शिव पुराण श्रीरुद्र संहिता (पंचम खण्ड) के छियालीसवें अध्याय से पचासवें अध्याय तक (From the forty-sixth chapter to the fiftieth chapter of the Shiva Purana Sri Rudra Samhita (5th volume))

 


।। ॐ नमः शिवाय ।।


शिव पुराण का सरल भाषा में हिंदी रूपांतर



【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

छियालीसवाँ अध्याय 

"युद्ध की समाप्ति"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे महामुनि! जब भगवान शिव पाशुपत - व्रत को पूरा करने के पश्चात मंदराचल पर्वत पर लौटे तो उन्होंने देखा कि दैत्येंद्र अंधक ने अपनी विशाल सेना के साथ पुनः आक्रमण कर दिया है। उनके वीर गण और अनेकों रूप धारण किए देवियां अंधक और उसकी सेना से युद्ध कर रही हैं। यह देखकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया की मेरी अनुपस्थिति में इस दुष्ट दैत्य ने मेरी पत्नी को परेशान किया है।

    क्रोधित देवाधिदेव महादेव जी अंधक से युद्ध करने लगे परंतु दैत्येंद्र बहुत चालाक था। उसने गिल नामक दैत्य को आगे कर दिया। स्वयं उसने दैत्य सेना सहित गुफा के आस-पास के वृक्षों और लताओं को तोड़ दिया। तत्पश्चात उस दैत्य अंधक ने एक-एक करके सबको निगलना शुरू कर दिया। अंधक ने नंदीश्वर सहित ब्रह्मा, विष्णु, इंद्र, सूर्य और चंद्रमा व समस्त देवताओं को निगल लिया। यह देखकर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया। उन्होंने अंधक पर अपने तीक्ष्ण बाणों का प्रहार करना शुरू कर दिया, जिसके फलस्वरूप दैत्यराज ने विष्णु सहित ब्रह्मा, सूर्य, चंद्रमा और अन्य देवताओं को वापस उगल दिया।

    उधर, शिवगणों ने देखा कि दैत्यगुरु युद्ध में मारे गए राक्षसों को अपनी संजीवनी विद्या से पुनः जीवित कर रहे हैं। इसी कारण दैत्यों का मनोबल कम नहीं हो रहा है। तब शिवगणों ने चतुराई का परिचय देते हुए दैत्यगुरु शुक्राचार्य को बंधक बना लिया और उन्हें भगवान शिव के पास ले गए। जब शिवगणों ने यह बात भगवान शिव को बताई तो क्रोधित शिवजी ने शुक्राचार्य को निगल लिया । शुक्राचार्य के वहां से गायब हो जाने पर दैत्यों का मनोबल गिर गया और वे भयभीत हो गए। यह देखकर देवसेना ने उन दैत्यों को मार-मारकर व्याकुल कर दिया। इस प्रकार युद्ध और भीषण होता जा रहा था।

      दैत्यराज अंधक ने अब युद्ध को जीतने के लिए माया का सहारा लिया। भगवान शिव और अंधक के बीच सीधा युद्ध शुरू हो गया। भगवान शिव अपने प्रिय त्रिशूल से लड़ रहे थे । युद्ध करते-करते दैत्यराज के शरीर पर शिवजी जैसे ही त्रिशूल का प्रहार करते, उसके शरीर से निकले हुए रक्त से बहुत से दैत्य उत्पन्न हो जाते और युद्ध करने लगते। यह देखकर देवताओं ने देवी चण्डिका की स्तुति की, तब चण्डिका तुरंत युद्धभूमि में प्रकट हो गईं और उन्होंने भगवान शिव को प्रणाम किया। शिवजी का आदेश पाकर देवी चण्डिका उस अंधक नामक असुर के शरीर से निकलने वाले रक्त को पीने लगीं। इस प्रकार अंधक का रक्त जमीन पर गिरना बंद हो गया और उससे उत्पन्न होने वाले राक्षस भी उत्पन्न होने बंद हो गए।

