शिव पुराण शतरुद्र संहिता के ग्यारहवें अध्याय से पंद्रहवें अध्याय तक (From the eleventh chapter to the fifteenth chapter of Shiv Purana Shatarudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【शतरुद्र संहिता】

ग्यारहवाँ अध्याय

"शरभ अवतार"

नंदीश्वर बोले ;- जब देवताओं की प्रार्थना सुनकर कल्याणकारी भगवान शिव ने उन्हें नृसिंह रूप का क्रोध शांत करने का आश्वासन देकर विदा कर दिया तब उन्होंने प्रलयंकारी भैरव रूप महाबली वीरभद्र को बुलाया। 

वीरभद्र को आदेश देते हुए शिवजी बोले ;— हे भैरव! नृसिंह के क्रोध की अग्नि को शांत कर देवताओं के भय को दूर करो। यदि वे आपके समझाने से न मानें तो आप मेरे भाव भैरव का रूप दिखाकर उन्हें शांत करना।

   भगवान शिव की आज्ञा का पालन करते हुए भैरव तुरंत ही नृसिंह जी का क्रोध शांत करने के लिए चल पड़े। 

नृसिंह जी के पास पहुंचकर भैरव जी ने उन्हें नमस्कार करने के उपरांत इस प्रकार कहा,,

भैरव जी बोले ;— हे माधव! आपने इस संसार को सुखी करने हेतु यह अवतार धारण किया है। आपने पहले मछली का रूप रखकर और अपनी पूंछ से नाव को बांधकर मनु जी को समुद्र में घुमाया था। पृथ्वी का उद्धार करने के लिए ही आपने वराह रूप धरा था। तत्पश्चात आपने वामन अवतार ग्रहण करके बलि को बांधा था। अब आपने अपने भक्तों के कष्टों को दूर करने के लिए नृसिंह रूप धारण किया है। प्रभो! आप ही सबके दुखों का नाश करने वाले हैं। आपने जिस कार्य की सिद्धि हेतु नृसिंह रूप धारण किया था, वह कार्य पूर्ण हो चुका है। इसलिए अब आप इस भयंकर रूप को त्याग दीजिए और पुनः अपना मनोहारी रूप धारण कर लीजिए ।

   वीरभद्र के इन वचनों को सुनकर नृसिंह जी के क्रोध की ज्वाला और भड़क उठी और,, 

नृसिंह जी बोले ;- तुम यहां से तुरंत चले जाओ वरना मैं इस पूरे संसार का संहार कर दूंगा। मेरे अंश से ही ब्रह्मा और इंद्र प्रकट हुए हैं। मैं ही सबका स्वामी हूं। इस प्रकार विष्णुजी के कहे वचनों को सुनकर वीरभद्र को बहुत क्रोध आया। 

तब वीरभद्र बोले ;- क्या आप संसार के संहर्ता भगवान शिव को भी नहीं जानते हैं? मैं उन्हीं की प्रेरणा से यहां आया हूं। आप अहंकार का त्याग कीजिए, क्योंकि न तो आप इस सृष्टि के सृजनकर्ता हैं, न पोषणकर्ता और न ही संहारकर्ता । उन्हीं परमेश्वर शिव की कृपा से आप अनेक अवतार धारण करते हैं। आपके कर्मरूप धारी का सिर भगवान शिव की अस्थिमाला की शोभा बढ़ा रहा है। आपके पुत्र ब्रह्मा का पांचवां सिर भी मैंने काट लिया है। इस संसार में हर तरफ भगवान शिव की ही शक्तियां फैली हुई हैं। उन भक्तवत्सल भगवान शिव की ही शक्ति से आप मोहित हो रहे हैं। हे नृसिंह! आप तत्काल ही अपने इस क्रोध और अहंकार को छोड़कर पुनः अपने शांत रूप में आ जाएं अन्यथा भगवान शिव की आज्ञा से यहां पधारे मुझ भैरव रूपी क्रोधी का वज्र आप पर पड़ेगा, जिससे आप तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जाओगे।

【शतरुद्र संहिता】

बारहवाँ अध्याय

"शिव द्वारा नृसिंह के शरीर को कैलाश ले जाना"

