब कालभैरव कापालिक वेश धारण करके भगवान नारायण के स्थान पर गए तब त्रिनेत्रधारी भगवान शिव के भैरव रूप को आता हुआ देखकर सब देवताओं व ऋषि-मुनियों ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे। भगवान विष्णु ने अपनी प्रिया देवी लक्ष्मी से कहा- हे देवी! आज हम दोनों धन्य हो गए, जो हमने भगवान शिव के कालभैरव रूप का दर्शन किया। इन्हीं ने इस पृथ्वी को धारण कर रखा है। यह भगवान शिव ही शरणागतों को शांति प्रदान करने वाले तथा सभी तत्वों से युक्त हैं। यही सब प्राणियों के अंतर्यामी और अपने भक्तों को सबकुछ प्रदान करने वाले और उनकी कामनाओं को पूरा करने वाले हैं। इनके दर्शनों से ही मनुष्य सब बंधनों से मुक्त हो जाता है।

कालभैरव जी को इस प्रकार भिक्षा मांगते हुए देखकर भगवान श्रीहरि विष्णु ने उनसे प्रश्न किया कि हे भगवन्, आप तो तीनों लोकों का राज्य प्रदान करने वाले हैं, भला आपको भिक्षा मांगने की क्या आवश्यकता पड़ गई? तब विष्णुजी के इस प्रकार के वचनों को सुनकर,,

 कालभैरव जी बोले ;– हे नारायण ! मैंने ब्रह्माजी के पांचवें सिर को काट दिया था। इसलिए अपने द्वारा किए गए पाप का पश्चाताप करने हेतु मैं यह कर रहा हूं। तब कालभैरव के इन वचनों को सुनकर,,

 भगवान विष्णु बोले ;- हे भैरव ! आप तो समस्त दुखों का नाश करने वाले विघ्नहर्ता हैं। आप सदा ही लीलाएं करते रहते हैं। तब देवी ने भिक्षा के रूप में 'मनोरथी' नाम की विद्या भैरव जी के भिक्षा पात्र में डाल दी। भिक्षा प्राप्त करके भैरव जी अन्य स्थान की ओर चल पड़े। तभी विष्णुजी ने भैरव जी के पीछे जाती हुई ब्रह्महत्या को देखा और उससे कहा कि वह शिवजी का पीछा छोड़ दे परंतु ब्रह्महत्या ने कहा कि इस बहाने ही मैं शिवजी की सेवा करती हूं। यह कहकर ब्रह्महत्या फिर भैरव जी का पीछा करते हुए काशी नगरी के समीप आ गई। वहां पहुंचते ही ब्रह्महत्या पाताल में समा गई और ब्रह्माजी का सिर भैरव जी के हाथ से छूटकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।

जिस स्थान पर कालभैरव जी के हाथ से ब्रह्माजी का पांचवां सिर गिरा था, वह स्थान कपाल मोचन तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गया। जब तक भैरव जी पूरी पृथ्वी का भ्रमण करके काशी नहीं पहुंचे, उनके हाथ में ब्रह्माजी का सिर चिपका रहा और काशी पहुंचते ही वह छूट गया। इसलिए काशी नगरी को पापनाशिनी माना जाता है और यह सत्पुरुषों द्वारा सदा सेवनीय है।

     जो मनुष्य शुद्ध हृदय से कपाल मोचन भैरव जी का स्मरण करता है, उसके जन्म-जन्मांतरों के पाप नष्ट हो जाते हैं । कपाल मोचन तीर्थ में जाकर विधिपूर्वक पिंडदान और देव-पितृ तर्पण करने से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से भी छुटकारा पा लेता है। प्रतिदिन भैरव जी का दर्शन करने से मनुष्य के समस्त पापों का नाश हो जाता है। काशी में रहने वाला जो पुरुष कृष्णाष्टमी के दिन या मंगलवार को भैरव जी के दर्शन करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

