शिव पुराण कोटिरुद्र संहिता के ग्यारहवें अध्याय से पंद्रहवें अध्याय तक (From the eleventh chapter to the fifteenth chapter of the Shiva Purana Kotirudra Samhita)

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【कोटिरुद्र संहिता】

ग्यारहवाँ अध्याय

"पशुपतिनाथ शिवलिंग माहात्म्य"

सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! देवाधिदेव कल्याणकारी भगवान शिव का गोकर्ण नामक एक और तीर्थ है, जो कि उत्तर दिशा में स्थित है। यह महान ज्योतिर्लिंग संपूर्ण पापों का नाश करने वाला है। यह गोकर्ण क्षेत्र महा पवित्र है। इसी के पास एक सुंदर रमणीय महावन भी स्थित है। उसी महावन में चंद्रमौलि भगवान शिव वैद्यनाथ के रूप में स्थापित हैं, जो कि संसार के समस्त चराचर जीवों को सुख देने वाले, उनका कल्याण करने वाले तथा उनकी कामनाओं को पूरा करने वाले हैं। उनकी महिमा अद्भुत और अद्वितीय है। यहीं पर मिश्रर्षि नामक एक सुंदर मनोरम तीर्थ स्थल है। इसी स्थान पर महर्षि दधीचि द्वारा स्थापित दधीचेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग है। इस पवित्र स्थान पर आने वाले श्रद्धालु जब तीर्थ में स्नान करने के पश्चात भगवान शिव का विधि-विधान से पूजन करते हैं तो उनकी सभी कामनाओं को कल्याणकारी भक्तवत्सल शिव अवश्य पूरा करते हैं। तीर्थ में स्नान करने के पश्चात शिवजी के ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं तथा सभी तरह के भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

   इसी प्रकार नैमिष नामक परम पावन तीर्थ है। यहीं पर ऋषियों द्वारा स्थापित ऋषिश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है। इस पवित्र लिंग का श्रद्धापूर्वक दर्शन करने से भक्तों के सभी दुखों और क्लेशों का नाश हो जाता है। अंत समय आने पर वे सभी सुखों को भोगकर स्वर्ग को जाते हैं। हरण नामक क्षेत्र में 'अद्यापह' नामक शिवलिंग है। इसके दर्शनों से करोड़ों हत्याओं के पाप से भी मुक्ति मिल जाती है। देव प्रयाग में 'ललितेश्वर' नामक ज्योतिर्लिंग स्थित है, जो कि अपने भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। नेपाल में 'पशुपति' नामक ज्योतिर्लिंग स्थित है, जो कि अभीष्ट फल देने वाला है। इसके पास ही 'मुक्तिनाथ' नामक शिवलिंग स्थित है। यह मुक्तिनाथ शिवलिंग भोग और मोक्ष प्रदान करने वाला है। इस प्रकार भगवान शिव के उत्तम ज्योतिर्लिंग पृथ्वी पर सभी जगह स्थित हैं और अपने भक्तों की रक्षा एवं कल्याण करते हैं।

【कोटिरुद्र संहिता】

बारहवाँ अध्याय

"लिंगरूप का कारण"

ऋषिगण सूत जी से पूछने लगे ;- हे सूत जी ! आपने हम पर कृपा करके हमें त्रिलोकीनाथ कल्याणकारी भगवान शिव के दिव्य ज्योतिर्लिंग के संबंध में बताया। अब हमें जगत्माता शिवप्रिया देवी पार्वती जी को वाणरूप कहे जाने का कारण भी सविस्तार बताइए ।

   ऋषियों के प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो! प्राचीन काल से ही दारुक नामक एक वन है। वहीं पर त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का शिवालय स्थित है। भगवान शिव के भक्त ऋषि-मुनि प्रतिदिन सुबह, दोपहर, शाम वहां आकर अपने आराध्य महादेव जी का पूजन, स्तोत्रपाठ एवं प्रार्थना करते हैं। एक दिन ऋषिगण दारुक वन में समिधा लेने के लिए गए थे तब भगवान शिव ने उनकी परीक्षा लेनी चाही। वे विकराल रूप धारण किए, नग्न अवस्था में वहां आ पहुंचे, जहां ऋषि पत्नियां थीं। उसी समय ऋषिगण भी लौट आए। जब उन्होंने विकराल रूप धारण किए शिवजी को वहां देखा तो क्रोधित होकर बोले- तू कौन है? जो यहां हमारी स्त्रियों के सामने इस प्रकार नग्न रूप में उनका आचरण दूषित कर रहा है? यह तुमने अनुचित कार्य किया है। इसलिए तुम्हें इसकी सजा अवश्य मिलेगी। तुम्हारा लिंग पृथ्वी पर गिर पड़ेगा।

