शिव पुराण शतरुद्र संहिता के पहले अध्याय से पाचवें अध्याय तक (From the first chapter to the fifth chapter of Shiv Purana Shatarudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【शतरुद्र संहिता】

पहला अध्याय 

"शिव के पांच अवतार"

शौनक जी बोले ;- हे सूत जी! जो परमानंद हैं, जिनकी लीलाएं अनंत हैं और जो सर्वेश्वर अर्थात सबके ईश्वर हैं, जो देवी गौरी के प्रियतम तथा कार्तिकेय व विघ्न विनाशक गणेश जी के जन्मदाता हैं, उन आदिदेव भगवान शिव की हमें वंदना करनी चाहिए । हे सूत जी ! आप मुझे भगवान शिव के उन अवतारों के बारे में बताइए, जिनमें सज्जनों का कल्याण शिवजी द्वारा किया गया है।

सूत जी बोले ;- हे शौनक जी ! यही बात पूर्व में सनत्कुमार जी ने परम शिवभक्त नंदीश्वर से पूछी थी । तब नंदीश्वर ने भगवान शिव के चरणों का स्मरण करते हुए,,

 कहा ;- मुने! भगवान शिव तो सर्वव्यापक हैं और उनके असंख्य अवतार हैं। श्वेतलोहित नामक उन्नीसवें कल्प में शिवजी का सद्योजात नामक अवतार हुआ है। यही शिवजी का प्रथम अवतार कहा जाता है। उस कल्प में परम ब्रह्म का ध्यान करते हुए ब्रह्माजी की शिखा से श्वेत लोहित कुमार उत्पन्न हुए। तब सद्योजात को शिव अवतार जानकर ब्रह्माजी प्रसन्नतापूर्वक उनका बार-बार चिंतन करने लगे।

   ब्रह्माजी के चिंतन से परमब्रह्म स्वरूपी चार यशस्वी ज्ञान संपन्न कुमार उत्पन्न हुए। उनके नाम सुनंद, नंदन, विश्वनंदन और उपनंदन थे। तब सद्योजात भगवान शिव ने ब्रह्माजी को परम ज्ञान प्रदान किया तथा इस सृष्टि को उत्पन्न करने की शक्ति उन्हें प्रदान की।

     तत्पश्चात रक्त नामक बीसवां कल्प आया। इसमें ब्रह्माजी का शरीर रक्तवर्ण का हो गया। इस प्रकार ध्यान करते हुए उनके मन में अचानक पुत्र प्राप्ति का विचार आया। उसी समय उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ। उसने लाल रंग के कपड़े पहन रखे थे तथा उसके सभी आभूषण और आंखें भी लाल ही थीं। तब उस पुत्र को भगवान शिव का दिया हुआ प्रसाद जानकर ब्रह्माजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने भगवान शिव की स्तुति करनी आरंभ कर दी। उस लाल वस्त्रधारी के विरज, विवाह, विशाख और विश्वभान नाम के चार पुत्र हुए। तत्पश्चात वामदेव भगवान शिव ने ब्रह्माजी को सृष्टि की रचना करने की आज्ञा प्रदान की।

    इसके बाद इक्कीसवां कल्प आया, जिसमें ब्रह्माजी ने पीले वस्त्र धारण किए। पुत्र कामना का ध्यान करते हुए ब्रह्माजी को एक महान तेजस्वी, दीर्घ भुजाओं वाला पुत्र प्राप्त हुआ। उस पुत्र को ब्रह्माजी ने अपनी बुद्धि से 'तत्पुरुष' शिव समझा। तब उन्होंने गायत्री का जाप आरंभ किया। देवी गायत्री एवं शिव कृपा से उस पीत वस्त्रधारी दिव्य कुमार के अनेकों पुत्र हुए।