【शतरुद्र संहिता】

दसवाँ अध्याय

"नृसिंह लीला वर्णन"

नंदीश्वर बोले ;- हे प्रभो! शार्दूल नामक भगवान शिव के अवतार के बारे में मैं तुम्हें बताता हूं। कल्याणकारी भगवान शिव ने एक बार अग्नि के समान जलते हुए शरभ रूप को भी धारण किया था। वैसे तो भगवान शिव अपने भक्तों की रक्षा करने और उनका कल्याण करने हेतु अनेक अवतार धारण करते हैं, जिनकी गणना करना असंभव है। एक बार अपने द्वारपालों, जय-विजय को दिए गए शाप के कारण वे दोनों दिति पुत्र कश्यप जी के पुत्रों के रूप में उत्पन्न हुए। पहला पुत्र हिरण्यकशिपु और दूसरा हिरण्याक्ष रूप में विख्यात हुआ । इन दोनों ने घोर तपस्या करके ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर लिया और पूरे संसार में उपद्रव करना आरंभ कर दिया। वे किसी से डरते नहीं थे और ऋषि-मुनियों और देवताओं के शत्रु बनकर उन्हें सदैव नुकसान पहुंचाते थे। उन्होंने शोणित नगर को अपनी राजधानी बनाया था और तीनों लोकों पर विजय का लक्ष्य बनाकर निरंतर युद्ध में लगे हुए थे। वे बहुत पापी और दुराचारी हो गए थे।

इस प्रकार उनके पाप दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे। तब ब्रह्माजी व सब देवताओं ने भगवान श्रीहरि विष्णु से प्रार्थना की कि वे उन्हें हिरण्यकशिपु के अत्याचारों से मुक्त कराएं। हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र प्रह्लाद को भी मारने का प्रयत्न किया क्योंकि प्रह्लाद भगवान विष्णु का परम भक्त था और अपने पिता हिरण्यकशिपु को भी सदा विष्णुजी की शरण में जाने की सलाह देता था। जबकि हिरण्यकशिपु अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझता था। वह स्वयं को भगवान मानता था और अपनी प्रजा से अपनी पूजा करने के लिए कहता था ।

   एक दिन हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मार डालने के लिए उसे एक विशाल खंभे पर बांध दिया। भक्तवत्सल भगवान अपने भक्तों को कष्ट में देखकर सदा उनकी रक्षा करने के लिए आते हैं। भगवान विष्णु ने नृसिंह रूप धारण किया, जो कि आधा मनुष्य का था और आधा सिंह का, और उसी खंभे को फाड़कर प्रकट हो गए। उन्होंने देखते ही देखते युद्ध करने आए सभी दैत्यों का संहार कर दिया। तत्पश्चात हिरण्यकशिपु को अपनी गोद में लिटाकर अपने नाखूनों से उसका शरीर फाड़ दिया। हिरण्यकशिपु के मरते ही सब देवता आनंदित हो उठे परंतु जब नृसिंह रूप धारण किए हुए भगवान विष्णु का क्रोध शांत नहीं हुआ तो सभी चिंतित हो गए। तब अपने आराध्य भगवान विष्णु का क्रोध शांत करने के लिए उनके भक्त प्रह्लाद ने उनकी स्तुति की।

    प्रह्लाद की स्तुति से प्रसन्न होकर विष्णुजी ने उन्हें गले से लगा लिया परंतु फिर भी उनके क्रोध की ज्वाला शांत नहीं हुई। तब सब देवता भक्तवत्सल, कल्याणकारी भगवान शिव की शरण में गए और उनसे विष्णु के क्रोध को शांत करने की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना सुनकर,,

  सर्वेश्वर शिव ने उन्हें कहा ;- हे देवताओ! आप लोग चिंता का त्याग करके अपने-अपने धाम को जाइए मैं भगवान श्रीहरि विष्णु को अवश्य शांत करूंगा। तब देवता प्रसन्नतापूर्वक अपने धाम को चले गए।

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