ऋषियों के कथनानुसार शिवजी का लिंग जैसे ही पृथ्वी पर गिरा चारों ओर अग्नि प्रज्वलित हो गई, जिससे सभी जीव-जंतु पीड़ित होने लगे। यह देखकर ऋषिगण घबरा गए। वे ब्रह्माजी के पास गए और उन्हें सारी बातें बताईं। ब्रह्माजी ने दिव्य दृष्टि से सबकुछ जान लिया। 

  तब वे बोले ;– हे ऋषियो ! तुमने अपने घर अतिथि के रूप में पधारे भगवान शिव का अपमान किया है और उनके प्रति बुरे वचन कहे हैं, इसलिए जब तक यह शिवलिंग एक स्थान पर स्थिर नहीं होगा, इस प्रकार का उपद्रव होता रहेगा। इस संसार का हित करने के लिए आप जगदंबा पार्वती की आराधना करें। वे योनि रूप धारण करें तथा शिवजी प्रसन्न होकर वहीं स्थिर हो जाएं। शास्त्रों के अनुसार अष्टदल की रचना करने के पश्चात उस पर घट स्थापना करो। फिर उसमें दूर्वा तथा पानी भरो। तत्पश्चात शतरुद्र मंत्रों का पाठ करते हुए उस घट के जल से भगवान शिव के लिंग को स्नान कराओ। फिर देवी पार्वती को बाणरूप में स्थापित करके उसी पर सदाशिव के ज्योतिर्लिंग की स्थापना करो। शिवलिंग की स्थापना करने के पश्चात धूप, दीप, चंदन, पुष्प, नैवेद्य आदि से पूजन करो। फिर शिवलिंग को श्रद्धाभाव से प्रणाम कर उनके स्तोत्र का पाठ और स्तुति करो।

ब्रह्माजी के वचन सुनकर ऋषिगणों को सही मार्ग मिल गया। उन्होंने ब्रह्माजी से आज्ञा ली और पुनः अपने स्थान पर वापस आकर बताई गई विधि से देवी पार्वती और भगवान शिव की आराधना की। पूजन से प्रसन्न होकर देवी पार्वती जी योनिरूप में स्थित हुईं। तब ऋषियों ने वहां ज्योतिर्लिंग स्थापित किया। ज्योतिर्लिंग की स्थापना से सारे संसार में शांति हो गई।

यह ज्योतिर्लिंग संसार में 'हाटकेश्वर' नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस ज्योतिर्लिंग की आराधना से लोक व परलोक में सभी सुखों की प्राप्ति होती है।

【कोटिरुद्र संहिता】

तेरहवाँ अध्याय

"बटुकनाथ की उत्पत्ति"

ऋषियों ने पूछा ;- हे सूत जी ! आपने हम पर कृपा करके हमें अनेकों ज्योतिर्लिंगों के विषय में बताया है। अब हमें 'अंधकेश्वर' नामक ज्योतिर्लिंग के माहात्म्य के बारे में बताइए । 

यह सुनकर सूत जी बोले ;- हे ऋषियो ! पूर्वकाल में अंधक नाम का एक महाबली वीर और पराक्रमी राक्षस था। उसने अपने बल से पूरे विश्व पर अपना अधिकार किया हुआ था और वह देवताओं सहित सभी जीवों को दुखी करता रहता था तब सब देवता उस दैत्य से पीड़ित होकर भगवान शिव की शरण में गए। उन्हें प्रणाम करके देवताओं ने उन्हें अपना दुख कह सुनाया। अपने भक्तों के दुख को जानकर शिवजी ने उन्हें सहायता करने का वचन दिया और अंधक के निवास पर चलने के लिए कहा।