    इसके पश्चात शिव नामक कल्प हुआ। इससे ब्रह्मा जी को हजारों वर्षों बाद एक दिव्य कुमार की प्राप्ति हुई। वह बालक काले रंग का था। उसने काले कपड़े, काली पगड़ी और सभी वस्तुएं काले रंग की ही धारण कर रखी थीं। तब इस अघोर तथा घोर पराक्रमी कृष्ण एवं अद्भुत देवेश को देखकर ब्रह्माजी ने प्रणाम किया। फिर ब्रह्माजी उनकी स्तुति करने लगे। उस कृष्णवर्णी कुमार के कृष्ण, कृष्णशिख, कृष्णास्य और कृष्ण कण्ठधारी नामक चार पुत्र उत्पन्न हुए। ये सभी तेजस्वी और शिवस्वरूप ही थे। इन्होंने ही ब्रह्माजी द्वारा रची जा रही सृष्टि का विस्तार करने के लिए 'घोर' नामक योग का प्रचार किया।

    तत्पश्चात परम अद्भुत विश्वरूप नामक कल्प हुआ, जिसमें ब्रह्माजी पुत्र की कामना से ध्यानमग्न थे तभी उनके चिंतन से सिंहनाद करने वाली विश्वरूपा सरस्वती प्रकट हुई। साथ ही परमेश्वर के पांचवें अवतार भगवान ईशान भी प्रकट हुए, जिनका रंग स्फटिक के समान उज्ज्वल था और उन्होंने अनेक प्रकार के सुंदर रत्न-आभूषण धारण किए हुए थे। तब उन ईशान के जटी, मुण्डी, शिखण्डी और अर्धमुण्ड नामक चार पुत्र हुए। इन बालकों ने भी योग का मार्ग अपना लिया । इस प्रकार मैंने जगत की हितकामना से भगवान शिव के सद्योजात नामक अवतार एवं शिवजी के ईशान, पुरुष, घोर, वामदेव और ब्रह्म नामक पांच मूर्तियों के बारे में बताया। जो मनुष्य श्रद्धाभाव से भगवान शिव के इस अवतार को सुनता या पढ़ता है, वह इस संसार में सुख भोगकर परमगति को प्राप्त होता है।

【शतरुद्र संहिता】

दूसरा अध्याय 

"शिवजी की अष्टमूर्तियों का वर्णन"

नंदीश्वर बोले ;– हे महामुने! अभी मैंने आपको भगवान शिव के श्रेष्ठ अवतारों के बारे में - बताया, जो सुखदाता और परम कल्याणकारी हैं। अब मैं आपको देवाधिदेव महादेव जी की आठ मूर्तियों के विषय में बताता हूं। मुने! इस विश्व में भगवान शिव की प्रसिद्ध अष्टमूर्तियां निम्न हैं—शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, ईशान और महादेव। ये आठ मूर्तियां सूत्र में मणियों की तरह पिरोई गई हैं। भगवान शिव की ये अष्टमूर्तियां पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, क्षेत्रज्ञ, सूर्य और चंद्रमा में अधिष्ठित हैं। शास्त्रों के अनुसार, भगवान शिव का ‘विश्वंभर' रूप इस चराचर जगत को धारण करने वाला है। उन्हीं का 'भव' रूप सलिलात्मक एवं समस्त जगत को जीवन प्रदान करने वाला है और संसार का पालन करता है एवं उसे चलाता है। यही तीसरी मूर्ति का 'उग्र' रूप है।

    महादेव जी के आकाशात्मक रूप को 'भीम' कहते हैं, जिससे राजसमुदाय का भेदन होता है। भक्तवत्सल भगवान शिव का 'पशुपति' रूप आत्माओं का अधिष्ठान करने वाला, संपूर्ण क्षेत्र में निवास करने वाला है। यही पशु एवं जीवों के पाश को काटने वाला है। महादेव जी का इस संसार को प्रकाशित करने वाला सूर्य रूप 'ईशान' है और यही आकाश में फैला हुआ है। भगवान शिव का अमृतमयी रश्मियों वाला तथा संसार को तृप्त करने वाला रूप 'महादेव' के नाम से पुकारा जाता है। 'आत्मा' देवाधिदेव भगवान शिव का आठवां मूर्ति रूप है और अन्य मूर्तियों की व्यापिका है।