      फिर भी अंधक अपनी पूरी शक्ति से युद्ध करता रहा। उसने भगवान शिव पर बाणों से प्रहार करना शुरू कर दिया। युद्ध करते-करते भगवान शिव ने अंधक का संहार करने के लिए त्रिशूल का जोरदार प्रहार उसके हृदय पर किया और उसे भेद दिया। उन्होंने उसे ऐसे ही ऊपर उठा लिया। सूर्य की तेज किरणों ने उसके शरीर को जला दिया। इससे उसका शरीर जर्जर हो गया। मेघों से तेज जल बरसा और वह गीला हो गया। फिर हिमखण्डों ने उसे विदीर्ण कर दिया। इस पर भी दैत्यराज अंधक के प्राण नहीं निकले।

अपनी ऐसी अवस्था देखकर अंधक को बहुत दुख हुआ। वह हाथ जोड़कर देवाधिदेव भगवान शिव की स्तुति करने लगा। भगवान शिव तो भक्तवत्सल हैं और सदा ही अपने भक्तों के अधीन रहते हैं। तब भला वे अंधक पर कैसे प्रसन्न न होते? उन्होंने अंधक को क्षमा करके अपना गण बना लिया। युद्ध समाप्त हो गया। सब देवता हर्षित होकर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। भगवान शिव देवी पार्वती को साथ लेकर अपने गणों सहित कैलाश पर्वत पर चले गए। सभी देवता अपने-अपने लोकों को वापस लौट गए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

सैंतालीसवाँ अध्याय 

"शिव द्वारा शुक्राचार्य को निगलना"

व्यास जी बोले ;- हे ब्रह्मापुत्र सनत्कुमार जी ! शिवगणों द्वारा जब शिवजी को यह ज्ञात हुआ कि दैत्यगुरु शुक्राचार्य दैत्यों को पुनः जीवित कर रहे हैं और शिवगण उन्हें बंदी बना लाए हैं, तब क्रोधित होकर शिवजी ने शुक्राचार्य को निगल लिया था। तब आगे क्या हुआ? भगवान शिव के उदर में शुक्राचार्य ने क्या किया? क्या भगवान शिव ने उन्हें भस्म कर या फिर शुक्राचार्य अपने तॆज के प्रभाव से शिवजी के उदर से बाहर निकल आए ? कृपाकर मुझे ये बातें बताइए ।

    व्यास जी के इन प्रश्नों को सुनकर सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी ! भगवान शिव तो इस त्रिलोक के नाथ हैं। वे साक्षात ईश्वर हैं। उनकी आज्ञा के बिना इस संसार में कुछ भी नहीं होता। उनके कारण ही यह संसार चलता है। भगवान शिव के कारण ही देवताओं की हर युद्ध में जीत होती है। अंधक कोई साधारण दैत्य नहीं था। उसे यह बात ज्ञात थी कि वह त्रिलोकीनाथ भगवान शिव को नहीं जीत सकता। इसलिए वह अपने दैत्यकुल की रक्षा करने के लिए सर्वप्रथम अपने आराध्य दैत्यगुरु शुक्राचार्य के चरणों में गया और अपने गुरु की वंदना करने लगा। तब उन्होंने प्रसन्न होकर उसे आशीर्वाद दिया। दैत्यराज अंधक ने गुरु शुक्राचार्य से मृत संजीवनी विद्या द्वारा मरे हुए असुरों को जीवित करने की प्रार्थना की।

     शुक्राचार्य ने अपने शिष्य अंधक की प्रार्थना स्वीकार कर ली और युद्धभूमि में आ गए। शुक्राचार्य ने भगवान विद्येश (शिव) का स्मरण कर अपनी विद्या का प्रयोग आरंभ किया। उस विद्या का प्रयोग करते ही युद्ध में मृत पड़े दैत्य अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर इस प्रकार उठ खड़े हुए मानो इतनी देर से सोए पड़े हों। यह देखकर दैत्य सेना में अद्भुत उत्साह का संचार हो गया। राक्षसों में नई जान आ गई और वे भगवान शिव के गणों से भयानक युद्ध करने लगे।