सनत्कुमार जी बोले ;– नंदीश्वर जी ! भगवान शिव के अवतार कालभैरव ने जब क्रोधित होकर नृसिंह रूप धारण किए विष्णुजी को इस प्रकार क्रोध से फटकारा, तब आगे क्या हुआ? क्या उन्होंने भैरव जी की आज्ञा का पालन किया या फिर क्रोधित कालभैरव ने श्री विष्णुजी के नृसिंह रूप का संहार कर दिया? नंदी! आप जल्दी से मेरी इस जिज्ञासा को शांत करिए।

महामुने, सनत्कुमार जी के इन वचनों को सुनकर ,,

नंदीश्वर बोले ;- भैरव जी के वीरभद्र - रूप के इन वचनों को सुनकर नृसिंह जी, जो कि पहले से क्रोध से भरे हुए थे और अधिक क्रोधित होकर वीरभद्र पर झपट पड़े। तब वीरभद्र ने उन्हें अपनी भुजाओं में कसकर पकड़ लिया। वीरभद्र के इस प्रकार पकड़ने से नृसिंह जी अत्यंत व्याकुल हो उठे। तत्पश्चात वीरभद्र ने उन्हें इसी प्रकार कसकर पकड़े रखा और उन्हें लेकर उड़ गए। वे उन्हें उड़ाकर परम पावन शिवधाम ले गए और ले जाकर शिवजी के वाहन वृषभ के नीचे पटक दिया। इस प्रकार जोर से नीचे फेंक दिए जाने पर नृसिंह रूपी भगवान श्रीहरि विष्णु व्याकुल हो उठे।

यह देखकर सभी देवता और ऋषि-मुनि देवाधिदेव भगवान शिव की स्तुति करने लगे। भगवान शिव की माया से ग्रसित होकर भगवान श्रीहरि विष्णु का शरीर भय से कांपने लगा। भयभीत होकर विष्णुजी नृसिंह अवतार में त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की स्तुति करने लगे। वे प्रभु के सामने नतमस्तक होकर खड़े हो गए। नृसिंह भगवान परमेश्वर शिव से परास्त हो गए। उनकी शक्तियां क्षीण हो गईं। वीरभद्र भैरव ने नृसिंह की सभी शक्तियों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। सभी देवता हाथ जोड़कर कल्याणकारी भगवान शिव के यश का गान करने लगे।

तब देवताओं द्वारा की गई स्तुति से प्रसन्न होकर,,

 महेश्वर शिव बोले ;– हे देवताओ! अब - आपको घबराने अथवा भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है। वीरभद्र भैरव द्वारा इस प्रकार विष्णुजी के नृसिंह रूप को पराजित करना एक लीलामात्र है। इससे भगवान श्रीहरि विष्णु की महत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। मेरे सभी भक्त मेरे साथ-साथ विष्णुजी की भी आराधना किया करेंगे। यह कहकर भगवान शिव नृसिंह जी के शरीर को अपने साथ लेकर कैलाश पर्वत पर चले गए। तब भगवान शिव ने अपनी मुण्डमाला में नृसिंह का मुख भी शामिल कर लिया।

【शतरुद्र संहिता】

तेरहवाँ अध्याय

"विश्वानर को वरदान"

नंदीश्वर बोले ;– हे ब्रह्मपुत्र! अब आप शशिमौलि भगवान शिव के उस उत्तम चरित्र को सुनिए, जिसमें उन्होंने विश्वानर के घर अवतार लिया था । बहुत पहले नर्मदा नदी के किनारे नर्मपुर नामक नगर था। इस नगर में विश्वानर नाम के एक महामुनि रहते थे । वे भगवान शिव के परम भक्त थे और संपूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनका विवाह शुचिष्मती नामक ब्राह्मण कन्या से हुआ था। वह ब्राह्मण पत्नी अत्यंत पतिव्रता थी और अपने पति विश्वानर की बहुत सेवा करती थी । उसकी इस प्रकार सच्चे हृदय से की गई निष्काम सेवा से प्रसन्न होकर महामुनि विश्वानर उसे वरदान देना चाहते थे। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि मैं तुम्हारी इस उत्तम सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। तुम्हें वर देना चाहता हूं। तुम्हारी जो कामना हो उसके बारे में मुझे बताओ।