भगवान शिव के इस अष्टमूर्ति स्वरूप के कारण ही पूरा संसार शिवमय है। जिस प्रकार पौधे को पानी से सींचने से शाखाएं एवं फूल पुष्पित होते हैं, उसी प्रकार शिव स्वरूप से यह विश्व परिपुष्ट होता है। जिस प्रकार पिता पुत्र को देखकर हर्षित होता है उसी प्रकार इस जगत के पिता भगवान शिव भी अपने भक्तों को हर्षित और प्रसन्न देखकर संतुष्ट होते हैं और उन्हें आनंद की प्राप्ति होती है, इसलिए हमें सदैव भक्तिभाव से उनकी प्रसन्नता हेतु कार्य करना चाहिए।

【शतरुद्र संहिता】

तीसरा अध्याय 

"अर्द्धनारीश्वर शिव"

नंदीश्वर बोले ;- जब ब्रह्माजी द्वारा रची हुई इस सृष्टि का विस्तार नहीं हुआ तब वे बड़े चिंतित होकर विस्तार के उपायों के विषय में सोचने लगे। ब्रह्माजी ने विचार किया कि यदि कोई इस संबंध में मेरी मदद कर सकता है तो वे सिर्फ भगवान शिव हैं। तब अपने आराध्य देव भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु उन्होंने शिव-शिवा के संयुक्त रूप की आराधना करनी आरंभ कर दी। 

उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव उनके सामने प्रकट हुए और,,

 बोले ;- हे ब्रह्मान् ! कहो, क्या चाहते हो? अपने मनोरथ के विषय में बताओ, ताकि मैं उसे करने में तुम्हारी मदद कर सकूं।

     पूरा भगवान शिव के इस प्रकार के वचन सुनकर ब्रह्माजी ने अपने दोनों हाथ जोड़कर भगवान शिव की स्तुति की और,,

 बोले ;- हे देवाधिदेव महादेव! शिवशंकर! आप तो अपने भक्तों के रक्षक हैं। आप उनके समस्त दुखों को दूर करके उनको अभीष्ट फल प्रदान करते हैं। भगवन्! आपकी आज्ञा के अनुसार मैंने सृष्टि की रचना की है परंतु भगवन्, मेरे द्वारा रची गई सृष्टि का विस्तार नहीं हो रहा है। यदि यह कार्य इसी तरह होता रहा तो कभी भी सृष्टि में वृद्धि नहीं हो पाएगी।

तब ब्रह्माजी के इन वचनों को सुनकर भगवान शिव बोले ;- हे ब्रह्मान् ! मैं जानता हूं कि तुमने अपनी सृष्टि में प्रजा की वृद्धि के लिए मेरी पूजा-आराधना की है। यह कहकर शिवजी ने अपने शरीर से देवी शिवा को अलग कर दिया। देवी शिवा को वहां देखकर ब्रह्माजी देवी शिवा की स्तुति करने लगे और कहने लगे, देवी! आपके पति भगवान शिव की ही कृपा से इस सृष्टि का सृजन हुआ है।

भगवान शिव बोले ;- हे ब्रह्माजी! मैंने आपके मनोरथ को पूर्ण करने के लिए ही देवी शिवा को प्रकट किया है। इस सृष्टि का विस्तार तभी संभव है, जब मैथुनी सृष्टि की रचना हो । इसलिए तुम इस कार्य की पूर्ति करो। यह सुनकर ब्रह्माजी भगवान शिव और शिवा दोनों की प्रसन्नता हेतु कार्य करने लगे।

ब्रह्माजी बोले ;- हे देवी! सृष्टि के आरंभ में आपके पति देवाधिदेव भगवान शिव ने ही मेरी रचना की थी और मुझे सृष्टि की रचना करने का आदेश दिया था। जिसके फलस्वरूप मैंने अनेक पुरुषों की रचना की परंतु इतना करने पर भी उनकी वृद्धि संभव नहीं हो सकी। इसलिए माते! मैं अपनी प्रजा की वृद्धि हेतु आपकी शरण में आया हूं। प्रजा वृद्धि तभी संभव है, जब सृष्टि का निर्माण कार्य अर्थात वृद्धि स्त्री-पुरुष के समागम से हो परंतु अभी तक मैं नारी को प्रकट नहीं कर पाया हूं। हे शिवे! आप मुझे नारी की सृष्टि करने की शक्ति प्रदान करें। हे सर्वेश्वरी! हे जगत जननी ! मेरे कार्य की सिद्धि हेतु आप मेरे पुत्र दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म लीजिए ।