     शिवगणों ने जाकर यह समाचार नंदीश्वर को बताया कि शुक्राचार्य अपनी विद्या के बल से मरे हुए दैत्यों को जीवित कर रहे हैं। यह जानकर नंदी सिंह की भांति दैत्य सेना पर टूट पड़े और उस स्थान पर जा पहुंचे जहां शुक्राचार्य बैठे थे। अनेकों दैत्य अपने गुरु की रक्षा करने के लिए चारों ओर खड़े थे। नंदी ने शुक्राचार्य को इस प्रकार पकड़ लिया जैसे शेर हाथी के बच्चे को पकड़ लेता है। वे उन्हें उठाकर तेज गति से वहां से निकल पड़े। नंदीश्वर को इस प्रकार अपने गुरु को उठाकर ले जाते देखकर सभी दैत्य उन पर टूट पड़े, परंतु नंदी अपनी वीरता का परिचय देते हुए सबको पछाड़ते हुए आगे बढ़ते रहे। नंदी के मुख से भयानक अग्नि वर्षा हो रही थी, जिससे दैत्य उनकी ओर नहीं बढ़ पा रहे थे।

   इस प्रकार कुछ ही देर में नंदी शुक्राचार्य का अपहरण करके उन्हें भगवान शिव के सम्मुख ले आए। नंदी ने सारी बातें भगवान शिव को कह सुनाईं। यह सब सुनकर देवाधिदेव महादेव जी का क्रोध बहुत बढ़ गया और उन्होंने दैत्यगुरु शुक्राचार्य को अपने मुंह में रखकर इस प्रकार निगल लिया जिस प्रकार कोई बालक अपनी पसंदीदा खाने की वस्तु को पलभर में ही सटक जाता है।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

अड़तालीसवाँ अध्याय 

"शुक्राचार्य की मुक्ति"

व्यास जी ने पूछा ;- हे सनत्कुमार जी ! शुक्राचार्य को जब भगवान शिव ने निगल लिया तब फिर क्या हुआ? यह प्रश्न सुनकर सनत्कुमार जी बोले- हे महर्षे! भगवान शिव ने क्रोधित होकर जब दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य को निगल लिया तब वे शिवजी के उदर में पहुंचकर वहां से बाहर निकलने के लिए बहुत चिंतित हो गए और अनेक प्रकार के प्रयत्न करने लगे। जब वे किसी भी प्रकार से बाहर नहीं निकल पा रहे थे, तब उन्होंने भगवान शिव के शरीर में छिद्रों की खोज करनी शुरू कर दी परंतु सैकड़ों वर्षों तक भी उन्हें कोई ऐसा छिद्र नहीं मिल सका, जिससे वे बाहर आ जाते।

इस प्रकार शुक्राचार्य बाहर न निकल पाने के कारण बहुत दुखी हुए और उन्होंने शिवजी की आराधना करने का निश्चय किया। तब उन्होंने शिवमंत्र का जाप करना आरंभ कर दिया। शिव मंत्र का जाप करते-करते शुक्राचार्य शिवजी के शुक्राणुओं द्वारा उनके लिंग मार्ग से बाहर आ गए और हाथ जोड़कर भगवान शिव की स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव और देवी पार्वती ने शुक्राचार्य को अपने पुत्र रूप में स्वीकार कर लिया और मुस्कुराने लगे।

शिवजी बोले ;– हे भृगुनंदन! आप मेरे लिंग मार्ग से शुक्र की तरह बाहर निकले हैं इसलिए आज से आप शुक्र नाम से विख्यात होंगे। आज से तुम मेरे और पार्वती के पुत्र हुए और सदा संसार में अजर-अमर रहोगे। तुम्हें आज से मेरा परम भक्त माना जाएगा।