 अपने पति के इन वचनों को सुनकर,,

 ब्राह्मण पत्नी ने कहा ;- यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे महादेव जी के समान पुत्र प्रदान करें। अपनी पत्नी के इस वर को सुनकर विश्वानर सोच में डूब गए कि मेरी पत्नी ने मुझसे बड़ा ही दुर्लभ वर मांगा है। यह वर तो त्रिलोकीनाथ भगवान शिव की कृपा से ही पूर्ण हो सकता है। तब उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि देवी तुम्हारा यह वर तो भगवान शिव की कृपा से ही पूर्ण हो सकता है। इसलिए मैं भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु उनकी तपस्या करने के लिए जाता हूं। अपनी पत्नी को तपस्या के बारे में बताकर विश्वानर अपने घर से निकल गए। चलते-चलते वे काशी नगरी में मणिकर्णिका घाट पर पहुंचे और अपने आराध्य के दर्शन कर उन्होंने अपने जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट कर दिए। तत्पश्चात विश्वेश्वर लिंग के दर्शन कर उन्होंने सभी तीर्थ स्थानों में पिण्डदान किया और ब्राह्मणों व ऋषि-मुनियों को भोजन खिलाया, फिर काशी के कुओं, बावड़ियों और तालाबों में स्नान करने के पश्चात विश्वेश्वर लिंग की पूजा-अर्चना में मग्न हो गए। एक वर्ष तक बिना कुछ खाए-पीए विश्वानर ने अद्भुत तपस्या की।

एक वर्ष बीत जाने के पश्चात जब एक दिन विश्वानर पूजा हेतु गए तब उन्हें लिंग के मध्य भाग से एक सुंदर बालक की प्राप्ति हुई। वह बालक बहुत सुंदर था, उसकी पीली जटाएं थीं और उसने सिर में मुकुट लगा रखा था और वह हंस रहा था। ऐसे अद्भुत बालक को पाकर महामुनि बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने भगवान शिव का बहुत-बहुत धन्यवाद किया और उनकी स्तुति करने लगे।

 वह बालक प्रसन्नतापूर्वक बोला ;- हे ब्राह्मण! मैं तुमसे प्रसन्न हूं। बोलो, क्या वर मांगना चाहते हो? तब विश्वानर बोले- प्रभो! आप तो सर्वेश्वर हैं। सबकुछ जानने वाले हैं। अपने भक्तों के मन की बात भला आपसे कैसे छिप सकती है।

तब भगवान शिव ने अपने बालरूप में ही कहा ;– विश्वानर ! तुम्हारी तपस्या सिद्ध हुई। शीघ्र ही मैं तुम्हारी पत्नी शुचिष्मती के गर्भ से तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूंगा तब मेरा नाम गृहपति होगा। यह वरदान देकर भगवान शिव का वह बालरूप अंतर्धान हो गया और विश्वानर प्रसन्नतापूर्वक शिवलिंग को नमस्कार करके अपने घर चले गए।

【शतरुद्र संहिता】

चौदहवाँ अध्याय

"गृहपति अवतार"

नंदीश्वर बोले ;- जब विश्वानर भगवान शिव से वरदान प्राप्त करके अपने घर वापस आए तो उन्होंने अपनी पत्नी शुचिष्मती को सारी बातें बताईं। समय बीतता गया, कुछ समय पश्चात शुचिष्मती गर्भवती हुई। शुभ लग्नों का योग होने पर उनके गर्भ से चंद्रमा के समान मुख वाला सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। भगवान शिव के अवतार लेते ही देवताओं ने प्रसन्न होकर दुंदुभी बजाई ।

मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रुतु, अंगिरा, वशिष्ठ, कश्यप, अगस्त्य, विभाण्ड, मुंदल, लोमश, लोमचरण, भारद्वाज, गौतम, भृगु, गालव, गर्ग, जातकर्ण्य, हषाशर, आपस्तंब, याज्ञवल्क्य, यज्ञ, वाल्मीदिक, शतातप, लिखित शिलाद, शंख जमदग्नि, संवर्त, मतंग, भरत, अंशुमान व्यास, कात्यायन, कुत्स, शौनक, ऋष्यश्रंग, दुर्वासा, शुचि, नारद, तुंबरू, उत्तक, वामदेव, देवल, हारीत, विश्वामित्र, भार्गव, मृकण्ड, दारुक, धौम्य, उपमन्यु, वत्य आदि मुनि और मुनि कन्याएं और मुनि पुत्र भगवान शिव के गृहपति अवतार के दर्शनों हेतु विश्वानर मुनि के आश्रम में आए।

देवगुरु बृहस्पति के साथ ब्रह्माजी और श्रीहरि विष्णु, नंदी और भृंगीगणों के साथ भगवान शिव देवी पार्वती को साथ लेकर, देवराज इंद्र सभी देवताओं सहित तथा नागराज पाताल से सारी नदियां, पर्वत और समुद्र उस बालक के दर्शनों के लिए विश्वानर के आश्रम में गए।

   सभी ऋषि-मुनियों, साधु-संतों सहित देवताओं ने उस बालक के दर्शन किए। स्वयं ब्रह्माजी ने उस बालक के जात कर्म संस्कार संपन्न किए और उस बालक का नाम गृहपति रखा। तत्पश्चात सब देवताओं ने प्रसन्नतापूर्वक उस बालक को अनेक आशीर्वाद प्रदान किए। तब सब देवता शुचिष्मती और विश्वानर मुनि के भाग्य की प्रशंसा करते हुए अपने-अपने धाम को चले गए। मुनि विश्वानर और उनकी पत्नी उस बालक का लालन-पालन करने लगे तथा समय-समय पर होने वाले संस्कार संपन्न करने लगे। गृहपति जब पांच वर्ष का हो गया तब उन्होंने उसका यज्ञोपवीत कराया। बालक गृहपति जिज्ञासु प्रवृत्ति का था। उसने अतिशीघ्र ही अपने पिता से सब वेदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। जब बालक नौ वर्ष का हुआ तो देवर्षि नारद उनके घर पधारे। मुनि विश्वानर ने उनसे अपने पुत्र के भाग्य के विषय में जानना चाहा। 

तब नारद जी बोले ;– मुनि! आपका पुत्र बड़ा भाग्यवान और वैभवशाली है परंतु बारह वर्ष का होने पर इसे अग्नि और बिजली से खतरा उत्पन्न हो सकता है। इसलिए आपको अपने पुत्र को अग्नि और बिजली के करीब नहीं जाने देना चाहिए। ऐसे वचन कहकर देवर्षि नारद उस बालक को अपना आशीर्वाद देकर वहां से चले गए।

【शतरुद्र संहिता】

पन्द्रहवाँ अध्याय

"गृहपति को शिवजी से वर प्राप्ति"

नंदीश्वर बोले ;– हे महामुने! जब इस प्रकार की बातें बताकर देवर्षि नारद वहां से चले गए, तब उनके वचनों से देवी शुचिष्मती और विश्वानर को बहुत दुख पहुंचा और वे दोनों बड़े जोर-जोर से रोने लगे। शोक में रोते हुए वे दोनों मूर्च्छित हो गए । फिर पहले तो मुनि विश्वानर वे ने अपने को संभाला फिर अपनी पत्नी को समझाते हुए,,

 बोले ;- देवी इस प्रकार रोकर कुछ भी नहीं होगा। इसलिए तुम इस प्रकार रोना बंद करो। फिर वे दोनों अपने पुत्र गृहपति को ढूंढ़ने लगे। उस समय उनका पुत्र घर से बाहर था। जब वह वापस आया तो अपने माता-पिता को इस प्रकार रोता हुआ देखकर उनसे पूछने लगा कि आप इस प्रकार क्यों रो रहे हैं ?