सब देवताओं के साथ भक्त वत्सल शिव अंधक के निवास पर गए। वहां अंधक और भगवान शिव के बीच महायुद्ध हुआ । त्रिलोकीनाथ भगवान शिव ने अपने त्रिशूल से ज्यों ही अंधक को मारा,,

 वह छटपटाते हुए बोला ;- हे देवाधिदेव! कृपानिधान! मैंने सुना है कि मरते समय शिवजी के दर्शन करने से शिवपद की प्राप्ति होती है। मैंने अंतिम समय में आपके दर्शन कर लिए हैं। अंधक के ऐसे वचन सुनकर शिवजी प्रसन्न होकर बोले- हे दानवेंद्र! तुम्हारी बातों से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूं। मांगो, क्या वर मांगना चाहते हो।

शिवजी के ऐसे वचन सुनकर अंधक बोला ;- भगवन्! मुझे अपनी अविचल भक्ति प्रदान करें और यहीं पर स्थित होकर जगत का कल्याण करें। तब अंधक की बात मानते हुए शिवजी ज्योतिर्लिंग रूप में वहां स्थित हो गए। इस प्रकार सविधि पूजन करने वालों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यह ज्योतिर्लिंग अंधकेश्वर नाम से जगप्रसिद्ध है। अंधकेश्वर नामक ज्योतिर्लिंग की उत्तम कथा सुनकर,,

 ऋषिगण बोले ;- हें सूत जी ! अब आप हमें बटुकनाथ की उत्पत्ति के बारे में बताइए । 

तब सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणो! प्राचीन काल में दधीचि नामक एक धर्मात्मा, शिवभक्त हुए हैं जो संपूर्ण वेदों के ज्ञाता थे। उनका सुदर्शन नाम का पुत्र था। वह भी अपने पिता के समान सर्वगुण संपन्न था। उसकी पत्नी दुकूला नीच कुल की थी। उसकी भक्ति में कोई रुचि नहीं थी उसके चार पुत्र हुए। एक दिन दधीचि मुनि को किसी कार्य से कहीं जाना पड़ा। तब वह अपने पुत्र को शिव पूजन करने की आज्ञा देकर चले गए।

सुदर्शन विधि-विधान से भगवान शिव की आराधना और पूजन करने लगा। शिवरात्रि का दिन आ गया। सुदर्शन ने व्रत किया और सविधि पूजन भी किया। किसी कार्यवश उसे अपने घर जाना पड़ा। वहां उसकी पत्नी ने उसे कामवश कर लिया। तब सुदर्शन बिना शरीर शुद्धि किए शिवजी के मंदिर में पहुंचकर शिवजी का पूजन करने लगा। इससे भगवान शिव अप्रसन्न हो गए और उन्होंने सुदर्शन को जड़बुद्धि होने का शाप दे दिया। 

  जब मुनि दधीचि ने वापस लौटे तो उन्हें सारी बातें पता चलीं। उन्हें यह जानकर बड़ा दुख हुआ कि उनके पुत्र सारे कुल को कलंकित कर दिया है। वे शुद्ध हृदय से जगदंबा पार्वती जी की आराधना करने लगे। उन्होंने विधि-विधान से पूजन कर जगदंबा को प्रसन्न कर लिया।

देवी पार्वती ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए। तब दधीचि मुनि ने हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया और अपने पुत्र सुदर्शन को उनके चरणों में डालकर,,

 बोले ;- हे मातेश्वरी ! मेरे पुत्र को दीक्षा देकर इसका कल्याण करो। इसकी बुद्धि को सही कर दो। इसे भगवान शिव के क्रोध से बचाकर उनका अनन्य भक्त बना दो। तब पार्वती जी ने सुदर्शन को जनेऊ पहनाकर उसे गायत्री मंत्र की दीक्षा दी। फिर देवी अंतर्धान हो गईं। सुदर्शन ने षोडशोपचार से शिवजी का पूजन किया जिससे वे प्रसन्न हो गए और उन्होंने उसके सभी अपराधों को क्षमा कर दिया।

शिवजी ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और सुदर्शन व उसके पुत्रों का बटुक रूप में अभिषेक किया। आपका यह रूप सारे संसार में पूजनीय होगा, यह कहकर शिवजी अंतर्धान हो गए। उसी दिन से सुदर्शन बटुक नाम से संसार में विख्यात हुए और शुभ-अशुभ सभी कार्यों में उनकी पूजा करने का विधान है।

【कोटिरुद्र संहिता】

चौदहवाँ अध्याय

"सोमनाथेश्वर की उत्पत्ति"

सूत जी बोले ;- हे ऋषियो! अब मैं आपको सोमनाथ नामक ज्योतिर्लिंग की महिमा के बारे में बताता हूं। प्रजापति दक्ष ने अपनी अश्वनी रोहिणी नामक सत्ताईस पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से कर दिया। जिन्हें पाकर चंद्रमा की शोभा बढ़ गई। अपनी सभी पत्नियों में चंद्रमा रोहिणी से अधिक प्रेम करते थे। इसलिए अन्य सभी दुखी रहती थीं। एक दिन उन्होंने अपने पिता को इस विषय में बताया। तब प्रजापति दक्ष चंद्रमा को समझाने लगे।

 दक्ष बोले ;- हे जामाता! मैंने अपनी सत्ताईस कन्याओं का विवाह तुमसे किया है परंतु आप उनसे असमानता का व्यवहार क्यों करते हैं। एक पत्नी से प्रेम और अन्यों से प्रेम न करना, सही नहीं है। इसलिए आपको सभी पत्नियों को समान रूप से प्यार करना चाहिए। ऐसा समझाकर दक्ष अपने घर लौट गए परंतु चंद्रदेव ने उनकी बातों को सरलता से लिया और उनके व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। तब एक दिन दक्ष पुत्रियों ने पुनः अपने पिता से चंद्रमा के व्यवहार के बारे में बात की। यह जानकर प्रजापति दक्ष को क्रोध आ गया और उन्होंने चंद्रमा को क्षीण व मलिन होने का शाप दे दिया। उनके शाप के फलीभूत होने से चंद्रमा की कांति क्षीण हो गई और वह मलिन हो गया।

  चंद्रमा की ऐसी स्थिति देखकर देवराज इंद्र व अन्य सभी देवता मिलकर ब्रह्माजी के पास गए और उन्हें जाकर सब बातें बताईं तथा चंद्रमा का उद्धार करने के लिए कहा। 

  तब ब्रह्माजी बोले ;- हे देवताओ! यह चंद्रमा बड़ा ही दुष्ट प्रवृत्ति का है। पूर्व में भी यह देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा को ले भागा था। अब यह दक्ष पुत्रियों के साथ असमानता का व्यवहार कर सभी को दुखी कर रहा है परंतु फिर भी तुम्हारी प्रार्थना पर मैं एक उपाय बताता हूं। यदि चंद्रमा प्रभास नामक पवित्र तीर्थ में जाकर भगवान शिव की आराधना करके महामृत्युंजय मंत्र का जाप कर उन्हें प्रसन्न करे, तभी उसके दुखों का निवारण हो सकता है। ब्रह्माजी को प्रणाम करके सब देवता इंद्र सहित चंद्रमा के पास आए और उन्हें सारी बातें बताईं। तब उन्हें लेकर वे प्रभास क्षेत्र पहुंचे। वहां जाकर चंद्रमा ने विधि-विधान से त्रिलोकीनाथ भगवान शिव का पूजन किया और आसन पर बैठकर महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने लगे। इस प्रकार वे दृढ़तापूर्वक मंत्र का जाप करते रहे। दस करोड़ जाप पूरे होते ही भगवान शिव प्रसन्न होकर चंद्रमा के सम्मुख प्रकट हो गए। उन्होंने चंद्रमा से मनोवांछित वस्तु मांगने के लिए कहा। 

चंद्रमा ने हाथ जोड़कर आराध्य शिवजी को प्रणाम किया,,

 और बोले ;- हे भगवन्! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मेरे क्षय रोग को दूर कर दीजिए ।