   तब शुक्राचार्य भगवान शिव की स्तुति करते हुए बोले ;- हे देवाधिदेव! भगवान शिव! आपके सिर, नेत्र, हाथ, पैर और भुजाएं अनंत हैं। आपकी मूर्तियों की गणना करना सर्वथा असंभव है। आपकी आठ मूर्तियां कही जाती हैं और आप अनंत मूर्ति भी हैं। आप देवताओं तथा दानवों सभी की मनोकामनाओं को अवश्य पूरा करते हैं। बुरे व्यक्ति का आप ही संहार करने वाले हैं। मैं आपके चरणों की स्तुति करता हूं। हे प्रभु! आप मुझ पर प्रसन्न हों।

    दैत्यगुरु शुक्राचार्य की ऐसी स्तुति सुनकर भक्तवत्सल भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। तत्पश्चात भगवान शिव से आज्ञा लेकर शुक्राचार्य पुनः असुर सेना में चले गए और तब से वे शुक्राचार्य के रूप में विख्यात हुए।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

उनचासवाँ अध्याय 

"अंधक को गणत्व की प्राप्ति"

सनत्कुमार जी बोले ;– हे महामुनि व्यास जी ! भगवान शिव के उदर में शुक्राचार्य ने शिवमंत्र का जाप कर बाहर आने का मार्ग खोज लिया और बाहर आकर शिवजी की आज्ञा पाकर वहां से पुनः असुर राज्य में चले गए। तत्पश्चात तीन हजार वर्षों के बाद वह वेदों का पाठ करने वाले शुक्राचार्य के रूप में पृथ्वी पर पुनः शिवजी से उत्पन्न हुए। दूसरी ओर अंधक को भगवान शिव ने अपने त्रिशूल पर उसी प्रकार लटकाया हुआ था । दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने देखा कि दैत्यराज अंधक उसी त्रिशूल पर लटका हुआ है, जिस त्रिशूल से देवाधिदेव भगवान शिव ने उसे मारने के लिए आघात किया था उसे देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि अंधक के प्राण अभी तक नहीं निकले हैं और वह उसी प्रकार त्रिशूल पर लटका हुआ भगवान शिव के एक सौ आठ नामों से उनकी स्तुति कर रहा है।

     अंधक की इस स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने अंधक को त्रिशूल के अग्रभाग से नीचे उतार लिया और उस पर दिव्य अमृत की वर्षा की तथा उससे कहा- हे दैत्येंद्र ! मैं तुम्हारी इस उत्तम भक्ति भावना से बहुत प्रसन्न हूं। तुमने नियमपूर्वक मेरी आराधना की है। तुम्हारे मन में जितनी भी बुराई और पाप थे वे सब तुम्हारी शुद्ध हृदय से की हुई स्तुति से धुल गए हैं और तुम्हें पुण्य की प्राप्ति हुई है। मैं प्रसन्न हूं। तुम जो चाहो, वर मांग सकते हो। मैं तुम्हारी कामना अवश्य ही पूरी करूंगा भगवान शिव के ये अमृत वचन सुनकर दैत्यराज अंधक बहुत प्रसन्न हुआ और बोला भगवन्! मैं दोनों हाथ जोड़कर आपसे अपने द्वारा किए गए हर बुरे कार्य और अपराध के लिए क्षमा मांगता हूं। 

    आप मेरे अपराधों को कृपापूर्वक क्षमा करें। पूर्व में मैंने आपके और माता पार्वती के विषय में जो भी बुरा बोला या सोचा हो उसके लिए मुझे बहुत खेद है। मैंने यह सब अज्ञानतावश ही किया है। अब मैं एक दीन भक्त बनकर आपकी शरण में आया हूं। मुझे मेरे द्वारा किए गए अपराधों के लिए क्षमा कर दें । 