ब्रह्माजी की प्रार्थना को मानते हुए देवी जगदंबा ने दक्ष की पुत्री होना स्वीकार कर लिया। यह कहकर देवी शिवा ने भगवान शिव के शरीर में प्रवेश कर लिया। तत्पश्चात शिव-शिवा वहां से अंतर्धान हो गए। तभी से शिव-शिवा का अर्द्धनारीश्वर रूप विख्यात हुआ और इस संसार में स्त्री जाति की रचना संभव हुई। यह अर्द्धनारीश्वर स्वरूप वर्णन अत्यंत आनंददायक एवं मंगलकारी है।

【शतरुद्र संहिता】

चौथा अध्याय 

"ऋषभदेव अवतार का वर्णन"

नंदीश्वर बोले ;– हे सर्वज्ञ सनत्कुमार जी! एक बार ब्रह्माजी से भगवान शिव बोले,, - ब्रह्मन्!

    सातवें मन्वंतर में वाराह कल्प होगा, इसमें कल्पेश्वर भगवान प्रकट होंगे, जो तीनों लोकों को अपने दिव्य प्रकाश से आलोकित करेंगे और तुम वैवस्वत मनु के प्रपौत्र बनोगे । उन मन्वंतर में चार युग होंगे। द्वापर युग के अंत में मैं ब्राह्मणों की रक्षा करने और उनका हित करने हेतु अवतार धारण करूंगा। द्वापर युग में व्यास जी प्रभु का रूप धारण करेंगे। कलयुग के अंत में मैं देवी शिवा सहित श्वेत नामक ब्राह्मण मुनि के रूप में प्रकट होऊंगा। हिमालय पर्वत पर मेरे श्वेत, श्वेतशिख, श्वेताश्व और श्वेतलोहित नामक चार शिष्य होंगे। मेरे ये शिष्य अविनाशी तत्व को जानकर जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो जाएंगे।

    हिमालय के उच्च शिखर पर जब मैं अवतार लूंगा, उस समय ब्रह्माजी मेरे शिष्य बनकर मुझसे अव्यय-तत्व की शिक्षा लेंगे और मेरे परम भक्त बनकर मेरी आराधना करेंगे। द्वापर में प्रजापति सत्य तो कलियुग में 'सुतारि' नाम से मुझे प्रसिद्धि मिलेगी। उस युग में दुंदुभी, शतरूप, तृषीक और केतु आदि वेदों के ज्ञाता मेरे प्रिय शिष्य होंगे। मेरे ये शिष्य ध्यान और योग के माध्यम से शिवलोक को प्राप्त करेंगे। द्वापर के तीसरे चरण में व्यास जी भार्गव के रूप में अवतरित होंगे और शिवलोक के पास दमन नाम से प्रसिद्ध होंगे। मेरे विशोकादि नामक चार पुत्र व्यास जी के शिष्य होंगे, जिन्हें मैं दृढ़ निवृत्ति का उपदेश दूंगा । तत्पश्चात चौथे द्वापर में अंगिराज व्यास होंगे और मैं सुहोत्र नाम से प्रकट होऊंगा। मेरे चार पुत्र होंगे और वे चारों महात्मा बन जाएंगे। मेरे ये चारों पुत्र सुमुख, दुर्मुख, दुदर्भ और दुरतिक्रम नाम से विख्यात होंगे। पांचवें द्वापर में व्यास जी सविता नाम से प्रसिद्ध होंगे और मैं कंक नामक योगी व महान तपस्वी होऊंगा। तब मैं व्यास जी की सहायता करूंगा और उन्हें अर्थ मुक्ति के मार्ग का आश्रय दूंगा।

   नौवां द्वापर आने पर व्यास जी सारस्वत होंगे। तब मैं स्वयं ऋषभ नामक अवतार धारण करूंगा। पाराशर, गर्ग, भार्गव तथा गिरीश मेरे शिष्य होंगे। ये चारों श्रेष्ठ योगी होंगे और सदा योग के मार्ग का ही अनुसरण करेंगे। अपने ऋषभ अवतार में, मैं भद्रायु नाम के एक राजकुमार को जीवन दान दूंगा, जो कि विष द्वारा मर जाएगा। जब वह राजकुमार भद्रायु सोलह वर्ष का होगा, उस समय मेरे अंश ऋषभ ऋषि उसके घर जाएंगे। जब वह राजकुमार श्रद्धा और भक्ति भावना से उनका पूजन करेगा, तब वे मुनि उसे राजधर्म का उपदेश देंगे। उसकी पूजा- अर्चना से प्रसन्न होकर वे मुनि भद्रायु को दिव्य कवच, शंख तथा शत्रुओं का विनाश करने वाला खड्ग प्रदान करेंगे। यही नहीं, वे उसके शरीर पर अद्भुत भस्म लगाकर उसे बारह हजार हाथियों का बल भी प्रदान करेंगे। इस प्रकार भद्रायु को अनेकों वरदान और दिव्य वस्तुएं प्रदान करने के पश्चात वे वहां से चले जाएंगे। तब भद्रायु रिपुगणों को युद्ध में हराकर कीर्तिमालिनी नामक परम सुंदरी कन्या में से विवाह करके धर्मपूर्वक राज्य करेगा। यही ऋषभ नामक नवां अवतार है। ऋषभ - चरित्र परम पावन, महान तथा स्वर्ग, यश और आयु प्रदान करने वाला है।

【शतरुद्र संहिता】

पाँचवाँ अध्याय 

"शिवजी द्वारा योगेश्वरावतारों का वर्णन"

शिवजी बोले ;- ब्रह्मन्! दसवें द्वापर में त्रिधामा नामक व्यास मुनि होंगे जो हिमालय के उच्च शिखर पर भृंगु नामक स्थान पर रहेंगे। उस अवतार में भी मेरे भृगु, बलवंधु, नरामित्र और केतुशृंग नामक चार तपस्वी होंगे। ग्यारहवां द्वापर आने पर त्रिवृत नामक व्यास होंगे और मैं कलिंग में गंगा के द्वापर में तप नाम से प्रकट होऊंगा और लंबोदर, लंबादा, केशलंब पुत्र और प्रलंबक नामक मेरे चार पुत्र होंगे। ये चारों दृढ़वर्ती होंगे। तत्पश्चात बारहवां द्वापर आएगा। इसमें शततेजा मुनि व्यास होंगे और मैं अत्रि नामक अवतार धारण करूंगा। उस समय सर्वज्ञ, समबुद्धि, साध्य और शर्व नाम के मेरे चार पुत्र होंगे। ये महायोगी होंगे और निवृत्ति के मार्ग का अनुसरण करेंगे।

    तेरहवें द्वापर में व्यास धर्मस्वरूप नारायण होंगे और मैं गंधमादन पर्वत पर बालखिल्याश्रम में जन्म लेकर महामुनि बलि के नाम से जाना जाऊंगा। तब सुधामा, कश्यप, वशिष्ठ और विरजा मेरे पुत्र होंगे। वहीं चौदहवें द्वापर युग में व्यास जी दक्ष बनकर और मैं गौतम के रूप में अवतरित होऊंगा। तब अत्रि, वशद, श्रवण और श्रविकष्ट मेरे पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। पंद्रहवां द्वापर आने पर मैं हिमालय के वेदशीर्ष नामक पर्वत पर सरस्वती नदी के उत्तरी तट पर वेदशिरा का रूप धारण करूंगा। वेदशिरा के अवतार में कुणि, कुणिबाहु, कुशरीर और कुनेत्रक नाम के चार वीर पराक्रमी पुत्र उत्पन्न होंगे। उस समय व्यास जी त्रय्यारुणि नामक अवतार में होंगे। सोलहवां द्वापर युग आने पर, व्यास जी देव नाम धारण करेंगे और मैं गोकर्ण नामक वन में गोकर्ण बनकर जन्म लूंगा तथा काश्यप, उशना, च्यवन और बृहस्पति मेरे चार पुत्र होंगे।