  तब भगवान शिव बोले ;- हे चंद्रमा ! मैं प्रजापति दक्ष के शाप को समाप्त नहीं कर सकता, पर उसका प्रभाव कम कर सकता हूं। माह के कृष्ण पक्ष में पंद्रह दिनों में तुम्हारी कलाएं क्षीण होंगी तथा शुक्ल पक्ष के पंद्रह दिनों में ये कलाएं बढ़ेंगी। चंद्रमा ने शिवजी से प्रार्थना करते हुए निवेदन किया कि आप देवी पार्वती सहित यहीं पर निवास करें। तब उनकी प्रार्थना को स्वीकारते हुए चंद्रमा के नाम से ही शिवजी सोमेश्वर कहलाए व संसार में सोमनाथ नाम से विख्यात हुए। वहीं पर चंद्र कुण्ड नाम से एक कुण्ड देवताओं ने बनाया। इस कुण्ड में ब्रह्माजी व शिवजी का निवास माना जाता है। इस कुण्ड में स्नान करने से सभी पाप छूट जाते हैं। छः मास तक इस पवित्र कुण्ड के जल में स्नान करने से असाध्य रोगों से भी मुक्ति मिल जाती है तथा मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है।

  भगवान शिव के आशीर्वाद से चंद्रमा नीरोग हो गए और पहले की भांति अपना कार्य करने लगे। इस प्रकार मैंने सोमनाथ की उत्पत्ति के बारे में तथा 'सोमेश्वर' ज्योतिर्लिंग के बारे में बताया। इस कथा को सुनने, पढ़ने अथवा दूसरों को सुनाने से अभीष्ट फल की प्राप्त होती है और पाप से मुक्ति मिल जाती है।

【कोटिरुद्र संहिता】

पंद्रहवाँ अध्याय

"मल्लिकार्जुन की उत्पत्ति"

सूत जी बोले ;- हे ऋषिगणों! अब में आपको मल्लिकार्जुन नामक ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति के बारे में बताता हूं। एक बार की बात है कि शिव-पार्वती ने अपने दोनों पुत्रों को पृथ्वी की परिक्रमा करने के लिए कहा। जब कुमार कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा करके वापस आ रहे थे तभी रास्ते में नारद जी ने उन्हें बहका दिया और कहा कि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे साथ पक्षपात किया है। तुम्हें परिक्रमा के लिए भेजकर पीछे से तुम्हारे छोटे भाई गणेश का विवाह कर दिया। यह सुनकर कार्तिकेय को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने कैलाश पर्वत पर जाकर अपने माता-पिता से इस पक्षपात के बारे में कहा और रुष्ट होकर कार्तिकेय क्रौंच पर्वत पर चले गए।

  इस प्रकार अपने पुत्र के चले जाने पर भगवान शिव-पार्वती बहुत दुखी हुए और अपने पुत्र से मिलने के लिए क्रौंच पर्वत पर पहुंचे। जब कुमार को ज्ञात हुआ कि उनके माता-पिता आ रहे हैं तो क्रोधवश कार्तिकेय वहां से अन्यत्र चले गए। जब देवाधिदेव महादेवजी अपनी प्राणवल्लभा देवी पार्वती के साथ वहां पधारे तो कार्तिकेय को न देखकर बहुत दुखी हुए। तब वे दोनों ज्योतिर्मय रूप धारण करके क्रौंच पर्वत पर सदा के लिए प्रतिष्ठित हो गए। उसी दिन से वह पवित्र लिंग मल्लिकार्जुन नाम से जगप्रसद्धि हुआ । मल्लिका देवी पार्वती का नाम है। तथा अर्जुन शब्द शिव का समानार्थी है उसी दिन से मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग में शिव पार्वती का निवास माना जाता है।

  पुत्र के स्नेह के कारण शिव-पार्वती हर पर्व पर कार्तिकेय को देखने वहां जाते हैं। हर अमावस्या को भगवान शिव व पूर्णमासी पर देवी पार्वती अपने प्रिय पुत्र कार्तिकेय के लिए मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग में पदार्पण करते हैं।

  मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने से सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है और अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। इस प्रकार मैंने आपसे मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव की कथा सुनाई, जो सभी प्रकार के सुखों को देने वाली है।


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