    हे देवाधिदेव! मैं आपसे वरदान में सिर्फ यही मांगना चाहता हूं कि आप में और माता पार्वती में मेरी अगाध श्रद्धा भावना व भक्ति बनी रहे। मेरे मन में कभी भी कोई बुरा विचार न आए। मैं शांत हृदय से सदैव आपके नाम का स्मरण व चिंतन करता रहूं। मुझमें कभी भी आसुरी - तत्व घर न कर पाएं। यही वरदान मुझे प्रदान कीजिए,,

अंधक ये वचन कहकर पुनः भगवान शिव और माता पार्वती के ध्यान में मग्न हो गया। भगवान शिव की कृपादृष्टि उस पर पड़ते हो उसे अपने पहले जन्म का स्मरण हो गया। उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो गए। भक्तवत्सल भगवान शिव ने प्रसन्न होकर अंधक को अपना गण बना लिया और उसे उसका इच्छित वरदान प्रदान किया।

【श्रीरुद्र संहिता】

【पंचम खण्ड

पचासवाँ अध्याय 

"शुक्राचार्य को मृत संजीवनी की प्राप्ति"

सनत्कुमार जी बोले ;- हे व्यास जी ! अब मैं आपको यह बताता हूं कि दैत्यगुरु शुक्राचार्य को भगवान शिव से मृत्युंजय नामक मृत्यु को जीत लेने वाली उत्तम विद्या कैसे प्राप्त हुई ? एक बार की बात है, शुक्राचार्य वाराणसी नामक नगरी में जाकर भगवान विश्वनाथ का ध्यान करते हुए उनकी घोर तपस्या करने लगे। इससे पूर्व उन्होंने वहां भगवान शिव के शिवलिंग की स्थापना की तथा वहां एक रमणीक कुआं भी खुदवाया। तत्पश्चात उसमें शिवलिंग को बत्तीस सेर पंचामृत से एक लाख बार अभिषेक कराने के बाद सुंदर सुगंधित द्रव्यों से स्नान कराकर उस अमृतमय ज्योर्तिलिंग की स्थापना की। फिर शिवलिंग पर चंदन और यक्षकर्दम का लेप किया। राजचंपक, धतूर, कनेर, कमल, मालती, कर्णिकार, कदंब, मौलसिरी, उत्पल, मल्लिका (चमेली), शतपत्री, ढाक, सिंधुवार, बंधूकपुष्प, पुनांग, नागकेसर, केसर, नवमल्लिक, रक्तदला, कुंद मोतिया, मंदार, बिल्व पत्र, गूमा, मरुआ, वृक, गंठिवन, दौना, आम के पत्ते, तुलसी, देवजवासा, बृहत्पत्री, नांदरुख, अगस्त्य, साल, देवदारू, कचनार, कुरबक और कुरंतक के फूलों और अनेक प्रकार के पल्लवों से भगवान शिव की विधिवत पूजा-अर्चना की। भगवान शिव के सहस्र नामों का जाप कर उनकी स्तुति की। इस प्रकार दैत्य गुरु शुक्राचार्य पांच हजार वर्षों तक अनेक प्रकार एवं विधि-विधान से शिवजी का पूजन करते रहे परंतु जब भगवान शिव फिर भी प्रसन्न न हुए तो शुक्राचार्य ने और घोर तपस्या करने का निश्चय किया। तब उन्होंने इंद्रियों की चंचलता को दूर करने के लिए उसे भावना रूपी जल से प्रक्षालित किया और पुनः शिवजी की घोर तपस्या करने लगे। इस प्रकार एक सहस्र वर्ष बीत गए ।

   तब भृगुनंदन शुक्राचार्य की दृढ़तापूर्वक की गई उत्तम तपस्या को देखकर भगवान शिव बहुत प्रसन्न हो गए और उन्होंने अपने प्रकाशमय रूप के साक्षात दर्शन शुक्र को देने का निश्चय किया। पिनाकधारी भगवान शिव शुक्राचार्य द्वारा स्थापित किए गए शिवलिंग में से प्रकट हो गए,,,

 और बोले ;- हे भृगुनंदन ! महामुने! मैं आपकी इस घोर से बहुत प्रसन्न हूं। आप अपना इच्छित वर मुझसे मांग सकते हो। आपकी प्रत्येक इच्छा मैं अवश्य पूरी करूंगा। मांगो क्या मांगना चाहते हो?