अपने पुत्र के इस प्रश्न को सुनकर देवी शुचिष्मती ने गृहपति को अपने गले से लगा लिया और रोते हुए ही उसने नारद जी द्वारा कही गई बातें कह दीं। यह सुनकर गृहपति तनिक भी विचलित नहीं हुआ और अपने माता-पिता को समझाने लगा कि आप इस प्रकार दुखी न हों। मैं मृत्यु विजयी शिव मंत्र को जपकर मृत्यु से अपनी रक्षा कर लूंगा। अपने पुत्र की साहसपूर्ण बातें सुनकर माता-पिता दोनों बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि मृत्युंजय भगवान शिव की आराधना करने से अवश्य ही सारे विघ्न दूर हो जाते हैं। अतः तुम उनकी शरण में जाओ, वे तुम्हारा कल्याण करेंगे।

अपने माता-पिता से आशीर्वाद लेकर बालक गृहपति काशी चला गया। वहां उसने स्नान करने के पश्चात शिवलिंग के दर्शन किए। विश्वेश्वरलिंग का दर्शन करने के पश्चात उसे बहुत प्रसन्नता हुई और वह अपने को भाग्यशाली मानने लगा कि उसे प्रभु के दर्शन हो गए। तब उसने वहीं एक शिवलिंग स्थापित किया। वह प्रतिदिन उस लिंग को एक सौ आठ घड़ों में गंगाजल भरकर स्नान कराता था और फिर विधिपूर्वक उनकी आराधना करता था। उसका मन सदा ही शिव चरणों का स्मरण करता रहता था। धीरे-धीरे समय बीतता गया। गृहपति ने बारहवें वर्ष में प्रवेश किया। नारद जी की वाणी को सिद्ध करते हुए देवराज इंद्र गृहपति के सामने प्रकट हुए। इंद्र ने कहा कि बालक मांगो क्या मांगते हो? तब इंद्र की बात सुनकर गृहपति ने उन्हें नमस्कार किया और,,

 बोला ;- प्रभु! मैं आपसे नहीं, भगवान शिव से वरदान मांगना चाहता हूं। आप चले जाइए । मैं शिवजी के अलावा किसी अन्य से कुछ नहीं मांग सकता क्योंकि शिव ही मेरे आराध्य हैं और मैं उन्हीं का भक्त हूं।

गृहपति के इन वचनों को सुनकर इंद्रदेव क्रोध से तमतमा उठे। उन्होंने अपना वज्र निकाल लिया। उनके हाथ में वज्र देखकर बालक को अपने पिता द्वारा बताई गई बात याद आ गई और वह डर से मूर्च्छित होकर गिर पड़ा। यह देखकर भक्तवत्सल भगवान शिव देवी पार्वती सहित तुरंत वहां प्रकट हो गए। जैसे ही उन्होंने गृहपति को छुआ वह उठ खड़ा हुआ। अपने सामने साक्षात भगवान शिव और माता पार्वती को पाकर वह रोमांचित हो उठा। उनका रूप करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। इस अद्भुत रूप को देखकर गृहपति मंत्रमुग्ध हो गया और दोनों हाथ जोड़कर देवाधिदेव महादेव जी की स्तुति करने लगा।

तब भक्तवत्सल शिव ने हंसते हुए कहा ;- हे बालक! मैं तुम्हारी इस उत्तम तपस्या से बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। मैंने ही इंद्र को तुम्हारे पास भेजा था। तुम अपनी परीक्षा में सफल हुए हो। तुम्हें डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम्हें कोई नहीं मार सकता। तुम्हारे द्वारा स्थापित किया गया मेरा यह लिंग संसार में 'अग्निश्वर' नाम से विख्यात होगा और इसके तेज के आगे कोई ठहर नहीं पाएगा। यह अग्नि और बिजली से रक्षा करने वाला होगा। इस लिंग की पूजा करने वाले को अकाल मृत्यु का भय नहीं होगा।

ऐसा कहकर भगवान शिव ने गृहपति के माता-पिता को बुलाया और सबने मिलकर कल्याणकारी भगवान शिव का पूजन किया तत्पश्चात शिवजी उसी अग्निश्वर लिंग में समा गए।


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