    सत्रहवें द्वापर युग में, व्यास देवकृतंजय होंगे। मैं गुहावासी नाम से अवतार लूंगा और उतथ्य, वामदेव, महायोगा और महाबल मेरे पुत्र होंगे। अट्ठारवां द्वापर आने पर मैं शिखंडी पर्वत पर जहां शिखंडी वन है, वहां शिखंडी नाम से अवतरित होऊंगा और ऋतंजय व्यास होंगे। उस समय वाचःश्रवा, रुचीक, श्यावास्य और यतीश्वर मेरे पुत्र तपस्वी होंगे। उन्नीसवें द्वापर युग में महामुनि भारद्वाज व्यास होंगे और मैं माली नाम से हिमालय के शिखर पर जन्म में लूंगा, तब मेरी लंबी-लंबी जटाएं होंगी। हिरण्यनामा, कौसल्य, लोकाक्षि और प्रधिमि, जो कि गंभीर स्वभावी हैं, मेरे पुत्रों के रूप में जन्म लेंगे। बीसवां द्वापर आने पर, व्यास जी गौतम और मैं अट्टहास नाम से अवतार धारण करेंगे। सुमंत, वर्वरि, विद्वान कबंध और कुणिबंधर मेरे योग संपन्न पुत्र होंगे।

    इक्कीसवें द्वापर युग में मैं दारुक नाम से पैदा होऊंगा और मेरे नाम से उस स्थान का नाम दारुवन हो जाएगा। पल्क्ष, दार्भामणि, केतुमान तथा गौतम मेरे पुत्र होंगे और वाचःश्रवा व्यास होंगे। बाइसवां द्वापर युग आने पर व्यास जी शुष्मायण के रूप में अवतार लेंगे और मैं वाराणसी में लांगली भीम के अवतार के रूप में प्रकट होऊंगा। उस समय मुझ हलायुधधारी शिव का दर्शन सभी देवता करेंगे तथा भल्लरी, मधु, पिंग और श्वेतकेतु मेरे पुत्र होंगे तथा वे धार्मिक रुचि रखने वाले होंगे। तेईसवें द्वापर में व्यास तृणाबिंदु मुनि होंगे। तब मैं कालिंजर नामक पर्वत पर श्वेत नाम से उत्पन्न हूंगा और उशिक, बृहद्रश्व, देवल और कवि नाम के चार तपस्वी पुत्र होंगे। चौबीसवें द्वापर में यक्ष व्यास होंगे। तब मैं शूली नामक महायोगी के रूप में जन्म लूंगा। शालिहोत्र, अग्निवेश, युवनाश्व और शरद्वसु मेरे पुत्र होंगे।

    जब पच्चीसवां द्वापर युग आएगा, उस समय शक्ति नाम से व्यास अवतार धारण करेंगे और मैं मुण्डीश्वर नाम से प्रकट होऊंगा। छब्बीसवें द्वापर में, पाराशर व्यास होंगे और मैं भद्रवट नगर में सहिष्णु के रूप में अवतरित हूंगा। सत्ताईसवां द्वापर आने पर मैं सोम शर्मा नाम से प्रभास नामक तीर्थ में अवतार धारण करूंगा। उस समय व्यास जी जातूकर्ण्य नाम से प्रसिद्ध होंगे। अट्ठाईसवें द्वापर युग में, भगवान श्रीहरि विष्णु पराशर के पुत्र के रूप में जन्म लेंगे और उनका नाम द्वैपायन व्यास होगा। उस समय श्रीकृष्ण अपने छठे अंश से वसुदेव के पुत्र के रूप में जन्म लेकर वासुदेव नाम से जगत प्रसिद्ध होंगे। तब मैं लकुली के नाम से प्रकट होऊंगा।

   इस प्रकार देवाधिदेव भगवान शिव ने मन्वंतर के चतुर्युगियों के योगेश्वतारों का वर्णन किया। इन अट्ठाईस योगेश्वतारों में उनके चार-चार परमप्रिय शिष्य होंगे, जो शरीर पर भस्म और मस्तक पर त्रिपुण्ड, गले में रुद्राक्ष की माला धारण किए होंगे। ये शिष्य विद्वान और भक्त होंगे ।

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