भगवान शिव के इस प्रकार के उत्तम वचनों को सुनकर शुक्राचार्य ने देवाधिदेव भगवान शिव को प्रणाम किया और सिर झुकाकर अंजलि बांधकर जय-जय का उच्चारण करते हुए भगवान शिव की बहुत स्तुति की और शिवजी के चरणों में ही लेट गए। तब भगवान शिव ने उन्हें अपने चरणों से ऊपर उठाया और अपने हृदय से लगा लिया। 

तब भगवान शिव बोले ;-- हे शुक्र ! आपने जो यह मेरा ज्योर्तिलिंग स्थापित किया है और इसकी नियमपूर्वक कठिन आराधना की है, इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं। कहो क्या मांगना चाहते हो?

देवाधिदेव महादेव जी के वचन सुनकर शुक्र पुनः उनकी स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव ने देखा कि शुक्राचार्य कुछ नहीं मांग रहे हैं। भगवान शिव, जो कि सबके हृदयों की बात जानते हैं, संसार की कोई वस्तु उनसे न तो कभी छिपी है और न कभी छिप सकती है, 

   मुस्कुरा कर बोले ;- हे भृगुनंदन! हे महातपस्वी शुक्र ! आप निश्चय ही मेरे परम भक्त हैं। आपने इस पवित्र काशी नगरी में मेरे ज्योर्तिलिंग की स्थापना करके उत्तम मन से भक्तिमय आराधना की है। जिस प्रकार एक पुत्र अपने पिता का आदर एवं पूजन करता है, तुमने उससे भी बढ़कर कार्य किया है। अतः मैं तुम्हें यह वरदान देता हूं कि तुम अपने इसी रूप में मेरे उदर में प्रवेश करोगे तथा मेरे इंद्रिय मार्ग से निकलकर मेरे पुत्र के रूप में जन्म ग्रहण करोगे। तुम्हें मैं अपनी मृत संजीवनी नामक विद्या भी प्रदान करता हूं जिसे मैंने अपने तपोबल द्वारा रचा है। तुम्हारे अंदर तप की अनमोल निधि है, जो कि तुम्हारी योग्यता है। इस विद्या का प्रयोग जिस तुम मृत जीव पर भी करोगे, वह निश्चय ही जी उठेगा। तुम आसमान में चमकते हुए तारे के रूप में स्थित होगे और सभी ग्रहों में प्रधान माने जाओगे। जब तुम्हारा उदय होगा वह समय अति शुभ माना जाएगा और उसमें विवाह एवं सभी धर्मकार्य किए जा सकेंगे। सभी नंदा (प्रतिपदा, षष्ठी और एकादशी) तिथियां अत्यंत शुभ मानी जाएंगी।

  तुम्हारे द्वारा स्थापित किया गया यह ज्योर्तिलिंग, इस संसार में तुम्हारे ही नाम अर्थात 'शुक्रेश' नाम से विख्यात होगा। जो मनुष्य श्रद्धा और उत्तम भक्ति भाव से इसकी पूजा अर्चना करेंगे, उन्हें सिद्धि की प्राप्ति होगी। जो मनुष्य पूरे वर्ष शुक्रवार के दिन शुक्रताल में स्नान कर 'शुक्रेश' लिंग की अर्चना करेंगे, वे सौभाग्यशाली होंगे और उन्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। यह कहकर, देवाधिदेव महादेव उसी ज्योर्तिलिंग में समा गए। तत्पश्चात दैत्यगुरु प्रसन्न मन से अपने धाम को चले गए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें